कृति-चर्चा
''गीत रामायण'' प्रथम सांस्कृतिक नवगीतीय प्रबंध काव्य
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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(कृति परिचय- गीत रामायण, रामकथा गीतानुवाद, डॉ. रवींद्र भ्रमर, सजिल्द बहुरंगी जैकेट युक्त आवरण, पृष्ठ १४४, प्रथम संस्करण १९९९, मूल्य १५०/-, प्रकाशक ग्रंथायन, सर्वोदय नगर, सासनी गेट, अलीगढ़ २०२००१)
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''गीतों के आत्मा को अक्षुण्ण रखकर रवींद्र 'भ्रमर' ने जो नए प्रयोग किए हैं उनसे निश्चय ही गीतों के विकास को नयी दिशा मिली है।'' - डॉ. हरिवंश राय 'बच्चन'
''रवींद्र 'भ्रमर' के गीतों की सर्वथा नयी शैली है, भावभूमि और अभिव्यक्ति दोनों दृष्टियों से गीत को नया आयाम देने के लिए वे बधाई के पात्र हैं।'' - डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन'
''रवींद्र 'भ्रमर' ने प्रकृति के चित्रों के साथ मन की स्थितियों को जोड़कर अपने गीतों में नया रंग भरने का प्रयत्न किया है।'' - डॉ. शंभु नाथ सिंह
डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' की गीतों में नव्य गीत-शिल्प लोक तत्व तथा संगीतात्मकता तीनों का सुंदर संगम हुआ है।'' - डॉ. रमेश कुंतल मेघ
हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकारों ने 'गीत रामायण' के गीतों को 'नवगीत' क्यों नहीं कहा? गीत वृक्ष के सुदृढ़ तने से विकसित विविध शाखाएँ लोक गीत, बाल गीत, पर्व गीत, ऋतु गीत, आह्वान गीत, जागरण गीत, विवाह गीत, शृंगार गीत, हास्य गीत, नवगीत आदि विशेषणों से अभिषिक्त किए गए हैं।
नवता क्या है? किसी अनुभूति को अभिव्यक्त करते समय विषय, कथ्य, शैली, अलंकार, मिथक, शब्द प्रयोग आदि के निरंतर नए प्रयोग नवता या रचनाकार का वैशिष्ट्य कहे जाते हैं। नवता व्यक्तिगत भी हो सकती है और अभिव्यक्ति गत भी। बच्चा कोई कार्य पहलीबार कर, उसे बार-बार दोहराता-दिखाता है क्योंकि अपनी समझ में उसने यह पहली बार किया है। बड़े उसे प्रोत्साहित करते हैं ताकि वह विकास पथ पर बढ़ता रह सके। साहित्य सृजन में हर नया रचनाकार अपने से पहले के रचनाकारों को सुन-पढ़कर लेखन आरंभ करता है, कुछ वरिष्ठ जनों द्वारा बनाई गई लीक का अनुसरण करते हैं, कुछ अन्य लीक से हटकर लिखते हैं। लोक कहता है- 'लीक तोड़ तीनों चलें, शायर सिंह सपूत'। मैं इसमें जोड़ता हूँ 'लीक-लीक तीनों चलें, कायर काग कपूत'। रचनाकार जब पूर्ववर्तियों द्वारा बनाई परंपरा से हटकर लिखता है तो कालजयी दृष्टि रखनेवाले उसे आशीषित करते हैं। डॉ. बच्चन और डॉ. सुमन ने गीत रामायण के रचनाकार को मुक्त कंठ से आशीष दिए हैं।
किसी वैचारिक आंदोलन अथवा विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रचनाकार अपनी मान्यताओं से हटकर अन्य किसी को महत्व कम ही देते हैं। डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत को एक आंदोलन के रूप में विकसित करने और उसे साहित्यिक मंच पर स्थापित करने में केंद्रीय भूमिका निभाई।स्वाभाविक है कि डॉ. शंभुनाथ सिंह ने नवगीत संबंधी अपनी मान्यताओं से हटकर आई कृति को नवगीत स्वीकार नहीं किया और गीत रामायण को 'गीतों में नया रंग भरने का प्रयत्न' मात्र कहा जबकि उनसे पूर्व उनसे वरिष्ठ बच्चन जी 'निश्चय ही गीतों के विकास को नयी दिशा' देने वाला तथा सुमन जी 'गीत को नया आयाम देने के लिए' बधाई दे चुके थे। उल्लेखनीय है कि बच्चन जी तथा सुमन जी ने नवगीत का, गीत से प्रथक अस्तित्व ही स्वीकार नहीं किया था अन्यथा वे गीत रामायण की गीति रचनाओं को 'नवगीत' कहने में संकोच नहीं करते। डॉ. सिंह नवगीत के शीर्ष हस्ताक्षर थे तथापि उन्होंने गीत रामायण को नवगीत-करती मानने में न केवल संकोच किया अपितु इसे 'नया रंग भरने का प्रयास' मात्र कहा। प्रयास को सफल भी नहीं कहा क्योंकि सफल कहते तो यह शैली नवगीत के पहचान बन सकती थी। अस्तु...
