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रविवार, 19 जनवरी 2025

जनवरी १९, चित्रगुप्त, सोरठा, सॉनेट, कालगणना, ब्राह्मण, ओशो, बुद्ध, शिव, नवगीत, लघुकथा, बिरजू महाराज

सलिल सृजन जनवरी १९    


प्रभु श्री चित्रगुप्त जी का पवित्र ग्रंथों में महिमा वर्णन

- ०१. ऋग्वेद अध्याय ४,५,६ सूत्र ९-१-२४ अध्याय १७ सूत्र १०७ /१० - ७-२४ में। ऋग्वेद गायत्री मंत्र-
ॐ तत्पुरूषाय विद्महे श्री चित्रगुप्तायधीमहि तन्नो गुप्त: प्रचोदयात् ।
ॐ तत्पुरूषाय विद्महे श्री चित्रगुप्तायधीमहि तन्नो कवि लेखक: प्रचोदयात्।
ऋग्वेद नमस्कार मंत्र में - यमाय धर्मराजाय श्री चित्रगुप्ताय वै नम:।
ॐ सचित्र: चित्रं विन्तये तमस्मै चित्रक्षत्रं चित्रतम वयोधाम् चँद्ररायो पुरवौ ब्रहभूयं चँद्र चँद्रामि गृहीते यदस्व:।
२- अर्थववेद- अध्याय १३-२-३२ के आश्वलायन स्त्रोत ४-१२-३ श्री चित्रश्वि कित्वान्महिष: सुपर्ण आरोचयन रोदसी अन्तरिक्षम् आखलायन क्षति। सचित्रश्रीचित्र चिन्तयंत मस्वो अग्निरीक्षे व्रहत: क्षत्रियस्य ।
३- पद्मपुराण - सृष्टिखण्ड व पातालखण्ड के अध्याय ३१ में, भूखण्ड के अध्याय १६, ६७, ६८ व स्वर्गखण्ड - चित्रगुप्त जी के नाम- यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्त, सर्वभूतक्षय, औदम्बर, घघ्न, परमेष्ठी, बृकोदराय, श्रीचित्रगुप्त, चित्र, काल, नीलाम।
४- अग्नि पुराण - श्री चित्रगुप्त प्रणम्यादौ - वात्मानं सर्वदेहिनाम् । कायस्थअवतरण यथार्थ्यान्वेषणेेनोच्यते मया।। येनेदं स्वेच्छया सर्व मायया मोहित्जगत। राजयत्यजित: श्रीमान कायस्थ परमेश्वर:।।
५- गरुण पुराण - ब्रह्माणा निर्मित: पूर्णा विष्णुना पालितं यदा यद्र संहार मूर्तिश्व ब्रह्मण: तत: वायु सर्वगत सृष्ट: सूर्यस्तेजो विवृद्धिमान धर्मराजस्तत: सृष्टिश्चित्रगुप्तेन संयुत: ।
६- शिव पुराण में उमासंहिता अध्याय ७ में व अग्निपुराण अघ्याय २० व ३७० में - मार्कण्डेय धर्मराज श्रीचित्रगुप्तजी को 'कायस्थ' कहा गया है। शिव पुराण ज्ञान संहिता ध्याय १६- श्री चित्रगुप्त जी, भगवान शंकरजी के विवाह में शामिल हैं।
७- वशिष्ठ पुराण में - भगवान राम के विवाह में भगवान श्री राम जी के द्वारा सर्वप्रथम आहुति परमात्मा श्री चित्रगुप्त जी को दी गई।
८- लिंग पुराण में - अध्याय ९८ में शिवजी का नाम 'भक्त कायस्थ' लिखा है।
९- ब्रह्म पुराण में - अध्याय २-५-5५६ में श्री चित्रगुप्तजी परम न्यायाधीश का कार्य करते हैं।
१० - मत्स्य पुराण में -
श्री चित्रगुप्त जी को केतु, दाता, प्रदाता, सविता, प्रसविता, शासत:, आमत्य, मंत्री, प्राज्ञ, ललाट का विधाता, धर्मराज, न्यायाधीश, लेखक, सैनिक, सिपाहियों का सरदार, याम्यसुब्रत, परमेश्वर, घमिष्ठ, यम कहा गया है।
११- ब्रह्मावर्त पुराण में - श्री चित्रगुप्त जी का वर्णन है।
१२- कूर्म पुराण में - पूर्व भाग अध्याय ४० में।
१३- भविष्य पुराण में - उत्तराखण्ड अध्याय ८९ में।
१४- स्कन्द पुराण में - श्री चित्रगुप्त जी के अवतरण का वर्णन है।
१५- यम संहिता में - उदीच्य वेषधरं सौम्यंदर्शनम् द्विभुजं केतु प्रत्याउयधिदेवं श्रीचित्रगुप्तं आवाह्यमि। चितकेत दीता प्रदाता सविता प्रसादिता शासनानमन्त:।
उपनिषदों में - श्री चित्रगुप्त जी का वर्णन
१६- कठोपनिषद् में - यम के नाम से श्री चित्रगुप्त जी का वर्णन।
१७- वाल्मीकि रामायण में - आत्मज्ञानी जनक ने श्री चित्रगुप्त जी का पूजन किया।
१८- महाभारत अनुशासन पर्व में - श्रीकृष्ण चँद्र वासुदेव जी ने सर्वप्रथम श्री चित्रगुप्त जी का पूजन किया है -
मषिभाजन सुयुक्तश्चरसित्वं महीतले
लेखनी कटनी हस्ते श्री चित्रगुप्त: नमस्तुते।
•••
***
सोरठा सलिला
जो करते संदेह, शांत न हो सकते कभी।
कर विश्वास विदेह, रहे शांत ही हमेशा।।
दिखती भले विराट, निराधार गिरती लहर।
रह साहस के घाट, जीत अविचलित रह सलिल।।
मिले वहीं आनंद, भय बंधन कटते जहाँ।
गूँजा करते छंद, मन के नीलाकाश में।।
कर्म स्वास्थ्य अनुभूति, संगत मिल परिणाम दें।
शुभ की करें प्रतीति, हों असीम झट कर विलय।।
सोच सकारात्मक रखें, जीवन हो सोद्देश्य।
कार्य निरंतर कीजिए, पूरा हो उद्देश्य।।
जीवन केवल आज, नहीं विगत; आगत नहीं।
पल पल करिए काज, दें संदेश किशन यही।।
मन के अंदर झाँक, अटक-भटक मत बावरे।
खुद को कम मत आँक, साथ हमेशा साँवरे।।
हुए मूल से दूर, ज्यों त्यों ही असहाय हम।
आँखें रहते सूर, मिले दर्द-दुख अहं से।।
•••
सॉनेट
बिरजू महाराज
*
ताल-थाप घुँघरू मादल
एक साथ हो मौन गए
नृत्य कथाएँ कौन कहे?
