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शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २५, बाल गीत, चिड़िया, गीत, चित्रगुप्त, कातिक

सलिल सृजन अक्टूबर २५
विश्व पास्ता (नाश्ता) दिवस
*
कातिक मास मनाइए, झूम-नाचकर पर्व 
लोकतंत्र पर कीजिए, जी भरकर नित गर्व 
हर दिन उत्सव दुख भुला, मन में रख उत्साह 
जला दीप करिए सतत, उजियाले की चाह 
गर्म-शीत दिन-रात हों, रखें स्वच्छता सर्व 
कातिक मास मनाइए, झूम-नाचकर पर्व
दलहन-मेवे खाइए, तजिए मांसाहार 
सुरा-सुंदरी से बचें, संयम ही उपहार 
साधन वैभव, स्नेह ही साध्य न करिए खर्व 
कातिक मास मनाइए झूम-नाचकर पर्व
करें तेल मालिश रहे स्निग्ध-सुचिक्कन देह
सुख-दुख साझा कीजिए, सुदृढ़ रहे तब गेह 
सद्भावी संसार में हर दिन होता पर्व
कातिक मास मनाइए झूम-नाचकर पर्व
पाँच तत्व ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय भी पाँच 
पाँच पर्व कह रहे हैं, सदा साथ हो साँच 
भेद न कर; सहयोग रख, सुर मानव गंधर्व 
कातिक मास मनाइए झूम-नाचकर पर्व
२५.१०.२०२५  
000
पूर्णिका
आशा दिवस
*
मना 'आशा दिवस' हम सब
नव कहानी नित लिखें अब
पढ़े आकर धरा पर खुद
ईश गुरु नब गॉड प्रभु रब
पूर्ण हों कर सतत कोशिश
पूछना न मुहूर्त है कब?
चुनौती से स्नेह जिसको
वह न करता व्यर्थ जब-तब
हो सलिल संजीव ओझा
मंत्र पढ़कर फूँक दे जब
जबलपुर, २५.१०.२०२४
*
वंदन वसुधा का करें, भोर भई घनश्याम।
सरला जी की शरण पा, दें सबको पैगाम।।
पूनम शुक्ला रश्मि दे, संगीता हो श्वास।
रेखा सीधी लक्ष्य तक, तनुजा खींच अनाम।।
मीनाकारी नीलिमा, करे साँझ से भोर।
चंदा-तारे टाँककर, नभ पर करें विभोर।।
२४.१०.२४
*
जन्म दिवस
*
जन्म दिवस पर अगिन बधाई
नव आशा आशा को भाई
ओझा हर विपदा को झाड़े
पांडे सुख के पढ़े पहाड़े
कोशिश हाथों रहे सफलता
श्रम मंज़िल पर झंडे गाड़े
अधरों पर मुस्कान धरो नित
वाचा में मिसरी घुल पाई
जन्म दिवस पर अगिन बधाई
जब जो पाओ, झट से खो दो
बंजर में नव फसलें बो दो
'लो लो' सब जग से कह पाओ
कभी किसी से कहो न 'दो दो'
मत पछुवा से कर्जा लेना
पुरवैया हर दिवस बहाई
जन्म दिवस पर अगिन बधाई
२५.१०.२०२३
***
गीत
*
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
कब कुछ लिखूँ, बतलाइये?
मत करें संकोच
सच कहिये, नहीं शर्माइये।
*
मिली आज़ादी चलायें जीभ जब भी मन करे
कौन होते आप जो कहते तनिक संयम वरें?
सांसदों का जीभ पर अपनी, नियंत्रण है नहीं
वायदों को बोल जुमला मुस्कुराते छल यहीं
क्या कहूँ?
कैसे कहूँ?
क्या ना कहूँ समझाइये?
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
कब कुछ लिखूँ, बतलाइये?
*
आ दिवाली कह रही है, दीप दर पर बालिये
चीन का सामान लेना आप निश्चित टालिए
कुम्हारों से लें दिए, तम को हराएँ आप-हम
अधर पर मृदु मुस्कराहट हो तनिक भी अब न कम
जब मिलें
तब लग गले
सुख-दुःख बता-सुन जाइये
क्या लिखूँ?
कैसे लिखूँ?
कब कुछ लिखूँ, बतलाइये?
*
बाप-बेटे में न बनती, भतीजे चाचा लड़ें
भेज दो सीमा पे ले बंदूक जी भरकर अड़ें
गोलियां जो खाये सीने पर, वही मंत्री बने
जो सियासत मात्र करते, वे महज संत्री बनें
जोड़कर कर
नागरिक से
कहें नेता आइये
२५-१०-२०१६
***
गीत
*
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
कितना उचित?
कौन बतलाये?
*
मृण्मय मन ने तन्मय तन को
जब ठुकराया तब यह जाना
एक वही जिसने लांछित हो
श्वासों में रस घोल दिया है
यश के वश कोशिश-संघर्षण
नियम संग संयम का तर्पण
क्यों अनुचित है?
कौन सिखाये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
*
नंदन वन में चंदन-वंदन
महुआ मादक अप्रतिम गन्धन
लाल पलाश नटेरे नैना
सती-दाह लख जला हिया है
सुधि-पावस का अमृत वर्षण
इसका उसको सब कुछ अर्पण
क्यों प्रमुदित पल ?
मौन बिताये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
*
यह-वह दोनों लीन हुए जब
तनिक न तिल भर दीन हुए तब
मैंने, तूने या किस-किसने
उस पल को खो आत्म, जिया है?
है असार संसार विलक्षण
करे आक्रमण किन्तु न रक्षण
क्या-क्यों अनुमित?
कौन बनाये??
कितना उचित?
कौन बतलाये?
तन के प्रति मन का आकर्षण
मन में तन के लिये विकर्षण
२५-१०-२०१५
***
बाल गीत :
चिड़िया
*
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
आनंदित हो
झूम रही है
हवा मंद बहती है
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष
छाँह में
उनकी खेल रचाओ
तुम्हें सुनाऊँगी
मैं गाकर
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से
बन कान्हा
'सखी रूठ मत सज री'
टीप रेस,
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली
हिल-मिल खेलें
तब किस्मत भी
आकर बने सहेली
नमन करो
भू को, माता को
जो यादें तहती है
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
***
लेख :
चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं:
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्म देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है: '
चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं.
आत्मा क्या है?
सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं:
सभी जानते हैं कि परमात्मा और उनका अंश आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं:
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आरम्भ तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। दूज पूजन के समय कोरे कागज़ पर चन्दन, केसर, हल्दी, रोली तथा जल से ॐ लिखकर अक्षत (जिसका क्षय न हुआ हो आम भाषा में साबित चांवल)से चित्रगुप्त जी पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण दोनों हैं:
चित्रगुप्त निराकार-निर्गुण ही नहीं साकार-सगुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिये वे साकार-सगुण रूप में प्रगट हुए वर्णित किये गए हैं। सकल सृष्टि का मूल होने के कारण उनके माता-पिता नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें ब्रम्हा की काया से ध्यान पश्चात उत्पन्न बताया गया है. आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह.
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
परमब्रम्ह के अंश- कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः'
अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं।
स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिये मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन प्रातः-संध्या में तथा विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन (जो सदा था, है और रहेगा) धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वह हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह खाने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं।
चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं:
सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं। सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य: आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में प्रति पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण (बोसान पार्टिकल) तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना।
यम द्वितीया पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिये 'ॐ' को सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिये उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेववाद की परंपरा:
इसके नीचे श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठायी जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु द्वारा सृष्टि के कल्याण के लिये विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार, विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ये देवी शक्तियां ज्ञान के विविध शाखाओं के प्रमुख हैं. ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है।
सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव पहले देवी-देवताओं के नाम लिखकर फिर दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये व्यक्त किया जाता है। पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम को देव के समीप रखकर उसकी पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियाँ अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन कोई सांसारिक कार्य (व्यवसायिक, मैथुन आदि) न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है। उदारता तथा समरसता की विरासत यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। इसलिए उन्हें औरों से अधिक बुद्धिमान कहा गया है. चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा आदि देवी-देवताओं के साथ समाज सुधारकों दयानंद सरस्वती, आचार्य श्री राम शर्मा, सत्य साइ बाबा, आचार्य महेश योगी आदि का पूजन-अनुकरण किया जाता है। कायस्थ मानवता, विश्व तथा देश कल्याण के हर कार्य में योगदान करते मिलते हैं.
२५-१०-२०१४
***

