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रविवार, 28 मई 2023

गीत, तुम, लघुकथा, चित्रगुप्त, मुक्तिका, सरस्वती, अलंकार, चंद्रकांता अग्निहोत्री

आलंकारिक सरस्वती वंदना
*
वाग्देवि वागीश्वरी, वरदा वर दे विज्ञ
- वृत्यानुप्रास (आवृत्ति व्)
कोकिल कंठी स्वर सजे, गीत गा सके अज्ञ
-छेकानुप्रास (आवृत्ति क, स, ग)
*
नित सूरज दैदीप्य हो, करता तव वंदन
- श्रुत्यनुप्रास (आवृत्ति दंतव्य न स द त)
ऊषा गाती-लुभाती, करती
अभिनंदन

- अन्त्यानुप्रास (गाती-भाती)
*
शुभदा सुखदा शांतिदा, कर मैया उपकार
- वैणसगाई (श, क)
हंसवाहिनी हो सदा, हँसकर हंससवार
- लाटानुप्रास (हंस)
*
बार-बार हम सर नवा, करते जय-जयकार
- पुनरुक्तिप्रकाश (बार, जय)
जल से कर अभिषेक नत, नयन बहे जलधार
- यमक (जल = पानी, आँसू)
*
मैया! नृप बनिया नहीं, खुश होते बिन भाव
- श्लेष (भाव = भक्ति, खुशामद, कीमत)
रमा-उमा विधि पूछतीं, हरि-शिव से न निभाव?
- वक्रोक्ति (विधि = तरीका, ब्रह्मा)
*
कनक सुवर्ण सुसज्ज माँ, नतशिर करूँ प्रणाम
- पुनरुक्तवदाभास (कनक = सोना, सुवर्ण = अच्छे वर्णवाली)
मीनाक्षी! कमलांगिनी, शारद शारद नाम
- उपमा (मीनाक्षी! कमलांगिनी), - अनन्वय (शारद)
*
सुमन सुमन मुख-चंद्र तव, मानो 'सलिल' चकोर
- रूपक (मुख-चंद्र), उत्प्रेक्षा (मान लेना)
शारद रमा-उमा सदृश, रहें दयालु विभोर
- व्यतिरेक (उपमेय को उपमान से अधिक बताया जाए)
***
रचना-प्रतिरचना
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
चाँद का टीका लगाकर, माथ पर उसने मुझे,
ओढ़नी दे तारिकाओं की, सुहागिन कह दिया।
संजीव वर्मा 'सलिल'
बिजलियों की, बादलों की, घटाओं की भेंट दे
प्रीत बरसा, स्वप्न का कालीन मैंने तह दिया।
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
कैसे कहूँ तुझसे बच के चले जायेंगे कहीं।
पर यहाँ तो हर दर पे तेरा नाम लिखा है।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
चाहकर भी देख पाया, जब न नैनों ने तुझे।
मूँद निज पलकें पढ़ा, पैगाम दिखा है।।
चंद्रकांता अग्निहोत्री:
आज फिर तेरी मुहब्बत ने शरारत खूब की है
नाम तेरा ले रही पर वो बुला मुझको रही है।।
संजीव वर्मा 'सलिल'
आज फिर तेरी शराफत ने बगावत खूब की है
काम तेरा ले रही पर वो समा मुझमें रही है।।
२८.५.२०१८
***
गीत
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
नेह नर्मदा
पुलक निहारो
विहँस घूमते तीरे-तीरे।
*
क्षमा करो जो करी गलतियाँ
कभी किसी ने भी प्रमाद वश।
आज्ञा-ह्रदय चक्र मत कुंठित
होने देना निज विषाद वश।
खुलकर हँसो
गगन गुंजित हो
जैसे बजते हों मंजीरे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
*
प्रेम करो तो सच्चा करना
कपट-कलुष मत मन में धरना।
समय कहे जब तब तत्क्षण ही
ज्यों की त्यों तन-चादर धरना।
वस्तुजगत के
कंकर फेंको
भावजगत के ले लो हीरे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
*
तोड़ो बंधन, कर नादानी
पीर न देना, कर शैतानी।
कल-कल कलकल लहरियाँ
नर्तित आस मछलिया रानी।
शतदल खिले
चेतना जाग्रत
हूँ छोड़े यश-कीर्ति सजी रे।
लघुतम जीवन
छोड़ अहं निज
बहो सलिल सम धीरे-धीरे।
***
गीत:
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
साँस जाने का समय आने न पाए।
रास गाने का समय जाने न पाए।
बेहतर है; पेश्तर
मन-राग गाओ!
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
*
हीरकों की खदानों से बीन पत्थर।
फोड़ते क्यों हाय! अपने हाथ निज सर?
समय पूरा हो न पाए
आग लाओ!
जाग जाओ!
भाग जाओ!!
***
ओशो चिंतन:
देता हूँ आकाश मैं सारा भरो उड़ान।
भुला शास्त्र-सिद्धांत सब, गाओ मंगल गान।।
*
खुद पर निर्भर हो उठो, झट नापो आकाश।
पंख खोल कर तोड़ दो, सीमाओं के पाश।।
*
मानव के अस्तित्व की, गहो विरासत नाम।
बाँट वसीयत अन्य को, हो गुमनाम अनाम।।
*
ओ शो यह बढ़िया हुआ, अधरों पर मुस्कान।
निर्मल-निश्छल गा रही, ओशो का गुणगान।।
*
जिससे है नाराजगी, करें क्षमा का दान।
खुलते आज्ञा-ह्रदय के, चक्र शीघ्र मतिमान।।
*
संप्रभु जैसे आओ रे, प्रेम पुकारे मीत।
भिक्षुक जैसे पाओगे, वास्तु जगत की रीत।।
***
हास्य कुंडलिया
गाय समझकर; शेरनी, थाम भर रहे आह!
कहो! समझ अब आ रहा, कहते किसे विवाह?
कहते किसे विवाह, न जिससे छुटकारा हो।
डलती नाक-नकेल, तभी जब पुचकारा हो।।
पड़े दुलत्ती सहो, हँसो ईनाम समझकर।
थाम शेरनी वाह कह रहे; गाय समझकर।।
***
चित्रगुप्त दोहावली
*
चित्रगुप्त का गुप्त है, चित्र न पाओ देख।
तो निज कर्मों का करो, जाग आप ही लेख।।
*
असल-नक़ल का भेद क्या, समय न पाया जान।
असमय बूढ़ा हो गया, भुला राम-रहमान।।
*
अकल शकल के फेर में, गुम हो हुई गुलाम।
अकल सकल के फेर में, खुद खो हुई अनाम।।
*
कल-कल करते कल हुआ, बेकल मन बेचैन।
कलकल जल सम बह सके, तब पाए कुछ चैन।।
२८.५.२०१८
***
गीत
तुम
*
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
रूप अरूप स्वरूप लुभाये
जल में बिम्ब हाथ कब आये?
जो ललचाये, वह पछताये
जिसे न दीखा, वह भरमाये
किससे पूछें
कब अपरा,
कब परा हो गया?
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
तुममें खुद को देख रहा मन
खुदमें तुमको लेख रहा मन
चमन-अमन की चाह सुमन सम
निज में ही अवरेख रहा मन
फूला-फला
बिखर-निखरा
.निर्भरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
*
कहे अजर यद्यपि है जर्जर
मान अमर पल-पल जाता मर।
करे तारने का दावा पर
खुद ही अब तक नहीं सका तर।
माया-मोह
तजा ज्यों हो
अक्षरा हो गया।
तुमको देखा
तो मरुथल मन
हरा हो गया।
२८-५-२०१६
***
गीत
*
सभ्य-श्रेष्ठ
खुद को कहता नर
करता अत्याचार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को क्यों
काटे? धिक्कार।
*
बोये बीज, लगाईं कलमें
पानी सींच बढ़ाया।
पत्ते, काली, पुष्प, फल पाकर
मनुज अधिक ललचाया।
सोने के
अंडे पाने
मुर्गी को डाला मार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को नित
काटें? धिक्कार।
*
शाखा तोड़ी, तना काटकर
जड़ भी दी है खोद।
हरी-भरी भू मरुस्थली कर
बोनसाई ले गोद।
स्वार्थ साधता क्रूर दनुज सम
मानव बारम्बार।
पालन-पोसें वृक्ष
उन्हीं को क्यों
काटें? धिक्कार।
*
ताप बढ़ा, बरसात घट रही
सूखे नदी-सरोवर।
गलती पर गलती, फिर गलती
करता मानव जोकर।
दण्ड दे रही कुदरत क्रोधित
सम्हलो करो सुधार।
पालें-पोसें वृक्ष
उन्हीं को हम
काटें? धिक्कार।
*
२६.५.२०१६
***
गीत :
तुम
*
पास आओ ना
*
दूरियाँ हो दूर
निकटता भरपूर
शिव-शिवानी सम
मन हुए कर्पूर
गीत गाओ ना
पास आओ ना
*
धूप में भी छाँव
रूप का मन- गाँव
घाट-बाट न भूल
छोड़ना मत नाव
दूर जाओ ना
पास आओ ना
*
प्रीत के गा गीत
हार में हो जीत
हो नहीं तुम भीत
बना दो नव रीत
मुस्कुराओ ना
पास आओ ना
*
भूलना मत राह
पूर्ण हो हर चाह
मिटे मन की दाह
दंश मत दे डाह
मन मिलाओ न
पास आओ ना
***
नवगीत:
*
अपने घर में
आग लगायें
*
इसको इतना
उसको उतना
शेष बचे जो
किसको कितना?
कहें लोक से
भाड़ में जाएँ
सबके सपने
आज जलायें
*
जिसका सपना
जितना अपना
बेपेंदी का
उतना नपना
अपनी ढपली
राग सुनाएँ
पियें न पीने दें
लुढ़कायें
*
इसे बरसना
उसको तपना
इसे अकड़ना
उसे न झुकना
मिलकर आँसू
चंद बहायें
हाय! राम भी
बचा न पायें
२८-५-२०१५
***
लघुकथा
ज़हर
*
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमी ने पूछा।
--'क्यों अभी काटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ? आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है, तो किसी आदमी को काटता। तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त कह ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमति जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
*
[साहित्य शिल्पी में २००९ में प्रकाशित]
***
लेख :चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है:
'चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. आत्मा क्या है? सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके लिए पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के लिए नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं
|| चित्रगुप्त चालिसा ||
ब्रह्मा पुत्र नमामि नमामि, चित्रगुप्त अक्षर कुल स्वामी ||
अक्षरदायक ज्ञान विमलकर, न्यायतुलापति नीर-छीर धर ||
हे विश्रामहीन जनदेवता, जन्म-मृत्यु के अधिनेवता ||
हे अंकुश सभ्यता सृष्टि के, धर्म नीति संगरक्षक गति के ||
चले आपसे यह जग सुंदर, है नैयायिक दृष्टि समंदर ||
हे संदेश मित्र दर्शन के, हे आदर्श परिश्रम वन के ||
हे यममित्र पुराण प्रतिष्ठित, हे विधिदाता जन-जन पूजित ||
हे महानकर्मा मन मौनम, चिंतनशील अशांति प्रशमनम ||
हे प्रातः प्राची नव दर्शन, अरुणपूर्व रक्तिम आवर्तन ||
हे कायस्थ प्रथम हो परिघन, विष्णु हृद्‌य के रोमकुसुमघन ||
हे एकांग जनन श्रुति हंता, हे सर्वांग प्रभूत नियंता ||
ब्रह्म समाधि योगमाया से, तुम जन्मे पूरी काया से ||
लंबी भुजा साँवले रंग के, सुंदर और विचित्र अंग के ||
चक्राकृत गोला मुखमंडल, नेत्र कमलवत ग्रीवा शंखल ||
अति तेजस्वी स्थिर द्रष्टा, पृथ्वी पर सेवाफल स्रष्टा ||
तुम ही ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र हो, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शुद्र हो ||
चित्रित चारु सुवर्ण सिंहासन, बैठे किये सृष्टि पे शासन ||
कलम तथा करवाल हाथ मे, खड़िया स्याही लिए साथ में ||
कृत्याकृत्य विचारक जन हो, अर्पित भूषण और वसन हो ||
तीर्थ अनेक तोय अभिमंत्रित, दुर्वा-चंदन अर्घ्य सुगंधित ||
गम-गम कुमकुम रोली चंदन, हे कायस्थ सुगंधित अर्चन ||
पुष्प-प्रदीप धूप गुग्गुल से, जौ-तिल समिधा उत्तम कुल के ||
सेवा करूँ अनेको बरसो, तुम्हें चढाँऊ पीली सरसों ||
बुक्का हल्दी नागवल्लि दल, दूध-दहि-घृत मधु पुंगिफल ||
ऋतुफल केसर और मिठाई, कलमदान नूतन रोशनाई ||
जलपूरित नव कलश सजा कर, भेरि शंख मृदंग बजाकर ||
जो कोई प्रभु तुमको पूजे, उसकी जय-जय घर-घर गुंजे ||
तुमने श्रम संदेश दिया है, सेवा का सम्मान किया है ||
श्रम से हो सकते हम देवता, ये बतलाये हो श्रमदेवता ||
तुमको पूजे सब मिल जाये, यह जग स्वर्ग सदृश्य खिल जाए ||
निंदा और घमंड निझाये, उत्तम वृत्ति-फसल लहराये ||
हे यथार्थ आदर्श प्रयोगी, ज्ञान-कर्म के अद्‌भुत योगी ||
मुझको नाथ शरण मे लीजे, और पथिक सत्पथ का कीजे ||
चित्रगुप्त कर्मठता दिजे, मुझको वचन बध्दता दीजे ||
कुंठित मन अज्ञान सतावे, स्वाद और सुखभोग रुलावे ||
आलस में उत्थान रुका है, साहस का अभियान रुका है ||
मैं बैठा किस्मत पे रोऊ, जो पाया उसको भी खोऊ ||
शब्द-शब्द का अर्थ मांगते, भू पर स्वर्ग तदर्थ माँगते ||
आशीर्वाद आपका चाहू, मैं चरणो की सेवा चाहू ||
सौ-सौ अर्चन सौ-सौ पूजन, सौ-सौ वंदन और निवेदन ||
~Kayastha~सभी जानते हैं कि आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आराम तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। इसी का पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
*
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण हैं
चित्रगुप्त निराकार ही नहीं निर्गुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिए वे साकार-सगुण रूप में प्रगट होते हैं। आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
*
परमब्रम्ह के अंश कर, कर्म भोग परिणाम जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिए मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वन हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह कहने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं। सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है।मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं।
सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य:
आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में परतो पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। यम द्वितीय पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिए 'ॐ' को श्रृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिए उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेव वाद की परंपरा
इसके नीचे कुछ श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठाई जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु के साकार होकर सृष्टि के कल्याण के लिए विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये।
पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य
निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम की पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन व्यवसायिक कार्य न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है।
उदारता तथा समरसता की विरासत
यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वतीसभी का पूजन किया जाता है। आर्य समाज, साईं बाबा, युग निर्माण योजना आदि हर रचनात्मक मंच पर कायस्थ योगदान करते मिलते हैं।
२८-५-२०१४
_____________________________