समय खुद भी न्याय करता ही है। पश्चातवर्ती गीतकारों-समीक्षकों से 'गीत रामायण' का महत्व अदेखा नहीं रह सका। डॉ. रमेश कुंतल मेघ के अनुसार- ''डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' के गीतों में नवी गीत शिल्प लोक तत्व तथा संगीतात्मकता तीनों का सुंदर समन्वय हुआ है।'' डॉ. श्रीपाल सिंह 'क्षेम' गीत रामायण की गीति रचनाकारों को नवगीत मानते हुए लिखते हैं- ''डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' ने परंपरित गीतों को सँवारकर सहज बनाने में विश्रुत ख्याति अर्जित की। .... उनके नवगीतों में उनकी सहज कविता की परिकल्पना साकार हुई है।'' इससे और आगे बढ़ते हुए डॉ. राम दरश मिश्र गीत रामयण की रचनाओं को संभवत: पहली बार नवगीत घोषित करते हुए उनमें 'लोक संवेगों के प्रति उन्मुखता' के दर्शन करते हैं- ''रवींद्र 'भ्रमर' के नवगीतों में अनुभव की सच्चाई, लोक संवेगों के प्रति उन्मुखता दृष्टव्य है। कहीं-कहीं बड़े ही ताजे बिंब प्रयुक्त हुए हैं।'' डॉ. वेद प्रताप 'अमिताभ' गीत रामायण में संश्लिष्ट बिंबधर्मिता और समकालिकता को उल्लेख्य मानते हैं- ''रवींद्र 'भ्रमर' के गीतों की ताकत उनकी सहज और संश्लिष्ट बिंबधर्मिता में है। .... इस तरह के बिंब न केवल गीत को समकालीन बनाते हैं, अपितु संवेदन और चिंतन के स्तर पर झकझोरते भी हैं।'' गीत रामायण को आशीषित करते डॉ. विद्या निवास मिश्र ने गीत-प्रबंध काव्य के रूप में देखा है जबकि भ्रमर जी ने अपनी इस कृति को प्रबंध काव्य नहीं माना है।
वर्ष १९५८ में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने अपने गीतों का नामकरण 'नवगीत' करते हुए 'गीतांगिनी' संकलन प्रकाशित किया। उनका उद्देश्य गीतों से पुरानी भावुकता को अलगकर सामाजिक यथार्थ से जोड़ना तथा नवगीत को नई कविता के समानांतर एक स्वायत्त विधा के रूप में विकसित करना था। नवगीत परंपरा के शीर्ष हस्ताक्षर डॉ. शंभुनाथ सिंह ने वर्ष १९८२ में नवगीतों का पहला महत्वपूर्ण संकलन 'नवगीत दशक-१', 'नवगीत अर्धशती' और 'नवगीत सप्तक' संपादन-प्रकाशन किया था। भ्रमर जी (६.६.१९३४ जौनपुर - २८.११.१९९८ पटना) की जीवन यात्रा पूर्ण होने के पश्चात १९९९ में उनकी धर्मपत्नी शकुंतला राजलक्ष्मी जी, पुत्र द्वय डॉ. श्री हर्ष व आनंद वर्धन तथा पुत्रवधू डॉ. मीनाक्षी आनंद ने कृति प्रकाश का सारस्वत अनुष्ठान संकल्पपूर्वक पूर्ण किया किंतु इसकी रचनाएँ लगभग १५ वर्ष पूर्व से ही पढ़ी और सराही जा रही थीं। नवगीत को समाजवादी-साम्यवादी आंदोलन से जोड़ रहे हस्ताक्षर इन्हें नवगीत कहने से परहेज कर रहे थे जबकि गीत में नवता को नवगीत मान रहे हस्ताक्षर इन्हें नवगीत घोषित कर रहे थे। वास्तव में ''गीत रामायण'' प्रथम सांस्कृतिक नवगीतीय संकलन है जिसमें नवगीत के कथ्य में सामाजिकता पर सांस्कृतिकता को वरीयता दी गई