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रविवार, 9 नवंबर 2025

नवंबर ९, सॉनेट, भूकंप, हिमालय, तेवरी, मुक्तक, षटपदी

 सलिल सृजन नवंबर ९

*
पूर्णिका . मचल रही बेसुध मदहोशी खौल रही गुमसुम खामोशी . जड़ें गँवाकर गगन छू रही अनुभवहीन जवां पुरजोशी . अजगर जैसे नेता-अफसर जनगण-मन बेबस खरगोशी . ऊपर-ऊपर शांत लहर है भीतर है प्रवाह आक्रोशी . बाँट रहे अफीम मजहब की कर अंधी श्रद्धा पापोशी ९.११.२०२५ ०००
सॉनेट
पैर जमाकर धरती पर पग बढ़ा बढ़ो।
थाह समुद की लो या गिरि पर चढ़ जाओ।
जो अनगढ़ रह गया वही आकार गढ़ो।
अब तक जो भी मिला नहीं वह सब पाओ।।
संकल्पों की जय बोलो, थक रुको नहीं।
कशिश न कोशिश की कम होने देना तुम।
मंजिल जब तक मिले नहीं झुक चुको नहीं।
मैं-तू में फँस; हम मत खोने देना तुम।।
बाँहों को फैलाओ दिशा दसों नापो।
पवन अग्नि जल ऊर्जा बन नव जीवन दो।
शंकर बनकर कंकर-कंकर में व्यापो।
कलकल कलरव सरगम जीवन मधुवन हो।।
मत जोड़ो जो पाया है उसको छोड़ो।
लक्ष्य वरो, नव लक्ष्य चुनो, झट पग मोड़ो।।
९.११.२०२४
***
सामयिकी
भूकंप और हम १
*
प्रकृति की गोद में जन्मा आदि मानव निरक्षरता, साधनहीनता और अज्ञान के बाद भी प्राकृतिक आपदाओं से नष्ट नहीं हुआ। आधुनिक काल में ज्ञान-विज्ञान जनित उन्नति, तकनीकी विकास, संसाधनों आदि से सुसज्जित मानव प्राकृतिक आपदाओं से भयभीत है तो इसका एक ही अर्थ है कि मानव नई प्राकृतिक घटनाओं को समझने और उनके साथ सुरक्षित रहने की कला, तकनीक और कौशल से खुद को सुसज्जित नहीं किया है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ हैं- १. भूकंप/ज्वालामुखी, २. आँधी/तूफान, ३. जलप्लावन/बाढ़, ४. विद्युत्पात (बिजली गिरना), ५. महामारी, ६. अग्निकांड, ७. अतिवर्षा, ८. अल्पवर्षा ९. दुर्भिक्ष्य/अकाल तथा १० ज्वर-भाटा आदि। मानव जनित आपदाओं में युद्ध, दंगा आदि प्रमुख हैं। १ नवंबर को मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले में भारतीय मानक समयानुसार परैत: ८.४३.५० बजे भूस्थानिक केंद्र २२.७३ अंश उत्तर अक्षांस , ८१.११ अंश पूर्व देशांतर में ४.३ तीव्रता का मध्यम भूकंप जिसका एपिसेंटर १० की.मी. गहराई में था, दर्ज किया गया। इस भूकंप का प्रभाव डिंडोरी, मंडला, जबलपुर, अनूपपुर, उमरिया, बालाघाट आदि जिलों में महसूस किया गया। केवल एक सप्ताह बाद ही ८ नवंबर २०२२ को एनसीएस के अनुसार, उत्तराखंड-नेपाल क्षेत्र में तड़के ३.१५ मिनट पर और सुबह ६.२७ पर क्रमश: ३.६ और ४.३ तीव्रता के भूकंप के झटके महसूस किए गए। नेपाल के राष्ट्रीय भूकंप निगरानी केंद्र के अनुसार, नेपाल में देर रात२.१२ पर ६.६ तीव्रता का भूकंप आया। इसका केंद्र डोटी जिले में था। इससे पहले पश्चिमी नेपाल में भूकंप के दो झटके महसूस किए गए। मंगलवार रात ९.०७ पर ५.७ तीव्रता का और इसके कुछ देर बाद रात ९.५६ पर ४.१ तीव्रता का भूकंप का झटका महसूस हुआ। नेपाल के गृह मंत्रालय के प्रवक्ता फणींद्र पोखरेल ने बताया कि भूकंप से छह लोगों की मौत हो गई तथा गंभीर रूप से घायल ५ लोगों को डोटी के जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया है।।
२५ अक्टूबर को सूर्य ग्रहण तथा ८ अक्टूबर को चंद्र ग्रहण में बीच आए इन भूकंपों ने, भूकंप और ग्रहण के बीच संबंध को चर्चा में ला दिया। इन भूकंपों में लोगों ने अपने घरों, पलंग, दरवाजे और खिड़कियों को अचानक हिलते पाया।
भूकंप का कारण
धरती के भीतर कई प्लेटें (विराट भूखंड) हैं जो समय-समय पर विस्थापित और व्यवस्थित होती हैं। इस सिद्धांत को अंग्रेजी में प्लेट टैक्टॉनिकक थियरी (भूखंड विवर्तनिकी सिद्धांत) कहते हैं। पृथ्वी की ऊपरी परत लगभग ८० किलोमीटर से १०० किलोमीटर मोटी होती है जिसे स्थल मंडल कहते हैं। पृथ्वी के इस भाग में कई टुकड़ों में टूटी हुई प्लेटें होती हैं जो भूगर्भीय लावा पर तैरती रहती हैं। सामान्य रूप से यह प्लेटें १०-४० मिलिमीटर प्रति वर्ष की गति से गतिशील रहती हैं। इनमें कुछ की गति १६० मिलिमीटर प्रति वर्ष भी होती है। भूकंप की तीव्रता मापने के लिए रिक्टर पैमाना इस्तेमाल किया जाता है। इसे रिक्टर मैग्नीट्यूड टेस्ट स्केल कहा जाता है। भूकंप की तरंगों को रिक्टर स्केल १ से ९ तक के आधार पर मापा जाता है।
देश में कई भूकंप क्षेत्र
भारतीय उपमहाद्वीप में भूकंप का खतरा हर जगह अलग-अलग है। भारत को भूकंपीय खतरे के बढ़ते प्रभाव के आधार पर चार हिस्सों जोन २, जोन ३, जोन ४ तथा जोन ५ में बाँटा गया है। उत्तर-पूर्व के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से जोन ५ में हैं। उत्तराखंड के कम ऊँचे हिस्सों से लेकर उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्से तथा दिल्ली जोन ४ में हैं। मध्य भारत अपेक्षाकृत कम खतरेवाले जोन ३ में है, जबकि दक्षिण के ज्यादातर हिस्से सीमित खतरेवाले जोन २ में हैं।
तीव्रता का अनुमान
भूकंप की तीव्रता का अंदाजा उसके केंद्र ( एपीसेंटर) से निकलने वाली ऊर्जा की तरंगों से लगाया जाता है। सैंकड़ो किलोमीटर तक फैली इस लहर से कंपन होता है। धरती में दरारें तक पड़ जाती है। भूकंप केंद्र की गहराई उथली हो तो इससे बाहर निकलने वाली ऊर्जा सतह के काफी करीब होती है जिससे भयानक तबाही होती है। जो भूकंप धरती की गहराई में आते हैं उनसे सतह पर ज्यादा नुकसान नहीं होता। समुद्र में भूकंप आने पर सुनामी उठती है।
भारत में कितने भूकंप ?
वर्ष २०२० तक राष्ट्रीय सेसमॉलॉजिकल नेटवर्क में ७४५ भूकंप रिकॉर्ड किए गए जिसमें दिल्ली-एनसीआऱ में सितंबर २०१७ से लेकर अगस्त २०२० तक २६ भूकंपों की तीव्रता रिक्टर स्केल पर ३ या इससे ऊपर थीं।
भारत में सबसे ज्यादा भूकंप कहाँ?
सितंबर २०१७ से अगस्त २०२० के बीच अंडमान-निकोबार में १९८ भूकंप दर्ज किए गए जबकि जम्मू-कश्मीर में ९८। ये दोनों इलाके देश में हाई सेस्मिक एक्टीविटी जोन में आते हैं।
***
मुक्तिका
(सप्त मात्रिक)
*
नमन मंगल
करो मंगल
शांति सुख दो
न हो दंगल
हरे हों फिर
सघन जंगल
तीर्थ नूतन
बाँध नंगल
याद आते
हमें हंगल
***
मुक्तिका
*
सुधियों के पल या कि मयूरी पंख छू रहे मखमीले हैं
नयन नयन में डूब झुक उठें बरसें बादल कपसीले हैं
कसक रहीं दूरियाँ दिलों को देख आइना पल-छिन ऐसे
जैसे आँसू के सागर में विरह व्यथा कण रेतीले हैं
मन ने मन से याद किया तो मन के मनके सरक रहे हैं
नाम तुम्हारा उस सा लुक-छिप कहता नखरे नखरीले हैं
पिस-पिसकर कर को रँग देना हमें वफा ने सिखा दिया है
आँख फेरकर भी पाओगे करतल बरबस मेंहदीले हैं
ओ मेरी तुम! ओ मेरे तुम! कहकर सुमिरो जिसको जिस पल
नयन मूँद सम्मुख पा, खोना नयन खोल मत शरमीले हैं
आँकी बाँका झाँकी उसकी जिसको सुमिर रहा मन उन्मन
उन्मद क्यों हो?, शांत कांत पल मिलन-विरह के भरमीले हैं
सलिल साधना कर नित उसकी जिस पर तेरा मन आया है
ज्यों की त्यों हो श्वास चदरिया आस रास्ते यह रपटीले हैं
९-११-२०२१
***
दोहा
जैसी भी है ज़िंदगी, जिएं मजा लें आप.