कौन भरे रस की छागल??
रहकर भी थे रहे नहीं
अपनी दुनिया में थे लीन
रहे सुनाते नर्तन-बीन
जाकर भी हो गए नहीं
नटसम्राट अनूठे तुम
फिर आओ पथ हेरें हम
नहीं करेंगे हम मातम
आँख भले हो जाए नम
जब तक अपनी दम में दम
छवियाँ नित सुमिरेंगे हम
१८-१-२०२२
***
भारतीय कालगणना
१८ निमेष = १ काष्ठा
३० काष्ठा = १ कला
३० कला = १ क्शण
१२ क्शण = १ मुहूर्त
३० मुहूर्त = १ दिन-रात
३० दिन रात = १ माह
२ माह = १ ऋतु
३ ऋतु = १ अयन
२ अयन = १ वर्ष
१२ वर्ष = १ युग
१ माह = पितरों का दिन-रात
१ वर्ष = देवों का दिन-रात
युग। दिव्य वर्ष - सौर वर्ष
सत = ४८०० - १७२८०००
त्रेता = ३६०० - १२९६०००
द्वापर = २४०० - ८६४०००
कलि = १२०० - ४३२००००
एक महायुग = १२००० दिव्य वर्ष = ४३,२०,००० वर्ष = १ देवयुग
१००० देवयुग = १ ब्रह्म दिन या ब्रह्म रात्रि
७१ दिव्य युग = १ मन्वन्तर
१४ मन्वन्तर = १ ब्रह्म दिन
*
ब्रह्मा जागने पर सतासत रूपी मन को उत्पन्न करते हैं। मन विकारी होकर सृष्टि रचना हेतु क्रमश: आकाश (गुण शब्द), गंध वहनकर्ता वायु (गुण स्पर्श), तमनाशक प्रकाशयुक्त तेज (गुण रूप), जल (गुण रस) तथा पृथ्वी (गुण गंध) उत्पन्न होती है।
*
***
भविष्यपुराण से
*
ब्राह्मण के लक्षण -
संस्कार ही ब्रह्त्व प्राप्ति का मुख्य कारण है। जिस ब्राह्मण के वेदादि शास्त्रों में निर्दिष्ट गर्भाधान, पुंसवन आदि ४८ संस्कार विधिपूर्वक हुए हों, वही ब्राह्मण ब्रह्मलोक और ब्रह्मत्व को प्राप्त करता है।
४८ संस्कार - गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, उपनयन, ४ वेदव्रत, वेदस्नान, विवाह, पंचमहायग्य (जिनसे देवता, पितरों, मनुष्य, भूत और ब्रह्म तृप्त हों), सप्तपाक यग्य (संस्था, अष्टकाद्वय, पार्वण, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री या शूलगव तथा अाश्वयुजी), सप्तविर्यग्य (संस्था, अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्श पौर्णमास, चातुर्मास्य, निरूढ-पशुबंध, सौत्रामणी) और सप्तसोम (संस्था-अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ्य। षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र व आप्तोर्याम) तथा ८ आत्मगुण (अनसूया-दूसरों के गुणों में दोष-बुद्धि न रखना, दया-परदुख दूर करने की इच्छा, क्शांति-क्रोध व वैर न करना, अनायास-सामान्य बात के लिए जान की बाजी न लगाना, मंगल-मांगलिक वस्तुओं का धारण, अकार्पण्य-दीन वचन न बोलना व अति कृपण न बनना, शौच-बाह्यभ्यंतर की शुद्धि तथा अस्पृहा-परधन की इच्छा न रखना।) ।
***
ओशो विमर्श
*बुद्धपुरूषों का बुद्धत्तव के बाद दुबारा जन्म क्यों नहीं होता है?*
ओशो: जरूरत नहीं रह जाती। जन्म अकारण नहीं है, जन्म शिक्षण है। जीवन एक परीक्षा है, पाठशाला है। यहाँ तुम आते हो क्योंकि कुछ जरूरत है। बच्चे को हम स्कूल भेजते है, पढ़ने लिखने,समझने-बूझने; फिर जब वह सब परीक्षाएँ उत्तीर्ण हो जाता है, फिर तो नहीं भेजते। फिर वह अपने घर आ गया। फिर भेजने की कोई जरूरत न रही।
परमात्मा घर है, सत्य कहो, निर्वाण कहो, मोक्ष कहो संसार विद्यालय है। वहाँ हम भेजे जाते हैं, ताकि हम परख लें, निरख लें, कस लें कसौटी पर अपने को सुख-दुख की आँच में, सब तरह के कडुवे-मीठे अनुभव से गुजर लें और वीतरागता को उपलब्ध हो जाएँ। सब गँवा दें, सब तरफ से भटक जाएँ, दूर-दूर अँधेरों में, अँधेरी खाइयों-खड्डों में सरकें, सत्य से जितनी दूरी संभव हो सके निकल जाएँ और फिर बोध से वापस लौटें।
बच्चा भी शांत होता, निर्दोष होता; संत भी शांत होता, निर्दोष होता। लेकिन संत की निर्दोषता में बड़ा मूल्य है, बच्चे की निर्दोषता में कोई खास मूल्य नहीं है। यह निर्दोषता जो बच्चे की है, मुफ्त है, कमाई हुई नहीं है। यह आज है, कल चली जाएगी। जीवन इसे छीन लेगा। संत की जो निर्दोषता है, इसे अब कोई भी नहीं छीन सकता। जो-जो घटनाएँ छिन सकती थीं, उनसे तो गुजर चुका संत। इसलिए परमात्मा को खोना, परमात्मा को ठीक से जानने के लिए अनिवार्य है। इसलिए हम भेजे जाते हैं।
बुद्धपुरुष को तो भेजने की कोई जरूरत नहीं, जब फल पक जाता है तो फिर डाली से लटका नहीं रहता, फिर क्या लटकेगा! किसलिए? वृक्ष से लटका था पकने के लिए। धूप आई, सर्दी आई, वर्षा आई, फल पक गया, अब वृक्ष से क्यों लटका रहेगा! कच्चे फल लटके रहते हैं। बुद्ध यानी पका हुआ फल।
छोड़ देती है डाल
रस भरे फल का हाथ
किसी और कसैले फल को
मीठा बनाने के लिए
छोड़ ही देना पड़ेगा। वृक्ष छोड़ देगा पके फल को, अब क्या जरूरत रही? फल पक गया, पूरा हो गया, पूर्णता आ गयी। बुद्धत्व का अर्थ है, जो पूर्ण हो गया। दुबारा लौटने का कोई कारण नहीं।
हमारे मन में सवाल उठता है कभी-कभी, क्योंकि हमें लगता है, जीवन बहुत मूल्यवान है। यह तो बिल्कुल उलटी बात हुई कि बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति को फिर जीवन नहीं मिलता। हमें लगता है, जीवन बहुत मूल्यवान है। बुद्धत्व को जो उपलब्ध है, उसे तो पता चल गया और बड़े जीवन का, और विराट जीवन का।
ऐसा ही समझो कि तुम शराब-घर जाते थे रोज, फिर एक दिन भक्ति-रस लग गया, फिर मंदिर में नाचने लगे, डोलने लगे, फिर प्रभु की शराब पी ली, अब शराब-घर नहीं जाते। शराबी सोचते होंगे कि बात क्या हो गयी? ऐसी मादक शराब को छोड़कर यह आदमी कहाँ चला गया? अब आता क्यों नहीं?
