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शनिवार, 4 जुलाई 2015

kruti charcha:

कृति चर्चा:
अँधा हुआ समय का दर्पन : बोल रहा है सच कवि का मन 
चर्चाकार: आचार्य संजीव
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[कृति विवरण: अँधा हुआ समय का दर्पन, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', नवगीत संग्रह, १९०९, आकार डिमाई, पृष्ठ १२७, १५०/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, अयन प्रकाशन दिल्ली, संपर्क: ८६ तिलक नगर, फीरोजाबाद १८३२०३, चलभाष: ९४१२३६७७९,dr.yayavar@yahoo.co.in] 
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डॉ, यायावर के लिए चित्र परिणामश्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' के आठवें काव्य संकलन और तीसरी नवगीत संग्रह 'अँधा हुआ समय का दर्पण' पढ़ना युगीन विसंगतियों और सामाजिक विडम्बनाओं से आहत कवि-मन की सनातनता से साक्षात करने की तरह है. आदिकाल से अब तक न विसंगतियाँ कम होती हैं न व्यंग्य बाणों के वार, न सुधार की चाह. यह त्रिवेणी नवगीत की धार को अधिकाधिक पैनी करती जाती है. यायावर जी के नवगीत अकविता अथवा प्रगतिवादी साहित्य की की तरह वैषम्य की प्रदर्शनी लगाकर पीड़ा का व्यापार नहीं करते अपितु पूर्ण सहानुभूति और सहृदयता के साथ समाज के पद-पंकज में चुभे विसंगति-शूल को निकालकर मलहम लेपन के साथ यात्रा करते रहने का संदेश और सफल होने का विश्वास देते हैं. 

इन नवगीतों का मिजाज औरों से अलग है.  इनकी भाव भंगिमा, अभिव्यक्ति सामर्थ्य, शैल्पिक अनुशासन, मौलिक कथ्य और छान्दस सरसता इन्हें पठनीयता ही नहीं मननीयता से भी संपन्न करती है. गीत, नवगीत, दोहा, ग़ज़ल, हाइकु, ललित निबंध, समीक्षा, लघुकथा और अन्य विविध विधाओं पर सामान दक्षता से कलम चलाते यायावर जी अपनी सनातन मूल्यपरक शोधदृष्टि के लिये चर्चित रहे हैं. विवेच्य कृति के नवगीतों में देश और समाज के सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक परिदृश्य का नवगीतीय क्ष किरणीय परीक्षण नितांत मलिन तथा तत्काल उपचार किये जाने योग्य छवि प्रस्तुत करता है. 

पीर का सागर / घटज ऋषि की / प्रतीक्षा कर रहा है / धर्म के माथे अजाने / यक्ष-प्रश्नों की व्यथा है -२५, 

भूनकर हम / तितलियों को / जा रहे जलपान करने / मंत्र को मुजरे में / भेजा है / किसी ने तान भरने -२६, 

हर मेले में / चंडी के तारोंवाली झूलें / डाल पीठ पर / राजाजी के सब गुलाम फूलें / राजा-रानी बैठ पीठ पर / जय-जयकार सुनें / मेले बाद मिलें / खाने को / बस सूखे पौधे - ३८ 

दूधिया हैं दाँत लेकिन / हौसला परमाणु बम है / खो गया मन / मीडिया में / आजकल चरचा गरम है / आँख में जग रहा संत्रास हम जलते रहे हैं - ३९ 

सूखी तुलसी / आँगन के गमले में / गयी जड़ी / अपने को खाने / टेबिल पर / अपनी भूख खड़ी / पाणिग्रहण / खरीद लिया है / इस मायावी जाल ने - ४४ 

चुप्पी ओढ़े / भीड़ खड़ी है / बोल रहे हैं सन्नाटे / हवा मारती है चाँटे / नाच रहीं बूढ़ी इच्छाएँ / युवा उमंग / हुई सन्यासिन / जाग रहे / विकृति के वंशज / संस्कृति लेती खर्राटे -५२ 

भूमिका पर थी बहस / कुछ गर्म इतनी / कथ्य पूरा रह गया है अनछुआ / क्या हुआ? / यह क्या हुआ? - ५७  

यहाँ शिखंडी के कंधे पर / भरे हुए तूणीर / बेध रहे अर्जुन की छाती / वृद्ध भीष्म के तीर / किसे समर्पण करे कहानी / इतनी कटी-फ़टी -६०-६१ 