हँसे-हँसाया यदि नहीं, बन जाएगी शाप.
***
मुक्तक
सुबह अरुण ऊग ऊषा संग जैसे ऊगा करता है
बाँह साँझ की थामे डूब जैसे डूबा करता है
तीन तलाक न बोले, दोषी वह दहेज का हुआ नहीं
ब्लैक मनी की फ़िक्र न किंचित, हँस सर ऊँचा करता है
***
एक षटपदी-
कविता मेरी प्रेरणा, रहती पल-पल साथ
कभी मिलाती है नज़र, कभी थामती हाथ
कभी थामती हाथ, कल्पना-कांता के संग
कभी संग मिथलेश छेड़ती दोहा की जंग
करे साधना 'सलिल' संग हो रजनी सविता
बन तरंग आ जाती है फिर भी संग कविता
९-११-२०१६
***
हिमालय वंदना
*
वंदन
पर्वत राज तुम्हारा
पहरेदार देश के हो तुम
देख उच्चता होश हुए गुम
शिखर घाटियाँ उच्च-भयावह
सरिताएँ कलकल जाती बह
अम्बर ने यशगान उचारा
*
जगजननी-जगपिता बसे हैं
मेघ बर्फ में मिले धंसे हैं
ब्रम्हपुत्र-कैलाश साथ मिल
हँसते हैं गंगा के खिलखिल
चाँद-चाँदनी ने उजियारा
*
दशमुख-सगर हुए जब नतशिर
समाधान थे दूर नहीं फिर
पांडव आ सुरपुर जा पाये
पवन देव जय गा मुस्काये
भास्कर ने तम सकल बुहारा
*
शीश मुकुट भारत माँ के हो
रक्षक आक्रान्ताओं से हो
जनगण ने सर तुम्हें नवाया
अपने दिल में तुम्हें बसाया
सागर ने हँस बिम्ब निहारा
***
मुक्तक:
*
हमें प्रेरणा बना हिमालय
हर संकट में तना हिमालय
निर्विकार निष्काम भाव से
प्रति पल पाया सना हिमालय
*
सर उठाकर ही जिया है, सर उठाकर ही जियेगा
घूँट यह अपमान का, मर जाएगा पर ना पियेगा
सुरक्षित है देश इससे, हवा बर्फीली न आएं
शत्रुओं को लील जाएगा अधर तत्क्षण सियेगा
***
कृति चर्चा:
'खिड़कियाँ खोलो' : वैषम्य हटा समता बो लो
*
[कृति विवरण: खिड़कियाँ खोलो, नवगीत संग्रह, ओमप्रकाश तिवारी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १२०, मूल्य ९०/-, बोधि प्रकाशन जयपुर]
साहित्य वही जो सबके हित की कामना से सृजा जाए। इस निकष पर सामान्यतः नवगीत विधा और विशेषकर नवगीतकार ओमप्रकाश तिवारी का सद्य प्रकाशित प्रथम नवगीत संग्रह 'खिड़कियाँ खोलो' खरे उतरते हैं। खिड़कियाँ खोलना का श्लेषार्थ प्रकाश व ताजी हवा को प्रवेश देना और तम को हटाना है। यह नवगीत विधा का और साहित्य के साथ रचनाकार ओमप्रकाश तिवारी जी के व्यवसाय पत्रकारिता का भी लक्ष्य है। सुरुचिपूर्ण आवरण चित्र इस उद्देश्य को इंगित करता है। ६० नवगीतों का यह संग्रह हर नवगीत में समाज में व्याप्त विषमताओं और उनसे उपजी विडंबनाओं को उद्घाटित कर परोक्षतः निराकरण और सुधार हेतु प्रेरित करता है। पत्रकार ओमप्रकाश जी जनता की नब्ज़ पकड़ना जानते हैं। वे अपनी बात रखने के लिए सुसंस्कृत शब्दावली के स्थान पर आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग करते हैं ताकि सिर्फ पबुद्ध वर्ग तक सीमित न रहकर नवगीतों का संदेश समाज के तक पहुँच सके।
इन नवगीतों का प्राण भाषा की रवानगी है. ओमप्रकाश जी को तत्सम, तद्भव, देशज, हिंदीतर किसी शब्द से परहेज नहीं है। उन्हें अपनी बात को अरलता और स्पष्टता से सामने रखने के लिए जो शब्द उपयुक्त लगता है वे उसे बेहिचक प्रयोग कर लेते हैं। निर्मल, गगन, गणक, दूर्वा, पुष्पाच्छादित, धरनि, पावस, शाश्वत, ध्वनि विस्तारक, श्रीमंत, उद्धारक, षटव्यंजन, प्रतिद्वन्दी, तदर्थ, पुनर्मिलन, जलदर्शन आदि संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ कंप्यूटर, मोटर, टायर, बुलडोज़र, चैनेल, स्पून, जोगिंग, हैंगओवर, ट्रेडमिल, इनकमटैक्स, वैट, कस्टम, फ्लैट, क्रैश, बेबी सिटिंग, केक, बोर्डिंग, पिकनिक, डॉलर, चॉकलेट, हॉउसफुल, इंटरनेट आदि अंग्रेजी शब्द, आली, दादुर, नून, पछुआ, पुरवा, दूर, नखत, मुए, काहे, डगर, रेह, चच्चा, दद्दू, जून (समय), स्वारथ, पदार्थ, पिसान आदि देशज शब्द अथवा ताज़ी, ज़िंदगी, दरिया, रवानी, गर्मजोशी, रौनक, माहौल, अंदाज़, तूफानी, मुनादी, इंकलाब, हफ्ता, बवाल, आस्तीन, बेवा, अफ़लातून, अय्याशी, ज़ुल्म, खामी, ख्वाब, सलामत, रहनुमा, मुल्क, चंगा, ऐब, अरमान, ग़ुरबत, खज़ाना, ज़ुबां, खबर, गुमां, मयस्सर, लहू, क़तरा जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरी स्वाभाविकता के साथ इन नवगीतों में प्रयुक्त हुए हैं। निस्संदेह यह भाषा नवगीतों को उस वर्ग से जोड़ती है जो विषमता से सर्वाधिक पीड़ित है। इस नज़रिये से इन नवगीतों की पहुँच और प्रभाव प्राञ्जल शब्दावली में रचित नवगीतों से अधिक होना स्वाभाविक है।
ओमप्रकाश जी के लिए अपनी बात को प्रखरता, स्पष्टता और साफगोई से रखना पहली प्राथमिकता है। इसलिए वे शब्दों के मानक रूप को बदलने से भी परहेज़ नहीं करते, भले ही भाषिक शुद्धता के आग्रही इसे अशुद्धि कहें। ऐसे कुछ शब्द पाला के स्थान पर पाल्हा, धरणी के स्थान पर धरनि, ऊपर के स्थान पर उप्पर, पुछत्तर, बिचौलिये के लिए बिचौले, इसमें की जगह अम्मी, चाहिए के लिए चहिए, प्रजा के लिए परजा, सीखने के बदले सिखने आदि हैं. विचारणीय है की यदि हर रचनाकार केवल तुकबंदी के लिए शब्दों को विरूपित करे तो भाषा का मानक रूप कैसे बनेगा ? विविध रचनाकार अपनी जरूरत के अनुसार शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने लगें तो उनमें एकरूपता कैसे होगी? हिंदी के समक्ष विज्ञान विषयों की अभिव्यक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा शब्दों के रूप और अर्थ सुनिश्चित न होना ही है। जैसे 'शेप' और 'साइज़' दोनों को 'आकार' कहा जाना, जबकि इन दोनों का अर्थ पूर्णतः भिन्न है। ओमप्रकाश जी निस्संदेह शब्द सामर्थ्य के धनी हैं, इसलिए शब्दों को मूल रूप में रखते हुए तुक परिवर्तन कर अपनी बात कहना उनके लिए कठिन नहीं है। नवगीत का एक लक्षण भाषिक टटकापन माना गया है। कोई शक नहीं कि ग्रामीण अथवा देशज शब्दों को यथावत रखे जाने से नवगीत प्राणवंत होता है किन्तु यह देशजता शब्दविरूपण जनित हो तो खटकती है।
नवगीत को मुहावरेदार शब्दावली सरसता और अर्थवत्ता दोनों देती है। ओमप्रकाश जी ने चने हुए अब तो लोहे के (लोहे के चने चबाना), काम करें ना दंत (पंछी करें न काम), दिल पर पत्थर रखकर लिक्खी (दिल पर पत्थर रखना), मुँह में दही जमा, गले मिलना, तिल का ताड़, खून के आँसू जैसे मुहावरों और लोकोक्तियों के साथ-साथ भस्म-भभूति, मोक्ष-मुक्ति, चन-चबेना, चेले-चापड़, हाथी-घोड़े-ऊँट, पढ़ना-लिखना, गुटका-गांजा-सुरती, गाँव-गिराँव, सूट-बूट, पुरवा-पछुआ, भवन-कोठियाँ, साह-बहु, भरा-पूरा, कद-काठी, पढ़ी-लिखी, तेल-फुलेल, लाठी-गोली, घिसे-पिटे, पढ़े-लिखे, रिश्ता-नाता, दुःख-दर्द, वारे-न्यारे, संसद-सत्ता, मोटर-बत्ती, जेल-बेल, गुल्ली-डंडा, तेल-मसाला आदि शब्द-युग्मों का यथावश्यक प्रयोग कर नवगीतों की भाषा को जीवंतता दी है। इनमें कुछ शब्द युग्म प्रचलित हैं तो कुछ की उद्भावना मौलिक प्रतीत होती है। इनसे नवगीतकार की भाषा पर पकड़ और अधिकार व्यक्त होता है।
