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गुरुवार, 1 अगस्त 2019

विचारोत्तेजक लेख: कायस्थों का महापर्व नागपंचमी

विचारोत्तेजक लेख: 
कायस्थों का महापर्व नागपंचमी 
संजीव 
*
कायस्थोंके उद्भव की पौराणिक कथाके अनुसार उनके मूल पुरुष श्री चित्रगुप्तके २ विवाह सूर्य ऋषिकी कन्या नंदिनी और नागराजकी कन्या इरावती हुए थे। सूर्य ऋषि हिमालय की तराईके निवासी और आर्य ब्राम्हण थे जबकि नागराज अनार्य और वनवासी थे। इसके अनुसार चित्रगुप्त जी ब्राम्हणों तथा आदिवासियों दोनों के जामाता और पूज्य हुए। इसी कथा में चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों नागराज वासुकि की १२ कन्याओं से साथ किये जाने का वर्णन है जिनसे कायस्थों की १२ उपजातियों का श्री गणेश हुआ।
इससे स्पष्ट है कि नागों के साथ कायस्थॉ का निकट संबंध है। आर्यों के पूर्व नाग संस्कृति सत्ता में थी। नागों को विष्णु ने छ्ल से हराया। नाग राजा का वेश धारण कर रानी का सतीत्व भंग कर नाग राजा के प्राण हरने, राम, कृष्ण तथा पान्ड्वों द्वारा नाग राजाओं और प्रजा का वध करने, उनकी जमीन छीनने, तक्षक द्वारा दुर्योधन की सहायता करने, जन्मेजय द्वारा नागों का कत्लेआम किये जाने, नागराज तक्षक द्वारा फल की टोकनी में घुसकर उसे मारने के प्रसंग सर्व ज्ञात हैं।
यह सब घट्नायें कयस्थों के ननिहाल पक्ष के साथ घटीं तो क्या कायस्थों पर इसका कोई असर नहीं हुआ? वास्तव में नागों और आर्यों के साथ समानता के आधार पर संबंध स्थापित करने का प्रयास आर्यों को नहीं भाया और उन्होंने नागों के साथ उनके संबंधियों के नाते कायस्थों को भी नष्ट किया। महाभारत युद्ध में कौरव और पांडव दोनों पक्षों से कायस्थ नरेश लड़े और नष्ट हुए। बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना....
कालान्तर में शान्ति स्थापना के प्रयासों में असंतोष को शांत करने के लिए पंचमी पर नागों का पूजनकर उन्हें मान्यता तो दी गयी किन्तु ब्राम्हण को सर्वोच्च मानने की मनुवादी मानसिकता ने आजतक कार्य पर जाति निर्धारण नहीं किया। श्री कृष्ण को विष्णु का अवतार मानने की बाद भी गीता में उनका वचन 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुण कर्म विभागष:' को कार्य रूप में नहीं आने दिया गया।
कायस्थों को सत्य को समझना होगा तथा आदिवासियों से अपने मूल संबंध को स्मरण और पुनर्स्थापित कर खुद को मजबूत बनाना होगा। कायस्थ और आदिवासी समाज मिलकर कार्य करें तो जन्मना ब्राम्हणवाद और छद्म श्रेष्ठता की नींव धसक सकती है। सभी सनातन धर्मी योग्यता वृद्धि हेतु समान अवसर पायें, अर्जित योग्यतानुसार आजीविका पायें तथा पारस्परिक पसंद के आधार पर विवाह संबंध में बँधने का अवसर पा सकें तो एक समरस समाज का निर्माण हो सकेगा। इसके लिए कायस्थों को अज्ञानता के घेरे से बाहर आकर सत्य को समझना और खुद को बदलना होगा।
नागों संबंध की कथा पढ़ने मात्र से कुछ नहीं होगा। कथा के पीछे का सत्य जानना और मानना होगा। संबंधों को फिर जोड़ना होगा। नागपंचमी के समाप्त होते पर्व को कायस्थ अपना राष्ट्रीय पर्व बना लें तो आदिवासियों और सवर्णों के बीच नया सेतु बन सकेगा।
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१-८-२०१६
salil.sanjiv@gmail.com
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#हिंदी_ब्लॉगर

