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रविवार, 16 मार्च 2025

मार्च १६, रामकिंकर, दोहा यमक, श्रृंगार गीत, तुम, मुक्तिका, तुम, अपराजिता

सलिल सृजन मार्च १६
*
अपराजिता
० 
ओ मेरी अपराजिता! तुमको पा जग-जयी मैं 
जड़ माटी में जमाकर
हुईं अंकुरित-पल्लवित। 
धूप-छाँव हँसकर सहे-
हँस भव-बाधा की विजित।
ओ मेरी अपराजिता! तुमको पा निर्भयी  मैं 
.  
श्वेत-नील छवि मुग्धकर 
सुख देती; दुख दग्ध कर। 
मुस्कातीं मन मोहतीं-   
बाँहों में आबद्ध कर। 
ओ मेरी अपराजिता! तुमको पा तन्मयी मैं 
.  
हरि-भरी आशा-लता 
हर लेती हर आपदा। 
धनी न मुझ सा अन्य है-
तुम मम अक्षय संपदा। 
ओ मेरी अपराजिता! तुमको पा सुहृदयी मैं 
१५.३ २०२५ 
.  
००० 
स्मरण युगतुलसी
मीमांसा अद्भुत नई,
शब्द-शब्द में अर्थ नव,
युग तुलसी ने बताए।
गूढ़ तत्व अतिशय सरल,
परस भक्ति का पा हुए,
हुईं सहायक शारदा।
मानस मानस में बसी,
जन मानस में पैठकर,
मानुस को मानुस करे।
भाव-भक्ति-रस नर्मदा,
दसों दिशा में बहाकर,
धन्य रामकिंकर हुए।
जबलपुर से अवधपुरी,
राम भक्ति की पताका,
युगतुलसी फहरा गए।
हनुमत कृपा अपार पा,
राम नाम जप साधना,
कर किंकर प्रभु प्रिय हुए।
राम भक्ति मंदाकिनी,
संस्कारधानी नहा,
युग तुलसी मय हो गई।
मिली मैथिली शरण जब,
हनुमत-किंकर धन्य हो,
रमारमण में रम गए।
जनकनंदिनी जानकी,
सदय रहीं सुत पर सदा,
राम कृपा अमृत पिला।
(जनक छंद)
१६.३.२०२४
•••
गले मिलें दोहा यमक
*
चिंता तज चिंतन करें, दोहे मोहें चित्त
बिना लड़े पल में करें, हर संकट को चित्त
*
दोहा भाषा गाय को, गहा दूध सम अर्थ
दोहा हो पाया तभी, सचमुच छंद समर्थ
*
सरिता-सविता जब मिले, दिल की दूरी पाट
पानी में आगी लगी, झुलसा सारा पाट
*
राज नीति ने जब किया, राजनीति थी साफ़
राज नीति को जब तजे, जनगण करे न माफ़
*
इह हो या पर लोक हो, करके सिर्फ न फ़िक्र
लोक नेक नीयत रखे, तब ही हो बेफ़िक्र
*
धज्जी उड़ा विधान की, सभा कर रहे व्यर्थ
भंग विधान सभा करो, करो न अर्थ-अनर्थ
*
सत्ता का सौदा करें, सौदागर मिल बाँट
तौल रहे हैं गड्डियाँ, बिना तराजू बाँट
*
किसका कितना मोल है, किसका कितना भाव
मोलभाव का दौर है, नैतिकता बेभाव
*
योगी भूले योग को, करें ठाठ से राज
हर संयोग-वियोग का, योग करें किस व्याज?
*
जनप्रतिनिधि जन के नहीं, प्रतिनिधि दल के दास
राजनीति दलदल हुई, जनता मौन-उदास
*
कब तक किसके साथ है, कौन बताये कौन?
प्रश्न न ऐसे पूछिए, जिनका उत्तर मौन
१६-३-२०२०
***
दोहा दुनिया
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
१६-३-२०१८
***
श्रृंगार गीत
तुम बिन
*
तुम बिन नेह, न नाता पगता
तुम बिन जीवन सूना लगता
*
ही जाती तब दूर निकटता
जब न बाँह में हृदय धड़कता
दिपे नहीं माथे का सूरज
कंगन चुभे, न अगर खनकता
तन हो तन के भले निकट पर
मन-गोले से मन ही दगता
*
फीकी होली, ईद, दिवाली
हों न निगाहें 'सलिल' सवाली
मैं-तुम हम बनकर हर पल को
बाँटें आजीवन खुशहाली
'मावस हो या पूनम लेकिन
आँख मूँद, मन रहे न जगता
*
अपना नाता नेह-खज़ाना
कभी खिजाना, कभी लुभाना
रूठो तो लगतीं लुभावनी
मानो तो हो दिल दीवाना
अब न बनाना कोई बहाना
दिल न कहे दिलवर ही ठगता
***
मुक्तिका :
मापनी- २१२२ २१२२ २१२
*
तू न देगा, तो न क्या देगा खुदा?
है भरोसा न्याय ही देगा खुदा।
*
एक ही है अब गुज़ारिश वक़्त से
एक-दूजे से न बिछुड़ें हम खुदा।
*
मुल्क की लुटिया लुटा दें लूटकर
चाहिए ऐसे न नेता ऐ खुदा!
*
तब तिरंगे के लिये हँस मर मिटे
हाय! भारत माँ न भाती अब खुदा।
*
नौजवां चाहें न टोंके बाप-माँ
जोश में खो होश, रोएँगे खुदा।
*
औरतों को समझ-ताकत कर अता
मर्द की रहबर बनें औरत खुदा।
*
लौ दिए की काँपती चाहे रहे
आँधियों से बुझ न जाए ऐ खुदा!
***
(टीप- 'हम वफ़ा करके भी तन्हा रह गए' गीत इसी मापनी पर है.)
१६-३-२०१६
***
मुक्तक
नव संवत्सर मंगलमय हो.
हर दिन सूरज नया उदय हो.
सदा आप पर ईश सदय हों-
जग-जीवन में 'सलिल' विजय हो..
***
गीत
बजा बाँसुरी
झूम-झूम मन...
*
जंगल-जंगल
गमक रहा है.
महुआ फूला
महक रहा है.
बौराया है
आम दशहरी-
पिक कूकी, चित
चहक रहा है.
डगर-डगर पर
छाया फागुन...
*
पियराई सरसों
जवान है.
मनसिज ताने
शर-कमान है.
दिनकर छेड़े
उषा लजाई-
प्रेम-साक्षी
चुप मचान है.
बैरन पायल
करती गायन...
*
रतिपति बिन रति
कैसी दुर्गति?
कौन फ़िराये
बौरा की मति?
दूर करें विघ्नेश
विघ्न सब-
ऋतुपति की हो
हे हर! सद्गति.
गौरा माँगें वर
मन भावन...
१६-३-२०१०

*** 

रविवार, 23 फ़रवरी 2025

फरवरी २३, सॉनेट, लौकिक छन्द, शिव-सोरठा, श्रृंगार गीत, सद्यस्नाता, दोहा माटी, धरती,

सलिल सृजन
*
पूर्णिका 
लगी आग ज्यों पलाश वन में 
त्यों दहके अपना मन, तन में 
.
मत पूछो क्यों लगी न अब तक 
प्रभु से लगन न किसी लगन में 
जग उठ मेहनत करता चल रे! 
शुभ हर कोशिश सभी सगन में 
शंका की कुछ जगह नहीं है 
धुन डूबे मन हुए मगन में 
देख रही खूबी ही खूबी 
भोली सजनी निज साजन में 
होली का आनंद अनूठा 
वैमनस्य के अग्नि-दहन में 
फेर समय का नीति-धर्म का 
सूर्य-चंद्र है सलिल गहन में 
२३.२.२०२५ 
०००
इटेलियन सॉनेट
महावेगा
*
कामना होती महावेगा,
वास मत हो वासना का तन,
याचना तज यातना सह जन,
मातृका पूजित महावेगा।
क्रुद्ध होते जब महादेवा,
दग्ध करते काम पल भर में,
काम कर निष्काम युग हर में,
धर्म-धारा नव बहावेगा।
नर्मदा में यदि नहावेगा,
स्नेह सुरसरि ज़िंदगी होगी,
खिलावेगा शत सृजन शतदल।
व्यर्थ क्यों आँसू बहावेगा?
