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रविवार, 29 दिसंबर 2024

दिसंबर २९, गणेश, सॉनेट, हाइकु, तसलीस, माहिया, चित्रगुप्त, कायस्थ, बहरे-मनसिरह

सलिल सृजन दिसंबर २९
*
सॉनेट
जब लगती है मन में आँच
मानो या मत मानो मीत
तब पकता है तन यह साँच
मिथ्या लगती जग की रीत।

धुना गया बेबात कबीर
रह न सकी मीरां खुशहाल
गर नीलाम न किया जमीर
हो न सकेगा मालामाल।

जो कुर्सी पर उसे सलाम
शीश झुका बुत-आगे रोज
श्रद्धा का कुछ मिले न दाम
करो खुशामद पाओ भोज।

मत तापे घर फूँक कमाल।
जला और का बना मशाल।
२९.१२.२०२४
०००
सॉनेट
जय गणेश
जय गणेश! घर आइए,
ऋद्धि-सिद्धि उर विराजित,
कर जीवन-पथ प्रकाशित,
रुचिकर मोदक खाइए।
भजन झूमकर गाइए,
शोभित गणपति नाथ हे!,
चरणों में नत माथ है,
भक्त प्रसादी पाइए।
नर-नारी हैं विनत सब,
हरें विघ्न विघ्नेश्वर,
सुख-समृद्धि बढ़ती रहे।
मंजिल तह बढ़ सकें अब,
कृपया करें करुणेश्वर,
मति नित नव गढ़ती रहे।
२९.१२.२०२३
***
हाइकु
*
समय ग्रंथ
एक बार फिर से
पलटा पन्ना।
*
हरेक वर्ष
आता है यह दिन
मनाओ हर्ष।
*
हर पल हो
सत-शिव-सुंदर
सुख दे साल।
*
हैलो डिअर!
विदाउट फिअर
हो न्यू इयर।
*
डूबता सूर्य
इक्कीस है बाईस
ऊगता सूर्य।
***
सॉनेट
शीत
प्रीत शीत से कीजिए, गर्मदिली के संग।
रीत-नीत हँस निभाएँ, खूब सेंकिए धूप।
जनसंख्या मत बढ़ाएँ, उतरेगा झट रंग।।
मँहगाई छू रही है, नभ फीका कर रूप।।
सूरज बब्बा पीत पड़, छिपा रहे निज फेस।
बादल कोरोना करे, सब जनगण को त्रस्त।
ट्रस्ट न उस पर कीजिए, लगा रहा है रेस।।
मस्त रहे जो हो रहे, युवा-बाल भी पस्त।।
दिल जलता है अगर तो, जलने दे ले ताप।
द्वार बंद रख, चुनावी ठंड न पाए पैठ।
दिलवर कंबल भा रहा, प्रियतम मत दे शाप।।
मान दिलरुबा रजाई, पहलू में छिप बैठ।।
रैली-मीटिंग भूल जा, नेता हैं बेकाम।
ओमिक्रान यदि हो गया, कोई न आए काम।।
२९-१२-२०२१
***
त्रिपदियाँ, तसलीस, माहिया
*
नोटा मन भाया है,
क्यों कमल चुनें बोलो?
अब नाथ सुहाया है।
*
तुम मंदिर का पत्ता
हो बार-बार चलते
प्रभु को भी तुम छलते।
*
छप्पन इंची छाती
बिन आमंत्रण जाकर
बेइज्जत हो आती।
*
राफेल खरीदोगे,
बिन कीमत बतलाये
करनी भी भोगोगे।
*
पंद्रह लखिया किस्सा
भूले हो कह जुमला
अब तो न चले घिस्सा।
*
वादे मत बिसराना,
तुम हारो या जीतो-
ठेंगा मत दिखलाना।
*
जनता भी सयानी है,
नेता यदि चतुर तो
यान उनकी नानी है।
*
कर सेवा का वादा,
सत्ता-खातिर लड़ते-
झूठा है हर दावा।
*
पप्पू का था ठप्पा,
