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बुधवार, 5 अक्टूबर 2011

मैथिली देवी गीत: सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा............... रचनाकार- अभय दीपराज

मैथिली देवी गीत:
 सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा...............
रचनाकार- अभय दीपराज
*
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम |
मिथिलावासी, जगदम्बा के,  उठि-उठि करथि प्रणाम ||

जगजननी  के  सुन्दर  मुखड़ा,  सुन्दर   मोहक   रूप |
लागि  रहल छल,  जेना  बर्फ पर,  पसरल भोरक धूप ||
मुग्ध भेलौं और धन्य भेलौं हम, देखि  रूप  अभिराम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||१ ||

मैया  सब  के  आशिष  द  क,  सबके  देलखिन्ह  नेह |
और  कहलथि  जे-  आइ एलौं हम,  नैहर अप्पन गेह ||
अही माटि के बेटी छी हम,   इहय  हमर  अछि  गाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||२||

दंग- दंग हम केलों निवेदन-  जननी  ई  उपकार  करू |
धर्मक  नैया  डोलि  रहल अछि,  मैया  बेड़ा  पार  करू ||
ओ कहलथि-  हटि  जाउ पाप सँ, नीक भेंटत परिणाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||३||

एहि के बाद शक्ति ई भखलनि- हम अहाँ के माली छी |
लेकिन  हमहीं  सीता - गौरी,  हमहीं  दुर्गा-काली  छी ||
जेहन  कर्म  रहत  ओहने  फल,  करब अहाँ  के  नाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||४||

आखिर में जगदम्बा-जननी, सीता-रामक रूप लेलाह |
और प्रकाशपुंज बनिकयओ हमरे सब में उतरि गेलाह ||
देलथि ज्ञान जे - एक शक्ति के, छी हम ललित-ललाम ||
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा,  अयलथि मिथिला धाम ||५||

बाबू !  अब  त  बिसरि  जाउ  ई-  भेद - भाव   के   राग |
बेटा - बेटी,   ऊँच- नीच   और   छल - प्रपंच   के  दाग ||
नहिं  त आखिर अपने  भुगतव,  अपन  पाप  के  दाम |
सिंह - पीठ पर बैसल अम्बा, अयलथि मिथिला धाम ||६||

               ***********
चित्र: विद्या देवी, आभार : ओबीओ, गूगल

सोमवार, 1 अगस्त 2011

मैथिली गजल: आशीष अनचिन्हार

मैथिली गजल

अँहा तँ असगरें मे कानब मोन पाड़ि कए
करेजक बाकस के घाँटब मोन पाड़ि कए

आइ भने विछोह नीक लागि रहल अँहा के
काल्हि अहुरिआ काटि ताकब मोन पाड़ि कए

मिझरा गेलैक नीक-बेजाए दोगलपनी सँ
कहिओ एकरा अँहा छाँटब मोन पाड़ि कए

अँहा जते नुका सकब नुका लिअ भरिपोख
फेर तँ अँही एकरा बाँटब मोन पाड़ि कए 

आइ जते फाड़बाक हुअए फाड़ि दिऔ अहाँ
मुदा फेर तँ इ अँही साटब मोन पाड़ि कए

**** वर्ण---------17*******
Ashish Anchinhar
मैथिली गजल
आशीष अनचिन्हार

अँहा तँ असगरें मे कानब मोन पाड़ि कए
करेजक बाकस के घाँटब मोन पाड़ि कए

आइ भने विछोह नीक लागि रहल अँहा के
काल्हि अहुरिआ काटि ताकब मोन पाड़ि कए

मिझरा गेलैक नीक-बेजाए दोगलपनी सँ
कहिओ एकरा अँहा छाँटब मोन पाड़ि कए

अँहा जते नुका सकब नुका लिअ भरिपोख
फेर तँ अँही एकरा बाँटब मोन पाड़ि कए

आइ जते फाड़बाक हुअए फाड़ि दिऔ अहाँ
मुदा फेर तँ इ अँही साटब मोन पाड़ि कए

**** वर्ण---------17*******

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

देवी वंदना तथा गंगा स्तुति : मैथिल कोकिल कवि विद्यापति प्रस्तुति: कुसुम ठाकुर

Vidypati.jpg
देवी वंदना तथा गंगा स्तुति : 
 
मैथिल  कोकिल  कवि विद्यापति  
 
प्रस्तुति:  कुसुम ठाकुर
 
मिथिला में कवि विद्यापति  द्वारा लिखे पदों को घर-घर में हर मौके पर, हर शुभ कार्यों में गाया जाता है, चाहे उपनयन संस्कार हों या विवाह। शिव स्तुति और भगवती स्तुति तो मिथिला के हर घर में बड़े ही भाव भक्ति से गायी जाती है। :