संयमित होता सदा योगी,
नहावेगा स्वेद जल निर्मल।
२३.२.२०२४
***
मुक्तक
मिलें रस-लीन जब रचना समझ लेना सिंगारी हैं।
करे संचित न खो रस-निधि, सकल श्वासें पुजारी हैं।।
उठा ब्रज-रज बना चंदन लगा मस्तक से मन हुलसे-
सलिल रस-खान; नत हो झाँकते राधा बिहारी हैं।।
२३-२-२०२३
***
छंद विमर्श
सात लोक और लौकिक छन्द
अध्यात्म शास्त्र में वर्णित सात लोक भू-लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, तपः लोक, महः लोक, जनः लोक और सत्य लोक हैं। ये किसी ग्रह, नक्षत्र में स्थित अथवा अधर में लटके हुए स्थान नहीं, स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर बढ़ने की स्थिति मात्र हैं। पिंगल शास्त्र में सप्त लोकों के आधार पर सात मात्राओं के छंदों को 'लौकिक छंद' कहा गया है।
सामान्य दृष्टि से भूलोक में रेत, पत्थर, वृक्ष, वनस्पति, खनिज, प्राणी, जल आदि पदार्थ हैं। इसके भीतर की स्थिति है आँखों से नहीं, सूक्ष्मदर्शी यन्त्र से देखी-समझी जा सकती है। हवा में मिली गैसें, जीवाणु आदि इस श्रेणी में हैं। इससे गहरी अणु सत्ता के विश्लेषण में उतरने पर विभिन्न अणुओं-परमाणुओं के उड़ते हुए अन्धड़ और अदलते-बदलते गुच्छक हैं। अणु सत्ता का विश्लेषण करने पर उसके सूक्ष्म घटक पदार्थ नहीं,विद्युत स्फुल्लिंग मात्र दृष्टिगोचर होते हैं। तदनुसार ऊर्जा प्रवाह ही संसार में एकमात्र विद्यमान सत्ता प्रतीत होती है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हुए हम कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं किंतु स्थान परिवर्तन नहीं होता। अपने इसी स्थान में यह स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अति सूक्ष्म, अति सूक्ष्म से महा सूक्ष्म की स्थिति बनती जाती है।
सात लोकों का स्थान कहीं बाहर या अलग-अलग नहीं है। वे एक शरीर के भीतर अवयव, अवयवों के भीतर माँस-पेशियाँ, माँस-पेशियों के भीतर ज्ञान-तंतु, ज्ञान-तन्तुओं के भीतर मस्तिष्कीय विद्युत आदि की तरह हैं। वे एक के भीतर एक के क्रम से क्रमशः भीतर के भीतर-समाये, अनुभव किये जा सकते हैं। सात लोकों की सत्ता स्थूल लोक के भीतर ही सूक्ष्मतर-सूक्ष्मतम और अति सूक्ष्म होती गई है। सबका स्थान वही है जिसमें हम स्थित हैं। ब्रह्मांड के भीतर ब्रह्मांड की सत्ता परमाणु की मध्यवर्ती नाभिक के अन्तर्गत प्राप्त अति सूक्ष्म किन्तु विशाल ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करनेवाले ब्रह्म-बीज में प्राप्य है।
जीव की देह भी ब्रह्म शरीर का प्रतीक प्रतिनिधि (बीज) है। उसके भीतर भी सात लोक हैं। इन्हें सात शरीर (सप्त धातु-रस, रक्त, माँस, अस्थि, मज्जा, शुक्र, ओजस) कहा जाता है। भौतिक तन में छह धातुएँ हैं, सातवीं ओजस् तो आत्मा की ऊर्जा मात्र है। इनके स्थान अलग-अलग नहीं हैं। वे एक के भीतर एक समाये हैं। इसी तरह चेतना शरीर भी सात शरीरों का समुच्चय है। वे भी एक के भीतर एक के क्रम से अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं।
योग शास्त्र में इन्हें चक्रों का नाम दिया गया है। छह चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सातवाँ सहस्रार कमल। कहीं छह, कहीं सात की गणना से भ्रमित न हों। सातवाँ लोक सत्यलोक है। सत्य अर्थात् पूर्ण परमात्मा । इससे नीचे के लोक भी तथा साधना में प्रयुक्त होने वाले चक्र छ:-छ: ही हैं। सातवाँ सहस्रार कमल ब्रह्मलोक है। उस में शेष ६ लोक लय होते है। सात या छह के भेद-भाव को इस तरह समझा जा सकता है। देवालय सात मील दूर है। बीच में छह मील के पत्थर और सातवाँ मील पत्थर प्रत्यक्ष देवालय। छह गिने या सात इससे वस्तुस्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।
मनुष्य के सात शरीरों का वर्णन तत्ववेत्ताओं ने इस प्रकार किया हैं- (१) स्थूल शरीर-फिजिकल बाड़ी (२) सूक्ष्म शरीर इथरिक बॉडी (३) कारण शरीर-एस्ट्रल बॉडी (४)मानस शरीर-मेन्टल बॉडी (५) आत्मिक शरीर-स्प्रिचुअल बॉडी (६) देव शरीर -कॉस्मिक बॉडी (७) ब्रह्म शरीर-वाडीलेस बॉडी।
सप्त धातुओं का बना भौतिक शरीर प्रत्यक्ष है। इसे देखा, छुआ और इन्द्रिय सहित अनुभव किया जा सकता है। जन्मतः प्राणी इसी कलेवर को धारण किये होता है। उनमें प्रायः इन्द्रिय चेतना जागृत होती है। भूख, सर्दी-गर्मी जैसी शरीरगत अनुभूतियाँ सक्षम रहती हैं। पशु शरीर आजीवन इसी स्थिति में रहते हैं। मनुष्य के सातों शरीर क्रमशः विकसित होते हैं। भ्रूण पड़ते ही सूक्ष्म मानव शरीर जागृत होने लगता है। इच्छाओं और सम्वेदनाओं के रूप में इसका विकास होता है। मानापमान, अपना-पराया, राग-द्वेष, सन्तोष-असन्तोष, मिलन-वियोग जैसे अनुभव भाव (सूक्ष्म) शरीर को होते हैं। बीज में से पहले अंकुर निकलता है, तब उसका विकास पत्तों के रूप में होता है। स्थूल शरीर को अंकुर और सूक्ष्म शरीर पत्ता कह सकते हैं। फिजिकल बॉडी यथास्थान बनी रहती है, पर उसमें नई शाखा भाव शरीर एस्ट्रल बॉडी के रूप में विकसित होती है।सातों शरीरों का अस्तित्व आत्मा के साथ-साथ ही है, पर उनका विकास आयु और परिस्थितियों के आधार पर धीमे अथवा तीव्र गति से स्वल्प-अधिक मात्रा में होता है।
तीसरा कारण शरीर विचार, तर्क, बुद्धि से सम्बन्धित है। इसका विकास, व्यावहारिक, सभ्यता और मान्यतापरक संस्कृति के आधार पर होता है। यह किशोरावस्था में प्रवेश करते-करते आरम्भ होता है और वयस्क होने तक अपने अस्तित्व का परिचय देने लगता है। बालक को मताधिकार १८ वर्ष की आयु में मिलता है। अल्प वयस्कता इसी अवधि में पहुँचने पर पूरी होती है। बारह से लेकर अठारह वर्ष की आयु में शरीर का काम चलाऊ विकास हो जाता है। यौन सम्वेदनाएँ इसी अवधि में जागृत होती हैं। सामान्य मनुष्य इतनी ही ऊँचाई तक बढ़ते हैं। फिजिकल-इथरिक और एस्ट्रल बॉडी के तीन वस्त्र पहनकर ही सामान्य लोग दरिद्रता में जीवन बिताते हैं। इसलिए सामान्यत: तीन शरीरों की ही चर्चा होती है। स्थूल , सूक्ष्म और कारण शरीरों की व्याख्या कर बात पूरी कर ली जाती है। प्रथम शरीर में शरीरगत अनुभूतियों का सुख-दुःख, दूसरे में भाव सम्वेदनाएँ और तीसरे में लोकाचार एवं यौनाचार की प्रौढ़ता विकसित होकर एक कामचलाऊ मनुष्य का ढाँचा खड़ा हो जाता है।