सम्मानित बर्बरता / अभिनन्दित निर्ममता / लांछित मर्यादा को दें सहानुभूति / चलो / हत्यारे मौसम के कंठ को प्रहारें -७१ 

पीड़ा के खेत / खड़े / शब्द के बिजूके / मेड़ों पर आतंकित / जनतंत्री इच्छाएँ / वन्य जंतु / पाँच जोड़  बांसुरी बजाएँ / पीनस के रोगी / दुर्गन्ध के भभूके / गाँधी की लाठी / पर / अकड़ी बंदूकें -७३ 

हर क्षण वही महाभारत / लिप्साएँ वे गर्हित घटनाएँ / कर्ण, शकुनि, दुर्योधन की / दूषित प्रज्ञायें / धर्म-मूढ़ कुछ धर्म-भीरु / कुछ धर्म विरोधी / हमीं दर्द के जाये / भाग्य हमारे फूटे-७६ 

मुखिया जी के / कुत्ते जैसा दुःख है / मुस्टंडा / टेढ़ी कमर हो गयी / खा / मंहगाई का डंडा / ब्याज चक्रवर्ती सा बढ़कर / छाती पर बैठा / बिन ब्याही बेटी का / भारी हुआ / कुँआरापन -८७

पीना धुआँ, निगलने आँसू / मिलता  ज़हर पचने को / यहाँ बहुत मिलता है धोखा / खाने और खिलाने को / अपना रोना, अपना हँसना / अपना जीना-मरना जी / थोड़ा ही लिखता हूँ / बापू! / इसको बहुत समझना जी- पृष्ठ ९९



इन विसंगतियों से नवगीतकार निराश या स्तब्ध नहीं होता। वह पूरी ईमानदारी से आकलन कर कहता है:
'उबल रहे हैं / समय-पतीले में / युग संवेदन' पृष्ठ ११०

यह उबाल बबाल न बन पाये इसीलिये नवगीत रचना है. यायावर निराश नहीं हैं, वे युग काआव्हान करते हैं: 'किरणों के व्याल बने / व्याधों के जाल तने / हारो मत सोनहिरन' -पृष्ठ ११३

परिवर्तन जरूरी है, यह जानते हुए भी किया कैसे जाए? यह प्रश्न हर संवेदनशील मनुष्य की तरह यायावर-मन को भी उद्वेलित करता है:
' झाड़कर फेंके पुराने दिन / जरूरत है / मगर कैसे करें?' -पृष्ठ ११७

सबसे बड़ी बाधा जन-मन की किंकर्तव्यविमूढ़ता है:
देहरी पर / आँगन में / प्राण-प्रण / तन-मन में / बैठा बाजार / क्या करें? / सपने नित्य / खरीदे-बेचे / जाते हैं / हम आँखें मींचे / बने हुए इश्तहार / क्या करें? -पृष्ठ १२४
पाले में झुलसा अपनापन / सहम गया संयम / रिश्तों की ठिठुरन को कैसे / दूर करें अब हम? - पृष्ठ ५६

यायावर शिक्षक रहे हैं. इसलिए वे बुराई के ध्वंस की बात नहीं कहते। उनका मत है कि सबसे पहले हर आदमी जो गलत हो रहा है उसमें अपना योगदान न करे:
इस नदी का जल प्रदूषित / जाल मत डालो मछेरे - पृष्ठ १०७

कवि परिवर्तन के प्रति सिर्फ आश्वस्त नहीं हैं उन्हें परिवर्तन का पूरा विश्वास है:
गंगावतरण होना ही है / सगरसुतों की मौन याचना / कैसे जाने? / कैसे मानें? -पृष्ठ ८४

यह कैसे का यक्ष प्रश्न सबको बेचैन करता है, युवाओं को सबसे अधिक:
तेरे-मेरे, इसके-उसके / सबके ही घर में रहती है / एक युवा बेचैनी मितवा -पृष्ठ ७९

आम आदमी कितना ही  पीड़ित क्यों न हो, सुधार के लिए अपना योगदान और बलिदान करने से पीछे नहीं हटता:
एकलव्य हम / हमें दान करने हैं / अपने कटे अँगूठे -पृष्ठ ७५

