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शुक्रवार, 17 अक्टूबर 2025

अक्टूबर १७ , मुक्तिका मर्जी, छंद रविशंकर, लघुकथा, अलंकार, श्लेष, अनुप्रास, नवगीत, राम, दिवाली

सलिल सृजन अक्टूबर १७
*
राम दोहावली 
सदा रहे, हैं, रहेंगे, हृदय-हृदय में राम.
दर्शन पायें भक्तजन, सहित जानकी वाम..
0
राम नाम से जुड़ हुई, दीवाली भी धन्य. 
विजया दशमी को मिला, शुचि सौभाग्य अनन्य.. 
0
राम सिया में समाहित, सिया राम में लीन. 
द्वैत न दोनों में रहा, यह स्वर वह है बीन..
Diwali Greetings  
We are celebrting festival of light.
Devil got defeat, got the victory right. 
Deewali give message don't get disheartened 
In the end Truth wins, however tough fight. 
*
मुक्तिका . प्रजा प्रजेश चुने निर्भय हो लोकतंत्र की सदा विजय हो . औसत आय व्यक्ति की है जो वह प्रतिनिधि का वेतन तय हो . संसद चौपालों पर बैठे जनगण से दूरी का क्षय हो . अफसरशाही रहे न हावी पद-मद जनसेवा में लय हो . भारतीय भाषाएँ बहिनें गले मिलें सबकी जय-जय हो . पक्ष-विपक्ष दूध-पानी हों नहीं एकता का अभिनय हो . सब समान सुविधाएँ पाएँ 'सलिल' योग्यता-सूर्य उदय हो। १७.१०.२०२५ ०००
बात बेबात
पाक कला भूरी रही
*
भाग्य और पड़ोसी इन दोनों को कभी बदला नहीं जा सकता। यह बात पाकिस्तान को लेकर बिना किसी संशय के कही और स्वीकारी जा सकती है। पाकिस्तान की कलाएँ स्वतंत्रता के बाद से हम सब देखते आ रहे हैं। पाककला का बेजोड़ नमूना आतंकवाद है । ऐसी ही कुछ अन्य कलाएँ भारत और चीन को प्रतिस्पर्धी बनाना , अपनी ही अवाम को कुचलना और भूखे रहकर भी एटमी युद्ध करने का ख्वाब देखना है।
पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं में पाकिस्तान के हुक्मरान कश्मीर पर हाय तोबा मचाते देखे गए। पाककला का यह अध्याय हमेशा की तरह बेनतीजा और उसे ही नीचा दिखाने वाला रहा। अभी कल ही आतंकवाद को नियंत्रित करने में असफल होने पर पाकिस्तान को फरवरी तक के लिए भूरी सूची में रखा गया है। पाकिस्तान का दूरदर्शनी खबरिया और सरकार इसे अपनी बहुत बड़ी सफलता मानकर अपने अनाम की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करेगा। पूरी संभावना थी कि दहशत गर्ग दहशतगर्दी को नियंत्रित करने के स्थान पर, लगातार बढ़ाने के लिए पाकिस्तान को गहरी भूरी सूची या काली सूची में डाल दिया जाएगा। पाकिस्तान को चीन द्वारा मिल रहे समर्थन का परिणाम उसे कुछ माह के लिए भूरी सूची में रखे जाने के रूप में हुआ है।
पाककला मैं निपुण हर व्यक्ति जानता है कि जलने पर हर खाद्य पदार्थ काला हो जाता है। अपने जन्म के बाद से ही भारत के प्रति जलन की भावना रखता पाकिस्तान अपने कर्मों की वजह से श्याम सूची में जाने की कगार पर है। बलि का बकरा कब तक जान की खैर मनाएगा? पाककला का सर्वाधिक खतरनाक और भारत के लिए चिंताजनक पहलू यह है कि वह अपनी जमीन चीन को देकर भारत- चीन के बीच संघर्ष की स्थिति बना रहा है। कच्छ के रण में सरहद के उस पार चीन को जमीन देना भारत के लिए चिंता का विषय है। इसके पहले पाक अधिकृत कश्मीर जो मूलतः भारत का अभिन्न हिस्सा है में भी कॉरिडोर के नाम पर पाकिस्तान ने चीन को जमीन दी है। पाककला का यह पक्ष भविष्य में युद्धों की भूमिका तैयार कर सकता है।
चीन की महत्वाकांक्षा और स्वार्थपरक दृष्टि भारतीय राजनेताओं और सरकारों के लिए चिंतनीय है। लोकतंत्र को दलतंत्र बना देने का दुष्परिणाम राजनीति में सक्रिय विविध वैचारिक पक्षों के नायकों के मध्य संवाद हीनता की स्थिति बना रहा है। यह देश के लिए अच्छा नहीं है। सत्ता पक्ष और उसके अंध भक्तों की आक्रामकता तथा विपक्ष को समाप्त कर देने की भावना, भारत में चीन की तरह एकदलीय सत्ता की शुरुआत कर सकता है। वर्तमान संविधान और लोकतांत्रिक परंपरा के लिए इससे बड़ा खतरा अन्य नहीं हो सकता। पाक कला भारत को उस रास्ते पर जाने के लिए विवश कर सकती है जो अभीष्ट नहीं है। निकट पड़ोसियों में नेपाल, बांग्लादेश और लंका तीनों के अतिरिक्त मालदीव जैसे क्षेत्रों में भारत विरोधी भावनाएँ भड़काकर चीन रिश्तों की चाशनी में चीनी नहीं, गरल घोल रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में भारत की सुरक्षा और उन्नति के लिए भारत के सभी राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय हित सर्वोपरि मानते हुए अपने पारस्परिक मतभेद और सत्ता प्रेम को भुलाकर दीर्घकालिक रणनीति तैयार करनी ही होगी अन्यथा इतिहास हमें क्षमा नहीं करेगा।
पाककला के दुष्प्रभावों का सटीक आकलन कर उसका प्रतिकार करने के लिए भारतीय राजनेता एक साथ जुड़ सकें इसकी संभावना न्यून होते हुए भी जन कामना यही है कि देश के उज्जवल भविष्य के लिए सभी दल रक्षा विदेश नीति और अर्थनीति पर उसी एक सुविचार कर कदम बढ़ाएँ जिस तरह एक कुशल ग्रहणी रसोई में उपलब्ध सामानों से स्वादिष्ट खाद्य बनाकर अपनी पाक कला का परिचय देती है।
***
मुक्तिका
आपकी मर्जी
*
आपकी मर्जी नमन लें या न लें
आपकी मर्जी नहीं तो हम चलें
*
आपकी मर्जी हुई रोका हमें
आपकी मर्जी हँसीं, दीपक जलें
*
आपकी मर्जी न फर्जी जानते
आपकी मर्जी सुबह सूरज ढलें
*
आपकी मर्जी दिया दिल तोड़ फिर
आपकी मर्जी बनें दर्जी सिलें
*
आपकी मर्जी हँसा दे हँसी को
आपकी मर्जी रुला बोले 'टलें'
*
आपकी मर्जी, बिना मर्जी बुला
आपकी मर्जी दिखा ठेंगा छ्लें
*
आपकी मर्जी पराठे बन गयी
आपकी मर्जी चलो पापड़ तलें
*
आपकी मर्जी बसा लें नैन में
आपकी मर्जी बनें सपना पलें
*
आपकी मर्जी, न मर्जी आपकी
आपकी मर्जी कहें कलियाँ खिलें
१६.१०.२०१८
***
नव छंद
गीत
*
छंद: रविशंकर
विधान:
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा
२. मात्रा क्रम लघु लघु गुरु लघु लघु
***
धन तेरस
बरसे रस...