मुक्तिका:
नहीं समझे
*
समझकर भी हसीं ज़ज्बात दिल के दिल नहीं समझे.
कहें क्या जबकि अपने ही हमें अपना नहीं समझे..


कुसुम परिमल से सारे चमन को करता सुवासित है.
चुभन काँटों की चुप सहता कसक भँवरे नहीं समझे..


सियासत की रवायत है, चढ़ो तो तोड़ दो सीढ़ी.
कभी होगा उतरना भी, यही सच पद नहीं समझे..


कही दर्पण ने अनकहनी बिना कुछ भी कहे हरदम.
रहे हम ताकते खुद को मगर दर्पण नहीं समझे..


'सलिल' सबके पखारे पग मगर निर्मल सदा रहता.
हुए छलनी लहर-पग, पीर को पत्थर नहीं समझे..
२८-५-२०११
***

मंगलवार, 26 जुलाई 2022

सॉनेट,साहित्य संगम,नवगीत, दोहे, द्विपदियाँ,गरिमा सक्सेना,चंद्रकांता अग्निहोत्री,रामकुमार चतुर्वेदी

सॉनेट 
दीप्ति
दीप्ति तम मिटा  दे प्रकाश नव
आत्म दीप प्रज्ज्वलित करें हम
जीवन में व्यापे हुलास नव 
कर पाएँ जग से कुछ गम कम

दीप्त रहे मन-प्राण हमारा
शांति पा सकें, स्नेह लुटाकर
कभी किसा का बनें सहारा
द्वेष-घृणा को दूर भगाकर 

बाती जले, तेल चुक जाए
किंतु श्रेय दीपक को मिलता
जग उजियारे की जय गाए
जीवन तम से मगर जनमता

दीप्तिमान हों मैं-तुम, हम सब
देख सकें सबके भीतर रब
२६-७-२०२२
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साहित्य संगम को समर्पित
जबलपुर में हो रहा 'साहित्य संगम' सफल हो
शारदा की हो कृपा, साहित्य महिमा अचल हो

श्रावणी वातावरण में, 'ज्ञानश्री' सब मिल वरें
'तृप्ति' पायें; छंद 'छाया' बैठ कर कवि मन तरें

स्नेह दें-लें, 'मंत्र' जीवन में यही पल-पल जपें
हों अनंत 'बसंत' रच साहित्य सुंदर हम तपें

'कलावती' हो 'मनीषा'; सृजन 'उमा' 'पूजा' सदृश
देख 'सुषमा' संग 'गीता' , 'सुरेखा' प्रगटे अदृश

'मुकुल' मुकुल कर मेघ, कहें कीर्ति साहित्य की
'रश्मि' 'दीप्ति' 'सुशील', 'ममता' मय आदित्य की

'स्वर्ण लता' लख छंद की, 'मनसिज' आप प्रबुद्ध हो
हों 'भगवान सहाय' आ, बुद्धि 'विनीता' सिद्ध हो

'राजेश्वरी' 'आशीष' दें, 'लवकुश' 'रामप्रकाश' पा
'शिवशंकर' हो आत्म, कर 'परिहार' 'नरेंद्र' आ

'राजन' हो 'राजेश', जब हो 'प्रियंक' 'सुधीर'
'विक्रम' का 'अभिषेक' कर, 'प्रांशु' बने मतिधीर

आ 'सुनील' 'जगदीश' भी, करता रस का पान
पूजे सदा 'सतीश' को, बन 'दिलीप' रसखान
२६-७-२०२१
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नवगीत
*
फ्रीडमता है बोल रे!
हिंगलिश ले आनंद
अपनी बोली बोलते
जो वे हैं मतिमंद
होरी गारी जस भुला
बंबुलिया दो त्याग
राइम गाओ बेसुरा
भूलो कजरी फाग
फ़िल्मी धुन में रेंककर
छोड़ो देशी छंद
हैडेक हो रओ पेट में
कहें उठाके शीश
अधनंगी हो लेडियाँ
परेशान लख ईश
वेलेंटाइन पूज तू
बिसरा आनंदकंद
*
२७-७-२०२०

***
द्विपदियाँ 

न केवल बात में, हालात में भी है वहाँ सीलन
जहाँ फौजों के साए में, चुनावी जीत होती है


न बारिश तुम इसे समझो, गिरा है आँख से पानी.
जो आहों का असर होगा, कहाँ जाओगे ये सोचो.


ग़ज़ल कहती न तू आ भा, ग़ज़ल कहती है जी मुझको
बताऊँ मैं उसे कैसे, जिया है हमेशा तुझको


नेता नौटंकी करे, कहकर आम चुनाव.
जिसको चाहे लड़ा दे, डगमग है अब नाव.

चमक रहे चमचे चतुर, गोल-मोल हर बात
पोल ढोल की खुल रही, नाजुक हैं हालात

शोक न करता जो कभी, कहिए उसे अशोक.
जो होता होता रहे, कोई न सकता रोक.

वही द्विवेदी जो पढ़े, योग-भोग दो वेद.
अंत समय में हो नहीं, उसको किंचित खेद.

मन के मनसबदार! तुम, कहो हुए क्यों मौन?
तनकर तन झट झुक गया, यहाँ किसी का कौन?