इसे बड़ी शराब मिल गयी, अब यह आए क्यों? इसे असली शराब मिल गयी, अब यह नकली के पास आए क्यों? इसे ऐसी शराब मिल गई जिसको पीकर फिर होश में आना ही नहीं पड़ता। और इसे एक ऐसी शराब मिल गई जिसमें बेहोशी भी होश है। अब यह इस क्षुद्र सी शराब को पीने क्यों आए?
बुद्धत्व को पाया व्यक्ति परम सागर में डूब गया। जिसकी तुम तलाश करते थे, जिस आनंद की, वह उसे मिल गया, अब वह यहाँ क्यों आए? यह जीवन तो कच्चे फलों के लिए है, ताकि वे पक जाएं, परिपक्य हो जाएं। इस जीवन के सुख-दुख, इस जीवन की पीड़ाएँ, इस जीवन के आनंद, जो कुछ भी है, वह हमें थपेड़े मारने के लिए है, चोटें मारने के लिए है।
देखा, कुम्हार घड़ा बनाता है, घड़े को चोटें मारता है। एक हाथ भीतर रखता है, एक हाथ बाहर रखता, चाक पर घड़ा घूमता और वह चोटें मारता! फिर जब घड़ा बनकर तैयार होगा, चोटें बंद कर देता है; फिर घड़े को आग में डाल देता है। फिर जब घड़ा पक गया, तो न चोट की जरूरत है, न आग में डालने की जरूरत है। संसार में चोटें हैं और आग में डाला जाना है। जब तुम पक जाओगे, तब प्रभु का परम रस तुममें भरेगा। तुम पात्र बन जाओगे, तुम घड़े बन जाओगे, फिर कोई जरूरत न रह जाएगी।
***
विश्व विवाह दिवस पर
*
विवाह के बाद पति-पत्नि एक सिक्के के दो पहलू हो जाते हैं, वे एक दूसरे का सामना नहीं कर सकते फिर भी एक साथ रहते हैं। - अल गोर
*
जैसे भी हो शादी करो। यदि अच्छी बीबी हुई तो सुखी होगे, यदि बुरी हुई तो दार्शनिक बन जाओगे। - सुकरात
*
महिलाएँ हमें महान कार्य करने हेकु प्रेरित करती हैं और उन्हें प्राप्त करने से हमें रोकती हैं। - माइक टायसन
*
मैं ने अपनी बीबी से कुछ शब्द कहे और उसने कुछ अनुच्छेद। - बिल क्लिंटन
*
इलैक्ट्रॉनिक बैंकिंग से भी अधिक तेजी से धन निकालने का एक तरीका है। उसे शादी कहते हैं। - माइकेल जॉर्डन
*
एक अच्छी बीबी हमेशा अपने शौहर को माफ कर देती है जब वह गलत होती है। - बराक ओबामा
*
जब आप प्रेम में होते हैं तो आश्चर्य होते रहते हैं। किंतु एक बार आपकी शादी हुई तो आप आश्चर्य करते हैं क्या हुआ?
*
और अंत में सर्वोत्तम
शादी एक सुंदर वन है जिसमें बहादुर शेर सुंदर हिरणियों द्वारा मारे जाते हैं।
***
नवगीतकार संध्या सिंह को
फेसबुक द्वारा ऑथर माने जाने पर प्रतिक्रिया
संध्या को ऑथर माना मुखपोथी जी
या सिंह से डर यश गाया मुखपोथी जी
फेस न बुक हो जाए लखनऊ थाने में
गुपचुप फेस बचाया है मुखपोथी जी
लाजवाब नवगीत, ग़ज़ल उम्दा लिखतीं
ख्याल न अब तक क्यों आया मुखपोथी जी
जुड़ संध्या के साथ बढ़ाया निज गौरव
क्यों न सैल्फी खिंचवाया मुखपोथी जी
है "मुखपोथी रत्न" ठीक से पहचानो
कद्र न करना आया है मुखपोथी जी
फेस "सलिल" में देख कभी "संजीव" बनो
अब तक समय गँवाया है मुखपोथी जी
तुम से हम हैं यह मुगालता मत पालो
हम से तुम हो सच मानो मुखपोथी जी
१९-१-२०
***
नवगीत-
पड़ा मावठा
*
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
सिकुड़-घुसड़ मत बैठ बावले
थर-थर मत कँप, गरम चाय ले
सुट्टा मार चिलम का जी भर
उठा टिमकिया, दे दे थाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
आल्हा-ऊदल बड़े लड़ैया
टेर जोर से,भगा लड़ैया
गा रे! राई, सुना सवैया
घाघ-भड्डरी
बन जा आप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
कुछ अपनी, कुछ जग की कह ले
ढाई आखर चादर तह ले
सुख-दुःख, हँस-मसोस जी सह ले
चिंता-फिकिर
बना दे भाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
बाप न भैया, भला रुपैया
मेरा-तेरा करें लगैया
सींग मारती मरखन गैया
उठ, नुक्कड़ का
रस्ता नाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
*
जाकी मोंड़ी, बाका मोंड़ा
नैन मटक्का थोड़ा-थोड़ा
हम-तुम ने नाहक सर फोड़ा
पर निंदा का
मत कर पाप
पड़ा मावठा
घिरा कोहरा
जला अँगीठी
आगी ताप
***
लघुकथा-
भारतीय
*
- तुम कौन?