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ...
*
कर साहस
वर ले यश।
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...
*
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन।
रख चादर
जस की तस।
उजली तब
धन तेरस
***
लघुकथा:
बाल चन्द्रमा
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते? त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊं?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपडी, कपडे और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे द्वारा फेंगा गया कचरा बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस। ' कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था बाल चन्द्रमा।
१७-१०-२०१७
***
दोहा सलिला
प्रभु सारे जग का रखें, बिन चूके नित ध्यान।
मैं जग से बाहर नहीं, इतना तो हैं भान।।
*
कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
*
जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
*
दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
*
स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
*
होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
*
जो न कहीं वह सब जगह, रचता वही भविष्य
'सलिल' न थाली में पृथक, सब में निहित अदृश्य
*
जब-जब अमृत मिलेगा, सलिल करेगा पान
अरुण-रश्मियों से मिले ऊर्जा, हो गुणवान
*
हरि की सीमा है नहीं, हरि के सीमा साथ
गीत-ग़ज़ल सुनकर 'सलिल', आभारी नत माथ
*
कांता-सम्मति मानिए, तभी रहेगी खैर
जल में रहकर कीजिए, नहीं मगर से बैर
*
व्यग्र न पाया व्यग्र को, शांत धीर-गंभीर
हिंदी सेवा में मगन, गढ़ें गीत-प्राचीर
*
शरतचंद्र की कांति हो, शुक्ला अमृत सींच
मिला बूँद भर भी जिसे, ले प्राणों में भींच
*
जीवन मूल्य खरे-खरे, पालें रखकर प्रीति
डॉक्टर निकट न जाइये, यही उचित है रीति
*
कलाकार की कल्पना, जब होती साकार
एक नयी ही सृष्टि तब, लेती है आकार
***
अलंकार खोजिए:
धूप-छाँव से सुख-दुःख आते-जाते है
हम मुस्काकर जो मिलता सह जाते हैं
सुख को तो सबसे साझा कर लेते हैं
दुःख को अमिय समझकर चुप पी जाते हैं।
कृपया, बताइये :
मालिक दे डर राखी करदे, साबिर, भूखे, नंगे
- क्या यहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार है? (क वर्ग: क ख ग, त वर्ग: द न, प वर्ग: ब भ म)
*
बाप मरे सिर नंगा होंदा, वीर मरे गंड खाली
माँवां बाद मुहम्मद बख्शा कौन करे रखवाली
सिर नंगा होंदा = मुंडन किया जाना, आशीष का हाथ न रहना
गंड खाली = मन सूना होना, गाँठ/गुल्लक खाली होना, राखी पर भाई भरता था
- क्या यहाँ श्लेष अलंकार है?
*
लघु कथा:
" नाम गुम जायेगा"
*
' नमस्कार ! कहिए, कैसी बात करते हैं? जैसा कहेंगे वैसा ही करूँगा… क्या? पुरस्कार लौटना है? क्यों?… क्या हो गया?… हाँ, ठीक कहते हैं … चनाव में तो लुटिया ही डूब गयी. किसने सोचा था एक दम फट्टा साफ़ हो जाएगा?… अपन लोगों का असर खत्म होता जा रहा है, ऐसा ही चलता रहा तो कुछ भी कर पाना मुश्किल हो जाएगा.
अच्छा, ऐसी योजना है. ठीक है, इससे पूरे देश नही नहीं विदेशों में भी अच्छा कवरेज मिलेगा. जितने लेखन अवार्ड लौटायेंगे, उतनी बार चर्चा और आरोप लगाने का मौक़ा। इसका कोई काट भी नहीं है. एक स्थानीय आंदोलन भी एकरो तो खर्च बहुत होता है, वर्कर मिलते नहीं। अखबार और टी वी वाले भी अब नज़र फेर लेते हैं. मेहनत, समय और खर्च के बाद किसी कार्यकर्त्ता ने जरा से गड़बड़ कर दी तो थाणे के चक्कर फिर अदालत-जमानत. यह तो बहुतै नीक है. हर लगे ना फिटकरी रंग भी चोखा आये.…
बिलकुल ठीक है. कल उन्हें लौटने दीजिए दो दिन बाद मैं लौटाऊँगा।… उनकी चिता न करें उन्हें आपने ही दिलाया था मेरी सिफारिश पर वरना कौन पूछता? उनसे अच्छे १७६० पड़े हैं. वो तो लौटाएगा ही, उसे २ लोगों की जिम्मेदारी और सौंपूँगा… उनको भी तो आपने ही दिलवाया था… मैं पूरी ताकत लगाऊंगा… अब तक गजेन्द्र चौहान के ममले में नौटंकी चलती रही, अब ये पुरस्कार लौटने का ड्रामा करेंगे अगला मुद्दा हाथ में आने तक.