बुधवार, 24 सितंबर 2025

सितंबर २४, पूर्णिका, चीटी धप, बाल गीत, पञ्चचामर, कवित्त, छंद, मुक्तक, गीत, हिंदी गजल

सलिल सृजन सितंबर २४
*
हिंदी गजल 
देख उसको जी गए हम
विष अमिय कह पी गए हम
जान लेती अदा फिर भी 
होंठ अपने सी गए हम  
० 
केश लट चंचल-चपल है  
छाँह पाकर जी गए हम 
० 
खान है मुस्कान रस की
रास करने भी गए हम 
० 
'सलिल' वाणी मखमली मृदु 
श्रवण करते ही गए हम 
००० 
हिंदी गजल 
देख उसको अधर बोले लाजवाब
कल कली थी, आज है गुल-ए-गुलाब
हटा चिलमन देखती, मैं हूँ कहाँ
देख मुझको देखते डाले नकाब
बाँह फैला आसमां में भर उड़ान
दे चुनौती हार मानने हर उकाब
देख मस्तानी अदा दिल कह उठा
आइए! इस दर पे है स्वागत जनाब
 ०
छाँह ममता की मिली जिसको वही
जिंदगी कर बंदगी हो कामयाब
दिलवरों ने ले लिया दिल दे दिया
नज़र नज़राना हुई होकर हिजाब
धूप फैली रूप की हर सूँ 'सलिल'
रश्मि नाचे लहर में, पानी शराब
००० 
हिंदी ग़ज़ल
जान लेकर जान बोले जानदार
मान छीने या खरीदे मानदार
हो रहा बहरा खुदा सुन शोरगुल
कान फोड़े तान लेकर तानदार
पढ़ सुने कोई सराहे या नहीं
शायरी कर कहे शायर शानदार
आदमी को आदमी मुर्गा बना
कान खींचे जो नहीं क्या कानदार?
पीक पिचकारी चलाकर कर रहा
रंग हर बदरंग नादां पानदार
बड़े से खा लगाकर छोटे को लात
मूँछ ऐंठे जो वही है थानदार
'सलिल'अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बने
बेचता ईमान नित ईमानदार
०००
हिंदी ग़ज़ल
देख उसको अधर बोले लाजवाब
कल कली थी, आज है गुल-ए-गुलाब
हटा चिलमन देखती, मैं हूँ कहाँ
देख मुझको देखते डाले नकाब
बाँह फैला आसमां में भर उड़ान
दे चुनौती हार मानने हर उकाब
देख मस्तानी अदा दिल कह उठा
आइए! इस दर पे है स्वागत जनाब
 ०
छाँह ममता की मिली जिसको वही
जिंदगी कर बंदगी हो कामयाब
दिलवरों ने ले लिया दिल दे दिया
नज़र नज़राना हुई होकर हिजाब
धूप फैली रूप की हर सूँ 'सलिल'
रश्मि नाचे लहर में, पानी शराब
२४-९-२९१५   
***
पूर्णिका
हिंदी पढ़ो हिंदी लिखो हिंदी कहो
सत्य-शिव-सुंदर हमेशा ही तहो
खड़े रहना आपदा में सीख लो
देखकर तूफान भय से मत ढहो
मित्रता का अर्थ पहले जान लो
मित्र के गुण-दोष सम अपने सहो
अंजली में सुरभि सुमनों की लिए
नर्मदा बन नेह की कलकल बहो
शिष्टता-शालीनता गहने पहन
दृढ़ रखो संकल्प किंतु विनम्र हो
२४.९.२०२४
•••
पुरोवाक्
ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारतीय काव्याचार्यों ने काव्य को 'दोष रहित गुण सहित रचना' (मम्मट), 'रमणीय अर्थ प्रतिपादक' (जगन्नाथ), 'लोकोत्तर आनंददाता' (अंबिकादत्त व्यास), रसात्मक वाक्य (विश्वनाथ), सौंदर्ययुक्त रचना (भोज, अभिनव गुप्त), चारुत्वयुक्त (लोचन), अलंकार प्रधान (मेघा विरुद्र, भामह, रुद्रट), रीति प्रधान (वामन), ध्वनिप्रधान (आनंदवर्धन), औचित्यप्रधान (क्षेमेन्द्र), हेतुप्रधान (वाग्भट्ट), भावप्रधान (शारदातनय), रसमय आनंददायी वाक्य (शौद्धोदिनी), अर्थ-गुण-अलंकार सज्जित रसमय वाक्य (केशव मिश्र), आदि कहा है जबकि पश्चिमी विचारकों ने आनंद का सबल साधन (प्लेटो ), ज्ञानवर्धन में सहायक (अरस्तू), प्रबल अनुभूतियों का तात्कालिक बहाव (वर्ड्सवर्थ), सुस्पष्ट संगीत (ड्राइडन) माना है।
हिंदी कवियों में केशव ने केशव ने अलंकार, श्रीपति ने रस, चिंतामणि ने रस-अलंकार-अर्थ, देव ने रस-छंद- अलंकार, सूरति मिश्र ने मनरंजन व रीति, सोमनाथ ने गुण-पिंगल-अलंकार, ठाकुर ने विद्वानों को भाना, प्रतापसाहि ने व्यंग्य-ध्वनि-अलंकार, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने चित्तवृत्तियों का चित्रण, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ह्रदय मुक्तिसाधना हेतु शब्द विधान, महाकवि जयशंकर प्रसाद ने संकल्पनात्मक अनुभूति, महीयसी महादेवी वर्मा ने ह्रदय की भावनाएँ, सुमित्रानंदन पंत ने परिपूर्ण क्षणों की वाणी, केदारनाथ सिंह ने स्वाद को कंकरियों से बचाना, धूमिल ने शब्द-अदालत के कटघरे में खड़े निर्दोष आदमी का हलफनामा, अज्ञेय ने आदि से अंत तक शब्द कहकर कविता को परिभाषित किया है। वस्तुत: कविता कवि की अनुभूति को अभिव्यक्त कर पाठक तक पहुँचानेवाली रस व लय से युक्त ऐसी भावप्रधान रचना है जिसे सुन-पढ़ कर श्रोता-पाठक के मन में समान अनुभूति का संचार हो।
प्रस्तुत कृति लोकोपयोगी अर्थ प्रतिपादक, गुण-दोषयुक्त, मननीय, रोचक, भाव प्रधान काव्य रचना है।
काव्य हेतु
बाबू गुलाबराय के अनुसार 'काव्य हेतु' काव्य रचना में सहायक साधन हैं। भामह के अनुसार शब्द, छंद, अभिधान, इतिहास कथा, लोक कथा तथा युक्ति कला काव्य साधन हैं। डंडी ने प्रतिभा,ज्ञान व अभ्यास को काव्य हेतु कहा है। वामन, जगन्नाथ व् हेमचंद्र ने प्रतिभा को काव्य का बीज कहा है। रुद्रट के मत में शक्ति, व्युत्पत्ति व अभ्यास को काव्य हेतु हैं। आनंदवर्धन जन्मजात संस्कार रूपी प्रतिभा को काव्य हेतु कहते हैं। राजशेखर ने प्रतिभा के कारयित्री और भावयित्री दो प्रकार तथा ८ काव्य हेतु स्वास्थ्य, प्रतिभा, अभ्यास, भक्ति, वृत्त कथा, निपुणता, स्मृति व अनुराग माने हैं। मम्मट शक्ति, लोकशास्त्र में निपुणता और अभ्यास को काव्य हेतु कहते हैं। कुंतक, महिम भट्ट और मम्मट प्रतिभा को काव्य हेतु मानते हुए उसे शक्ति, तृतीय नेत्र व काव्य बीज कहते हैं। डॉ. नगेंद्र प्रतिभा को काव्य का मूल, ईश्वर प्रदत्त शक्ति और काव्य बीज कहते हैं।