इसीलिए नवगीत में सामाजिकता (वैषम्य,विसंगति, टकराव, बिखराव आदि) तक ही नवगीत को सीमित रखने के पक्षधर नवगीत में सांस्कृतिक कथ्य को अमान्य करने की कोशिश करते रहे। इन्हें चुनौती मध्य प्रदेश विशेषकर नर्मदांचल के नवगीतकारों से मिली जो नवगीत को नई विधा नहीं विशेषण मानते रहे। स्व. जवाहरलाल चौरसिया 'तरुण' के गीतों में ग्राम्य तथा नागर जीवन शैली को केंद्र में रखकर अभिनव शैली में प्रस्तुति के बावजूद प्रगतिवादी खेमे ने नवगीत नहीं माना। विविध साहित्यिक आयोजनों में कई बार जबलपुर आए नवगीतकार श्री मधुकर अष्ठाना के साथ विश्ववाणी हिंदी संस्थान की गोष्ठियों में नवगीत में नवता पर विशद विमर्श हुआ।
वर्ष २०१४ में पूर्णिमा बर्मन जी का नवगीत संकलन 'चोंच में आकाश' अंजुमन प्रकाशन ने प्रकाशित किया। 'अभिव्यक्ति विश्वम्' के मञ्च पर नवगीत महोत्सव में इस की समीक्षा करते हुए मैंने इसे नवगीत संकलन घोषित किया किंतु परंपरावादी नवगीतकार मधुकर अष्ठाना आदि इसे गीत संकलन ही कहते रहे। यही स्थिति मेरे गीत-नवगीत संकलनों 'काल है संक्रांति का' तथा 'सड़क पर' के साथ हुई। वर्ष २००३ में प्रकाशित कुमार रवींद्र के नवगीत संकलन 'सुनो तथागत' ने कुमार रवींद्र ने भ्रमर जी द्वारा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के नवगीत संकलन की परंपरा में अगली कड़ी जोड़ी। इस संकलन पर जबलपुर में संपन्न गोष्ठी में मधुकर अष्ठाना जी ने इसे नवगीत नहीं माना जबकि मैंने इसे नवगीतीय प्रबंध काव्य कहा था। आज भी नवगीत के जन्म के लगभग ७ दशक बाद यही स्थिति है। यह विमर्श इसलिए कि विश्व विद्यालयों में आज भी प्रगतिवाद के पक्षधर आसंदियों पर प्रतिष्ठित हैं जो भारतीय सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को नकारने में गौरव अनुभव करते हैं। यात: गीत रामायण को आज भी वह महत्व नहीं मिल सका है जो मिलना चाहिए। वस्तुत: 'गीत रामायण' प्रथम नवगीतीय प्रबंध कृति है जिसमें सांस्कृतिक ग्राम्य और नागर परंपराओं का सुंदर समन्वय रामकथा के संदर्भ में दृष्टव्य है। इस दृष्टि से 'सुनो तथागत' दूसरी नवगीतीय प्रबंध कृति है जिसमें बुद्धकथा के पात्रों के माध्यम से कुमार रवींद्र जी ने अभिनव बिंबों और नूतन मिथकों की स्थापना की है।
भ्रमर जी की जन्मस्थली जौनपुर सूफी संतों के प्रेमाख्यानों के लिए प्रसिद्ध रही है । इसे 'शिराजे हिंद' संज्ञा से अभिषिक्त किया गया। भ्रमर जी ने शैशव से यह संस्कार पाया और जाने-अनजाने वह उनकी बौद्धिक चेतना का अंश बन गया। भ्रमर जी की साहित्यिक यात्रा लगभग २० वर्ष की उम्र में आरंभ हुई। 