नहीं, चैन नहीं लेने देंगे… इन्हीं प्रपंचों में उलझे रहेंगे तो कहीं न कहीं चूक कर ही जायेंगे। भैया कोशिश तो बिहार वालों ने भी की लेकिन चूक हो गयी. पहले बम नहीं फटा फिर नेता जी अपने बेटों को बढ़ाने के चक्कर में अपनों को ही दूर कर बैठे। वो तो भला हो दिल्लीवालों का उनकी शह पर हम लोग भी कुछ नकुछ करते ही रहेंगे।
पुरस्कार लौटने में नुक्सान ही क्या है? पहले पब्लिसिटी मिली, नाम हुआ तो किताबें छपीं रॉयल्टी मिली, लाइब्रेरियों में बिकीं। कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज में सेमिनारों में गए भत्ता तो मिले ही, अपने कार्यकर्ताओं को भी जोडा.पुरस्कार लौटाने से क्या, बाकि के फायदे तो अपने हैं ही. अस्का एक और असर होगा उन्हें हम लोगों को मैंने की कोशिश में फिर अवार्ड देना पड़ेंगे नहीं तो हमारा कैम्पेन चलेगा की अपने लोगों को दे रहे हैं. ठीक है, चैन नहने लेने देंगे… हाँ, हाँ पक्का कल ही पुरस्कार लौटाने की घोषणा करता हूँ. आप राजधानी में कवरेज करा लीजियेगा। अरे नहीं, चंता न करें ऐसे कैसे नाम गुम जाएगा? अभी बहुत दमखम है. गुड नाइट… और बंद हो गया मोबाइल
****
नवाचरित नवगीत :
ज़िंदगी के मानी
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
मुक्तिका:
*
मापनी: २१ २२२ १ २२२ १ २२
*
दर्द की चाही दवा, दुत्कार पाई
प्यार को बेचो, बड़ा बाजार भाई
.
वायदों की मण्डियाँ, हैं ढेर सारी
बचाओ गर्दन, इसी में है भलाई
.
आ गया, सेवा करेगा बोलता है
चाहता सारी उड़ा ले वो मलाई
.
चोर का ईमान, डाकू है सिपाही
डॉक्टर लूटे नहीं, कोई सुनाई
.
कौन है बोलो सगा?, कोई नहीं है
दे रहा नेता दगा, बोले भलाई
१७-१०-२०१५
***

सोमवार, 11 नवंबर 2024

नवंबर ११, हाइकु गीत, दोहा, रविशंकर, गीत, चंपा

सलिल सृजन नवंबर ११
*
११ नवंबर विश्व शिक्षा दिवस 
*
विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर : अभिनव कार्यशाला 'फुलबगिया' 
जासौन, मोगरा, गेंदा, सदा सुहागिन, कमल और चंपा के बाद महक बिखेरेगी 'चमेली' 
चमेली की कलियाँ चुनिए, महक से मस्त हो लिखि, टंकित कर औडियो सहित भेजें अभियान पटल पर डॉ. मुकुल तिवारी को रविवार तक। 
गीत
चंपा
रूप छटा चंपई मनोहर देख लुभाया
अपना ही मन रहा न अपना, हुआ पराया
पीताभित श्वेताभ वदन मन मुकुलित प्रमुदित
हास अधर पर ज्यों कलिका पर भँवरा नर्तित
शोभित रति सह काम, अकाम न काम सुहाया
कर पल्लव सम पर्ण हरित करतल ध्वनि गुंजित
क्षीण मृणाल मनो कटि मनहर लचके हर्षित
तापस पवन करे तप भंग, फिरे बौराया
जड़ न रही जड़, है जमीन को जकड़े चेतन
कली विकस हो कुसुम तजे तरु हो अनिकेतन
नव पीढ़ी का पथ प्रशस्त करना मन भाया
हरित पर्ण खुशहाली का संदेश सुनाएँ
सुमन सफेद-पीत मिल राग-विराग बसाएँ
तना तना कमजोर शाख पा रहे लजाया
चंपा षष्ठी-नदी-नगर का नाम हो अमर
मिथ्या भाषी शापित, शिव पूजन से वंचित
कार्तिकेय प्रिय चंपा प्रभु पर गया चढ़ाया 
११.११.२०२४
•••
दोहा
किरण सलिल जब जब मिले, स्वर्णिम आभा देख।
निशि में भी आलोक हो, पवन मुग्ध हो लेख।।
***
हाइकु गीत
*
ऊषा की माँग
माँग भरे सूरज
हो गई पूरी।
*
गगन सजा / पंछी बने बाराती / आ रहा मजा
फहर रही / भू से गगन तक / प्रणय ध्वजा
ऊषा शर्माई
चेहरे पर छाई
लालिमा नूरी।
*
गूँजते गीत / पत्ते बजाते वाद्य / मजा ही मजा
धरती सास / हँसती मुँह देख / प्रभु की रजा
देवर चंदा
करे जब मजाक
भौजी सिंदूरी।
*
देता आशीष / बाबुल आसमान / हो सुखी सदा
दूध नहाओ / हमेशा फूलो फलो / पुत्री शुभदा
दोनों कुलों का
रखना तुम मान
सीख है जरूरी।
११.११.२०२१
***
किताबों में से निकली किताब - साहित्य बगिया में महकता गुलाब
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - किताबों में से निकली किताब, समीक्षा संकलन, डॉ. रमेशचंद्र खरे, प्रथम संस्करण २०२०, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., पृष्ठ १८०, मूल्य १७५/-, प्रकाशक इंद्र पब्लिशिंग हाउस भोपाल]
*