कोशिश रंग लाई है
निकला सबका बप्पा।
*
औंधे मुँह गर्व गिरा,
जुमला कह वादों को
नज़रों से आज गिरा।
*
रचना न चुराएँ हम,
लिखकर मौलिक रचना
निज नाम कमाएँ हम।
*
गागर में सागर सी
क्षणिका लघु, अर्थ बड़े-
ब्रज के नटनागर सी।
*
मन ने मन से मिलकर
उन्मन हो कुछ न कहा-
धीरज का बाँध ढहा।
*
है किसका कौन सगा,
खुद से खुद ने पूछा?
उत्तर जो नेह-पगा।
*
तन से तन जब रूठा,
मन, मन ही मन रोया-
सुनकर झूठी-झूठा।
*
तन्मय होकर तन ने,
मन-मृण्मय जान कहा-
क्षण भंगुर है दुनिया।
*
कार्यशाला:
दोहा - कुण्डलिया
*
नवल वर्ष इतना करो, हम सब पर उपकार।
रोटी कपड़ा गेह पर, हो सबका अधिकार।। -सरस्वती कुमारी, ईटानगर
हो सबका अधिकार, कि वह कर्तव्य कर सके।
हिंदी से कर प्यार सत्य का पंथ वर सके।।
चमड़ी देखो नहीं, गुणों से प्यार सब करो।
नवल वर्ष उपकार, हम सब पर इतना करो।। -संजीव, जबलपुर
२९-१२-२०१८
***
उपनिषद कहते हैं-
यक्ष प्रश्न १. चित्रगुप्त जी केवल कायस्थों के देवता कैसे हैं?
'काया स्थिते स: कायस्थ:' अर्थात जब वह (निराकार परमात्मा) काया में (आत्मा रूप में) स्थित होता है तो कायस्थ कहलाता है।
यक्ष प्रश्न २. चित्रगुप्त जी सभी जातियों के देवता क्यों नहीं हैं?
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानम सर्व देहिनाम' अर्थात सभी देहधारियों में आत्मा रूप में बसे चित्रगुप्त (चित्र आकार से बनता है, चित्र गुप्त है अर्थात नहीं है क्योंकि परमात्मा निराकार है) को सबसे पहले प्रणाम।
इसीलिए सशक्त और समृद्ध होने पर भी वैदिक काल से १०० वर्ष पूर्व तक चित्रगुप्त जी के मंदिर, मूर्ति, पुराण, कथा, आरती, भजन, व्रत आदि नहीं बनाये गए। स्वयं को चित्रगुप्त का वारिस माननेवाला समुदाय गणेश, शिव, शक्ति, विष्णु, बुद्ध, महावीर, आर्य समाज, युगनिर्माण योजना, साई बाबा आदि का अनुयायी होता रहा। कण-कण में भगवान् और कंकर कंकर में शंकर के आदि सत्य को स्वीकार कर देश और समाज के प्रति समर्पित रहा। अब अन्यों की नकल पर ये भी मंदिर, मूर्ति और जन्मना जातीयता के शिकार क्यों हो रहे हैं?
यक्ष प्रश्न ३. जात का अर्थ क्या है?
जब कोई भद्र दिखनेवाला मनुष्य गिरी हुई हरकत करे तो कहते हैं 'जात दिखा गया। बुंदेली कहावत 'जात दिखा गया' का अर्थ है अपनी सचाई (असलियत) दिखा गया।
जात कर्म अर्थात जन्म देने कई क्रिया (गर्भ में छिपी सचाई सामने आना), जातक = जन्म लेनेवाला शिशु, जाया = जन्म दिया, जच्चा = जन्मदात्री, जाना = बच्चा देना, जगतजननी का एक नाम 'जाया' (जिसने सबको जन्म दिया) भी है।