बुधवार, 31 जुलाई 2019

मिथकों में केलि-प्रसंग, काम

मिथकों में केलि-प्रसंग
*
'विश्वैक नीड़ं' और 'वसुधैव कुटुम्बकं' का सत्य मिथकों से भी प्रमाणित होता है। सृष्टि की रचना महतविस्फोट जनित ध्वनि-तरंगों के आकर्षण-अपकर्षण, टकराव-बिखराव, कण के जन्म और कण द्वारा भार ग्रहण करने से होना धर्म, दर्शन और अध्यात्म सभी को मान्य है। चित्र 'गुप्त' से 'प्रगट' हुआ, निराकार से साकार जन्मा। निहारिका, आकाश गंगा, सौरमंडल और पृथ्वी के अस्तित्व में आने पर पञ्च तत्वों नेअपनी भूमिका निभाते हुए जीव को विकसित किया। तदनन्तर जलचर (मत्स्यावतार), जल-थलचर (कच्छपावतार), थल-जलचर (वाराहावतार), थलचर या अर्धपशु (नृसिंहावतार), अर्ध मानव (वामनावतार), हिंस्र मानव (परशुरामावतार), कृषि मानव (शिव व रामावतार), पशु पालक मानव (कृष्ण), बुद्धिप्रधान मानव (बुद्धावतार) का आविर्भाव हुआ। इस क्रम में मिथकों ने महती भूमिका निभाई है। डायनासौर, मैमथ, हिम युग, जल प्लावन, कल्प-कल्प में देवासुर संग्राम के माध्यम से  निर्माण से विनाश और विनाश से निर्माण का दुहराव हर भूभाग में हुआ है। वर्तमान कल्प में लगभग ७ करोड़ वर्ष पूर्व हुए ज्वालामुखियों के ठन्डे होने पर गोंडवाना शिलाओं और नर्मदा नदी आदि का जन्म हुआ।लगभग १२ लाख वर्ष पूर्व भारतीय भूखंड और चीनी भूखंड के टकराव के फलस्वरूप शिशु पर्वत हिमालय और १० लाख वर्ष पूर्व टेथीज महासागर के भरने से गंगा का जन्म हुआ। यही एकाल खंड राम का है जिसमें जंबूद्वीप के साथ थाईलैंड मलेशिया आदि जुड़े थे इसलिए राम कथा का विस्तार वहां तक हुआ। कृष्ण के काल तक वे आर्यावर्त से अलग हो चुके थे इसलिए कृष्ण कथा भारत तक ही सीमित रह गयी। रामकथा में वानरराज बाली अनुज सुग्रीव की पत्नी रुक्मा से बलात संबंध बनाता है। बाली वध के पश्चात्  सुग्रीव बाली पत्नी तारा तथा  रुक्मा दोनों को पत्नी बना लेता है तथापि तारा को पंचकन्याओं में रखा गया। 

वर्तमान मानव सभ्यता के आदि मानव ने १० लाख वर्षों में बबून, गिबन, ओरांगउटान, गोरिल्ला, चिम्पांजी, होमोइरेक्टस, होमोसेपियंस से उन्नत होते हुए लगभग ३५ हजार वर्ष पूर्व शैलचित्र बनाये, फिर उच्चार सीखकर, वाक्, भाषा और कहने-सुनने का काल, कथाओं, वार्ताओं, चर्चाओं विमर्श तक आ पहुँचा। इस प्रक्रिया में मिथक मानव जीवन के हर अचार-विचार के साथी बने रहे। सत-चित-आनंद, सत-शिव-सुंदर अथवा सत-रज-तम अर्थ धर्म, दर्शन, नीति आदि का विकास इन्हीं मिथकों से हुआ। मानव केलि का मूल इन्हीं मिथकों में है। ब्रम्ह-ब्रम्हांड, आकाश-पृथ्वी-पटल, सूर्य-उषा, चंद्र-ज्योत्सना, गिरि-सलिला-सागर, सावन-बसंत-फागुन, मेघ-दामिनी-वर्षा आदि प्रकृति की केलि कीड़ा के संवाहक बनाकर सुख-दुःख देते रहे हैं। दश-दशावतार-दशरथ-दशानन, वसु-वसुदेव-वासुकि, नू-नट-नटवर-नटराज, दिति-दैत्य,अदिति-आदित्य, सुर-असुर, पञ्च-पञ्चक-पाञ्चाल-पाण्डव, शिव-शिवा, शंभु-शांभवी, शुंभ-निशुंभ, देह दुर्ग-दुर्गा-दुर्गतिनाशिनी, विषाणु-विष्णु-लक्ष्मी, जियस-एफ्रोडाइट, इंटी-वीराकोचा, आइसिस-हाथोर, सिंह-व्याघ्र-गज-ऋक्ष-विडाल-श्वान, वंशलोचन-शिलाजीत, इंद्र-कार्तिकेय, ईश्तर-अमातेरासु,  गरुण, मगर, शेष, कच्छप, वानर, किन्नर, गंधर्व आदि मिथक प्रणय देवी वीनस और एफ्रोडाइट आदि बल-रूप-कला-सौंदर्य-काम-भोग आदि  मिथक-मुक्ताओं की माला ही मानव सभ्यता है। धर्म, कर्तव्य, कर्म, कर्म काण्ड, पाठ, जप, लीला आदि में काम की उपस्थिति सर्वत्र है। दक्षिण भारत की द्रविड़ कथाओं में शिव-काली के मध्य श्रेष्ठता का निर्णय नृत्य कला प्रदर्शन से होता है। शिव एक पैर ऊपर उठाकर जिस नृत्य मुद्रा को साधकर जयी होते हैं, साध्य होते हुए भी गुप्तांग दिखने की आशंका से काली उसे नहीं साधतीं। लिंगायत प्रकारी की समुद्र कथा के अनुसार शिव के विषपान करने पर प्रश्न होते ही मनसा देवी द्वारा विष हरण का दृष्टांत उपस्थित कर दिया गया। शिव विषपायी के साथ मृत्युंजय भी हो गए। राम की पीक को भूल से कुछ दसियों ने पी लिया और अगस्त्य मुनि के आश्रम में ऋषि के सौंदर्य पर मोहित होकर स्त्री रूप में रमन के एकाम्ना करने लगे तो उन्हें अगले जन्म में गोपी के रूप में जन्म लेकर कृष्ण के साथ रमण का दृष्टांत सामने आ गया। असुर राज जालंधर से देवताओं की रक्षा के लिए विष्णु ने छल से उसकी पत्नी वृन्दा का सतीत्व भंग किया। अमृत मंथन के समय मोहिनी रूप धारण कर असुरों को अमृत से वंचित रखा। पवन पुत्र हनुमान और उनके पुत्र मकरध्वज के जन्म की कथाएं विविध योनियों में काम संबंध का प्रतिफल है। भीम-हिडिम्बा का विवाह भी इसे तरह का है। 