यायावर  जी शांति के साथ-साथ जरूरी होने पर क्रांतिपूर्ण प्रहार की उपादेयता स्वीकारते हैं:
सम्मानित बर्बरता / अभिनन्दित निर्ममता / लांछित मर्यादा को दे सहानुभूति / चलो / हत्यारे मौसम के कंठ को प्रहारें - पृष्ठ ७१

भटक रहे तरुणों को सही राह पर लाने के लिये दण्ड के पहले शांतिपूर्ण प्रयास जरूरी है. एक शिक्षक सुधार की सम्भावना को कैसे छोड़ सकता है?:
आज बहके हैं / किरन के पाँव / फिर वापस बुलाओ / क्षिप्र आओ -पृष्ठ ६९

प्रयास होगा तो भूल-चूक भी होगी:
फिर लक्ष्य भेद में चूक हुई / भटका है / मन का अग्निबाण - पृष्ठ ६२

भूल-चूल को सुधारने पर चर्चा तो हो पर वह चर्चा रोज परोसी जा रही राजनैतिक-दूरदर्शनी लफ्फ़ाजियों सी बेमानी न हो:
भूमिका पर थी बहस / कुछ गर्म इतनी / कथ्य पूरा रह गया है अनछुआ / यह क्या हुआ? / यह क्या हुआ? -पृष्ठ ५७

भटकन तभी समाप्त की  जा सकती है जब सही राह पर चलने का संकल्प दृढ़ हो:
फास्टफूडी सभ्यता की कोख में / पलते बवंडर / तुम धुएँ को ओढ़कर नाचो-नचाओ / हम, अभी कजरी सुनेंगे- पृष्ठ ५४

कवि के संकल्पों का मूल कहाँ है यह 'मुक्तकेशिनी उज्जवलवसना' शीर्षक नवगीत में इंगित किया गया है:
आँगन की तुलसी के बिरवे पर / मेरी अर्चना खड़ी है -पृष्ठ ३१

यायावर जी नवगीत को साहित्य की विधा मात्र नहीं परिवर्तन का उपकरण मानते हैं. नवगीत को युग परिवर्तन के कारक की भूमिका में स्वीकार कर वे अन्य नवगीतिकारों का पथप्रदर्शन करते हैं:
यहाँ दर्द, यहाँ प्यार, यहाँ अश्रु मौन / खोजे अस्तित्व आज गीतों में कौन? / शायद नवगीतकार / सांस-साँस पर प्रहार / बिम्बों में बाँध लिया गात -पृष्ठ ३०

यायावर के नवगीतों की भाषा कथ्यानुरूप है. हिंदी के दिग्गज प्राध्यापक होने के नाते उनका शब्द भण्डार समृद्ध और संपन्न होना स्वाभाविक है. अनुप्रास, उपमा, रूपक अलंकारों की छटा मोहक है. श्लेष, यमक आदि का प्रयोग कम है. बिम्ब, प्रतीक और उपमान की प्रचुरता और मौलिकता इन नवगीतों के लालित्य में वृद्धि करती है. आशीष देता सूखा कुआँ, जूते से सरपंची कानून लाती लाठियाँ, कजरी गाता हुआ कलह, कचरे में मोती की तलाश, लहरों पर तैरता सन्नाटा, रोटी हुई बनारसी सुबहें आदि बिम्ब पाठक को बाँधते हैं.

इन नवगीतों का वैशिष्ट्य छान्दसिकता के निकष पर खरा उतरना है. मानवीय जिजीविषा, अपराजेय संघर्ष तथा नवनिर्माण के सात्विक संकल्प से अनुप्राणित नवगीतों का यह संकलन नव नवगीतकारों के लिये विशेष उपयोगी है. यायावर जी के अपने शब्दों में : 'गीत में लय का नियंत्रण शब्द करता है. इसलिए जिस तरह पारम्परिक गीतकार के लिये छंद को अपनाना अनिवार्य था वैसे हही नवगीतकार के लिए छंद की स्वीकृति अनिवार्य है.… नवता लेन के लिए नवगीतकार ने छंद के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किये हैं. 'लयखंड' के स्थान पर 'अर्थखण्ड' में गीत का लेखन टी नवगीत में प्रारंभ हुआ ही इसके अतिरिक्त २ लग-अलग छंदों को मिलकर नया छंद बनाना, चरण संख्या घटाकर या बढ़ाकर नया छंद बनाना, चरणों में विसंगति और वृहदखण्ड योजना से लय को नियंत्रित करना जैसे प्रयोग पर्याप्त हुए हैं. इस संकलन में भी ऐसे प्रयोग सुधीपाठकों को मिलेंगे।'