तीन शरीरों के बाद मनुष्य की विशिष्टताएँ आरम्भ होती हैं। मनस् शरीर में कलात्मक रसानुभूति होती है। कवित्व जगता है। कोमल सम्वेदनाएँ उभरती हैं। कलाकार, कवि, सम्वेदनाओं के भाव लोक में विचरण करने वाले भक्त-जन, दार्शनिक, करुणार्द्र, उदार, देश-भक्त इसी स्तर के विकसित होने से बनते हैं। यह स्तर उभरे तो पर विकृत बन चले तो व्यसन और व्याभिचार जन्य क्रीड़ा-कौतुकों में रस लेने लगता है। विकसित मनस् क्षेत्र के व्यक्ति असामान्य होते हैं। इस स्तर के लोग कामुक-रसिक हो सकते हैं। सूरदास, तुलसीदास जैसे सन्त अपने आरम्भिक दिनों में कामुक थे। वही ऊर्जा जब भिन्न दिशा में प्रवाहित हो तो सम्वेदनाएँ कुछ से कुछ करके दिखाने लगीं। महत्वाकाँक्षाएँ (अहंकार) इसी क्षेत्र में जागृत होती हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति भौतिक जीवन में तरह-तरह के महत्वपूर्ण प्रयास कर असाधारण प्रतिभाशाली कहलाते हैं। प्रतिभागी लोगों का मनस् तत्व प्रबल होता है। उन्हें मनस्वी भी कहा जा सकता है। बाल्मीक, अँगुलिमाल, अशोक जैसे महत्वाकांक्षी विकृत मनःस्थिति में घोर आतंकवादी रहे, पर जब सही दिशा में मुड़ गये तो उन्हें चोटी की सफलता प्राप्त करने में देर नहीं लगी। इसे मेन्टल बॉडी की प्रखरता एवं चमत्कारिता कहा जा सकता है।
पाँचवाँ शरीर-आत्मिक शरीर स्प्रिचुअल बॉडी अतीन्द्रिय शक्तियों का आवास होता है। अचेतन मन की गहरी परतें जिनमें दिव्य अनुभूतियाँ होती हैं। इसी पाँचवें शरीर से सम्बन्धित हैं। मैस्मरेज्म, हिप्नोटिज्म, टेलीपैथी, क्लैरेहवाइंस जैसे प्रयोग इसी स्तर के विकसित होने पर होते हैं । कठोर तन्त्र साधनाएँ एवं उग्र तपश्चर्याएँ इसी शरीर को परिपुष्ट बनाने के लिए की जाती हैं। संक्षेप में इसे ‘दैत्य’ सत्ता कहा जा सकता है। सिद्धि और चमत्कारों की घटनाएँ- संकल्प शक्ति के बढ़े-चढ़े प्रयोग इसी स्तर के समर्थ होने पर सम्भव होते हैं। सामान्य सपने सभी देखते हैं पर जब चेतना इस पाँचवे शरीर में जमी होती है तो किसी घटना का सन्देश देने वाले सपने भी दीख सकते हैं। उनमें भूत, भविष्य की जानकारियों तथा किन्हीं रहस्यमय तथ्यों का उद्घाटन भी होता है। भविष्यवक्ताओं, तान्त्रिकों एवं चमत्कारी सिद्धि पुरुषों की गणना पाँचवे शरीर की जागृति से ही सम्भव होती है। ऊँची मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य जमीन पर खड़े मनुष्य की तुलना में अधिक दूर की स्थिति देख सकता है। जमीन पर खड़ा आदमी आँधी का अनुभव तब करेगा जब वह बिलकुल सामने आ जायगी। पर मीनार पर बैठा हुआ मनुष्य कई मील दूर जब आँधी होंगी तभी उसकी भविष्यवाणी कर सकता है। इतने मील दूर वर्षा हो रही है। अथवा अमुक स्थान पर इतने लोग इकट्ठे हैं। इसका वर्णन वह कर सकता जो ऊँचे पर खड़ा है और आँखों पर दूरबीन चढ़ाये है, नीचे खड़े व्यक्ति के लिए यह सिद्धि चमत्कार है, पर मीनार पर बैठे व्यक्ति के लिए यह दूरदर्शन नितान्त सरल और स्वाभाविक है।
छठे शरीर को देव शरीर कहते हैं-यही कॉस्मिक बाड़ी है। ऋषि , तपस्वी, योगी इसी स्तर पर पहुँचने पर बना जा सकता है। ब्राह्मणों और सन्तों का भू-देव, भू-सुर नामकरण उनकी दैवी अन्तःस्थिति के आधार पर है। स्वर्ग और मुक्ति इस स्थिति में पहुँचने पर मिलनेवाला मधुर फल है। सामान्य मनुष्य चर्म-चक्षुओं से देखता है, पर देव शरीर में दिव्य चक्षु खुलते हैं और “सियाराम मय सब जग जानी” के विराट ब्रह्मदर्शन की मनःस्थिति बन जाती है। कण-कण में ईश्वरीय सत्ता के दर्शन होते हैं और इस दिव्य उद्यान में सर्वत्र सुगंध महकती प्रतीत होती हैं। परिष्कृत दृष्टिकोण ही स्वर्ग है। स्वर्ग में देवता रहते हैं। देव शरीर में जागृत मनुष्यों के अन्दर उत्कृष्ट चिन्तन और बाहर आदर्श कर्तृत्व सक्रिय रहता है। तदनुसार भीतर शान्ति की मनःस्थिति और बाहर सुख भरी परिस्थिति भरी-पूरी दृष्टिगोचर होती है। स्वर्ग इसी स्थिति का नाम है। जो ऐसी भूमिका में निर्वाह करते हैं। उन्हें देव कहते हैं। असुर मनुष्य और देव यह आकृति से तो एक किन्तु प्रकृति से भिन्न होते हैं।
भौतिकवादी लोक-मान्यताओं का ऐसे देव मानवों पर रत्ती भर प्रभाव नहीं पड़ता । वे निन्दा-स्तुति की, संयोग-वियोग की, हानि-लाभ की, मानापमान की लौकिक सम्वेदनाओं से बहुत ऊँचे उठ जाते हैं। लोक मान्यताओं को वे बाल-बुद्धि की दृष्टि से देखते हैं। लोभ-मोह, वासना-तृष्णा के भव-बन्धन सामान्य मनुष्यों को बेतरह जकड़कर कठपुतली की तरह नचाते हैं। छठवीं देव भूमिका में पहुँची देव आत्माएँ आदर्श और कर्त्तव्य मात्र को पर्याप्त मानती हैं। आत्मा और परमात्मा को सन्तोष देना ही उन्हें पर्याप्त लगता है। वे अपनी गतिविधियाँ निर्धारित करते समय लोक मान्यताओं पर तनिक भी ध्यान नहीं देते वरन् उच्चस्तरीय चेतना से प्रकाश ग्रहण करते हैं। इन्हें भव-बन्धनों से मुक्त-जीवन मुक्त कहा जाता है। मुक्ति या मोक्ष प्राप्त कर लेना इसी स्थिति का नाम है। यह छोटे शरीर में देव स्थिति में कॉस्मिक बॉडी में विकसित आत्माओं को उपलब्ध होता है।
सातवाँ ब्रह्म शरीर है। इसमें आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित होता है। वे शरीर झड़ जाते हैं जो किसी न किसी प्रकार भौतिक जगत से सम्बन्धित थे। उनका आदान-प्रदान प्रत्यक्ष संसार से चलता है। वे उससे प्रभावित होते और प्रभावित करते हैं। ब्रह्म शरीर का सीधा सम्बन्ध परमात्मा से होता है। उसकी स्थिति लगभग ब्रह्म स्तर की हो जाती है। अवतार इसी स्तर पर पहुँची हुई आत्माएँ हैं। लीला अवतरण में उनकी अपनी कोई इच्छा आकाँक्षा नहीं होती, वे ब्रह्मलोक में निवास करते हैं। ब्राह्मी चेतना किसी सृष्टि सन्तुलन के लिए भेजती है तो उस प्रयोजन को पूरा करके पुनः अपने लोक वापस लौट जाते हैं। ऐसे अवतार भारत में १० या २४ मान्य है। वस्तुतः उनकी गणना करना कठिन है। संसार के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न प्रयोजनों के लिए वे समय-समय पर विलक्षण व्यक्तित्व सहित उतरते हैं और अपना कार्य पूरा करके वापिस चले जाते हैं। यह स्थिति ‘अहम् ब्रह्मोसि’ सच्चिदानन्दोऽहम्, शिवोऽहम् सोऽहम्, कहने की होती है। उस चरम लक्ष्य स्थल पर पहुँचने की स्थिति को चेतना क्षेत्र में बिजली की तरह कोंधाने के लिए इन वेदान्त मन्त्रों का जप, उच्चारण एवं चिन्तन, मनन किया जाता है।
पाँचवें शरीर तक स्त्री-पुरुष का भेद, विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण तथा अगले जन्म में उसी लिंग का शरीर बनने की प्रक्रिया चलती है। उससे आगे के छठे और सातवें शरीर में विकसित होने पर यह भेदभाव मिट जाता है। तब मात्र एक आत्मा की अनुभूति होती है। स्त्री-पुरुष का आकर्षण-विकर्षण समाप्त हो जाता है। सर्वत्र एक ही आत्मा की अनुभूति होती है। अपने आपकी अन्तः स्थिति लिंग भेद से ऊपर उठी होती है यद्यपि जननेंद्रिय चिन्ह शरीर में यथावत् बने रहते हैं। यही बात साँसारिक स्थिति बदलने के कारण मन पर पड़ने वाली भली-बुरी प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में भी होती है। समुद्र में लहरें उठती-गिरती रहती हैं। नाविक उनके लिए हर्ष-शोक नहीं करता, समुद्री हलचलों का आनन्द लेता है। छठे शरीर में विकसित देवात्माएँ इस स्थिति से ऊपर उठ जाती हैं। उनका चेतना स्तर गीता में कहे गये 'स्थित प्रज्ञ ज्ञानी' की और उपनिषदों में वर्णित 'तत्वदर्शी' की बन जाती है। उसके आत्म सुख से संसार के किसी परिवर्तन में विक्षेप नहीं पड़ता। लोकाचार हेतु उपयुक्त लीला प्रदर्शन हेतु उसका व्यवहार चलता रहता है। यह छठे शरीर तक की बात है। सातवें शरीर वाले अवतारी (भगवान) संज्ञा से विभूषित होते हैं। इन्हें ब्रह्मात्मा, ब्रह्म पुरुष का सकते हैं। उन्हें ब्रह्म साक्षात्कार, ब्रह्म निर्वाण प्राप्त भी कहा जा सकता है।