काम-केलि (जियस) की जातक कथाएँ

भारत में बौद्ध और जैन धर्मों में बुद्ध और महावीर  की जातक कथाएँ हैं जिनमें वे विविध योनियों में जन्म लेकर धर्म-ज्ञान देते हैं। 

भारत में काम क्रीड़ा के संदर्भ में सुरों और असुरों के आचरण में विशेष अंतर नहीं है। ब्रह्मा-सरस्वती, इंद्र-अहल्या, विष्णु-वृंदा, कारण और पांडवों का जन्म, द्रौपदी के पंच पति आदि काम शुचिता पर प्रश्न चिन्ह उपस्थित करते हैं। भोले शिव को भस्मासुर से बचने के लिए विष्णु मोहिनी रूप धारण कर उसका अंत करते हैं। 

ग्रीस में जियस भी विविध योनियों में जन्म लेकर केलि क्रीड़ा करता है। भारतीय मिथकों में काम संतुष्टि हेतु निकट संबंधों को ताक पर रखे जाने के भी असंख्य उदाहरण हैं। यांग-यिंग, पान-गुट, गेब-नुट, रांगी-पापा, अम्मा-डोगोन, देवराज इंद्र, ग्रीक देवराज जियस आदि ने केलि संबंधों में सामाजिक मर्यादा को आड़े नहीं आने दिया।

जियस ने बुद्धि की टाइटनी मेटिस से प्रणय किया। यह भय होने पर कि पुत्र उसे अपदस्थ कर देगा उसने गर्भवती मेटीस को निगल लिया। जिस ट्रॉय राजकुमार गेनीमेड पर आसक्त हो बाज बनकर उसे ओलम्पियस पर्वत पर ले गया। 

सौंदर्य और प्रेम की देवी एफ्रोडाइट के कई देवों और मानवों से संबंध और संतानें वर्णित हैं। वह जियस की पत्नी हेरा को हराकर केलि क्रीड़ा में दक्षता से जियस को वश में कर सकी।  केलि क्रीड़ा में निपुण सखियों चेरीटेस व होराई के सहायता से वह जिसे चाहती जीत लेती। लुहार पति हेफेस्टस के साथ वह जेठ और देवर से भी काम सुख पाती रही। वह युद्ध देवता ऐरेस, उन्माद के देवता डोयानिसिस तथा सौभाग्य के देवता हर्मीस वाक् की पर्यंक शायनी  भी रही। एफ्रोडाइट को ऐरेस से कामदेव ऐरॉस, हर्मीस से उभयलिंगी हर्माफ्रोडायटस, डायोनोसिस से उत्थित लिंगधारी प्रियापस एवं  ऐंचिसेक्स से ऐनियास  पुत्र हुए। वह निर्द्वन्द प्रेम और रति में निमग्न रहती थी। असीरिया सम्राट सिन्यारस की अप्रतिम सुंदर पुत्री स्याइर्ना से ईर्ष्या वश उसने सिन्यारस की कामवासना को इतना उत्तेजित किया कि उसने पुत्री को ही गर्भवती कर दिया तथा निंदा भय से हत्या करना तय किया।  एफ्रोडाइट ने स्याइर्ना को बचाकर उसके पुत्र एडोनिस को पालने हेतु पाताल साम्राज्ञी पर्सिफ़ोन को दे दिया। एडोनिस के युवा होने पर दोनों ने उससे यौन संबंध बनाये। एडोनिस-एफ्रोडाइट की ३ संतानें हुईं। जियस ने हंस बनकर सुंदरी देवी लीडा को हंसिनी बनाकर पंखों से कटी से जहां प्रदेश को कसकर कामबंध बनाकर संभोग किया। इससे उत्पन्न २ अण्डों से २ मानवों हेलन और क्लाइटैमनेस्ट्रो तथा २ जुड़वाँ देव पुत्रों क्रेस्टर व पोलेक्स का जन्म हुआ। जियस ने सांड बनकर डिओ से संभोग किया। प्रचंड कामावेग से डिओ अति शक्तिशाली हो गयी और इजिप्ट में जाकर देवी हो गयी। जियस ने नारी कोरी से सर्प बनकर संभोग किया। उसने श्वेत वृषभ बनकर यूरोपा का अपहरण कर उसे पेट पर आरूढ़ करा पुरुषायित बंध बनाया और स्वर्ण फुहार का वर्षण करते हुए संभोग किया।  मिनोस की रानी पेसीफे ने कामोन्मत्त होकर साँड़ के साथ सम्भोग किया और मिनोटोरों को (अर्ध वृषभ-अर्ध मानव) जन्म दिया। मदिरा तथा उन्माद देवता डायोनिसस से सेंटारा (अर्ध अश्व-अर्ध मानव) अस्तित्व में आये।