मानव समाज में नीतिशास्त्र या संविधान की तरह साहित्य में समीक्षा अथवा समलोचना का महत्वपूर्ण स्थान है। समालोचना द्वारा ही किसी कृति की श्रेष्ठता, सामान्यता या हीनता का चिंतन किया जाता है। समालोचक साहित्य के सिद्धांतों के निकष पर कसने के साथ स्वविवेक से कृति की श्रेष्ठता, उपादेयता आदि पर विचार व्यक्त करता है। समालोचना के सिद्धांत, मानक या नियम देश-काल-परिस्थति सापेक्ष होते हैं, नश्वर नहीं। समालोचक की विचारधारा, मान्यताएँ, रुचि-अरुचि तथा लोकमत का भी महत्व है। किसी कृति को एक समीक्षक श्रेष्ठ निरूपित करता है तो अन्य सामान्य या हीन, तथापि निष्पक्ष और विवेकी समीक्षक नीर-क्षीर विवेचन कर कृति का मूल्यांकन करते हैं। संस्कृत की 'लोच्' क्रिया का अर्थ देखना (नयनों से), समझना (मन से) और प्रकाशित करना है। 'आ' उपसर्ग का अर्थ है चारों और से अथवा पूर्णतया। आलोचना का अर्थ है किसी वस्तु या कृति को सांगोपांग देख-समझकर उस पर / उसके संबंध में कुछ कहन या लिखना। 'सम' उपसर्ग के साथ संयुक्त होकर आलोचना, समालोचना हो जाती है जिसका अर्थ है संतुलित, निष्पक्ष या भली-भाँति मूल्यांकन करना। संस्कृत की टीका, व्याख्या या भाष्य, अंग्रेजी के क्रिटिसिज़्म, रिव्यू या ओपिनियन, अरबी के नज़रसानी, नुक्ताचीनी से समालोचना का आशय लिया जा सकता है। संस्कृत की एक उक्ति है 'कवि: करोति काव्यानां रसं जानाति पंडित:' अर्थात कवि कृति की रचना करता है जबकि विद्वान् उसका रस लेता है। बाबू श्यामसुंदर दास के अनुसार 'अच्छा कवि जीवन की व्याख्या करता है तो अच्छा समालोचक उस व्याख्या को समझने में सहायक होता है।'
डॉ. रमेशचंद्र खरे राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक, सहृदय कवि, प्रखर व्यंग्यकार, कुशल कहानीकार, सक्षम समीक्षक तथा समझदार पाठक हैं। इस नाते किसी कृति पर उनके विचार, उनका चिंतन, उनका अभिमत समीक्षा के रूप में उपलब्ध होना रचनाकार, पाठकों, शोधार्थियों व विद्वानों सबके लिए बहुत उपयोगी है। विवेच्य कृति 'किताबों में से निकली किताब लघु समीक्षा कोष है जिसमें डॉ. खरे द्वारा समकालिक कृतियों पर लिखित ४२ महत्वपूर्ण समीक्षाएँ संकलित हैं। ये पुस्तकें विविध विधाओं (८ उपन्यास, ५ गीत-नवगीत संग्रह, ४ निबंध संग्रह ,३ खंडकाव्य, ३ काव्य संकलन, ३ व्यंग्य लेख संग्रह ,२ उपन्यासिकाएँ, २ प्रबंध काव्य, २ कहानी संग्रह, २ मुक्तक संग्रह, २ ग़ज़ल संग्रह, १ महाकाव्य, १ शोधकृति, १ दैनन्दिनी, १ पत्र संकलन, १ व्यंग्य काव्य, १ संस्मरण संग्रह, १ यात्रा संस्मरण, १ समालोचना कृति, १ भाषा शास्त्र) पर महत्वपूर्ण रचनाकारों (अम्बिका प्रसाद दिव्य, हरिभाऊ उपाध्याय, इंद्रबहादुर खरे, नरेश मेहता, प्रभाकर श्रोत्रिय, लीलाधर मंडलोई, कुँअर नारायण, डॉ. श्यामसुंदर दुबे, चंद्रसेन विराट, गंगाप्रसाद बरसैंया, मयंक श्रीवास्तव, संतोष खरे, डॉ. रामनारायण शर्मा, डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, डॉ. शिवकुमार तिवारी, ओमप्रकाश श्रीवास्तव, डॉ. देवप्रकाश खन्ना, डॉ. रामबल्लभ आचार्य, जंगबहादुर श्रीवास्तव, पूनम ए. चावला, दिलजीतसिंह रील, निर्मला जोशी, रमेश बख्शी, सत्यमोहन वर्मा, डॉ. रघुनंदन चिले, डॉ. नाथूराम राठौर, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', शंकर शरण बत्रा, विनोद श्रीवास्तव, डॉ. अनिता, अभभरती, डॉ. गिरीश कुमार श्रीवास्तव तथा विनोद गुप्ता) द्वारा लिखी गयी और चर्चित हुई हैं।
विधा-वैविध्य से डॉ. रमेशचंद्र खरे के विस्तृत अध्ययन आकाश का आभास होता है। किसी पुस्तक की समीक्षा करना अपने आपमें जटिल काम है। विविध विधाओं की पुस्तकों की समीक्षा करना अर्थात उन सब विधाओं के मानकों, उनमें हुए महत्वपूर्ण सृजन से परिचित होना और मनोयोगपूर्वक हर कृति के गुण-दोष परख कर इस तरह प्रस्तुत करना कि कृति, कृतिकार और पाठक सबके साथ न्याय होते हुए कुछ नया और सार्थक कथ्य संप्रेषित हो सके। एक ही विधा की कई कृतियों की समीक्षाओं संकलित करते समय दुहराव और ऊब न हो, विविध कालखंडों की रचनाओं में प्रामाणिकता और ऐतिहासिकता का आकलन करना, भिन्न-भिन्न विचारधाराओं से प्रेरित कृतियों की सटीक विवेचना कर निष्पक्षता बनाये रख पाना और वह भी कम से कम शब्दों में, यह कार्य रज्जु पर खेल दिखाते नट के संतुलन-कौशल से भी बहुत अधिक दुष्कर है।