_ मैं भाजपाई / कॉंग्रेसी / बसपाई / सपाई / साम्यवादी... तुम?
= मैं? भारतीय।
***
लघुकथा-
चैन की साँस
*
- हे भगवान! पानी बरसा दे, खेती सूख रही है।
= हे भगवान! पानी क्यों बरसा दिया? काम रुक गया।
- हे भगवान! रेलगाड़ी जल्दी भेज दे समय पर कार्यालय पहुँच जाऊँ।
= हे भगवान! रेलगाड़ी देर से आये, स्टेशन तो पहुँच जाऊँ।
- हे भगवान पास कर दे, लड्डू चढ़ाऊँगा।
= हे भगवान रिश्वतखोरों का नाश कर दे।
_ हे इंसान! मेरा पिंड छोड़ तो चैन की साँस ले सकूँ।
***
रोचक संवाद कथा-
ताना-बाना
*
- ताना ताना?
= ताना पर टूट गया।
- अधिक क्यों ताना?, और बाना?
= पहन लिया।
- ताना क्यों नहीं?
= ताना ताना
- बाना क्यों नहीं ताना?
= ताना ताना, बाना ताना।
- ताना, ताना है तो बाना कैसे हो सकता है?
= इसको ताना, उसको ताना, ये है ताना वो है बाना
- ताना मारा, बाना नहीं मारा क्यों?
दोनों चुप्प.
१९.१.२०१६
...
नवगीत:
.
उड़ चल हंसा
मत रुकना
यह देश पराया है
.
ऊपर-नीचे बादल आये
सूर्य तरेरे आँख, डराये
कहीं स्वर्णिमा, कहीं कालिमा
भ्रमित न होना
मत मुड़ना
यह देश सुहाया है
.
पंख तने हों ऊपर-नीचे
पलक न पल भरअँखियाँ मीचे
ऊषा फेंके जाल सुनहरा
मुग्ध न होना
मत झुकना
मत सोच बुलाया है
...
नवगीत
काम तमाम
.
काम तमाम तमाम का
करतीं निश-दिन आप
मम्मी मैया माँ महतारी
करूँ आपका जाप
.
हो मनुष्य या यंत्र बताये कौन? विधाता हारे
भ्रमित न केवल तुम, पापा-हम खड़े तुम्हारे द्वारे
कहतीं एक बात तब तक जब तक न मान ले दुनिया
बदल गया है समय तुम्हें समझा-समझा हम हारे
कैसे जिद्दी कहूँ?
न कर सकता मैं ऐसा पाप
.
'आने दो उनको' कहकर तुम नित्य फ़ोड़तीं अणुबम
झेल रहे आतंकवाद यह हम हँस पर निकले दम
मुझ सी थीं तब क्या-क्या तुमने किया न अब बतलाओ
नाना-नानी ने बतलाया मुझको सच क्या थीं तुम?
पोल खोलकर नहीं बढ़ाना
मुझको घर का ताप
.
तुमको पता हमेशा रहता हम क्या भूल करेंगे?
हो त्रिकालदर्शी न मानकर हम क्यों शूल वरेंगे?
जन्मसिद्ध अधिकार तुम्हारा करना शक-संदेह
मेरे मित्र-शौक हैं कंडम, चुप इल्जाम सहेंगे
हम भी, पापा भी मानें यह
तुम पंचायत खाप
१९.१.२०१५
...
शिव पर दोहे
*
शिव ही शिव जैसे रहें, विधि-हरि बदलें रूप।
चित्र गुप्त हो त्रयी का, उपमा नहीं अनूप।।
*
अणु विरंचि का व्यक्त हो, बनकर पवन अदृश्य।
शालिग्राम हरि, शिव गगन, कहें काल-दिक् दृश्य।।
*
सृष्टि उपजती तिमिर से,श्यामल पिण्ड प्रतीक।
रवि मण्डल निष्काम है, उजियारा ही लीक।।
*
गोबर पिण्ड गणेश है, संग सुपारी साथ।
रवि-ग्रहपथ इंगित करें, पूजे झुकाकर माथ।।
*
लिंग-पिण्ड, भग-गोमती,हर-हरि होते पूर्ण।
शक्तिवान बिन शक्ति के, रहता सुप्त अपूर्ण।।
*
दो तत्त्वों के मेल से, बनती काया मीत।
पुरुष-प्रकृति समझें इन्हें, सत्य-सनातन रीत।।
*
लिंग-योनि देहांग कह, पूजे वामाचार।
निर्गुण-सगुण न भिन्न हैं, ज्यों आचार-विचार।।
*
दो होकर भी एक हैं, एक दिखें दो भिन्न।
जैसे चाहें समझिए, चित्त न करिए खिन्न।।
*
सत्-शिव-सुंदर सृष्टि है, देख सके तो देख।
सत्-चित्-आनंद ईश को, कोई न सकता लेख।।
*
१९.१.२०११, जबलपुर।

मंगलवार, 5 नवंबर 2024

नवंबर १, ब्राह्मण, लघुकथा, दोहा, मुक्तक, मुक्तिका, नवगीत, तापसी नागराज, विवाह

 सलिल सृजन नवंबर १ 

*

चिंतन
सब प्रभु की संतान हैं, कोऊ ऊँच न नीच
*
'ब्रह्मम् जानाति सः ब्राह्मण:' जो ब्रह्म जानता है वह ब्राह्मण है। ब्रह्म सृष्टि कर्ता हैं। कण-कण में उसका वास है। इस नाते जो कण-कण में ब्रह्म की प्रतीति कर सकता हो वह ब्राह्मण है। स्पष्ट है कि ब्राह्मण होना कर्म और योग्यता पर निर्भर है, जन्म पर नहीं। 'जन्मना जायते शूद्र:' के अनुसार जन्म से सभी शूद्र हैं। सकल सृष्टि ब्रह्ममय है, इस नाते सबको सहोदर माने, कंकर-कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान को देखे, सबसे समानता का व्यवहार करे, वह ब्राह्मण है। जो इन मूल्यों की रक्षा करे, वह क्षत्रिय है, जो सृष्टि-रक्षार्थ आदान-प्रदान करे, वह वैश्य है और जो इस हेतु अपनी सेवा समर्पित कर उसका मोल ले-ले वह शूद्र है। जो प्राणी या जीव ब्रह्मा की सृष्टि निजी स्वार्थ / संचय के लिए नष्ट करे, औरों को अकारण कष्ट दे वह असुर या राक्षस है।