इस काव्य रचना का हेतु मानव हित, इतिहास कथा, मुक्त छंद, वृत्त कथा, मौलिक विश्लेषण तथा अभ्यास है।कवि हरविंदर सिंह गिल की कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा के अध्यवसाय का सुफल है यह कृति।
विषय चयन
सामान्यत: काव्य रचना में रस की उपस्थिति मानते हुए कोमलकांत पदावली तथा रोचक-रसयुक्त विषय चुने जाते हैं। पत्थर और दीवार 'एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा' की कहावत को चरितार्थ करते हैं। ऐसे नीरस विषय का चयन कर उस पर प्रबंध काव्य रचना अपेक्षाकृत दुष्कर कार्य है जिसे हरविंदर जी ने सहजता से पूर्ण किया है। पत्थर महाप्राण निराला का प्रिय पात्र रहा है।
प्रबंध काव्य तुलसीदास में देश दशा वर्णन हो या अहल्या प्रसंग, पाषाण के बिना कैसे पूर्ण होता-
१८
"हनती आँखों की ज्वाला चल,
पाषाण-खण्ड रहता जल-जल,
ऋतु सभी प्रबलतर बदल-बदलकर आते;
वर्षा में पंक-प्रवाहित सरि,
है शीर्ण-काय-कारण हिम अरि;
केवल दुख देकर उदरम्भरि जन जाते।"
२०
"लो चढ़ा तार-लो चढ़ा तार,
पाषाण-खण्ड ये, करो हार,
दे स्पर्श अहल्योद्धार-सार उस जग का;
अन्यथा यहाँ क्या? अन्धकार,
बन्धुर पथ, पंकिल सरि, कगार,
झरने, झाड़ी, कंटक; विहार पशु-खग का!
निराला की प्रसिद्ध रचना 'वह तोड़ती पत्थर' साक्षी है कि पत्थर भी मानव की व्यथा-कथा कह सकता है-
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर। .....
..... एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
"मैं तोड़ती पत्थर।"
मेरे काव्य संकलन 'मीत मेरे' में एक कविता है 'पाषाण पूजा' जिसमें पत्थर मानवीय संवेदनाओं का वाहक बनकर पाषाण ह्रदय मनुष्य के काम आता है-
ईश्वर!
पूजन तुम्हारा किया जग ने सुमन लेकर
किन्तु मैं पूजन करूँगा पत्थरों से
वही पत्थर जो कि नींवों में लगा है
सही जिसने अकथ पीड़ा, चोट अनगिन
जबकि वह कटा गया था।
मौन था यह सोचकर
दो जून रोटी पायेगा वह
कर परिश्रम काटता जो। ......
.....वही पत्थर ह्रदय जिसका
सुकोमल है बालकों सा
काम आया उस मनुज के
ह्रदय है पाषाण जिसका।
सुहैल अज़ीमाबादी का दिल दोस्तों द्वारा मारे गए पत्थर से घायल है-
पत्थर तो हजारों ने मारे हैं मुझे लेकिन
जो दिल पे लगा आकर एक दोस्त ने मारा है
आम तौर पथराई आँखें, पत्थर दिल, पत्थर पड़ना जैसी अभिव्यक्तियाँ पत्थर को कटघरे में ही खड़ा करती हैं किन्तु 'जहाँ न पहुँचे रवि, वहाँ पहुँचे कवि'। 'पत्थर के सनम तुझे हमने मुहब्बत का खुदा जाना' कहनेवाले शायर के सगोत्री हरविंदर जी ने बर्लिन देश को दो भागों में विभाजित करनेवाली दीवार के टूटने पर गिरते पत्थर को मानवीय संवेदनाओं से जोड़ते हुए इस काव्य कृति की रचना की। कवि हरविंदर पंजाब से हैं, विस्मय यह है कि मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने 'जलियांवाला बाग़ के कुएँ का पत्थर' न चुनकर सुदूर बर्लिन की दीवार का पत्थर चुना, शायद इसलिए कि उबर्लिनवासियों ने निरंतर विरोधकर सत्तधीशों को उस दीवार को तोड़ने के लिए विवश कर दिया। इससे एक सीख भारत उपमहाद्वीप ने निवासियों को लेना चाहिए जो भारत-पाकिस्तान और भारत-बांगलादेश के बीच काँटों की बाड़ को अधिकाधिक मजबूत किया जाता देख मौन हैं, और उसे मिटाने की बात सोच भी नहीं पा रहे।
'कंकर-कंकर में शंकर' और 'कण-कण में भगवान' देखने की विरासत समेटे भारतीय मनीषा आध्यात्म ही नहीं सर जगदीश चंद्र बसु के विज्ञान सम्मत शोध कार्यों के माध्यम से भी जानती और मानती है कि जो जड़ दिखता है उसमें भी चेतना होती है। ढहती बर्लिन दीवार के ढहते हुए पत्थरों को कवि निर्जीव नहीं चेतन मानते हुए उनमें भविष्य की श्वास-प्रश्वास अनुभव करता है।
ये पत्थर
निर्जीव नहीं है,
अपितु हैं उनमें
मानवता के आनेवाले कल की साँसें।
'कोई पत्थर से ना मारे मेरे दीवाने को' कहती हुई व्यवस्था के विरोध में खड़ी लैला, स्वेच्छा रूपी 'कैस' (मजनू) को पत्थर से बचाने की गुहार हमेशा करती आई है। कवि लैला को जनता, कैस को जनमत और पत्थर को हथियार मानता है -
पत्थर निर्जीव नहीं हैं
ये जन्मदाता हैं आधुनिक हथियारों के।
आदिकाल से मानव
इन नुकीले पत्थरों से
शिकार करता था
मानव और जानवर दोनों का।
कवि पत्थर में भी दिल की धड़कनें सुना पाता है-
इनमें प्यार करनेवाले
दिलों की धड़कनें भी होती हैं।
यदि ऐसा न होता तो
ताजमहल इतना जीवंत न होता।
कठोर पत्थर ही दयानिधान, करुणावतार को मूर्तित कर प्रेरणा स्रोत बनता है-
ये प्रेरणा स्रोत भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो चौराहों पर लगी मूर्तियाँ
या स्तंभ और स्मारक
पूज्यनीय और आराधनीय न होते।
गुफा के रूप में आदि मानव के शरणस्थली बने पत्थर, मानव सभ्यता के सबल और सदाबहार सहायक रहे हैं-