निष्कर्षत: यह कृति सामने नवगीत संकलन न होकर नवगीत की पाठ्य पुस्तक की तरह है जिसमें से तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ परिनिष्ठित भाषा और सहज प्रवाह का संगम सहज सुलभ है. इन नवगीतों में ग्रामबोध, नगरीय संत्रास, जाना समान्य की पीड़ाएँ, शासन-प्रशासन का पाखंड, मठाधीशों की स्वेच्छाचारिता, भक्तों का अंधानुकरण, व्यवस्थ का अंकुश और युवाओं की शंकाएं एक साथ अठखेला करती हैं.

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शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

lekh: mahendra ke geeton men navachar: dr. ram sanehi lal sharma 'yayavar'

महेंद्र भटनागर के गीतों में नवाचार


-डा. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'

छायावाद-काल में ही कविता में नवता के प्रति आकर्षण --
'' नव गति नव लय ताल छंद नव,
नवल कंठ, नव जलद मन्द्र रव
नव नभ के नव विहग-वृंद को
नव पर नव स्वर दे!''
-- निराला
और काव्य के पारम्परिक प्रतिमानों को तोड़ने की ललक -- (''खुल गये छंद के बंध प्रास के रजत-पाश!'' -- पंत) के स्वर सुनायी पड़ने लगे थे; जिसके परिणाम प्रगतिवाद में सहज और भदेस के प्रति आकर्षण, सर्वहारा व शोषित के प्रति प्रेम व शोषक के प्रति आक्रोश के रूप में सामने आये और प्रयोगवाद में लघु मानव की प्रतिष्ठा, छंद-मुक्त गद्य-कविता की प्रतिष्ठा और वैचारिकता की प्रधानता के रूप में। नयी कविता ने काव्य के सभी प्राचीन बन्धनों और प्रतिमानों को ध्वस्त कर दिया। इसी काल में पाँचवें दशक में छायावादी गीतों की कोमलता, तत्समबहुलता, भाषिक आभिजात्य, शैलीगत मार्दव के प्रति अनाकर्षण जैसे तत्व पनपे। इस कालखंड में दो प्रकार के गीतकार दिखाई पड़े। एक वे जो गीत के पारम्परिक प्रतिमानों -- गहन आत्मानुभूति, छंद की स्वीकृति, लय की सहजता और रागात्मक तत्वों की अभिव्यक्ति के क्षेत्र में थोड़ी छूट लेकर गीत को नवाचार दे रहे थे। इनमें वीरेंद्र मिश्र, शम्भूनाथ सिंह, देवद्रें शर्मा 'इन्द्र', रवीन्द्र 'भ्रमर', उमाकान्त मालवीय आदि जैसे गीतकार थे तो दूसरे वे कवि थे जो मूलतः नयी कविता के साथ जुड़े परन्तु गीत के क्षेत्र में भी उन्होंने नयेपन को अपनाकर नये गीतों का सृजन किया। इस वर्ग में भारतभूषण अग्रवाल, महद्रेंभटनागर, और केदारनाथ सिंह जैसे कवि दिखायी पड़े। नवगीत को आन्दोलन का रूप तो 1955 के आसपास दिया जाने लगा परन्तु उससे पहले के इन दोनों वर्गों के गीतकारों में नवगीत के पूर्वरूप के दर्शन होने लगे थे। नवगीत में प्रकृति, लोकचेतना, मूल्य-क्षरण और जीवनगत विसंगतियों की अभिव्यक्ति के स्वर उसकी काठी को रच रहे थे। उपर्युक्त गीतकारों में इन स्वरों का पूर्वरूप और नयेपन की ललक दिखने लगी थी। महद्रेंभटनागर के गीत नवगीत की भूमिका रचते दिखायी पड़ते हैं।