व्यावहारिक अर्थ में बुद्धिजीवी वैज्ञानिक, शिक्षक, अभियंता, चिकित्सक आदि ब्राह्मण, प्रशासक, सैन्य, अर्ध सैन्य बल आदि क्षत्रिय, उद्योगपति, व्यापारी आदि वैश्य तथा इनकी सेवा व सफाई कर रहे जन शूद्र हैं। सृष्टि को मानव शरीर के रूपक समझाते हुए इन्हें क्रमशः सिर, भुजा, उदर व् पैर कहा गया है। इससे इतर भी कुछ कहा गया है। राजा इन चारों में सम्मिलित नहीं है, वह ईश्वरीय प्रतिनिधि या ब्रह्मा है। राज्य-प्रशासन में सहायक वर्ग कार्यस्थ (कायस्थ नहीं) है। कायस्थ वह है जिसकी काया में ब्रम्हांश जो निराकार है, जिसका चित्र गुप्त है, आत्मा रूप स्थित है।
'चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्व देहिनाम्।', 'कायस्थित: स: कायस्थ:' से यही अभिप्रेत है। पौरोहित्य कर्म एक व्यवसाय है, जिसका ब्राह्मण होने न होने से कोई संबंध नहीं है। ब्रह्म के लिए चारों वर्ण समान हैं, कोई ऊँचा या नीचा नहीं है। जन्मना ब्राह्मण सर्वोच्च या श्रेष्ठ नहीं है। वह अत्याचारी हो तो असुर, राक्षस, दैत्य, दानव कहा गया है और उसका वध खुद विष्णु जी ने किया है। गीता रहस्य में लोकमान्य टिळक जो खुद ब्राह्मण थे, ने लिखा है -
गुरुं वा बाल वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतं
आततायी नमायान्तं हन्या देवाविचारयं
ब्राह्मण द्वारा खुद को श्रेष्ठ बताना, अन्य वर्णों की कन्या हेतु खुद पात्र बताना और अन्य वर्गों को ब्राह्मण कन्या हेतु अपात्र मानना, हर पाप (अपराध) का दंड ब्राह्मण को दान बताने दुष्परिणाम सामाजिक कटुता और द्वेष के रूप में हुआ।
***
लघुकथा:
अर्थ
*
हमने बच्चे को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बिहार के छोटे से कसबे से बेंगलोर जैसे शहर में आया। इतने साल पढ़ाई की। इतनी अच्छी कंपनी में इतने अच्छे वेतन पर है, देश-विदेश घूमता है। गाँव में खेती भी हैं और यहाँ भी पिलोट ले लिया है। कितनी ज्यादा मँहगाई है, १ करोड़ से कम में क्या बनेगा मकान? बेटी भी है ब्याहने के लिये, बाकी आप खुद समझदार हैं।
आपकी बेटी पढ़ी-लिखी है,सुन्दर है, काम करती है सो तो ठीक है, माँ-बाप पैदा करते हैं तो पढ़ाते-लिखाते भी हैं। इसमें खास क्या है? रूप-रंग तो भगवान का दिया है, इसमें आपने क्या किया? ईनाम - फीनाम का क्या? इनसे ज़िंदगी थोड़े तेर लगती है। इसलिए हमने बबुआ को कुछ नई करने दिया। आप तो समझदार हैं, समझ जायेंगे।
हम तो बाप-दादों का सम्मान करते हैं, जो उन्होंने किया वह सब हम भी करेंगे ही। हमें दहेज़-वहेज नहीं चाहिए पर अपनी बेटी को आप दो कपड़ों में तो नहीं भेज सकते? आप दोनों कमाते हैं, कोई कमी नहीं है आपको, माँ-बाप जो कुछ जोड़ते हैं बच्चियों के ही तो काम आता है। इसका चचेरा भाई बाबू है ब्याह में बहुरिया कर और मकान लाई है। बाकी तो आप समझदार हैं।
जी, लड़का क्या बोलेगा? उसका क्या ये लड़की दिखाई तो इसे पसंद कर लिया, कल दूसरी दिखाएंगे तो उसे पसंद कर लेगा। आई. आई. टी. से एम. टेक. किया है,इंटर्नेशनल कंपनी में टॉप पोस्ट पे है तो क्या हुआ? बाप तो हमई हैं न। ये क्या कहते हैं दहेज़ के तो हम सख्त खिलाफ हैं। आप जो हबी करेंगे बेटी के लिए ही तो करेंगे अब बेटी नन्द की शादी में मिला सामान देगई तो हम कैसे रोकेंगे? नन्द तो उसकी बहिन जैसी ही होगी न? घर में एक का सामान दूसरे के काम आ ही जाता है। बाकि तो आप खुद समझदार हैं।
मैं तो बहुत कोशिश करने पर भी नहीं समझ सका, आप समझें हों तो बताइये समझदार होने का अर्थ।
***
दोहा
*
अमित ऊर्जा-पूर्ण जो, होता वही अशोक
दस दिश पाता प्रीति-यश, कोई न सकता रोक
*
कतरा-कतरा दर्द की, करे अर्चना कौन?
बात राज की जानकर, समय हुआ क्यों मौन?
*
अमित ऊर्जा-पूर्ण जो, होता वही अशोक
दस दिश पाता प्रीति-यश, सका न कोई रोक
*
कतरा-कतरा दर्द की, करे अर्चना कौन?
बात राज की जानकर, समय हुआ क्यों मौन?
*
एक नयन में अश्रु बिंदु है, दूजा जलता दीप
इस कोरोना काल में, मुक्ता दुःख दिल सीप
*
गर्व पर्व पर हम करें, सबका हो उत्कर्ष
पर्व गर्व हम पर करे, दें औरों को हर्ष
*
श्रमजीवी के अधर पर, जब छाए मुस्कान
तभी समझना पर्व को, सके तनिक पहचान
*
झोपड़-झुग्गी भी सके, जब लछमी को पूज
तभी भवन में निरापद, होगी भाई दूज
***
मुक्तक
*
गुजारी उम्र सोकर ही, न अब तक जाग पाए हैं।
नहीं पग लक्ष्य को पहचान या अनुराग पाए हैं।।
बने अपने; न वो अपने रहे, पर याद आते हैं-
नहीं सुख को सुहाए हैं, न दुख-गम त्याग पाए हैं।।
*
अर्णव अरुण न रोके रुकता
कौन गह सके थाह।
तमहर अरुणचूर सह कहता
कर सच की परवाह।।
निज पथ चुन, चलता रह अनथक-
चुप रहकर दुख-दाह।।
*
स्वर्ण-रजत माटी मलय, पर्वत कब दें साथ?