सामान्यत: पुस्तक का समीक्षा लेखन सैद्धांतिक समीक्षा का अंश मात्र है। समीक्षक के समक्ष अनेक प्रतिबंध होते हैं। यथा कृति की अंतर्वस्तु का आभास सामान्य पाठक को हो सके ताकि वह पढ़ने के लिए प्रेरित हो, विद्वानों के लिए नीर-क्षीर विवेचन हो, रचनाकार हतोत्साहित न हो तथा पत्रिकाओं में उपलब्ध सीमित स्थान के अनुरूप समीक्षा भी 'गागर में सागर' की तरह संक्षिप्त हो। डॉ. खरे स्वयं श्रेष्ठ-ज्येष्ठ और बहुविधायी लेखन के धनी रचनाकार हैं, इसलिए वे इस कठिनतम कार्य को सहजता और प्रमाणिकता के साथ निष्पादित कर सके हैं। कृति की भूमिका में वरिष्ठ भाषाशास्त्री, शिक्षाविद, उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार, नाटककार और कवि डॉ. सुरेश कुमार वर्मा ने ठीक ही लिख है "समीक्षक की यात्रा दो चरणों में संपन्न होती है- अध्ययन और लेखन। अध्ययन से रचना (समीक्षा) में परिपक्वता आती है और तुलनात्मक समीक्षा के नए आयाम खुलते हैं। रमेश खरे जी की बहुज्ञता का एक कारण उनका विपुल अध्ययन है। उन्होंने गद्य-पद्य की समस्त विधाओं के महत्वपूर्ण ग्रंथों को गंभीरता से पढ़ा है। यह पठन उनके समस्त लेखन में झलकता है और उनकी रचनाओं की विश्वसनीयता में वृद्धि करता है। खरे जी ने अपने समीक्षा कर्म में नीर-क्षीर विवेक का प्रयोग किया है।'' मैं इस आकलन से पूरी तरह सहमत हूँ।
विवेच्य कृति हिंदी वांग्मय को समृद्ध करने के साथ वन रचनाकारों का पथप्रदर्शन करने में भी समर्थ है। इसे पढ़कर रचनाकार समझ सकता है की उसे अपने विषय और विधा के साथ न्याय किस तरह करना है? उसकी कृति का मूल्यांकन किन आधारों पर किया जाएगा। नव समीक्षकों के लिए यह कृति पाठ्य पुस्तक की तरह है। विविध विधाओं की कृतियों में किन पहलूओं को कितना महत्व दिया जाना चाहिए,किन मानकों के आधार पर उन्हें परखा जाना चाहिए आदि जानकारी सप्रयोग उपलब्ध है। इस दृष्टि से इस कृति का वही महत्त्व है जो विज्ञान में प्रयोग कार्य के मैनुअल का होता है।
हिंदी भाषा और साहित्य को गंभीर क्षति डॉ. रमेशचंद्र खरे के असामयिक निधन से हुई है। महाप्रस्थान कुछ दिन पूर्व ही उनसे मुझे यह कृति प्राप्त हुई थी। काश, यह समीक्षा वे पढ़ पाते। विधि का विधान डॉ. खरे के कृतित्व का सम्यक मूल्यांकन उनके जीवन काल में नहीं हो सका, अब होना चाहिए। उनके अप्रकाशित कार्य को प्रकाशित करने की दिशा में भी पहल की जानी चाहिए। स्व. विष्णुस्वरूप खरे और स्व. श्यामा बाई खरे के पुत्र रमेश जी क जन्म १९ जुलाई १९३७ को होशंगाबाद में हुआ था। उन्होंने साहित्य रत्न, एम. ए., (इतिहास, हिंदी) तथा पीएच। डी. की उपाधियाँ अर्जित कीं। 'अंबिका प्रसाद 'दिव्य' : व्यक्तित्व और कृतित्व' उनका महत्वपूर्ण शोध ग्रंथ अब तक अप्रकाशित है। डॉ. खरे रचित प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ है- पद्य : गोस्वामी तुलसीदास पर रचित महाकाव्य 'विरागी अनुरागी' (३ संस्करण,अभियान जबलपुर द्वारा भाषा भूषण १९९८, बालकृष्ण शर्मा पुरस्कार), गीत संग्रह 'संवेदनाओं के सोपान' (चंद्रप्रकाश वर्मा पुरस्कार), व्यंग्यायन खंड काव्य (म.प्र. लेखिका संघ पुरस्कार), गीता योगायन खंड काव्य (अक्षर आदित्य सम्मान), संभावनाओं के आयाम, बहरा युग, बाल साहित्य : आओ गाएँ शाला पढ़ते-पढ़ते, आओ सीखें मैदानों में गाते-गाते, आओ खेलें रंगमंच पर मंथन करते, आओ बाँटें यादें बचपन की हँसते-हँसते, प्रकृति से पहचान, कहानियाँ बुद्धि और विवेक की (दिव्य पुरस्कार, बाल पुरस्कार), व्यंग्य : अधबीच में लटके, शेष कुशल है, मेरे भरोसे मत रहना शरद जोशी व्यंग्य पुरस्कार, सूत्रों के हवाले से, निबंध : भावानुभूति, भावानुकृति, कृतित्व से झाँकते व्यक्तित्व आदि।