छठे शरीर में स्थित देव मानव स्थितिवश शाप और वरदान देते हैं, पर सातवें शरीर वाले के पास शुभेच्छा के अतिरिक्त और कुछ बचता ही नहीं। उनके लिए पराया एवं बैरी कोई रहता ही नहीं। दोष, अपराधों को वे बाल बुद्धि मानते हैं और द्वेष दण्ड के स्थान पर करुणा और सुधार की बात भर सोचते हैं।
सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार पृथ्वी के नीचे सात पाताल लोक वर्णित हैं जिनमें पाताल अंतिम है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में पाताल लोक से सम्बन्धित असंख्य कहानियाँ, घटनायें तथा पौराणिक विवरण मिलते हैं। पाताल लोक को नागलोक का मध्य भाग बताया गया है, क्योंकि जल-स्वरूप जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब वहाँ पर्याप्त रूप से गिरती हैं। पाताल लोक में दैत्य तथा दानव निवास करते हैं। जल का आहार करने वाली आसुर अग्नि सदा वहाँ उद्दीप्त रहती है। वह अपने को देवताओं से नियंत्रित मानती है, क्योंकि देवताओं ने दैत्यों का नाश कर अमृतपान कर शेष भाग वहीं रख दिया था। अत: वह अग्नि अपने स्थान के आस-पास नहीं फैलती। अमृतमय सोम की हानि और वृद्धि निरंतर दिखाई पड़ती है। सूर्य की किरणों से मृतप्राय पाताल निवासी चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से पुन: जी उठते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार पूरे भू-मण्डल का क्षेत्रफल पचास करोड़ योजन है। इसकी ऊँचाई सत्तर सहस्र योजन है। इसके नीचे सात लोक इस प्रकार हैं-१. अतल, २. वितल, ३. सुतल, ४. रसातल, ५. तलातल, ६. महातल, ७. पाताल।
पौराणिक उल्लेख
पुराणों में पाताल लोक के बारे में सबसे लोकप्रिय प्रसंग भगवान विष्णु के अवतार वामन और पाताल सम्राट बलि का है। रामायण में अहिरावण द्वारा राम-लक्ष्मण का हरण कर पाताल लोक ले जाने पर श्री हनुमान के वहाँ जाकर अहिरावण वध करने का प्रसंग आता है। इसके अलावा भी ब्रह्माण्ड के तीन लोकों में पाताल लोक का भी धार्मिक महत्व बताया गया है।
२३-२-२०१९
***
(प्रकाशनाधीन छंद कोष से)
***
गीत -
हम
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
हमारे दिल में पली थी
सरफरोशी की तमन्ना।
हमारी गर्दन कटी थी
किंतु
किंचित भी झुकी ना।
काँपते थे शत्रु सुनकर
नाम जिनका
हम वही हैं।
कारगिल देता गवाही
मर अमर
होते हमीं हैं।
इंकलाबों की करी जयकार
हमने फेंककर बम।
झूल फाँसी पर गये
लेकिन
न झुकने दिया परचम।
नाम कह 'आज़ाद', कोड़े
खाये हँसकर
हर कहीं हैं।
नहीं धरती मात्र
देवोपरि हमें
मातामही हैं।
पैर में बंदूक बाँधे,
डाल घूँघट चल पड़ी जो।
भवानी साकार दुर्गा
भगत के
के संग थी खड़ी वो।
विश्व में ऐसी मिसालें
सत्य कहता हूँ
नहीं हैं।
ज़िन्दगी थीं या मशालें
अँधेरा पीती रही
रही हैं।
'नहीं दूँगी कभी झाँसी'
सुनो, मैंने ही कहा था।
लहू मेरा
शिवा, राणा, हेमू की
रग में बहा था।
पराजित कर हूण-शक को
मर, जनम लेते
यहीं हैं।
युद्ध करते, बुद्ध बनते
हमीं विक्रम, 'जिन'
हमीं हैं।
विश्व मित्र, वशिष्ठ, कुंभज
लोपामुद्रा, कैकयी, मय ।
ऋषभ, वानर, शेष, तक्षक
गार्गी-मैत्रेयी
निर्भय?
नाग पिंगल, पतंजलि,
नारद, चरक, सुश्रुत
हमीं हैं।
ओढ़ चादर रखी ज्यों की त्यों
अमल हमने
तही हैं।
देवव्रत, कौंतेय, राघव
परशु, शंकर अगम लाघव।
शक्ति पूजित, शक्ति पूजी
सिय-सती बन
जय किया भव।
शून्य से गुंजित हुए स्वर
जो सनातन
हम सभी हैं।
नाद अनहद हम पुरातन
लय-धुनें हम
नित नयी हैं।
हमीं भगवा, हम तिरंगा
जगत-जीवन रंग-बिरंगा।
द्वैत भी, अद्वैत भी हम
हमीं सागर,
शिखर, गंगा।
ध्यान-धारी, धर्म-धर्ता
कम-कर्ता
हम गुणी हैं।
वृत्ति सत-रज-तम न बाहर
कहीं खोजो,
त्रय हमीं हैं।
भूलकर मत हमें घेरो
काल को नाहक न टेरो।
अपावन आक्रांताओं
कदम पीछे
हटा फेरो।
बर्फ पर जब-जब
लहू की धार
सरहद पर बही हैं।
कहानी तब शौर्य की
अगणित, समय ने
खुद कहीं हैं।
हम वही हैं,
यह न भूलो
झट उठो आकाश छू लो।
बता दो सारे जगत को
यह न भूलो
हम वही है।
***
मुक्तिका:
.
गीतों से अनुराग न होता
जीवन कजरी-फाग न होता
रास आस से कौन रचाता?
मौसम पहने पाग न होता
निशा उषा संध्या से मिलता
कैसे सूरज आग न होता?
बाट जोहता प्रिय प्रवास की
मन-मुँडेर पर काग न होता
सूनी रहती सदा रसोई
गर पालक का साग न होता
चंदा कहलातीं कैसे तुम
गर निष्ठुरता-दाग न होता?
गुणा कोशिशों का कर पाते
अगर भाग में भाग न होता
नागिन क्वारीं मर जाती गर
बीन सपेरा नाग न होता
'सलिल' न होता तो सच मानो
बाट घाट घर बाग़ न होता
***
***
शिव-सोरठावली
*
रख शंकर से आस, हर शंका को दूर कर।
यदि मन में विश्वास, श्रृद्धा-शिवा सदय रहें।।
*
सविता रक्त सरोज, शिव नीला आकाश हैं।।
देतीं जीवन-ओज, रश्मि-उमा नित नमन कर।।
*
विष्णु जीव की देह, शिव जीवों में प्राण है।
जीवन जिएँ विदेह, ब्रम्हा मति को जानिए।।
*
रमा देह का रूप, उमा प्राण की चेतना।
जो पाए हो भूप, शारद मति की तीक्ष्णता।।
*
पठन विष्णु को जान, चिंतन-लेखन ब्रम्ह है।
नमन करें मतिमान, मनन-कहाँ शिव तत्व है।।
*
शब्द विष्णु अवतार, अक्षर-अक्षर ब्रम्ह है।
लिख-पढ़ता संसार, शिव समर्थ दें अर्थ जब।।
*
रमा शब्द का भाव, अक्षर की लिपि शारदा।
मेटें सकल अभाव, उमा कथ्य निहितार्थ हैं।।
*
शिव कागज विस्तार, कलम ब्रम्ह, स्याही हरी।
लिपि कथ्यार्थ अपार, शारद-रमा-उमा बनें।।
*
तीन-देव-अभिषेक, नव लेखन से नित्य कर।
जागे बुद्धि-विवेक, तीन देवियाँ हों सदय।।
*
वह जीवित निर्जीव, जो न करे रचना नई।
संचेतन-संजीव, नया सृजन कर जड़ बने।।
*
ऊषा करे प्रकाश, सविता से ऊर्जा मिले।
कर थामे आकाश, वसुधा हो आधार तो।।
*
२३-२-२०१८
***
कविता
काव्य और जन-वेदना
*
काव्य क्या?
कुछ कल्पना
कुछ सत्य है.
यह नहीं जड़,
चिरंतन चैतन्य है।
देख पाते वह अदेखा जो रहा,
कवि मनीषी को न कुछ अव्यक्त है।
रश्मि है
अनुभूतिमय संवेदना।
चतुर की जाग्रत सतत हो चेतना
शब्द-वेदी पर हवन मन-प्राण का।
कथ्य भाषा भाव रस संप्राणता
पंच तत्त्वों से मिले संजीवनी
साधना से सिद्धि पाते हैं गुनी।
कहा पढ़ सुन-गुन मनन करते रहे
जो नहीं वे देखकर बाधा ढहे
चतुर्दिक क्या घट रहा,
क्या जुड़ रहा?
