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गुरुवार, 1 सितंबर 2011

नव गीत: शहर का एकांत -- संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना
एक नव गीत:

शहर का एकांत

संजीव 'सलिल'
*
ढो रहा है
संस्कृति की लाश
शहर का एकांत...
*
बहुत दुनियादार है यह
बचो इससे.
दलाली व्यापार है
सच कहो किससे?
मंडियाँ इंसान के
ज़ज्बात की ये-
हादसों के लिख रही हैं
नये किस्से

खो रहा है
ढाई-आखर-पाश
हो दिग्भ्रांत.
शहर का एकांत...
*
नहीं कौनौ है
हियाँ अपना.
बिना जड़ का रूख
हर सपना.
बिन कलेवा और
बिन सहरी-
चल पड़े पग,
थम न दिल कँपना.

हो रहा
हालात-कर का ताश
बन संभ्रांत?
शहर का एकांत...
  *
अचल  वर्मा :
शहर  में  एकांत  हो  तो  बात  अच्छी  है  
मैंने  तो  देखा  है  केवल  झुण्ड  लोगों  के. 
स्वप्न  में  भी  भीड़  ही  पड़ती  दिखाई  
हर जगह दिखते यहाँ  बाजार  धोखों के..
*
संजीव 'सलिल':
भीड़ भारी किन्तु फिर भी सब अकेले हैं.
शहर में कहिये कहीं क्या कम झमेले हैं?
*
एस.एन.शर्मा 'कमल'
न कौनौ अपना हियाँ
न कौनौ जनि पावै
कौन है कहाँ  ???
*
वीणा विज ‘उदित’

कैसे भूल गया तूं …?

खुले आँगन के चारों कोने
पीछे दालान के ऊँचे खम्बे
छप्पर की गुमटी की ताँक-झाँक
बेरी-इमली के खट्टे-मीठे स्वाद
संग-संग तल्लैय्या में लगाना छलाँग
नमक लगा चाटना इमली की फाँक
जीभ चिढ़ाकर अपने पीछे भगाना
पिट्ठू के खेल में हरदम हराना
जेठ की दुपहरी में नँगे पाँव भागना
रंग-बिरंगी चूड़ी के टुकड़े बटोरना
आषाण के मेघों का जोर का बरसना
कीचड़ में पैरों के निशां बनाना मिटाना
कितना मधुर था दोनों का बचपन
गलबय्यां डाल साथ में सोना हरदम
माँ ने तो लगाया था माथे पे नज़रबट्टू
भाई! कैसे भूल गया सब कुछ अब तूं…?
*
भाई की पाती:
समय-समय की बात है, समय-समय का फेर.
बचपन छूटा कब-कहाँ, किन्तु रहा है टेर.....
*
मुझको न भूले हैं दिन वे सुहाने.
वो झूलों की पेंगें, वो मस्ती वो गाने.
गये थे तलैया पे सँग-सँग नहाने.
मैया से झूठे बनाकर बहाने.

फिसली थी तू मैंने थामा झपटकर.
'बताना न घर में' तू बोली डपटकर.
'कहाँ रह गये थे रे दोनों अटककर?'
दद्दा ने पूछा तो भागे सटककर.

दिवाली में मिलकर पटाखे जलाना.
राखी में सुंदर से कपड़े सिलाना.
होली में फागें-कबीरा गुंजाना.
गजानन के मोदक झपट-छीन खाना.

हाय! कहाँ वे दिन गये, रंग हुए बदरंग.
हम मँहगाई से लड़े, हारे हर दिन जंग..
*
'छोरी है इसकी छुड़ा दें पढ़ाई.'
दादी थी बोली- अड़ा था ये भाई.
फाड़ी थी पुस्तक पिटाई थी खाई.
मगर तेज मुझसे थी तेरी रुलाई.

हुई जब तनिक भी कहीं छेड़-खानी.
सँग-सँग चला मैं, करी निगहबानी.
बनेगी न लाड़ो कहीं नौकरानी.
'शादी करा दो' ये बोली थी नानी.

तब भी न तुझको अकेला था छोड़ा.
हटाया था पथ से जो पाया था रोड़ा.
माँ ने मुझे एक दिन था झिंझोड़ा.
तुझे फोन करता है दफ्तर से मोंड़ा.

देख-परख तुझसे करी, थी जब मैंने बात.
बिन बोले सब कह गयीं, थी अँखियाँ ज़ज्बात..
मिला उनसे, थी बात आगे बढ़ायी.
हुआ ब्याह, तूने गृहस्थी बसायी.
कहूँ क्या कि तूने भुलाया था भाई?
हुई एक दिन में ही तू थी परायी?

परायों को तूने है अपना बनाया.
जोड़े हैं तिनके औ' गुलशन सजाया.
कई दिन संदेशा न कोई पठाया.
न इसका है मतलब कि तूने भुलाया.

मेरे ज़िंदगी में अलग मोड़ आया.
घिरा मुश्किलों में न सँग कोई पाया.
तभी एक लड़की ने धीरज बंधाया.
पकड हाथ मैंने कदम था बढ़ाया.
मिली नौकरी तो कहा, माँ ने करले ब्याह.
खाप आ गयी राह में, कहा: छोड़ दे चाह..

कैसे उसको भूलता, जिसका मन में वास.
गाँव तजा, परिवार को जिससे मिले न त्रास..

ब्याह किया, परिवार बढ़, मुझे कर गया व्यस्त.
कोई न था जो शीश पर, रखता अपना हस्त..

तेरी पाती देखकर, कहती है भौजाई.
जाकर लाओ गाँव से, सँग दद्दा औ' माई.

वहाँ ताकते राह हैं, खूँ के प्यासे लोग.
कैसे जाऊँ तू बता?, घातक है ये रोग..

बहना! तू जा मायके, बऊ-दद्दा को संग.
ले आ, मेरी ज़िंदगी, में घुल जाये रंग..

तूने जो कुछ लिख दिया, सब मुझको स्वीकार.
तू जीती यह भाई ही, मान रहा है हार..
***

गुरुवार, 14 जुलाई 2011










नवगीत:                                                                                   
शहर का एकांत...
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ढो रहा है
संस्कृति की लाश,
शहर का एकांत...
*
बहुत दुनियादार है यह,
बचो इससे.
दलाली व्यापार है,
सच कहो किससे?
मंडियाँ इंसान के
ज़ज्बात की हैं-
हादसों के लिख रही हैं
नये किस्से.

खो रहा है
ढाई-आखर-पाश
हो दिग्भ्रांत.
शहर का एकांत...
*
नहीं कउनौ है
हियाँ अपना.
बिना जड़ का रूख
हर सपना.
बिन कलेवा और
बिन सहरी-
चल पड़े पग,
थाम न दिल कँपना.

हो रहा है
हालात-कर का ताश
बन संभ्रांत?
शहर का एकांत...
*

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com