अंग्रेजी शब्दों के हिंदी भाषांतरण की दिशा में कोंक्रीट को कंकरीट किया जाना सटीक और सही प्रतीत हुआ। सिविल अभियंता के अपने लम्बे कार्यकाल में मैंने श्रमिकों को यह शब्द कुछ इसी प्रकार बोलते सुना है। अतः, इसे शब्दकोष में जोड़ा जा सकता है।
ओमप्रकाश जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य समसामयिक वैषम्य और विसंगतियों का संकेतन और उनके निराकरण का सन्देश दे पाना है। पत्रकार होने के नाते उनकी दृष्टि का सूक्ष्म, पैना और विश्लेषक होना स्वाभाविक है। यह स्वाभाविकता ही उनके नवगीतों के कथ्य को सहज स्वीकार्य बनती है और पाठक-श्रोता उससे अपनापन अनुभव करता है। पत्रकार का हथियार कलम है। विसंगतियां जिस क्रोध को जन्म देती हैं वह शब्द प्रहार कर संतुष्ट-शांत होता है। वे स्वयं कहते हैं: 'खरोध ही तो मेरी कविताओं का प्रेरक तत्व है। इस पुस्तक की ८०% रचनाएँ किसी न किसी घटना अथवा दृश्य से उपजे क्रोध का ही परिणाम है जो अक्सर पद्य व्यंग्य के रूप में ढल जाया करती है।' आशीर्वचन में डॉ. राम जी तिवारी ने इन नवगीतों का उत्स 'प्रदूषण, पाखंड, भ्रष्ट राजनीति, अनियंत्रित मँहगाई, लोकतंत्र की असफलता, रित्रहीनता, पारिवारिक कलह, सांप्रदायिक विद्वेष, संवेदनहीनता, सांस्कृतिक क्षरण, व्यापक विनाश का खतरा, पतनशील सामाजिक रूढ़ियाँ' ठीक ही पहचाना है। 'देख आज़ादी का अनुभव / देखा नेताओं का उद्भव / तब रानी एक अकेली थी / अब राजा आते हैं नव-नव / हम तो जस के तस हैं गुलाम' से लोक भावना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
ओमप्रकाश जी की सफलता जटिल अनुभूतियों को लय तथा भाषिक प्रवाह के साथ सहजता से कह पाना है। कहा जाता है 'बहता पानी निर्मला'। नीरज जी ने 'ओ मोरे भैया पानी दो / पानी दो गुड़ घनी दो' लोकगीत में लिखा है 'भाषा को मधुर रवानी दो' इन नवगीतों में भाषा की मधुर रवानी सर्वत्र व्याप्त है: ' है सुखद / अनुभूति / दरिया की रवानी / रुक गया तो / शीघ्र / सड़ जाता है पानी'। सम्मिलित परिवार प्रथा के समाप्त होने और एकल परिवार की त्रासदी भोगते जान की पीड़ा को कवि वाणी देता है: 'पति[पत्नी का परिवार बचा / वह भी तूने क्या खूब रचा / दोनों मोबाइल से चिपके / हैं उस पर ऊँगली रहे नचा / इंटरनेट से होती सलाम'।
कलावती के गाँव शीर्षक नवगीत में नेता के भ्रमण के समय प्रशासन द्वारा छिपाने का उद्घाटन है: गाड़ी में से उतरी / पानी की टंकी / तेलमसाला-आता / साडी नौटंकी / जला कई दिन बाद कला के घर चूल्हा /उड़ी गाँव में खुशबू / बढ़िया भोजन की / तृप्त हुए वो / करके भोजन ताज़ा जी / कलावती के / गाँव पधारे राजाजी।
सांप्रदायिक उन्माद, विवाद और सौहार्द्र पत्रकार और जागरूक नागरिक के नाते ओमप्रकाश जी की प्राथमिक चिंता है। वे सौहार्द्र को याद करते हुए उसके नाश का दोष राजनीती को ठीक ही देते हैं: असलम के संग / गुल्ली-डंडा / खेल-खेल बचपन बीता / रामकथावले / नाटक में / रजिया बनती थी सीता / मंदिर की ईंटें / रऊफ के भट्ठे / से ही थीं आईं / पंडित थे परधान / उन्हीं ने काटा / मस्जिद का फीता / गुटबंदी को / खददरवालों / ने आकर आबाद किया 'खद्दर' शीर्षक इस नवगीत का अंत 'तिल को ताड़ / बना कुछ लोगों / ने है खड़ा विवाद किया' सच सामने ला देता है।
'कौरव कुल' में महाभारत काल के मिथकों का वर्तमान से सादृश्य बखूबी वर्णित है।'घर बया का / बंदरों ने / किया नेस्तनाबूद है' में पंचतंत्र की कहानी को इंगित कर वर्तमान से सादृश्य तथा 'लोमड़ी ने / राजरानी / की गज़ब पोशाक धारी' में किसी का नाम लिए बिना संकेतन मात्र से अकहे को कहने की कला सराहनीय है।
'चाकलेट / कम खाई मैंने/ लेकिन पाया / माँ का प्यार', 'अर्थ जेब में / तो हम राजा / वरना सब कुछ व्यर्थ', 'राजा जी को / कौन बताये / राजा नंगा है', दिनकर वादा करो / सुबह / तुम दोगे अच्छी', 'प्रेमचंद के पंच / मग्न हैं / अपने-अपने दाँव में', 'लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार', 'मुट्ठी बाँध / जोर से बोल / प्यारे अपनी / किस्मत खोल', 'बहू चाहिए अफ़लातून / करे नौकरी वह सरकारी / साथ-साथ सब दुनियादारी / बच्चों के संग पीटीआई को पीला / घर की भी ले जिम्मेदारी / रोटी भी सेंके दो जून', 'लाठी पुलिस / रबर की गोली / कैसा फागुन / कैसी होली', ऊंचे-ऊंचे भवन-कोठियाँ / ऊँची सभी दूकान / चखकर देखे हमने बाबू / फीके थे पकवान / भली नून संग रूखी रोटी / खलिहानों की छाँव' जैसी संदेशवाही पंक्त्तियों को किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है।
इस संग्रह की उपलब्धि 'यूं ही नहीं राम जा डूबे' तथा 'बाबूजी की एक तर्जनी' हैं। 'हारे-थके / महल में पहुँचे / तो सूना संसार / सीता की / सोने की मूरत / दे सकती न प्यार / ऐसे में / क्षय होना ही था / वह व्यक्तित्व विराट' में राम की वह विवशता इंगित है जो उनके भगवानत्व में प्रायः दबी रह जाती है। कवि अपने बचपन को जीते हुए पिता की ऊँगली के माध्यम से जो कहता है वह इस नवगीत को संकलन ही नहीं पाठक के लिए भी अविस्मरणीय बना देता है: बाबूजी की / एक तर्जनी / कितनी बड़ा सहारा थी.... / ऊँगली पकड़े रहते / जब तक / अपनी तो पाव बारा थी / स्वर-व्यंजन पहचान करना / या फिर गिनती और पहाड़े / ऊँगली कभी रही न पीछे / गर्मी पड़ती हो या जेड / चूक पढ़ाई में / होती तो / ऊँगली चढ़ता पारा थी / … ऊँगली / सिर्फ नहीं थी ऊँगली / घर का वही गुजारा थी'।
ओमप्रकाश तिवारी जी ने नवगीत विधा को न केवल अपनाया है, उसे अपने अनुसार ढाला भी है। मुहावरेदार भाषा में तीक्ष्णता, साफगोई और ईमानदारी से विषमताओं को इंगित कर उसके समाधान के प्रति सोचा जगाना ही उनका उद्देश्य है। वे खुद को भी नहीं बख्शते और लिखते हैं: 'मत गुमां पालो / की हैं / अखबार में / सोच लो / हम भी/ खड़े बाजार में'। आइए! हम सब नवता के पक्षधर पूरी शिद्दत के साथ विसंगतियों के बाज़ार में खड़े होकर नवगीत की धार से वैषम्य को धूसरित कर वैषम्यहीन नव संस्कृति की आधारशिला बनें।
९-११-२०१४
***
दोहा सलिला:
*
नट के करतब देखकर, राधा पूछे मौन
नट मत, नटवर नट कसे, कहाँ बता कब कौन??
*
हहर-हहर-हर रही, लहर-लहर सुख-चैन
सिहर-सिहर लख प्राण-मन, आठ प्रहार दिन-रैन
*
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान
रूप-गंध, रस-स्वाद बिन, पालक गुण की खान
९.११.२०१३
***
तेवरी के तेवर :
१.
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव.
सस्ता हुआ नमक का भाव..
मँझधारों-भँवरों को पार
किया, किनारे डूबी नाव..
सौ चूहे खाने के बाद
हुआ अहिंसा का है चाव..
ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव..
ठण्ड भगाई नेता ने.
जला झोपडी, बना अलाव..
