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शुक्रवार, 11 जून 2021

समीक्षा काल है संक्रांति का - डॉ. रोहिताश्व अस्थाना

 

   
समीक्षा 
काल है संक्रांति का - डॉ. रोहिताश्व अस्थाना 
ह्रदय की कोमलतम, मार्मिक एवं सूक्ष्मतम अनुभूतियों की गेयात्मक, रागात्मक एवं संप्रेषणीय अभिव्यक्ति का नाम है। गीत में प्रायः व्यष्टिवादी एवं नवगीत में समष्टिवादी स्वर प्रमुख होता है। गीत के ही शिल्प में नवगीत के अंतर्गत नई उपमाओं एवं टटके बिम्बों के सहारे दुनिया - जहान की बातों को अप्रतिम प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। छन्दानुशासन में बँधे रहने के कारण गीत शाश्वत एवं सनातन विधा के रूप में प्रचलित रहा है किंतु प्रयोगवादी काव्यधारा के अति नीरस स्वरूप से विद्रोह कर नवगीत, ग़ज़ल, दोहा जैसी काव्य विधाओं का पुनः प्रचलन आरंभ हुआ।
अभी हाल में भाई हरिशंकर सक्सेना कृत 'प्रखर संवाद', सत्येंद्र तिवारी कृत 'मनचाहा आकाश' तथा यश मालवीय कृत 'समय लकड़हारा' नवगीत के श्रेष्ठ संकलनों के रूप में प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। इसी क्रम में समीक्ष्य कृति 'काल है संक्रांति का' भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है। सलिल जी समय की नब्ज़ टटोलने की क्षमता रखते हैं। वस्तुतः यह संक्रांति का ही काल है। आज सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में टूटने एवं बिखरने तथा उनके स्थान पर नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना का क्रम जारी है। कवि ने कृति के शीर्षक गीत में इन परिस्थितियों का सटीक रेखांकन करते हुए कहा है- '' काल है संक्रांति का / तुम मत थको सूरज / प्राच्य पर पाश्चात्य का / अब चढ़ गया है रंग / शराफत को शरारत / नित कर रही है तंग / मनुज करनी देखकर है / खुद नियति भी दंग।'' इसी क्रम में सूरज को सम्बोधित कई अन्य गीत भी उल्लेखनीय हैं।
कवि सत्य की महिमा के प्रति आस्था जाग्रत करते हुए कहता है- ''तकदीर से मत हों गिले / तदबीर से जय हों किले / मरुभूभि से जल भी मिले / तन ही नहीं, मन भी खिले / करना सदा वह जो सही। ''
इतना ही नहीं कवि ने सामाजिक एवं आर्थिक विसंगति में जी रहे आम आदमी का जीवंत चित्र खींचते हुए कहा है - ''मिली दिहाड़ी / चल बाजार / चावल - दाल किलो भर ले ले / दस रुपये की भाजी / घासलेट का तेल लिटर भर / धनिया - मिर्ची ताज़ी। ''सचमुच रोज कुआं खोदकर पानी पीनेवाले इस लघु मानव की दशा अति दयनीय है।
इसी विषय पर 'राम बचाए' शीर्षक नवगीत की ये पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं - ''राम - रहीम बीनते कूड़ा / रज़िया - रधिया झाड़ू थामे / सड़क किनारे बैठे लोटे / बतलाते कितने विपन्न हम। ''
हमारी नई पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता में अपने लोक जीवन को भी भूलती जा रही है। कवि के शब्दों में - ''हाथों में मोबाइल थामे गीध-दृष्टि पगडंडी भूली / भटक न जाए / राजमार्ग पर जाम लगा है / कूचे - गली हुए हैं सूने / ओवन - पिज्जा का युग निर्दय / भटा कौन चूल्हे में भूने ?'' सचमुच आज की व्यवस्था ही चरमरा गई है। ''