यक्ष प्रश्न ४. क्या जात और जाति समानार्थी हैं?
जाति अर्थात एक जैसे गुण-धर्म के लोग, जिनमें समानता हो ऐसा समूह। जात और जाति का अर्थ लगभग समान है।
मुरारी गुप्ता - स्वभाव को भी जात कहा गया ।
इन्द्र देव सिंह - बंधुवर! भारत में जाति कभी नहीं रही, सिर्फ जात ही रहा ... प्राचीन साहित्य में जाति शब्द का प्रयोग आज के जाति के समानार्थी नहीं है। 'कास्ट' शब्द का पहली बार प्रयोग पुर्तगालियो ने किया ..
संजय वर्मा - संगीत में भी जाति का वर्णन है... राग की जाति ... ताल की जाति
***
कार्यशाला- छंद बहर का मूल है- २.​​
उर्दू की १९ बहरें २ समूहों में वर्गीकृत की गयी हैं।
१. मुफरद बहरें-
इनमें एक ही अरकान या लय-खण्ड की पुनरावृत्ति होती है।
इनके ७ प्रकार (बहरे-हज़ज सालिम, बहरे-ऱज़ज सालिम, बहरे-रमल सालिम, बहरे-कामिल, बहरे-वाफिर, बहरे-मुतक़ारिब तथा बहरे-मुतदारिक) हैं।
२. मुरक्कब बहरें-
इनमें एकाधिक अरकान या लय-खण्ड मिश्रित होते हैं।
इनके १२ प्रकार (बहरे-मनसिरह, बहरे-मुक्तज़िब, बहरे-मुज़ारे, बहरे-मुजतस, बहरे-तवील, बहरे-मदीद, बहरे-बसीत, बहरे-सरीअ, बहरे-ख़फ़ीफ़, बहरे-जदीद, बहरे-क़रीब तथा बहरे-मुशाकिल) हैं।
*
ख. बहरे-मनसिरह
बहरे-मनसिरह मुसम्मन मतवी मक़सूफ़-
शायरों ने इस बहर का प्रयोग बहुत कम किया है। इसके अरकान 'मुफ़तइलुन फ़ाइलुन मुफ़तइलुन फ़ाइलुन' (मात्राभार ११११२ २१२ ११११२ २१२) हैं।
यह १६ वर्णीय अथाष्टिजातीय छंद है जिसमें ८-८ पर यति तथा पदांत में रगण (२१२) का विधान है।
यह २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद है जिसमें ११-११ मात्राओं पर यति तथा पदांत में २१२ है।
उदाहरण-
१.
जब-जब जो जोड़ते, तब-तब वो छोड़ते
कर-कर के साथ हैं, पग-पग को मोड़ते
कर कुछ तू साधना, कर कुछ आराधना
जुड़-जुड़ जाता वही, जिस-जिस को तोड़ते
२.
निकट हमें देखना, सजन सुखी लेखना
सजग रहो हो कहीं, सलवट की रेख ना
उर्दू व्याकरण के अनुसार गुरु के स्थान पर २ लघु या दो लघु के स्थान पर गुरु मात्रा का प्रयोग करने पर छंद का वार्णिक प्रकार बदल जाता है जबकि मात्रिक प्रकार तभी बदलता है जब यह सुविधा पदांत में ली गयी हो। हिंदी पिंगल-नियम यह छूट नहीं देते। उर्दू का एक उदाहरण देखें-
१.
यार को क़ा/सिद मिरे/जाके अगर/देखना
मेरी तरफ/से भी तू/ एक नज़र/देखना
(सन्दर्भ ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल')
२९-१२-२०१६
***
लघुकथा:
करनी-भरनी