डाकू तस्कर चोर खड़े.
मतदाता क्या करे चुनाव..
नेता रावण जन सीता
कैसे होगा 'सलिल' निभाव?.
***
२.
दिल ने हरदम चाहे फूल.
पर दिमाग ने बोये शूल..
मेहनतकश को कहें गलत.
अफसर काम न करते भूल..
बहुत दोगली है दुनिया
तनिक न भाते इसे उसूल..
पैर मत पटक नाहक तू
सर जा बैठे उड़कर धूल..
बने तीन के तेरह कब?
डूबा दिया अपना धन मूल..
मँझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते हम जा कूल..
धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवास्वप्न में झूल..
***
३.
खर्चे अधिक आय है कम.
दिल रोता आँखें हैं नम..
पाला शौक तमाखू का.
बना मौत का फंदा यम..
जो करता जग उजियारा
उस दीपक के नीचे तम..
सीमाओं की फ़िक्र नहीं.
ठोंक रहे संसद में ख़म..
जब पाया तो खुश न हुए.
खोया तो करते क्यों गम?
टन-टन रुचे न मन्दिर की.
कदम-कदम पर फोड़ें बम..
९-११-२००९
***

रविवार, 27 अप्रैल 2025

अप्रैल २७, चित्रगुप्त, मोर्स, गोपी छंद, सॉनेट, नेपाल, भूकंप, हाइकु, दोहा, नवगीत

सलिल सृजन अप्रैल २७
मोर्स कोड दिवस
*
विनय
.
भोर भई टेरत गौरइया
काए बिलम रई उठ री मइया!
.
हवा सुहानी सुंदर बगिया 
हेर रई पथ कोमल कलिया
शारद! आशिष लुटा-लुटा खें
खाली कर दे आशिष डलिया
तार सितार टुनटुना तनकऊ
काए बिलम रई उठ री मइया!
.
रानी बिटिया! नाज़ुक सुंदर
सपर करौं सिंगार मनोहर
पटियाँ पार गूँथ दौं बेनी
जवाकुसुम लै धार कंठ पर
चंपा पायल सोहे पइंया
काए बिलम रई उठ री मइया!
.
हरसिँगार करधनी न बिसरा
महुआ कंगन निखरा निखरा
खोंस गुलाब कली बालन मां
सँग सोहे बेला का गजरा
तो सौं वरदा कौनउ नइया
काए बिलम रई उठ री मइया!
२७.४.२०२५
.
विमर्श :
चित्रगुप्त माहात्मय
*
जो भी प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है, यही विधि का विधान है। चित्रगुप्त जी की जयंती मनाने का रथ है कि उनका जन्म हुआ, तब मृत्यु होना भी अटल है। क्या चित्रगुप्त जी की पुण्य तिथि किसी को ज्ञात है?
चित्रगुप्त जी परात्पर परब्रह्म हैं जो निराकार है। आकार नाहें है तो चित्र नहीं हो सकता, इसलिए चित्र गुप्त है। चित्रगुप्त जी और कायस्थों का उल्लेख ऋग्वेद आदि में है। सदियों तक कायस्थ राजवंशों ने शासन किया, कायस्थ महामंत्री रहे, महान सेनापति रहे, विखयात वैद्य रहे, महान विद्वान रहे, धनपति भी रहे पर चित्रगुप्त जी को केंद्र में रख मंदिर, मूर्ति, चालीसा, आदि नहीं बनाए। वे अशक्त नहीं थे, सत्य जानते थे। कायस्थ निराकार ब्रह्म के उपासक हैं, जबसे कायस्थों ने दूसरों की नकल कार साकार मूर्तिपूजा आरंभ की वे अशक्त होते गए।
पुराण कहता है- ''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनां'' चित्रगुप्त सब देवताओं में सबसे पहले प्रणाम करने के योग्य हैं क्योंकि वे सभी देहधारियों में आत्मा के रूप में स्थित हैं।
क्या आत्मा का आकार या चित्र है? आत्मा परमात्मा का अंश है। इसलिए सृष्टि में हर देहधारी की काया में आत्मा स्थित होने के कारण वह कायस्थ है। इसी कारण कायस्थ किसी एक धर्म, जाति, पंथ, संप्रदाय या देवता तक सीमित कभी नहेने रहे। वे देश-काल-परिस्थिति की आवश्यकतानुसार जनगण का नेत्रत्व कार अग्रगण्य रहे।
वर्तमान में यदि पुन: नेतृत्व पाना है तो अपनी जड़ों को, विरासत को पहचान-समेटकर बढ़ना होगा।
***
इतिहास - फ्रंटियर मेल
बल्लार्ड पियर मोल स्टेशन (बॉम्बे) से प्रस्थान करने वाली बॉम्बे पेशावर फ्रंटियर मेल। आप शेड पर स्टेशन का नाम देख सकते हैं।
यह ट्रेन इंग्लैंड से आने वाले अधिकारियों और सैनिकों को दिल्ली, लाहौर, रावलपिंडी और पेशावर की विभिन्न छावनियों में ले जाती थी।
विक्टोरिया टर्मिनस और चर्चगेट रेलवे स्टेशनों के निर्माण के बाद, बलार्ड पियर टर्मिनस को छोड़ दिया गया था। इसके बाद फ्रंटियर मेल को चर्चगेट (अब मुंबई सेंट्रल पर समाप्त) पर समाप्त किया जाता था।
सबसे प्रतिष्ठित ट्रेन होने के नाते, इसके आगमन पर, चर्चगेट स्टेशन को उज्ज्वल रूप से रोशन किया जाता था और इसकी त्रुटिहीन समयबद्धता के कारण लोग अपनी घड़ियाँ सेट करते थे!
***
अभिनव प्रयोग
गोपी छंदीय सॉनेट
*
घोर कलिकाल कठिन जीना।
हाय! भू पर संकट भारी।
घूँट खूं के पड़ते पीना।।
समर छेड़े अत्याचारी।।
सबल नित करता मनमानी।
पटकता बम नाहक दिन-रात।
निबल के आँसू भी पानी।।
दिख रही सच की होती मात।।
स्वार्थ सब अपना साध रहे।
सियासत केर-बेर का संग।
सत्य का कर परित्याग रहे।।
रंग जीवन के हैं बदरंग।।
धरा का छलनी है सीना।
घोर कलिकाल कठिन जीना।
२७-४-२०२२
***
***
मुक्तिका
*
जनमत मत सुन, अपने मन की बात करो
जन विश्वास भेज ठेंगे पर घात करो
*
बीमारी को हरगिज दूर न होने दो
रैली भाषण सभा नित्य दिन रात करो
*
अन्य दली सरकार न बन या बच पाए
डरा खरीदो, गिरा लोक' की मात करो
*
रोजी-रोटी छीन, भुखमरी फैला दो
मुट्ठी भर गेहूँ जन की औकात करो
*
जो न करे जयकार, उसे गद्दार कहो
जो खुद्दार उन्हीं पर अत्याचार करो
*
मंदिर-मस्जिद-गिरजाघर को लड़वाओ
लिखा नया इतिहास, सत्य से रार करो
*
हों अपने दामाद यवन तो जायज है
लव जिहाद कहकर औरों पर वार करो
२७-४-२०२१
***
ज्योति ज्योति ले हाथ में, देख रही है मौन
तोड़ लॉकडाउन खड़ा, दरवाजे पर कौन?
कोरोना के कैरियर, दूँगी नहीं प्रवेश
रख सोशल डिस्टेंसिंग, मान शासनादेश
जाँच करा अपनी प्रथम, कर एकाकीवास
लक्षण हों यदि रोग के, कर रोगालय वास
नाता केवल तभी जब, तन-मन रहे निरोग
नादां से नाता नहीं, जो करनी वह भोग
*
बेबस बाती जल मरी, किन्तु न पाया नाम
लालटेन को यश मिला, तेल जला बेदाम
२७.४.२०२०
***
गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
**
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम् को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रूकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मन भाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
***
मुक्तिका
नारी और रंग
*
नारी रंग दिवानी है
खुश तो चूनर धानी है
लजा गुलाबी गाल हुए
शहद सरीखी बानी है
नयन नशीले रतनारे
पर रमणी अभिमानी है
गुस्से से हो लाल गुलाब
तब लगती अनजानी है।
झींगुर से डर हो पीली
वीरांगना भवानी है
लट घुँघराली नागिन सी
श्याम लता परवानी है
दंत पंक्ति या मणि मुक्ता
श्वेत धवल रसखानी है
स्वप्नमयी आँखें नीली
समुद-गगन नूरानी है
ममता का विस्तार अनंत
भगवा सी वरदानी है
२७-४-२०१९
***
नवगीत:
.
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
पर्वत, घाटी या मैदान
सभी जगह मानव हैरान
क्रंदन-रुदन न रुकता है
जागा क्या कोई शैतान?
विधना हमसे क्यों रूठा?
क्या करुणासागर झूठा?
किया भरोसा क्या नाहक
पल भर में ऐसे टूटा?
डँसते सर्पों से सवाल
बार-बार फुँफकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
कभी नहीं मारे भूकंप
कभी नहीं हांरे भूकंप
एक प्राकृतिक घटना है
दोष न स्वीकारे भूकंप
दोषपूर्ण निर्माण किये
मानव ने खुद प्राण दिए
वन काटे, पर्वत खोदे
खुद ही खुद के प्राण लिये
प्रकृति के अनुकूल जिओ
मात्र एक उपचार
.