सलिल जी ने अपने कुछ नवगीतों में राजनितिक प्रदुषण के चित्र खींचने का कमाल भी किया है। देखें - 'लोकतंत्र का पंछी बेबस / नेता पहले दाना डालें / फिर लेते पर नोंच / अफसर रिश्वत गोली मारें / करें न किंचित सोच। '' अथवा बातें बड़ी - बड़ी करते हैं / मनमानी का पथ वरते हैं / बना - तोड़ते संविधान खुद / दोष दूसरों पर मढ़ते हैं। '' इसी प्रकार कवि के कुछ नवगीतों में छोटी - छोटी पंक्तियाँ उद्धरणीय बन पड़ी हैं। जरा देखिये- ''वह खासों में ख़ास है / रुपया जिसके पास है।'', ''तुम बंदूक चलाओ तो / हम मिलकर कलम चलाएँगे।'', ''लेटा हूँ मखमल गादी पर / लेकिन नींद नहीं आती है।'', वेश संत का / मन शैतान।'', ''अंध-श्रृद्धा शाप है / बुद्धि तजना पाप है।'', ''खुशियों की मछली को / चिंता का बगुला / खा जाता है।'', ''कब होंगे आज़ाद / कहो हम / कब होंगे आज़ाद?'' आदि।
अच्छे दिन आने की आशा में बैठे दीन -हीन जनों को सांत्वना देते हुए कवि कहता है- ''उम्मीदों की फ़सल / उगाना बाकी है / अच्छे दिन नारों - वादों से कब आते हैं? / कहें बुरे दिन / मुनादियों से कब जाते हैं?'' इसी प्रकार एक अन्य नवगीत में कवि द्वारा प्रयुक्त टटके प्रतीकों एवं बिम्बों का उल्लेख आवश्यक है- ''खों - खों करते / बादल बब्बा / तापें सूरज सिगड़ी / पछुआ अम्मा बड़बड़ करतीं / डाँट लगतीं तगड़ी।''
निष्कर्षतः, कृति के सभी गीत - नवगीत एक से बढ़कर एक सुन्दर, सरस, भावप्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। इन सभी रचनाओं के कथ्य का कैनवास अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक है। यह सभी रचनाएँ छंदों के अनुशासन में आबद्ध और शिल्प के निकष पर खरी उतरनेवाली हैं।
कविता के नाम पर अतुकांत और व्याकरण वहीं गद्य सामग्री परोसनेवाली प्रतिष्ठित पत्र - पत्रिकाओं को प्रस्तुत कृति आईना दिखने में समर्थ है। कुल मिलाकर प्रस्तुत कृति पठनीय ही नहीं अपितु चिंतनीय और संग्रहणीय भी है। इस क्षेत्र में कवि से और अधिक सार्थक कृतियों की अपेक्षा की जा सकती है।
११-६-२०१६ 
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पुस्तक विवरण- काल है संक्रांति का, ISBN ८१७७६१०००-७ , गीत-नवगीत, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन, २०४ विजय अपार्टमेंट, सुभद्रा वार्ड, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२०११ म.प्र., दूरभाष-०७६१ २४१११३१, चलभाष- ९४२५१ ८३२४४, प्रथम संस्करण २०१६, मूल्य २००/- पेपरबैक संस्करण, ३००/- सजिल्द संस्करण।
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, एकन्तिका, निकट बावन चुंगी चौक, हरदोई २४१००१ उ. प्र., दूरभाष- ०५८५२ २३२३९२।
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बुधवार, 10 जुलाई 2019