*
अभियांत्रिकी महाविद्यालय में परीक्षा का पर्यवेक्षण करते हुए शौचालयों में पुस्तकों के पृष्ठ देखकर मन विचलित होने लगा। अपना विद्यार्थी काल में पुस्तकों पर आवरण चढ़ाना, मँहगी पुस्तकों की प्रति तैयार कर पढ़ना, पुस्तकों में पहचान पर्ची रखना ताकि पन्ने न मोड़ना पड़े, वरिष्ठ छात्रों से आधी कीमत पर पुस्तकें खरीदना, पढ़ाई कर लेने पर अगले साल कनिष्ठ छात्रों को आधी कीमत पर बेच अगले साल की पुस्तकें खरीदना, पुस्तकालय में बैठकर नोट्स बनाना, आजीवन पुस्तकों में सरस्वती का वास मानकर खोलने के पूर्व नमन करना, धोखे से पैर लग जाए तो खुद से अपराध हुआ मानकर क्षमाप्रार्थना करना आदि याद हो आया।
नयी खरीदी पुस्तकों के पन्ने बेरहमी से फाड़ना, उन्हें शौच पात्रों में फेंक देना, पैरों तले रौंदना क्या यही आधुनिकता और प्रगतिशीलता है?
रंगे हाथों पकड़ेजानेवालों की जुबां पर गिड़गड़ाने के शब्द पर आँखों में कहीं पछतावे की झलक नहीं देखकर स्तब्ध हूँ। प्राध्यापकों और प्राचार्य से चर्चा में उन्हें इसकी अनदेखी करते देखकर कुछ कहते नहीं बनता। उनके अनुसार वे रोकें या पकड़ें तो उन्हें जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों या गुंडों से धमकी भरे संदेशों और विद्यार्थियों के दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। तब कोई साथ नहीं देता। किसी तरह परीक्षा समाप्त हो तो जान बचे। उपाधि पा भी लें तो क्या, न ज्ञान होगा न आजीविका मिलेगी, जैसा कर रहे हैं वैसा ही भरेंगे।
२९-१२-२०१५
***
समस्यापूर्ति:
अना की चादर उतार फेंके, मुहब्बतों के चलन में आये
मुक्तिका
*
मिले झुकाये पिया निगाहें, लगा कि चन्दा गहन में आये
बसी बसायी लुटी नगरिया, अमावसी तम सहन में आये
उठी निगाहें गिरी बिजुरिया, न चाक हो दिल तो फिर करे क्या?
मिली नज़रिया छुरी चल गयी, सजन सनम के नयन में आये
समा नज़र में गयी है जबसे, हसीन सूरत करार गम है
पलक किनारे खुले रह गये, करूँ बंद तो सपन में आये
गया दिलरुबा बजा दिलरुबा, न राग जानूँ न रागिनी ही
कहूँ किस तरह विरह न भये, लगन लगी कब लगन में आये
जुदा किया क्यों नहीं बताये?, जुदा रखा ना गले लगाये
खुद न चाहे कभी खुदाया, भुला तेरा दर सदन में आये
छिपा न पाये कली बेकली, भ्रमर गीत जब चमन में गाये
एना की चादर उतार फेंके, मुहब्बतों के चलन में आये
अनहद छेड़ूँ अलस्सुबह, कर लिए मंजीरा सबद सुनाऊँ
'सलिल'-तरंगें कलकल प्रवाहित, मनहर छवि हर-भजन में आये
२९-१२-२०१३