कलम ने जो किया अनुभव
वह कहा।
पाठकों!
अब मौन व्रत को तोड़ दो।
‘तंत्र जन’ का है
सदा सच-शुभ ही कहो।
अशुभ से जब जूझ जाता ‘लोक’ तो
‘तन्त्र’ में तब व्याप जाता शोक क्यों?
‘प्रतिनिधि’ जिसका
न क्यों उस सा रहे?
करे सेवक मौज, मालिक चुप दहे?
शब्द-शर-संधान कर कवि-चेतना
चाहती जन की हरे कुछ वेदना।
२३-२-२०१७
***
श्रृंगार गीत:
सद्यस्नाता
*
सद्यस्नाता!
रूप तुम्हारा
सावन सा भावन।
केश-घटा से
बूँद-बूँद जल
टप-टप चू बरसा।
हेर-हेर मन
नील गगन सम
हुलस-पुलक तरसा।
*
उगते सूरज जैसी बिंदी
सजा भाल मोहे।
मृदु मुस्कान
सजे अधरों पर
कंगन कर सोहे।
लेख-लेख तन म
हुआ वन सम
निखर-बिखर गमका।
*
दरस-परस पा
नैन नशीले
दो से चार हुए।
कूल-किनारे
भीग-रीझकर
खुद जलधार हुए।
लगा कर अगन
बुझा कर सजन
बिन बसंत कुहका।
२३-२-२०१६
***
दोहा सलिला :
माटी सब संसार.....
*
माटी ने शत-शत दिये, माटी को आकार.
माटी में माटी मिली, माटी सब संसार..
*
माटी ने माटी गढ़ी, माटी से कर खेल.
माटी में माटी मिली, माटी-नाक नकेल..
*
माटी में मीनार है, वही सकेगा जान.
जो माटी में मिल कहे, माटी रस की खान..
*
माटी बनती कुम्भ तब, जब पैदा हो लोच.
कूटें-पीटें रात-दिन, बिना किये संकोच..
*
माटी से मिल स्वेद भी, पा जाता आकार.
पवन-ग्रीष्म से मिल उड़े, पल में खो आकार..
*
माटी बीजा एक ले, देती फसल अपार.
वह जड़- हम चेतन करें, क्यों न यही आचार??
*
माटी को मत कुचलिये, शीश चढ़े बन धूल.
माटी माँ मस्तक लगे, झरे न जैसे फूल..
*
माटी परिपाटी बने, खाँटी देशज बोल.
किन्तु न इसकी आड़ में, कर कोशिश में झोल..
*
माटी-खेलें श्याम जू, पा-दे सुख आनंद.
माखन-माटी-श्याम तन, मधुर त्रिभंगी छंद..
*
माटी मोह न पालती, कंकर देती त्याग.
बने निरुपयोगी करे, अगर वृथा अनुराग..
*
माटी जकड़े दूब-जड़, जो विनम्र चैतन्य.
जल-प्रवाह से बच सके, पा-दे प्रीत अनन्य..
*
माटी मोल न आँकना, तू माटी का मोल.
जाँच-परख पहले 'सलिल', बात बाद में बोल..
*
माटी की छाती फटी, खुली ढोल की पोल.
किंचित से भूडोल से, बिगड़ गया भूगोल..
*
माटी श्रम-कौशल 'सलिल', ढालें नव आकार.
कुम्भकार ने चाक पर, स्वप्न किया साकार.
*
माटी की महिमा अमित, सकता कौन बखान.
'सलिल' संग बन पंक दे, पंकज सम वरदान..
***
कविता
धरती
*
धरती काम करने
कहीं नहीं जाती
पर वह कभी भी
बेकाम नहीं होती.
बादल बरसता है
चुक जाता है.
सूरज सुलगता है
ढल जाता है.
समंदर गरजता है
बँध जाता है.
पवन चलता है
थम जाता है.
न बरसती है,
न सुलगती है,
न गरजती है,
न चलती है
लेकिन धरती
चुकती, ढलती,
बंधती या थमती नहीं.
धरती जन्म देती है
सभ्यता को,
धरती जन्म देती है
संस्कृति को.
तभी ज़िंदगी
बंदगी बन पाती है.
धरती कामगार नहीं
कामगारों की माँ होती है.
इसीलिये इंसानियत ही नहीं
भगवानियत भी
उसके पैर धोती है..
२३-२-२०११

***

सोमवार, 15 अप्रैल 2024

अप्रैल १५ , सॉनेट, उषा, श्रृंगार गीत, तुम, राग छंद, शिव, दोहे, प्यार, आम चुनाव

सलिल सृजन अप्रैल १५
*
सॉनेट
उषा
उषा ललित लालित्यमयी।
है मनहर चितचोर सखी।
कवि छवि देखे नयी नयी।।
अपनी किस्मत आप लिखी।।
निधि सतरंगी मनोरमा।
सत्य सुनीता नीलाभित।
ज्योति-कन्हैया लिए विमा।।
नीलम-रेखा अरुणाभित।।
बालारुण खेले कैंया।
उछल-कूद बाहर भागे।
कलरव करती गौरैया।।
संग गिलहरी अनुरागे।।
उषा प्रभाती रही सुना।
कनक-जाल रमणीय बुना।।
***
नहले पे दहला
कभी कभी यूँ भी हम ने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है?
औरों ने हमें नहीं बख्शा वो रास्ता बताया है।
जिस पर उन्होंने अपना पग नहीं बढ़ाया है।
***
प्रश्नोत्तर
छिपकली से जान कैसे बचाएँ?
मत देखें छिप कली
ऐसी हरकत नहीं भली
उसका करा दें विवाह
मिल जाएगा छुटकारा
कली बन जाएगी फूल
नहीं चुभेगी बनकर शूल
१५-४-२०२३
***
सॉनेट
चमन
*
चमन में साथी! अमन हो।
माँ धरित्री को नमन कर।
छत्र निज सिर पर गगन कर।।
दिशा हर तुझको वसन हो।।
पूर्णिमा निशि शशि सँगाती।
पवन पावक सलिल सूरज।
कह रहे ले ईश को भज।।
अनगिनत तारे बराती।
हर जनम हो श्वास संगी।
जिंदगी दे यही चंगी।
आस रंग से रही रंगी।।
न मन यदि; फिर भी नमन कर।
जगति को अपना वतन कर।
सुमन खिल; सुरभित चमन कर।।
१५-४-२०२२
•••
कृति चर्चा :
२१ श्रेष्ठ लोककथाएँ मध्य प्रदेश : जड़ों से जुड़ाव अशेष
तुहिना वर्मा
*
[कृति विवरण : २१ श्रेष्ठ लोककथाएँ मध्य प्रदेश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', आई.एस.बी.एन. ९७८-९३-५४८६-७६३-७, प्रथम संस्करण २०२२, आकार २१.५ से.मी.X१४ से.मी., आवरण पेपरबैक बहुरंगी लेमिनेटेड, पृष्ठ ४७, मूल्य १५०/-, डायमंड बुक्स नई दिल्ली, संपादक संपर्क ९४२५१८३२४४।]
*
लोककथाएँ लोक अर्थात जनसामान्य के सामुदायिक, सामाजिक, सार्वजनिक जीवन के अनुभवों को कहनेवाली वे कहानियाँ हैं जो आकार में छोटी होती हुए भी, गूढ़ सत्यों को सामने लाकर पाठकों / श्रोताओं के जीवन को पूर्ण और सुंदर बनाती हैं। आम आदमी के दैनंदिन जीवन से जुड़ी ये कहानियाँ प्रकृति पुत्र मानव के निष्कपट और अनुग्रहीत मन की अनगढ़ अभिव्यक्ति की तरह होती हैं। प्राय:, वाचक या लेखक इनमें अपनी भाषा शैली और कहन का रंग घोलकर इन्हें पठनीय और आकर्षक बनाकर प्रस्तुत करता है ताकि श्रोता या पाठक इनमें रूचि लेने के साथ कथ्य को अपने परिवेश से जुड़कर इनके माध्यम से दिए गए संदेश को ग्रहण कर सके। इसलिए इनका कथ्य या इनमें छिपा मूल विचार समान होते हुए भी इनकी कहन, शैली, भाषा आदि में भिन्नता मिलती है।
भारत के प्रसिद्ध प्रकाशन डायमंड बुक्स ने भारत कथा माला के अंतर्गत लोक कथा माला प्रकाशित कर एक बड़े अभाव की पूर्ति की है। देश में दिनों-दिन बढ़ती जा रही शहरी अपसंस्कृति और दूरदर्शन तथा चलभाष के आकर्षण से दिग्भ्रमित युवजन आपकी पारंपरिक विरासत से दूर होते जा रहे हैं। पारम्परिक रूप से कही जाती रही लोककथाओं का मूल मनुष्य के प्रकृति और परिवार से जुड़ाव, उससे उपजी समस्याओं और समस्याओं के निदान में रहा है। तेजी से बदलती जीवन स्थितियों (शिक्षा, आर्थिक बेहतर, यान्त्रिक नीरसता, नगरीकरण, परिवारों का विघटन, व्यक्ति का आत्मकेंद्रित होते जाना) में लोककथाएँ अपना आकर्षण खोकर मृतप्राय हो रही हैं। हिंदी के स्थापित और नवोदित साहित्यकारों का ध्यान लोक साहित्य के संरक्षण और संवर्धन की ओर न होना भी लोक साहित्य के नाश में सहायक है। इस विषम स्थिति में प्रसिद्ध छन्दशास्त्री और समालोचक आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा संपादित ''२१ श्रेष्ठ लोक कथाएँ' मध्यप्रदेश'' का डायमंड बुक्स द्वारा प्रस्तुत किया जाना लोक कथाओं को पुनर्जीवित करने का सार्थक प्रयास है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।