डर से डर ही उपजता, मिले स्नेह को स्नेह.
निष्ठा पर निष्ठा अडिग, सम हो गेह-अगेह.
***
समीक्षा :
''है छिपा सूरज कहाँ पर'' : खोजिए नवगीत में
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल"
*
[कृति विवरण : है छिपा सूरज कहाँ पर, नवगीत संग्रह, गरिमा सक्सेना, प्रथम संस्करण २०१९, आई.एस.बी.एन. ९७८९३८८९४६१७९, आकार २२ से.मी. x १४.से.मी., आवरण बहुरंगी सजिल्द लेमिनेटेड जैकेट सहित, पृष्ठ १३६, मूल्य २००/-, बेस्ट बुक बडीज टेक्नोलॉजीस प्रा। लि. नई दिल्ली, कृतिकार संपर्क : २१२ ए ब्लॉक, सेंचुरी सरस् अपार्टमनत, अनंतपुरा मार्ग, यलहंका, बेंगलोर ५६००६४, चलभाष ७६९४९२८४४८, ईमेल : garimasaxena1990@gmail.com ]
*
साहित्य समाज का समय सापेक्ष दर्पण है जिसमें उज्जवल-मलिन छवि बिना किसी लाग-लपेट के देखी जा सकती है। साहित्य स्वयं पूरी तरह निरपेक्ष होता है किन्तु साहित्यकार प्राय: तटस्थ नहीं होता। हर रचनाकार की अपनी मान्यताएँ और प्रतिबद्धताएँ होती हैं। साहित्य भाषा, अनुभूति और भाव की त्रिवेणी है जिओ सतत प्रवाहित हो तो निर्मल और किसी प्रतिबद्धता के कुएँ में कैद होकर मलिन हो जाती है। साहित्य लेखन, पठान और समीक्षण तीनों स्तरों पर गतागत का संघर्ष स्वाभाविक है। साहित्यकार जिन्हें पढ़कर लिखने सीखता है, सीखते ही उनसे भिन्न पथ पर जाता है किन्तु किसी वैचारिक खूँटे से बँधे स्वयंभूजन उसे नकारने या अपने खेमे में खींचने-घसीटने का प्रयास करते हैं। समय, भाषा और साहित्य सतत परिवर्तनशील होता है किन्तु ये तथाकथित प्रतिबद्ध मठाधीश परिवर्तन को नकारकर अपनी मान्यताओं को थोपकर खुद को धन्य अनुभव करते हैं। समाज के युवा जनों को आकर्षित करती विधाएँ नवगीत, व्यंग्य लेख हुए लघुकथा के क्षेत्र में यह द्व्न्द सहज दृष्टव्य है।
नवोदित नवगीतकार रचना सक्सेना इस सबसे परिचित होकर भी किसी खेमे में कैद न होकर बेबाकी से अपनी अनुभूतियों को नवगीत में अभिव्यक्त कर सकी हैं, इसके लिए उन्हें सराहा जाना चाहिए। डॉ. कुंअर बेचैन ने ठीक ही लिखा है "जैसे बागों में हर वर्ष पतझर का मौसम भी आता है और वसंत का भी, पतझर में पुराने पत्ते झर जाते हैं और फिर नई कोंपलें आती हैं। ऐसे ही हमारे जीवन में उम्र और परिस्थिति के अलग-अलग पड़ावों पर हमारे भाव, हमारे विचार, हमारी जीवन शैली, हमारे भाषा-व्यवहार और अगर हम साहित्य से जुड़े रचनाकार हैं तो कुछ नया करने का भाव भी बदलता जाता है। गीतकार का मन भी एक वृक्ष की तरह होता है, उस पर भी भावनाओं-अनुभूतियों और उनकी शब्दाभिव्यक्तियों के नए-नए रूप जैसे प्रतीकों की नवीनता, बिम्बों की नवीनता और गीतों के आकार का स्वरूप आदि बदलते जाते हैं। यह नव्यता ही गीत को नवगीत की ओर ले जाती है।" नवगीत के उद्भव से अब तक नवगीतकारों के कथ्य और शिल्प में यह बदलाव सहज दृष्टव्य है। गरिमा के नवगीत इस बदलाव के साक्षी हैं।
गरिमा के व्यक्तित्व में भाव पक्ष और बुद्धि पक्ष के सहल-सार्थक तालमेल की उपज हैं ये नवगीत। गरिमा के शब्दों में "गीत वही है जो किसी एक ह्रदय से उपजकर हर ह्रदय का स्वर स्वत्: ही बन जाये। अधिक निजी पैन लिए गीत या अत्यधिक क्लिष्ट गीत आमजन के मन तक नहीं पहुँच पाते क्योंकि उनका संबंध लोक से स्थापित नहीं हो पता है, न ही वे आम जन के लिए उपयोगी हो पते हैं। गीत का विस्तार तभी हो पायेगा जब गीत समाज में वर्तमान की व्याप्तियों को अभिव्यक्त कर पाएंगे और सबकी पीड़ा का आभास कर सकेंगे और गीत का प्रयोजन तब पूर्ण होगा जब न केवल घाव को इंगित करें बल्कि उन घावों पर समाधान का मरहम भी लगाने का प्रयत्न करें। ऐसे में गीत को सामाजिक यथार्थ को समझना होगा, वह भी गीत के शिल्प, लय, गेयता, भाव आदि विशिष्टताओं को बचाते हुए।"
'है छिपा सूरज कहाँ पर' के गीत तिमिर से भयाक्रांत नहीं हैं। वे तमस की भयावहता का चित्रण कर रुकते भी नहीं, वे अँधेरे में भटकते भी नहीं अपितु उजास देने या राह तलाशने की कोशिश करते हैं। समाज में व्याप्त असंगति का संकेत संकलन के आरम्भ में ही है-
है बदलता आस में पन्ने कलेंडर
पर छाला जाता है बस प्रस्ताव से
ताख पर सिद्धांत
धन की चाह भारी
हो गया है आज
आँगन भी जुआरी
रोज ही गंदला रहा है आँख का जल
स्वार्थ ईर्ष्या के हुए ठहराव से
प्रतिबद्ध रचनाकारों के नवगीत इस ठहराव के आगे नहीं बढ़ पाते क्योंकि उनकी यह मान्यता है की नवगीत वैषम्य धर्मा है, दिशा दर्शन या पीर-हरण से नवगीत को कुछ लेना-देना नहीं है। मेरी कृतियों 'काल है संक्रांति का' और 'सड़क पर' को इसी पूर्वाग्रही दृष्टिका शिकार होना पड़ा। मैं देख पाता हूँ कि मुखपोथी (फेसबुक) पर उदित हो रही नई कलमें ही नहीं नवगीतकारों की प्रतिष्ठित हो रही नई पीढ़ी जिसमें संध्या सिंह, अशोक गीते, मधु प्रधान, मधु प्रसाद, पूर्णिमा बर्मन, जयप्रकाश श्रीवास्तव, बृजमोहन श्रीवास्तव, डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', रामशंकर वर्मा, डॉ. प्रदीप शुक्ल, शीला पाण्डे, डॉ. रंजना गुप्ता, बसंत शर्मा, अविनाश ब्योहार, रविशंकर मिश्र, धीरज श्रीवास्तव, कृष्ण 'शलभ', छाया सक्सेना आदि भी अपने नवगीतों में सांत्वना, सहानुभूति और सामाजिक सरोकारों को सुदृढ़ करने के स्वर घोल रहे हैं। विडम्बना है कि इनमें से अधिकांश को नवगीत कोष में स्थान नहीं मिला है। कारण उनसे अपिरचय हो या उनकी अवहेलना नवगीत के लिए दोनों ही दृष्टियों से परिवर्तन की पदचाप को अनसुना किया जाना हितकर नहीं है। गरिमा के नवगीत 'समाधान के गीत' लिखकर इस पीढ़ी का प्रतिनिधि स्वर बन पाती है-
हरे-भरे जीवन के पत्ते
हुए जा रहे पीत
आओ हम सब मिलकर गायें
समाधान के गीत
अँधियारे पर कलम चलकर
सूरज नया उगायें
उम्मीदों के पंखों को
विस्तृत आकाश थमायें
चलो हाय-तौबा की, डर की
आज गिरायें भीत
इन गीतों में सामाजिक वैषम्य को विविध बिम्बों, रूपकों और उपमाओं के माध्यम से व्यक्त किया गया है- 'गाँवों के भी मन-मन अब / उग आये हैं शूल / देख चकित हो रहा बबूल', 'बने बिजूके हम सब / वर्षों से चुपचाप ख़डे', 'रेत हो रही नदियाँ / खोया कल-कल का उल्लास', 'क्षरित हुए संबंध नेह के / जीवन के बदलावों से, 'इस सूखे में बीज न पनपे / फिर जीवन से ठना युद्ध है', सुर्ख लावा हो गए हैं / पाँव तपती रेत में', 'वृद्धाश्रम में माँ बेटे की / राह देखती', 'हम अधीन हो गए / सफल हो गया नियोजन', 'धन अर्जित कर सहे जा रहे / निज मूल्यों की मंदी हम', 'राजमार्ग पर सपने सजते / पगडंडी का घाव हरा है', 'ओझल मुद्दों को करना है / हंगामा इसलिए जरूरी', 'राजनीति ने छला हमेशा / नदियों का विश्वास', 'क्षरित हुई ओज़ोन / बनी भू गरम कड़ाही है', 'नख से शिख तक है भ्रष्ट तंत्र / रो-रोकर कहते बाबूजी', सदा सियासत करते रहती / समझौंतों की ता-ता-थैया, आदि आदि पंक्तियों में देश-काल को विविध दृष्टियों से निरख-परख कर यत्र-तत्र ही नहीं सर्वत्र व्याप गयी विसंगतियों का लेखा-जोखा इन नवगीतों के सर्जक की सजगता शब्द-शब्द में निहित है।
गीतों में अंतर्व्याप्त दूसरा तत्व है इन विसंगतियों के प्रति चेतना जागना। प्रथम चरण में विसंगतियों का आकलन तो हो गया यदि उस आकलन पर चिंतन न हो तो आकलन करना उद्देश्यहीन हो जायेगा। ' ढल रहा जो वक़्त / उसकी चाल का स्वर / कह रहा है आगमन का / वक़्त बदतर', 'कब खुलेंगी, धूप देने खिड़कियाँ / मौत का माहौल हैँ', 'हम बिन आखिर प्रतिरोधों के / अक्षर कौन गढ़े', कब तलक हम बरगदों की / छाँव में पलते रहेंगे', 'कोहरे की बढ़ गयी हैं टहनियाँ / मौत का माहौल है', 'पोखर-नाले भी करते हैं / अब उसका उपहास', 'जीवन के सच बतलाते हैं दाग पड़े गहरे / मगर बने प्रोफ़ाइल पिक्चर / दाग मुक्त चेहरे', 'क्षरित हुए संबंध नेह के / जीवन के बदलावों से', 'धन की कमी कहीं अच्छी थी / मन को मिले अभावों से', 'घायल कंधे, मन है व्याकुल / स्वप्न पराजित, समय क्रुद्ध है', 'मैं ही क्यूँ? मेरे हिस्से क्यूँ? / सोचूँ लिखा मुश्किल ढोना', 'नैन मूंदकर बोलबो कब तक / पूजोगे तुम पाहुन को', 'सोच रहे है सुता -भाग्य में / क्यों लिक्खी है सिर्फ रसोई' आदि अभिव्यक्तियाँ केवल विसंगति का शब्दांकन नहीं करतीं उनके प्रति असंतोष को मुखर कर परिवर्तन की चेतना जगाती हैं।
गरिमा सक्सेना के नवगीत जिस तीसरे तत्व को मुखर करते हैं वह है विसगंतियों के आकलन से उपजी चेतना को बदलाव में बदलने का आव्हान या विसंगतियों की प्रतिक्रियावत उपजे प्रश्न। इस अंतर्वस्तु को उद्घाटित करती कुछ पंक्तियाँ देखें - 'हरे-भरे जीवन के पत्ते / हुए जा रहे पीत / आओ हम सब मिलकर गायें / समाधान के गीत', 'कब खुलेंगी, धूप देने खिड़कियाँ?', 'हम बिन आखिर प्रतिरोधों के / अक्षर कौन गढ़े', 'कैसे मानें सत्य, ट्रेंड में जब / जुमला है', 'आओ मिलकर आज लगायें / खुशियों की दो-चार फसल', 'कौन लड़ा है किसकी खातिर / खुद ही लड़ना है', चूक गया सूरज गगन का / अब उजाला कौन देगा?' आदि पंक्तियों से पाठक की मन:स्थिति परिवर्तन हेतु तत्पर होने की बनती है।
ये नवगीत आव्हान मात्र को भी पर्याप्त नहीं मानते। वे उपचार और समाधान भी सुझाते हैं- 'जी रहा जो वृहनला का / रूप धरकर / यदि जगे उस पार्थ के / गांडीव का स्वर / तो सुरक्षित हो सकेगा देश अपना / स्वयं पर ही हो रहे पथराव से', 'अँधियारे पर कलम चलकर / सूरज नया उगायें / उम्मीदों के पंखों को / विस्तृत आकाश थमायें / चलो हाय-तौबा की, डर की / आज गिरायें भीत', 'आग खोजें, कँपकँपाती हड्डियाँ', 'ढूँढ़ते हैं / है छिपा सूरज कहाँ पर .... चेतते हैं जड़ों की जकड़न छुड़ाकर ... चीखते हैं / आइए संयम भुलाकर। ... तोड़ते हैं स्वयं पर हावी हुआ डर ...', 'कुहरे का गुब्बारा / छेड़ गयी पिन / चीर निकल आई हैं / किरणें कमसिन ... साहस ने काट लिए पतझड़ के दिन', 'कूकने है लगी कोयल / देख ऋतु मधुमास की', 'हमें हमारी चिंता खुद ही / करनी होगी / कब तक मन का क्रोध रहेगा / सुविधा भोगी', नए वर्ष में जारी रक्खें / उम्मीदों की चहल-पहल', कब तक हम दीपक बालेंगे / हमको सूर्य उगाना होगा' आदि पंक्तियों में गरिमा परिवर्तन की अभिलाष को संकल्प तक ले जाती हैं।
नवगीतकारों की नयी पीढ़ी नवगीतों को 'अरण्य रोदन' मात्र न बनाकर उन्हें मांगलिक परिवर्तन और शुभत्व से जोड़ रहे है। यह स्वर १९८० से २०१० के मध्य जवाहर लाल चौरसिया 'तरुण' के नवगीतों में था किन्तु तब नवगीतों को वैषम्य चित्रण तक सीमित रखने की जिद ने उन्हें नवगीत की परिधि में स्वीकार नहीं किया। अब नवगीतकारों की नई पीढ़ी नवगीत का सीमा विस्तार कर उसे विसंगति, विसंगति की प्रतीति, प्रतीति से उपजा आक्रोश और आक्रोश से परिवर्तन के संकल्प तक ले जा रही है। गरिमा सक्सेना के शब्दों में -
हवा आज आई है
लाल किले से होकर
बोल रही है नव विकास का
द्वार खुला है
यही नहीं गरिमा एक कदम और आगे बढ़कर परिवर्तन असफल न रह जाए, इसके प्रति भी चेताती हैं। संपूर्ण क्रांति और अन्ना आंदोलन की परिणति को देखते हुए गरिमा का यह चिंतन यथार्थवादी ही कहा जायेगा।
देखना फिर उग न आएँ
नागफनियाँ खेत में
इस कृति में वैचारिक दृष्टि से एक और नवाचार है। अन्न का मोल रुपये से नहीं चुकाया जा सकता। वास्तव में रूपया ममता, शिक्षा, स्नेह, श्रम, त्याग, समर्पण किसी का मोल नहीं चुका सकता।
नहीं अन्न का मोल रुपैया
अन्न बड़ी मेहनत से उगता
इसे उगाने की खातिर ही
कोई धूप, शीत सब सहता
कथ्य में नवता के साथ इस संकलन के नवगीत भाषिक दृष्टी से सटीक शब्दों का चयन कर रचे गए हैं। गरिमा की पारिवारिक पृष्ठभूमि और शिक्षा उन्हें प्रचुरशब्द संपदा और सांस्कारिक भाषा संपन्न बनाती है , यह समृद्धि नवगीतों में झलकती है।
'है छिपा सूरज कहाँ पर' के गीत छंद वैविध्य की दृष्टि से प्रयोगधर्मिता कम है। पारंपरिक छंदों का प्रयोग प्रचुरता से किया गया है। सामान्यत: चार पंक्तियों के तीन अंतरों का प्रयोग कर गीत रचे गए हैं। मुखड़े में २ से ५ पंक्तियों का प्रयोग है। मात्रिक छंदों पर आधृत इन गीतों में लयबढ़ता और गेयता चारुत्व वृद्धि करती है। छंद वैविध्य ने इन नवगीतों की सरसता वृद्धि की है। कुछ उदाहरण देखें-