इनमें छिपे हैं अनंत उपदेश जीवन के
वर्ण गुफाएँ जो पहाड़ों के गर्भ में
समेटे होती हैं अँधेरा अपने आप में
क्योंकर सार्थक कर देतीं तपस्या को
जो उन संतों ने की थीं।
मनुष्य भाषा, भूषा, लिंग, देश, जाति ही नहीं धरती, पानी और हवा को लेकर भी एक-दूसरे को मरता रहता है किन्तु पत्थर सौहार्द, सद्भाव और सहिष्णुता की मिसाल हैं। ये न तो एक दूसरे पर हमला न करते हैं, न एक दूसरे का शिकार करते हैं-
ये तो नाचते-गाते भी हैं
यदि ऐसा न होता
तो दक्षिण के मंदिरों में बनी
ये पत्थरों की मूर्तियाँ
जीवंत भारत नाट्यम की
मुद्राएँ न होतीं
और आनेवाली पीढ़ियों के लिए
साधना का उत्तम
मंच बनकर न रह पातीं।
पत्थर सीढ़ी के रूप में मानव के उत्थान-पतन में उसका सहारा बनता है। शाला भवन की दीवार बनकर पत्थर ज्ञान का दीपक जलाता है , यही नहीं जब सगे-संबंधी भी साथ छोड़ देते तब भी पत्थर साथ निभाता है -
अंतिम समय में
न ही उसके भाई-बहन और
न ही जीवन साथी
उसका साथ देते हैं।
साथ देते हैं ये पत्थर
जो उसकी कब्र पर सजते हैं।
यहाँ उल्लेख्य है कि गोंडवाने की राजमाता दुर्गावती की शहादत के पश्चात उनकी समाधि पर श्रद्धांजलि के रूप में सफेद कंकर चढ़ाने की परंपरा है।
पत्थर ठोकर लगाकर मनुष्य को आँख खोलकर चलने की सीख और लड़खड़ाने पर सम्हलने का अवसर भी देते हैं।
यदि ऐसा न होता तो
मानव को ठोकर शब्द का
ज्ञान ही नहीं हो पाता
और ठोकर के अभाव में
कोई भी ज्ञान
अपने आप में कभी पूर्ण नहीं होता।
पत्थर अतीत की कहानी कहते हैं, कल को कल तक पहुँचाते हैं, कल से कल के बीच में संपर्क सेतु बनाते हैं-
ये इतिहास के अपनने हैं,
यदि ऐसा न होता तो
कैसे पता चल पाता
मोहनजोदड़ो और हङप्पा का।
पत्थर के बने पाँसों के कारण भारत में महाभारत हुआ-
ये चालें भी चलते हैं ,
यदि ऐसा न होता
चौरस के खेल
में इन पत्थरों से बानी गोटियाँ
दो परिवारों को
जिनमें खून का रिश्ता था
कुरुक्षेत्र में घसीट
न ले जाते और
न होता जन्म
महाभारत का।
द्वार में लगकर पत्थर स्वागत और बिदाई भी करते हैं -
इन पत्थरों से बने द्वार ही
करते हैं स्वागत आनेवाले का
और देते हैं विदाई दुःख भरे दिल से
हर कनेवाले मेहमान को
पर्वत बनकर पत्थर वन प्रांतर और बर्षा का आधार बनते हैं-
यदि पत्थरों से बानी
ये पर्वत की चोटियां
बहती हवाओं के रुख को
महसूस न कर पातीं
तो धरती बरसात के अभाव में
एक रेगिस्तान बनकर रह जाती।
विद्यालय में लगकर पत्थर भविष्य को गढ़ते भी हैं -
स्कूल के प्रांगण में
विचरते बच्चों के जीवन पर
इनकी गहरी निगाह होती है
और उनके एक-एक कदम को
एक गहराई से निहारते हैं
जैसे कोइ सतर्क व्यक्ति
कदमों की आहट से ही
आनेवाले कल को पढ़ लेता है।
पत्थर जीवन मूल्यों की शिक्षा भी देता है, मानव को चेताता है कि हिंसा से किसी समस्या का समाधान होता है -
इतिहास में
खून की स्याही से
आज तक कभी कोई
अपने नाम को को
रौशन नहीं कर पाया
न कर पायेगा।
वह तो मानवता के लिए
बहाये पसीने से ही
स्याही को अक्षरों में
बदलता है।
यह कृति ४० कविताओं का संकलन है, जो बर्लिन को विभाजित करनेवाली ध्वस्त होती दीवार के पत्थर को केंद्र रखकर रची गयी हैं। इस तरह की दो कृतियाँ राम की शक्ति पूजा और तुलसीदास निराला जी ने रची हैं जो श्री राम तथा संत तुलसीदास को केंद्र में रची गयी हैं।
सामान्यत: किसी मानव को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे जाते हैं किंतु कुछ कवियों ने नदी, पर्वत आदि को केंद्र में रखकर प्रबंध काव्य रचे हैं। डॉ. अनंत राम मिश्र अनंत ने नर्मदा, गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी, चम्बल, सिंधु आदि नदियों पर प्रबंध काव्य रचे हैं।कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने इसी पथ पर पग रखते हुए 'ये पत्थर और ढहती बर्लिन दीवार' प्रबंध काव्य की रचना की है। जीवन भर देश की रक्षार्थ हाथों में हथियार थामनेवाले करों में सेवानिवृत्ति के पश्चात् कलम थामकर सामाजिक-पारिवारिक-मानवीय मूल्यों की मशाल जलाकर कप्तान हरविंदर सिंह गिल ने अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है। उनकी मौलिक चिंतन वृत्ति आगामी कृतियों के प्रति उत्सुकता जगाती है। इस कृति को निश्चय ही विद्वज्जनों और सामान्य पाठकों से अच्छा प्रतिसाद मिलेगा यह विश्वास है।
२४-९-२०२०
संपर्क : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक, विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.कॉम
==============
बाल गीत
*
आओ! खेलें चीटी धप
*
श्रीधर स्वाती जल्दी आओ
संग मंजरी को भी लाओ
मत घर बैठ बाद पछताओ
अंजू झटपट दौड़ लगाओ
तुम संतोष न घर रुक जाओ
अमरनाथ कर देंगे चुप
आओ! खेलें चीटी धप
*
भोर हुई आलोक सुहाया
कर विनोद फिर गीत सुनाया
राजकुमार पुलककर आया
रँग बसंत का सब पर छाया
शोर अनिल ने मचल मचाया
अरुण न भागे देखो छुप
आओ! खेलें चीटी धप
***
भावानुवाद
*
ओ मति-मेधा स्वामिनी, करने दो तव गान।
भाव वृष्टि कर दो बने, पंक्ति-पंक्ति रसवान।।