नींव कूटकर खूब भरो
हर कोना मजबूत करो
अलग न कोई भाग रहे
एकरूपता सदा धरो
जड़ मत हो घबराहट से
बिन सोचे ही मत दौड़ो
द्वार-पलंग नीचे छिपकर
राह काल की भी मोड़ो
फैलाता अफवाह जो
उसको दो फटकार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
.
बिजली-अग्नि बुझाओ तुरत
मिले चिकित्सा करो जुगत
दीवारों से लग मत सो
रहो खुले में, वरो सुगत
तोड़ो हर कमजोर भवन
मलबा तनिक न रहे अगन
बैठो जा मैदानों में
हिम्मत देने करो जतन
दूर करो सब दूरियाँ
गले लगा दो प्यार
धरती की छाती फ़टी
फैला हाहाकार
***
नवगीत:
.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
वसुधा मैया भईं कुपित
डोल गईं चट्टानें.
किसमें बूता
धरती कब
काँपेगी अनुमाने?
देख-देख भूडोल
चकित क्यों?
सीखें रहना साथ.
अनसमझा भूकम्प न हो अब
मानवता का काल.
पृथ्वी पर भूचाल
हुए, हो रहे, सदा होएंगे.
हम जीना सीखेंगे या
हो नष्ट बिलख रोएँगे?
जीवन शैली गलत हमारी
करे प्रकृति से बैर.
रहें सुरक्षित पशु-पक्षी, तरु
नहीं हमारी खैर.
जैसी करनी
वैसी भरनी
फूट रहा है माथ.
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
.
टैक्टानिक हलचल को समझें
हटें-मिलें भू-प्लेटें.
ऊर्जा विपुल
मुक्त हो फैले
भवन तोड़, भू मेटें.
रहे लचीला
तरु ना टूटे
अड़ियल भवन चटकता.
नींव न जो
मजबूत रखे
वह जीवन-शैली खोती.
उठी अकेली जो
ऊँची मीनार
भग्न हो रोती.
वन हरिया दें, रुके भूस्खलन
कम हो तभी विनाश।
बंधन हो मजबूत, न ढीले
रहें हमारे पाश.
छूट न पायें
कसकर थामें
'सलिल' हाथ में हाथ
पशुपतिनाथ!
तुम्हारे रहते
जनगण हुआ अनाथ?
***
हाइकु सलिला:
.
सागर माथा
नत हुआ आज फिर
देख विनाश.
.
झुक गया है
गर्वित एवरेस्ट
खोखली नीव
.
मनमानी से
मानव पराजित
मिटे निर्माण
.
अब भी चेतो
न करो छेड़छाड़
प्रकृति संग
.
न काटो वृक्ष
मत खोदो पहाड़
कम हो नाश
.
न हो हताश
करें नव निर्माण
हाथ मिलाएं.
.
पोंछने अश्रु
पीड़ितों के चलिए
न छोड़ें कमी
***
कल और आज :
कल का दोहा
प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर
चीटी ले शक्कर चली, हाथी के सर धूर
.
आज का दोहा
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता लघु हो हीन
'सलिल' लघुत्तम चाहता, दैव महत्तम छीन
एक षट्पदी:
.
प्रेमपत्र लिखता गगन, जब-तब भू के नाम
आप न आता क्रुद्ध भू, काँपे- सके न थाम
काँपे- सके न थाम, कहर से गिरते हैं घर
नाश देखकर रोता गगन न चुप होता फिर
आँधी-पानी से से बढ़ती है दर्द के अगन
आता तब भूकम्प जब प्रेमपत्र लिखता गगन
***
दोहा सलिला:
.
रूठे थे केदार अब, रूठे पशुपतिनाथ
वसुधा को चूनर हरी, उढ़ा नवाओ माथ
.
कामाख्या मंदिर गिरा, है प्रकृति का कोप
शांत करें अनगिन तरु, हम मिलकर दें रोप
.
भूगर्भीय असंतुलन, करता सदा विनाश
हट संवेदी क्षेत्र से, काटें यम का पाश
.
तोड़ पुरानी इमारतें, जर्जर भवन अनेक
करे नये निर्माण दृढ़, जाग्रत रखें विवेक
.
गिरि-घाटी में सघन वन, जीवन रक्षक जान
नगर बसायें हम विपुल, जिनमें हों मैदान
.
नष्ट न हों भूकम्प में, अपने नव निर्माण
सीखें वह तकनीक सब, भवन रहें संप्राण
.
किस शक्ति के कहाँ पर, आ सकते भूडोल
ज्ञात, न फिर भी सजग हम, रहे किताबें खोल
.
भार वहन क्षमता कहाँ-कितनी लें हम जाँच
तदनसार निर्माण कर, प्रकृति पुस्तिका बाँच
***
नवगीत:
.
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
भूगर्भी चट्टानें सरकेँ,
कांपे धरती.
ऊर्जा निकले, पड़ें दरारें
उखड़े पपड़ी
हिलें इमारत, छोड़ दीवारें
ईंटें गिरतीं
कोने फटते, हिल मीनारें
भू से मिलतीं
आफत बिना बुलाये आये
आँख दिखाये
सावधान हो हर उपाय कर
जान बचायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
द्वार, पलंग तले छिप जाएँ
शीश बचायें
तकिया से सर ढाँकें
घर से बाहर जाएँ
दीवारों से दूर रहें
मैदां अपनाएँ
वाहन में हों तुरत रोक
बाहर हो जाएँ
बिजली बंद करें, मत कोई
यंत्र चलायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
बाद बड़े झटकों के कुछ
छोटे आते हैं
दिवस पाँच से सात
धरा को थर्राते हैं
कम क्षतिग्रस्त भाग जो उनकी
करें मरम्मत
जर्जर हिस्सों को तोड़ें यह
अतिआवश्यक
जो त्रुटिपूर्ण भवन उनको
फिर गिरा बनायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
.
है अभिशाप इसे वरदान
बना सकते हैं
हटा पुरा निर्माण, नव नगर
गढ़ सकते हैं.
जलस्तर ऊपर उठता है
खनिज निकलते
भू संरचना नवल देख
अरमान मचलते
आँसू पीकर मुस्कानों की
फसल उगायें
आपद बिना बुलाये आये
मत घबरायें.
साहस-धीरज संग रखें
मिलकर जय पायें
२७-४-२०१५
***
छंद सलिला:
कुंडली छंद
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु गुरु (यगण, मगण), यति ११-१०।
लक्षण छंद:
छंद रचें इक्कीस / कला ले कुडंली
दो गुरु से चरणान्त / छंद रचना भली
रखें ग्यारह-दस पर, यति- न चूकें आप
भाव बिम्ब कथ्य रस, लय रहे नित व्याप
उदाहरण:
१. राजनीति कोठरी, काजल की कारी
हर युग हर काल में, आफत की मारी
कहती परमार्थ पर, साधे सदा स्वार्थ
घरवाली से अधिक, लगती है प्यारी
२. बोल-बोल थक गये, बातें बेमानी
कोई सुनता नहीं, जनता है स्यानी
नेता और जनता , नहले पर दहला
बदले तेवर दिखा, देती दिल दहला
३. कली-कली चूमता, भँवरा हरजाई
गली-गली घूमता, झूठा सौदाई
बिसराये वायदे, साध-साध कायदे
तोड़े सब कायदे, घर मिला ना घाट
२७-४-२०१४
***
तेवरी :
हुए प्यास से सब बेहाल
*
हुए प्यास से सब बेहाल.
सूखे कुएँ नदी सर ताल..
गौ माता को दिया निकाल.
श्वान रहे गोदी में पाल..
चमक-दमक ही हुई वरेण्य.
त्याज्य सादगी की है चाल..
शंकाएँ लीलें विश्वास.
डँसते नित नातों के व्याल..
कमियाँ दूर करेगा कौन?
बने बहाने हैं जब ढाल..
मौन न सुन पाए जो लोग.
वही बजाते देखे गाल..
उत्तर मिलते नहीं 'सलिल'.
अनसुलझे नित नए सवाल..
***
मुक्तिका
*
ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल' ध्यान रहे.
खुशी मर जाएगी गर खुद में सिमट जाएगी..