सरसी छंद
हरे-भरे जीवन के पत्ते,
हुए जा रहे पीत
आओ हम सब मिलकर गायें
समाधान के गीत
पादाकुलक छंद
अम्मा आँखों के स्याही से
नया नहीं कुछ लिख पाती हैं
विष्णुपद छंद
जहाँ कभी थीं हरसिंगार की
टेसू की बातें
चम्पा, बेली के संग कटतीं
थीं प्यारी रातें
अवतारी जातीय छंद
सदियों तक जो
शक्ति रही है जन जीवन की
तट को सींचा, प्यास बुझाई
जिसने तन की
चौपाई छंद
सुता किसी की ब्याह योग्य है
कहीं बीज का कर्जा भरी
जुआ किसानी हुआ गाँव में
मदद नहीं कोई सरकारी
सर्व विदित है कि चन्द्रमा में भी दाग होते हैं। ''है छिपा सूरज कहीं पर'' में क्रिया रूपों में समरूपता नहीं है। यथा - गायें पृष्ठ ३३, वर्जनाएँ पृष्ठ ४६, आई पृष्ठ ४७ , आयी पृष्ठ ७५, भायी पृष्ठ ४९, हुए पृष्ठ ५५ , गए पृष्ठ ५९, नई पृष्ठ ५१, तुरपाई पृष्ठ ६८, बुझायी पृष्ठ ७० आदि। अशुद्ध शब्द प्रयोग दुक्ख पृष्ठ ८२, रक्खें ८५। लिंग दोष - ऊपर से शिक्षा ऋण का / युवकों को गड़ती पिन।
दोहा संग्रह 'दिखते नहीं निशान' के पश्चात् यह गरिमा सक्सेना की दूसरी प्रकाशित कृति है। 'है छिपा सूरज कहीं पर' के नवगीत उनकी कारयित्री प्रतिभा को प्रमाणित करते हैं। यह कृति नवगीत में नवाचार की दृष्टी से महत्वपूर्ण है और नवगीत के नव आयामों में ले जाने में सक्षम है। गरिमा के अगले नवगीत संग्रह की प्रतीक्षा की जाएगी।
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[संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', सभापति विश्ववाणी हिंदी संसथान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com ]
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समीक्षा
काल है संक्रांति का
चंद्रकांता अग्निहोत्री
*
शब्द, अर्थ, प्रतीक, बिंब, छंद, अलंकार जिनका अनुगमन करते हैं और जो सदा सत्य की सेवा में अनुरत हैं, ऐसे मनीषी के परिचय को शब्दों में बाँधना कठिन है। इनकी कविताओं को प्रयोगवादी कविता कहा जा सकता है। काल है संक्रांति का आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल’ जी की नवीन कृति है। २०१५ में प्रकाशित इस गीत, नवगीत संग्रह में कवि ने कई नए प्रयोग किये हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है। नवीन की चाह में इन्होंने शाश्वत मूल्यों को तिलांजलि नहीं दी क्योंकि इस संग्रह में आरंभ में ही 'वंदन' नामक कविता में सब प्रकार से अभिनंदन किया है:
‘शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आए।’
अब वे ’स्तवन’ के अंतर्गत शारदा माँ की स्तुति करते हैं:
‘सरस्वती शारद ब्रह्माणी!
जय-जय वीणापाणी!'
एक आध्यात्मिक यात्री की तरह वे अपने पूर्वजों का स्मरण भी करते हैं:
कलश नहीं आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम।
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ करे प्रणाम।
समाज हमें प्रभावित करता है और समाज की विद्रूपताओं को देख कवि हृदय विचलित हो काव्य रचना करता है। चारों और फैले आतंक को महसूस करते कवि कहता है:
‘झोंक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
तुम मत झुको सूरज।’
कवि कहता है विकास के,प्रकाश के, नई उड़ान के सूरज तुम मत थकना। यहाँ सूरज प्रतीक है शुभ संकल्प का, उदित श्रेष्ठ संभावनाओं का और कहीं भी भ्रष्टाचार का अँधेरा न हो।
अपने भीतर के सूरज को संबोधित करते हर कवि कहता है:
'तुम रुको नहीं
थको नहीं।'
क्योंकि काल है संक्रांति का ।इस काल में चलते हुए कवि कहता है:.
खरपतवार न शेष रहे,
कचरा कहीं न लेश रहे।
सच में संक्रांति काल से गुजरना निश्चय ही पीड़ादायक है लेकिन कवि की निश्चयात्मक बुद्धि कहती है:
‘प्रणति है आशीष दो रवि
बाँह में कब घेरते हैं
प्रतीक्षा है उन पलों की।’
'काल है संक्राति का’ नामक काव्य संग्रह में यही स्वर उद्घोषित होता है: 'तुम रुको तुम थको नहीं। हम नये युग की ओर बढ़ रहे हैं। पुराना छूट रहा है,नये का आगमन है।
'सिर्फ सच में
धांधली अब तक चली
अब रोक दे।
सुधारों के लिए खुद को
झोंक दे।'
आक्रोश भी है उम्मीद भी। यह भाव लगभग सभी कविताओं में दृष्टिगोचर होता है:
'सुंदरिये मुंदरिये' की तर्ज़ पर अभिनव प्रयोग द्रष्टव्य है:
‘झूठी लड़े लड़ाई होय
भीतर करें मिताई होय।'
सदा शुभ की प्रेरणा देते हुए ‘करना सदा’ में कवि कहता है:
'हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे।
तुम बन्दूक चलाओ तो.
दीन-धर्म की तुम्हें न चाह
अमन-चैन को देते दाह
तुम जब आग लगाओगे
हम हँस, फिर फूल खिलाएँगे।'
स्थिति कोई भी हो, मनुष्य को उसका सामना करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। समाज में रहते हुए भी भीड़ के साथ होना पड़ता है। 'राम बचाए' में कवि प्रश्न करते हैं:
'दुश्मन पर कम, करे विपक्षी पर
ही क्यों ज्यादा प्रहार हम?
कजरी आल्हा फागें बिसरे
माल जा रहे माल लुटाने
क्यों न भीड़ से
हुए भिन्न हम
राम बचाए।'
'कब होंगे आजाद' में क्षोभ है, स्वतंत्र होने की अभीप्सा है:
रीति-नीति, आचार-विचारों, भाषा का हो ज्ञान।
समझ बढ़े तो सीखें, रुचिकर धर्म नीति विज्ञान।
सुर न असुर, हम आदम यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग तभी तो हो पाएगा, धरती पर आबाद।
कब होंगे आजाद?
कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की सभी रचनाएँ श्रेष्ठ हैं। ‘काल है संक्राति का’ का उद्घोष सभी
रचनाओं में परिलक्षित होता है। सभी रचनाओं की अपनी एक अलग पहचान है। जैसे: उठो पाखी, संक्रांति
काल है, उठो सूरज, छुएँ सूरज, सच की अर्थी, लेटा हूँ, मैं लडूंगा, उड़ चल हंसा, लोकतंत्र का पंछी आदि
विशेष उल्लेखनीय हैं।
अधिकांश बिंब व प्रतीक नए व मनोहारी हैं। कवि ने अपनी भावनाओं को बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया है।इनकी कविताओं की मुख्य विशेषता है घोर अन्धकार में भी आशावादी होना। प्रस्तुत संग्रह हमें साहित्य के क्षेत्र में आशावादी बनाता है। यह पुस्तक अमूल्य देन है साहित्य को। कथ्य व शिल्प की दृष्टि से सभी रचनाएं श्रेष्ठ हैं। पुस्तक पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी है।
आचार्य संजीव 'सलिल' जी को बहुत-बहुत बधाई।
***
पुरोवाक:
हास्य साहित्य परंपरा और 'चमचावली' हास्य-व्यंग्य की दीपावली
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मार्क ट्वेन ने कहा है कि हँसना एक गुणकारी औषधि है मगर इस औषधि को देनेवाला डॉक्टर बहुत मुश्किल से मिलता है। आजकल हर मंच पर हास्य-व्यंग पढ़ने का फैशन होने के बाद भी हास्य-व्यंग्य की सरस काव्य रचनाओं का अभाव है। सामान्यत: चुटकुलेबाजी और फूहड़ टिप्पणियाँ ही हास्य-व्यंग्य के नाम पर सुनाई जाती हैं। यह विसंगति तब है जबकि हिंदी और हिंदी भाषी अंचल की लोक भाषाओँ-बोलिओं में शिष्ट हास्य कविता लेखन-पठन की उदात्त परंपरा रही है। हास्य-व्यंग्य का मूल स्रोत हमारी पुरातन संस्कृति, सभ्यता और जीवन दर्शन में देखा जा सकता है। भारतीय संस्कृति में मृत्यु, भय और दु:ख का विशेष महत्व नहीं है। ब्रह्म सत् चित् के साथ ही आनंद का स्वरूप है जिसके अंश सकल सृष्टि का कण-कण है। ब्रह्म आनंद के रूप में सभी प्राणियों में निवास करता है। उस आनंद की अनुभूति जीवन का परम लक्ष्य माना जाता है। इसी से ब्रह्मानंद शब्द की रचना हुयी है। वह रस, माधुर्य, लास्य का स्वरूप है। इसीलिये ब्रह्म जब माया के संपर्क से मूर्तरूप लेता है तो उसकी लीलाओं में आनंद को ही प्रमुखता दी गयी है। हमारे कृष्ण रास रचाते हैं, छल करते हैं, लीलायें दीखाते हैं। वे वृंदावन की कुंज गलियों में आनंद की रसधार बहा देते हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम भी होली में रंग, गुलाल उड़ाते हैं और सावन में झूला झूलते हैं। उनकी मर्यादा में भी भक्त आनंद का अनुभव करते हैं। यह आनंदानुभूति निराकार है, इसका चित्र नहीं बनाया जा सकता, इसका चित्र गुप्त है। 'गूँगे के गुण' की तरह आनंद भी प्रसन्नता को जन्म देता है, यह प्रसन्नता अधरों या नेत्रों से व्यक्त होती है। हास्य को आनंद की प्रतीति करानेवाला 'ब्रम्हानंद सहोदर' कहा जा सकता है।
सनातन भारतीय संस्कृति में मृत्यु और दु:ख को अधिक महत्त्व नहीं दिया गया। मृत्यु परिवर्तन की वाहक मात्र है। देह के साथ आत्मा नहीं मरती, वह एक चोला बदलकर दूसra पहन लेती है। कुछ पंथ शरीर का समय पूरा होने पर खुशी मनाते हैं। नाच-गाने, उमंग और उत्साह से पार्थिव शरीर का अंतिम संस्कार किया जाता है कि जीवात्मा अपने स्वामी ब्रह्म से मिलने जा रही है। मिलन की इस पावन बेला में दु:ख, दर्द और शोक क्यों? अंत समय का शोक मोह, अज्ञान और लोक-परंपरा का निर्वहन मात्र है। कुछ पन्थों में शव को दफनाते हैं ताकि वह कुछ जीवों का भोज्य बन जाए, कुछ अन्य पंथ शव को पक्षियों के भोग हेतु छोड़ देते हैं। सनातन धर्म रोगजनित मृत्यु के कारण शव में उपस्थित रोगाणु अन्यों के लिए घातक होने की सम्भावना के कारण शव-दाह करते हैं जबकि इसी से बनी भभूत से बोले बाबा का शृंगार किया जाता है जो 'सत-शिव-सुंदर' के पर्याय और परम आनंद के प्रतीक हैं। वे नृत्य, गायन, व्याकरण, भाषा आदि के केंद्र हैं जिनसे प्राणी के मन में आनंद का सागर हिलोरें लेने लगता है। हम अवतारों की जयंतियाँ उत्साह और श्रध्दा सहित मानते किन्तु निधन तिथियों को भूलकर भी याद नहीं करते। हम मूलत: आनंद को ईश्वर का पर्याय मानते हैं। इसलिए आनंददायी हास्य-व्यंग्य की परंपरा वेद-पूर्व से तत्कालीन भाषाओं के साहित्य में है। लौकिक और वैदिक संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश आदि के साहित्य में हास्य-व्यंग्य की छटा देखते ही बनती है। उदाहरण: - "मम पुत्रस्य अन्नवस्त्रादि-व्ययं समग्रं सर्वकारः एव निर्वहति।" इति उक्तवती रुक्मिणी-देवी। = "कथं सम्भवति तत्?" कीदृशः उद्योगः तस्य ??" इति पृष्टवती मालादेवी। -"एकपैसात्मक-व्ययः अपि नास्ति तस्य। यतः आजीवनकारागारवासेन दण्डितः अस्ति सः।" (लौकिक संस्कृत) पुत्र के अन्न-वस्त्रादि की व्यवस्था हतु उसे आजीवन कारावास के उपाय में छिपे व्यंग्य को सहज ही अनुभव किया जा सकता है।
अपभ्रंश साहित्य में संवत १२४१ विक्रम में सोमप्रभ सूरि रचित 'कुमार पाल प्रतिबोध' से एक दोहा देखिए: 'बेस बिसिट्ठइ बारियइ, जइबि मनोहर गत्त। / गंगाजल पक्वालियवि, सुणिहि कि होइ पवित्त।। अर्थात ''वेश-धारियों से बचें, चाहे मनहर गात। / गंग-स्नान से हो नहीं,पावन कुतिया जात।।'सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है' अथवा 'मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से' जैसी लोकोक्तियों का सार अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी के निम्न दोहे में हो सकता है जहाँ दोहाकार की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी? 'रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु। / चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरु।। अर्थात् एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात। / दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात।।