पंथ प्रकाशित कर सदा, दिखाती हो राह।
दोष हमारे मेटतीं, जिस पल लेतीं चाह।।
मिले प्रेरणा सभी को, लें सब बाधा जीत।
प्रीत तुम्हारी दिन करे, मिटा रात की भीत।।
लोभ मोह मत्सर मिटा, तुम करती हो मुक्त।
प्रगट मैया दर्श दो, नतमस्तक मैं भुक्त।।
***
छंद पञ्चचामर
विधान - जरजरजग
मापनी - १२१ २१२ १२१ २१२ १२१ २
*
कहो-कहो कहाँ चलीं, न रूठना कभी लली
न बोल बोल भूलना, कहा सही तुम्हीं बली
न मोहना दिखा अदा, न घूमना गली-गली
न दूर जा न पास आ, सुवास दे सदा कली
२४.९.२०१९
***
कवित्त
*
राम-राम, श्याम-श्याम भजें, तजें नहीं काम
ऐसे संतों-साधुओं के पास न फटकिए।
रूप-रंग-देह ही हो इष्ट जिन नारियों का
भूलो ऐसे नारियों को संग न मटकिए।।
प्राण से भी ज्यादा जिन्हें प्यारी धन-दौलत हो
ऐसे धन-लोलुपों के साथ न विचरिए।
जोड़-तोड़ अक्षरों की मात्र तुकबन्दी बिठा
भावों-छंदों-रसों हीन कविता न कीजिए।।
***
मान-सम्मान न हो जहाँ, वहाँ जाएँ नहीं
स्नेह-बन्धुत्व के ही नाते ख़ास मानिए।
सुख में भले हो दूर, दुःख में जो साथ रहे
ऐसे इंसान को ही मीत आप जानिए।।
धूप-छाँव-बरसात कहाँ कैसा मौसम हो?
दोष न किसी को भी दें, पहले अनुमानिए।
मुश्किलों से, संकटों से हारना नहीं है यदि
धीरज धरकर जीतने की जिद ठानिए।।
२४-९-२०१६
***
नवगीत
*
कर्म किसी का
क्लेश किसी को
क्यों होता है बोल?
ओ रे अवढरदानी!
अपनी न्याय व्यवस्था तोल।
*
क्या ऊपर भी
आँख मूँदकर
ही होता है न्याय?
काले कोट वहाँ भी
धन ले करा रहे अन्याय?
पेशी दर पेशी
बिकते हैं
बाखर, खेत, मकान?
क्या समर्थ की
मनमानी ही
हुआ न्याय-अभिप्राय?
बहुत ढाँक ली
अब तो थोड़ी
बतला भी दे पोल
*
कथा-प्रसाद-चढ़ोत्री
है क्या
तेरा यही रिवाज़?
जो बेबस को
मारे-कुचले
उसके ही सर ताज?
जनप्रतिनिधि
रौंदें जनमत को
हावी धन्ना सेठ-
श्रम-तकनीक
और उत्पादक
शोषित-भूखे आज
मनरंजन-
तनरंजन पाता
सबसे ऊँचे मोल।
***
मुक्तक
'नहीं चाहिए' कह देने से कब मिटता परिणाम?
कर्म किया जिसने वह निश्चय भोगेगा अंजाम
यथा समय फल जीव भोगता, अन्य न पाते देख
जाने-माने समय गर्त में खोते ज्यों गुमनाम
*
तन धोखा है, मन धोखा है, जीवन धोखा है
श्वास, आस, विश्वास, रास, परिहास न चोखा है
धोखे के कीचड़ में हमको कमल खिलाना है
सब को क्षमा कर सकें जो वह व्यक्ति अनोखा है
*
कान्हा कहता 'करनी का फल सबको मिलता है'
माली नोचे कली-फूल तो, आप न फलता है
सिर घमण्ड का नीचा होता सभी जानते हैं -
छल-फरेब कर व्यक्ति स्वयं ही खुद को छलता है .
*
श्रेष्ठ न खुद को कभी कहा है, मान लिया हूँ नीच
फेंक दूर कर, कभी नहीं आने दें अपने बीच
नफरत पाल किसी से, खुद को नित आहत करना
ऐसा जैसे स्नान-ध्यान कर फिर मल लेना कीच
*
कौन जगत में जिसने केवल अच्छा कार्य किया?
कौन यहाँ है जिसने केवल विष या अमिय पिया?
धूप-छाँव दोनों ही जीवन में भरते हैं रंग
सिर्फ एक हो तो दुनिया में कैसे लगे जिया?
***
नवगीत
*
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
चलो बैठ पल दो पल कर लें
मीत! प्रीत की बात।
*
गौरैयों ने खोल लिए पर
नापें गगन विशाल।
बिजली गिरी बाज पर
उसका जीना हुआ मुहाल।
हमलावर हो लगा रहा है
लुक-छिपकर नित घात
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
आ बुहार लें मन की बाखर
कहें न ऊँचे मोल।
तनिक झाँक लें अंतर्मन में
निज करनी लें तोल।
दोष दूसरों के मत देखें
खुद उजले हों तात!
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
स्वेद-'सलिल' में करें स्नान नित
पूजें श्रम का दैव।
निर्माणों से ध्वंसों को दें
मिलकर मात सदैव।
भूखे को दें पहले,फिर हम
खाएं रोटी-भात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
साक्षी समय न हमने मानी
आतंकों से हार।
जैसे को तैसा लौटाएँ
सरहद पर इस बार।
नहीं बात कर बात मानता
जो खाये वह लात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
*
लोकतंत्र में लोभतंत्र क्यों
खुद से करें सवाल?
कोशिश कर उत्तर भी खोजें
दें न हँसी में टाल।
रात रहे कितनी भी काली
उसके बाद प्रभात।
पुनर्जन्म हर सुबह हो रहा
पुनर्मरण हर रात।
२४-९-२०१६
***
नवगीत २
इसरो को शाबाशी
किया अनूठा काम
'पैर जमाकर
भू पर
नभ ले लूँ हाथों में'
कहा कभी
न्यूटन ने
सत्य किया
इसरो ने
पैर रखे
धरती पर
नभ छूते अरमान
एक छलाँग लगाई
मंगल पर
है यान
पवनपुत्र के वारिस
काम करें निष्काम
अभियंता-वैज्ञानिक
जाति-पंथ
हैं भिन्न
लेकिन कोई
किसी से
कभी न
होता खिन्न
कर्म-पुजारी
सच्चे
नर हों या हों नारी
समिधा
लगन-समर्पण
देश हुआ आभारी
गहें प्रेरणा हम सब
करें विश्व में नाम
***
नवगीत:
*
पानी-पानी
हुए बादल
आदमी की
आँख में
पानी नहीं बाकी
बुआ-दादी
हुईं मैख़ाना
कभी साकी
देखकर
दुर्दशा मनु की
पलट गयी
सहसा छागल
कटे जंगल
लुटे पर्वत
पटे सरवर
तोड़ पत्थर
खोद रेती
दनु हुआ नर
त्रस्त पंछी
देख सिसका
कराहा मादल
जुगाड़े धन
भवन, धरती
रत्न, सत्ता और
खाली हाथ
आखिर में
मरा मनुज पागल
२४-९-२०१४
***
द्विपदी
अकसर अवसर आ मिले, बिन आहट-आवाज़
अनबोले-अनजान पर, अलबेला अंदाज़
२४-९-२०१०