'कविता-सविता' (१९५६), 'रवींद्र भ्रमर के गीत' (१९६२-६३), 'प्रक्रिया' (१९७२), 'सोन मछरी मन बसी' (१९८०) तथा 'धूप दिखाए आरसी' (१९९१) आदि की रचनाओं में भ्रमर जी ने सहज मानवीय आदर्शों और समाज सापेक्ष सांस्कृतिक सूत्रों को निरंतर अभिव्यक्त किया। तथाकथित प्रगतिवादी-समाजवादी मूल्यहीनता के चक्रव्यूह में भ्रमर जी अभिमन्यु की तरह जूझते रहे। उनकी रचनाओं में सांस्कृतिक निर्वैयक्तिकता व सार्वजनीनता की उपस्थिति निरंतर बनी रही। 'गीत रामायण' में संत कवियों द्वारा प्रयुक्त पद पद्धति के स्थान पर प्रगीत पद्धति को अपनाते हुए भ्रमर जी ने वैश्विक मानवता तथा पारंपरिक मर्यादा के तटों पर संवेदना सेतु बनाए हैं। श्री राम तथा रामायण भ्रमर जी के व्यक्तित्व के अभिन्न अंग हैं। भ्रमर जी लिखते हैं-
मैंने नवगीतों में रामायण लिखने की धुन ठानी ।
वे क्षमा करें जिनके लेखे यह गाथा हुई पुरानी।।
यह 'क्षमा' तथाकथित प्रगतिवादियों और साम्यवादियों के लिए ही है जो श्री राम को काल्पनिक मानते रहे हैं। भ्रमर जी के शब्दों में- ''मैंने उन्हें (श्री राम को) पुरुषोत्तम और जननायक के रूप में प्रस्तुत करने पर बल दिया है।'' यहाँ यह स्मरण करना अप्रासंगिक न होगा कि वर्ष १९७५ में नरेंद्र कोहली जी की रामकथा पर औपन्यासिक शृंखला (७ उपन्यास दीक्षा, अवसर, संघर्ष की ओर, युद्ध १, युद्ध २, अभिज्ञान व पृष्ठभूमि) प्रकाशित हीना आरंभ हुई थी जो १९८० के आसपास पूर्ण हुई। कोहली जी ने भी श्री राम को भगवान के स्थान पर जननायक ही प्रस्तुत किया था। संभवत:, भ्रमर जी को इन उपन्यासों के पठन से ही 'गीत रामायण' रचने की प्रेरणा प्राप्त हुई। १०१ प्रगीतिय नवगीतों में भ्रमर जी ने कृति का श्री गणेश पारंपरिक पद्धति अनुसार श्री गणेश वंदना से करते हुए उन्हें 'भारती भवन के आदि देव', जन गण मंगल अधिनायक', 'सुर साधक' तथा 'जनगायक' जैसे विशेषण दिए जो तब ही नहीं, अब भी सर्वथा नवता परक प्रतीत होते हैं।
भ्रमर जी के राम मेरुदंड की तरह तननेवाले, ज्योतिपुंज बन उगनेवाले, पुण्य पयोधर की तरह तृषा हरनेवाले, कर्मक्षेत्र में कीर्ति-कथा लिखनेवाले, इतिहास में अंकित स्वर्णाक्षर, जनमानस में प्रतिष्ठित नरसिंह और नरोत्तम हैं। वे भूगोल, इतिहास, आकाश, मूर्ति, चित्र, रस, रास, वारिद, धरा, वातास, चेतन श्वास, विश्वास, जप-जोग-सन्यास आदि में राम के दर्शन करते हुए अपने हृदय में निवास करने के लिए प्रार्थना करते हैं। राम कथा के प्रथम गायक वाल्मीकि (देववाणी) तथा तुलसी (लोक भाषा) को स्मरण-नमन करने के बाद अपने आपसे संबोधित होते हैं-
''बजट रहा अनंग, गीत तृष्णा के गाए।
तूने आठों पहर, अंध आलाप उठाए।।
प्यारे भ्रमर, खोल अब अंतर्मन की आँखें।
रामनाम-रस में डूबें, जीवन की पाँखें।।
'गीत रामायण' के प्रगीतों को नवगीतों के स्वघोषित मसीहा नकारेंगे, यह सत्य भ्रमर जी भी जानते थे, इसलिए उन्होंने लिखा-
मैं उनके लिए नहीं लिखता राघव की कीर्ति-कथा को,
जो बड़े काल-सापेक्ष, धर्म-निपेक्ष, नवल विज्ञानी।।
ईंट ही नहीं भ्रमर जी यह भी लिखते हैं- ''मैं लिखता उनके लिए जिन्हें अपनी मिट्टी प्यारी है''। समीक्षकों के लिए भी संकेत है-