यह संकलन वस्तुत: मध्यप्रदेश के वनवासी आदिवासियों में कही-सुनी जाती वन्य लोककथाओं का संकलन है। पुस्तक का शीर्षक ''२१ श्रेष्ठ आदिवासी लोककथाएँ मध्य प्रदेश'' अधिक उपयुक्त होगा। पुस्तक के आरंभ में लेखक ने लोककथा के उद्भव, प्रकार, उपयोगिता, सामयिकता आदि को लेकर सारगर्भित पुरोवाक देकर पुस्तक को समृद्ध बनाने के साथ पाठकों की जानकारी बढ़ाई है। इस एक संकलन में में १९ वनवासी जनजातियों माड़िया, बैगा, हल्बा, कमार, भतरा, कोरकू, कुरुख, परधान, घड़वा, भील, देवार, मुरिया, मावची, निषाद, बिंझवार, वेनकार, भारिया, सौंर तथा बरोदिया की एक-एक लोककथाएँ सम्मिलित हैं जबकि सहरिया जनजाति की २ लोककथाएँ होना विस्मित करता है। वन्य जनजातियाँ जिन्हें अब तक सामान्यत: पिछड़ा और अविकसित समझा जाता है, उनमें इतनी सदियों पहले से उन्नत सोच और प्रकृति-पर्यावरण के प्रति सचेत-सजग करती सोच की उपस्थिति बताती है कि उनका सही मूल्यांकन नहीं हुआ है। सलिल जी का यह कार्य नागर और वन्य समाज के बीच की दूरी को कम करने का महत्वपूर्ण प्रयास है।
माड़िया लोककथा 'भीमदेव' में प्रलय पश्चात् सृष्टि के विकास-क्रम की कथा कही गयी है। बैगा लोककथा 'बाघा वशिष्ठ' में बैगा जनजाति किस तरह बनी यह बताया गया है। 'कौआ हाँकनी' में हल्बा जनजाति के विकास तथा महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। कमार लोककथा 'अमरबेल' में उपयोग के बाद वृक्षों पर टाँग दिए जनेऊ अमरबेल में बदल जाने की रोचक कल्पना है। बेवफा पत्नी और धोखेबाज मित्र को रंगरेली मानते हुए रंगेहाथ पकड़ने के बाद दोनों का कत्ल कर पति ने वन में दबा दिया। बरसात बाद उसी स्थान पर लाल-काले रंग के फूलवाला वृक्ष ऊगा जिसे परसा (पलाश) का फूल कहा गया। यह कहानी भतरा जनजातीय लोक कथा 'परसा का फूल' की है। कोरकू लोककथा 'झूठ की सजा' में शिववाहन नंदी को झूठा बोलने पर मैया पार्वती द्वारा शाप दिए जाने तथा लोक पर्व पोला मनाये जाने का वर्णन है। कुरुख जनजातीय लोक कथा 'कुलदेवता बाघ' में मनुष्य और वन्य पशुओं के बीच मधुर संबंध उल्लेखनीय है। 'बड़ादेव' परधान जनजाति में कही जानेवाली लोककथा है। इसमें आदिवासियों के कुल देव बड़ादेव (शिव जी) से आशीषित होने के बाद भी नायक द्वारा श्रम की महत्ता और समानता की बात की गयी है। अकाल के बाद अतिवृष्टि से तालाब और गाँव को बचाने के लिए नायक झिटकू द्वारा आत्मबलिदान देने के फलस्वरूप घड़वा वनवासी झिटकू और उसकी पत्नी मिटको को लोक देव के रूप में पूजने की लोककथा 'गप्पा गोसाइन' है। भीली लोककथा 'नया जीवन' प्रलय तथा उसके पश्चात् जीवनारंभ की कहानी है।
देवार जनजाति की लोककथा 'गोपाल राय गाथा' में राजभक्त महामल्ल गोपालराय द्वारा मुगलसम्राट द्वारा छल से बंदी बनाये गए राजा कल्याण राय को छुड़ाने की पराक्रम कथा है। कहानी के उत्तरार्ध में गोपालराय के प्रति राजा के मन में संदेह उपजाकर उसकी हत्या किए जाने और देवार लोकगायकों द्वारा गोपालराय के पराक्रम को याद को उसने वंशज मानने का आख्यान है। मुरिया जनजातीय लोककथा 'मौत' में सृष्टि में जीव के आवागमन की व्यवस्था स्थापित करने के लिए भगवन द्वारा अपने ही पुत्र मृत्यु का विधान रचने की कल्पना को जामुन के वृक्ष से जोड़ा गया है। 'राज-प्रजा' मावची लोककथा है। इसमें शर्म की महत्ता बताई गए है। 'वेणज हुए निषाद' इस जनजाति की उत्पत्ति कथा है। मामा-भांजे द्वारा अँधेरी रात में पशु के धोखे में राजा को बाण से बींध देने के कारण उनके वंशज 'बिंझवार' होने की कथा 'बाण बींध भए' है। 'धरती मिलती वीर को' वेनकार लोककथा है जिसमें पराक्रम की प्रतिष्ठा की गयी है। भरिया जनजाति में प्रचलिटी लोककथा 'बुरे काम का बुरा नतीजा' में शिव-भस्मासुर प्रसंग वर्णित है। सहरिया जनजाति के एकाकी स्वभाव और वन्य औषधियों की जानकारी संबंधी विशेषता बताई गयी है 'अपने में मस्त' में। 'शंकर का शाप' लोककथा आदिवासियों में गरीबी और अभाव को शिव जी की नाराजगी बताती है। सौंर लोककथा 'संतोष से सिद्धि' में भक्ति और धीरज को नारायण और लक्ष्मी का वरदान बताया गया है। संग्रह की अंतिम लोककथा 'पीपर पात मुकुट बना' बरोदिया जनजाति से संबंधित है। इस कथा में दूल्हे के मुकुट में पीपल का पत्ता लगाए जाने का कारन बताया गया है।
वास्तव में ये कहानियाँ केवल भारत के वनवासियों की नहीं हैं, विश्व के अन्य भागों में भी आदिवासियों के बीच प्रलय, सृष्टि निर्माण, दैवी शक्तियों से संबंध, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को कुलदेव मानने, मानव संस्कृति के विस्तार, नई जातियाँ बनने,पराक्रमी-उदार पुरुषों की प्रशंसा आदि से जुड़ी कथाएँ कही-सुनी जाती रही हैं।
संभवत: पहली बार भारत के मूल निवासी आदिवासी की लोककथाओं का संग्रह हिंदी में प्रकाशित हुआ है। इस संकलन की विशेषता है की इसमें जनजातियों के आवास क्षेत्र आदि जानकारियाँ भी समाहित हैं। लेखक व्यवसाय से अभियंता रहा है। अपने कार्यकाल में आदिवासी क्षेत्रों में निर्माण कार्य करते समय श्रमिकों और ग्रामवासियों में कही-सुनी जाती लोक कथाओं से जुड़े रहना और उन्हें खड़ी हिंदी में इस तरह प्रस्तुत करना की उनमें प्रकृति-पर्यावरण के साथ जुड़ाव, लोक और समाज के लिए संदेश, वनावासियों की सोच और जीवन पद्धति की झलक समाहित हो, समय और साहित्य की आवश्यकता है। इन कहानियों के लेखक का यह प्रयास पाठकों और समाजसेवियों द्वारा सराहा जाएगा। प्रकाशक को और पुस्तकें सामने लाना चाहिए।
***
साहित्यिक पहेली
खोजें साहित्यकारों के नाम


























(उत्तर सबसे नीचे)


मुक्तिका
अपने हिस्से जितने गम हैं।
गिने न जाते लेकिन कम हैं।।
बरबस देख अधर मुस्काते।
नैना बेबस होते नम हैं।।
महाबली खुद को कहता जो
अधिक न उससे निर्दय यम हैं।।
दिये जगमगाते ऊपर से
पाले अपने नीचे तम हैं।।
मैं-मैं तू-तू तूतू मैंमैं
जब तक मिलकर हुए न हम हैं।।
उनका बम बम नाश कर रहा
मंगलकारी शिव बम बम हैं।।
रम-रम राम रमामय में रम
वे मदहोश गुटककर रम हैं।।
१५-४-२०२२
•••
मुक्तिका
कर्ता करता
भर्ता भरता
इनसां उससे
रहता डरता
बिन कारण जो
डरता; मरता
पद पाकर क्यों
अकड़ा फिरता?