संत कबीर हास्य-व्यंग्य परंपरा के श्रेष्ठ वाहक रहे। वे ब्रम्ह के साथ जो रिश्ता जोड़ते हैं उसकी कल्पना भी आसान नहीं है: 'हम बहनोई, राम मोर सारा। हमहिं बाप, हरिपुत्र हमारा।।' लोक भी हास्य-व्यंग्य का आनंद लेने में पीछे नहीं रहता- 'फागुन में बाबा देवर लागे' गाकर ससुअर को छेदती नव्वादु को देखकर कौन सोच सकेगा कि वह शेष समय लज्जा का निर्वहन सहजता और आनंद के साथ करती है। उत्सवधर्मी भारतीय मनीषा आराध्य के साथ भी हंसी-ठिठोली करने से बाज नहीं आती। भगवान जगन्नाथ के दर्शनकर एक भक्त कवि के मन में प्रश्न है कि भगवान काठ क्यों हो गये? 'कठुआ जाना' लोक बोली का एक मुहावरा है। भक्त अपनी कल्पना की उड़ान से संस्कृत में जो छंद रचता है उसका हिन्दी रूपान्तर कुछ इस तरह किया जा सकता है -'भगवान की एक पत्नी आदतन वाचाल हैं (सरस्वती) दूसरी पत्नी (लक्ष्मी) स्वभाव से चंचल हैं। वह एक जगह टिक कर रहना नहीं चाहतीं। उनका एक बेटा मन को मथनेवाला कामदेव है जो अपने पिता पर भी शासन करता है । उनका वाहन गरूड़ है। विश्राम करने के लिये उन्हें समुद्र में जगह मिली है। सोने के लिये शेषनाग की शैय्या है। भगवान विष्णु को अपने घर का यह हाल देख कर काठ मार गया है। एक अन्य भक्त कवि आशुतोष शंकर का दर्शन कर सोचता है कि इस भोले भण्डारी, जटाधारी, बाघम्बर वस्त्र पहनने वाले के पास खेती-बारी नहीं है। रोजी का कोई साधन नहीं है तो इनका गुजारा कैसे होते है। भक्त संस्कृत में छंद कहता है: 'उनके पास पाँच मुँह हैं। उनके एक बेटे (कार्तिकेय) के छह मुँह हैं। दूसरे बेटे गजानन का मुँह और पेट थी का है। यह दिगबंर कैसे गुजारा करता अगर अन्नपूर्णा पत्नी के रूप में उसके घर नहीं आतीं। तीसरा भक्त कवि कहता है कि भगवान शंकर बर्फीले कैलाश पर्वत पर रहते हैं। भगवान विष्णु का निवास समुद्र में है। इसकी वजह क्या है? निश्चित ही दोनों भगवान मच्छरों से डरते हैं इसलिये उन्होंने ने अपना ऐसा निवास स्थान चुना है। मृच्छकटिक नाटक के रचयिता राजा शूद्रक हैं ब्राह्मणों की खास पहचान 'यज्ञोपवीत 'की उपयोगिता के बारे में ऐसा व्यंग्य करते हैं जिसे सुनकर हँसी नहीं रुकती। वे कहते हैं: य'ज्ञोपवीत कसम खाने के काम आता है। अगर चोरी करना हो तो उसके सहारे दीवार लांघी जा सकती है।'
हास्य का जलवा यह कि संस्कृत वांग्मय में हास्य को सभी आचार्यों ने रस स्वीकार किया है। भरत मुनि कृत नाट्यशास्त्र के अनुसार- 'विपरीतालंकारैर्विकृताचाराभिधानवेसैश्च/विकृतैरर्थविशेषैहंसतीति रस:स्मृतो हास्य:।।'भावप्रकाश में लिखा है- 'प्रीतिर्विशेष: चित्तस्य विकासो हास उच्यते।'साहित्यदर्पणकार का कथन है- 'वर्णदि वैकृताच्चेतो विकारो हास्य इष्यते विकृताकार वाग्वेश चेष्टादे: कुहकाद् भवेत्।।दशरूपककार की उक्ति है- 'विकृताकृतिवाग्वेरात्मनस्यपरस्य वा / हास: स्यात् परिपोषोऽस्य हास्य स्त्रिप्रकृति: स्मृत:।। सार यह है कि हास एक प्रीतिपरक भाव है और चित्तविकास का एक रूप है। उसका उद्रेक विकृत आकार, विकृत वेष, विकृत आचार, विकृत अभिधान, विकृत अलंकार, विकृत अर्थविशेष, विकृत वाणी, विकृत चेष्टा आदि द्वारा होता है। इन विकृतियों से युक्त हास्यपात्रता कवि, अभिनेता, वक्ता द्वारा कथनी या करनी से किया जाना हास्य है। विकृति का तात्पर्य है प्रत्याशित से विपरीत अथवा विलक्षण कोई ऐसा वैचित्र्य, कोई ऐसा बेतुकापन, जो हमें प्रीतिकर जान पड़े, क्लेशकर न जान पड़े। इन लक्षणों में पाश्चात्य समीक्षकों के प्राय: सभी लक्षण समाविष्ट हो जाते हैं, जहाँ तक उनका संबंध हास्य विषयों से है। ऐसा हास जब विकसित होकर हमें कवि-कौशल द्वारा साधारणीकृत रूप में, अथवा आचार्य पं. रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली के अनुसार, मुक्त दशा में प्राप्त होता है, वह हास्यरस कहलाता है। हास के भाव का उद्रेक देश-काल-पात्र-सापेक्ष रहता है। घर पर कोई खुली देह बैठा हो तो दर्शक को हँसी न आएगी परंतु उत्सव में भी वह इसी तरह पहुँच जाए तो उसका आचरण प्रत्याशित से विपरीत या विकृत माना जाने के कारण हँसी जगा देगा। इसी तरह युवा व्यक्ति श्रृंगार करे तो फबने की बात है किंतु जर्जर वृद्ध का श्रृंगारर हास का कारण होगा; कुर्सी से गिरनेवाले पहलवान पर हम हँसेंगे परंतु छत से गिरनेवाले बच्चे के प्रति हमारी सहानुभूति उमड़ेगी। हास का आधार प्रीति है न कि द्वेष। किसी की प्रकृति, प्रवृत्ति, स्वभाव, आचार आदि की विकृति पर कटाक्ष भी करना हो तो वह कटुक्ति के रूप में नहीं, प्रियोक्ति के रूप में हो। उसकी तह में जलन अथवा नीचा दिखाने की भावना न होकर विशुद्ध संशुद्धि की भावना होगी। संशुद्धि की भावनावाली यह प्रियोक्ति भी उपदेश की शब्दावली में नहीं किंतु रंजनता की शब्दावली में होगी।
वर्तमान काल में हरिमोहन झा ने अपनी हास्य व्यंग्य कृति 'खट्टर काका' में देवी-देवताओं और अवतारों के साथ खूब जमकर ठिठोली की है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, अकबर इलाहाबादी , बाबू बालमुकुंद गुप्त आदि ने अन्योक्तिपूर्ण व्यंग्य लेखन का नया मानक बनाया। उर्दू शायरों ने तो ब्रिटिश शासनकाल में अंग्रेजियत पर ऐसे तीखे प्रहार किये कि अंग्रेज उसे समझ भी नहीं पाते थे और हिन्दुस्तानी उसका जायका लेते थे। अकबर साहब फरमाते हैं - 'बाल में देखा मिसों के साथ उनको कूदते। /डार्विन साहब की थ्योरी का खुलासा हो गया।' जनाब अकबर इलाहाबादी ब्रिटिश अदालत में मुंसिफ थे लेकिन वे अपने व्यंग के तीरों से ऐसा गहरा घाव करते थे कि पढ़नेवाला एक बार उसे पढ़कर हजारों बार उस पर सोचने को मजबूर हो जाता था। लार्ड मैकाले की शिक्षा पध्दति का पोस्टमार्टम जिस बेबाकी से अकबर साहब ने किया उसकी गहराई तक आज के व्यंगकार सोच भी नहीं सकते हैं -'तोप खिसकी प्रोफेसर पहुंचे। बसूला हटा तो रंदा है।' प्लासी की लड़ाई में सिराज्जुदौला को शिकस्त देकर तमाम देसी रियासतों को जंग में मात देकर अंग्रेजों ने तोप पीछे हटा ली और अंग्रेजी पढ़ानेवाले प्रोफेसरों को आगे कर दिया। तोप के बसूले ने समाज को छील दिया और प्रोफेसर के रंदे ने उसे अंग्रेजों के मनमाफिक कर दिया। तोप और प्रोफसर का यह तालमेल ब्रिटिश शिक्षापध्दति पर बेजोड़ और बेरहम हमला है।
पं0 मदनमोहन मालवीय और सर सैयद अहमद खाँ जिन दिनों हिन्दू यूनिवर्सिटी और मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिये प्रयास कर रहे थे उन्हीं दिनों मालवीय जी के मित्र अकबर इलाहाबादी ने अंग्रेजपरस्त सैयद अहमद खाँ को लक्ष्य कर एक शेर कहा- 'शैख ने गो लाख दाढ़ी बढ़ाई सन की सी। मगर वह बात कहाँ मालवी मदन की सी। ' यहाँ 'सन' की शब्द पर गौर कीजिये। दोनों शब्दों को मिला देने पर जो अर्थ निकलता है वह शायर के हुनर की मिसाल है। हास्य के प्रमुख कारक: (अ) अप्रत्याशित शब्दाडंबर: शब्द की अप्रत्याशित व्युत्पत्ति के सहारे 'को घट ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर' -बिहारी, 'न साहेब ते सूधे बतलाएँ, गिरी थारी अइसी झन्नायें, कबौं छउकन जइसी खउख्यायें, पटाका अइसी दगि-दगि जाएँ'-रमई काका, 'मन गाड़ी गाड़ी रहै. प्रीति क्लियर बिनु लैन, जब लगि तिरछे होत नहिं, सिंगल दोऊ नैन' -सुकवि, (आ) विलक्षण तर्कोक्ति: 'पाँव में चक्की बाँध के हिरना कुदा होय', (इ) वाग्वैदग्ध्य (विट्): अर्थ के फेर-बदल के सहारे "भिक्षुक गो कितको गिरिजे? सुत माँगन को बलि द्वारे गयो री / सागर शैल सुतान के बीच यों आपस में परिहास भयो री, (ई) प्रत्युतर में नहले की जगह दहला लगाने की कला: 'गावत बाँदर बैठ्यो निकुंज में ताल समेत, तैं आँखिन पेखे / गाँव में जाए कै मैं हू बछानि को बैलहिं बेद पढ़ावत देखे- काव्य कानन; (उ) व्यंग्य (सैटायर): रामचरितमानस के शिव-बरात प्रसंग में विष्णु की उक्ति 'कि बर अनुहारि बरात न भाई, हँसी करइइहु पर पुर जाई', कृष्णायन में उद्धव की उक्ति 'की भवन जरैहैं मधुपुरी, श्याम बजैहैं बेनु?' भवानीप्रसाद मिश्र जी का गीतफरोश आदि, (ऊ)कटाक्ष (आइरानी):'करि फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराहिं / रे गंधी मति-अंध तू, अतर दिखावत काहि' - बिहारी; 'मुफ्त का चंदन घस मेरे नंदन' - लोकोक्ति; 'मुनसी कसाई की कलम तलवार है' - भड़ोवा संग्रह, (ए) रचना विरूपीकरण (पैरोडी): 'नेता ऐसा चाहिए जैसा रूप सुभाय / चंदा सारा गहि रहै देय रसीद उड़ाय' - चोंच, 'बीती विभावरी जाग री / छप्पर पर बैठे काँव-काँव करते हैं कितने काग री'-बेढब), (ऐ) वक्त्तृत्व विरूपीकरण: अभिनेताओं, नेताओं या कवियों की कहन-शैली की नकल आदि हैं। प्रभाव की दृष्टि से हास्य को (क) परिहास: संतुष्टि प्रधान, व्यंग्य रहित, गुदगुदाता हुआ, तथा (ख) उपहास: संशुद्धि प्रधान, व्यंग्य सहित तिलमिलाता हुआ में वर्गीकृत किया जा सकता है।
भारत के ह्रद्प्रदेश नर्मदांचल के सिवनी जिले निवासी युवा शिक्षक और उत्साही रचनाकार रामकुमार चतुर्वेदी हास्य कविता-लेखन और पठन को गंभीरता से लेकर निरंतर आगे बढ़ रहे हैं। राम कुमार चतुर्वेदी जीवट और संघर्ष की मशाल और मिसाल दोनों हैं। ३४ वर्ष की युवावस्था में सड़क दुर्घटना में रीढ़ की हड्डी, कमर की हड्डी, पसली, कोलर बोन, हाथ-पैर आदि को गंभीर क्षति, दो वर्ष तक पीड़ादायक शल्य क्रिया और सतत के बाद भी वे न केवल उठ खड़े हुए अपितु पूर्वापेक्षा अधिक आत्मविश्वास से शैक्षणिक-साहित्यिक उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। महाकवि शैली के अनुसार ‘अवर स्वीटैस्ट सोंग्स आर दोज विच टैल ऑफ़ सैडेस्ट थोट’, कवि शैलेंद्र के शब्दों में ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ को राम कुमार ने चरितार्थ कर दिखाया है और दुनिया को हँसाने के लिए कलम थाम ली है। चमचावली के दोहे लक्षणा और व्यंजन के माध्यम से देश और समाज में व्याप्त विसंगतियों पर चोट करते हैं-
पढ़कर ये चमचावली, जाने चम्मच ज्ञान।
सफल काज चम्मच करे, कहते संत सुजान।
साधु-संतों की कथनी-करनी और भोग-विलास चमचों की दम पर फलते-फूलते हैं किंतु एक लोकोक्ति के अनुसार ‘बुरे काम का बुरा नतीजा’ मिल ही जाता है-
बाबा बेबी छेड़कर, पहुँच गये हैं जेल।
कैसे तीरंदाज को, मिल जाती है बेल।।
चम्मच अपने मालिक को सौ गुनाहों के बाद भी मुक्त कराकर ही दम लेता है। चमचे की स्वामिभक्ति के सामने श्वान भी हार मान लेता है। एक अभिनेता द्वारा कृष्ण-मृग का शिकार करने के बाद भी उसे दंडित न किये जाने की प्रतिक्रियास्वरूप कवि एक दोहा कहता है-
अपने मालिक के लिए, चम्मच करे उपाय।
हिरन मारकर भी उन्हें, मिल जाता है न्याय।।
संन्यास लिए संत ईश-भक्ति के अलावा शेष संसार को माया और निस्सार समझते हैं। तुलसीदास जी को अकबर द्वारा मनसबदारी दिए जाने पर उन्होंने 'पटा लिखो रघुबीर को, जे साहन के साह / तुलसी अब का होइंगे, नर के मनसबदार' कहते हुए प्रस्ताव अमान्य कर दिया था। किन्तु आगामी चुनाव को देखते हुए शासन द्वारा राज्य मंत्री का पद-प्रस्ताव होते ही तथाकथित संतों ने लपक लिया। इस प्रसंग पर रामकुमार कहते हैं: राजनीति चमचों की चारागाह है-
मंत्री का दर्जा मिला, चहके साधु-संत।
डूबे भोग विलास में, चम्मच बने महंत।।
चमचे सब का हिसाब-किताब माँगते हैं किंतु अपनी बारी आते ही गोलमाल करने से नहीं चूकते-
अपनी पूँजी का कभी, देते नहीं हिसाब।
दूजे के हर टके का, माँगें चीख जवाब।।
राम कुमार की भाषा सरल, सहज, प्रसंगानुकूल चुटीली और विनोदपूर्ण है। हास्य-व्यंग्य की चासनी में घोलकर कुनैन खिला देना उनके लिए सहज-साध्य है। वे सामयिक प्रसंगों को लेकर सरस व्यंग्य प्रहार करते हैं साथ ही हास्य की फुहार से भिगाते चलते हैं। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, यथावसर सम्यक शब्द-प्रयोग, मुहावरेदार भाषा तथा सहजग्राह्यता उनका वैशिष्ट्य है। 'चमचावली' सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दिनानुदिन घटित हो रही घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में कवि के स्वस्थ्य छंटन तथा देश-समाज हित की लोकोपकारी भावना से उत्पन्न हास्य-व्यब्ग्य काव्य है। इस सार्थक, सर्वोपयोगी, पथ-प्रदर्शक कृति का न केवल साहित्यिक जगत अपितु जन सामान्य में भी स्वागत होगा यम मुझे विश्वास है। रामकुमार ने एक मनुष्य, भारत के एक नगरीं और हिंदी के हास्य कवि के रूप में इस कृति की रचना कर अपनी शवासन को सार्थक किया है। उनका उर्वर चिंतन भविष्य में भी ऐसी कृतियों का परायण कराए यही कामना है।
२६-७-२०१८
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सम्पर्क- विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष: ७९९९५५९६१८, salil.sanjiv@gmail.com