***

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

दिसंबर २८, कौआ स्नान, बहरे-मनसिरह, हाइबन, बाल कविता, मुहावरा, कौआ स्नान, हाइगा

सलिल सृजन दिसंबर २८ - आ
*
हाइगा 


पुराना पत्र 
बिन देखे दिखाए
तुम्हारी छवि।



















भीगी चिड़िया 
हताश खोज रही
छिपा सूरज।  















हाइबन
                जापानी भाषा के शब्द ‘हाइबन’  का अर्थ है ‘गद्य काव्य'।‘हाइबन’ गद्य तथा काव्य का मिश्रण है। हिंदी में गद्य-पद्य का मिश्रण 'गद्य-गीत' में हुआ किंतु आजकल यह विधा प्रचलन में लगभग नहीं है।  जापान में १७ वीं शताब्दी के कवि बाशो ने 'हाइबन' विधा का आरंभ वर्ष १६९० में अपने एक दोस्त को खत में सफरनामा / डायरी के रूप में ‘भूतों वाली झोंपड़ी’ लिख कर किया। इस खत के अंत में एक हाइकु लिखा गया था।

            सामान्यत: हाइबन की भाषा सरल, मनोरंजक तथा बिम्बात्मक होती है। हाइबन में आत्मकथा, लेख , लघुकथा या यात्रा का ज़िक्र होता है। इसमें गद्य लेखन के एक या दो अनुच्छेद और विषयानुसार एक या दो हाइकु आ सकते हैं। प्रस्तुत गद्य हाइकु की व्याख्या नहीं होता ,बल्कि जो वर्णन गद्य में किया है उसके अनुसार हाइकु लिखा जाता है। हाइबन की भाषा पूरी तरह सधी हुई, अनावश्यक शब्दावली रहित हो। गद्य अधिक लम्बा न हो।

उदाहरण:

            कल देर रात अचानक आकाश मेघाच्छादित हो गया और बेमौसम बरसात शुरू हो गई। सुबह रजाई से निकलने का मन ही नहीं हो रहा था। पानी रुकने पर खिड़की से झाँककर देखा तो सूर्य देवता संसद में अध्यक्ष की तरह प्रभाहीन और उदास थे, विपक्ष की तरह धूप की बोलती बंद थी और सत्ता पक्ष की तरह मेघ गरज रहे थे। मरता क्या न करता, लोकतंत्र में तंत्र से त्रस्त लोक की तरह बिस्तर छोड़ा और गरमागरम कॉफी की आस में श्रीमती जी की ओर निहारा। उन्होंने चुनाव जीत चुके नेता की तरह वायदों को जुमला बतलाकर मुँह फेर लिया था। 
हाल बेहाल 
बिन बताए आती
मुश्किल सदा। 
*
बाल कविता
मुहावरा कौआ स्नान
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
*
गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
*
उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
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कार्यशाला-
छंद बहर का मूल है- १.
*
उर्दू की १९ बहरें २ समूहों में वर्गीकृत की गयी हैं।
१. मुफरद बहरें-
इनमें एक ही अरकान या लय-खण्ड की पुनरावृत्ति होती है।
इनके ७ प्रकार (बहरे-हज़ज सालिम, बहरे-ऱज़ज सालिम, बहरे-रमल सालिम, बहरे-कामिल, बहरे-वाफिर, बहरे-मुतक़ारिब तथा बहरे-मुतदारिक) हैं।
२. मुरक्कब बहरें-
इनमें एकाधिक अरकान या लय-खण्ड मिश्रित होते हैं।
इनके १२ प्रकार (बहरे-मनसिरह, बहरे-मुक्तज़िब, बहरे-मुज़ारे, बहरे-मुजतस, बहरे-तवील, बहरे-मदीद, बहरे-बसीत, बहरे-सरीअ, बहरे-ख़फ़ीफ़, बहरे-जदीद, बहरे-क़रीब तथा बहरे-मुशाकिल) हैं।
*
क. बहरे-मनसिरह
बहरे-मनसिरह मुसम्मन मतबी मौक़ूफ़-
इस बहर में बहुत कम लिखा गया है। इसके अरकान 'मुफ़तइलुन फ़ायलात मुफ़तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार ११११२ २१२१ ११११२ २१२१) हैं।
यह १८ वर्णीय अथधृति जातीय शारद छंद है जिसमें ९-९ पर यति तथा पदांत में जगण (१२१) का विधान है।
यह २४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद है जिसमें १२-१२ मात्राओं पर यति तथा पदांत में १२१ है।
उदाहरण-
१.
थक मत, बोझा न मान, कदम उठा बार-बार
उपवन में शूल फूल, भ्रमर कली पे निसार
पगतल है भू-बिछान, सर पर है आसमान
'सलिल' नहीं भूल भूल, दिन-दिन होगा सुधार
२.
जब-जब तूने कहा- 'सच', तब झूठा बयान
सच बन आया समक्ष, विफल हुआ न्याय-दान
उर्दू व्याकरण के अनुसार गुरु के स्थान पर २ लघु या दो लघु के स्थान पर गुरु मात्रा का प्रयोग करने पर छंद का वार्णिक प्रकार बदल जाता है जबकि मात्रिक प्रकार तभी बदलता है जब यह सुविधा पदांत में ली गयी हो। हिंदी पिंगल-नियम यह छूट नहीं देते।
३.
अरकान 'मुफ्तइलुन फ़ायलात मुफ्तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार २११२ २१२१ २११२ २१२१)
क्यों करते हो प्रहार?, झेल सकोगे न वार
जोड़ नहीं, छीन भी न, बाँट कभी दे पुकार
कायम हो शांति-सौख्य, भूल सकें भेद-भाव
शांत सभी हों मनुष्य, किस्मत लेंगे सुधार
४.
दिल में हम अप/ने नियाज़/रखते हैं सो/तरह राज़
सूझे है इस/को ये भेद/जिसकी न हो/चश्मे-कोर
प्रथम पंक्ति में ए, ओ, अ की मात्रा-पतन दृष्टव्य।
(सन्दर्भ ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल')
२८.१२.२०१६
=============
लघुकथा -
कब्रस्तान
*
महाविद्यालय के प्राचार्य मुख्य अतिथि को अपनी संस्था की गुणवत्ता और विशेषताओं की जानकारी दे रहे थे. पुस्तकालय दिखलाते हुए जानकारी दी की हमारे यहाँ विषयों की पाठ्य पुस्तकें तथा सन्दर्भ ग्रंथों के साथ-साथ अच्छा साहित्य भी है. हम हर वर्ष अच्छी मात्र में साहित्यिक पुस्तकें भी क्रय करते हैं.
आतिथि ने उनकी जानकारी पर संतोष व्यक्त करते हुए पुस्तकालय प्रभारी से जानना चाहा कि गत २ वर्षों में कितनी पुस्तकें क्रय की गयीं, विद्यार्थियों ने कितनी पुस्तकें पढ़ने हेतु लीं तथा किन पुस्तकों की माँग अधिक थी? उत्तर मिला इस वर्ष क्रय की गयी पुस्तकों की आदित जांच नहीं हुई है, गत वर्ष खरीदी गयी पुस्तकें दी नहीं जा रहीं क्योंकि विद्यार्थी या तो विलम्ब से वापिस करते हैं या पन्ने फाड़ लेते हैं.
नदी में बहते पानी की तरह पुस्तकालय से प्रतिदिन पुस्तकों का आदान-प्रदान न हो तो उसका औचित्य और सार्थकता ही क्या है? तब तो वह किताबों का कब्रस्तान ही हो जायेगा, अतिथि बोले और आगे चल दिए.
***
लघुकथा-
सफ़ेद झूठ
*
गाँधी जयंती की सुबह दूरदर्शन पर बज रहा था गीत 'दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल', अचानक बेटे ने उठकर टीवी बंद कर दिया। कारण पूछने पर बोला- '१८५७ से लेकर १९४६ में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अज्ञातवास में जाने तक क्रांतिकारियों ने आत्म-बलिदान की अनवरत श्रंखला की अनदेखी कर ब्रिटेन संसद सदस्यों से में प्रश्न उठवानेवालों को शत-प्रतिशत श्रेय देना सत्य से परे है. सत्यवादिता के दावेदार के जन्म दिन पर कैसे सहन किया जा सकता है सफ़ेद झूठ?
२८.१२.२०१५
***