'किताबों में से निकली किताब' डॉ. राम्रश्चंद्र खरे की साहित्यिक पैठ, बहुविधायी सामर्थ्य, समीक्षकीय नैपुण्यता तथा तटस्थ चिंतन की साक्षी है। डॉ. खरे लिखित समीक्षाओं का वैशिष्ट्य कृति की विधा व अंतर्वस्तु के अनुरूप परख करना तथा सरसता है। उनकी विपुल अध्ययनशीलता गुण-दोष निर्धारण में सहायक है। आदर्श शिक्षक होने के नाते वे संप्रेषणीयता कला पर अधिकार रखते हैं। उनके गयी समीक्षाएँ पाठकों को बाँधती हैं। वे न तो विधा के मानकों को पुलिस के डंडे की तरह प्रयोग करते हैं, न नेताओं द्वारा विधान को ठेंगे पर मारने की तरह मानकों की अनदेखी करते हैं। घर के तटस्थ मुखिया की तरह वे सहृदयता पूर्वक गुण-दोषों के मध्य तटस्थ रहकर समीक्षा कर्म से रचनाकारों और कृतियों को अभिसिंचित करते हैं। डॉ.खरे की प्रथम समालोचना कृति 'किताबों में से निकली किताबें उन्हें कुशल समीक्षकों की पंक्ति में प्रतिष्ठित करती है।
११.११.२०२०
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दोहा सलिला
*
श्री श्री की श्री-सरलता, मीठी वाणी खूब
उतना ही ज्यादा मिले, जितना जाओ डूब
*
अरुण! गीतमय हो रहा, रजनी भाव विभोर
उषा लाल-पीली हुई, पवन कर रहा शोर
*
शिशु शशि शीश शशीश चुप, शशिवदनी-शशिनाथ
कुंडलि कुंडलिनाथ की, निरखें गहकर हाथ
*
दिन कर दिनकर ने कहा, उठो! करो कुछ काम
काम करो निष्काम तब, नाम न रख हो नाम
*
सरसों के पीले किये, जब से भू ने हाथ
एक साथ हँस-रो रही, उठा-झुका कर माथ
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार
हर अवसर पर दे 'सलिल', पुस्तक ही उपहार
*
तन कुंडा में कुंडली, आत्म चेतना जान
छंद कुंडली रच 'सलिल', मन होगा रसखान
*
भू, जल, अग्नि, पवन,गगन, पञ्च चक्र के तत्व
रख विवेक जाग्रत सलिल', तभी प्राप्त हो सत्व
*
खुद में खुद ही डूब जा, खुद रह खुद से दूर
खुद ही खुद मिल जायेगा, तुझको खुद का नूर
*
खुदा खुदी खुद में रहे, खुद न खुदा से भिन्न
जुदा खुदा से कब हुआ, कोई सलिल'अभिन्न
*
कौन जगत में सगा है?, बोल कौन है गैर?
दोनों हाथ पसारकर, माँग सभी की खैर
*
मत प्रयास करना अधिक, और न देना छोड़
थोड़ी-थोड़ी कोशिशें, लोहा भी दें मोड़
*
जोड़-तोड़ से क्या मिला?, खोया मन का चैन
होड़ न करना किसी से, छोड़ स्वार्थ पा चैन
*
अधिक खींचने से 'सलिल', टूटे मन की डोर
अधिक ढील से उलझकर, गुम चैन के छोर
*
*
सु-मन ग्रहण कविता करे, मिले सुमन सी गंध
दूर दृष्ट भी हो निकट, हट जाए मन-बंध
११.११.२०१६
***
गीत:
कौन हो तुम?
*
कौन हो तुम?
मौन हो तुम?...
*
समय के अश्वों की वल्गा
निरंतर थामे हुए हो.
किसी को अपना किया
ना किसी के नामे हुए हो.
अनवरत दौड़ा रहे रथ
दिशा, गति, मंजिल कहाँ है?
डूबते ना तैरते, मझधार या
साहिल कहाँ है?
क्यों कभी रुकते नहीं हो?
क्यों कभी झुकते नहीं हो?
क्यों कभी चुकते नहीं हो?
क्यों कभी थकते नहीं हो?
लुभाते मुझको बहुत हो
जहाँ भी हो जौन हो तुम.
कौन हो तुम?
मौन हो तुम?...
*
पूछता है प्रश्न नाहक,
उत्तरों का जगत चाहक.
कौन है वाहन सुखों का?
कौन दुःख का कहाँ वाहक?
करो कलकल पर न किलकिल.
ढलो पल-पल विहँस तिल-तिल.
साँझ को झुरमुट से झिलमिल.
झाँक आँकों नेह हिलमिल.
क्यों कभी जलते नहीं हो?
क्यों कभी ढलते नहीं हो?
क्यों कभी खिलते नहीं हो?
क्यों कभी फलते नहीं हो?
छकाते हो बहुत मुझको
लुभाते भी तौन हो तुम.
कौन हो तुम?
मौन हो तुम?...
११.११.२०१०
***

गुरुवार, 17 अक्टूबर 2024

अक्टूबर १७, मुक्तिका, रविशंकर, धन तेरस, लघुकथा, श्रुत्यानुप्रास, मुक्तिका

सलिल सृजन अक्टूबर १७
*
मुक्तिका
आपकी मर्जी
*
आपकी मर्जी नमन लें या न लें
आपकी मर्जी नहीं तो हम चलें
*
आपकी मर्जी हुई रोका हमें
आपकी मर्जी हँसीं, दीपक जलें
*
आपकी मर्जी न फर्जी जानते
आपकी मर्जी सुबह सूरज ढलें
*
आपकी मर्जी दिया दिल तोड़ फिर
आपकी मर्जी बनें दर्जी सिलें
*
आपकी मर्जी हँसा दे हँसी को
आपकी मर्जी रुला बोले 'टलें'
*
आपकी मर्जी, बिना मर्जी बुला
आपकी मर्जी दिखा ठेंगा छ्लें
*
आपकी मर्जी पराठे बन गयी
आपकी मर्जी चलो पापड़ तलें
*
आपकी मर्जी बसा लें नैन में
आपकी मर्जी बनें सपना पलें
*
आपकी मर्जी, न मर्जी आपकी
आपकी मर्जी कहें कलियाँ खिलें
१६.१०.२०१८
***
नव छंद
गीत
*
छंद: रविशंकर
विधान:
१. प्रति पंक्ति ६ मात्रा
२. मात्रा क्रम लघु लघु गुरु लघु लघु
***
धन तेरस
बरसे रस...