हर पद पर शिल्प-शिला के घाट नहीं बांधे हैं मैंने,
रचना की निश्छल धारा है झरने का बहता पानी।।
कल्पना-कला के घाट-बात कुछ पीछे छूट गए है,
गायक की तान लगेगी रसिया को जानी-पहचानी।।
'फिर होता अवतार' शीर्षक नवगीत में गीतकार त्रेता की कथा को वर्तमान से जोड़ते हुए 'लोकतंत्र में छेद कर रहे', 'उनके मुँह हराम की चर्बी', खाली है खलिहान, व्यवस्था खड़ी फसल चर जाति', 'चोर-उचक्कों की काय में माय दुंद मचाती' आदि से सम-सामयिक परिदृश्य का संकेत करते हुए 'फटती है धरती की छाती' लिखकर विसंगतियों की विकरालता 'कम लिखे को अधिक समझना' की परंपरा अनुसार इंगित करते हैं। राम जन्म के समय ''मिथिला से विदेह जी आए'' (पृष्ठ ३८) भ्रमर जी की मौलिक उद्भावना है। "मिथिला से विदेह जी आए" लिखना, शायद कवि का अयोध्या और मिथिला के बीच के गहरे संबंध को उजागर करने का एक काव्यात्मक तरीका हो, जो बाद में विवाह से स्थापित हुआ, न कि एक ऐतिहासिक तथ्य के रूप में। प्रमुख हिंदू महाकाव्यों, जैसे वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस में, राम जन्म के समय जनक जी (विदेह) के अयोध्या में उपस्थित होने का उल्लेख नहीं मिलता है। इन ग्रंथों में वर्णन है कि राजा जनक और राजा दशरथ का मिलन विवाह के अवसर पर मिथिला में हुआ था।
मानस में वर्णित कथा क्रमानुसार राम-जन्म के पश्चात बधाई गीत, सोहर गीत, विवाह के पूर्व देवी मनुहार गीत आदि का प्रयोग नवगीत में संभवत: पहली बार किया गया है। -
मची ताता-थइया, अरे ताता-थइया।
अवध के अँगना, बाजे बधइया।।
तथा
चंदन का पलना रे, डोरियाँ रेशम की,
ललन झूल रहे श्री राम, झुलाएँ देवी कौशल्या।।
श्री राम की बाल लीला व शिक्षा के पश्चात विश्वामित्र के साथ अहल्या उद्धार प्रसंग में भ्रमर जी समाज में नारी की दुरावस्था इंगित करते हैं- '... बन के पत्थर अहल्या पड़ी है.... कर लो फिर कोई व्यभिचार कर लो / एक असहाय औरत पड़ी है'।
मिथिला में राम-विवाह प्रसंग में विवाह गीत, विवाह पश्चात अयोध्या में स्वागत गीत, फाग, राजतिलक की घोषणा और वनवास। भ्रमर जी ने कैकेयी की आलोचना मंद स्वर में की है। संभवत: उनकी मान्यता हो कि कैकेयी को ही यह श्रेय है कि वैधव्य तथा लोकनिंदा का पात्र बनकर भी उन्होंने श्री राम को वन जाकर रावण-वध करने का अवसर उपलब्ध कराया। अपने महाकाव्य 'कैकेयी' में स्व. इंदु सक्सेना कानपुर ने भी यही स्थापना की है। मैथिली शरण गुप्त जी ने 'भरत से सुत पर भी संदेह / बुलाया तक न उसे जो गेह' लिखकर कैकेयी के प्रति सहनुभूतिपूर्ण अभिव्यंजन की है। भ्रमर जी 'अब रघुराज बनेंगे राम' शीर्षक नवगीत में देवताओं तथा सरस्वती देवी को कैकेयी-मंथरा के कृत्य की प्रेरणा माना है- -
''डुग्गी फिरी, मुनादी हुई कि अब रघुराज बनेंगे राम...
