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सोमवार, 16 दिसंबर 2024

कहानी, भाभी, महादेवी वर्मा


कहानी 
भाभी
महादेवी वर्मा
*
        इतने वर्ष बीत जाने पर भी मेरी स्मृति, अतीत के दिन-प्रतिदिन गाढ़े होनेवाले धुंधलेपन में एक-एक रेखा खींचकर उस करुण, कोमल मुख को मेरे सामने अंकित ही नहीं सजीव भी कर देती है। छोटे गोल मुख की तुलना में कुछ अधिक चौड़ा लगनेवाला, पर दो काली रूखी लटों से सीमित ललाट, बचपन और प्रौढ़ता को एक साथ अपने भीतर बंद कर लेने का प्रयास-सा करती हुई, लंबी बरौनियोंवाली भारी पलकें और उनकी छाया में डबडबाती हुई-सी आँखें, उस छोटे मुख के लिए भी कुछ छोटी सीधी-सी नाक और मानो अपने ऊपर छपी हुई हँसी से विस्मित होकर कुछ खुले रहनेवाले ओठ समय के प्रवाह से फीके भर हो सके हैं, धुल नहीं सके।

        घर के सब उजले-मैले, सहज- कठिन कामों के कारण, मलिन रेखा-जाल से गुँथी और अपनी शेष लाली को कहीं छिपा रखने का प्रयत्न-सा करती हुई कहीं कोमल, कहीं कठोर हथेलियाँ, काली रेखाओं में जड़े कांतिहीन नखों से कुछ भारी जान पड़ने वाली पतली उँगलियाँ, हाथों का बोझ सँभालने में भी असमर्थ-सी दुर्बल, रूखी पर गौर बाँहें और मारवाड़ी लहँगे के भारी घेर से थकित से, एक सहज-सुकुमारता का आभास देते हुए, कुछ लंबी उँगलियों वाले दो छोटे-छोटे पैर, जिनकी एड़ियों में आँगन की मिट्टी की रेखा मटमैले महावर-सी लगती थी, भुलाए भी कैसे जा सकते हैं? उन हाथों ने बचपन में न जाने कितनी बार मेरे उलझे बाल सुलझा कर बड़ी कोमलता से बाँध दिए थे। वे पैर न जाने कितनी बार, अपनी सीखी हुई गंभीरता भूल कर मेरे लिए द्वार खोलने, आँगन में एक ओर से दूसरी ओर दौड़े थे, किस तरह मेरी अबोध अष्टवर्षीय बुद्धि ने उससे भाभी का संबंध जोड़ लिया था, यह अब बताना कठिन है। मेरी अनेक सह-पाठिनियों के बहुत अच्छी भाभियाँ थीं; कदाचित् उन्हीं की चर्चा सुन-सुन कर मेरे मन ने, जिसने अपनी तो क्या दूर के संबंध की भी कोई भाभी न देखी थी, एक ऐसे अभाव की सृष्टि कर ली, जिसको वह मारवाड़ी विधवा वधू दूर कर सकी।

        बचपन का वह मिशन स्कूल मुझे अब तक स्मरण है, जहाँ प्रार्थना और पाठ्यक्रम की एकरसता से मैं इतनी रुआँसी हो जाती थी कि प्रतिदिन घर लौटकर नींद से बेसुध होने तक सबेरे स्कूल न जाने का बहाना सोचने से ही अवकाश न मिलता था। उन दिनों मेरी ईर्ष्या का मुख्य विषय नौकरानी की लड़की थी, जिसे चौका बर्तन करके घर में रहने को तो मिल जाता था। जिस कठोर ईश्वर ने मेरे भाग्य में नित्य स्कूल जाना लिख दिया था, वह माँ के ठाकुर जी में से कोई है या मिशन की सिस्टर का ईसू, यह निश्चय न कर सकने के कारण मेरा मन विचित्र दुविधा में पड़ा रहता था। यदि वह माँ के ठाकुर जी में से है, तो आरती पूजा से जी चुराते ही क्रुद्ध होकर मेरे घर रहने का समय और कम कर देगा और यदि स्कूल में है, तो बहाना बनाकर न जाने से पढ़ाई के घंटे और बढ़ा देगा, इसी उधेड़-बुन में मेरा मन पूजा, आरती, प्रार्थना सब में भटकता ही रहता था। इस अंधकार में प्रकाश की एक रेखा भी थी। स्कूल निकट होने के कारण बूढ़ी कल्लू की माँ मुझे किताबों के साथ वहाँ पहुँचा भी आती थी और ले भी आती थी और इस आवागमन के बीच में, कभी सड़क पर लड़ते हुए कुत्ते, कभी उनके भटकते हुए पिल्ले, कभी किसी कोने में बैठ कर पंजों से मुँह धोती हुई बिल्ली, कभी किसी घर के बरामदे में लटकते हुए पिंजड़े में मनुष्य की स्वर-साधना करता हुआ गंगाराम, कभी बत्तख और तीतरों के झुंड, कभी तमाशा दिखलानेवालों के टोपी लगाए हुए बंदर, ओढ़नी ओढ़े हुए बंदरिया, नाचनेवाला रीछ आदि स्कूल की एकरसता दूर करते ही रहते थे।