समीक्षा 'काल है संक्रांति का' डॉ. रोहिताश्व अस्थाना

पुस्तक समीक्षा 
आधुनिक समय का प्रमाणिक दस्तावेज 'काल है संक्रांति का' 
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, हरदोई 
*

गीत संवेदनशील हृदय की कोमलतम, मार्मिक एवं सूक्ष्मतम अभिव्यक्तियों की गेयात्मक, रागात्मक एवं संप्रेषणीय अभिव्यक्ति का नाम है। गीत में प्रायः व्यष्टिवदी एवं नवगीत में समष्टिवादी स्वर प्रमुख होता है। गीत के ही शिल्प में नवगीत के अंतर्गत नई उपमाओं, एवं टटके बिंबों के सहारे दुनिया जहान की बातों को अप्रतिम प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है। छन्दानुशासन में बँधे रहने के कारण गीत शाश्वत एवं सनातन विधा के रूप में प्रचलित रहा है किंतु प्रयोगवादी काव्यधारा के अति नीरस स्वरूप के विद्रोह स्वरूप नवगीत, ग़ज़ल, दोहा जैसी काव्य विधाओं का प्रचलन आरम्भ हुआ।
अभी हाल में भाई हरिशंकर सक्सेना कृत 'प्रखर संवाद', सत्येंद्र तिवारी कृत 'मनचाहा आकाश' तथा यश मालवीय कृत 'समय लकड़हारा' नवगीत के श्रेष्ठ संकलनों के रूप में प्रकाशित एवं चर्चित हुए हैं। इसी क्रम में समीक्ष्य कृति 'काल है संक्रांति का' भाई आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' के गीतों और नवगीतों की उल्लेखनीय प्रस्तुति है। सलिल जी समय की नब्ज़ टटोलने की क्षमता रखते हैं। वस्तुत: यह संक्रांति का ही काल है। आज सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में टूटने एवं बिखरने तथा उनके स्थान पर नवीन मूल्यों की प्रतिस्थापना का क्रम जारी है। कवि ने कृति के शीर्षक में इन परिस्थितियों का सटीक रेखांकन करते हुए कहा है- "काल है संक्रांति / तुम मत थको सूरज / प्राच्य पर पाश्चात्य का / चढ़ गया है रंग / शराफत को शरारत / नित का कर रही है तंग / मनुज-करनी देखकर खुद नियति भी है दंग' इसी क्रम में सूरज को सम्बोधित कई अन्य गीत-नवगीत उल्लेखनीय हैं।
कवि सत्य की महिमा के प्रति आस्था जाग्रत करते हुए कहता है-
''तक़दीर से मत हों गिले 
तदबीर से जय हों किले 
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं, मन भी खिले 
करना सदा- वह जो सही।''

इतना ही नहीं कवि ने सामाजिक एवं आर्थिक विसंगति में जी रहे आम आदमी का जीवंत चित्र खींचते हुए कहा है-
"मिली दिहाड़ी 
चल बाजार। 
चवल-दाल किलो भर ले ले,
दस रुपये की भाजी। 
घासलेट का तेल लिटर भर 
धनिया मिर्ची ताज़ी।"

सचमुच रोज कुआं खोदकर पानी पीनेवालों की दशा अति दयनीय है। इसी विषय पर 'राम बचाये' शीर्षक नवगीत की निम्न पंक्तियाँ भी दृष्टव्य है -
"राम-रहीम बीनते कूड़ा 
रजिया-रधिया झाड़ू थामे 
सड़क किनारे बैठे लोटे 
बतलाते कितने विपन्न हम ?"

हमारी नयी पीढ़ी पाश्चात्य सभ्यता के दुष्प्रभाव में अपने लोक जीवन को भी भूलती जा रही है। कम शब्दों में संकेतों के माध्यम से गहरे बातें कहने में कुशल कवि हर युवा के हाथ में हर समय दिखेत चलभाष (मोबाइल) को अपसंस्कृति का प्रतीक बनाकर एक और तो जमीन से दूर होने पर चिंतित होते हैं, दूसरी और भटक जाने की आशंका से व्यथित भी हैं-
" हाथों में मोबाइल थामे 
गीध-दृष्टि पगडण्डी भूली,
भटक न जाए। 
राज मार्ग पर जाम लगा है 
कूचे-गली हुए हैं सूने। 
ओवन-पिज्जा का युग निर्दय
भटा कौन चूल्हे में भूने ?"

