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मंगलवार, 7 नवंबर 2023

मेरे गीत गोमती का जल, ओमप्रकाश शुक्ल

 मेरे गीत गोमती का जल : सलिल प्रवाहित कलकलकल 

*

ॐ अनादि-अनंत है। ॐ से उत्पन्न सृष्टि का ॐ में ही विलय होता है। ॐ का प्रकाश 'श्याम' नहीं; शुक्ल ही होता है। ॐ की ऊर्जा ही जीव रूप में अवतार लेती है। सुयोग है की ॐ के एक अंश ने गोमती तीर पर धरावतरण किया और गोमती किनारे बालुका राशि के अक्षर कणों से घरघूला बनाते हुए अक्षरों को जोड़कर विचार  को व्यक्त करना सीखा और 'गाँधी और उनके बाद' जैसी विचारोत्तेजक-समजोपयोगी कृति के रचना की।   

गोमती के सलिल-प्रवाह में अंतर्निहित छंद को आत्मसात कर ॐ का प्रकाश अपनी शुक्लता को गीत पंक्तियों में समाहित कर 'मेरे गीत गोमती का जल' की रचना कर सका है। 'नीता' का सत्संग पाकर नीति-पथ पर चलना स्वाभाविक है। ॐ प्रकाश के गीत देश और समाज, प्रकृति और नियति, कर्तव्य और भावना, व्यष्टि और समष्टि, प्रेम और क्षेम के दो किनारों के बीच भाव-रस के प्रवाह पर अभिव्यक्ति का सेतु बनाते चलते हैं। 

इन गीतों में लोक है तो उसमें व्याप्त लोभ और उससे उपजा शोक भी है, कान्हा है तो कनुप्रिया भी है, फागुन है तो बसंत भी है। ॐ प्रकाश की शुक्लता बाह्य नहीं आभ्यंतरिक है। वह करात्रिमत से सर्वथा दूर है- 

बनावटी ही शब्द अगर मैं चुनकर लाऊँगा 

प्रणय गीत या राष्ट्र वंदना कैसे गाऊँगा?  

इन गीतों में हृदयोद्गार पंक्ति-पंक्ति में समाहित है। अमिधा और लक्षणा का प्रयोग अधिक है। व्यंजना भोजन में नमक की तरह ही होनी चाहिए, और है। सरलता, सहजता और सुबोधता का मणि-कांचन योग इनमें है। प्रिय ॐप्रकाश 'दिमाग' से नहीं 'दिल' से गीत रचते हैं, इसलिए वे सीधे दिल तक पहुँचते हैं। हार्दिक बधाई। विश्वास है ये लोकप्रिय होंगे और ॐप्रकाश के सृजनशील व्यक्तित्व का अन्य पहलू लेकर नई कृति शीघ्र ही प्राप्त होगी। 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