        हमारे ऊँचे घर से कुछ ही हटकर, एक ओर रंगीन, सफेद, रेशमी और सूती कपड़ों से और दूसरी ओर चमचमाते हुए पीतल के बर्तनों से सजी हुई एक नीची-सी दूकान में जो वृद्ध सेठजी बैठे रहते थे, उन्हें तो मैंने कभी ठीक से देखा ही नहीं; परंतु उस घर के पीछे वाले द्वार पर पड़े हुए पुराने टाट के परदे के छेद से जो आँखें प्रायः मुझे आते-जाते देखती रहती थीं, उनके प्रति मेरा मन एक कुतूहल से भरने लगा। कभी-कभी मन में आता था कि परदे के भीतर झाँक कर देखूँ; पर कल्लू की माँ मेरे लिए उस जंतुविशेष से कम नहीं थी, जिसकी बात कह कह कर बच्चों  को डराया जाता है। उसका कहना न मानने से वह नहलाते समय मेरे हाल ही में छिदे कान की लौ दुखा सकती थी, चोटी बाँधते समय बालों को खूब खींच सकती थी, कपड़े पहनाते समय तंग गलेवाले फ्राक को आँखों पर अटका सकती थी, घर में और स्कूल में मेरी बहुत-सी झूठी सच्ची शिकायत कर सकती थी। सारांश यह कि उसके पास प्रतिशोध लेने के बहुत-से साधन थे परंतु कल्लू की माँ को चाहे उन आँखों की स्वामिनी से मेरा परिचय न भाता हो; पर उसकी कथा सुनाने में उसे अवश्य रस मिलता रहा। वह अनाथिनी भी है और अभागी भी। बूढ़े सेठ सबके मना करते-करते भी इसे अपने इकलौते लड़के से ब्याह लाये और उसी साल लड़का बिना बीमारी के ही मर गया। अब सेठजी का इसकी चंचलता के मारे नाक में दम है। न इसे कहीं जाने देते हैं, न किसी को अपने घर आने। केवल अमावस-पूनो एक ब्राह्मणी आती है, जिसे वे अपने-आप खड़े रहकर, सीधा दिलवाकर विदा कर देते हैं।वे बेचारे तो जाति-बिरादरी में भी इसके लिए बुरे बन गए हैं और इसकी निर्लज्जता देखो -ससुर दूकान में गए नहीं कि वह परदे से लगी नहीं।घर में कोई देखनेवाला है ही नहीं। एक ननद है, जो शहर ससुराल होने के कारण जब-तब आ जाती है और तब उसकी खूब ठुकाई होती है, इत्यादि-इत्यादि सूचनाएँ कल्लू की माँ की विशेष शब्दावली और विचित्र भाव-भंगियों के साथ मुझे स्कूल तक मिलती रहती थीं। परंतु उस समय वे सूचनाएँ मेरे निकट उतना ही महत्त्व रखती थीं, जितनी नानी से सुनी हुई बेला की कहानी।कथा में बेचैन कर देनेवाला सत्य इतना ही था कि कहानी की राजकुमारी की आँखें पुराने टाट के परदे से सुनने वाली बालिका को नित्य ताकती ही रहती थीं।  यह स्थिति तो कुछ सुखद नहीं कही जा सकती। यदि सुनी हुई कहानी के सब राजा, रानी, राजकुमार, राजकुमारी, दैत्य, दानव आदि सुननेवालों को इस प्रकार देखने लगें, तो कहानी सुनने का सब सुख चला जावे, यह कल्लू की माँ की कहानी और परदे के छेद से देखनेवाली आँखों ने मुझे समझा दिया था।

        भूरे टाट में जड़ी-सी वे काली आँखें मेरी कल्पना का विषय ही बनी रहतीं, यदि एक दिन पानी बरसने से कल्लू की माँ रुक न गई होती, पानी थमते ही मैं स्कूल से अकेले ही चल न दी होती और गीली सड़क पर उस परदे के सामने ही मेरा पैर न फिसल गया होता। बच्चे गिरकर प्रायः चोट के कारण न रोकर, लज्जा से ही रोने लगते हैं। मेरे रोने का भी कदाचित् यही कारण रहा होगा, क्योंकि चोट तो मुझे याद नहीं आती। कह नहीं सकती कि परदे से निकलकर, कब उन आँखों की स्वामिनी ने मुझे आँगन में खींच लिया; परंतु सहसा विस्मय से मेरी रुलाई रुक गई। एक दुर्बल पर सुकुमार बालिका जैसी स्त्री अपने अंचल से मेरे हाथ और कपड़ों का कीचड़ मिला पानी पोंछ रही थी और भीतर दालान से वृद्ध सेठ का कुछ विस्मित स्वर कह रहा था - 'अरे! यह तो वर्मा साहब की बाई है।'