सलिल जी ने अपने कुछ नवगीतों में राजनैतिक प्रदूषण के शब्द-चित्र कमाल के खींचे हैं। वे विविध बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से बहुत कुछ ऐसा कह जाते हैं जो आम-ख़ास हर पाठक के मर्म को स्पर्श करता है और सोचने के लिए विवश भी करता है-
"लोकतंत्र का पंछी बेबस 
नेता पहले दाना डालें 
फिर लेते पर नोच। 
अफसर रिश्वत-गोली मारें
करें न किंचित सोच।"

अथवा 
"बातें बड़ी-बड़ी करते हैं,
मनमानी का पथ वरते हैं। 
बना-तोड़ते संविधान खुद 
दोष दूसरों पर धरते हैं।"

इसी प्रकार कवि के कुछ नवगीतों में छोटी-छोटी पंक्तियाँ उद्धरणीय बन पड़ी हैं। जरा देखिये- "वह जो खासों में खास है / रूपया जिसके पास है। ", "तुम बंदूक चलो तो / हम मिलकर कलम चलायेंगे। ", लेटा हूँ मखमल गादी पर / लेकिन नींद नहीं आती है। ", वेश संत का / मन शैतान। ", "अंध श्रृद्धा शाप है / बुद्धि तजना पाप है। ", "खुशियों की मछली को। / चिंता बगुला / खा जाता है। ", कब होंगे आज़ाद? / कहो हम / कब होंगे आज़ाद?" आदि।
अच्छे दिन आने की आशा में बैठे दीन-हीन जनों को सांत्वना देते हुए कवि कहता है- "उम्मीदों की फसल / उगाना बाकी है 
अच्छे दिन नारों-वादों से कब आते हैं ?
कहें बुरे दिन मुनादियों से कब जाते हैं??"

इसी प्रकार एक अन्य नवगीत में कवि द्वारा प्रयुक्त टटके प्रतीकों एवं बिम्बों का उल्लेख आवश्यक है- 
"खों-खों करते / बादल बब्बा 
तापें सूरज सिगड़ी। 
पछुआ अम्मा / बड़बड़ करतीं 
डाँट लगातीं तगड़ी।"

निष्कर्षत: कृति के सभी गीत-नवगीत एक से बरहकर एक सुन्दर, सरस, भाव-प्रवण एवं नवीनता से परिपूर्ण हैं। इन सभी रचनाओं के कथ्य का कैनवास अत्यन्त ही विस्तृत और व्यापक है। यह सभी रचनाएँ छन्दों के अनुशासन में आबद्ध और शिल्प के निकष पर सौ टंच खरी उतरने वाली हैं।
कविता के नाम पर अतुकांत और व्याकरणविहीन गद्य सामग्री परोसनेवाली प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं को प्रस्तुत कृति आइना दिखने में समर्थ है। कुल मिलाकर प्रस्तुत कृति पठनीय ही नहीं अपितु चिन्तनीय और संग्रहणीय भी है। इस क्षेत्र में कवि से ऐसी ही सार्थक, युगबोधक परक और मन को छूनेवाली कृतियों की आशा की सकती है। 
***
[पुस्तक परिचय - काल है संक्रांति का, गीत-नवगीत संग्रह, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', प्रकाशक- समन्वय प्रकाशन अभियान, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१ म. प्र., प्रकाशन वर्ष २०१६,मूल्य सजिल्द ३००/-, पेपरबैंक २००/-, चलभाष ९४२५१८३२४४]
समीक्षक- डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, निकट बावन चुंगी चौराहा, हरदोई २४१००१ उ. प्र. दूरभाष ०५८५२ २३२३९२। 
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गुरुवार, 1 मार्च 2018

aalekh:

आलेख:
हिंदी को ग़ज़ल को डॉ. रोहिताश्व अस्थाना का अवदान
आचार्य संजीव  वर्मा 'सलिल'
*
'हिंदी ग़ज़ल' अर्थात गंगा-यमुना, देशी भाषा और जमीन, विदेशी लय और धुन। फारसी लयखण्डों और छंदों (बहरों) की जुगलबंदी है हिंदी ग़ज़ल। डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़ल की उत्पत्ति, विकास, प्रकार और प्रभाव पर 'हिंदी ग़ज़ल: उद्भव और विकास' नामित शोध करनेवाले प्रथम अध्येता हैं। हिंदी ग़ज़लकरों को स्थापित-प्रतिष्ठित करने के लिए उन्होंने हिन्दी ग़ज़ल पंचशती (५ भाग), हिंदी ग़ज़ल के कुशल चितेरे तथा चुनी हुई हिंदी गज़लें संकलनों के माध्यम से महती भूमिका का निर्वहन किया है। विस्मय यह कि शताधिक हस्ताक्षरों को उड़ान के लिए आकाश देनावाला यह वट-वृक्ष खुद को प्रकाश में लाने के प्रति उदासीन रहा। उनका एकमात्र गजल संग्रह 'बाँसुरी विस्मित है' वर्ष १९९९ में मायाश्री पुरस्कार (मथुरा) से पुरस्कृत तथा २०११ में दुबारा प्रकाशित हुआ। हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से अलग स्वतंत्र अस्तित्व की प्रतीति कराकर उसे मान्यता दिलाने वाले शलाका पुरुष के विषय में डॉ. कुंवर बेचैन ने ठीक ही लिखा है: ''रोहिताश्व अस्थाना एक ऐसा नाम जिसने गज़ल को विषय बनाकर, उसे सम्मान देकर पहल शोध कार्य किया जिसके दो संस्करण सुनील साहित्य सदन दिल्ली से प्रकाशित हो चुके हैं। रोहिताश्व अस्थाना एक ऐसा नाम जिसने अनेक ग़ज़लकारों को सम्मिलित कर समवेत संकलनों के प्रकाशन की योजना को क्रियान्वित किया, एक ऐसा नाम जिसने गीत भी लिखे और गज़लें भी। .... साफ़-सुथरी बहारों में कही/लिखी इन ग़ज़लों ने भाषा का अपना एक अलग मुहावरा पकड़ा है। प्रतीक और बिम्बों की झलक में कवि का मंतव्य देखा जा है। उनकी ग़ज़लों में उनके अनुभवों का पक्कापन दिखाई देता है।''

डॉ. योगेन्द्रनाथ शर्मा 'अरुण' के अनुसार ''हिंदी में ग़ज़ल लिखनेवालों में गिने-चुने रचनाकार ही ग़ज़ल के छंद-विधान की साधना करने के बाद ग़ज़ल लिखने का प्रयास करते हैं जिनमें मैं डॉ. रोहिताश्व को अग्रणी ग़ज़लकारों में रखता हूँ।'' स्पष्ट है कि  हिंदी ग़ज़ल को छंद-विधान के अनुसार लिखे जाने की दिशा में रोहिताश्व जी का काम ध्वजवाहक का रहा है । उनके कार्य के महत्व को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए उस समय की परिस्थितियों का आकलन करना होगा जब वे हिंदी ग़ज़ल को पहचान दिलाने के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। तब उर्दू ग़ज़ल का बोल बाला था, आज की तरह न तो अंतर्जाल था, न चलभाष आदि। अपनी अल्प आय, जटिल पारिवारिक परिस्थितियों और आजीविकीय दायित्वों के चक्रव्यूह में घिरा यह अभिमन्यु हिंदी ग़ज़ल के पौधे की जड़ों में प्राण-प्रण  से जल सिंचन कर रहा था जबकि आज हिंदी गज़ल के नाम उर्दू की चाशनी मिलाने वाले हस्ताक्षर जड़ों में मठा  डालने की कोशिश कर रहे थे। उस जटिल समय में अस्थाना जी ने अपराजेय जीवत का परिचय देते हुए साधनों के अभाव में और बाल साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने के बाद भी हिंदी ग़ज़ल पर शोध करने का संकल्प किया और पूर्ण समर्पण के साथ उसे पूरा भी किया।