'सलिल' मोह तज बुझाता, प्यास गहें जब हाथ।।
नहीं गर्व को सुहाता, बने नम्र या दीन-
तृप्ति तभी मिलती सखे!, जब होता नत माथ।
*
गाओ कोई राग, दुखी मन जो बहलाए।
लगे हृदय पर घाव, स्नेह से हँस सहलाए।।
शब्द-ब्रह्म आराध, कह रही है हर दिशा।
सलिल संग अखिलेश, पूर्णिमा है हर निशा।।
*
पुष्पाया है जीवन जिसका, उसका वंदन आज।
रहे पटल पर अग्र सुशोभित, शत अभिनंदन आज।।
स्वाति संग पा हों सब मोती,
मम नंदन हो आज-
सलिल-वृष्टि हो, पुष्प-वृष्टि हो,
मस्तक चंदन राज।।
*
जो कड़वी मीठी वही, जो लेता सच जान
श्वास-श्वास रस-खान सम, होता वही सुजान
मंजिल पाए बिन नहीं, रुकना यदि लें ठान
बनें सहायक विहँसकर, नटखट हो भगवान
*
नेह नर्मदा सलिल से, सिंचित हृदय प्रदेश
विंध्य-सतपुड़ा मेखला, प्रमुदित रहे हमेश
वाल्मीकि ग्वालिप तपी, सांदीपन जाबालि
बाण कालि की यह धरा,
शिव-हरि दें संदेश
*
कान्ह-हृदय ने मौन पुकारा श्री राधे।
कालिंदी जल ने उच्चारा श्री राधे।।
कुंज करील, कदंब बजाते कर-पल्लव-
गोवर्धन गिरि का जयकारा श्री राधे।।
*
शिखर न पहुँचे शून्य तक, यही समय का सत्य।
अकड़ गिरे हो शून्य ही, मात्र यही भवितव्य।।
अहंकार को भूलकर, रहो मिलाए हाथ
दिल तब ही मिल सकेंगे, याद रखो गंतव्य
*
गुरु गोविंद सिंह को नमन, सबको माना एक।
चुनकर प्यारे पाँच जो, थे बलिदानी नेक।।
थे बलिदानी नेक, न जिनको तनिक मोह था।
धर्म साध्य आतंक-राज्य प्रति अडिग द्रोह था।।
दिए अगिन बलिदान, हरा-भरा हो तब चमन।
सबको माना एक, गुरु गोविंद सिंह को नमन।।
*
मुक्तिका
४ (१२२२)
*
चले आओ; चले आओ; जहाँ भी हो; चले आओ
नहीं है गैर कोई भी; खुला है द्वार आ जाओ
सगा कोई नहीं है खास; कोई भी न बेगाना
रुचे जो गीत वो गाओ, उठो! जी जान से गाओ
करेंगी मंज़िलें सज्दा, न नाउम्मीद हो जाना
बढ़ो आगे; न पीछे देखना; रुस्वा न हो जाओ
जिएँ पुष्पा हजारों साल; बागों में बहारों सी
रहे संतोष साँसों को, हमेशा मौन-मुस्काओ
नहीं तन्हा कभी कोई; रहेंगी साथ यादें तो
दवा संजीवनी हैं ये, इन्हीं में हो फना जाओ।।
***
नवगीत:
राष्ट्रलक्ष्मी!
श्रम सीकर है
तुम्हें समर्पित
खेत, फसल, खलिहान
प्रणत है
अभियन्ता, तकनीक
विनत है
बाँध-कारखाने
नव तीरथ
हुए समर्पित
कण-कण, तृण-तृण
बिंदु-सिंधु भी
भू नभ सलिला
दिशा, इंदु भी
सुख-समृद्धि हित
कर-पग, मन-तन
समय समर्पित
पंछी कलरव
सुबह दुपहरी
संध्या रजनी
कोशिश ठहरी
आसें-श्वासें
झूमें-खांसें
अभय समर्पित
शैशव-बचपन
यौवन सपने
महल-झोपड़ी
मानक नापने
सूरज-चंदा
पटका-बेंदा
मिलन समर्पित
१-११-२०१९
***
एक रचना
हस्ती
*
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
थर्मोडायनामिक्स बताता
ऊर्जा बना न सकता कोई
बनी हुई जो ऊर्जा उसको
कभी सकेगा मिटा न कोई
ऊर्जा है चैतन्य, बदलती
रूप निरंतर पराप्रकृति में
ऊर्जा को कैदी कर जड़ता
भर सकता है कभी न कोई
शब्द मनुज गढ़ता अपने हित
ऊर्जा करे न जल्दी-देरी
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
तू-मैं, यह-वह, हम सब आये
ऊर्जा लेकर परमशक्ति से
निभा भूमिका रंगमंच पर
वरते करतल-ध्वनि विभक्ति से
जा नैपथ्य बदलते भूषा
दर्शक तब भी करें स्मरण
या सराहते अन्य पात्र को
अनुभव करते हम विरक्ति से
श्वास गली में आस लगाती
रोज सवेरे आकर फेरी
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
*
साँझ अस्त होता जो सूरज
भोर उषा-संग फिर उगता है
रख अनुराग-विराग पूर्ण हो
बुझता नहीं सतत जलता है
पूर्ण अंश हम, मिलें पूर्ण में
किंचित कहीं न कुछ बढ़ता है
अलग पूर्ण से हुए अगर तो
नहीं पूर्ण से कुछ घटता है
आना-जाना महज बहाना
नियति हुई कब किसकी चेरी
हस्ती ख़त्म न होगी तेरी
***
दोहा
*
अमित ऊर्जा-पूर्ण जो, होता वही अशोक
दस दिश पाता प्रीति-यश, कोई न सकता रोक
*
कतरा-कतरा दर्द की, करे अर्चना कौन?
बात राज की जानकर, समय हुआ क्यों मौन?