कह क्यों पर का
दुख ना हरता
***
द्विपदियाँ / अशआर
कोरोना के व्याज, अनुशासित हम हो रहे।
घर के करते काज, प्रेम से।।
*
थोड़े जिम्मेदार, हुए आजकल हम सभी।
आपस में तकरार, घट गई।।
*
खूब हो रहा प्यार, मत उत्पादन बढ़ाना।
बंद घरों के द्वार, आजकल।।
*
तबलीगी लतखोर, बातों से मानें नहीं।
मनुज वेश में ढोर, जेल दो।
*
१५-४-२०२०
***
श्रृंगार गीत
तुम
*
तुम हो या साकार है
बेला खुशबू मंद
आँख बोलती; देखती
जुबां; हो गयी बंद
*
अमलतास बिंदी मुई, चटक दहकती आग
भौंहें तनी कमान सी, अधर मौन गा फाग
हाथों में शतदल कमल
राग-विरागी द्वन्द
तुम हो या साकार है
मद्धिम खुशबू मंद
*
कृष्ण घटाओं बीच में, बिजुरी जैसी माँग
अलस सुबह उल्लसित तुम, मन गदगद सुन बाँग
खनक-खनक कंगन कहें
मधुर अनसुने छंद
तुम हो या साकार है
मनहर खुशबू मंद
*
पीताभित पुखराज सम, मृदुल गुलाब कपोल
जवा कुसुम से अधरद्वय, दिल जाता लख डोल
हार कहें भुज हार दो
बनकर आनंदकंद
तुम हो या साकार है
मन्मथ खुशबू मंद
***
संस्मरण
आम चुनाव
***
मुझे एक चुनाव में पीठासीन अधिकारी बनाया गया, आज से ४५ साल पहले, तब ईवीएम नहीं होती थी, न वाहन मिलते थे। मैं अभियंता था। ट्रेनिंग में कोई कठिनाई नहीं हुई। मुख्यालय से ९९ कि मी दूर रेल से तहसील मुख्यालय पहुँचा। अपने दल के किसी सदस्य को जानता नहीं था। माइक से बार-बार घोषणा कराने पर एक साथी मिले जो शिक्षक थे। हमें लोहे की चार भारी पेटियाँ मिलीं। लगभग साढे़ चार हजार मतपत्र मिले जिनका आकार टेब्लॉयड अखबार के बराबर था। अन्य सामग्री और खुद के कपड़े, बिस्तर और खाने नाश्ते का सामान भी था। शामियाना को एक किनारे बैठकर सूची से सामान का मिलान करने और मतपत्रों को गिनकर गलत मतपत्र बदलवाए। तब तक बाकी दो सहायक आए। एक-एक मतपेटी उन्हें थमाई। अब बस पकड़ना थी। दल में दो पुलिस सिपाही भी थे पर गायब, उनके नाम से मुनादी कराई, जब बस में बैठ गए, तब वे प्रकट हुए। मैं समझ गया कि सामान ढोेने से बचने को लिए आस-पास होते हुए भी नहीं, मिले घुटे पीर हैं। डाल-डाल और पात-पात का नीति अपनाना ठीक लगा। बस चलते समय वे उपस्थिति प्रमाण पत्र पर हस्ताक्षर कराने आए। मैंने इंकार कर दिया कि मैं आपकी गैर हाजिरी रिपोर्ट कर चुका हूँ। मैं मतदान केंद्र पर दो कर्मचारी नियुक्त कर चुनाव करा लूँगा, आप वापिस जाएँ और एस. पी. से निलंबन आदेश लेकर जाँच का सामना करें। उनके पैरों तले से जमीन सरकने लगी, बाजी उलटती देख माफी माँगने लगे। मैंने बेरुखी बनाए रखी।
बस से ४५ कि मी दूर ब्लॉक मुख्यालय तक जाना था। वहाँ सिपाहियों ने आगे बढ़कर मतपेटियाँ और मतपत्र सम्हाले जिसके लिए उनकी ड्यूटी लगाई गई थी। अब हमें ८ कि. मी. बैलगाड़ी से जाना था। कोटवार २ बैलगाड़ी लेकर राह देख रहा था। बैलगाड़ी ने नदी किनारे उतारा। यहाँ डोंगी (पेड़ का तना खोखला कर बनाई छोटी नाव) मिलीं। दल के मुखिया के नाते सबको नियंत्रण में रखकर, सब काम समय पर कराना था। मैं २२ साल का, शेष सब मेरे पिता की उम्र के। पहली डोंगी पर मतपत्र, मतपेटी लेकर एक सिपाही को साथ मैं खुद बैठा। दोपहर २ बज रहे थे। सबको भूख लग रही थी, खाने के लिए रुकते तो एक घंटा लगता। मैंने तय किया कि मतदान केंद्र पहुँच ,कर वहाँ व्यवस्था जो कमी हो उसको ठीक कराने की व्यवस्था कराने के बाद भोजन आदि हो। दल के बाकी लोग पहले खाना चाहते थे। अँधेरा होने पर गाँव में कुछ मिलना संभव न होता। कहावत है बुरे वक्त में खोटा सिक्का काम आता है। मैंने वरिष्ठ सिपाही को किनारे ले जाकर पट्टी पढ़ाई कि सीधे बिना रुके मतदान केंद्र चलोगे और पूरे समय मेरे कहे अनुसार काम करेंगे तो शिकायत वापिस लेकर कर्तव्य प्रमाणपत्र दे दूँगा। अंधा क्या चाहे?, दो आँखें। उसने जान बचते देखी तो मेरे साथ आगे बढ़कर मतपेटी लेकर डोंगी में जा बैठा। उसे बढ़ता देख उसका साथी दूसरी डोंगी में जा बैठा। एक डोंगी में दो सवारी, एक मतपेटी और डोंगी चालक, लहर के थपेड़ों को साथ डोंगी डोलती, हमारी जान साँसत में थी। मुझे तो तैरना भी नहीं आता था पर हौसला रखकर बढ़ते रहे।
राम-राम करते दूसरे किनारे पहुँच चैन की साँस ली। सब सामान की जाँच कर कंदों पर लादा और शुरू हुई पदयात्रा, ४ किलोमीटर पैदल कच्चे रास्ते, पगडंडी और वन के बीच से से होते हुए मतदान स्थान पहुँचे। प्राथमिक शाला एक कमरा, परछी, देशी खपरैल का छप्पर, शौचालय या अन्य सुविधा का प्रश्न ही नहीं उठता था। कमरे में सुरक्षित स्थान पर मतदान सामग्री रखवाई। अब तक ४ बज चुके थे, भूखे और थके तो थे ही दल के सदस्य खाने पर टूट पड़े। मैंने उन्हें भोजन आदि करने दिया किंतु खुद पटवारी और कोटवार को लेकर व्यवस्था देखी। सूर्य अस्ताचल की ओर अग्रसर था। बिजली गाँव में नहीं आई थी।


केंद्र में दो मेजें, दो बेंचे, दो कुर्सियाँ, एक स्टूल, एक बाल्टी, एक लोटा, दो गिलास, एक मटका, एक चिमनी, एक फटी-मैली दरी... कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा भानुमती ने कुनबा जोड़ा का तर्ज पर जुटाई गई थी। कमरे के दरवाजे ऐसे कि धक्का देते ही टूट जाएँ। खिड़की बिना पल्लों की चौखट में लोहे के सारी मात्र। यहाँ भी पटवारी और कोटवार दामन बचाते मिले। मुझे एक वरिष्ठ साथी प्रशिक्षण के मध्य गप-शप करते समय बता चुके थे कि पीठासीन अधिकारी के साथ अलग-अलग विभागों के लोग होते हैं जो जानते हैं कि एक दिन बाद अलग हो जाना है। पर्याय: वे सहयोग न कर, जैसे तैसे बेगार टालते हैं जबकि उच्चाधिकारियों को हर कार्य शत-प्रतिशत सही और समय पर चाहिए, न हो तो बिजली पीठासीन अधिकारी पर ही गिरती है। मैंने हालत से निबटने का तरीका पूछ तो वे बोले 'हिकमत अमली'। मैंने यह शब्द पहली बार सुन। वे




संवस, १५.४.२०१९
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छंद बहर का मूल है: ३
राग छंद
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छंद परिचय:
बीस मात्रिक महादैशिक जातीय छंद।
तेरह वार्णिक अति जगती जातीय राग छंद।
संरचना: SIS ISI SIS ISI S
सूत्र: रजरजग।
बहर: फ़ाइलुं मुफ़ाइलुं मुफ़ाइलुं फ़अल।
*
आइये! मनाइए, रिझाइए हमें
प्यार का प्रमाण भी दिखाइए हमें
*
चाह में रहे, न सिर्फ बाँह में रहे
क्रोध से तलाक दे न जाइए हमें
*
''हैं न आप संग तो अजाब जिंदगी''
बोल प्यार बाँट संग पाइए हमें
*
जान हैं, बनें सुजान एक हों सदा
दे अजान रोज-रोज भाइये हमें
*
कौन छंद?, कौन बहर?, क्यों पता करें?