        उसी दिन से वह घर, जिसमें न एक भी झरोखा था न रोशनदान, न एक भी नौकर दिखाई देता था, न अतिथि और न एक भी पशु रहता था, न पक्षी, मेरे लिए एक आकर्षण बनने लगा। उस समाधि-जैसे घर में लोहे के प्राचीर से घिरे फूल के समान वह किशोरी बालिका बिना किसी संगी-साथी, बिना किसी प्रकार के आमोद-प्रमोद के, मानो निरंतर वृद्धा होने की साधना में लीन थी। वृद्ध एक ही समय भोजन करते थे और वह तो विधवा ठहरी। दूसरे समय भोजन करना ही यह प्रमाणित कर देने के लिए पर्याप्त था कि उनका मन विधवा के संयम प्रधान जीवन से ऊबकर किसी विपरीत दिशा में जा रहा है। प्रायः निराहार और निरंतर मिताहार से दुर्बल देह से वह कितना परिश्रम करती थी, यह मेरी बालक-बुद्धि से भी छिपा न रहता था। जिस प्रकार उसका, खँडहर जैसे घर और लंबे-चौड़े आँगन को बैठ-बैठकर बुहारना, आँगन के कुएँ से अपने और ससुर के स्नान के लिए ठहर-ठहर कर पानी खींचना और धोबी के अभाव में, मैले कपड़ों को काठ की मोगरी से पीटते हुए रुक-रुक कर साफ़ करना, मेरी हँसी का साधन बनता था, उसी प्रकार केवल जलती लकड़ियों से प्रकाशित, दिन में भी अँधेरी रसोई की कोठरी के घुटते हुए धुएँ में से रह-रह कर आता हुआ खाँसी का स्वर, कुछ गीली और कुछ सूखी राख से चाँदी - सोने के समान चमकाकर तथा कपड़े से पोंछकर ( मारवाड़ में काम में लाने के समय बर्तन पानी से धोए जाते हैं) रखते समय शिथिल उँगलियों से छूटते हुए बर्तनों की झनझनाहट मेरे मन में एक नया विषाद भर देती थी परंतु काम चाहे कैसा ही कठिन रहा हो, शरीर चाहे कितना ही क्लांत रहा हो, मैंने न कभी उसकी हँसी से आभासित मुख - मुद्रा में अंतर पड़ते देखा और न कभी काम रुकते देखा और इतने काम में भी उस अभागी का दिन द्रौपदी के चीर से होड़ लेता था। सबेरे स्नान, तुलसी पूजा आदि में कुछ समय बिताकर ही वह अपने अँधेरे रसोईघर में पहुँचती थी; परंतु दस बजते-बजते ससुर को खिला-पिला कर, उसी टाट के परदे से मुझे शाम को आने का निमंत्रण देने के लिए स्वतंत्र हो जाती थी। उसके बाद चौका बर्तन कूटना -‍ - पीसना भी समाप्त हो जाता; परंतु अब भी दिन का अधिक नहीं तो एक प्रहर शेष रह ही जाता था। दूकान की ओर जाने का निषेध होने के कारण वह अवकाश का समय उसी टाट के परदे के पास बिता देती थी, जहाँ से कुछ मकानों के पिछवाड़े और एक-दो आते-जाते व्यक्ति ही दिख सकते थे; परंतु इतना ही उसकी चंचलता का ढिंढोरा पीटने के लिए पर्याप्त था। 

        उस १९ वर्ष की युवती की दयनीयता आज समझ पाती हूँ, जिसके जीवन के सुनहरे स्वप्न गुड़ियों के घरौंदे के समान दुर्दिन की वर्षा में केवल बह ही नहीं गए, वरन् उसे इतना एकाकी छोड़ गए कि उन स्वप्नों की कथा कहना भी संभव न हो सका। ऐसी दशा में उसने आठ वर्ष की बालिका को ही अपने संगीहीन हृदय की सारी ममता सौंप दी; परंतु वह बालिका तो उसके संसार में प्रवेश करने में असमर्थ थी, इसी से उसने उसी के गुड़ियोंवाले संसार को अपनाया। वृद्ध भी अपनी बहू के लिए ऐसा निर्दोष साथी पाकर इतने प्रसन्न हुए कि स्वयं ही बड़े आदर-यत्न से मुझे बुलाने-पहुँचाने लगे  और माँ तो उस माता-पिताहीन विधवा बालिका की कथा सुनकर ही मुख फेरकर आँख पोंछने लगती थीं। इसी से धीरे-धीरे मेरी कुछ नाटी गुड़िया, उसका बेडौल सिरवाला पति, उसकी एक पैर से लंगड़ी सास, बैठने में असमर्थ ननद और हाथों के अतिरिक्त सब प्रकार से आकारहीन दोनों बच्चे, सब एक-एक कर भाभी की कोठरी में जा बैठे।  इतना ही नहीं, उनकी चक्की से लेकर गहनों तक सारी गृहस्थी और डोली से लेकर रेल तक सब सवारियाँ उसी खँडहर को बसाने लगीं। 