यही नहीं 'हिंदी ग़ज़ल: उद्भव और विकास' शीर्षक शोध कार्य के समांतर अस्थाना जी ने 'हिंदी ग़ज़ल पंचदशी' के ५ संकलन सम्पादित-प्रकाशित कर ७५ हिंदी ग़ज़लकारों को प्रतिष्ठित करने में महती भूमिका निभाई। उनके द्वारा जिन कलमों को प्रोत्साहित किया गया उनमें लब्ध प्रतिष्ठित डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर', डॉ. योगेंद्र बख्शी, डॉ. रविन्द्र उपाध्याय, डॉ. राकेश सक्सेना, दिनेश शुक्ल, सागर मीरजापुरी, डॉ. ओमप्रकाश सिंह, डॉ. गणेशदत्त सारस्वत, रवीन्द्र प्रभात, अशोक गीते, आचार्य भगवत दुबे, पूर्णेंदु कुमार सिंह, राजा चौरसिया, डॉ, राजकुमारी शर्मा 'राज', डॉ. सूर्यप्रकाश अस्थाना सूरज भी सम्मिलित हैं। संकलन प्रशन के २० वर्षों बाद भी अधिकाँश गज़लकार ण केवल सकृत हैं उनहोंने हिंदी ग़ज़ल को उस मुकान पर पहुँचाया जहाँ वह आज है। अस्थाना जी के इस कार्य की भूरि-भूरि प्रशंसा आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री, पद्म श्री नीरज, पद्म श्री चिरंजीत, कमलेश्वर कुंवर बेचैन, कुंवर उर्मिलेश,  चंद्रसेन विराट, डॉ. गिरिजाशंकर त्रिवेदी, ज़हीर कुरैशी, डॉ. महेंद्र कुमार अग्रवाल आदि ने की।

महाप्राण निराला के समीपस्थ रहे हिंदी साहित्य के पुरोधा आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने डॉ. अस्थाना के अवदान का मूल्यांकन करते हुए लिखा- "डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़लों में नए प्राण फून्कनेवाले हैं, स्वयं रचकर और सुयोग्यों को प्रकाश में लाकर। उनका प्रसाद मुझे मिल चुका है।" पद्मश्री नीरज ने डॉ. अष्ठाना को आशीषित करते हुए लिखा- "आपने ग़ज़ल के विकास और प्रसार में इतना काम किया है कि अब आप ग़ज़ल के पर्याय बन गए हैं। हिंदी ग़ज़ल के सही रूप की पहचान करवाने और उसे जन-जन तक पहुंचाने में आपकी भूमिका ऐतहासिक महत्त्व की है और इसके लिए हिंदी साहित्य आपका सदैव ही ऋणी रहेगा।" पद्म श्री चिरंजीत ने भी डॉ. अस्थाना के काम के महत्त्व को पहचाना- "ग़ज़ल विधा को लेकर आपने बड़े लगाव और रचनात्मक परिश्रम से 'हिंदी गजल पंचदशी' जैसा सारस्वत संयोजन संपन्न किया है। इस ऐतिहासिक कार्य के लिए आपको और पंचदशी के संकलनों को हमेशा याद किया जाएगा। ग़ज़ल  समन्वित संस्कृति की पैरोकार भी है और प्रमाण भी।"