जय जय भैरवी असुर-भयाउनी

पशुपति- भामिनी माया
 
सहज सुमति बर दिय हे गोसाउनी

अनुगति गति तुअ पाया। ।

बासर रैन सबासन सोभित

चरन चंद्रमनि चूडा।
कतओक दैत्य मारि
 
मुँह मेलल
 
कतौउ उगलि केलि कूडा 
 
समर बरन, नयन अनुरंजित
 
लद जोग फुल कोका।
 
कट कट विकट ओठ पुट पाँडरि
 
लिधुर- फेन उठी फोका। ।
 
घन घन घनन घुघुरू कत बाजय,
 
हन हन कर तुअ काता।
 
विद्यापति कवि तुअ पद सेवक,
 
पुत्र बिसरू जुनि माता। ।

*
 गंगा स्तुति
कवि विद्यापति ने सिर्फ़ प्रार्थना या नचारी की ही रचना नहीं की है अपितु उनका प्रकृति वर्णन भी उत्कृष्ठ है।बसंत और पावस ऋतुपर उनकी रचनाओं से मंत्र मुग्ध  होना  आश्चर्य की बात नहीं। गंगा  स्तुति तो किसी को  भी भाव विह्वल कर सकती है। ऐसा महसूस होता है मानों हम गंगा तट पर ही हैं

बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे। ।

कर जोरि बिनमओं विमल तरंगे।
पुन दरसन दिय पुनमति गंगे। ।

एक अपराध छेमब मोर जानी।
परसल माय पाय तुअ पानी । ।

कि करब जप तप जोग धेआने।
जनम कृतारथ एक ही सनाने। ।

भनहि विद्यापति समदओं तोहि।
अंत काल जनु बिसरह मोहि। ।

उपरोक्त पंक्तियों मे कवि गंगा लाभ को जाते हैं और वहां से चलते समय माँ गंगा से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि :

हे माँ गंगे आपके तट(किनारा) पर बहुत ही सुख की प्राप्ति हुई है, परन्तु अब आपके तट को छोड़ने का समय आ गया है तो हमारी आँखों से आंसुओं की धार बह रही है। मैं आपसे अपने हाथों को जोड़ कर एक विनती करता हूँ। हे माँ गंगे आप एक बार फिर दर्शन अवश्य दीजियेगा।

कवि विह्वल होकर कहते हैं : हे माँ गंगे मेरे पाँव आपके जल में है, मेरे इस अपराध को आप अपना बच्चा समझ क्षमा कर दें। हे माँ मैं जप तप योग और ध्यान क्यों करुँ जब कि आपके एक स्नान मात्र से ही जन्म सफल हो जाता है, कृतार्थ हो जाता है।

अंत मे विद्यापति कहते हैं हे माँ मैं आपसे विनती करता हूँ आप अंत समय में मुझे मत भूलियेगा अर्थात कवि की इच्छा है कि वे अपने प्राण गंगा तट पर ही त्यागें।
 
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रविवार, 5 सितंबर 2010

मैथिली की पाठशाला: कुसुम ठाकुर

मैथिली की पाठशाला १      

इस स्तम्भ में हिन्दी, मैथिली, भोजपुरी  में एक साथ रचनाकर्म करनेवाली कुसुम ठाकुर जी मैथिली सिखाएँगी. सभी सहभागिता हेतु आमंत्रित हैं. 

कुसुम ठाकुर.

पहला वाक्य .....अहाँ केर नाम की अछि ?   = आपका  नाम  क्या है?


कुसुम : ता  आय  सा  हम  सब  मैथिलि  में  गप्प  करब.
सलिल : गप्प  में  मजा  मिलब .
मैथिली  सीख  के  विद्यापति  को  पढ़ब .
कुसुम : गप्प  निक  लगत  आ  आनादित  करत.
सलिल : गप्प  करब  से  गप्पी  तो  न  कहाब ?
कुसुम : मैथिलि  सीखी  का  विद्यापति  के  रचना  पढ़ब.
सलिल : कहाँ  पाब ?
कुसुम : हम  अहांके  पाठ  देब विद्यापतिक  रचना.
सलिल : अवश्य . कृपा करब.
कुसुम : अवश्य  ....मुदा  कृपा  नहीं  इ  हमर  सौभाग्य  होयत.

सलिल  : ई  आपका  बड़प्पन  होब.
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