सन् 1949 से सृजित उनके 50 नवगीत 'जनवादी लेखक संघ', वाराणसी से प्रकाशित 'जनपक्ष' -- 8 (सन् 2010) में प्रकाशित हुए हैं। इन गीतों में जीवन के तप्त स्वर और 'नवता' के प्रति आकर्षण ध्वनित हो रहा है। सम्पादकीय टिप्पणी के अनुसार -- ''महेंद्रभटनागर-विरचित नवगीत विशिष्ट हैं । वे गेय हैं। छंद का बंधन ज़रूर नहीं है। किन्तु वे छंद-मुक्त नहीं हैं। चरणबद्ध हैं। उनमें एक निश्चित मात्रिक-क्रम है। तुकों का व्यवस्थित प्रयोग है। उनके नवगीतों का शिल्प उनका अपना है।''नवगीत के प्रारम्भ से ही प्रकृति के प्रति अपने सहज आकर्षण परन्तु उसके नवरूप की स्वीकृति को स्वीकारा। महेंद्र जी के इन गीतों में 'री हवा', 'हेमन्ती धूप', 'एक रात', 'वर्षा-पूर्व', 'शीतार्द्र', तथा 'हेमन्त' प्रकृति को अपने ढंग से प्रस्तुत करने वाली रचनाएँ हैं । इनमें कहीं हवा यौवन भरी, उन्मादिनी है जिसका आवाहन कवि 'मेघ के टुकड़े लुटाती आ' कहकर कर रहा है। 'खिलखिलाती, रसमयी, जीवनमयी' यह हवा जीवन में उल्लास और जिजीविषा का अथक स्रोत जगाती लगती है। यह तरुण कवि का उल्लासमय नूतन स्वर है। कहीं हेमन्ती धूप मोहिनी है, सुखद है, और कहीं वर्षा-पूर्व --
 ' किसी ने डाल दी तन पर
सलेटी बादलों की रेशमी चादर!
मोह लेती है छटा
मोद देती है घटा
 काली घटा!'
परन्तु इन रचनाओं में कवि अपनी रागात्मक संवेदनाओं से आगे नहीं जा पाता। नवगीत ने आगे चलकर प्रकृति को जिस मानवीकृत और तटस्थ रूप में अपनाया वह 'शीतार्द्र' और 'हेमन्त' में दिखायी पड़ता है। 'शीतार्द्र' में 'कोहरा' कारीगर है, रजनी अध्यक्ष है, और नव-प्रभात डर कर बैठा हुआ है; परन्तु हवा 'उन्मादिनी यौवन भरी' है, 'मोहक गंध से भरी पुरवैया' है। कवि को 'प्रिया-सम' हेमन्ती धूप की गोद में सो जाने की ललक है; क्योंकि वह 'मोहिनी' है। 'वर्षा-पूर्व' में ' हवाओं से लिपट / लहरा उठा / ऊमस भरा वातावरण-आँचर' है। 'हेमन्त' में प्रिया से वह कहता है, 'ऐसे मौसम में चुप क्यों हो / कहो न कोई मन की बात!' ये सारे तत्व छायावाद की प्रणयी प्रवृत्ति के अवशेष हैं। कवि छयावाद के मादक, मोहक प्रभाव से अपने को मुक्त नहीं कर पाया है।
वस्तुतः नवगीत ने जिस जीवन-गति और संघर्ष-चेतना को अपना मूल स्वर बनाया वह उनकी गीति-रचनाओं में 'जीवन : एक अनुभूति', 'अनुदर्शन', 'नियति', 'परिणति', 'नवोन्मेष', 'विराम', 'आग्रह','घटना-चक्र','अकारथ', 'चाह', 'आह्वान', 'दृष्टि', 'परिवर्तन' आदि जैसी रचनाओं में दिखाई पड़ता है। इन रचनाओं में कवि समाज में समता का बीजमंत्र बोने का इच्छुक है। जीवन की विषमताओं, संघर्ष और मूल्य-क्षरण से व्यथित दिखाई पड़ता है। अनास्था के विरुद्ध आस्था का आलोक-स्वर गुँजाना चाहता है। उसे लगता है कि नया युग आ गया है --
मौसम
कितना बदल गया!
सब ओर कि दिखता
नया-नया!
सपना --
जो देखा था
साकार हुआ,
अपने जीवन पर
अपनी क़िस्मत पर
अपना अधिकार हुआ!
समता का
बोया था जो बीज-मंत्र
पनपा,
छतनार हुआ!
सामाजिक-आर्थिक
नयी व्यवस्था का आधार बना!
शोषित-पीड़ित जन-जन जागा,
नवयुग का छविकार बना!
साम्य-भाव के नारों से
नभ-मंडल दहल गया!
मौसम
कितना बदल गया!
('परिवर्तन')