हवाई द्वीप समूह, न्यूजीलैंड व आस्ट्रलिया का धूर्त नायक माउई ने दैत्य ईल-ते-तूना को विशाल लिंग से मारकर उसकी स्वेच्छाचारिणी पत्नी को पाया। उसने पाताल की देवी हाइने के शरीर में प्रवेश कर लिया, देवी जाग गयी और उसे मार डाला।

केलि गौड़, प्रीत प्रमुख

मिथकों में अमान्य केलि संबंध ही नहीं हैं। वृद्ध स्यावन ऋषि की अतिसुन्दरी पत्नी सुकन्या ने अश्विनीकुमारों का प्रणय प्रस्ताव ठुकरा दिया। अश्विनों ने ऋषि को युवा कर, तीनों में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया। सुकन्या ने ऋषि को ही चुना। ग्रीक ओड़िसिस की पत्नी पेनीलोप को श्वसुर ने विवाह हेतु विवश किया। पेनलोप ने पाजामा पूरा बुन लेने पर विवाह का वायदा किया।  वह हर दिन बुनती और रात को उधेड़ देती। उसने पति के आने तक पाजामा पूरा नहीं होने दिया।

उमा ने अपने रूप पर मुग्ध मधु-कैटभ का वध किया। दुर्गा द्वारा शिव का वरण करने पर शिव वध हेतु तत्पर पूर्व शिवभक्त शुंभ-निशुम्भ के साथ प्रणय-अभिनय कर उनका वध किया। सीता ने राक्षसराज द्वारा हरण किये जाने के बाद भी राम को छोड़कर उसका वरन स्वीकार नहीं किया। राम ने रावण वध कर सीता को पाया किन्तु लोकापवाद के कारण गर्भवती सीता का त्याग कर दिया। सीता ने राम पुत्र लव-कुश को जन्म देकर उनका पालन किया। राम सीता की स्वर्ण प्रतिमा को वाम रखकर यज्ञादि करते रहे। पवित्रता का प्रमाण माँगे जाने पर सीता पृथ्वी में समा गईं। यम-यमी भाई -बहिन थे। यमी द्वारा केलि संबंध का आग्रह करने पर भी यम ने स्वीकार नहीं किया।

केलि-दर्शन दंडनीय

मिथकों में ऐसे भी प्रसंग हैं जब दो केलिरत प्रेमियों की कामक्रीडा देखने या उसमें विघ्न उपस्थित करने पर दंड दिया गया। किसी समय देव गण बिना पूर्व सूचना के शिव के समीप उपस्थित हो गए। तब निर्वासना पार्वती लजाकर शिव से लिपट गईं। शिव ने देवताओं को शाप दिया कि को इलावर्त पर्वत पर आएगा स्त्री रूप में परिवर्तित हो जायेगा। सुद्यम्न वहां पहुंचे तो स्त्री हो गए, चंद्र पुत्र बुध से मिलन और पुत्र पुरुरवा का जन्म हुआ। दमयंती पर मोहासक्त नारद भी स्त्री हो गए और विवाह कर कन्याओं को जन्म दिया।

कन्या पूजनीय

भारत में नौ दुर्गा महापर्व पर कन्या पूजन प्रचलित है। विद्या, धन तथा धन की त्रिदेवियाँ सर्वमान्य हैं।

ग्रीस की क्वाँरी देवी आर्तेमिस योनि शुचिता की पर्याय है। किशोरियों तथा शिकारियों की आराध्या आर्तेमिस कठोर दण्ड देती है। आर्केडिया में चाँदनी रात में नृत्य महोत्सव में आराधिकाएँ 'आर्कतोई' (कुमारियाँ) लिंगाकृत पोषक पहन कर नृत्य करतीं थीं, नर बलि होती थी। किसी समय आर्तेमिस स्नान कर रही थी। एक्टाओन छल कर मृग रूप धारण कर उसके निर्वासन रूप का रस पान करने लगा। एक्टाओन के जंगली कुत्तों ने उसके चिथड़े कर दिए। ज्ञान की देवी एथेना ने योनि शुचिता के लिए सुहाग सेज से हेफाइस्टस को धक्के मार कर नीचे गिरा दिया। उसका वीर्य भूमि पर गिरा जिससे एरिकथॉनियस नामक सर्प-शिशु जन्मा जिसने बढ़ होने पर एक बार एथेना को स्नान करते हुए निर्वसना देख लिया, उसे अंधत्व की सजा दी गयी। 