शब्द-भाव में पिरो बसाइए हमें
*
संत हों न साधु हों, न देवता बनें
आदमी बने तभी सुहाइये हमें
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दो, न दो रहें, न एक बनें, क्यों कहो?
जान हमारी बनें बनाइए हमें
१५.४.२०१७
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खबरदार दोहे
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केर-बेर का सँग ही, करता बंटाढार
हाथ हाथ में ले सभी, डूबेंगे मँझधार
(समाजवादी एक हुए )
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खुल ही जाती है सदा, 'सलिल' ढोल की पोल
मत चरित्र या बात में, अपनी रखना झोल
(नेताजी संबंधी नस्तियाँ खुलेंगी)
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न तो नाम मुमताज़ था, नहीं कब्र है ताज
तेज महालय जब पूजे तभी मिटेगी लाज
(ताज शिव मंदिर है)
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जयस्तंभ की मंजिलें, सप्तलोक-पर्याय
कलें क़ुतुब मीनार मत, समझ सत्य-अध्याय
(क़ुतुब मीनार जयस्तंभ है)
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दोहा सलिला:
रश्मिरथी रण को चले, ले ऊषा को साथ
दशरथ-कैकेयी सदृश, ले हाथों में हाथ
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तिमिर असुर छिप भागता, प्राण बचाए कौन?
उषा रश्मियाँ कर रहीं, पीछा रहकर कौन
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जगर-मगर जगमग करे, धवल चाँदनी माथ
प्रणय पत्रिका बाँचता, चन्द्र थामकर हाथ
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तेज महालय समर्पित, शिव-चरणों में भव्य
कब्र हटा करिए नमन, रखकर विग्रह दिव्य
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धूप-दीप बिन पूजती, नित्य धरा को धूप
दीप-शिखा सम खुद जले, देखेरूप अरूप
१५-४-२०१५
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छंद सलिला;
शिव स्तवन
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(तांडव छंद, प्रति चरण बारह मात्रा, आदि-अंत लघु)
।। जय-जय-जय शिव शंकर । भव हरिए अभ्यंकर ।।
।। जगत्पिता श्वासा सम । जगननी आशा मम ।।
।। विघ्नेश्वर हरें कष्ट । कार्तिकेय करें पुष्ट ।।
।। अनथक अनहद निनाद । सुना प्रभो करो शाद।।
।। नंदी भव-बाधा हर। करो अभय डमरूधर।।
।। पल में हर तीन शूल। क्षमा करें देव भूल।।
।। अरि नाशें प्रलयंकर। दूर करें शंका हर।।
।। लख ताण्डव दशकंधर। विनत वदन चकितातुर।।
।। डम-डम-डम डमरूधर। डिम-डिम-डिम सुर नत शिर।।
।। लहर-लहर, घहर-घहर। रेवा बह हरें तिमिर।।
।। नीलकण्ठ सिहर प्रखर। सीकर कण रहे बिखर।।
।। शूल हुए फूल सँवर। नर्तित-हर्षित मणिधर ।।
।। दिग्दिगंत-शशि-दिनकर। यश गायें मुनि-कविवर।।
।। कार्तिक-गणपति सत्वर। मुदित झूम भू-अंबर।।
।। भू लुंठित त्रिपुर असुर। शरण हुआ भू से तर।।
।। ज्यों की त्यों धर चादर। गाऊँ ढाई आखर।।
।। नव ग्रह, दस दिशानाथ। शरणागत जोड़ हाथ।।
।। सफल साधना भवेश। करो- 'सलिल' नत हमेश।।
।। संजीवित मन्वन्तर। वसुधा हो ज्यों सुरपुर।।
।। सके नहीं माया ठग। ममता मन बसे उमग।।
।। लख वसुंधरा सुषमा। चुप गिरिजा मुग्ध उमा।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। बलिपंथी हो नरेंद्र। सत्पंथी हो सुरेंद्र।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
।। सदय रहें महाकाल। उम्मत हों देश-भाल।।
।। तुहिना सम विमल नीर। प्रवहे गंधित समीर।।
।। भारत हो अग्रगण्य। भारती जगत वरेण्य ।।
।। जनसेवी तंत्र सकल। जनमत हो शक्ति अटल।।
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दोहा सलिला
सत-चित-आनंद पा सके, नर हो अगर नरेन्द्र.
जीवन की जय बोलकर, होता जीव जितेंद्र..
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अक्षर की आराधना, हो जीवन का ध्येय.
सत-शिव-सुन्दर हो 'सलिल', तब मानव को ज्ञेय..
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नर से वानर जब मिले, रावण का हो अंत.
'सलिल' न दानव मारते, कभी देव या संत..
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प्यार के दोहे:
तन-मन हैं रथ-सारथी:
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दो पहलू हैं एक ही, सिक्के के नर-नार।
दोनों में पलता सतत, आदि काल से प्यार।।
*
प्यार कभी मनुहार है, प्यार कभी तकरार।
हो तन से अभिव्यक्त या, मन से हो इज़हार।।
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बिन तन के मन का नहीं, किंचित भी आधार।
बिन मन के तन को नहीं, कर पाते स्वीकार।।
*
दो अपूर्ण मिल एक हों, तब हो पाते पूर्ण।
अंतर से अंतर मिटे, हों तब ही संपूर्ण।।
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जब लेते स्वीकार तब, मिट जाता है द्वैत।
करते अंगीकार तो, स्थापित हो अद्वैत।।
१५-४-२०१०
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महादेवी - महादेवी वर्मा म
देवी - आशापूर्णा देवी (बांग्ला)
वीर - वीर सावरकर (मराठी), क्षेत्रि वीर (मणिपुरी)
पंत गोविंद वल्लभ, सुमित्रानंदन पंत,
वृन्दावन- वृन्दावन लाल वर्मा
विराट - विष्णु विराट, चन्द्रसेन विराट,
रावी - रामप्रसाद विद्यार्थी
काका - काका हाथरसी, काका कालेलकर (मराठी)
शानी - गुलशेर खां शानी
नीरज - गोपाल प्रसाद सक्सेना नीरज,
सारथी - ओ. पी. शर्मा सारथी (डोगरी), रंजीत सारथी (सरगुजिहा)
गुरु - कामता प्रसाद, रामेश्वर प्रसाद गुरु, गुरु सक्सेना, गुरु गोबिंद सिंह (पंजाबी)
रील - गुरुनाम सिंह रील, दिलजीत सिंह रील,
शिवानी - गौरा पंत शिवानी,
चक्र - सुदर्शन सिंह चक्र, कुम्भार चक्र (उड़िया), चक्रधर अशोक,
सुभद्रा - सुभद्रा कुमारी चौहान,
अमृत लाल - अमृत लाल नागर, अमृत लाल वेगड़, अमृता प्रीतम (पंजाबी)
लाल - लक्ष्मी नारायण लाल, श्रीलाल शुक्ल, लाल पुष्प (सिंधी)
ऊपर से नीचे
महावीर - महावीर रवांल्टा
महावीर प्रसाद - महावीर प्रसाद द्वुवेदी, महावीर प्रसाद जोशी (राजस्थानी)
प्रसाद - जय शंकर प्रसाद, महावीर प्रसाद, हजारी प्रसाद, शत्रुघ्न प्रसाद,
प्रभा - प्रभा खेतान
प्रभाकर - विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे , प्रभाकर बैगा, प्रभाकर श्रोत्रिय
ऊँट - रामानुज लाल श्रीवास्तव 'ऊँट बिलहरीवी'
चोंच - कांतानाथ पांडेय 'चोंच'
तनूजा - तनूजा चौधरी, तनूजा मुंडा, तनूजा मजूमदार, तनूजा शर्मा 'मीरा' तनूजा सेठिया, तनूजा चंद्रा
चौधरी - बदरीनारायण चौधरी उपाध्याय "प्रेमधन, राजकमल चौधरी, रघुवीर चौधरी (गुजराती),
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
तुलसी - गोस्वामी तुलसीदास, आचार्य तुलसी, तुलसी बहादुर क्षेत्री (नेपाली), डॉ, तुलसीराम,
निराला - सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,
माखन लाल - माखनलाल चतुर्वेदी 'एक भारतीय आत्मा'
दाएं से बाएं
प्रेमचंद - धनपत राय 'प्रेमचंद'
तिरछा
लाला - लाला भगवान दीन, लाला श्रीनिवास दास, लाला पूरणमल, लाला जगदलपुरी
रघुवीर - डॉ. रघुवीर, रघुवीर सहाय, रघुवीर चौधरी (गुजराती)