मुक्तक
खिलखिलाती रहो, चहचहाती रहो
जिंदगी में सदा गुनगुनाती रहो
मेघ तम के चलें जब गगन ढाँकने
सूर्य को आईना हँस दिखाती रहो
*
दोहा सलिलाः
*
प्राची पर आभा दिखी, हुआ तिमिर का अन्त
अन्तर्मन जागृत करें, सन्त बन सकें सन्त
*
आशा पर आकाश टंगा है, कहते हैं सब लोग
आशा जीवन श्वास है, ईश्वर हो न वियोग
*
जो न उषा को चाह्ता, उसके फूटे भाग
कौन सुबह आकर कहे, उससे जल्दी जाग
*
लाल-गुलाबी जब दिखें, मनुआ प्राची-गाल
सेज छोड़कर नमन कर, फेर कर्म की माल
*
गाल टमाटर की तरह, अब न बोलना आप
प्रेयसि के नखरे बढ़ें, प्रेमी पाये शाप.
*
प्याज कुमारी से करे, युवा टमाटर प्यार
किसके ज्यादा भाव हैं?, हुई मुई तकरार
*
२७-७-२०१४

सोमवार, 26 जुलाई 2021

समीक्षा काल है संक्रांति का चंद्रकांता अग्निहोत्री

समीक्षा
काल है संक्रांति का
चंद्रकांता अग्निहोत्री
*
शब्द, अर्थ, प्रतीक, बिंब, छंद, अलंकार जिनका अनुगमन करते हैं और जो सदा सत्य की सेवा में अनुरत हैं, ऐसे मनीषी के परिचय को शब्दों में बाँधना कठिन है। इनकी कविताओं को प्रयोगवादी कविता कहा जा सकता है। काल है संक्रांति का आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल’ जी की नवीन कृति है। २०१५ में प्रकाशित इस गीत, नवगीत संग्रह में कवि ने कई नए प्रयोग किये हैं। इसमें उन्हें सफलता भी मिली है। नवीन की चाह में इन्होंने शाश्वत मूल्यों को तिलांजलि नहीं दी क्योंकि इस संग्रह में आरंभ में ही 'वंदन' नामक कविता में सब प्रकार से अभिनंदन किया है:
‘शरणागत हम
चित्रगुप्त प्रभु!
हाथ पसारे आए।’
अब वे ’स्तवन’ के अंतर्गत शारदा माँ की स्तुति करते हैं:
‘सरस्वती शारद ब्रह्माणी!
जय-जय वीणापाणी!'
एक आध्यात्मिक यात्री की तरह वे अपने पूर्वजों का स्मरण भी करते हैं:
कलश नहीं आधार बन सकें
भू हो हिंदी धाम।
सुमिर लें पुरखों को हम
आओ करे प्रणाम।
समाज हमें प्रभावित करता है और समाज की विद्रूपताओं को देख कवि हृदय विचलित हो काव्य रचना करता है। चारों और फैले आतंक को महसूस करते कवि कहता है:
‘झोंक दो आतंक-दहशत
तुम जलाकर भाड़
तुम मत झुको सूरज।’
कवि कहता है विकास के,प्रकाश के, नई उड़ान के सूरज तुम मत थकना। यहाँ सूरज प्रतीक है शुभ संकल्प का, उदित श्रेष्ठ संभावनाओं का और कहीं भी भ्रष्टाचार का अँधेरा न हो।
अपने भीतर के सूरज को संबोधित करते हर कवि कहता है:
'तुम रुको नहीं
थको नहीं।'
क्योंकि काल है संक्रांति का ।इस काल में चलते हुए कवि कहता है:.
खरपतवार न शेष रहे,
कचरा कहीं न लेश रहे।
सच में संक्रांति काल से गुजरना निश्चय ही पीड़ादायक है लेकिन कवि की निश्चयात्मक बुद्धि कहती है:
‘प्रणति है आशीष दो रवि
बाँह में कब घेरते हैं
प्रतीक्षा है उन पलों की।’
'काल है संक्राति का’ नामक काव्य संग्रह में यही स्वर उद्घोषित होता है: 'तुम रुको तुम थको नहीं। हम नये युग की ओर बढ़ रहे हैं। पुराना छूट रहा है,नये का आगमन है।
'सिर्फ सच में
धांधली अब तक चली
अब रोक दे।
सुधारों के लिए खुद को
झोंक दे।'
आक्रोश भी है उम्मीद भी। यह भाव लगभग सभी कविताओं में दृष्टिगोचर होता है:
'सुंदरिये मुंदरिये' की तर्ज़ पर अभिनव प्रयोग द्रष्टव्य है:
‘झूठी लड़े लड़ाई होय
भीतर करें मिताई होय।'
सदा शुभ की प्रेरणा देते हुए ‘करना सदा’ में कवि कहता है:
'हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे।
तुम बन्दूक चलाओ तो.
दीन-धर्म की तुम्हें न चाह
अमन-चैन को देते दाह
तुम जब आग लगाओगे
हम हँस, फिर फूल खिलाएँगे।'
स्थिति कोई भी हो, मनुष्य को उसका सामना करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। समाज में रहते हुए भी भीड़ के साथ होना पड़ता है। 'राम बचाए' में कवि प्रश्न करते हैं:
'दुश्मन पर कम, करे विपक्षी पर
ही क्यों ज्यादा प्रहार हम?
कजरी आल्हा फागें बिसरे
माल जा रहे माल लुटाने
क्यों न भीड़ से
हुए भिन्न हम
राम बचाए।'
'कब होंगे आजाद' में क्षोभ है, स्वतंत्र होने की अभीप्सा है:
रीति-नीति, आचार-विचारों, भाषा का हो ज्ञान।
समझ बढ़े तो सीखें, रुचिकर धर्म नीति विज्ञान।
सुर न असुर, हम आदम यदि बन पायेंगे इंसान-
स्वर्ग तभी तो हो पाएगा, धरती पर आबाद।
कब होंगे आजाद?
कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की सभी रचनाएँ श्रेष्ठ हैं। ‘काल है संक्राति का’ का उद्घोष सभी
रचनाओं में परिलक्षित होता है। सभी रचनाओं की अपनी एक अलग पहचान है। जैसे: उठो पाखी, संक्रांति
काल है, उठो सूरज, छुएँ सूरज, सच की अर्थी, लेटा हूँ, मैं लडूंगा, उड़ चल हंसा, लोकतंत्र का पंछी आदि
विशेष उल्लेखनीय हैं।
अधिकांश बिंब व प्रतीक नए व मनोहारी हैं। कवि ने अपनी भावनाओं को बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया है।इनकी कविताओं की मुख्य विशेषता है घोर अन्धकार में भी आशावादी होना। प्रस्तुत संग्रह हमें साहित्य के क्षेत्र में आशावादी बनाता है। यह पुस्तक अमूल्य देन है साहित्य को। कथ्य व शिल्प की दृष्टि से सभी रचनाएं श्रेष्ठ हैं। पुस्तक पठनीय ही नहीं संग्रहणीय भी है।
आचार्य संजीव 'सलिल' जी को बहुत-बहुत बधाई।