 लिंग-योनि पूजन / अर्धनारीश्वर और उभय लिंगी 

भारत और विदेशों में भी लिंग और योनि पूजक संप्रदाय हुए हैं। शिव पुराण के अनुसार ब्रह्मा तथा विष्णु में श्रेष्ठता का विवाद होने पर पटल से आकाश तक विराट लिंग प्रगट हुआ। ब्रम्हा हंस बनकर उसकी ऊँचाई तथा विष्णु वाराह बनकर उसकी गहराई नहीं नाप सके। दोनों ने प्राथना की तो उस लिंग के पार्श्व में योनि का उद्भव हुआ और शिव प्रगट हुए। इसीलिए शिव अर्धनारीश्वर कहलाए। मोहनजोदारो का पशुपति उत्थित लिंगी है। स्केंडिनेविया के फ्रे-फ्रेया तंत्र मार्ग में, इजिप्ट में  बबून, ग्रीस में प्रियपास आदि उत्थित (विशाल) लिंगी हैं। डायोनीसस, डिमीटर, ओसाईरस, जापान के शिंटो मत, भारत में चर्वाक-वाम मार्गियों आदि में शिश्न पूजन प्रचलित था। लिंगायत शिव भक्त गले में शिवलिंग धारण करते हैं। 
ग्रीक एफ्रोडाइट तथा हरमीज का पुत्र उभयलिंगी हर्माफ्रोडाइटिस, १५ वर्ष की उम्र में माता एफ्रोडाइट के साथ एशिया माइनर आया जहाँ जलपरी सलमाकिस उस पर मुग्ध हो गयी। ठुकराए जाने पर उसने स्नान करते हर्माफ्रोडाइटिस को आलिंगन में जकड लिया और उसे में समा गयी। फलत: हर्माफ्रोडाइटिस बारी-बारी से स्त्रैण युवक और पौरुषेय युवती होता था। 

नायक-नायिका भेद
कालांतर में इन मिथकों का स्थान चक्रों, आसनों, शक्ति आदि ने लिया। सर्प, वृषभ और अश्व ही नहीं तोता-मैना आदि भी काम संदर्भों में प्रयुक्त हुए। भरत ने नायक के चार भेद किए हैं : धीरललित, धीरप्रशान्त, धीरोदात्त, धीरोद्धत। "अग्निपुराण" में इनके अतिरिक्त चार और भेदों का उल्लेख है : अनुकूल, दर्क्षिण, शठ, धृष्ठ।  भानुदत्त (1300 ई.) ने "रसमंजरी" में एक नया वर्गीकरण दिया, जिसे आगे चलकर प्रधान वर्गीकरण माना गया। यह है : पति, उपपति वेशिक। 

भरत के अनुसार नायिका के आठ भेद वासकसज्जा, विरहोत्कंठिता, स्वाधीनपतिका, कलहांतरिता, खंडिता, विप्रलब्धा, प्रोषितभर्तृका तथा अभिसारिका हैं। नायिका के पद्मिनी, चित्रिणी, शंखिनी तथा हस्तिनी अदि भेद भी बताये गए हैं। रुद्रट ("काव्यालंकार", नवीं शताब्दी) तथा रुद्रभट्ट (शृंगारतिलक, ९००-११०० ई.) ने -षोडष भेद स्वकीया, परकीया, सामान्या, स्वकीया : मुग्धा, मध्या, प्रगल्भा, मध्या तथा प्रगल्भा : धीरा, मध्या (धीराधीरा), अधीरा, मध्या तथा प्रगल्भा; पुन: ज्येष्ठा, कनिष्ठा, परकीया : ऊढा, अनूढा (कन्या) को मान्यता दी। "सुखसागरतरंग" का अंश भेद प्रसिद्ध है : देवी (सात वर्ष की अवस्था तक), देवगंधर्वी (सात से चौदह तक), गंधर्वी (चौदह से इक्कीस तक), गंधर्वमानुषी (इक्कीस से अट्ठाईस तक), मानुषी (अट्ठाईस से पैंतीस वर्ष की अवस्था तक)। नायिकाभेद का सर्वाधिक विस्तार रसलीन के "रसप्रबोध" में है। १. मुग्धा, मध्या तथा प्रगल्भा के अनेक प्रभेद; २. पतिदु:खिता स्वकीया : मूढपतिदु:खिता, बाल., वृद्ध.; ३. परकीया : अद्भुता, उद्भूदिता (तोष के उद्बुद्धा तथा उद्बोधिता भेदों से अभिन्न); ४. परकीया : आसाध्या, सुखसाध्या (प्रथमके पाँच तथा द्वितीय के आठ प्रभेद); ५. स्वकीया तथा परकीया : कामवती, अनुरागिनी, प्रेम अशक्ता; ६. सामान्या के चार प्रभेद; ७. अनेक परिस्थितिभेदों के प्रभेद; ८. "सुखसागरतरंग" के आधार पर विभिन्न नायिकाओं की आयुसीमा का निर्धारण।

भारत कोक शास्त्र और काम शास्त्र का विधिवत अध्ययन कर ८४ आसनों का निर्धारण किया। महर्षि वात्स्यायन ने वैज्ञानिक विधि से काम को चार पुरुषार्थों में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिद्ध किया। अर्थ का अर्जन ही काम पूर्ति हेतु है। काम ही धर्म की साधना का आधार है। काम पूर्ति में ही मोक्ष है। रसानंद को परमानंद तुल्य कहा गया है। पश्चिम में केलि क्रीड़ा वासना तक सीमित हो कर रह गयी है जबकि भारत में यह व्यक्तित्व के विकास का माध्यम है। 
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संपर्क: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्ववाणी हिंदी संस्थान,  ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, ईमेल  salil.sanjiv@gmail.com  
   




























