अभिनव प्रयोग;वीर छंद/आल्हा छंद
कुमार गौरव अजीतेंदु
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आज न जाने दूँगी सैंया, मैं तो तुझको पिये शराब।
बता रही हूँ सीधे-सीधे, माथा न कर मेरा खराब॥
लील रही है हमें गरीबी, फिरता है तू बना नवाब।
बहुत सहा है रोते-रोते, हिम्मत ने अब दिया जवाब॥
देख बिलखते-भूखे बच्चे, माँग रहे दो रोटी-दाल।
अरे दरिंदे! पापी थोड़ी, दया कलेजे में तो डाल॥
फटे वसन में लिपटी तेरी, बीवी मैं कर रही सवाल।
काहे को ब्याहा था मुझको, जब करना था ऐसा हाल॥
बनी उधारी फाँस गले की, कर्जों का बन गया पहाड़।
रोज मिले है गाँव-ज्वार से, गाली, झिड़की और लताड़॥
देनदार तो काफी सारे, लेकिन माँगें बोटी-हाड़।
बोल बेहया करवा दूँ क्या, उनके मन का सभी जुगाड़॥
अपने ही घर को सुलगा के, चखने में बच्चों को भून।
दारू थोड़े पीता है तू, पीता तो तू मेरा खून॥
आज मुझे उन्माद चढ़ा है, आज चढ़ा है बड़ा जुनून।
सब ले संगे जल जाऊँगी, फिर क्या कर लेगा कानून॥
जरा समझ तो जिम्मेदारी, अपने कर्मों को पहचान।
नशा बुरा है सबसे ज्यादा, कर जाता सबकुछ वीरान॥
हम भी चाहें जीना थोड़ा, हैं आखिर हम भी इंसान।