... चिंता जगी देवताओं में, राम रमे यदि छलनाओं में
कौन करेगा अत्याचारी असुरों से संग्राम।
सरस्वती सुरपुर से ढाई, वृद्ध मंथरा के मुँह आई,
बोली कैकेयी से तेरे हुए विधाता वाम।
कैकेयी ने कोप भवन में , छल का जाल बुन दिया क्षण में,
असमंजस में लगी डूबने नृप दशरथ की शाम।
छोटीरणी-खोटी रानी, उसने तो तिरिया हठ ठानी,
भूपति भरत बनें, वन जाएँ राम, छोड़ निज धाम।''
विश्वामित्र का अनुरोध शीर्षक गीत में भ्रमर जी दूसरे अंतरे के अंत में - ''बलि की इस विव्हल बेला में बलराम माँगने आया हूँ'' तथा गीत के अंत में ''बलि की इस नाजुक बेला में बलराम माँगने आया हूँ'' लिखते हैं। यहाँ काल दोष हो गया है। श्री राम त्रेता में हुई जबकि बलराम पश्चातवर्ती द्वापर युग में। वाल्मीकि या तुलसी किसी ने भी त्रेता में बलराम की उपस्थिति इंगित नहीं की है। इसे नवता के नाम पर भी मान्य करना उपयुक्त न होगा। एक पंक्ति में एक शब्द बदलकर एक गीत में दो बार प्रयोग 'अलंकार' भी कहा जा सकता है और 'काव्य-दोष' भी। यह स्वतंत्रता पाठक को ही दी जाए।
गीत रामायण में 'दूब तो पत्थर पर उग आए', 'महल ढाँप कर मुँह सोता है, /जंगल में मंगल होता है', 'ठग-ठाकुर तो छल के राजा, / राम हुए जंगल के राजा' तथा 'ग्रीष्म तपे तो कुंदन होंगे, / पावस की झर, चंदन होंगे''झूमी जौ-गेहूँ की बाली', 'कोकिल कूक बजाए ताली', 'रावण के मुँह आग', जैसी मौलिक और मार्मिक अभिव्यक्तियाँ पाठक को मोहती हैं।
विविध प्रसंगों में वाद्य-यंत्रों का प्रयोग दर्शाता है की कवि को संगीत-परिचय पक्ष भी प्रबल है। फाग गीत की कुछ पंक्तियाँ देखिए-
खनके डफ, बजे मृदंग, मुरलिया गाए
सहवासों पर जीवन का सरगम लहराए।
कोमल आलाप उठाओ उर-वीणा से,
सीता के मानस पर वसंत तिर जाए।
मन कनक-भवन से तन सरयू के तट तक,
मधुरस छलने को तन्मयता पग पर्स।
रघुनन्दन! खेलो फाग प्रेम-रस बरसे।।
मुहावरों तथा लोकोक्तियों का मुक्त हस्त प्रयोग कवि की सामर्थ्य का परिचायक है। विविध प्रसंगों में दूब तो पत्थर पर उग आए (पत्थर पर दूब जमना), रावण के मुँह आग (मुँह में आग लगना),
भ्रमर जी का शब्द-भंडार समृद्ध था अभिव्यक्ति सामर्थ्य असाधारण है। वे स्वस्ति, अंत्यज, धनुर्धर, संगउफन, वंध्य, उर्वर, नीलोत्पल, तूणीर, कोदंड, वक्ष आदि तत्सम, ओंठ, मग, ब्याह आदि तद्भव, कलैया, खरकों, गैया, दुंद, टेर, ऊसर, बिरवा, पाहन, कसर, पाग, जुन्हैया, धौरी, पीवें, ललना, धनुहिया, रमैया, ड्योढ़ी, दीठ, महतारी, सुग्गा, दुलहा, सिपहिया आदि देशज तथा गदर, पल्टन, मुर्दा, रोशनी, दिल, वक्त, तकदीर, तिलिस्मी, बाजू, दम आदि विदेशज शब्दों के प्रयोग मुक्त हस्त करने के साथ-साथ कुछ नए शब्द-रूप भी प्रयोग में लाए हैं। कथ्य को सरस बनाने और 'कम में अधिक कहने' के लिए चोर-उचक्के, मन