  

मंगलवार, 1 अगस्त 2017

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विचारोत्तेजक लेख:
कायस्थों का महापर्व नागपंचमी
संजीव
*
कायस्थोंके उद्भव की पौराणिक कथाके अनुसार उनके मूल पुरुष श्री चित्रगुप्तके २ विवाह सूर्य ऋषिकी कन्या नंदिनी और नागराजकी कन्या इरावती हुए थे। सूर्य ऋषि हिमालय की तराईके निवासी और आर्य ब्राम्हण थे जबकि नागराज अनार्य और वनवासी थे। इसके अनुसार चित्रगुप्त जी ब्राम्हणों तथा आदिवासियों दोनों के जामाता और पूज्य हुए। इसी कथा में चित्रगुप्त जी के १२ पुत्रों नागराज वासुकि की १२ कन्याओं से साथ किये जाने का वर्णन है जिनसे कायस्थों की १२ उपजातियों का श्री गणेश हुआ।
इससे स्पष्ट है कि नागों के साथ कायस्थॉ का निकट संबंध है। आर्यों के पूर्व नाग संस्कृति सत्ता में थी। नागों को विष्णु ने छ्ल से हराया। नाग राजा का वेश धारण कर रानी का सतीत्व भंग कर नाग राजा के प्राण हरने, राम, कृष्ण तथा पान्ड्वों द्वारा नाग राजाओं और प्रजा का वध करने, उनकी जमीन छीनने, तक्षक द्वारा दुर्योधन की सहायता करने, जन्मेजय द्वारा नागों का कत्लेआम किये जाने, नागराज तक्षक द्वारा फल की टोकनी में घुसकर उसे मारने के प्रसंग सर्व ज्ञात हैं।
यह सब घट्नायें कयस्थों के ननिहाल पक्ष के साथ घटीं तो क्या कायस्थों पर इसका कोई असर नहीं हुआ? वास्तव में नागों और आर्यों के साथ समानता के आधार पर संबंध स्थापित करने का प्रयास आर्यों को नहीं भाया और उन्होंने नागों के साथ उनके संबंधियों के नाते कायस्थों को भी नष्ट किया। महाभारत युद्ध में कौरव और पांडव दोनों पक्षों से कायस्थ नरेश लड़े और नष्ट हुए। बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना....
कालान्तर में शान्ति स्थापना के प्रयासों में असंतोष को शांत करने के लिए पंचमी पर नागों का पूजनकर उन्हें मान्यता तो दी गयी किन्तु ब्राम्हण को सर्वोच्च मानने की मनुवादी मानसिकता ने आजतक कार्य पर जाति निर्धारण नहीं किया। श्री कृष्ण को विष्णु का अवतार मानने की बाद भी गीता में उनका वचन 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुण कर्म विभागष:' को कार्य रूप में नहीं आने दिया गया।
कायस्थों को सत्य को समझना होगा तथा आदिवासियों से अपने मूल संबंध को स्मरण और पुनर्स्थापित कर खुद को मजबूत बनाना होगा। कायस्थ और आदिवासी समाज मिलकर कार्य करें तो जन्मना ब्राम्हणवाद और छद्म श्रेष्ठता की नींव धसक सकती है। सभी सनातन धर्मी योग्यता वृद्धि हेतु समान अवसर पायें, अर्जित योग्यतानुसार आजीविका पायें तथा पारस्परिक पसंद के आधार पर विवाह संबंध में बँधने का अवसर पा सकें तो एक समरस समाज का निर्माण हो सकेगा। इसके लिए कायस्थों को अज्ञानता के घेरे से बाहर आकर सत्य को समझना और खुद को बदलना होगा।
नागों संबंध की कथा पढ़ने मात्र से कुछ नहीं होगा। कथा के पीछे का सत्य जानना और मानना होगा। संबंधों को फिर जोड़ना होगा। नागपंचमी के समाप्त होते पर्व को कायस्थ अपना राष्ट्रीय पर्व बना लें तो आदिवासियों और सवर्णों के बीच नया सेतु बन सकेगा।
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शुक्रवार, 2 जून 2017

lekh


शोध परक लेख :

अग्र सदा रहता सुखी 
आचार्य
​ संजीव वर्मा 'सलिल'

संपर्क
​- 204 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ 
चलभाष ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
*​

अग्र सदा रहता सुखी, अगड़ा कहते लोग

पृष्ठ रहे पिछड़ा 'सलिल', सदा मनाता सोग 
सब दिन जात न एक समान


मानव संस्कृति का इतिहास अगड़ों और पिछड़ों की संघर्ष कथा है. बाधा और संकट हर मनुष्य के जीवन में आते हैं, जो जूझकर आगे बढ़ गया वह 'अगड़ा' हुआ. इसके विपरीत जो हिम्मत हारकर पीछे रह गया 'पिछड़ा' हुआ. अवर्तमान राजनीति में अगड़ों और पिछड़ों को एक दूसरे का विरोधी बताया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है. वास्तव में वे एक दूसरे के पूरक हैं. आज का 'अगड़ा' कल 'पिछड़ा' और आज का 'पिछड़ा' कल 'अगड़ा' हो सकता है. इसीलिए कहते हैं- 'सब दिन जात न एक समान'.  