संयोजक विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभिएन 

४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 

९४२५१८३२४४ 



सोमवार, 6 जुलाई 2020

साहित्य की हर विधा मे पारंगत सलिल जी ओमप्रकाश शुक्ल

साहित्य की हर विधा मे पारंगत सलिल जी
ओमप्रकाश शुक्ल 
साहित्यिक संसार मे आज संजीव वर्मा सलिल जी का अपना एक मुकाम है। भारत सरकार से सेवानिवृत्त ईंजीनियर एक विज्ञान के विद्यार्थी की हिन्दी साहित्य मे इतनी मजबूत पकड़ एकदम ईश्वरीय कृपा ही है। साहित्य की हर विधा मे पारंगत सलिल जी प्रसिद्ध छायावादी कवयित्री श्रद्धेया महादेवी वर्मा जी के भतीजे हैं।गद्य हो या पद्य कविता, छंद,कहानी, लघुकथा सभी तरह के साहित्यिक सृजन मे उनकी अनेक एकल पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। यही नहीं नव रचनाकारों के प्रोत्साहन हेतु उन्होंने अनेक साझा काव्य संग्रह प्रकाशित करवाये हैं और आज भी नवांकुरों के लिए पूर्णतः समर्पित हैं।
आदरणीय सलिल जी अनेक मंचो के संरक्षक और पोषक होने के साथ ही कई मंचों मे अहम दायित्व नीर्वहन कर रहे हैं।
देश के विभिन्न क्षेत्रों मे होने वाले स्तरीय आयोजनों मे उनकी सहभागिता निरंतर होती रहती है।
‌आदरणीय सलिल जी से मेरी पहचान फेसबुक से ही हुई।
‌काव्य की बारीकियों को समझने के लिए उनका गुरुतुल्य स्नेह सदैव मिलता रहता है।
‌मेरे काव्य संग्रह "गाँधी और उनके बाद" का पुरोवाक मेरे एक ही आग्रह पर उन्होंने लिखा और दिल्ली के प्रगति मैदान मे अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले मे उसके लोकार्पण मे एक ही आग्रह पर जबल पुर से दिल्ली आए। मै उनके इस स्नेह को कैसे भुला सकता हूँ।मुझे उनसे अपनी पुस्तक की सार्थक समीक्षा और आशीर्वाद प्राप्त हुआ। उसके बाद कई बार पुनः उनसे मिलना हुआ। पिछले दिनो अभी उनके दिल्ली प्रवास के दौरान उन्हें अपने घर पर ही रुकने को कहा और उन्होंने इंकार नहीं किया। इस दौरान उनका सानिध्य प्राप्त हुआ जो मेरे जीवन के लिए बहुमूल्य क्षण रहे। बहुत कुछ जानने को मिला उनसे और अभी भी बहुत कुछ समझना और सीखना चाहता हूँ।
‌इस दौरान मुझे पता चला की ट्रूमीडिया समूह के प्रमुख संपादक डा. ओम प्रकाश प्रजापति जी जुलाई 2019 का ट्रुमीडिया विशेषांक आदरणीय आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी के व्यक्तित्व /कृतित्व पर केंद्रित करके प्रकाशित कर रहे हैं। मै अपनी ओर से आचार्य सलिल जी को इसके लिए सहृदय बधाई प्रेषित करता हूँ। और डा. प्रजापति जी का भी धन्यवाद करना चाहता हूँ कि इस माध्यम से वो हमे ऐसे ज्ञानी पुरुष के जीवन और उपलब्धियों के अनछुए पहलुओं को जानने का अवसर प्रदान कर रहे हैं।
पुनः हार्दिक बधाई ।।

सादर,, ओम प्रकाश शुक्ल
महासचिव
युवा उत्कर्ष साहित्यिक मंच(न्यास)

बुधवार, 3 जनवरी 2018

kruti charcha-

कृति चर्चा:
'गाँधी और उनके बाद' 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
[कृति विवरण: गाँधी और उनके बाद, काव्य संग्रह, ISBN No.: 13-978-93-83198-07-8, ओमप्रकाश शुक्ल, २०१८, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पृष्ठ  ६०, १५०/-, पाल प्रकाशन, १८२ चंद्रलोक, मंडोली मार्ग, दिल्ली ११००९३, कवि संपर्क: ]     
*
               सनातन मूल्यों के वर्तमान संक्रमण काल में सत्य और अहिंसा की आधार शिला पर  अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, राजनैतिक और सामाजिक जीवन इमारत खड़ी करनेवाले, साधारण रूप-रंग, कद-काठी किंतु असाधारण ही नहीं अनुपमेय चिंतन शक्ति और कर्म निष्ठा के जीवंत उदाहरण गाँधी जी से आत्मिक जुड़ाव की अनुभूति कर, उनके व्यक्तित्व-कृतित्व से अभिभूत होकर, एकांतिक निष्ठा और समर्पण के दिव्य भाव से समर्पित होकर एक युवा द्वारा ६५ काव्य रचनाएँ की जाना विस्मित करता है। म. गाँधी की नौका पर चढ़कर चुनावी वैतरणी पार करनेवाले उनके नाम का सदुपयोग (?) उनके जीवन काल से अब तक असंख्य बार करते रहे हैं और न जाने कब तक करते रहेंगे। गाँधी जी के विचारों की हत्या कर उनके अनुयायी होने का दावा करनेवालों की संख्या भी अगणित है किंतु बिना किसी स्वार्थ के गाँधी जी के व्यक्तित्व-कृतित्व से अपनत्व और अभिन्नता की प्रतीति कर काव्य कर्म को मूर्त करने की साधना न तो सहज है, न ही सुलभ। प्रतिदिन प्रकाशित हो रही अगणित हिंदी काव्य रचनाओं के बीच शुचि-सात्विक चिंतनपरक सृजन का वैचारिक अश्वमेध बिना दृढ़ संकल्प पूर्ण नहीं होता। 