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पुस्तक सलिला –
‘मैं सागर में एक बूँद सही’ प्रकृति से जुड़ी कविताएँ
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – मैं सागर में एक बूँद सही, बीनू भटनागर, काव्य संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-७४०८-९२५-०, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, सजिल्द, पृष्ठ २१५, मूल्य ४५०/-, अयन प्रकाशन १/२० महरौली नई दिल्ली , दूरभाष २६६४५८१२, ९८१८९८८६१३, कवयित्री सम्पर्क binubhatnagar@gmail.com ]
*
कविता की जाती है या हो जाती है? यह प्रश्न मुर्गी पहले हुई या अंडा की तरह सनातन है. मनुष्य का वैशिष्ट्य अन्य प्राणियों की तुलना में अधिक संवेदनशील तथा अधिक अभिव्यक्तिक्षम होना है. ‘स्व’ के साथ-साथ ‘सर्व’ को अनुभूत करने की कामना वश मनुष्य अज्ञात को ज्ञात करता है तथा ‘स्व’ को ‘पर’ के स्थान पर कल्पित कर तदनुकूल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति कर उसे ‘साहित्य’ अर्थात सबके हित हेतु किया कर्म मानता है. प्रश्न हो सकता है कि किसी एक की अनुभूति वह भी कल्पित सबके लिए हितकारी कैसे हो सकती है? उत्तर यह कि रचनाकार अपनी रचना का ब्रम्हा होता है. वह विषय के स्थान पर ‘स्व’ को रखकर ‘आत्म’ का परकाया प्रवेश कर ‘पर’ हो जाता है. इस स्थिति में की गयी अनुभूति ‘पर’ की होती है किन्तु तटस्थ विवेक-बुद्धि ‘पर’ के अर्थ/हित’ की दृष्टि से चिंतन न कर ‘सर्व-हित’ की दृष्टि से चिंतन करता है. ‘स्व’ और ‘पर’ का दृष्टिकोण मिलकर ‘सर्वानुकूल’ सत्य की प्रतीति कर पाता है. ‘सर्व’ का ‘सनातन’ अथवा सामयिक होना रचनाकार की सामर्थ्य पर निर्भर होता है.
इस पृष्ठभूमि में बीनू भटनागर की काव्यकृति ‘मैं सागर में एक बूँद सही’ की रचनाओं से गुजरना प्रकृति से दूर हो चुकी महानगरीय चेतना को पृकृति का सानिंध्य पाने का एक अवसर उपलब्ध कराती है. प्रस्तावना में श्री गिरीश पंकज इन कविताओं में ‘परंपरा से लगाव, प्रकृति के प्रति झुकाव और जीवन के प्रति गहरा चाव’ देखते हैं. ‘अवर स्वीटेस्ट सोंग्स आर दोज विच टेल ऑफ़ सैडेस्ट थौट’ कहें या ‘हैं सबसे मधुर वे गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ यह निर्विवाद है कि कविता का जन्म ‘पीड़ा’से होता है. मिथुनरत क्रौन्च युग्म को देख, व्याध द्वारा नर का वध किये जाने पर क्रौंची के विलाप से द्रवित महर्षि वाल्मीकि द्वारा प्रथम काव्य रचना हो, या हिरनी के शावक का वध होने पर मातृ-ह्रदय के चीत्कार से निसृत प्रथम गजल दोनों दृष्टांत पीड़ा और कविता का साथ चोली दामन का सा बताती हैं. बीनू जी की कवितओं में यही ‘पीड़ा’ पिंजरे के रूप में है.
कोई रचनाकार अपने समय को जीता हुआ अतीत की थाती ग्रहण कर भविष्य के लिए रचना करता है. बीनू जी की रचनाएँ समय के द्वन्द को शब्द देते हुए पाठक के साथ संवाद कर लेती हैं. सामयिक विसंगतियों का इंगित करते समय सकारात्मक सोच रख पाना इन कविताओं की उपादेयता बढ़ाता है. सामान्य मनुष्य के व्यक्तित्व के अंग चिंतन, स्व, पर, सर्व, अनुराग, विराग, द्वेष, उल्लास, रुदन, हास्य आदि उपादानों के साथ गूँथी हुई अभिव्यक्तियों की सहज ग्राह्य प्रस्तुति पाठक को जोड़ने में सक्षम है. तर्क –सम्मतता संपन्न कवितायेँ ‘लय’ को गौड़ मानती है किन्तु रस की शून्यता न होने से रचनाएँ सरस रह सकी हैं. दर्शन और अध्यात्म, पीड़ा, प्रकृति और प्रदूषण, पर्यटन, ऋतु-चक्र, हास्य और व्यंग्य, समाचारों की प्रतिक्रिया में, प्रेम, त्यौहार, हौसला, राजनीति, विविधा १-२ तथा हाइकु शीर्षक चौदह अध्यायों में विभक्त रचनाएँ जीवन से जुड़े प्रश्नों पर चिंतन करने के साथ-साथ बहिर्जगत से तादात्म्य स्थापित कर पाती हैं.
संस्कृत काव्य परंपरा का अनुसरण करती बीनू जी देव-वन्दना सूर्यदेव के स्वागत से कर लेती हैं. ‘अहसास तुम्हारे आने का / पाने से ज्यादा सुंदर है’ से याद आती हैं पंक्तियाँ ‘जो मज़ा इन्तिज़ार में है वो विसाले-यार में नहीं’. एक ही अनुभूति को दो रचनाकारों की कहन कैसे व्यक्त करती है? ‘सारी नकारात्मकता को / कविता की नदी में बहाकर / शांत औत शीतल हो जाती हूँ’ कहती बीनू जी ‘छत की मुंडेर पर चहकती / गौरैया कहीं गुम हो गयी है’ की चिंता करती हैं. ‘धूप बेचारी / तरस रही है / हम तक आने को’, ‘धरती के इस स्वर्ग को बचायेंगे / ये पेड़ देवदार के’, ‘प्रथम आरुषि सूर्य की / कंचनजंघा पर नजर पड़ी तो / चाँदी के पर्वत को / सोने का कर गयी’ जैसी सहज अभिव्यक्ति कर पाठक मन को बाँध लेती हैं.
छंद मुक्त कविता जैसी स्वतंत्रता छांदस कविता में नहीं होती. राजनैतिक दोहे शीर्षकांतर्गत पंक्तियों में दोहे के रचना विधान का पालन नहीं किया गया है. दोहा १३-११ मात्राओं की दो पंक्तियों से बनता है जिनमें पदांत गुरु-लघु होना अनिवार्य है. दी गयी पंक्तियों के सम चरणों में अंत में दो गुरु का पदांत साम्य है. दोहा शीर्षक देना पूरी तरह गलत है.