इनमें वह युग-परिवर्तनकारी स्वरों का गायक बना है। इन गीतों में ज़िन्दगी उसे ''धूमकेतन-सी अवांछित, जानकी-सी त्रस्त लांछित, बदरंग कैनवस की तरह, धूल की परतें लपेटे किचकिचाहट से भरी, स्वप्नवत्'' प्रतीत होती है। उसे लगता है कि ''शोर में / चीखती ही रही ज़िन्दगी / हर क़दम पर विवश / कोशिशों में अधिक विवश'' है। उसकी सामूहिक विवशता का स्वर यह है कि ''बंजर धरती की / कँकरीली मिट्टी पर / नूतन जीवन / कैसे बोया जाय!'' जिसकी परिणति यह है कि '' आजन्म / वंचित रह / अभावों ही अभावों में / घिसटती ज़िन्दगी / औचट दहकती यदि / सहज आश्चर्य क्या है?'' परन्तु इस आश्चर्य और विवशता के बीच भी उसे लगता है कि ''ज़िन्दगी / इस तरह / बिखरेगी नहीं /'' भले ही वह ''चीखती / हाफ़ती / ज़िन्दगी / कर चुकी / अनगिनत / ऊर्ध्व ऊँचाइयाँ / गार गहराइयाँ / तय! / थम गया / भोर का / शाम का / गूँजता शोर / गत उम्र की / राह पर / थम गया / एक आह बन / शून्य में / हो गया / लय! /'' वह चाहता है कि ''जीवन अबाधित बहे /'' और ''जय की कहानी कहे!'' और वह शोषित, पीड़ित, दलित, दमित को जगाने वालों, जड़ता को झकझोरने वालों का आह्वान करता है, ''मन से हारो! जागो! तन के मारो! जागो! / जीवन के लहराते सागर में कूदो / ओ गोताखोरो! जड़ता झकझोरो!''
वस्तुतः यही वह मूल स्वर है जिसे आगे चलकर नवगीत ने अपने कथ्य का आधार बनाया। समय के प्रश्नों से टकराने, जड़ता को झकझोरने, नये युग-मूल्यों को गढ़ने, विसंगतियों से टकराने, धुँधलकों को हटाने, विषमता के चक्रव्यूह को तोड़ने और नवयुग के आह्नान का यही स्वर नवगीत का मूल स्वर है; जिसका मंगलाचरण डा. महेंद्रभटनागर की इन रचनाओं में दिखाई पड़ता है।
इसलिए लगता है कि कवि महेंद्र जी जहाँ एक ओर छायावादी कोमलता, मार्दव, वायवी प्रणय चेतना और भाषिक तत्समीयता से बाहर नहीं निकल पा रहे; वहीं इन गीतों से यह भी लगता है कि उसमें इन सबको छोड़ने और जीवन की जटिलताओं से सीधे टकराने का हौसला भी है। वह नवयुग की कीर्ति-कथा भी लिखना चाह रहा है। कहा जा सकता है कि ये गीत संक्रमण काल की मनःस्थितियों के गीत हैं।
गीत के पारम्परिक फार्मेट में छन्द का विशेष महत्त्व है। छन्द ही गीत की लय को नियन्त्रित करने का साधन है। नवगीत के पुरोधा कवि देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' ने एक गीत में कहा है --
हाँ, हमने गीत के स्वयंवर में
तोड़ी है प्रत्यंचा इंद्र के धनुष की!
अँधियारी लय के कान्तरों में हम
कालजयी आखेटक
आश्रयदाताओं के अभिनन्दन में
झुका नहीं अपना मस्तक
हमने कब मानी है भाषा अंकुश की ...
हमसे ही जीवित है इतिहासों में
एकलव्य की परम्परा,
बँधी नहीं श्लेष, यमक, रूपक में
ऋषि की वाणी ऋतम्भरा,
हमने कब ढोयी है पालकी नहुष की!
