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बुधवार, 22 मई 2013

geet-prati geet : mahesh chandr dwivedi-acharya sanjiv verma 'salil'

गीत-प्रतिगीत 
*
महेश चन्द्र द्विवेदी
ॐकार बनना चाहता हूं

प्रकाश तक के आगमन का द्वार कर बंद
अभेद्य अपने को जो मान बैठा था स्वयं,
ना देखता था,  और ना सुनता किसी की
अनंत गुरुत्वाकर्षणयुक्त था वह आदिपिंड.

ऐसे आदिपिंड को जो चिरनिद्रा से जगा दे
उस प्रस्फुटन की ॐकार बनना चाहता हूं.

युगों तक जो बना रहता इक तिमिर-छिद्र
अकस्मात बन जाता विस्फोटक बम सशक्त.
क्रोधित शेषनाग सम फुफकारता ऊर्जा-पिंड
स्वयं को विखंडित कर बना देता गृह-नक्षत्र.

उस तिमिर-छिद्र को कुम्भकर्णी नींद से 
जो जगा दे,  मैं वह हुंकार बनना चाहता हूं.

नश्वर विश्व का अणु-अणु रहता अनवरत-
एक वृत्त-परिधि में घूमते रहने में विरत,
वृत्त-परिधि का हर विंदु स्वयं में है आदि,
और है स्वयं में ही एक अंत,  स्वसीमित.


लांघकर ऐसी सीमायें समस्त मैं,  परिधि
के उस पार की झंकार बनना चाहता हूं.

आदि प्रलय की ॐकार बनना चाहता हूं.

Mahesh Dewedy <mcdewedy@gmail.com>
*
संजीव 
गीत:
चाहता हूँ ...
संजीव
*
काव्यधारा जगा निद्रा से कराता सृजन हमसे.
भाव-रस-राकेश का स्पर्श देता मुक्ति तम से
कथ्य से परिक्रमित होती कलम ऊर्जस्वित स्वयं हो

हैं न कर्ता, किन्तु कर्ता बनाते खुद को लगन से
ह्रदय में जो सुप्त, वह झंकार बनना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
गति-प्रगति मेरी नियति है, मनस में विस्फोट होते
व्यक्त होते काव्य में जो, बिम्ब खोकर भी न खोते
अणु प्रतीकों में उतर परिक्रमित होते परिवलय में
रुद्ध द्वारों से अबाधित चेतना-कण तिमिर धोते
अहंकारों के परे हंकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
लय विलय होती प्रलय में, मलय नभ में हो समाहित
अनल का पावन परस, पा धरा अधरा हो निनादित
पञ्च प्यारे दस रथों का, सारथी नश्वर-अनश्वर
आये-जाये वसन तजकर सलिल-धारा हो प्रवाहित
गढ़ रहा आकर, खो निर-आकार होना चाहता हूँ
जानता हूँ, हूँ पुनः ओंकार बनना चाहता हूँ …
*
टीप: पञ्च प्यारे= पञ्च तत्व, दस रथों = ५ ज्ञानेन्द्रिय + ५ कर्मेन्द्रिय