रविवार, 18 जुलाई 2021

समीक्षा मीत मेरे चंद्रकांता अग्निहोत्री


समीक्षा ......
मीत मेरे : केवल कविताएँ नहीं
समीक्षक: चंद्रकांता अग्निहोत्री, पंचकूला
[कृति विवरण: मीत मेरे, कविताएँ, संजीव 'सलिल', आवरण पेपर बैक जैकेट सहित बहुरंगी, आकार डिमाई, पृष्ठ १२४, मूल्य १५०/-, समन्वय प्रकाशन, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, चलभाष:७९९९५५९६१८]
*
‘कलम के देव’ ,’लोकतंत्र का मकबरा’ ,’कुरुक्षेत्र गाथा’ ,’यदा कदा’ ‘काल है संक्रांति का’ ‘मीत मेरे’ अन्य कई कृतियों के रचियता व दिव्य –नर्मदा नामक सांस्कृतिक पत्रिका के सम्पादक आचार्य संजीव वर्मा जी का परिचय देना सूर्य को दीपक दिखाना है |
काव्य कृति ‘मीत मेरे’ में कवि की छंद मुक्त रचनाएं संग्रहीत हैं |छंद मुक्त कविता की गरिमा इसी में है कि कविता में छंद बद्धता के लिए बार –बार शब्दों का उनकी सहमति के बिना प्रयोग नहीं किया जा सकता|ऐसे ही प्रस्तुत संग्रह में लगभग सभी कविताओं में प्राण हैं ,गति है ,शक्ति है और आवाह्न है |
उनकी पूरी कृति में निम्न पंक्तियाँ गुंजायमान होती हैं
मीत मेरे
नहीं लिखता
मैं ,कभी कुछ
लिखाता है
कोई मुझसे
*
बन खिलौना
हाथ उसके
उठाता हूँ कलम |
उनकी कविताओं में चिर विश्वास है |गहन चिंतन की पराकाष्ठा है जब वे अपनी बात में लिखते हैं ------
तुम
उसी के अंश हो
अवतंश हो |
सलिल जी का स्वीकार भाव प्रणम्य है |वे कहते हैं ------
रात कितनी ही बड़ी हो
आयेंगे
फिर –फिर सवेरे |
अपने देश की माटी के सम्बन्ध में कहते हैं
सुख –दुःख ,
धूप -छाँव
हंस सहती
पीड़ा मन की
कभी न कहती
...................
भारत की माटी |
सलिल जी की हर कविता प्रेरक है |फिर भी कुछ कवितायें हैं जो विशेष रूप से उद्धहरणीय हैं |..........
जैसे :- सत्यासत्य ,नींव का पत्थर ,प्रतीक्षा ,लत, दीप दशहरा व दिया आदि |
हर पल को जीने की प्रेरणा देती कविता ......जियो
जो बीता ,सो
बीता चलो
अब खुश होकर
जी भर कर जिओ |
समर्पित भाव से आपूरित ------तुम और हमदम
तुम .....विहंस खुद सहकर
जिसके बिना मैं नहीं पूरा
सदा अधूरा हूँ
मेरे साथी मेरे मितवा
वही तुम हो ,वही तुम |
हमदम ......मैं तुम रहें न दो
हो जाएँ हमदम |
आत्म स्वीकृति से ओत प्रोत कविता |
रोको मत बहने दो में .........
मन को मन से
मन की कहने दो
‘सलिल’ को
रोको मत बहने दो |.....बहुत मन भावन कविता है|वास्तव में इस कविता में सियासत के प्रति आक्रोश है व आम आदमी के लिए स्वतंत्रता की कामना |
सपनों की दुकान ......निराशा को बाहर फैंकते हैं सपने|
गीत ,मानव मन ,क्यों ,बहने दे व मृण्मय मानव आदि मनमोहक कवितायेँ हैं |सलिल जी अपनी कविताओं में व्यक्ति स्वतंत्रता की घोषणा करते प्रतीत होते हैं |
रेल कविता .......जीवन संघर्षों का प्रतिबिम्ब |
मुसाफिर .......क्षितिज का नीलाभ नभ
देता परों को नित निमन्त्रण
और चल पड़ता
अनजाने पथ पर फिर
मैं मुसाफिर
जीवन मान्यताओं ,धारणाओं व संघर्षों के बीच गतिमान है
‘ताश’,व संदूक में कवि का आक्रोश परिलक्षित होता है जिनके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं |
व्यंग्य प्रधान रचना ....इक्कीसवीं सदी |
सभी कवितायें यथार्थ के धरातल पर आदर्शोन्मुख हैं ,व्यक्ति को उर्ध्वगमन का सन्देश देती हैं |सलिल जी आप अपनी कविताओं में अभावों को जीते ,उन्हें महसूस करते हुए शाश्वत मूल्यों की स्थापना के लिए प्रयत्न शील हैं |
अंत में यही कहूँगी कि छंदमुक्त होते हुए भी हर कविता में लय है, गीत है व लालित्य है |निखरी हुई कलम से उपजी कविता सान्त्वना भी देती है ,झंझोड़ती, है दुलारती हैं ,उकसाती है व समझाती भी है |जीवन की सीढ़ी चढ़ने की प्रेरणा भी देती है | पंख फैला कर उड़ने के लिए प्रोत्साहित भी करती है |निर्भीक होकर सत्य को कहना सलिल जी की कविताओं की विशिष्टता भी है और गौरव भी |
सच कहूँ तो कविताएँ केवल कविताएँ नहीं बल्कि एक गौरव –गाथा है |
चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री |