मंदिर, रुनक-झुनक, गंधर्व-असुर-किन्नर, विधि-हरि-हर, धनुष-बाण, जप-जोग, श्वेत-श्याम, काव्य-कुंज, काव्य-कसौटी, ठाठ-बाट, लुक-छिप, शरुद्ध-विश्वास, पुरजन-परिजन, हिल-मिल, सीप-शंख, साँझ-सकारे, टीका-झुमका-बिछिया, तन-मन, मणि-मुक्ता, खग-मृग, विद्वेष-घृणा, ताता-थइया, विद्या विवेक, जात-पाँत,पूजन-आराधन, पलंग-पालने, कुंदन-क्यारी, छुई-मुई, हल्दी-कुंकुम, भोग-त्याग, स्वार्थ-कूप, तान-वितान, राग-विराग, ठिगनी-ठगिनी, जटा-मुकुट, चिकनी-चुपड़ी, चटक-मटक, टिकुली-बिंदी, चीखने-चिल्लाने, अंग-अंग, जनम-जनम, जन्म-जन्म, युग-युग, हलर-हलर, नस-नस, सन-सन आदि शब्द-युग्मों का प्रयोग यथास्थान किया गया है। समानार्थक, विपरीतार्थक, पुनरुक्त, सजातीय शब्द तथा निरर्थक शब्द-युग्म प्रयुक्त हुए हैं किंतु श्रुतिसमभिन्नार्थक शब्द-युग्म अनुपस्थित हैं।
'परशुराम' शीर्षक गीत में भ्रमर जी वर्तमान काल में हिंसा को अनुपयुक्त मानने के गाँधीवादी विचार का समर्थन करते हुए लिखते हैं- 'भृगुनन्दन! फेंको अपना खूनी फरसा किसी नदी में' तथा तुम त्रेता-द्वापर की अवतार-कथा हो, तुम्हें नमन है / लेकिन संदर्भ नहीं जुड़ पाता इक्कीसवीं सदी में'। अतीत के प्रसंगों की समकालिक संदर्भों के साथ समेचीनता का मूल्यांकन नवगीत में भ्रमर जी ने ही प्रथमत: किया है।
अलंकारों का प्रयोग करते समय भी भ्रमर जी ने नवता का ध्यान रखा है। 'नयन' की 'कमल', 'मृग' तथा 'मीन' से उपमा दी जाती रही है किंतु 'चक्रवाक' तथा 'चकोर'का प्रयोग सर्वथा मौलिक है- ''चक्रवाक नयन पंख खोल उधर उड़ने लगे' / चंदा-सी दुलहिन बन बैठी जिधर जानकी'' तथा ''हुईं राम की आँखें, पाँखेँ चकोर की''।
आज-कल नवगीत के नाम में समाज में व्याप्त विसंगतियों और जीवन में विष घोल रही विषमताओं को तिल का ताड़ बनाकर लिखने का चलन है किंतु भ्रमर जी ने मधुर-मोहक मिलन-विरह शृंगारपरक नवगीतों की भी रचना की है। 'साँवरे सिपहिया का नाम', 'चित्रकूट की स्फटिक शिला पर', 'मैना क्या बोले, कंचन मृग आदि नवगीतों में माधुर्य और कारुण्य का धूप-छाँवी मिश्रण दृष्टव्य है। भ्रमर जी अवध निवासी हैं। गीत रामायण के नवगीतों में अवधी भाषा के शब्द-रूपों और अवध के ग्राम्यांचलों में प्रचलित सामाजिक परंपराओं का लोक वैभव यत्र-तत्र बिखरा हुआ है। 'भिक्षा दे माई' शीर्षक नवगीत में कपटी साधु सीता जी को 'अचल रहे अहिवात' और 'गोदी भरे पूत से' कहकर चार दाने माँगता है, कौन भारतीय नारी यह सुनकर भिक्षा देने को तत्पर न हो जाएगी?-
भिक्षा दे माई! जोगी आया है तेरे द्वार।
आया है अरण्य से, लाया झोली भर आशीष,
अचल रहे अहिवात अहैतुक कृपया करें गौरीश,
गोदी भरे पूत से, आँचल झरे दूध की धार।
और भिक्षा देता ही हुआ नाटकीय परिवर्तन, कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कह सकने की सामर्थ्य की साक्षी देता है-
ले भिक्षा निकली वैदेही, खिली रूप की धूप,
छल न टिका रावण का, पल में हुआ विकत-विद्रुप,
केश गहे, बाँहें मरोड़, ले उड़ा सिंधु के पार।