यह गीत छन्द के संबंध में लय के संबंध में व नवगीत के कथ्य के संबंध में रचा गया शाश्वत सूत्र है। नवगीतकार छंद, लय और तुक के बन्धन तोड़कर नयी शिल्प-चेतना का वाहक बनता है और आश्रयदाताओं और नहुषों का कीर्ति गान न करके शोषित पीड़ित विजड़ित मानवता के दर्द को अपने गीतों में उकेरता है। इस दिशा में नवगीतकारों में छन्द के बंधन से अपने को पूर्णत: मुक्त तो नहीं किया है; परन्तु वह छन्द के एक चरण को तोड़कर कई पंक्तियों में लिखकर यौगिक छन्द बना कर चरण-संख्या घटा-बढ़ाकर, चरणों में विसंगतियाँ अपना कर, छन्दहीनता अपना कर तथा बृहत् खण्ड-योजना से छन्दात्मकता लाकर छन्द के इस इंद्रधनुष को नयापन देता है। डा. महेंद्रभटनागर के गीतों में लय की स्वीकृति तो है; परन्तु छन्द को उन्होंने लगभग अस्वीकार कर दिया है। उनके गीतों में न तो चरण-योजना है, न ध्रुवपद के साथ तुक-विधान का अनिवार्य सामंजस्य है। उन्होंने छन्दहीनता व छन्द के चरणों में विसंगतियों को अपनाया है। उदाहरणार्थ उनके बहुचर्चित गीत 'री हवा!' को ही देखें --
री हवा !
गीत गाती आ,
सनसनाती आ ;
डालियाँ झकझोरती
रज को उड़ाती आ !
मोहक गंध से भर
प्राण पुरवैया
दूर उस पर्वत-शिखा से
कूदती आ जा !
ओ हवा !
उन्मादिनी यौवन भरी
नूतन हरी इन पत्तियों को
चूमती आ जा !
गुनगुनाती आ,
मेघ के टुकड़े लुटाती आ !
मत्त बेसुध मन
मत्त बेसुध तन !
खिलखिलाती, रसमयी,
जीवनमयी
उर-तार झंकृत
नृत्य करती आ !
री हवा !
(रचना-सन् 1949)
इस गीत का ध्रुवपद 23-23 मात्राओं से बुना गया है; परन्तु प्रथम चरण तीन पंक्तियों में व द्वितीय चरण दो पंक्तियों में लिखा गया है। पारम्परिक ढंग से इसे अगर इस तरह लिख दिया जाय --
री हवा / गीत गाती आ / सनसनाती आ!
डालियाँ झकझोरती / रज को उड़ाती आ!
तो यह 23 मात्रा का मात्रिक छन्द बन जाएगा। पन्तु आगे के अक्षरों में 'मोहक ... पुरवैया' दो पंक्तियों में 20 मात्राएँ हैं और 'दूर उस पर्वत-शिखा से कूदती आ जा!' में 23 मात्राएँ। आगे की पंक्तियों में क्रमशः 5, 19,, 16, 9 मात्राएँ हैं; जो दो पंक्तियों का चरण बनकर प्रस्तुत है। इस तरह छन्द में 24 एवं 25 मात्राएँ हो जाती हैं और समापन चरण में प्रथम पंक्ति में 9 व द्वितीय पंक्ति ('मेघ के टुकड़े लुटाती आ') में 16 मात्राएँ हैं। इस तरह इस गीत की संरचना में मात्रिक स्तर पर पूर्ण विसंगति है; परन्तु विशेषता यह है कि इसके बावजू़द गीत की लय प्रभावित नहीं हुई है। महेंद्र जी के अन्य गीतों में भी यही विशेषता है। वे पारम्परिक छन्द-बन्धन को नहीं मानते। छन्दों को तोड़ते हैं, एक छन्द के एक चरण को कई पंक्तियों में लिखते हैं और चरणों में विसंगति अपनाते हैं। इससे छन्द का इन्द्रधनुष टूटता है। छन्द-भंग होता है; परन्तु लय का उन्होंने ध्यान रखा है। उनके गीतों में गेयता की अपेक्षा वाचिकता अधिक है जो आगे चलकर अनेक नवगीतकारों में भी मिलती है।
वस्तुतः निर्विवाद रूप से डा. महेंद्रभटनागर के गीत नवगीत का पूर्वरूप हैं। ये संक्रमण काल की रचनाएँ हैं जिनमें छायावादी प्रवत्तियों के अवशेष भी हैं और नये युग की गीतधर्मी जनचेतना के स्वर भी इन्हें ऐतिहासिक महत्त्व का बनाते हैं। इनमें अपने युग की भविष्यधर्मी नवगीत चेतना की आहट सुनी जा सकती है।