***

गुरुवार, 21 अगस्त 2025

अगस्त २१, सॉनेट, पूर्णिका, आँख, दोहा, मुक्तिका, बेटी, हाइकु, बाल गीत, शांता,

सलिल सृजन अगस्त २१
*
पूर्णिका
शुभ दिन हो, खुशियाँ मिलें श्वास-श्वास बन आस
अधरों पर सज्जित रहें बनकर मधुरिम हास
.
तृप्ति अतृप्त रहे कहे- कभी न मानो हार
श्रम सीकर में स्नान कर करते रहो प्रयास
.
सृजन वाटिका में बनो तितली पा मकरंद
पान करो जितना बढ़े उतनी ज्यादा प्यास
.
गुल न बनो गुलदान का पल में जाता सूख
'सलिल' जमा जड़ जमीं में हरियाओ बन घास
.
नाद कृष्ण स्वर राधिका, रस गोपी लय ग्वाल
शब्द ब्रह्म साक्षात कर नित्य रचाओ रास
२१.८.२०२५
०.०
सॉनेट
आँख
आंँख दिखाकर आँख को करे आँख बेहोश
आँख झुकाकर दे रहीं स्वीकृति आँखें मौन
आँख उठाकर पूछती आँख 'आप हैँ कौन?'
आँख मिलाकर कर सकें आँखों को मदहोश।
आँख नटेर-निकाल कर आँख दिखाए जोश
आँख शक्ति है भक्ति भी, आँख पुष्प जासौन
आँख बहाए अश्रु हँस, हो खारा बिन नौन
आँख किताबी अजाने बने भाव-रस कोश।