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ...
*
कर साहस
वर ले यश।
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...
*
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन।
रख चादर
जस की तस।
उजली तब
धन तेरस
***
लघुकथा:
बाल चन्द्रमा
*
वह कचरे के ढेर में रोज की तरह कुछ बीन रहा था, बुलाया तो चला आया। त्यौहार के दिन भी इस गंदगी में? घर कहाँ है? वहाँ साफ़-सफाई क्यों नहीं करते? त्यौहार नहीं मनाओगे? मैंने पूछा।
'क्यों नहीं मनाऊँगा?, प्लास्टिक बटोरकर सेठ को दूँगा जो पैसे मिलेंगे उससे लाई और दिया लूँगा।' उसने कहा।
'मैं लाई और दिया दूँ तो मेरा काम करोगे?' कुछ पल सोचकर उसने हामी भर दी और मेरे कहे अनुसार सड़क पर नलके से नहाकर घर आ गया। मैंने बच्चे के एक जोड़ी कपड़े उसे पहनने को दिए, दो रोटी खाने को दी और सामान लेने बाजार चल दी। रास्ते में उसने बताया नाले किनारे झोपड़ी में रहता है, माँ बुखार के कारण काम नहीं कर पा रही, पिता नहीं है।
ख़रीदे सामान की थैली उठाये हुए वह मेरे साथ घर लौटा, कुछ रूपए, दिए, लाई, मिठाई और साबुन की एक बट्टी दी तो वह प्रश्नवाचक निगाहों से मुझे देखते हुए पूछा: 'ये मेरे लिए?' मैंने हाँ कहा तो उसके चहरे पर ख़ुशी की हल्की सी रेखा दिखी। 'मैं जाऊं?' शीघ्रता से पूछ उसने कि कहीं मैं सामान वापिस न ले लूँ। 'जाकर अपनी झोपडी, कपडे और माँ के कपड़े साफ़ करना, माँ से पूछकर दिए जलाना और कल से यहाँ काम करने आना, बाक़ी बात मैं तुम्हारी माँ से कर लूँगी।
'क्या कर रही हो, ये गंदे बच्चे चोर होते हैं, भगा दो' पड़ोसन ने मुझे चेताया। गंदे तो ये हमारे द्वारा फेंगा गया कचरा बीनने से होते हैं। ये कचरा न उठायें तो हमारे चारों तरफ कचरा ही कचरा हो जाए। हमारे बच्चों की तरह उसका भी मन करता होगा त्यौहार मनाने का।
'हाँ, तुम ठीक कह रही हो। हम तो मनायेंगे ही, इस बरस उसकी भी मन सकेगी धनतेरस। ' कहते हुए ये घर में आ रहे थे और बच्चे के चहरे पर चमक रहा था बाल चन्द्रमा।
१७-१०-२०१७
***
दोहा सलिला
प्रभु सारे जग का रखें, बिन चूके नित ध्यान।
मैं जग से बाहर नहीं, इतना तो हैं भान।।
*
कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
*
जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
*
दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
*
स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
*
होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
*
जो न कहीं वह सब जगह, रचता वही भविष्य
'सलिल' न थाली में पृथक, सब में निहित अदृश्य
*
जब-जब अमृत मिलेगा, सलिल करेगा पान
अरुण-रश्मियों से मिले ऊर्जा, हो गुणवान
*
हरि की सीमा है नहीं, हरि के सीमा साथ
गीत-ग़ज़ल सुनकर 'सलिल', आभारी नत माथ
*
कांता-सम्मति मानिए, तभी रहेगी खैर
जल में रहकर कीजिए, नहीं मगर से बैर
*
व्यग्र न पाया व्यग्र को, शांत धीर-गंभीर
हिंदी सेवा में मगन, गढ़ें गीत-प्राचीर
*
शरतचंद्र की कांति हो, शुक्ला अमृत सींच
मिला बूँद भर भी जिसे, ले प्राणों में भींच
*
जीवन मूल्य खरे-खरे, पालें रखकर प्रीति
डॉक्टर निकट न जाइये, यही उचित है रीति
*
कलाकार की कल्पना, जब होती साकार
एक नयी ही सृष्टि तब, लेती है आकार
***
अलंकार खोजिए:
धूप-छाँव से सुख-दुःख आते-जाते है
हम मुस्काकर जो मिलता सह जाते हैं
सुख को तो सबसे साझा कर लेते हैं
दुःख को अमिय समझकर चुप पी जाते हैं।
कृपया, बताइये :
मालिक दे डर राखी करदे, साबिर, भूखे, नंगे
- क्या यहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार है? (क वर्ग: क ख ग, त वर्ग: द न, प वर्ग: ब भ म)
*
बाप मरे सिर नंगा होंदा, वीर मरे गंड खाली
माँवां बाद मुहम्मद बख्शा कौन करे रखवाली
सिर नंगा होंदा = मुंडन किया जाना, आशीष का हाथ न रहना
गंड खाली = मन सूना होना, गाँठ/गुल्लक खाली होना, राखी पर भाई भरता था
- क्या यहाँ श्लेष अलंकार है?
*
लघु कथा:
" नाम गुम जायेगा"
*
' नमस्कार ! कहिए, कैसी बात करते हैं? जैसा कहेंगे वैसा ही करूँगा… क्या? पुरस्कार लौटना है? क्यों?… क्या हो गया?… हाँ, ठीक कहते हैं … चनाव में तो लुटिया ही डूब गयी. किसने सोचा था एक दम फट्टा साफ़ हो जाएगा?… अपन लोगों का असर खत्म होता जा रहा है, ऐसा ही चलता रहा तो कुछ भी कर पाना मुश्किल हो जाएगा.