        भाभी को तो सफेद ओढ़नी और काला लहँगा या काली ओढ़नी और सफेद बूटीदार कत्थई लहँगा पहने हुए ही मैंने देखा था; पर उसकी ननद के लिए हर तीज-त्यौहार पर बड़े सुंदर रंगीन कपड़े बनते थे। कुछ भाभी की बटोरी हुई कतरन से और कुछ अपने घर से लाए हुए कपड़ों से गुड़ियों के लज्जा-निवारण का सुचारु प्रबंध किया जाता था। भाभी घाघरा, काँचली आदि अपने वस्त्र सीना जानती थी, अतः मेरी गुड़िया मारवाड़िन की तरह शृंगार करती थी; मैंने स्कूल में ढीला पाजामा और घर में कलीदार कुरता सीना सीखा था, अतः गुड्डा पूरा लाला जान पड़ता था; चौकोर कपड़े के टुकड़े के बीच छेद करके वही बच्चों के गले डाल दिया जाता था, अतः वे किसी आदिम युग की संतान से लगते थे ।         
        भाभी के लिए काला अक्षर भैंस बराबर था इसलिए उस पर मेरी विद्वत्ता की धाक भी सहज ही जम गई थी। प्रायः सभी पशुओं के अँगरेजी नाम बताकर और तस्वीरों वाली किताब से अँगरेजी की कविता बड़े राग से पढ़कर मैं उसे विस्मित कर चुकी थी, हिंदी की पुस्तक से 'माता का हृदय', 'भाई का प्रेम' आदि कहानियाँ सुनाकर उसकी आँखें गीली कर चुकी थी और अपने मामा को चिट्ठी लिखने की बात कहकर उसके मन में बीकानेर के निकट किसी गाँव में रहनेवाली बुआ की स्मृति जगा चुकी थी। वह प्रायः लंबी साँस लेकर कहती- पता नहीं जानती, नहीं तो तुमसे एक चिट्ठी लिखवा कर डाल देती। सब से कठिन दिन तब आते थे, जब वृद्ध सेठ की सौभाग्यवती पुत्री अपने नैहर आती थी। उसके चले जाने के बाद भाभी के दुर्बल गोरे हाथों पर जलने के लंबे, काले निशान और पैरों पर नीले दाग रह जाते थे; पर उनके संबंध में कुछ पूछते ही वह गुड़िया की किसी समस्या में मेरा मन अटका देती थी। उन्हीं दिनों स्कूल में कशीदा काढ़ना सीखकर मैंने अपनी धानी रंग की साड़ी में बड़े-बड़े नीले फूल काढ़े। भाभी को रंगीन कपड़े बहुत भाते थे, इसी से उसे देखकर वह ऐसी विस्मय-विमुग्ध रह गई, मानो कोई सुंदर चित्र देख रही हो। 

        मैंने क्यों माँ से हठ करके वैसा ही कपड़ा मँगवाया और क्यों किसी को बिना बताए हुए छिपा - छिपाकर ‘उस ओढ़नी पर नीले फूल काढ़ना आरंभ किया, यह आज भी समझ में नहीं आता। वह बेचारी बार-बार बुलवा भेजती, नए-नए गुड़ियों के कपड़े दिखाती, नए-नए घरौंदे बनाती; पर फिर भी मुझे अधिक समय तक ठहराने में असमर्थ होकर बड़ी निराश और करुण मुद्रा से द्वार तक पहुँचा जाती। उस दिन की बात तो मेरी स्मृति में गर्म लोहे से लिखी जान पड़ती है, जब उस ओढ़नी को चुपचाप छिपाकर मैं भाभी को आश्चर्य में डालने गई। शायद सावन की तीज थी, क्योंकि स्कूल के सीधे-सादे बिना चमक-दमक वाले कपड़ों के स्थान में मुझे गोटा लगी हुई लहरिए की साड़ी पहनने को मिली थी और सबेरे पढ़ने बैठने की बात न कहकर माँ ने हाथों में मेहँदी भी लगा दी थी। वह दालान में दरवाजे की ओर पीठ किए बैठी कुछ बीन रही थी, इसी से जब दबे पाँव जाकर मैंने उस ओढ़नी को खोलकर उसके सिर पर डाल दिया, तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी। रंगों पर उसके प्राण जाते ही थे, उस पर मैंने गुड़ियों और खिलौनों से दूर अकेले बैठे-बैठे अपने नन्हे हाथों से उसके लिए उतनी लंबी-चौड़ी ओढ़नी काढ़ी थी।  आश्चर्य नहीं कि वह क्षण भर के लिए अपनी उस स्थिति को भूल गई, जिसमें ऐसे रंगीन वस्त्र वर्जित थे और नए खिलौने से प्रसन्न बालिका के समान, एक बेसुधपन में उसे ओढ़, मेरी ठुड्डी पकड़कर खिलखिला पड़ी और जब किसी का विस्मय-विजड़ित 'बींदनी' (बहू) सुनकर उसकी सुधि लौटी, तब हतबुद्धि-से ससुर मानो गिरने से बचने के लिए चौखट का सहारा ले रहे थे और क्रोध से जलते अंगारे- जैसी आँखोंवाली, खुली तलवार - सी कठोर ननद, देहली से आगे पैर बढ़ा चुकी थी।  अवश्य ही तीज रही होगी; क्योंकि वृद्ध स्वयं पुत्री को लेने गए थे। 