२७-४-२०१०
*

शनिवार, 9 नवंबर 2024

नवंबर ९, तेवरी, दोहा, हिमालय, भूकंप, सॉनेट, गजल,

 सलिल सृजन नवंबर ९ 

*

सॉनेट
पैर जमाकर धरती पर पग बढ़ा बढ़ो।
थाह समुद की लो या गिरि पर चढ़ जाओ।
जो अनगढ़ रह गया वही आकार गढ़ो।
अब तक जो भी मिला नहीं वह सब पाओ।।
संकल्पों की जय बोलो, थक रुको नहीं।
कशिश न कोशिश की कम होने देना तुम।
मंजिल जब तक मिले नहीं झुक चुको नहीं।
मैं-तू में फँस; हम मत खोने देना तुम।।
बाँहों को फैलाओ दिशा दसों नापो।
पवन अग्नि जल ऊर्जा बन नव जीवन दो।
शंकर बनकर कंकर-कंकर में व्यापो।
कलकल कलरव सरगम जीवन मधुवन हो।।
मत जोड़ो जो पाया है उसको छोड़ो।
लक्ष्य वरो, नव लक्ष्य चुनो, झट पग मोड़ो।।
९.११.२०२४
***
सामयिकी
भूकंप और हम १
*
प्रकृति की गोद में जन्मा आदि मानव निरक्षरता, साधनहीनता और अज्ञान के बाद भी प्राकृतिक आपदाओं से नष्ट नहीं हुआ। आधुनिक काल में ज्ञान-विज्ञान जनित उन्नति, तकनीकी विकास, संसाधनों आदि से सुसज्जित मानव प्राकृतिक आपदाओं से भयभीत है तो इसका एक ही अर्थ है कि मानव नई प्राकृतिक घटनाओं को समझने और उनके साथ सुरक्षित रहने की कला, तकनीक और कौशल से खुद को सुसज्जित नहीं किया है। प्रमुख प्राकृतिक आपदाएँ हैं- १. भूकंप/ज्वालामुखी, २. आँधी/तूफान, ३. जलप्लावन/बाढ़, ४. विद्युत्पात (बिजली गिरना), ५. महामारी, ६. अग्निकांड, ७. अतिवर्षा, ८. अल्पवर्षा ९. दुर्भिक्ष्य/अकाल तथा १० ज्वर-भाटा आदि। मानव जनित आपदाओं में युद्ध, दंगा आदि प्रमुख हैं। १ नवंबर को मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले में भारतीय मानक समयानुसार परैत: ८.४३.५० बजे भूस्थानिक केंद्र २२.७३ अंश उत्तर अक्षांस , ८१.११ अंश पूर्व देशांतर में ४.३ तीव्रता का मध्यम भूकंप जिसका एपिसेंटर १० की.मी. गहराई में था, दर्ज किया गया। इस भूकंप का प्रभाव डिंडोरी, मंडला, जबलपुर, अनूपपुर, उमरिया, बालाघाट आदि जिलों में महसूस किया गया। केवल एक सप्ताह बाद ही ८ नवंबर २०२२ को एनसीएस के अनुसार, उत्तराखंड-नेपाल क्षेत्र में तड़के ३.१५ मिनट पर और सुबह ६.२७ पर क्रमश: ३.६ और ४.३ तीव्रता के भूकंप के झटके महसूस किए गए। नेपाल के राष्ट्रीय भूकंप निगरानी केंद्र के अनुसार, नेपाल में देर रात२.१२ पर ६.६ तीव्रता का भूकंप आया। इसका केंद्र डोटी जिले में था। इससे पहले पश्चिमी नेपाल में भूकंप के दो झटके महसूस किए गए। मंगलवार रात ९.०७ पर ५.७ तीव्रता का और इसके कुछ देर बाद रात ९.५६ पर ४.१ तीव्रता का भूकंप का झटका महसूस हुआ। नेपाल के गृह मंत्रालय के प्रवक्ता फणींद्र पोखरेल ने बताया कि भूकंप से छह लोगों की मौत हो गई तथा गंभीर रूप से घायल ५ लोगों को डोटी के जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया है।।
२५ अक्टूबर को सूर्य ग्रहण तथा ८ अक्टूबर को चंद्र ग्रहण में बीच आए इन भूकंपों ने, भूकंप और ग्रहण के बीच संबंध को चर्चा में ला दिया। इन भूकंपों में लोगों ने अपने घरों, पलंग, दरवाजे और खिड़कियों को अचानक हिलते पाया।
भूकंप का कारण
धरती के भीतर कई प्लेटें (विराट भूखंड) हैं जो समय-समय पर विस्थापित और व्यवस्थित होती हैं। इस सिद्धांत को अंग्रेजी में प्लेट टैक्टॉनिकक थियरी (भूखंड विवर्तनिकी सिद्धांत) कहते हैं। पृथ्वी की ऊपरी परत लगभग ८० किलोमीटर से १०० किलोमीटर मोटी होती है जिसे स्थल मंडल कहते हैं। पृथ्वी के इस भाग में कई टुकड़ों में टूटी हुई प्लेटें होती हैं जो भूगर्भीय लावा पर तैरती रहती हैं। सामान्य रूप से यह प्लेटें १०-४० मिलिमीटर प्रति वर्ष की गति से गतिशील रहती हैं। इनमें कुछ की गति १६० मिलिमीटर प्रति वर्ष भी होती है। भूकंप की तीव्रता मापने के लिए रिक्टर पैमाना इस्तेमाल किया जाता है। इसे रिक्टर मैग्नीट्यूड टेस्ट स्केल कहा जाता है। भूकंप की तरंगों को रिक्टर स्केल १ से ९ तक के आधार पर मापा जाता है।
देश में कई भूकंप क्षेत्र
भारतीय उपमहाद्वीप में भूकंप का खतरा हर जगह अलग-अलग है। भारत को भूकंपीय खतरे के बढ़ते प्रभाव के आधार पर चार हिस्सों जोन २, जोन ३, जोन ४ तथा जोन ५ में बाँटा गया है। उत्तर-पूर्व के सभी राज्य, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश के कुछ हिस्से जोन ५ में हैं। उत्तराखंड के कम ऊँचे हिस्सों से लेकर उत्तर प्रदेश के ज्यादातर हिस्से तथा दिल्ली जोन ४ में हैं। मध्य भारत अपेक्षाकृत कम खतरेवाले जोन ३ में है, जबकि दक्षिण के ज्यादातर हिस्से सीमित खतरेवाले जोन २ में हैं।
तीव्रता का अनुमान
भूकंप की तीव्रता का अंदाजा उसके केंद्र ( एपीसेंटर) से निकलने वाली ऊर्जा की तरंगों से लगाया जाता है। सैंकड़ो किलोमीटर तक फैली इस लहर से कंपन होता है। धरती में दरारें तक पड़ जाती है। भूकंप केंद्र की गहराई उथली हो तो इससे बाहर निकलने वाली ऊर्जा सतह के काफी करीब होती है जिससे भयानक तबाही होती है। जो भूकंप धरती की गहराई में आते हैं उनसे सतह पर ज्यादा नुकसान नहीं होता। समुद्र में भूकंप आने पर सुनामी उठती है।
भारत में कितने भूकंप ?
वर्ष २०२० तक राष्ट्रीय सेसमॉलॉजिकल नेटवर्क में ७४५ भूकंप रिकॉर्ड किए गए जिसमें दिल्ली-एनसीआऱ में सितंबर २०१७ से लेकर अगस्त २०२० तक २६ भूकंपों की तीव्रता रिक्टर स्केल पर ३ या इससे ऊपर थीं।
भारत में सबसे ज्यादा भूकंप कहाँ?
सितंबर २०१७ से अगस्त २०२० के बीच अंडमान-निकोबार में १९८ भूकंप दर्ज किए गए जबकि जम्मू-कश्मीर में ९८। ये दोनों इलाके देश में हाई सेस्मिक एक्टीविटी जोन में आते हैं।
***
मुक्तिका
(सप्त मात्रिक)
*
नमन मंगल
करो मंगल
शांति सुख दो
न हो दंगल
हरे हों फिर
सघन जंगल
तीर्थ नूतन
बाँध नंगल
याद आते
हमें हंगल
***
मुक्तिका
*
सुधियों के पल या कि मयूरी पंख छू रहे मखमीले हैं
नयन नयन में डूब झुक उठें बरसें बादल कपसीले हैं
कसक रहीं दूरियाँ दिलों को देख आइना पल-छिन ऐसे
जैसे आँसू के सागर में विरह व्यथा कण रेतीले हैं
मन ने मन से याद किया तो मन के मनके सरक रहे हैं
नाम तुम्हारा उस सा लुक-छिप कहता नखरे नखरीले हैं
पिस-पिसकर कर को रँग देना हमें वफा ने सिखा दिया है
आँख फेरकर भी पाओगे करतल बरबस मेंहदीले हैं
ओ मेरी तुम! ओ मेरे तुम! कहकर सुमिरो जिसको जिस पल
नयन मूँद सम्मुख पा, खोना नयन खोल मत शरमीले हैं
आँकी बाँका झाँकी उसकी जिसको सुमिर रहा मन उन्मन
उन्मद क्यों हो?, शांत कांत पल मिलन-विरह के भरमीले हैं
सलिल साधना कर नित उसकी जिस पर तेरा मन आया है
ज्यों की त्यों हो श्वास चदरिया आस रास्ते यह रपटीले हैं
९-११-२०२१
***
दोहा
जैसी भी है ज़िंदगी, जिएं मजा लें आप.
हँसे-हँसाया यदि नहीं, बन जाएगी शाप.