गुरुवार, 1 दिसंबर 2022

नवगीत, लघु कथा, मुक्तक, कुण्डलिया, दोहा, बहरे-मनसिरह, शारद छंद

कार्यशाला-
छंद बहर का मूल है- १.
*
उर्दू की १९ बहरें २ समूहों में वर्गीकृत की गयी हैं।
१. मुफरद बहरें-
इनमें एक ही अरकान या लय-खण्ड की पुनरावृत्ति होती है।
इनके ७ प्रकार (बहरे-हज़ज सालिम, बहरे-ऱज़ज सालिम, बहरे-रमल सालिम, बहरे-कामिल, बहरे-वाफिर, बहरे-मुतक़ारिब तथा बहरे-मुतदारिक) हैं।
२. मुरक्कब बहरें-
इनमें एकाधिक अरकान या लय-खण्ड मिश्रित होते हैं।
इनके १२ प्रकार (बहरे-मनसिरह, बहरे-मुक्तज़िब, बहरे-मुज़ारे, बहरे-मुजतस, बहरे-तवील, बहरे-मदीद, बहरे-बसीत, बहरे-सरीअ, बहरे-ख़फ़ीफ़, बहरे-जदीद, बहरे-क़रीब तथा बहरे-मुशाकिल) हैं।
*
क. बहरे-मनसिरह
बहरे-मनसिरह मुसम्मन मतबी मौक़ूफ़-
इस बहर में बहुत कम लिखा गया है। इसके अरकान 'मुफ़तइलुन फ़ायलात मुफ़तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार ११११२ २१२१ ११११२ २१२१) हैं।
यह १८ वर्णीय अथधृति जातीय शारद छंद है जिसमें ९-९ पर यति तथा पदांत में जगण (१२१) का विधान है।
यह २४ मात्रिक अवतारी जातीय छंद है जिसमें १२-१२ मात्राओं पर यति तथा पदांत में १२१ है।
उदाहरण-
१.
थक मत, बोझा न मान, कदम उठा बार-बार
उपवन में शूल फूल, भ्रमर कली पे निसार
पगतल है भू-बिछान, सर पर है आसमान
'सलिल' नहीं भूल भूल, दिन-दिन होगा सुधार
२.
जब-जब तूने कहा- 'सच', तब झूठा बयान
सच बन आया समक्ष, विफल हुआ न्याय-दान
उर्दू व्याकरण के अनुसार गुरु के स्थान पर २ लघु या दो लघु के स्थान पर गुरु मात्रा का प्रयोग करने पर छंद का वार्णिक प्रकार बदल जाता है जबकि मात्रिक प्रकार तभी बदलता है जब यह सुविधा पदांत में ली गयी हो। हिंदी पिंगल-नियम यह छूट नहीं देते।
३.
अरकान 'मुफ्तइलुन फ़ायलात मुफ्तइलुन फ़ायलात' (मात्राभार २११२ २१२१ २११२ २१२१)
क्यों करते हो प्रहार?, झेल सकोगे न वार
जोड़ नहीं, छीन भी न, बाँट कभी दे पुकार
कायम हो शांति-सौख्य, भूल सकें भेद-भाव
शांत सभी हों मनुष्य, किस्मत लेंगे सुधार
४.
दिल में हम अप/ने नियाज़/रखते हैं सो/तरह राज़
सूझे है इस/को ये भेद/जिसकी न हो/चश्मे-कोर
प्रथम पंक्ति में ए, ओ, अ की मात्रा-पतन दृष्टव्य।
(सन्दर्भ ग़ज़ल रदीफ़-काफ़िया और व्याकरण, डॉ. कृष्ण कुमार 'बेदिल')
***
कार्य शाला:
दोहा से कुण्डलिया
*
बेटी जैसे धूप है, दिन भर करती बात।
शाम ढले पी घर चले, ले कर कुछ सौगात।। -आभा सक्सेना 'दूनवी'
लेकर कुछ सौगात, ढेर आशीष लुटाकर।
बोल अनबोले हो, जो भी हो चूक भुलाकर।।
रखना हरदम याद, न हो किंचित भी हेटी।
जाकर भी जा सकी, न दिल से प्यारी बेटी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
***
१.१२.२०१८
***
दोहा सलिला
*
दोहा सलिला निर्मला, सारस्वत सौगात।
नेह नर्मदा सनातन, अवगाहें नित भ्रात
*
अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है, शब्द-शब्द सौगात।
चरण-चरण में सार है, पद-पद है अवदात।।
*
कथ्य भाव लय छंद रस, पंच तत्व आधार.
मुरली-धुन सा कवित रच, पा पाठक से प्यार
*
दोहा दिव्य दिनेश दे, तम हर नवल प्रभात।
भाषा-भूषा सुरुचिमय, ज्यों पंकज जलजात।।
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भाव, कहन, रस, बिंब, लय, अलंकार सज गात।
दोहा वनिता कथ्य है, अजर- अम्र अहिवात।।
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दोहा कम में अधिक कह, दे संदेशा तात।
गागर में सागर भरे, व्यर्थ न करता बात।।
१.१२.२०१८
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मुक्तक
उषा-स्वागत कर रही है चहक गौरैया
सूर्य-वंदन पवन करता नाच ता-थैया
बैठका मुंडेर कागा दे रहा संदेश-
तानकर रजाई मनुज सो रहा भैया
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नमन तुमको कर रहा सोया हुआ ही मैं
राह दिखाता रहा, खोया हुआ ही मैं
आँख बंद की तो हुआ सच से सामना
जाना कि नहीं दूध का धोया हुआ हूं मैं
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मत जगाओ, जागकर अन्याय करेगा
आदमी से आदमी भी जाग डरेगा
बाँटकर जुमले ठगेगा आदमी खुद को
छीन-झपट, आग लगा आप मरेगा
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लघु कथा
बदलाव
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एक था चिड़ा।
एक थी चिड़ी।
आपस में मिले-जुले,
प्रेम हुआ, शादी हो गई ।
अब दोनों चिड़चिड़े हैं।
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अलंकार सलिला ३७
वीप्सा अलंकार