अच्छा, ऐसी योजना है. ठीक है, इससे पूरे देश नही नहीं विदेशों में भी अच्छा कवरेज मिलेगा. जितने लेखन अवार्ड लौटायेंगे, उतनी बार चर्चा और आरोप लगाने का मौक़ा। इसका कोई काट भी नहीं है. एक स्थानीय आंदोलन भी एकरो तो खर्च बहुत होता है, वर्कर मिलते नहीं। अखबार और टी वी वाले भी अब नज़र फेर लेते हैं. मेहनत, समय और खर्च के बाद किसी कार्यकर्त्ता ने जरा से गड़बड़ कर दी तो थाणे के चक्कर फिर अदालत-जमानत. यह तो बहुतै नीक है. हर लगे ना फिटकरी रंग भी चोखा आये.…
बिलकुल ठीक है. कल उन्हें लौटने दीजिए दो दिन बाद मैं लौटाऊँगा।… उनकी चिता न करें उन्हें आपने ही दिलाया था मेरी सिफारिश पर वरना कौन पूछता? उनसे अच्छे १७६० पड़े हैं. वो तो लौटाएगा ही, उसे २ लोगों की जिम्मेदारी और सौंपूँगा… उनको भी तो आपने ही दिलवाया था… मैं पूरी ताकत लगाऊंगा… अब तक गजेन्द्र चौहान के ममले में नौटंकी चलती रही, अब ये पुरस्कार लौटने का ड्रामा करेंगे अगला मुद्दा हाथ में आने तक.
नहीं, चैन नहीं लेने देंगे… इन्हीं प्रपंचों में उलझे रहेंगे तो कहीं न कहीं चूक कर ही जायेंगे। भैया कोशिश तो बिहार वालों ने भी की लेकिन चूक हो गयी. पहले बम नहीं फटा फिर नेता जी अपने बेटों को बढ़ाने के चक्कर में अपनों को ही दूर कर बैठे। वो तो भला हो दिल्लीवालों का उनकी शह पर हम लोग भी कुछ नकुछ करते ही रहेंगे।
पुरस्कार लौटने में नुक्सान ही क्या है? पहले पब्लिसिटी मिली, नाम हुआ तो किताबें छपीं रॉयल्टी मिली, लाइब्रेरियों में बिकीं। कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज में सेमिनारों में गए भत्ता तो मिले ही, अपने कार्यकर्ताओं को भी जोडा.पुरस्कार लौटाने से क्या, बाकि के फायदे तो अपने हैं ही. अस्का एक और असर होगा उन्हें हम लोगों को मैंने की कोशिश में फिर अवार्ड देना पड़ेंगे नहीं तो हमारा कैम्पेन चलेगा की अपने लोगों को दे रहे हैं. ठीक है, चैन नहने लेने देंगे… हाँ, हाँ पक्का कल ही पुरस्कार लौटाने की घोषणा करता हूँ. आप राजधानी में कवरेज करा लीजियेगा। अरे नहीं, चंता न करें ऐसे कैसे नाम गुम जाएगा? अभी बहुत दमखम है. गुड नाइट… और बंद हो गया मोबाइल
****
नवाचरित नवगीत :
ज़िंदगी के मानी
*
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.
मेघ बजेंगे, पवन बहेगा,
पत्ते नृत्य दिखायेंगे.....
*
बाल सूर्य के संग ऊषा आ,
शुभ प्रभात कह जाएगी.
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ कर गौरैया
रोज प्रभाती गायेगी..
टिट-टिट-टिट-टिट करे टिटहरी,
करे कबूतर गुटरूं-गूं-
कूद-फांदकर हँसे गिलहरी
तुझको निकट बुलायेगी..
आलस मत कर, आँख खोल,
हम सुबह घूमने जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
आई गुनगुनी धूप सुनहरी
माथे तिलक लगाएगी.
अगर उठेगा देरी से तो
आँखें लाल दिखायेगी..
मलकर बदन नहा ले जल्दी,
प्रभु को भोग लगाना है.
टन-टन घंटी मंगल ध्वनि कर-
विपदा दूर हटाएगी.
मुक्त कंठ-गा भजन-आरती,
सरगम-स्वर सध जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
*
मेरे कुँवर कलेवा कर फिर,
तुझको शाला जाना है.
पढ़ना-लिखना, खेल-कूदना,
अपना ज्ञान बढ़ाना है..
अक्षर,शब्द, वाक्य, पुस्तक पढ़,
तुझे मिलेगा ज्ञान नया.
जीवन-पथ पर आगे चलकर
तुझे सफलता पाना है..
सारी दुनिया घर जैसी है,
गैर स्वजन बन जायेंगे.
खोल झरोखा, झाँक-
ज़िंदगी के मानी मिल जायेंगे.....
***
मुक्तिका:
*
मापनी: २१ २२२ १ २२२ १ २२
*
दर्द की चाही दवा, दुत्कार पाई
प्यार को बेचो, बड़ा बाजार भाई
.
वायदों की मण्डियाँ, हैं ढेर सारी
बचाओ गर्दन, इसी में है भलाई
.
आ गया, सेवा करेगा बोलता है
चाहता सारी उड़ा ले वो मलाई
.
चोर का ईमान, डाकू है सिपाही
डॉक्टर लूटे नहीं, कोई सुनाई
.
कौन है बोलो सगा?, कोई नहीं है
दे रहा नेता दगा, बोले भलाई
१७-१०-२०१५

***

रविवार, 15 अप्रैल 2018

श्री श्री चिंतन : दोहा मंथन 1

उत्सव
एकाकी रह भीड़ का अनुभव है अग्यान।
छवि अनेक में एक की,  मत देखो मतिमान।।
*
दिखा एकता भीड़ में, जागे बुद्धि-विवेक।
अनुभव दे एकांत का,  भीड़ अगर तुम नेक।।
*
जीवन-ऊर्जा ग्यान दे, अमित आत्म-विश्वास।
ग्यान मृत्यु का निडरकर, देता आत्म-उजास।।
*
शोर-भीड़ हो चतुर्दिक, या घेरे एकांत।
हर पल में उत्सव मना, सज्जन रहते शांत।।
*
जीवन हो उत्सव सदा,  रहे मौन या शोर।
जन्म-मृत्यु उत्सव मना,  रहिए भाव-विभोर।।
***
12.4.2018