***
मुक्तक
सुबह अरुण ऊग ऊषा संग जैसे ऊगा करता है
बाँह साँझ की थामे डूब जैसे डूबा करता है
तीन तलाक न बोले, दोषी वह दहेज का हुआ नहीं
ब्लैक मनी की फ़िक्र न किंचित, हँस सर ऊँचा करता है
***
एक षटपदी-
कविता मेरी प्रेरणा, रहती पल-पल साथ
कभी मिलाती है नज़र, कभी थामती हाथ
कभी थामती हाथ, कल्पना-कांता के संग
कभी संग मिथलेश छेड़ती दोहा की जंग
करे साधना 'सलिल' संग हो रजनी सविता
बन तरंग आ जाती है फिर भी संग कविता
९-११-२०१६
***
हिमालय वंदना
*
वंदन
पर्वत राज तुम्हारा
पहरेदार देश के हो तुम
देख उच्चता होश हुए गुम
शिखर घाटियाँ उच्च-भयावह
सरिताएँ कलकल जाती बह
अम्बर ने यशगान उचारा
*
जगजननी-जगपिता बसे हैं
मेघ बर्फ में मिले धंसे हैं
ब्रम्हपुत्र-कैलाश साथ मिल
हँसते हैं गंगा के खिलखिल
चाँद-चाँदनी ने उजियारा
*
दशमुख-सगर हुए जब नतशिर
समाधान थे दूर नहीं फिर
पांडव आ सुरपुर जा पाये
पवन देव जय गा मुस्काये
भास्कर ने तम सकल बुहारा
*
शीश मुकुट भारत माँ के हो
रक्षक आक्रान्ताओं से हो
जनगण ने सर तुम्हें नवाया
अपने दिल में तुम्हें बसाया
सागर ने हँस बिम्ब निहारा
***
मुक्तक:
*
हमें प्रेरणा बना हिमालय
हर संकट में तना हिमालय
निर्विकार निष्काम भाव से
प्रति पल पाया सना हिमालय
*
सर उठाकर ही जिया है, सर उठाकर ही जियेगा
घूँट यह अपमान का, मर जाएगा पर ना पियेगा
सुरक्षित है देश इससे, हवा बर्फीली न आएं
शत्रुओं को लील जाएगा अधर तत्क्षण सियेगा
***
कृति चर्चा:
'खिड़कियाँ खोलो' : वैषम्य हटा समता बो लो
*
[कृति विवरण: खिड़कियाँ खोलो, नवगीत संग्रह, ओमप्रकाश तिवारी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ संख्या १२०, मूल्य ९०/-, बोधि प्रकाशन जयपुर]
साहित्य वही जो सबके हित की कामना से सृजा जाए। इस निकष पर सामान्यतः नवगीत विधा और विशेषकर नवगीतकार ओमप्रकाश तिवारी का सद्य प्रकाशित प्रथम नवगीत संग्रह 'खिड़कियाँ खोलो' खरे उतरते हैं। खिड़कियाँ खोलना का श्लेषार्थ प्रकाश व ताजी हवा को प्रवेश देना और तम को हटाना है। यह नवगीत विधा का और साहित्य के साथ रचनाकार ओमप्रकाश तिवारी जी के व्यवसाय पत्रकारिता का भी लक्ष्य है। सुरुचिपूर्ण आवरण चित्र इस उद्देश्य को इंगित करता है। ६० नवगीतों का यह संग्रह हर नवगीत में समाज में व्याप्त विषमताओं और उनसे उपजी विडंबनाओं को उद्घाटित कर परोक्षतः निराकरण और सुधार हेतु प्रेरित करता है। पत्रकार ओमप्रकाश जी जनता की नब्ज़ पकड़ना जानते हैं। वे अपनी बात रखने के लिए सुसंस्कृत शब्दावली के स्थान पर आम बोल-चाल की भाषा का प्रयोग करते हैं ताकि सिर्फ पबुद्ध वर्ग तक सीमित न रहकर नवगीतों का संदेश समाज के तक पहुँच सके।
इन नवगीतों का प्राण भाषा की रवानगी है. ओमप्रकाश जी को तत्सम, तद्भव, देशज, हिंदीतर किसी शब्द से परहेज नहीं है। उन्हें अपनी बात को अरलता और स्पष्टता से सामने रखने के लिए जो शब्द उपयुक्त लगता है वे उसे बेहिचक प्रयोग कर लेते हैं। निर्मल, गगन, गणक, दूर्वा, पुष्पाच्छादित, धरनि, पावस, शाश्वत, ध्वनि विस्तारक, श्रीमंत, उद्धारक, षटव्यंजन, प्रतिद्वन्दी, तदर्थ, पुनर्मिलन, जलदर्शन आदि संस्कृतनिष्ठ शब्दों के साथ कंप्यूटर, मोटर, टायर, बुलडोज़र, चैनेल, स्पून, जोगिंग, हैंगओवर, ट्रेडमिल, इनकमटैक्स, वैट, कस्टम, फ्लैट, क्रैश, बेबी सिटिंग, केक, बोर्डिंग, पिकनिक, डॉलर, चॉकलेट, हॉउसफुल, इंटरनेट आदि अंग्रेजी शब्द, आली, दादुर, नून, पछुआ, पुरवा, दूर, नखत, मुए, काहे, डगर, रेह, चच्चा, दद्दू, जून (समय), स्वारथ, पदार्थ, पिसान आदि देशज शब्द अथवा ताज़ी, ज़िंदगी, दरिया, रवानी, गर्मजोशी, रौनक, माहौल, अंदाज़, तूफानी, मुनादी, इंकलाब, हफ्ता, बवाल, आस्तीन, बेवा, अफ़लातून, अय्याशी, ज़ुल्म, खामी, ख्वाब, सलामत, रहनुमा, मुल्क, चंगा, ऐब, अरमान, ग़ुरबत, खज़ाना, ज़ुबां, खबर, गुमां, मयस्सर, लहू, क़तरा जैसे उर्दू लफ्ज़ पूरी स्वाभाविकता के साथ इन नवगीतों में प्रयुक्त हुए हैं। निस्संदेह यह भाषा नवगीतों को उस वर्ग से जोड़ती है जो विषमता से सर्वाधिक पीड़ित है। इस नज़रिये से इन नवगीतों की पहुँच और प्रभाव प्राञ्जल शब्दावली में रचित नवगीतों से अधिक होना स्वाभाविक है।
ओमप्रकाश जी के लिए अपनी बात को प्रखरता, स्पष्टता और साफगोई से रखना पहली प्राथमिकता है। इसलिए वे शब्दों के मानक रूप को बदलने से भी परहेज़ नहीं करते, भले ही भाषिक शुद्धता के आग्रही इसे अशुद्धि कहें। ऐसे कुछ शब्द पाला के स्थान पर पाल्हा, धरणी के स्थान पर धरनि, ऊपर के स्थान पर उप्पर, पुछत्तर, बिचौलिये के लिए बिचौले, इसमें की जगह अम्मी, चाहिए के लिए चहिए, प्रजा के लिए परजा, सीखने के बदले सिखने आदि हैं. विचारणीय है की यदि हर रचनाकार केवल तुकबंदी के लिए शब्दों को विरूपित करे तो भाषा का मानक रूप कैसे बनेगा ? विविध रचनाकार अपनी जरूरत के अनुसार शब्दों को तोड़ने-मरोड़ने लगें तो उनमें एकरूपता कैसे होगी? हिंदी के समक्ष विज्ञान विषयों की अभिव्यक्ति की राह में सबसे बड़ी बाधा शब्दों के रूप और अर्थ सुनिश्चित न होना ही है। जैसे 'शेप' और 'साइज़' दोनों को 'आकार' कहा जाना, जबकि इन दोनों का अर्थ पूर्णतः भिन्न है। ओमप्रकाश जी निस्संदेह शब्द सामर्थ्य के धनी हैं, इसलिए शब्दों को मूल रूप में रखते हुए तुक परिवर्तन कर अपनी बात कहना उनके लिए कठिन नहीं है। नवगीत का एक लक्षण भाषिक टटकापन माना गया है। कोई शक नहीं कि ग्रामीण अथवा देशज शब्दों को यथावत रखे जाने से नवगीत प्राणवंत होता है किन्तु यह देशजता शब्दविरूपण जनित हो तो खटकती है।
नवगीत को मुहावरेदार शब्दावली सरसता और अर्थवत्ता दोनों देती है। ओमप्रकाश जी ने चने हुए अब तो लोहे के (लोहे के चने चबाना), काम करें ना दंत (पंछी करें न काम), दिल पर पत्थर रखकर लिक्खी (दिल पर पत्थर रखना), मुँह में दही जमा, गले मिलना, तिल का ताड़, खून के आँसू जैसे मुहावरों और लोकोक्तियों के साथ-साथ भस्म-भभूति, मोक्ष-मुक्ति, चन-चबेना, चेले-चापड़, हाथी-घोड़े-ऊँट, पढ़ना-लिखना, गुटका-गांजा-सुरती, गाँव-गिराँव, सूट-बूट, पुरवा-पछुआ, भवन-कोठियाँ, साह-बहु, भरा-पूरा, कद-काठी, पढ़ी-लिखी, तेल-फुलेल, लाठी-गोली, घिसे-पिटे, पढ़े-लिखे, रिश्ता-नाता, दुःख-दर्द, वारे-न्यारे, संसद-सत्ता, मोटर-बत्ती, जेल-बेल, गुल्ली-डंडा, तेल-मसाला आदि शब्द-युग्मों का यथावश्यक प्रयोग कर नवगीतों की भाषा को जीवंतता दी है। इनमें कुछ शब्द युग्म प्रचलित हैं तो कुछ की उद्भावना मौलिक प्रतीत होती है। इनसे नवगीतकार की भाषा पर पकड़ और अधिकार व्यक्त होता है।
अंग्रेजी शब्दों के हिंदी भाषांतरण की दिशा में कोंक्रीट को कंकरीट किया जाना सटीक और सही प्रतीत हुआ। सिविल अभियंता के अपने लम्बे कार्यकाल में मैंने श्रमिकों को यह शब्द कुछ इसी प्रकार बोलते सुना है। अतः, इसे शब्दकोष में जोड़ा जा सकता है।