मन के हारे हार है 

जो मनुष्य भाग्य भरोसे बैठा रहता है उसे वह नहीं मिलता जिसका वह पात्र है. संस्कृत का एक श्लोक है- 

उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथै:

नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:

.

उद्यम से ही कार्य सिद्ध हो, नहीं मनोरथ है पर्याप्त 

सोते सिंह के मुख न घुसे मृग, सत्य वचन यह मानें आप्त 

लोक में दोहा प्रचलित है-

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत 

अग्रधारा लक्ष्य पाती 
जो
​ मन से नहीं हारते और निरंतर प्रयास रात होकर आगे आते हैं या नेतृत्व  करते हैं वे ही समाज की अग्रधारा में कहे जाते हैं. हममें से हर एक को अग्रधारा में सम्मिलित होने का प्रयास करते रहना चाहिए. किसी धारा में असंख्य लहरें, लहर में असंख्य बिंदु और बिंदु में असंख्य परमाणु होते हैं. यहाँ सब अपने-अपने प्रयास और पुरुषार्थ से अपना स्थान बनाते हैं, कोइ किसी का स्थान नहीं छीनता न किसी को अपना स्थान देता है. इसलिए न तो किसी से द्वेष करें न किसी के अहसान के तले दबकर स्वाभिमान गँवायें. 
अग्रधारा लक्ष्य पाती, पराजित होती नहीं 
कौन
​ आगे कौन पीछे, देख ​पथ खोती नहीं 
​बहुउपयोगी अग्र है 
जो
​ आगे रहेगा वह पीछे वालों का पाठ-प्रदर्शक या मार्गदर्शक अपने आप बन जाता है. उसके संघर्ष, पराक्रम, उपलब्धि, जीवट, और अनुकरण अन्यों के लिए प्रेरक बन जाते हैं. इस तरह वह चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने अन्यों के साथ और अन्य उसके साथ जुड़ जाते हैं. 
बहुउपयोगी अग्र है, अन्य सदा दें साथ 
बढ़ा उसे खुद भी बढ़ें, रखकर ऊँचा माथ 
अग्र साथ दे सभी का 
आगे
​ जाने के लिए आवश्यक यह है कि पीछे वालों को साथ लिया जाय तथा उनका साथ दिया जाय. कुशल नायक 'काम करो' नहीं कहता, वह 'आइये, काम करें' कहकर सबको साथ लेकर चलता और मंजिल वार्ता है. 
अग्र साथ दे सभी का, रखे सभी को संग 
वरण
​ सफलता का करें, सभी जमे तब रंग
अन्य स्थानों की तरह शब्दकोष में भी अग्रधारा आगरा-स्थान ग्रहण करती है. ​आइये आगरा और अग्र के साथियों से मिलें-

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अग्र- वि. सं. अगला, पहला, मुख्य, अधिक. अ. आगे. पु. अगला भाग, नोक, शिखर, अपने वर्ग का सबसे अच्छा पदार्थ, बढ़-चढ़कर होना, उत्कर्ष, लक्ष्य आरंभ, एक तौल, आहार की के मात्रा, समूह, नायक.

अग्रकर-पु. हाथ का अगला हिस्सा, उँगली, पहली किरण
अग्र
- पु. नेता, नायक, मुखिया.
अग्रगण्य-वि. गिनते समय प्रथम, मुख्य, पहला.

अग्र
गामी/मिन-वि. आगे चलनेवाला. पु. नायक, अगुआ, स्त्री. अग्रगामिनी
 

अग्रदल-पु. फॉरवर्ड ब्लोक भारत का एक राजनैतिक दल जिसकी स्थापना नेताजी सुभाषचन्द्र बोसने की थी, सेना की अगली टुकड़ी
अग्र
-वि. पहले जन्मा हुआ, श्रेष्ठ. पु. बड़ा भाई, ब्राम्हण, अगुआ.

अग्रजन्मा/जन्मन-पु. बड़ा भाई, ब्राम्हण.
अग्र
जा-स्त्री. बड़ी बहिन.
अग्र
जात/ जातक -पु. पहले जन्मा, पूर्व जन्म का.