        इसके उपरांत जो हुआ वह तो स्मृति के लिए भी अधिक करुण है। क्रूरता का वैसा प्रदर्शन मैंने फिर कभी नहीं देखा। बचाने का कोई उपाय न देखकर ही कदाचित् मैंने जोर-जोर से रोना आरंभ किया; परंतु बच तो वह तब सकी, जब मन से ही नहीं, शरीर से भी बेसुध हो गई।  वृद्ध मुझे कैसे घर पहुँचा गए, घबराहट से मैं कितने दिन ज्वर में पड़ी रही, यह सब तो गहरे कुहरे में छिप गया है; परंतु बहुत दिनों के बाद जब मैंने फिर उसे देखा, तब उन बचपन भरी आँखों में विषाद का गाढ़ा रंग चढ़ चुका था और वे ओठ, जिन पर किसी दिन हँसी छपी सी जान पड़ती थी, ऐसे काँपते थे, मानो भीतर का क्रंदन रोकने के प्रयास से थक गए हों। उस एक घटना से बालिका प्रौढ़ हो गई थी और युवती वृद्धा। 
फिर तो हम लोग इन्दौर से चले ही आए और एक-एक करके अनेक वर्ष बीत जाने पर ही मैं इस योग्य बन सकी कि उसकी कुछ खोज-खबर ले सकूँ। पता लगा कि छोटी दूकान के स्थान में एक विशाल अट्टालिका वर्षों पहले खड़ी हो चुकी है।  पता चला कि वधू की रक्षा का भार संसार को सौंप कर वृद्ध कभी के विदा हो चुके हैं; परंतु कठोर संसार ने उसकी कैसी रक्षा की, यह आज तक अज्ञात है। इतने बड़े मानव-समुद्र में उस छोटे-से बुदबुद की क्या स्थिति है, यह मैं जानती हूँ; परंतु तब भी कभी-कभी मन चाहता है कि बचपन में जिसने अपने जीवन के सूनेपन को भूलकर, मेरी गुड़ियों की गृहस्थी बसाई थी, खिलौनों का संसार सजाया था, उसे एक बार पा सकती। 

        आज भी जब कोई रंगीन कपड़ों के प्रति विरक्ति के संबंध में कौतुक भरा प्रश्न कर बैठता है, तो वह अतीत फिर वर्तमान होने लगता है।  कोई किस प्रकार समझे कि रंगीन कपड़ों में जो मुख धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगता है, वह कितना करुण और कितना मुरझाया हुआ है। कभी-कभी तो वह मुख मेरे सामने आने वाले सभी करुण क्लांत मुखों में प्रतिबिंबित होकर मुझे उसके साथ एक अटूट बंधन में बाँध देता है।  प्रायः सोचती हूँ- जब वृद्ध ने कभी न खोलने के लिए आँखें मूँद ली होंगी तब वह, जिसे उन्होंने संसार की ओर देखने का अधिकार ही नहीं दिया था, कहाँ गई होगी और तब-तब न जाने किस अनिष्ट संभावना से न जाने किस अज्ञात प्रश्न के उत्तर में मेरे मन की सारी ममता आर्त्त क्रंदन कर उठती है- नहीं... नहीं ... .
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गुरुवार, 24 नवंबर 2022

कृति चर्चा: नयी कहानी : संदर्भ शिल्प - डॉ. भारती सिंह

 कृति चर्चा: 

नयी कहानी : संदर्भ शिल्प - कहानी पर गंभीर विमर्श 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

[कृति विवरण - नयी कहानी : संदर्भ शिल्प, समालोचना, डॉ. भारती सिंह, प्रथम संस्करण २०२२, आकार डिमाई,  पृष्ठ २१६, आवरण पेपरबैक बहुरंगी जैकेट सहित, मूल्य २२५/-, प्रकाशक- हिंदुस्तानी अकादमी प्रयागराज, कृतिकार संपर्क dr.bharti_singh@yahoo.com]

                    मनुष्य और कहानी का साथ चोली दामन का सा है। मनुष्य ने बोलना सीखने ही बात बनाना आरंभ कर दिया होगा जो कालांतर में पहले वाचिक और बाद में लिखित कहानी का रूप लेकर साहित्य की अग्रगण्य विधा के रूप में विश्व के हर क्षेत्र और हर बोली-भाषा में प्रतिष्ठित हो गई है।  'हरि अनंत हरिकथा अनंता' की उक्ति कहानी के लिए भी सत्य है। कहानी के अनेक रूप उसकी विकास यात्रा में विकसित हुए हैं, हो रहे हैं और होते रहेंगे। हर दशक में नई कहानी लिखी जाएगी और अगले दशक में पुरानी पड़ने लगेगी। ऐसा कहानी ही नहीं हर सृजन विधा के साथ होता है और  होने ही चाहिए, तभी विधा न केवल जिन्दा रहती है अपितु विकसित भी होती है। सतत परिवर्तनशील विधा होने के नाते कहानी के विषय, कथ्य, उद्देश्य, शिल्प, विधान आदि  हर तत्व में बदलाव होता रहता है। इन बदलावों पर सतर्क किन्तु पूर्वाग्रहविहीन दृष्टि रखकर अब तक हुए विकास का विश्लेषण गंभीर, गहन और व्यापक अध्ययन किए बिना संभव नहीं है। डॉ. भारती सिंह ने अपने शोध के लिए कहानी विशेषकर नई कहानी को चुनकर इस चुनौती से आँखें चार की हैं। इस साहस के लिए उन्हें बधाई। 