               काव्य रचना वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ प्रचुर शब्द-भण्डार, प्रासंगिक कथ्य, सम्यक भावाभिव्यक्ति, छांदस लयात्मक अभिव्यक्ति, यथोचित आलंकारिक सज्जा, बिंब-प्रतीक के सप्तपदीय अनुशासन के साथ शब्द-शक्तियों और रस के समन्वययुक्त नवधा अनुष्ठान को पूर्ण करने की संश्लिष्ट प्रक्रिया है। युवा कवि ओमप्रकाश शुक्ल ने  नितांत समर्पण भाव से इस रचना यज्ञ में भावाहुतियाँ दी हैं। इस कृति के पठन के समान्तर पाठक के मन में चिंतन प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। दर्शन शास्त्र में स्नातकोत्तर अध्ययन करते समय गाँधी दर्शन से दो-चार होने के अवसर मिला है। समय-समय पर अपने आचरण में यदा-कदा वह प्रभाव पाता रहा हूँ। 'गाँधी और उनके बाद' की रचनाएँ मुझे मेरे कवि के उस मनोभाव से साक्षात का सुअवसर देता रहा जिसे मैं अभिव्यक्त नहीं कर सका। बहुधा ऐसा लगता रहा जैसे अपनी ही विचार सलिला में अवगाहन कर रहा हूँ। 

               प्रथम रचना में बापू के चरणों में प्रणति-पुष्प अर्पित कर कवि कामना करता है 'देना नित मुझे मार्गदर्शन / कर सकूँ सत्य का अवलोकन'। सत्य - अवलोकन की प्रक्रिया में छद्म गाँधीवादियों की विचार यात्रा को 'दे दी हमें आजादी बिना खड्ग, बिना ढाल / साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल' से आरम्भ होकर 'मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी' तक पहुँचते देख सत्यान्वेषी कवि बरबस ही पूछ बैठता है-
क्या हम हर क्षण, हर पल
सिर्फ गाँधी की दुहाई देंगे?
मृत्यु के पश्चात् भी
क्या हर अच्छे और बुरे कार्य के लिए
उन्हें जिम्मेवार ठहराते रहेंगे?
वर्षों से ध्यान मग्न
उनकी तन्द्रा को भंग करेंगे?
क्या बापू ही
आज तक हर बुराई के लिए
जिम्मेवार हैं?
तो भाई! क्यों नहीं आज तक
आप सभी ने मिलकर
मिटा दिया उन बुराइयों को?

               कवि ही नहीं, मैं और आप भी जानते हैं कि येन-केन-प्रकारेण सिर्फ और सिर्फ सत्ता को साध्य माननेवाले और गाँधी जी के प्रति लोक-आस्था को भुनानेवाले राजनैतिक लोग अपने मन-दर्पण में कभी नहीं  झाँकेंगे। इसलिए वह अपने आप से गाँधी के नाम नहीं विचार के अनुकरण की परंपरा का श्री गणेश करना चाहता है-
मैं बापू के चरित्र से
प्रभावित तो हूँ
और उनके ही समान
बनना चाहता हूँ,
बापू के रंग में रंगकर
एक आदर्श
प्रस्तुत करना चाहता हूँ।

               इस राह में सबसे बड़ी बाधा है बापू का न होना। कवि का यह सोचना स्वाभाविक है कि आज बापू होते तो उनके चरणों में बैठकर उन जैसा बनने की यात्रा सहजता से हो पाती-
हे बापू!
आपके न रहने से
प्रभावित हुआ हूँ मैं।
मेरे अंतर्मन की आशा
जिसमें कुछ कर दिखाने की
थी अभिलाषा
जाने कहाँ विलुप्त हो गयी?

              इन पंक्तियों को पढ़कर बरबस याद हो आती है वह कविता जिसे हमने अपने बचपन में पाठ्य पुस्तक में पढ़कर गाँधी को जाना और एक अनकहा नाता जोड़ा था-
माँ! खादी की चादर दे-दे,  मैं गाँधी बन जाऊँगा
सब मित्रों के बीच बैठकर रघुपति राघव गाऊँगा...
... एक मुझे तू तकली ला दे, चरखा खूब चलाऊँगा

              तब हम सप्ताह में एक दिन तकली भी चलाते थे, और चरखा चलाना भी सीख लिया था। आज तो बच्चों को विद्यालय जाने और पढ़ना-लिखना सीखने के पहले अभिभावक के पहले चलभाष देने में गर्व अनुभव कर रहे हैं।
               यह सनातन सत्य है कि कोई हमेशा सदेह नहीं रहता। गाँधी जी की हत्या न होती तो भी उनका जीवन कभी न कभी तो समाप्त होना ही था। इसलिए अपने मन को समझाकर कवि गाँधी - मार्ग पर चलने का संकल्प करता है-
देख मत दूसरे के दोषों को
तू अपने दोषों का सुधार कर
अहंवाद समाप्त कर
जग में समन्वय पर्याप्त कर
अपनी हर भूल से शिक्षा ले
निज पापों का परिहार कर