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कविता है सार्थक वही, जिसका भाव स्वभाव।
वीप्सा घृणा-विरक्ति है, जिससे कठिन निभाव।।
अलंकार वीप्सा वहाँ, जहाँ घृणा-वैराग।
घृणा हरे सुख-चैन भी, भर जीवन में आग।।
जहाँ शब्द की पुनरुक्ति द्वारा घृणा या विरक्ति के भाव की अभिव्यक्ति की जाती है वहाँ वीप्सा अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. शिव शिव शिव कहते हो यह क्या?
ऐसा फिर मत कहना।
राम राम यह बात भूलकर,
मित्र कभी मत गहना।।
२. राम राम यह कैसी दुनिया?
कैसी तेरी माया?
जिसने पाया उसने खोया,
जिसने खोया पाया।।
३. चिता जलाकर पिता की, हाय-हाय मैं दीन।
नहा नर्मदा में हुआ, यादों में तल्लीन।।
४ उठा लो ये दुनिया, जला दो ये दुनिया,
तुम्हारी है तुम ही सम्हालो ये दुनिया।
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है?'
५. मेरे मौला, प्यारे मौला, मेरे मौला...
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे,
मेरे मौला बुला ले मदीने मुझे।
६. नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे ढूँढूँ रे सँवरिया!
पिया-पिया रटते मैं तो हो गयी रे बँवरिया!!
७. मारो-मारो मार भगाओ आतंकी यमदूतों को।
घाट मौत के तुरत उतारो दया न कर अरिपूतों को।।
वीप्सा में शब्दों के दोहराव से घृणा या वैराग्य के भावों की सघनता दृष्टव्य है.
३०-११-२०१५
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नवगीत
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पत्थरों के भी कलेजे
हो रहे पानी
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आदमी ने जब से
मन पर रख लिए पत्थर
देवता को दे दिया है
पत्थरों का घर
रिक्त मन मंदिर हुआ
याद आ रही नानी
.
नाक हो जब बहुत ऊँची
बैठती मक्खी
कब गयी कट?, क्या पता?
उड़ गया कब पक्षी
नम्रता का?, शेष दुर्गति
अहं ने ठानी
.
चुराते हैं, झुकाते हैं आँख
खुद से यार
बिन मिलाये बसाते हैं
व्यर्थ घर-संसार
आँख को ही आँख
फूटी आँख ना भानी
.
चीर हरकर माँ धरा का
नष्टकर पोखर
पी रहे जल बोतलों का
हाय! हम जोकर
बावली है बावली
पानी लिए धानी
३०-११-२०१४