'रघुनन्दन बिलख रहे' शीर्षक हिंदी साहित्य के नवगीत कोश में करुण रस की दुर्लभ छवि-छटा संपन्न है। 'खट्टे-मीठे बेर' गीत में आस्था और विश्वास की जय-जयकार शब्द-शब्द में समाहित है-
चख-चख कर जो अलग रखे हैं मैंने, खाएँगे श्री राम।
खट्टे-मीठे बेर चुने हैं मैंने, आएँगे श्री राम ।।
साहित्य वही है जिसमें सबका हिट समाहित हो। तथाकथित विसंगति परक नवगीतों ने सामाजिक बिखराव का वर्णन मात्र ही लक्ष्य बनाया जबकि भ्रमर जी सामाजिक समरसता का संदेश शबरी प्रसंग के माध्यम से देने में सफल हुए हैं। भ्रमर जी ने नवगीतों पर छायावाद के प्रभाव को वरज्य नहीं माना है। ''तन का तेल, साँस की बाती, झिलमिल एक दिया जलता है'' जैसी अभिव्यक्ति नवगीत के फैलाव को भी इंगित करती है। 'गीत रामायण' के नवगीतों का क्रम संत तुलसीदास रचित रामचरित मानस के प्राय: अनुरूप ही है। इस कारण घटनाओं का पूर्वानुमान हो जाता है और उत्सुकता समाप्त हो जाती है तथापि नूतन अभिव्यक्ति, सटीक शब्द-प्रयोग और लयात्मक प्रवाह पाठक को बाँधे रखता है।
नवगीत में वीर रस सामान्यत: नहीं मिलता किंतु भ्रमर जी ने कुशलता के साथ यह किया है-
प्रत्यंचा की टंकार
सहस्त्र फनों से ज्यों फुंकार उठे,
भूधर डोले, सागर उछले,
मद-मारुत की हुंकार उठे
यारी दल पर महानाश के बादल गिद्ध सदृश मँडराए
शेषावतार दूसरी बार अब महासमर में आए
पति के शहीद होने पर सती सुलोचना की पीर बखानता नवगीत मार्मिक दृश्य उपस्थित करता है -
पति का वध सुनकर हुई काठ
उतरे सधवा के सुघर ठाट,
सिंदूर माँग से धुला, हाथ की चूड़ी तड़की सारी।
प्रियतम से छूटी यारी, रोई सुलोचना सन्नारी।।
नवगीत में आह्वान-गान की झलक 'युद्ध करो' शीर्षक गीति रचना में है-
तुम निर्णायक युद्ध करो।
प्राणों के प्रत्यंचा तानों, सहायक चाप धरो....
....ये इतिहास विधाता के क्षण हैं, तंद्रा त्यागो,
यह रण ही स्वर्णिम प्रभात है, रश्मि-पुंज जागो,
फूँको तमस-दुर्ग, ज्वाला की परिखा में उतरो।।
कृति के अंत में भ्रमर जी ने लोक में प्रचलित राम कथा के अनुसार धोबी,लव-कुश, सीता के भूमि प्रवेश , राम का सरयू-प्रवेश आदि प्रसंगों पर नवगीत जोड़कर मौलिक कथा-विस्तार की राह चुनी है।
हिंदी-नवगीत के संकलन कोश में प्रथन नवगीतीय प्रबंध काव्य 'गीत रामायण' रचकर डॉ. रवींद्र 'भ्रमर' ने सर्वथा नूतन आयाम को स्पर्श किया किंतु नवगीत पर सामाजिक वैषम्य तक सीमित तथाकथित प्रगतिवादियों के समूह ने उन्हें इस श्रेय से वंचित रखा। फलत:, दूसरा नवगीतिय प्रबंध काव्य 'सुनो तथागत' आने में ५-६ वर्ष लग गए जबकि इस मध्य पिष्ट-पेषण करते नकारात्मक दृष्टिकोण से लबालब शताधिक नवगीत संकलन प्रकाशित हुए। नवगीत विधा की लोक प्रियता और प्रयोगधर्मिता का तकाजा है है नवगीतकार दशों पुरानी मान्यताओं के मकड़जाल से बहार निकाल कार सकारात्मक सोच संपन्न नवगीत रचें आउए इसे 'रुदाली' या 'स्यापा गीत' बनने से बचाएँ।
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