आँख उठे मिल लड़ झुके, समझो देगी साथ
आँख चुराए आँख, दे झोंक धूल, बच मीत
आँख आँख पर आँख रख, करे सुरक्षा जाग।
आंँख न भय से भागती, जिए उठाकर माथ
आँख प्राण दे निभाती अगर पालती प्रीत
आँख स्नेह सलिला विमल, आँख 'सलिल' अनुराग। 
२१.८.२०२५
०००
दोहा सलिला
मन-मंजूषा जब खिली, यादें बन गुलकंद
मतवाली हो महककर, लुटा रही मकरंद
*
सुमन सुमन उपहार पा, प्रभु को नमन हजार
सुरभि बिखेरें हम 'सलिल ', दस दिश रहे बहार
*
जिससे मिलकर हर्ष हो, उससे मिलना नित्य
सुख न मिले तो सुमिरिए, प्रभु को वही अनित्य
*
मुक्तक:
मिलीं मंगल कामनाएँ, मन सुवासित हो रहा है।
शब्द, चित्रों में समाहित, शुभ सुवाचित हो रहा है।।
गले मिल, ले बाँह में भर, नयन ने नयना मिलाए-
अधर भी पीछे कहाँ, पल-पल सुहासित हो रहा है।।
***
चिंतन :
पादुका को शीश पर धर, चले त्रेता में भरत थे.
पादुका बिन जानकी को, त्यागने राघव त्वरित थे.
आज ने पाई विरासत, कर रहा निर्वाह बेबस-
सार्थक हों यदि किताबें, समादृत होंगी तभी बस .
सिर्फ लिखने के लिए, मत लिखें थोडा मर्म भी हो.
व्यर्थ कागज़ हो न जाया, सोच सार्थक कर्म भी हो.
***
जिसने सपने में देखा, उसने ही पाया
जिसने पाया, स्वप्न मानकर तुरत भुलाया
भुला रहा जो याद उसी को फिर-फिर आया
आया बाँहों-चाहों में जो वह मन-भाया
***
मुक्तिका:
जागे बहुत, चलो अब सोएँ
किसका कितना रोना रोएँ?
नेता-अफसर माखन खाएँ
आम आदमी दही बिलोएँ
पाये-जोड़े की तज चिंता
जो पाया, दे कर खुद खोएँ
शासन चाहे बने भिखारी
हम-तुम केवल साँसें ढोएँ
रहे विपक्ष न शेष देश में
फूल रौंदकर काँटे बोएँ
सत्ता करे देश को गंदा
जनगण केवल मैला धोएँ
***
षट्पदी-
कर-भार
चाहा रहें स्वतंत्र पर, अधिकाधिक परतंत्र
बना रहा शासन हमें, छीन मुक्ति का यंत्र
रक्तबीज बन चूसते, कर जनता का खून
गला घोंटते निरन्तर, नए-नए कानून
राहत का वादा करें, लाद-लाद कर-भार
हे भगवान्! बचाइए, कम हो अत्याचार
***
कठिन-सरल
'क ख ग' भी लगा था, प्रथम कठिन लो मान.
बार-बार अभ्यास से, कठिन हुआ आसान
कठिन-सरल कुछ भी नहीं, कम-ज्यादा अभ्यास
मानव मन को कराता, है मिथ्या आभास.
भाषा मन की बात को, करती है प्रत्यक्ष
अक्षर जुड़कर शब्द हों, पाठक बनते दक्ष
***
चतुष्पदी
फूल चित्र दे फूल मन, बना रहा है fool.
स्नेह-सुरभि बिन धूल है, या हर नाता शूल
स्नेह सुवासित सुमन से, सुमन कहे चिर सत्य
जिया-जिया में पिया है, पिया जिया ने सत्य
***
मुक्तिका
बेटी
*
बेटी दे आशीष, आयु बढ़ती है
विधि निज लेखा मिटा, नया गढ़ती है
*
सचमुच है सौभाग्य बेटियाँ पाना-
आस पुस्तकें, श्वास मौन पढ़ती है.
*
कभी नहीं वह रुकती,थकती, चुकती
चुक जाते सोपान अथक चढ़ती है
*
पथ भटके तो नाक कुलों की कटती
काली लहू खलों का पी कढ़ती है
*
असफलता का फ्रेम बनाकर गुपचुप
चित्र सफलता का सुन्दर मढ़ती है
21-8-2017
***
हाइकु
*
जो जमाये हो
धरती पर पैर
उसी की खैर।
*
भू पर पैर
हाथ में आसमान
कोई न गैर।
*
गह ले थाह
तब नदी में कूद
जी भर तैर
*
सब अपने
हैं प्रभु की सृष्टि में
पाल न बैर
*
भुला चिंता
नित्य सबेरे-शाम
कर ले सैर
***
बाल गीत
खेलें खेल
*
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
मैं दौडूँगा इंजिन बनकर
रहें बीच में डब्बे बच्चे
गार्ड रहेगा सबसे पीछे
आपस में रखना है मेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
सीटी बजी भागना हमको
आपस में बतियाना मत
कोई उतर नहीं पायेगा
जब तक खड़ी न होगी रेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
यह बंगाली गीत सुनाये
उसे माहिया गाना है
तिरक्कुरल, आल्हा, कजरी सुन
कोई करे न ठेलमठेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
खेल कबड्डी, हॉकी, कैरम
मुक्केबाजी, तैराकी
जायेंगे हम भी ओलंपिक
पदक जितने,क्यों हों फेल?
आओ! मिलकर खेलें खेल
*
योगासन, व्यायाम करेंगे
अनुशासित करना व्यवहार
पौधे लगा, स्वच्छता रख हम
दूध पियें,खाएंगे भेल
आओ! मिलकर खेलें खेल
***
मुक्तिका
*
रखें पुराना भी सहेजकर, आवश्यक नूतन वर लें
अब तक रहते आये भू पर, अब मंगल को घर कर लें
*
किया अमंगल कण-कण का लेकिन फिर भी मन भरा नहीं
पंचामृत तज, देसी पौआ पियें कण्ठ तर कर, तर लें
*
कण्ठ हलाहल धारण कर ले भले, भला हो सब जग का
अश्रु पोंछकर क्रंदन के, कलरव-कलकल से निज स्वर लें
*
कल से कल को मिले विरासत कल की, कोशिश यही करें
दास न कल का हो यह मानव, 'सलिल' लक्ष्य अपने सर लें
*
सर करना है समर न अवसर बार-बार सम्मुख होगा
क्यों न पुराने और नए में सही समन्वय हम कर लें
***
*राम की बहन शांता*
अंगदेश के राजा रोमपाद और उनकी रानी वर्षिणी थे वर्षिणी कौशल्या की बहन थी। उनके कोई संतान नहीं थी। राजा दशरथ ने अपनी पुत्री शांता को उन्हेंदे दिया. शांता अंगदेश की राजकुमारी बन गईं। शांता वेद, कला तथा शिल्प में पारंगत थीं और वे अत्यधिक सुंदर भी थीं। उनका विवाह ऋषि श्रुंग से हुआ . इन्हीं ऋषि श्रुंग ( जो कि दशरथ के दामाद थे) ने पुत्रेष्ठी यज्ञ करवाया जिससे राम और उनके भाइयों का जन्म हुआ . राम अपनी बहन शांता से कभी नहीं मिले. आधुनिक काल के काव्य को छोड़कर सभी प्राचीन रामायण ने इन सन्दर्भों पर मौन हैं . कहा जाता है कि सेंगर राजपूत इन्ही शांता देवी और ऋषि श्रुंग के वंशज हैं....
***
*भाषाविद तुलसी *.
तुलसीदास जी ने अपने सम्पूर्ण काव्य में 90 हज़ार ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो संस्कृत मूल के हैं और बोली के रूप में तैयार किये गए हैं . दूसरी तरफ 40 हज़ार ऐसे शब्द हैं जो देशज प्रकृति के हैं . एक शोधार्थी ने यह रोचक आंकडा प्रस्तुत किया है. मैंने कहीं यह भी पढ़ा है कि आंग्ल भाषा में सबसे अधिक शब्दों का प्रयोग करने वाले शेक्सपियर भी तुलसी के निकट हैं . यूं देखा जाए तो आचार्य भवभूति शब्द संयोजना में सबसे आगे हैं और उनके बाद आचार्य केशवदास ...
21-8-2016
***
मुक्तक:
संजीव
*
अहमियत न बात को जहाँ मिले
भेंट गले दिल-कली नहीं खिले
'सलिल' वहां व्यर्थ नहीं जाइए
बंद हों जहाँ ह्रदय-नज़र किले
*
'चाँद सा' जब कहा, वो खफा हो गये
चाँदनी थे, तपिश दुपहरी हो गये
नेह निर्झर नहीं, हैं चट्टानें वहाँ
'मैं न वैसी' कहा औ' जुदा हो गये
*
मुक्तिका:
*
नज़र मुझसे मिलाती हो, अदा उसको दिखाती हो
निकट मुझको बुलाती हो, गले उसको लगाती हो
यहाँ आँखें चुराती हो, वहाँ आँखें मिलाती हो
लुटातीं जान उस पर, मुझको दीवाना बनाती हो
हसीं सपने दिखाती हो, तुरत हँसकर भुलाती हो
पसीने में नहाता मैं, इतर में तुम नहाती हो
जबाँ मुझसे मुखातिब पर निग़ाहों में बसा है वो
मेरी निंदिया चुराती, ख़्वाब में उसको बसाती हो
अदा दिलकश दिखा कर लूट लेती हो मुझे जानम
सदा अपना बतातीं पर नहीं अपना बनाती हो
न इज़हारे मुहब्बत याद रहता है कभी तुमको
कभी तारे दिखाती हो, कभी ठेंगा दिखाती हो
वज़न बढ़ना मुनासिब नहीं कह दुबला दिया मुझको
न बाकी जेब में कौड़ी, कमाई सब उड़ाती हो
कलेजे से लगाकर पोट, लेतीं वोट फिर गायब
मेरी जाने तमन्ना नज़र तुम सालों न आती हो
सियासत लोग कहते हैं सगी होती नहीं संभलो
बदल बैनर, लगा नारे मुझे मुझसे चुराती हो
सखावत कर, अदावत कर क़यामत कर रही बरपा
किसी भी पार्टी में हो नहीं वादा निभाती हो
२१-८-२०१४
*