ओमप्रकाश जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य समसामयिक वैषम्य और विसंगतियों का संकेतन और उनके निराकरण का सन्देश दे पाना है। पत्रकार होने के नाते उनकी दृष्टि का सूक्ष्म, पैना और विश्लेषक होना स्वाभाविक है। यह स्वाभाविकता ही उनके नवगीतों के कथ्य को सहज स्वीकार्य बनती है और पाठक-श्रोता उससे अपनापन अनुभव करता है। पत्रकार का हथियार कलम है। विसंगतियां जिस क्रोध को जन्म देती हैं वह शब्द प्रहार कर संतुष्ट-शांत होता है। वे स्वयं कहते हैं: 'खरोध ही तो मेरी कविताओं का प्रेरक तत्व है। इस पुस्तक की ८०% रचनाएँ किसी न किसी घटना अथवा दृश्य से उपजे क्रोध का ही परिणाम है जो अक्सर पद्य व्यंग्य के रूप में ढल जाया करती है।' आशीर्वचन में डॉ. राम जी तिवारी ने इन नवगीतों का उत्स 'प्रदूषण, पाखंड, भ्रष्ट राजनीति, अनियंत्रित मँहगाई, लोकतंत्र की असफलता, रित्रहीनता, पारिवारिक कलह, सांप्रदायिक विद्वेष, संवेदनहीनता, सांस्कृतिक क्षरण, व्यापक विनाश का खतरा, पतनशील सामाजिक रूढ़ियाँ' ठीक ही पहचाना है। 'देख आज़ादी का अनुभव / देखा नेताओं का उद्भव / तब रानी एक अकेली थी / अब राजा आते हैं नव-नव / हम तो जस के तस हैं गुलाम' से लोक भावना की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है।
ओमप्रकाश जी की सफलता जटिल अनुभूतियों को लय तथा भाषिक प्रवाह के साथ सहजता से कह पाना है। कहा जाता है 'बहता पानी निर्मला'। नीरज जी ने 'ओ मोरे भैया पानी दो / पानी दो गुड़ घनी दो' लोकगीत में लिखा है 'भाषा को मधुर रवानी दो' इन नवगीतों में भाषा की मधुर रवानी सर्वत्र व्याप्त है: ' है सुखद / अनुभूति / दरिया की रवानी / रुक गया तो / शीघ्र / सड़ जाता है पानी'। सम्मिलित परिवार प्रथा के समाप्त होने और एकल परिवार की त्रासदी भोगते जान की पीड़ा को कवि वाणी देता है: 'पति[पत्नी का परिवार बचा / वह भी तूने क्या खूब रचा / दोनों मोबाइल से चिपके / हैं उस पर ऊँगली रहे नचा / इंटरनेट से होती सलाम'।
कलावती के गाँव शीर्षक नवगीत में नेता के भ्रमण के समय प्रशासन द्वारा छिपाने का उद्घाटन है: गाड़ी में से उतरी / पानी की टंकी / तेलमसाला-आता / साडी नौटंकी / जला कई दिन बाद कला के घर चूल्हा /उड़ी गाँव में खुशबू / बढ़िया भोजन की / तृप्त हुए वो / करके भोजन ताज़ा जी / कलावती के / गाँव पधारे राजाजी।
सांप्रदायिक उन्माद, विवाद और सौहार्द्र पत्रकार और जागरूक नागरिक के नाते ओमप्रकाश जी की प्राथमिक चिंता है। वे सौहार्द्र को याद करते हुए उसके नाश का दोष राजनीती को ठीक ही देते हैं: असलम के संग / गुल्ली-डंडा / खेल-खेल बचपन बीता / रामकथावले / नाटक में / रजिया बनती थी सीता / मंदिर की ईंटें / रऊफ के भट्ठे / से ही थीं आईं / पंडित थे परधान / उन्हीं ने काटा / मस्जिद का फीता / गुटबंदी को / खददरवालों / ने आकर आबाद किया 'खद्दर' शीर्षक इस नवगीत का अंत 'तिल को ताड़ / बना कुछ लोगों / ने है खड़ा विवाद किया' सच सामने ला देता है।
'कौरव कुल' में महाभारत काल के मिथकों का वर्तमान से सादृश्य बखूबी वर्णित है।'घर बया का / बंदरों ने / किया नेस्तनाबूद है' में पंचतंत्र की कहानी को इंगित कर वर्तमान से सादृश्य तथा 'लोमड़ी ने / राजरानी / की गज़ब पोशाक धारी' में किसी का नाम लिए बिना संकेतन मात्र से अकहे को कहने की कला सराहनीय है।
'चाकलेट / कम खाई मैंने/ लेकिन पाया / माँ का प्यार', 'अर्थ जेब में / तो हम राजा / वरना सब कुछ व्यर्थ', 'राजा जी को / कौन बताये / राजा नंगा है', दिनकर वादा करो / सुबह / तुम दोगे अच्छी', 'प्रेमचंद के पंच / मग्न हैं / अपने-अपने दाँव में', 'लोकतंत्र में / गाली देना / है अपना अधिकार', 'मुट्ठी बाँध / जोर से बोल / प्यारे अपनी / किस्मत खोल', 'बहू चाहिए अफ़लातून / करे नौकरी वह सरकारी / साथ-साथ सब दुनियादारी / बच्चों के संग पीटीआई को पीला / घर की भी ले जिम्मेदारी / रोटी भी सेंके दो जून', 'लाठी पुलिस / रबर की गोली / कैसा फागुन / कैसी होली', ऊंचे-ऊंचे भवन-कोठियाँ / ऊँची सभी दूकान / चखकर देखे हमने बाबू / फीके थे पकवान / भली नून संग रूखी रोटी / खलिहानों की छाँव' जैसी संदेशवाही पंक्त्तियों को किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है।
इस संग्रह की उपलब्धि 'यूं ही नहीं राम जा डूबे' तथा 'बाबूजी की एक तर्जनी' हैं। 'हारे-थके / महल में पहुँचे / तो सूना संसार / सीता की / सोने की मूरत / दे सकती न प्यार / ऐसे में / क्षय होना ही था / वह व्यक्तित्व विराट' में राम की वह विवशता इंगित है जो उनके भगवानत्व में प्रायः दबी रह जाती है। कवि अपने बचपन को जीते हुए पिता की ऊँगली के माध्यम से जो कहता है वह इस नवगीत को संकलन ही नहीं पाठक के लिए भी अविस्मरणीय बना देता है: बाबूजी की / एक तर्जनी / कितनी बड़ा सहारा थी.... / ऊँगली पकड़े रहते / जब तक / अपनी तो पाव बारा थी / स्वर-व्यंजन पहचान करना / या फिर गिनती और पहाड़े / ऊँगली कभी रही न पीछे / गर्मी पड़ती हो या जेड / चूक पढ़ाई में / होती तो / ऊँगली चढ़ता पारा थी / … ऊँगली / सिर्फ नहीं थी ऊँगली / घर का वही गुजारा थी'।
ओमप्रकाश तिवारी जी ने नवगीत विधा को न केवल अपनाया है, उसे अपने अनुसार ढाला भी है। मुहावरेदार भाषा में तीक्ष्णता, साफगोई और ईमानदारी से विषमताओं को इंगित कर उसके समाधान के प्रति सोचा जगाना ही उनका उद्देश्य है। वे खुद को भी नहीं बख्शते और लिखते हैं: 'मत गुमां पालो / की हैं / अखबार में / सोच लो / हम भी/ खड़े बाजार में'। आइए! हम सब नवता के पक्षधर पूरी शिद्दत के साथ विसंगतियों के बाज़ार में खड़े होकर नवगीत की धार से वैषम्य को धूसरित कर वैषम्यहीन नव संस्कृति की आधारशिला बनें।
९-११-२०१४
***
दोहा सलिला:
*
नट के करतब देखकर, राधा पूछे मौन
नट म;त नटवर नट कसे, कहाँ बता कब कौन??
*
हहर-हहर-हर रही, लहर-लहर सुख-चैन
सिहर-सिहर लख प्राण-मन, आठ प्रहार दिन-रैन
*
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान
रूप-गंध, रस-स्वाद बिन, पालक गुण की खान
९.११.२०१३
***
तेवरी के तेवर :
१.
ताज़ा-ताज़ा दिल के घाव.
सस्ता हुआ नमक का भाव..
मँझधारों-भँवरों को पार
किया, किनारे डूबी नाव..
सौ चूहे खाने के बाद
हुआ अहिंसा का है चाव..
ताक़तवर के चूम कदम
निर्बल को दिखलाया ताव..
ठण्ड भगाई नेता ने.
जला झोपडी, बना अलाव..
डाकू तस्कर चोर खड़े.
मतदाता क्या करे चुनाव..
नेता रावण जन सीता
कैसे होगा 'सलिल' निभाव?.
***
२.
दिल ने हरदम चाहे फूल.
पर दिमाग ने बोये शूल..
मेहनतकश को कहें गलत.
अफसर काम न करते भूल..
बहुत दोगली है दुनिया
तनिक न भाते इसे उसूल..
पैर मत पटक नाहक तू
सर जा बैठे उड़कर धूल..
बने तीन के तेरह कब?
डूबा दिया अपना धन मूल..
मँझधारों में विमल 'सलिल'
गंदा करते हम जा कूल..
धरती पर रख पैर जमा
'सलिल' न दिवास्वप्न में झूल..
***
३.
खर्चे अधिक आय है कम.
दिल रोता आँखें हैं नम..
पाला शौक तमाखू का.
बना मौत का फंदा यम..
जो करता जग उजियारा
उस दीपक के नीचे तम..
सीमाओं की फ़िक्र नहीं.
ठोंक रहे संसद में ख़म..
जब पाया तो खुश न हुए.
खोया तो करते क्यों गम?
टन-टन रुचे न मन्दिर की.
कदम-कदम पर फोड़ें बम..
९-११-२००९
***