                    समालोचना एक ऐसी विधा है जिसके मानक और विधान सतत परिवर्तनशील होते हैं। एक कहानी एक विचारधारा के समालोचक को श्रेष्ठ प्रतीत होती है तो अन्य विचारधारा के समालोचक के लिए वह सामान्य या हे हो सकती है। वास्तव में ऐसा नहीं हो नहीं चाहिए, पर होता है क्योंकि समालोचक निष्पक्ष या तटस्थ दृष्टि से आकलन नहीं करता। हिंदी में समालोचक अपनी वैयक्तिक वैचारिक प्रतिबद्धता को अपने सलोचकीय कर्म पर हावी हो जाने देता है। इस वातावरण में यह निश्चित है कि डॉ. भारती जो भी मत प्रस्तुत करेंगी उसका मूल्याङ्कन समीक्षक अपने वैयक्तिक चिन्तन के आधार पर करेंगे, विषय के साथ हुए न्याय-अन्याय के आधार पर नहीं। भारती जी ने इस दूषित वातावरण में भी समालोचना को चुनने का साहस किया है।

                    विवेच्य २१६ पृष्ठीय कृति सात अध्यायों पारम्परिक कथा प्रतिमानों की निरंतरता और कहानी के नए प्रतिमान, स्वातंत्र्योत्तर रचना का समानांतर परिवेश (राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं नैतिक मूल्यों के संदर्भ में मोह भंग), मानव अस्मिता का प्रश्न और नयी कहानी, समानांतर सच्चाइयों का दवाब और नयी कहानी के कथानक प्रयोग, अभिव्यक्ति के नए मुहावरों की तलाश (नयी कहानी के भाषिक और शैलीगत प्रयोग), नयी कहानी की कथागत रूढ़ियाँ : गत्यवरोध (साठोत्तरी कहानी की संभावनाएँ) तथा नयी कहानी के स्थापित कथाकार (नयी कहानी के विशिष्ट हस्ताक्षर) में लिखी गई है।  अंत में उपसंहार तथा संदर्भ सूची ने पुस्तक की उपादेयता में वृद्धि की है। आचार्य वशिष्ठ नारायण त्रिपाठी ने ठीक ही आकलन किया है कि डॉ. भारती के अनुसार नई कहानी पहचान की पुरानी कसौटियों से भिन्न नई कसौटियों की अपेक्षा रखती है। देवेंद्र प्रताप सिंह के मत में प्रस्तुत शोध कृति नई कहानी के रचना विधान यानी शिल्पगत बदलावों की पड़ताल करती है। कथाकार राजगोपाल सिंह वर्मा के शब्दों में डॉ. भारती सिंह ने स्वातंत्र्योत्तर रचना का समानांतर परिवेश, मानव अस्मिता का परिवेश और नई कहानी की ऐतिहासिकता और संदर्भों की गहनता से परख की है।

                    किसी समालोचनात्मक कृति में कथ्य को तथ्यों पर आधारित होना चाहिए और निष्कर्ष निकलते समय सभी तथ्यों और तत्वों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। शोध कार्य करते समय शोधार्थी पूर्णत: स्वतंत्र नहीं होता। वक टाँगे में जुटे घोड़े के समान निदेशक के मार्गदर्शन में उसके बताए अनुसार ही कार्य करता है। परोक्षत:, निदेशक की दृष्टि शोधार्थी पर आरोपित हो जाते है। इस सीमा में रहकर भारती जी ने प्रस्तुत पुस्तक में विषय का अध्ययन कर निष्कर्ष निकाले हैं तथापि उनकी पाठकीय और समीक्षकीय दृष्टि की सजगता, सटीकता और सामयिकता की झलक दृष्टव्य है। भारती द्वारा किये गए स्वतंत्र आकलन पर दृष्टिपात करें। 

                    'मुस्लिम और ईसाई समाजों की छाया हिन्दू समाज पर तो पड़ी ही है साथ ही साम्यवादी विचारोंवाले दाम्पत्य जीवन का जो स्वैराचारी चलन है उसका प्रभाव भी भारतीय समाज पर पर्याप्त रूप से पड़ रहा है।- पृष्ठ १५ भारतीय पौराणिक कथाओं में इंद्रादि देवताओं के स्वैराचार के संदर्भ में साम्यवाद को श्रेय देना विचारणीय है। 

                    जिन-जिन बाह्य दबावों का संवेदना के धरातल पर हमारी इन्द्रियों पर प्रभाव पड़ता है, वही रचनात्मक प्रक्रिया से गुजरकर बिम्ब रूप में ढल जाते हैं। यह प्रभाव कच्चे माल के रूप में उपयोग में लाया जाता है। -पृष्ठ २१ इस मत को प्रस्तुत करते समय कुछ उदाहरण दिए जा सकते तो मत संपुष्ट होता। 

                    कहानी में स्वातंत्र्योत्तर परिवेश की चर्चा करते समय काल व मूल्य वैविध्य, मूल्य और आधुनिकीकरण, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक परिवेश की चर्चा है। यांत्रिक, व्यावसायिक,औद्योगिक व अंतर्राष्ट्रीय परिवेश को जोड़कर इसे पूर्णता दी जानी थी। 

                    मानवीय अस्मिता के संदर्भ में व्यक्ति के अस्तित्व का संकट पाश्चात्य साहित्य का दुष्परिणाम बताने का निष्कर्ष (पृष्ठ ६७) यह संकेतित करता है कि इस काल के पूर्व व्यक्ति के अस्तित्व का संकट नहीं था। इस निष्कर्ष को असंदिग्ध बनाने के लिए गहन पड़ताल की आवश्यकत है जो संभवत: शोध पत्र की सीमा के परे रहा हो। 