समर्थ रचनाकार और समीक्षक डॉ. उर्मिलेश ने डॉ. अस्थाना को हिंदी ग़ज़ल को "पारिवेशिक यथार्थ और जीवन के सरोकारों से सम्बद्ध कर अपनी अनुभूतियों की बिम्बात्मक और पारदर्शी अभिव्यक्ति" करने का श्रेय देते हुए "हिंदी ग़ज़ल में हिंदी भाषा और साहित्य के संस्कारों को अतिरिक्त सुरक्षा देकर ग़ज़ल की जय यात्रा को  संभव बनाने के लिए उनकी प्रशस्ति की।

सारिका संपादक प्रसिद्ध उपन्यासकार कमलेश्वर ने अस्थाना जी के एकात्मिक लगाव और रचनात्मक परिश्रम का अभिनन्दन करते हुए हिन्दी ग़ज़ल के माध्यम से समन्वित संस्कृति की पैरोकारी करने के लिए उनके कार्य को चिरस्मरणीय बताया है।   ख्यात गीत-ग़ज़ल-मुक्तककार चन्द्रसेन विराट ने इन हिंदी ग़ज़लों में समय की हर धड़कन को सुनकर उसे सही परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करने की छटपटाहट पाने के साथ भाषिक छन्दों, रूपाकारों से परहेज न कर अपनी विशिष्ट हिंदी काव्य परंपरा से उद्भूत आधुनिक मानव जीवन की सभी संभाव्य एवं यथार्थ संवेदनाओं को समेटती हुई अपनी मूल हिंदी प्रकृति, स्वभाव, लाक्षणिकता, स्वाद एवं सांस्कृतिक पीठिका का रक्षण करने की प्रवृत्ति देखी है।

हिंदी ग़ज़ल के शिखर हस्ताक्षर कुंवर बेचैन के अनुसार अस्थाना जी की गज़लें एक ओर तथाकथित राजनीतिज्ञों पर प्रहार करती हैं तो दूसरी ओर धर्मान्धता के विकराल नाखूनों की खरोंचों से उत्पीडित मानव की चीख को स्वर देती दिखाई देती हैं। वे एक ओर सामाजिक विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं क्रूर रूढ़ियों से भी हाथापाई करती हैं तो दूसरी ओर आर्थिक परिवेश में होनेवाली विकृतियों और अन्यायों का पर्दाफाश करती हैं। कथ्य की दृष्टि से इन ग़ज़लों में ऐसी आँच है जो अन्याय सहन करनेवाले इनसान के ठन्डेपन को गर्म कर उसे प्रोत्साहित करती है।  उर्दू ग़ज़ल के ख्यात हस्ताक्षर ज़हीर कुरैशी यह मानते हैं कि डॉ. अस्थाना की कोशिशों से लगातार आगे बढ़ रहा हिंदी ग़ज़ल का कारवां मंजिल पर जाकर ही दम लेगा। डॉ. तारादत्त निर्विरोध ने हिंदी ग़ज़लों में अपने समय की अभिव्यक्ति अर्थात समसामयिकता पाई है। डॉ. राम प्रसाद मिश्र ने हिंदी ग़ज़ल के प्रबल पक्षधर और उसकी अस्मिता के प्रतिपादक के रूप में डॉ. अस्थाना का मूल्यांकन किया है। वे हिंदी ग़ज़ल को धर्मनिरपेक्ष मानवतावाद के साथ खड़ा पाते हैं।

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने डॉ. रोहिताश्व अस्थाना के सकल कार्य का अध्ययन करने के बाद उनकी हिंदी ग़ज़लों में कथ्य की छंदानुशासित अभिव्यक्ति का वैशिष्ट्य पाया है। समय साक्षी ग़ज़लों में हिंदी भाषा के व्याकरण और पिंगल के प्रति डॉ. अस्थाना की सजगता को उल्लेखनीय बताते हुए सलिल जी ने हिंदी के वैश्विक विस्तार के परिप्रेक्ष्य में भाषिक संकीर्णता और पारंपरिक शैथिल्यता से मुक्ति को विशेष रूप से इंगित किया है।
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संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
salil.sanjiv@gmail.com, www.divyanarmada.in, ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४