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शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

कविता: मन गीली मिट्टी सा कुसुम वीर

कविता:मन गीली मिट्टी सा
कुसुम वीर
*
मन गीली मिटटी सा
उपजते हैं इसमें अनेकों विचार
भावों के इसमें हैं अनगिन प्रवाह

सपनों की खाद से उगती तमन्नाएं
फूटें हैं हरपल नई अभिलाषाएं
उगती कभी इसमें शंकाओं की घास
ढापती जो ख्वाबों को,उभरने न दे आस

उगने दो मन की मिटटी में
भावनाओं के कोमल अंकुरों को
विस्तारित होने दो सौहार्द की ख़ुशबू को
नोच डालो वैमनस्य की जंगली हर घास 
पनपने दो सपनों की मृदुल कोंपल शाख

प्रेमजल से सिंचित बेल
जल्द ही उग आएगी
लहलहाएंगी हरी डालियाँ
 फूलेंगी नई बालियाँ

मौसम की बहारों में
बासंती मधुमास में
 खिल जाएँगे तब न जाने
कितने ही अनगिन कुसुम

मत रोकना तुम
पतझड़ की बयारों को
झड़ जायेंगे उसमें
 शंकाओं के पीले पात

ठूठी डालों पे फूटेंगी
फिर से नई कोंपलें
 फैलाते पंखों को
डोलेंगे पंछी

दूर कहीं मंदिरों में
घंटों की खनक में
शंखों के नाद संग
आरती आराधन स्वर

वंदना में झूमती
दीपक की लौ मगन
गूंजें फिर श्लोक कहीं
आध्यात्म ऋचाएं वहीँ

भावों के अनकहे
आत्मा के अंतर स्वर
तब तुम भी गा लेना
प्रेम का तराना

मन की गीली मिट्टी सा
कर देगा सरोबार
तुम्हें कहीं अंतर तक
सौंधी सी, पावन सी
ख़ुशबू के साथ
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Kusum Vir <kusumvir@gmail.com>
 

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

सरस गीत: .....लिखना पाती कुसुम सिन्हा

सरस गीत:

 .....लिखना पाती                                                                                     

कुसुम सिन्हा

*
जब सावन घन बरस न पायें 
उमड़ें-घुमड़ें  औ'  थम जाएँ 

                 भूल न जाना लिखना पाती
 
 भरी दुपहरी  हरी नींद में 
जब औचक   ऑंखें खुल जाएँ 
औ प्रीतम का मीठा सपना 
अचक अचानक ही चुक जाएँ 

                 भूल न जाना लिखना पाती 

जब सखियाँ  मिल कजली गायें 
पेंगें  पर पेंगें  लहरायें 
 सुधि के बदल घिर घिर आयें 
औ आँखों में नींद न आये 

                भूल न जाना लिखना पाती 

 जब फूलों से भरी साख वह 
झुक झुक आलिंगन को आयें 
 आँखों के अम्बर में जब तब 
 आंसू के बदल   लहरायें 

                 भूल न जाना लिखना पाती

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रविवार, 20 फ़रवरी 2011

मेरी एक कविता : और सुबह हो गई -------- कुसुम सिन्हा

मेरी एक कविता

और सुबह हो गई

कुसुम  सिन्हा  
*
 पर्वतों की ओट से
सुनहरी  किरने झाँकने लगीं
तभी सूर्य ने  खिलखिलाकर हँसते हुए
अपने सात रंगों से
धरती को  नहला दिया
शर्म से लाल हो गई धरती
सूर्य ने धरती को अपनी बाँहों में बांध  लिया
धरती लजाई  शरमाई मुस्कुराई  फिर
सूरज को सौप दिया अ
नदी की लहरें  नाचने लगीं
हवा इठला इठलाकर चलने लगीं
वृक्ष  आनंद मगन हो
झुमने लगे
रात्रि का अंधकार
चुपचाप भागकर कहीं छुप  गया
कलियों ने हंसकर
भाबरों को बुलाया
मन में उठने लगी
प्रेम की उमंग
एक मोहक अंगड़ाई ले
जाग उठी धरती
और सुबह हो गई
                                                                          (आभार: ई कविता)
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<kusumsinha2000@yahoo.com>