अग्रजाति-स्त्री. ब्राम्हण.
अग्रजिव्हा-स्त्री. जीभ का अगला हिस्सा.
अग्रणी-वि. आगे चलनेवाला, प्रथम, श्रेष्ठ, उत्तम. पु. नेता, अगुआ, एक अग्नि.
अग्रतर-वि. और आगे का, कहे हुए के बाद का, फरदर इ.
अग्रदाय-अग्रिम देय, पहले दिया जानेवाला, बयाना, एडवांस, इम्प्रेस्ट मनी.-दानी/निन- पु. मृतकके निमित्त दिया पदार्थ/शूद्रका दान ग्रहण करनेवाला निम्न/पतित ब्राम्हण,-दूत- पु. पहले से  पहुँचकर किसी के आने की सूचना देनेवाला.-निरूपण- पु. भविष्य-कथन, भविष्यवाणी, भावी. -सुनहु भरत भावी प्रबल. राम.,
अग्रपर्णी/परनी-स्त्री. अजलोमा का वृक्ष.
अग्रपा- सबसे पहले पाने/पीनेवाला.-पाद- पाँव का अगला भाग, अँगूठा.
अग्रपूजा- स्त्री. सबसे पहले/सर्वाधिक पूजा/सम्मान.
अग्रपूज्य- वि. सबसे पहले/सर्वाधिक सम्मान.
अग्रप्रेषण-पु. देखें अग्रसारण.
अग्रप्रेषित-वि. पहले से भेजना, उच्चाधिकारी की ओर आगे भेजना, फॉरवर्डेड इ.-बीज- पु. वह वृक्ष जिसकी कलम/डाल काटकर लगाई जाए. वि. इस प्रकार जमनेवाला पौधा.
अग्रभाग-पु. प्रथम/श्रेष्ठ/सर्वाधिक/अगला भाग -अग्र भाग कौसल्याहि दीन्हा. राम., सिरा, नोक, श्राद्ध में पहले दी जानेवाली वस्तु.
अग्रभागी/गिन-वि. प्रथम भाग/सर्व प्रथम  पाने का अधिकारी.
अग्रभुक/-वि. पहले खानेवाला, देव-पिटर आदि को खिलाये बिना खानेवाला, पेटू.
अग्रभू/भूमि-स्त्री. लक्ष्य, माकन का सबसे ऊपर का भाग, छत.
अग्रमहिषी-स्त्री. पटरानी, सबसे बड़ी पत्नि/महिला.-मांस-पु. हृदय/यकृत का रक रोग.
अग्रयान-पु. सेना की अगली टुकड़ी, शत्रु से लड़ने हेतु पहले जानेवाला सैन्यदल. वि. अग्रगामी.
अग्रयायी/यिन वि. आगे बढ़नेवाला, नेतृत्व करनेवाला
अग्रयोधी/धिन-पु. सबसे आगे बढ़कर लड़नेवाला, प्रमुख योद्धा.
अग्रलेख- सबसे पहले/प्रमुखता से छपा लेख, सम्पादकीय, लीडिंग आर्टिकल इ.
​ अग्रलोहिता-स्त्री. चिल्ली शाक.
अग्रवक्त्र-पु. चीर-फाड़ का एक औज़ार.
अग्रवर्ती/तिन-वि. आगे रहनेवाला.
अग्रशाला-स्त्री. ओसारा, सामने की परछी/बरामदा, फ्रंट वरांडा इं.
अग्रसंधानी-स्त्री. कर्मलेखा, यम की वह पोथी/पुस्तक जिसमें जीवों के कर्मों का लिखे जाते हैं.
अग्रसंध्या-स्त्री. प्रातःकाल/भोर.
अग्रसर-वि. पु. आगेजानेवाला, अग्रगामी, अगुआ, प्रमुख, स्त्री. अग्रसरी

अग्रसारण-पु. आगे बढ़ाना, अपनेसे उच्च अधिकारी की ओर भेजना, अग्रप्रेषण.
अग्रसारा-स्त्री. पौधे का फलरहित सिरा.
अग्रसारित-वि. देखें अग्रप्रेषित.
अग्रसूची-स्त्री. सुई की नोक,  प्रारंभ में लगी सूची, अनुक्रमाणिका.
अग्रसोची-वि. समय से पहले/पूर्व सोचनेवाला, दूरदर्शी. अग्रसोची सदा सुखी मुहा.
अग्रस्थान-पहला/प्रथम स्थान.
अग्रहर-वि. प्रथम दीजानेवाली/देय वस्तु.
अग्रहस्त-पु. हाथ का अगला भाग, उँगली, हाथी की सूंड़  की नोक.


अग्रहायण-पु. अगहन माह,
अग्र​हार-पु. राजा/राज्य की प्र से ब्राम्हण/विद्वान को निर्वाहनार्थ मिलनेवाला भूमिदान, विप्रदान हेतु खेत की उपज से निकाला अन्न.
अग्रजाधिकार- पु. देखें ज्येष्ठाधिकार.
अग्रतः/तस- अ. सं. आगे, पहले, आगेसे.
अग्रवाल- पु. वैश्यों का एक वर्गजाति, अगरवाल.
अग्रश/अग्रशस/अग्रशः-अ. सं. आरम्भ से ही.
अग्रह- पु.संस्कृत ग्रहण न करना, गृहहीन, वानप्रस्थ. 
अग्र ना होता जन्मना 
अग् होना सौभाग्य की बात है. भाग्य जन्म से मिलता है किन्तु सौभाग्य मनुष्य कर्म से अर्जित करता है. इसलिए अग्र होना या ना होना मनुष्य के पुरुषार्थ, कर्मों और कर्मों के पीछे छिपी नियत तथा दिशा पर निर्भर करता है.
अग्र न होता जन्मना, बने कर्मणा अग्र 
धीरज धर मत उग्र हों, और नहीं हों व्यग्र  

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