               गाँधी-दर्शन 'स्व' नहीं' 'सर्व' के हित साधन का पथ है। कवि गाँधी जी के आदर्श को अपनाने की राह पर अकेला नहीं सबको साथ लेकर बढ़ने का इच्छुक है-
हे बंधु! सुनो
छोड़ो भी ये नारेबाजी
अब मिल तो गयी है आज़ादी
कुछ स्वयं करो
कुछ स्वयं भरो

               निज दोषों और कमियों का ठीकरा गाँधी जी पर फोड़कर खुद कुछ न करनेवाले अन्धालोचकों को कटघरे में खड़ा करते हुए कवि निर्भीकता किंतु विनम्रता से पूछता है-
बकौल तुम्हारे
उनको किसी अच्छाई का श्रेय
नहीं दिया जा सकता
तो अकेले हर बुराई के लिए
वो जिम्मेवार कैसे
फिर गाँधी जैसे व्यक्तित्व को
तुम जैसे तुच्छ सोच
और निरर्थक कृत्य वाले के
प्रमाण पत्र की
किंचित आवश्यकता नहीं
वह स्वयं में प्रामाणिक हैं.

               अपने आदर्श को विविध दृष्टिकोणों से देखने की चाह और विविधताओं में समझने की चाह अनुकरणकर्ता को अपने आदर्श के व्यक्तित्व-कृतित्व के निरीक्षण-परीक्षण तथा उसके संबंध में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित ही नहीं विवश भी करती है। कुछ रचनाओं में भावुकता की अतिशयता होने पर भी कवि ने गाँधी जी के जीवन काल में और गाँधी जी की शहादत के बाद हुए सामाजिक, राजनैतिक और मानसिक परिवर्तनों का तुलनात्मक अध्ययन कर सटीक निष्कर्ष निकाले हैं।
यूँ लगा कि
गाँधी और उनके बाद
'भारत का भाग्य' चला गया।
अब वह मर्मस्पर्शी अपनत्व कहाँ?
अब वह सतयुग सा आभास कहाँ?
'गाँधी और उनके बाद'
वस्तुत:
सत्य यही है कि
युग बदला
समय का मूल्य सब भूल गए
नैतिकता का पतन हुआ
दुखद परिस्थितियों को
आत्मसात करना पडा
सत्य कहा मन ने कि
एक युग का अंत हुआ है
'गाँधी और उनके बाद'

               प्रथमार्ध में छंद मुक्त रचनाओं के साथ द्वितीयार्ध में रचनाकार ने हिंदी ग़ज़ल (जिसे आजकल गीतिका, मुक्तिका, अनुगीत, तेवरी आदि विविध नामों से विभूषित किया जा रहा है) के शिल्प विधान में चाँद रचनान्जलियाँ  समर्पित की हैं। गुरु वंदना के पश्चात प्रस्तुत इन रचनाओं का स्वर गाँधी चिन्तनपरक ही है-
क्यों लिखते हो खार सुनों तुम
लिख दो थोड़ा प्यार लिखो तुम

               प्यार की वकालत करते गाँधी जी और गाँधीवाद का प्रभाव  'मुहब्बत का असर है, आज कविता खूब लिखता हूँ', 'ज़िन्दगी सत्य की डगर पर है', 'प्रेम का ही आवरण दिग छा गया है', 'भारती हो भारती की जय करो', 'राम सदा ही / हैं दुःख भंजन' आदि पंक्तियाँ येन-केन संग्रह के केंद्र बिंदु को साथ रख पाती हैं।

               चतुष्पदिक मुक्तकों में 'हम दिखाते रह गए बस सादगी', 'सतयुग सरीखी रीत निभाया न कीजिए', 'आश औरि विश्वास लै, बाँधि नेह कय डोर', 'भू मंडल के जीव-जंतु सब, पुत्र भांति हैं धरती के', 'ममता, समता दिव्यता नारी के प्रतिरूप', 'ऊबड़-खाबड़ बना बिछौना' जैसी पंक्तियाँ विविध विषयांतर के बाद भी मूल को नहीं छोड़तीं। गाँधी दर्शन के दो बिंदु 'हिंदी-प्रेम' और निष्काम कर्म योग' पर केन्द्रित दो मुक्तक देखें-
हिंदी में रचना करें, हिंदी में व्याख्यान
हिन्दीमय हो हिन्द तब, हो हिंदी उत्थान
राजनीति का अंत ही उन्नति का आधार
भारत तब विकसित बने, हो भाषा का मान
*
कर्म करो मनु प्रभु बसें, हो हर अड़चन दूर
कृपा-दृष्टि की छाँव भी, मिले सदा भरपूर
मालिक नहिं कोई हुआ, धन-वैभव की खान
'शुक्ल' रहे इस जगत में, हर कोई मजदूर