चार राग के अंतर्गत भैरवी, रिषभ, मालकौंस और यमन का परिचय मुक्तक छंद में दिया गया है. अंतिम अध्याय में जापानी त्रिपदिक छंद (५-७-५ ध्वनि) का समावेश कृति में एक और आयाम जोड़ता है. भीगी चुनरी / घनी रे बदरिया / ओ संवरिया!, सावन आये / रिमझिम फुहार / मेघ गरजे, तपती धरा / जेठ का है महीना / जलते पाँव, पूस की सर्दी / ठंडी बहे बयार / कंपकंपाये, मन-मयूर / मतवाला नाचता / सांझ-सकारे, कडवे बोल / करेला नीम चढ़ा / आदत छोड़ आदि में प्रकृति चित्रण बढ़िया है. तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ अंग्रेजी-उर्दू शब्दों का बेहिचक प्रयोग भाषा को रवानगी देता है.
बीनू जी की यह प्रथम काव्य कृति है. पाठ्य अशुद्धि से मुक्त न होने पर भी रचनाओं का कथ्य आम पाठक को रुचेगा. शिल्प पर कथ्य को वरीयता देती रचनाएँ बिम्ब, प्रतीक, रूपक और अलंकार अदि का यथास्थान प्रयोग किये जाने से सरस बन सकी हैं. आगामी संकलनों में बीनू जी का कवि मन अधिक ऊँची उड़ान भरेगा.
***
लघुकथा:
अर्थ
*
हमने बच्चे को पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बिहार के छोटे से कसबे से बेंगलोर जैसे शहर में आया। इतने साल पढ़ाई की। इतनी अच्छी कंपनी में इतने अच्छे वेतन पर है, देश-विदेश घूमता है। गाँव में खेती भी हैं और यहाँ भी पिलोट ले लिया है। कितनी ज्यादा मँहगाई है, १ करोड़ से कम में क्या बनेगा मकान? बेटी भी है ब्याहने के लिये, बाकी आप खुद समझदार हैं।
आपकी बेटी पढ़ी-लिखी है,सुन्दर है, काम करती है सो तो ठीक है, माँ-बाप पैदा करते हैं तो पढ़ाते-लिखाते भी हैं। इसमें खास क्या है? रूप-रंग तो भगवान का दिया है, इसमें आपने क्या किया? ईनाम - फीनाम का क्या? इनसे ज़िंदगी थोड़े तेर लगती है। इसलिए हमने बबुआ को कुछ नई करने दिया। आप तो समझदार हैं, समझ जायेंगे।
हम तो बाप-दादों का सम्मान करते हैं, जो उन्होंने किया वह सब हम भी करेंगे ही। हमें दहेज़-वहेज नहीं चाहिए पर अपनी बेटी को आप दो कपड़ों में तो नहीं भेज सकते? आप दोनों कमाते हैं, कोई कमी नहीं है आपको, माँ-बाप जो कुछ जोड़ते हैं बच्चियों के ही तो काम आता है। इसका चचेरा भाई बाबू है ब्याह में बहुरिया कर और मकान लाई है। बाकी तो आप समझदार हैं।
जी, लड़का क्या बोलेगा? उसका क्या ये लड़की दिखाई तो इसे पसंद कर लिया, कल दूसरी दिखाएंगे तो उसे पसंद कर लेगा। आई. आई. टी. से एम. टेक. किया है,इंटर्नेशनल कंपनी में टॉप पोस्ट पे है तो क्या हुआ? बाप तो हमई हैं न। ये क्या कहते हैं दहेज़ के तो हम सख्त खिलाफ हैं। आप जो हबी करेंगे बेटी के लिए ही तो करेंगे अब बेटी नन्द की शादी में मिला सामान देगई तो हम कैसे रोकेंगे? नन्द तो उसकी बहिन जैसी ही होगी न? घर में एक का सामान दूसरे के काम आ ही जाता है। बाकि तो आप खुद समझदार हैं।
मैं तो बहुत कोशिश करने पर भी नहीं समझ सका, आप समझें हों तो बताइये समझदार होने का अर्थ।
१.११.२०१५
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१-११-२०१६
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कोकिलकंठी गायिका श्रीमती तापसी नागराज के
जन्मोत्सव पर अनंत मंगल कामनाएँ
नर्मदा के तीर पर वाक् गयी व्याप सी
मुरली के सुर सजे संगिनी पा आप सी
वीणापाणी की कृपा सदा रहे आप पर
कीर्ति नील गगन छुए विनय यही तापसी
बेसुरों की बर्फ पर गिरें वज्र ताप सी
आपसे से ही गायन की करे समय माप सी
पश्चिम की धूम-बूम मिटा राग गुँजा दें
श्रोता-मन पर अमिट छोड़ती हैं छाप सी
स्वर को नमन कलम-शब्दों का अभिनन्दन लें
भावनाओं के अक्षत हल्दी जल चन्दन लें
रहें शारदा मातु विराजी सदा कंठ में
संजीवित हों श्याम शिलाएं, शत वंदन लें
१-११-२०१४
***
दोहा सलिला:
विवाह- एक दृष्टि
द्वैत मिटा अद्वैत वर...
*
रक्त-शुद्धि सिद्धांत है, त्याज्य- कहे विज्ञान।
रोग आनुवंशिक बढ़ें, जिनका नहीं निदान।।
पितृ-वंश में पीढ़ियाँ, सात मानिये त्याज्य।
मातृ-वंश में पीढ़ियाँ, पाँच नहीं अनुराग्य।।
नीति:पिताक्षर-मिताक्षर, वैज्ञानिक सिद्धांत।
नहीं मानकर मिट रहे, असमय ही दिग्भ्रांत।।
सहपाठी गुरु-बहिन या, गुरु-भाई भी वर्ज्य।
समस्थान संबंध से, कम होता सुख-सर्ज्य।।
अल्ल गोत्र कुल आँकना, सुविचारित मर्याद।
तोड़ें पायें पीर हों, त्रस्त करें फ़रियाद।।
क्रॉस-ब्रीड सिद्धांत है, वैज्ञानिक चिर सत्य।
वर्ण-संकरी भ्रांत मत, तजिए- समझ असत्य।।
किसी वृक्ष पर उसी की, कलम लगाये कौन?
नहीं सामने आ रहा, कोई सब हैं मौन।।
आपद्स्थिति में तजे, तोड़े नियम अनेक।
समझें फिर पालन करें, आगे बढ़ सविवेक।।
भिन्न विधाएँ, वंश, कुल, भाषा, भूषा, जात।
मिल- संतति देते सबल, जैसे नवल प्रभात।।
एक्य समझदारी बढ़े, बने सहिष्णु समाज।
विश्व-नीड़ परिकल्पना, हो साकारित आज।।
'सलिल' ब्याह की रीति से, दो अपूर्ण हों पूर्ण।
द्वैत मिटा अद्वैत वर, रचें पूर्ण से पूर्ण।।
१-११-२०१२

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