मंगलवार, 1 जून 2021

हरियाणवी-पंजाबी लोकगीतों में छंद-छटा - चंद्रकांता अग्निहोत्री

हरियाणवी-पंजाबी लोकगीतों में छंद-छटा
- चंद्रकांता अग्निहोत्री
*
परिचय: जन्म: पंजाब। आत्मजा: श्रीमती लाजवन्ती जी-श्री सीताराम जी। जीवनसाथी: श्री केवलकृष्ण अग्निहोत्री। काव्य गुरु: डॉ. महाराजकृष्ण जैन, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी, ॐ नीरव जी। लेखन विधा: लेखन, छायांकन. पेंटिंग। प्रकाशित: ओशो दर्पण,वान्या काव्य संग्रह, सच्ची बात लघुकथा संग्रह, गुनगुनी धूप के साये गीत-ग़ज़ल।पत्र-पत्रिकाओं में कहानी , लघुकथा, कविता , गीत, आलोचना आदि। उपलब्धि: लघुकथा संग्रह सच्ची बात पुरस्कृत । संप्रति: से.नि. प्रध्यापक/पूर्वाध्यक्ष हिंदी विभाग, राजकीय कन्या स्नातकोत्तर महाविद्यालय ,सेक्टर 11,चंडीगढ़।संपर्क: ४०४ सेक्टर ६, पंचकूला, १३४१०९ हरियाणा।चलभाष: ०९८७६६५०२४८, ईमेल: agnihotri.chandra@gmail.com।
*
भारतीय संस्कृति और धर्म की शिखर पुस्तक 'श्रीमद्भगवद्गीता' की रचनास्थली और धर्माधर्म की रणभूमि रहा हरयाणा प्रांत देश के अन्य प्रांतों की तरह लोककला और लोकसंस्कृति से संपन्न और समृद्ध है। हरयाणवी जीवन मूल्य मेल-जोल, सरलता, सादगी, साहस, मेहनत और कर्मण्यता जैसे गुणों पर भी आधारित है। हरियाणा की उच्च सामाजिक और सांस्कृतिक विशेषताएँ होने के कारण विकास और जनकल्याण के संबंध में हरियाणा आज भी अग्रणी राज्यों में से एक है। इस प्रांत के ग्राम्यांचलों में साँझी माई की पूजा की जाती है। साँझी माई की पूजा के लिए सभी लड़कियाँ व महिलायें एकत्र हो साँझी माई की आरती उतारती हैं। उनके मधुर लोक गीतों से पूरा वातावरण गूँज उठता है। सांझा माई का आरता २२१२ २१२ की लय में निबद्ध होता है ( आदित्य जातीय छंद, ७-५ पदांत गुरु -सं.)
आरता हे आरता/साँझी माई! आरता/आरता के फूलां /चमेली की डाहली/नौं नौं न्योरते/नोराते दुर्गा या सांझी माई
हरियाणा के लोक गीतों में लोरी का बहुत महत्व है। लोरी शब्द संस्कृत भाषा से आया है। यह 'लील' शब्द का अपभ्रंश है, इसका अर्थ झूला झुलाते हुए, मधुर गीत गाकर बच्चे को सुलाना है। इन गीतों को सुनकर हृदय ममता से भर जाता है। (निम्न लोरी गीत का २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद है, जिसमें वाचिक परंपरानुसार यति-स्थान बदलता रहता है, अंत में २८-१३ मात्रिक पंक्तियाँ हैं। इसे दो छंदों का मिश्रण कहा जा सकता है -सं.)
लाला लाला लोरी, ढूध की कटोरी २२ /दूध में बताशा, लाला करे तमाशा २२ / चंदा मामा आएगा, दूध-मलाई खाएगा २८ / लाला को खिलाएगा१३
ममता भरे हृदय से नि:सृत मनमोहक स्वर-माधुर्य लोरी शब्द को सार्थक कर देता है। (निम्न लोरी ३० मात्रिक महातैथिक जातीय रुचिरा छंद में निबद्ध है जिसमें १४-१६ पर यति तथा पदांत गुरु का विधान है- सं.)
पाया माsह पैजनियाँ १४, लल्ला छुमक–छुमक डोलेगा १६/ दादा कह के बोलेगा १४, दादी की गोदी खेलेगा १६।
हरयाणवी लोकगीतों का वैशिष्ट्य भावों की सहज अभिव्यक्ति है तो आधुनिक रचनाओं में शासन-प्रशासन के प्रति आक्रोश की भावनाएँ मुखरित हुई हैं। कवि छैला चक्रधर बहुगुणा हरियाणवी (जयसिंह खानक) ने प्रस्तुत गीत में आज की राजनीति पर करारा व्यंग्य किया है। कवि का आक्रोश उसके हृदय की व्यथा पंक्ति-पंक्ति में अभिव्यक्त है। (३१ मात्रिक छंद में १६-१५ पर यति व पदांत में दो गुरु का विधान रखते हुए अश्वावतारी जातीय छंद में इसे रचा गया है -सं.)
कदे हवाले कदे घुटाले, एक परखा नई चला दी
लूट-लूट के पूंजी सारी, विदेशां मैं जमा करादी
निजीकरण और छंटणी की, एक नइये चाल चला दी
सरकार महकमें बेच रही, या किसनै बुरी सला' दी
या नींव देश की हिला दी, कोण डाटण आळे होगे
हो लिया देश का नाश, आज ये मोटे चाळे होगे
हरियाणवी भाषा अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी ऐसी नहीं है कि अन्य भाषा-भाषियों को समझ में न आए। निम्न रचना में नायिका के मन की सूक्ष्म तरंगों को कवि कृष्ण चन्द ने सुंदर शब्दों में ढाला है। अति सुंदर भाव, शब्द संयोजन तथा व्यंजनात्मक शैली हृदयग्राही है। (विधान ३१ मात्रिक, १७-१४ पर यति, गुरुलघु या लघुगुरु (संभवत:३ लघु या २ गुरु वर्जित, अश्वावतारी जातीय छंद -सं.)
आज सखी म्हारे बाग मैं हे१७ किसी छाई अजब बहार १४
हे ये हंस पखेरू आ रहे | १७
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं,१७ ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै १७ मिलैं कर आपस मैं प्यार १४
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे १७
बड़ी प्यारी सुरत हे इसी, जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे.....
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं, ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै हे मिलैं कर आपस मैं प्यार
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे
बड़ी प्यारी सुरत हे इसी, जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे
जैसे अंबर मैं तारे खिलैं, ये पंख फैलाए ऐसे चलैं
जैसे नीचे को पानी ढलै हे मिलैं कर आपस मैं प्यार
हे मेरे बहुत घणे मन भा रहे बड़ी प्यारी सुरत हे इसी,
जैसे अंबर लगते किसी
मेरै मोहनी मूरत मन बसी, किसी शोभा हुई गुलजार
हे दिल आपस मैं बहला रहे
विवाह-शादी में एक से एक बढ़कर गीत गाये जाते हैं। देखिये एक २६ मात्रिक महाभागवत जातीय छंद की एक झलक:
मैं तो गोरी-गोरी, बालम काला-काला री! १२-१४
मेरे जेठ की बरिये, सासड़ के खाया था री! १३-१४
वा तो बरफियाँ की मार, जिबे धोला-धोला री! १३-१३
जेठ के स्थान पर ससुर, बालम, देवर आदि रखकर बहू अपनी सास से सबके बारे में पूछती है। इन लोकगीतों में हास-परिहास तथा चुहुलबाजी का पुट प्रधान होता है।
देश में हो रही बँटवारा नीति पर कई कवियों की कलम चली है। प्रस्तुत है संस्कारी छंद में एक गीत:
देश में हो रइ बाँटा-बाँट / बनिया बामन अर कोइ जाट १६-१६
सावन के महीने में मैके की याद आना स्वाभाविक है। यौगिक छंद (यति १५-१३) में रचित इस लोकगीत में बाबुल के घर की मौज-मस्ती का सजीव चित्रण हुआ है:
नाना-नानी बूँदिया सा,वण का मेरा झूलणा १५-१३
एक झूला डाला मन्ने, बाबल जी के राज में १५-१३
सँग की सखी-शेली है सा,वण का मेरा झूलना १५-१३
एक झूला डाला मन्ने, भैया जी के राज में १५-१३
गोद-भतीजा है मन्ने सा,वण का मेरा झूलना १५-१३
यौगिक छंद (यति १४-१४) में एक और मधुर गीत का रसामृत पान करें:
कच्चे नीम की निमोली सावण कदकर आवै रे
बाबल दूर मत व्याहियो, दादी नहीं बुलावण की
बाब्बा दूर मत व्याहियो, अम्मा नहीं बुलावण की
मायके का सुख भुलाए नहीं भूलता, इसलिए हरियाणा की लड़की सबसे प्रार्थना करती है की उसका विवाह दूर न किया जाए। ऐसा न हो कि वह सावन के महीने में मायके न आ सके।
हरियाणावी गीतों में लयबद्धता, गीतिमयता, छंदबद्धता व् मधुरता के गुण पंक्ति-पंक्ति में अन्तर्निहित हैं। इस अंचल की सभ्यता व संस्कृति को इन लोकगीतों में पाया जा सकता है। इन गीतों में सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य भी देखा जा सकता है। करतार सिंह कैत रचित निम्न गीत में दलितोद्धार के क्षेत्र में अग्रणी रहे आंबेडकर जी को याद किया गया है:
बाबा भीम को करो प्रणाम रे १८ / बोलो भीम भीम भीम भीम रे...टेक / भारत का संविधान बनाया, १७ / सभी जनों को गले लगाया १६ / पूरा राख्या ध्यान रे... १३ बोलो भीम भीम... / इनका मिशन घणा लाग्या प्यारा १८ / भीम मिशन तै मिल्या सहारा १७ / सब सुणो करकै ध्यान रे १४ बोलो भीम भीम.../ बाबा साहब की ज्योत जगाओ, १८ / इनके मिशन को सफल बनाओ १७ / थारा हो ज्यागा कल्याण रे १७ / बोलो भीम भीम.../ करतार सिंह ने शबद बनाया १७ / सभा बीच मैं आकै गाया १६ / जिसका कोकत गांव रे १३ / बोलो भीम भीम...
पंजाबी काव्य में छंद छटा:
लोकगीत मिट्टी की सौंधी खुशबू की तरह होते हैं, जैसे अभी-अभी बरसात ने धरती को अपनी रिमझिम से सहलाया हो, जैसे हवा के झोंको ने अभी अभी कोई सुंदर गीत गाया हो या पेड़ों से गुजरती मधुर बयार ने हर पत्ते को नींद से जगाया हो तो फिर क्यों न बज उठे पत्तों की पाजेब। ऐसा ही हमारा लोक साहित्य, साहित्य तो साहित्य है लेकिन लोकसाहित्य जनमानस के अति निकट है, उसकी धड़कन जैसा, उसकी हर सांस जैसा, ऐसे कि जैसे हर दर्द, सबका दर्द, हर ख़ुशी, सबकी ख़ुशी। पंजाबी लोककाव्य जैसे माहिया, गिद्दा, टप्पे, बोलियाँ आदि प्रदेश की सीमा लाँघकर देश-विदेश में पहचाने और गाये जाते हैं:
माहिया:
माहिया पंजाब का सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकगीत है। प्रेमी या पति को 'माहिया वे' सम्बोधित किया जाता है। इस छंद में श्रृंगार रस के दोनों पक्ष होते हैं। अब अन्य रस भी सम्मिलित किये जाने लगे हैं। इस छंद में प्रायः प्रेमी-प्रेमिका की नोक-झोंक रहती है। जो अभिव्यक्तियाँ हैं जो कभी न कही जा सकीं, जो दिल के किसी कोने मे पड़ी रह गईं, जिन्हें समाज ने नहीं समझावही व्यथा कई रूपों में प्रकट होती है। पत्नी को ससुराल, अपने माही के साथ ही जाना है, वह अपने आकर्षण-विकर्षण को छिपाती नहीं है:
पैली-पैली वार मैनू नाई लैण आ गया(तीन बार) / नाई दे नाल मेरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए, मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोल्या न जाए। नाई वे... नाई ते बड़ा शुदाई, मैं एहदे नाल नईजाणा ३
दूजी-दूजी बार मैनू सौरा लैण आ गया। सौरे दे नाल मेंरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए, मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोलया न जाए। सौरा वे....सौरा मुहं दा कौड़ा, मैं एहदे नाल नई जाणा ३
तीजी-तीजी वार मैनू जेठ लैण आ गया ३,जेठे दे नाल मेरी जांदी ए बलां
घुंड चकया न जाए ,मुंहों बोल्या न जाए।, कुंडा खोलया न जाए (घूंघट उठाना )
जेठ वे.... जेठ दा मोटा पेट , मैं अहदे नाल नई जाणा
चौथी-चौथी वार मैनू दयोर लैण आ गया।, दयोर दे नाल मेरी जांदी ए बलां (मुसीबत)
घुंड चकया न जाए ,मुंहों बोल्या न जाए, कुंडा खोलया न जाए
दयोर वे ..दयोर दिल दा चोर ....मैं अहदे नाल नई जाणा (देवर)
पंजवी वार मैनू आप लैण आ गया, माहिये दे नाल मैं टुर जाणा
घुंड चकया वि जाय ,मुंहों बोल्या वि जाय ,कुंडा खोल्या वि जाए
माहिया वे.... माहिया ढोल सिपाहिया मैं तेरे नाल टुर जाणा |
माहिया: यह पंजाबी का सर्वाधिक लोकप्रिय छंद है। यह एक मात्रिक छंद है। इसकी पहली और तीसरी पंक्ति में १२-१२ मात्राएं (२२११२२२) तथा दूसरी पंक्ति में १० (२११२२२) मात्राएँ रहती हैं। तीनों पंक्तियों में सभी गुरु भी आ सकते हैं। पहले और तीसरे चरण में तुकांत से चारुत्व वृद्धि होती है। प्रवाह और लय अर्थात माहिया का वैशिष्ट्य है। इस छंद में लय और प्रवाह हेतु अंतिम वर्ण लघु नहीं होना चाहिए। सगाई-विवाह आदि समारोहों में माहिया छंद पर आधारित गीत गाए जाते हैं।
तुम बिन सावन बीते १२ / आना बारिश बन १० / हम हारे तुम जीते १२
कजरा यह मुहब्बत का / तुमने लगाया है / आँखों में कयामत का। -सूबे सिंह चौहान ..
खुद तीर चलाते हो / दोष हमारा क्या / तुम ही तो सिखाते हो। -कृष्णा वर्मा
अहसास हुए गीले / जुगनू सी दमकी / यादों की कंदीलें।
स्व. श्री प्राण शर्मा जी लन्दन के इस माहिए में संसार की नश्वरता का वर्णन है:
कुछ ऐसा लगा झटका / टूट गया पल में / मिट्टी का इक मटका।
पारंपरिक माहिया को नयी जमीन देते हुए संजीव सलिल जी ने सामयिक-सामाजिक माही लिखे हैं:
हर मंच अखाडा है / लड़ने की कला गायब / माहौल बिगाड़ा है.
सपनों की होली में / हैं रंग अनूठे ही / सांसों की झोली में.
पत्तों ने पतझड़ से / बरबस सच बोल दिया / अब जाने की बारी
चुभने वाली यादें / पूँजी हैं जीवन की / ज्यों घर की बुनियादें
है कैसी अनहोनी? / सँग फूल लिये काँटे / ज्यों गूंगे की बोली
भावी जीवन के ख्वाब / बिटिया ने देखे हैं / महके हैं सुर्ख गुलाब
चूनर ओढ़ी है लाल / सपने साकार हुए / फिर गाल गुलाल हुए
मासूम हँसी प्यारी / बिखरी यमुना तट पर / सँग राधा-बनवारी
देखे बिटिया सपने / घर-आँगन छूट रहा / हैं कौन-कहाँअपने?
हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ गीतकार-छन्दाचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने माहिया का प्रयोग गीत लेखन में करते हुए मुखड़ा और अंतरा दोनों माहिया छंद में रचकर सर्वप्रथम यह प्रयोग किया है:
मौसम के कानों में / कोयलिया बोले / खेतों-खलिहानों में।........मौसम के कानों में वाह !
आओ! अमराई से / आज मिल लो गले, / भाई और माई से।....बहुत खूब
आमों के दानों में / गर्मी रस घोले, बागों-बागानों में--- सुंदर चित्रात्मकता
होरी, गारी, फगुआ / गाता है फागुन, / बच्चा, बब्बा, अगुआ।...अनमोल फागुन
सलिल जी ने एक और आयाम जोड़ा है माहिया ग़ज़ल का:
माहिया ग़ज़ल:
मापनी: ३ x ( १२-१०-१२)
मत लेने मत आना / जुमला, वादों को / कह चाहा बिसराना
अब जनता की बारी / सहे न अय्यारी / जन-मत मत ठुकराना
सरहद पर सर हद से / ज्यादा कटते क्यों? / कारण बतला जाना ​
मत संयम तुम खोओ / मत काँटे बोओ / हो गलत, न क्यों माना?
मंदिर-मस्जिद झगड़े / बढ़ने मत देना / निबटा भी दो लफड़े
भाषाएँ बहिनें हैं / दूरी क्यों इनमें? / खुद सीखो-सिखलाना
जड़ जमी जमीं में हो / शीश रहे ऊँचा / मत गगनबिहारी हो
परिवार न टूटें अब / बच्चे-बूढ़े सँग / रह सकें न अलगाना
अनुशासनखुद मानें / नेता-अफसर भी / धनपति-नायक सारे ​
बह स्नेह-'सलिल' निर्मल / कलकल-कलरव सँग / कलियों खिल हँस-गाना
टप्पे:
कोठे ते आ माइया / मिलना तां मिल आ के / नईं तां खसमां नूं खा माइया। (एक गाली )
की लैणा ए मित्रां तों / मिलन ते आ जांवा / डर लगदा ए छितरां तों। (जूते )
चिट्टा कुकड़ बनेरे ते (मुर्गा ) / बांकिये लाडलिए (सुंदर) / दिल आ गया तेरे ते |
१२-१३ मात्राओं व समान तुकांत की तथा दूसरी पंक्ति २ कम मात्राओं व भिन्न तुकांत की होती है. कुछ महियाकारों ने तीनों पंक्तियों का समान पदभार रखते हुए माहिया रचे हैं. डॉ. आरिफ हसन खां के अनुसार 'माहिया का दुरुस्त वज़्न पहले और तीसरे मिसरे के लिये फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलुन्, फ़एलान्] मुतदारिक मख़बून /मख़बून मज़ाल] और दूसरे मिसरे के लिए फ़ेलु .. फ़ऊल्.. फ़अल्/फ़ऊल् [मुतक़ारिब् असरम् मक़्बूज़् महज़ूफ़् /मक़सूर्] है। इन दोनों औजान [वज़्नों] पर बित्तरतीब [क्रमश:] तकसीन और तख़नीक़ के अमल हैं। मुख़तलिफ़ मुतबादिल औज़ान [वज़न बदल-बदल कर विभिन्न वज़्न के रुक्न] हासिल किये जा सकते हैं. [तफ़सील के लिये मुलाहिज़ा कीजिए राकिम उस्सतूर (इन पंक्तियों के लेखक) की किताब ’मेराज़-उल-अरूज़’ का बाब (अध्याय) माहिए के औज़ान]।'
बोलियाँ:
बारी बरसी खटन गया सी खट के लियांदी लाची |(कमाने,फल )
गिद्दा तां सजदा जे नचे मुंडे दी चाची (लड़का ,दूल्हा )
मेरे जेठ दा मुंडा नी बड़ा पाजी / नाले मारे अखियां नाले आखे चाची
नी इक दिन शहर गया सी / औथों कजल लियाया (वहां से )
फिर कहंदा / की (क्या) कहंदा? / नी कजल पा चाची, / नी अख मिला चाची २
बल्ले-बल्ले नि तोर पंजाबन दी (चाल )/ जुत्ती खल दी मरोड़ा नइयों झलदी / तोर पंजाबन दी। (चाल)
बल्ले- बल्ले कि तेरी मेरी नहीं निभणी।/ तूँ तेलण मैं सुनियारा / तेरी मेरी नईं निभणी
बल्ले-बल्ले तेरी मेरी निभ जाऊगी / सारे तेलियां दी जंज बना दे /के तेरी-मेरी निभ जाऊगी |
एक समय सब अपने रिश्तों के प्रति समर्पित थे। पति कैसा भी हो पत्नी के लिए वही सब कुछ होता था। प्रस्तुत गीत में सास के प्रति उपालम्भ है क्योंकि वह तो अपने सभी बच्चों से प्रेम करती है, जबकि बहू को तो अपना पति ही सबसे प्रिय है |
काला शा काला, / मेरा काला ए सरदार,गौरयाँ नूं दफा करो |
मैं आप तिले दी तार गौरयां नूं दफा करो |(अर्थात काले रंग पर सुनहरी बहुत जचता है )
ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, / दो एबी दो शराबी, / जेहड़ा मेरे हान दा ओह खिड़िया फुल गुलाबी|
काला शा काला / ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, / दो टीन दो कनस्तर / जेहड़ा मेरे हान दा ओह चला गया है दफ्तर |
काला शा काला ओह काला शा काला
ससड़िये तेरे पंज पुत्तर, /दो कम्बल ते दो खेस | जेहड़ा मेरे हान दा ओह चला गया परदेस |
काला शा काला....ओह काला शा काला / मेरा काला ए सरदार,गौरयाँ नूं दफा करो |
मैं आप तिले दी तार गौरयां नूं दफा करो
पंजाबी लोकगीतों माहिया, टप्पे,बोलियां, गिद्दा, भांगड़ा आदि में मन की हर इच्छा को सहजता-सरलता व ईमानदारी से प्रस्तुत किया जाता है।
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