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मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

स्मृति दीर्घा: --संजीव 'सलिल'

स्मृति दीर्घा:

संजीव 'सलिल'
*
स्मृतियों के वातायन से, झाँक रहे हैं लोग...
*
पाला-पोसा खड़ा कर दिया, बिदा हो गए मौन.
मुझमें छिपे हुए हुए है, जैसे भोजन में हो नौन..
चाहा रोक न पाया उनको, खोया है दुर्योग...
*
ठोंक-ठोंक कर खोट निकली, बना दिया इंसान.
शत वन्दन उनको, दी सीख 'न कर मूरख अभिमान'.
पत्थर परस करे पारस का, सुखमय है संयोग...
*
टाँग मार कर कभी गिराया, छुरा पीठ में भोंक.
जिनने अपना धर्म निभाया, उन्नति पथ को रोक.
उन का आभारी, बचाव के सीखे तभी प्रयोग...
*
मुझ अपूर्ण को पूर्ण बनाने, आई तज घर-द्वार.
कैसे बिसराऊँ मैं उनको, वे मेरी सरकार.
मुझसे मुझको ले मुझको दे, मिटा रहीं हर सोग...
*
बिन शर्तों के नाते जोड़े, दिया प्यार निष्काम.
मित्र-सखा मेरे जो उनको सौ-सौ बार सलाम.
दुःख ले, सुख दे, सदा मिटाए मम मानस के रोग...
*
ममता-वात्सल्य के पल, दे नव पीढी ने नित्य.
मुझे बताया नव रचना से थका न अभी अनित्य.
'सलिल' अशुभ पर जयी सदा शुभ, दे तू भी निज योग...
*
स्मृति-दीर्घा में आ-जाकर, गया पीर सब भूल.
यात्रा पूर्ण, नयी यात्रा में साथ फूल कुछ शूल.
लेकर आया नया साल, मिल इसे लगायें भोग...

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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2009

कविताएँ: विस्थापन की त्रासदी --मदन गोपाल लढ़ा

कविताएँ:

विस्थापन की त्रासदी

मदन गोपाल लढ़ा

madanrajasthani@ gmail.com




राजस्थान के मरुकांतार क्षेत्र में वर्ष 1984 में सेना के तोपाभ्यास हेतु महाजन फ़ील्ड फ़ायरिंग रेंज की स्थापना हुई तो चौंतीस गांवों को उजड़ना पड़ा। ये कविताएँ विस्थापन की त्रासदी को सामुदायिक दृष्टिकोण से प्रकट करती हैं। कविताओं में प्रयुक्त मणेरा, भोजरासर, कुंभाणा उन विस्थापित गावों के नाम हैं जो अब स्मृतियों में बसे हैं।

1.

मरे नहीं हैं

शहीद हुए हैं

एक साथ

मरूधरा के चौंतीस गाँव

देश की ख़ातिर।

सेना करेगी अभ्यास

उन गाँवों की ज़मीन पर

तोप चलाने का

महफ़ूज रखेगी

देश की सरहद।

पर क्या देश के लोग

उन गाँवों की शहादत को

रखेंगे याद?

2.

गाड़ों में

लद गया सामान

ट्रालियों में

भर लिया पशुधन

घरों के

दरवाज़े-खिड़कियाँ तक

उखाड़ कर डाल लिए ट्रक में

गाँव छोड़ते वक़्त्त लोगों ने

मगर

अपना कलेजा

यहीं छोड़ गए।

3.

किसी भी कीमत पर

नहीं छोड़ूँगा गाँव

फूट-फूट कर रोए थे बाबा

गाँव छोड़ते वक़्त।

सचमुच नहीं छोड़ा गाँव

एक पल के लिए भी

भले ही समझाईश के बाद

मणेरा से पहुँच गए मुंबई

मगर केवल तन से

बाबा का मन तो

आज भी

भटक रहा है

मणेरा की गुवाड़ में।

बीते पच्चीस वर्षों से

मुंबई में मणेरा को ही

जी रहे हैं बाबा।

4.

घर नहीं

गोया

छूट गया हो पीछे

कोई बडेरा

तभी तो

आज भी रोता है

मन

याद करके

अपने गाँव को।

5.

तोप के गोलों से

धराशाई हो गई हैं छतें

घुटनें टेक दिए हैं दीवारों ने

जमींदोज हो गए हैं

कुएँ

खंडहर में बदल गया है

समूचा गाँव

मगर यहाँ से कोसों दूर

ऐसे लोग भी हैं

जिनके अंतस में

बसा हुआ है

अतीत का अपना

भरा-पूरा गाँव

6.

अब नहीं उठता धुआँ

सुबह-शाम

चूल्हों से

मणेरा गाँव में।

उठता है

रेत का गु्बार

जब दूर से आकर

गिरता है

तोप का गोला

धमाके के साथ

और भर जाता है

मणेरा का आकाश

गर्द से।

यह गर्द नहीं

मंज़र है यादों का

छा जाता है गाँव पर

लोगों के दिलों में

उठ कर

दूर दिसावर से।

7.