               उक्त दोनों दोहा-मुक्तकों में क्रमश: 'स्वभाषा' और न्यासी (ट्रस्टीशिप) सिद्धांत को कवि ने कुशलता से संकेतित किया है। यह कवि सामर्थ्य का परिचायक है। कवि ने मानक आधुनिक हिंदी के साथ लोक भाषा का प्रयोग कर गाँधी जी की भाषा नीति को व्यावहारिक रूप दिया है।

               'प्रेम डोर से बाँध ह्रदय को', 'द्वेष, कपट, छल, बैर मिटे कुछ / मिलकर ऐसी नीत लिखो तुम', 'द्वेष भाव से विलग रहा हूँ', 'राम-भारत सम भ्रातृ-प्रेम हो', 'भले व्यक्ति को नेता चुन ले', 'लेप नेह का हिय पर मलता', 'मन को दुखी करो मत साथी, होगा जो प्रभु ने ठाना' आदि गीताशों में गाँधी-चिन्तन इस तरह पिरोया गया है कि कथ्य की विविधता के बावजूद गाँधी-सूत्र उस गीत का अभिन्न भाग हो गया है।

               कृति के अंत में सवैये, घनाक्षरी, आल्हा, पद कुण्डलिया तथा चौपाई की प्रस्तुति छांदस कविता के प्रति रचनाकार की रूचि और कुशलता दोनों को बिम्बित करती है। कवि ने अपना गाँधीचिन्तक परक दृष्टि कोण इन लघु रचनाओं में भी पूर्ववत रखा है।

राम प्रभो मनवा अति मोहत               - राम प्रेम, सवैया

'भारती के भाल पर, प्रकृति के गाल पर
सुर और टाल पर, हिंदी हिंदी छाई है '    - स्वभाषा प्रेम, घनाक्षरी

वंदे मातरम बोल सभी के मन में ऐसी अलख जगाय -राष्ट्र-प्रेम, आल्हा

माँ से बड़ा न कोई  जग में....               - मातृ-प्रेम, पद

सारा दिन मेहनत करे ह्रदय चीर मजदूर -श्रमिक शोषण, कुण्डलिया

अंतर्मन सत-रूप बसाओ - सत्य-प्रेम, चौपाई

हित छोड़ो, मत देश -राष्ट्र-प्रेम, सोरठा

सत्य पर हम बलि जाएँ  - सत्य-प्रेम, रोला

हिन्द देश, हिंदी जुबां, हिन्दू हैं सब लोग  -सर्व धर्म समभाव, दोहा

               काव्य को दृश्य काव्य, श्रव्य काव्य और चम्पू काव्य में वर्गीकृत किया गया है। दृश्य काव्य के अंतर्गत दृश्य अलंकार हैं। संस्कृत काव्य में इसे हेय या निम्न माना गया है। इस कारण न तो संस्कृत काव्य में न हिंदी काव्य में चित्र अलंकारों को अधिक प्रश्रय मिला। मैंने चित्र अलंकार का सर्वाधिक उपयुक्त और सटीक प्रयोग डॉ. किशोर काबरा रचित महाकाव्य उत्तर भागवत में श्री कृष्ण द्वारा महाकाल की पूजन प्रसंग में देखा है। प्रबंध काव्य कुरुक्षेत्र गाथा में में स्तूप अलंकार और ध्वजा अलंकार के रूप में मैंने भी चित्र अलंकार का प्रयोग किया है। ओमप्रकाश ने वर्ण पिरामिड तथा डमरू चित्रालंकार प्रस्तुत किये हैं। युवा रचनाकार में निरंतर नए प्रयोग करने की रचनात्मक प्रवृत्ति सराहनीय है।

               कहने की आवश्यकता नहीं कि कोई भी छंद हो, कोई भी विषय हो कवि को हर जगह गाँधी ही दृष्टिगत होते हैं। गाँधी दर्शन के प्रति यह प्रबद्धता ही इस कृति को पठनीय, मननीय और संग्रहणीय बनाती है। मुझे विशवास है कि पाठक वर्ग में इस कृति का स्वागत होगा।
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