बुधवार, 6 अगस्त 2025

अगस्त ६, नवगीत, बाल गीत,

सलिल सृजन अगस्त ६
*
नवगीत :
*
संसद की दीवार पर
दलबन्दी की धूल
राजनीति की पौध पर
अहंकार के शूल
*
राष्ट्रीय सरकार की
है सचमुच दरकार
स्वार्थ नदी में लोभ की
नाव बिना पतवार
हिचकोले कहती विवश
नाव दूर है कूल
लोकतंत्र की हिलाते
हाय! पहरुए चूल
*
गोली खा, सिर कटाकर
तोड़े थे कानून
क्या सोचा था लोक का
तंत्र करेगा खून?
जनप्रतिनिधि करते रहें
रोज भूल पर भूल
जनगण का हित भुलाकर
दे भेदों को तूल
*
छुरा पीठ में भोंकने
चीन लगाये घात
पाक न सुधरा आज तक
पाकर अनगिन मात
जनहित-फूल कुचल रही
अफसरशाही फूल
न्याय आँख पट्टी, रहे
ज्यों चमगादड़ झूल
*
जनहित के जंगल रहे
जनप्रतिनिधि ही काट
देश लूट उद्योगपति
खड़ी कर रहे खाट
रूल बनाने आये जो
तोड़ रहे खुद रूल
जैसे अपने वक्ष में
शस्त्र रहे निज हूल
*
भारत माता-तिरंगा
हम सबके आराध्य
सेवा-उन्नति देश की
कहें न क्यों है साध्य?
हिंदी का शतदल खिला
फेंकें नोंच बबूल
शत्रु प्रकृति के साथ
मिल कर दें नष्ट समूल
[प्रयुक्त छंद: दोहा, १३-११ समतुकांती दो पंक्तियाँ,
पंक्त्यान्त गुरु-लघु, विषम चरणारंभ जगण निषेध]
६.८.२०१५
***
नवगीत:
आओ! तम से लड़ें
*
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
माटी माता,
कोख दीप है.
मेहनत मुक्ता
कोख सीप है.
गुरु कुम्हार है,
शिष्य कोशिशें-
आशा खून
खौलता रग में.
आओ! रचते रहें
गीत फिर गायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
***
आखर ढाई
पढ़े न अब तक.
अपना-गैर न
भूला अब तक.
इसीलिये तम
रहा घेरता,
काल-चक्र भी
रहा घेरता.
आओ! खिलते रहें
फूल बन, छायें जग में.
आओ! तम से लड़ें,
उजाला लायें जग में...
६.८.२०१४
***
बाल गीत:
बरसे पानी
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
६.८.२०११
***

शनिवार, 2 अगस्त 2025

अगस्त २, सॉनेट, सरस्वती, ओंकार श्रीवास्तव, बाल गीत

 सलिल सृजन अगस्त २

*
सॉनेट
हम
हम अनेक पर एक हमारा देश है,
भाषा-भूषा, बोली, धर्म अलग अलग,
करें देश से प्रेम न अंतर लेश है,
सुख-दुख में सब साथ नहीं होते विलग।
कर में कर ले साथ झूमते गा रहे,
सोच एक ही, लक्ष्य एक सा, संग हम,
कदम ताल हम एक साथ कर पा रहे,
कहीं न करते कभी रंग में भंग हम।
हँसते-गाते, मौज मनाते बीतती,
अहा जिंदगी, साथ यार है, प्यार है,
श्वास घटों से खुशियाँ टपक न रीतती,
मन भाती तकरार, मृदुल मनुहार है।
तू-मैं तू तू मैं मैं को दें त्याग अब।
साध्य न हो वैराग्य, लक्ष्य अनुराग अब।।
२-८-२०२३
•••
सॉनेट
समझ
तुम शिक्षित हो, समझदार हम,
सीखो पर्यावरण यांत्रिकी,
जो न मिला उसका हो क्यों गम,
उपादान अनुकूल तांत्रिकी।
मांँ से बड़ा न है अभियंता,
काया बना करें संप्राणित,
करता नमन आप भगवंता,
मातृ-शक्ति से जग संचालित।
कंकर कंकर में है शंकर,
अंग-अंग ब्रह्माण्ड सचेतन,
पत्ता-पत्ता है दिक्-अंबर,
प्रकृति-पुत्र को सृष्टि निकेतन।
माँ तो माँ है, त्रिभुवन वंदित।
सर्व पूज्य यह, चंदन चर्चित।।
२-८-२०२३
•••
सॉनेट
डाकिया
लेकर डाक डाकिया दौड़े,
आतप वृष्टि शीत हर मौसम,
मानें हार निगोड़े घोड़े,
समदृष्टा हँस सहे शोक-गम।
राजमार्ग, पथ या पगडंडी,
इसको सम है शहर-गाँव भी,
छाता, बरसाती या बंडी,
रहे न सिर पर तनिक छाँव भी।
पत्थर, गड्ढे, काँटे भी पथ,
रोक न पाते, टोंक न पाते,
बनी साइकिल इसे कार-रथ,
कर्मवीर का यश कवि गाते।
घर घर संदेशा पहुँचाता।
बिछुड़ों को समीप ले आता।।
२-८-२०२३
•••
सरस्वती वंदना
*
हे हंस वाहिनी! ज्ञानदायिनी!!
अम्ब विमल मति दे.....
जग सिरमौर बनाएँ भारत.
सुख-सौभाग्य करे नित स्वागत.
आशिष अक्षय दे.....
साहस-शील हृदय में भर दे.
जीवन त्याग तपोमय कर दे.
स्वाभिमान भर दे.....
लव-कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम.
मानवता का त्रास हरें हम.
स्वार्थ सकल तज दे.....
दुर्गा, सीता, गार्गी, राधा,
घर-घर हों काटें भव बाधा.
नवल सृष्टि रच दे....
सद्भावों की सुरसरि पावन.
स्वर्गोपम हो राष्ट्र सुहावन.
'सलिल'-अन्न भर दे...
***
भाई ओंकार श्रीवास्तव के प्रति
स्मरण गीत
*
वह निश्छल मुस्कान
कहाँ हम पायेंगे?
*
मन निर्मल होता तुममें ही देखा था
हानि-लाभ का किया न तुमने लेखा था
जो शुभ अच्छा दिखा उसी का वन्दन कर
संघर्षित का तिलक किया शुचि चन्दन कर
कब ओंकारित स्वर
हम फिर सुन पायेंगे?
*
श्री वास्तव में तुमने ही तो पाई है
ज्योति शक्ति की जन-मन में सुलगाई है
चित्र गुप्त प्रतिभा का देखा जिस तन में
मिले लक्ष्य ऐसी ही राह सुझाई है
शब्द-नाद जयकार
तुम्हारी गायेंगे
*
रेवा के सुत,रेवा-गोदी में सोए
नेह नर्मदा नहा, नए नाते बोए
मित्र संघ, अभियान, वर्तिका, गुंजन के
हित चिंतक! हम याद तुम्हारी में खोए
तुम सा बंधु-सुमित्र न खोजे पायेंगे
२.८.२०१६
***
बाल गीत:
बरसे पानी
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
२.८.२०१४
***