उस जोहड़ के पास

मेला भरता था

गणगौर का

चैत्र शुक्ला तीज को

सज जाती

मिठाई की दुकानें

बच्चों के खिलोने

कठपुतली का खेल

कुश्ती का दंगल

उत्सव बन जाता था

गाँव का जीवन।

उजड़ गया है गाँव

अब पसरा है वहाँ

मरघट का सूनापन

हवा बाँचती है मरसिया

गाँव की मौत पर।

8.

गाँव था भोजरासर

कुंभाणा में ससुराल

मणेरा में ननिहाल

कितना छतनार था

रिश्तों का वट-वृक्ष।

हवा नहीं हो सकती यह

ज़रूर आहें भर रहा है

उजाड़ मरुस्थल में पसरा

रेत का अथाह समंदर।

गाँवों के संग

उजड़ गए

कितने सारे रिश्ते।


9.


कौन जाने

किसने दिया श्राप

नक्शे से गायब हो गए

चौंतीस गाँव।

श्राप ही तो था

अन्यथा अचानक

कहाँ से उतर आया

ख़तरा

कैसे जन्मी

हमले की आशंका

हँसती-खेलती ज़िन्दगी से

क्यों ज़रूरी हो गया

मौत का साजो-सामान?

हज़ार बरसों में

नहीं हुआ जो

क्योंकर हो गया

यों अचानक।


10.


आज भी मौज़ूद है

उजड़े भोजरासर की गुवाड़ में

जसनाथ दादा का थान

सालनाथ जी की समाधि

जाल का बूढ़ा दरखत

मगर गाँव नहीं हैं।

सुनसान थेहड में

दर्शन दुर्लभ हैं

आदमजात के

फ़िर कौन करे

सांझ-सवेरे

मन्दिर मे आरती

कौन भरे

आठम का भोग

कौन लगाए

पूनम का जागरण

कौन नाचे

जलते अंगारों पर।

देवता मौन है

किसे सुनाए

अपनी पीड़ा।



11.


अब नहीं बचा है अंतर

श्मशान और गाँव में।

रोते हैं पूर्वज

तड़पती है उनकी आत्मा

सुनसान उजड़े गाँव में

नहीं बचा है कोई

श्राद्ध-पक्ष में

कागोल़ डालने वाला

कव्वे भी उदास हैं।

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शनिवार, 3 अक्टूबर 2009

दो कवितायेँ; लावण्या शर्मा, अमेरिका

दो कवितायेँ-

लावण्या शर्मा, अमेरिका

(हिंदी साहित्य और चल-चित्र जगत के अनुपम गीतकार पं. नरेन्द्र शर्मा कि सुपुत्री लावण्या जी के गीतों में पिता से विरासत में मिले सनातन भारतीय संस्कारों की झलक और गूँज है. प्रस्तुत हैं दिव्य नर्मदा के पाठकों के लिए भेजी गयी दो विशेष रचनाएँ-सं.)

अहम ब्रह्मास्मि

असीम अनन्त, व्योम, यही तो मेरी छत है!
समाहित तत्त्व सारे, निर्गुण का स्थायी आवास
हरी-भरी धरती, विस्तरित, चतुर्दिक-
यही तो है बिछौना, जो देता मुझे विश्राम!
हर दिशा मेरा आवरण, पवन आभूषण -
हर घर मेरा जहाँ पथ मुड जाता स्वतः मेरा,
पथिक हूँ, हर डग की पदचाप -
विकल मेरा हर श्वास, तुमसे, आश्रय माँगता!

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श्वेत श्याम


दिवस-रात, श्वेत-श्याम,
एक उज्ज्वल, दूजा घन तमस
बीच मेँ फैला इन्द्रधनुष,
उजागर, किरणों का चक्र,
एक सूर्य के आगमन पर,
उसके जाते सब अन्तर्ध्यान!
तमस, जडता का फैलता साम्राज्य !
चन्द्र दीप, काले काले आसमाँ पर,
तारोँ नक्षत्रों की टिमटिमाहट,
सृष्टि के पहले, ये कुछ नहीं था -
सब कुछ ढँका था एक अँधेरे मेँ,
स्वर्ण गर्भ, सर्वव्यापी, एक ब्रह्म
अणु-अणु मेँ विभाजित, शक्ति-पुंज!
मानव, दानव, देवता, यक्ष, किन्नर,
जल-थल-नभ के अनगिनत प्राणी,
सजीव-निर्जीव, पार्थिव-अपार्थिव
ब्रह्माण्ड बँट गया कण-क़ण मेँ जब,
प्रतिपादित सृष्टि ढली संस्कृति में तब!

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