                    नई कहानी के कथानक संबंधी प्रयोगों के मूल में समानांतर सच्चाइयों का दबाव होने के संदर्भ में लेखिका का मत है -'नई कहानी ने संवेदना और संरचना के दो अनिवार्य मुद्दे अपने रचनात्मक विन्यास के लिए स्वीकार किए, वस्तु विन्यास की दृष्टि से प्रारंभ, मध्य और अंत की अनिवार्यता के के पूर्ण अस्वीकार में मात्र अभीष्ट अर्थ को प्रकाशित करनेवाले तत्वों के प्रयोग की स्थिति स्वीकार की गई.... घटनाएँ सर्वथा नए रूप में सम्मिलित हुईं। ये क्रमिक वर्णन की पूर्वनिर्धारित स्थिति में न घटकर बहुत हेर-फेर के साथ घटती हुई दिखाई पड़ीं किन्तु अपने इस रूप में भी ये अर्थ को अधिक प्रभावित रूप प्रदान करनेवाली सिद्ध हुईं।' - पृष्ठ १०५ इस निष्कर्ष के पूर्व अनेक कहानीकारों की कहानियों का विश्लेषण किया जाना निष्कर्ष को प्रामाणिक बनाता है।   

                     नई कहानी के भाषिक और शैलीगत प्रयोगों की चर्चा करते हुए भारती नई कविता आंदोलन की पृष्ठ भूमि को इसके उत्स का कारण ठीक ही बताती हैं। अमिधा के स्थान पर व्यंजना और लक्षणा का प्रयोग नवगीत की पहचान रहा है। यही प्रवृत्ति बाद में कहानी ने अंगीकार की। नई कहानी में प्रयोगों की बहुलता, सांकेतिक भाषा का प्रयोग, सटीक बिम्ब योजना, सहज लोक प्रचलित भाषा आदि तत्वों की विवेचना कहती है - 'हर कहानीकार आरंभ से ही अपने अलग व्यक्तित्व को लेकर चला और किसी किसी दूसरे या किन्हीं दूसरों के व्यक्तित्व में उसने अपने को खो जाने नहीं दिया।' - पृष्ठ १५९  निष्कर्ष की पृष्ठभूमि में २१४ संदर्भों की सूची इसे विश्वसनीयता प्रदान करती है। 

                    नई कहानी के सृजन पथ के गत्वयारोधों और भावी संभावनाओं के परिप्रेक्ष्य में  उनके यथर्थाधारित होने के बावजूद उनके सामाजिक प्रभाव पर पुनर्विचार (पृष्ठ १८५) किया जाना वास्तव में आवश्यक है। साहित्य  सामाजिक प्रभाव और साहित्य की सनातनता के परिप्रेक्ष्य में साहित्य में शुभत्व, शिवत्व तथा सुंदरत्व का होना भी अनिवार्य है। यह तथ्य स्पष्ट:न कहकर भी लेखिका इस और संकेत करती है। 

                     नई कहानी के विशिष्ट हस्ताक्षरों का चयन निर्विवाद हो ही नहीं सकता तथापि लेखिका ने संतुलित दृष्टिसे चयन कर निष्पक्षता प्रदर्शित की है। उपसंहार में हिंदी कहानी के भविष्य क्व संबंध में लेखिका स्वयं कुछ न कहकर लक्ष्मीनारायण लाल का एक कथन देकर समापन करती है , इसका कारण संभवत: यह हो कि वह स्वयं को कहानी के भविष्य के संबंध में कुछ कहने के लिए पर्याप्त वरिष्ठ न पाती हो कि उसकी बात को गंभीरता से लिया जाएगा। 

                    कथ्य और विषय वस्तु की दृष्टि से 'नई कहानी : संदर्भ शिल्प' पठनीय और मननीय कृति है। चन्द्रमा के दाग की तरह विराम चिह्नों, अनुस्वार और अनुनासिक, क्रियापदों के वाचिक रूप आदि के प्रति असावधानी खटकती है। गंभीर साहित्यिक कृतियों में हिंदी भाषा के मानक नियमों का पालन किया ही जाना चाहिए। 

संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल salil.sanjiv@gmail.com     


शनिवार, 4 सितंबर 2021

कहानी पितर डॉ. पुष्पा जोशी

कहानी
पितर
डॉ. पुष्पा जोशी
मुझे लगता है कौए को हमेशा हेय दृष्टि से ही देखा जाता रहा है । उसकी काँव-काँव की कर्कश आवाज जब भी कानों पडती है लोगों का मुँह बन जाता है और बरबस मुँह से निकल जाता है, कहाँ से टपक गया कलमुँहा ?? किसी के सिर पर बैठ जाए तब तो पक्का अपशकुन .......कहते हैं जिसके सिर पर बैठता है उसकी मृत्यु निश्चित .... हमारे समय में तो रिश्तेदारों को तार
भिजवा दिया जाता था कि फलाना परलोक सिधार गया और जब तक वे रो-धोकर गोलोकवासी के घर जाने का प्रोग्राम बनाते थे तब तक दूसरा तार पहुँच जाता था कि सब ठीक-ठाक है……नासपिटे कौए के कारण आपको परेशान होना पडा .... सिर पर बैठ गया था। हमारे शास्त्रों में तो कौए की भर्त्सना कुछ इस प्रकार की गई है‌ ‌–
काकस्य गात्रं यदि काञ्चनस्य , माणिक्यरत्नं यदि चञ्चुदेशे।
ऐकैकपक्षे ग्रथितं मणिनां ,तथापि काको न तु राजहंस:।।
अर्थात् कौए का शरीर यदि सोने का हो जाए ,चोंच के स्थान पर माणिक्य और रत्न हो जाए, एक-एक पंख में मोतियों का गुम्फन हो तो भी कौआ राजहंस तो नही हो जाता।
यही कौआ हरकारे का काम भी करता आया है, जिस किसी की मुँडेर पर सुबह-सुबह बैठकर आवाज दे तो समझ लीजिए घर में कोई मेहमान आने वाला है। सबसे अधिक सम्मान तो उसे पितृपक्ष में प्राप्त होता है। हमारे पितर कौए के रूप में ही पूजे जाते हैं।
आज हरिया कौए के सभी मित्र पितृपक्ष में अपने–वंशजों की बाट जोह रहे हैं। उनके बच्चे इन दिनों उनका श्राद्ध करते हैं, उन्हें तृप्त करने के लिए खीर-पूडी और उनके इप्सित खाद्यों का भोग लगाते हैं। वर्ष में सोलह दिन शास्त्रों में पित्रों के लिए सुरक्षित किए गए हैं। इन दिनों देव भी सो जाते हैं। पितरों और उनके बच्चों के बीच कोई भी दख़ल देने वाला नही होता। याने जीते जी माता-पिता को खाना नही खिलाया तो पितृपक्ष में उन्हें तृप्त करना ही होगा। हरिया की मृत्यु पिछले वर्ष हुई थी। उसके सामने पहला पितृपक्ष पडा है।
हरिया जब मनुज योनि में था तब अपने पूर्वजों का खूब विधि –विधान से श्राद्ध किया करता था। माता-पिता की सेवा को उसने परम कर्तव्य माना था। जब तक माता-पिता जीवित रहे पहले उन्हें खिलाता फिर स्वयं खाता। रात में जब-तक उनकी चरण-सेवा न कर लेता खटिया न पकडता। पत्नी भी साध्वी रूपा सास-ससुर की सेवा पूरे मनोयोग से करती थी। बच्चों में भी उनके ही संस्कार पडे। परंतु जैसे-जैसे वे बडे होने लगे मनमानी करने लगे। पढाया-लिखाया अच्छे पद प्राप्त हुए, अपनी मर्जी से शादी-ब्याह किए। पढी-लिखी बहुएँ घर में आ गईं थीं। घर के बडे-बूढों में अब खोट निकलने लगे। रीति- रिवाजों की दुहाई दी जाने लगी। परम्पराएं, शास्त्रों की बातें अखरने लगी। हरिया बच्चों को समझाने की कोशिश करता तो सब उसकी बातों को काट
देते । धीरे-धीरे वह चुप रहने लगा। बहुएँ नौकरी पर जाती तो मेरी पत्नी घर का सारा काम करती ,बच्चे संभालती। ढलती उम्र में वो भी जल्दी ही थक जाती, मैं भी अंदर-बाहर कम कर पाता । बच्चों को लगता था हम मुफ़्त की रोटियाँ तोड रहे हैं।कभी-कभी बच्चे सुना दिया करते थे, इतने बूढे नही हो गये हैं आप कि आप से कुछ काम ही नही हो पा रहा है।
मैं सन्न रह जाता, हमने इस प्रकार की बात कभी अपने माता-पिता से नही की थी। एक बार छुट्टी के दिन चार बजे तक हमें खाने के लिए नही पूछा। मैंने कहा, “बेटा तुम्हारी माँ को भूख लग रही है। “ बहू ने ताना मारा 'काम के न काज के दुश्मन अनाज के' भीतर तक तडप कर रह गया था मैँ। बाहर से एक अमरूद वाला निकला तो चोरी से आधा किलो अमरूद लिये और चोरी से ही हम दोनों बुढ्ढे–बुढिया ने खाये। फिर तो यह सिलसिला ही चल निकला, मन होता खाना देते मन नही होता तो नही देते। माँगने पर दो टुकडे हमारे आगे डाल दिये जाते, साथ में ताना भी दिया जाता बाबूजी! इस उम्र में आपकी जीभ चटोरी हो गई है। क्या करता ऐसा कुछ नही था पास, जिसे लेकर बुढिया के साथ दूर निकल जाता। रूपया-पैसा सब बच्चों की पढाई पर खर्च कर दिया। यही सोच रही हमेशा पूत-कपूत तो का धन-संचय ,पूत‌‌ – सपूत तो का धन संचय बच्चों से बडी भी भला कोई पूँजी होती है इसलिए कभी पैसे को पूँजी नही बनाया। लोग समझाते थे थोडा बुढापे के लिए भी रख ले हरिया! पर मैंने किसी की भी एक न सुनी। ‘ मेरे बच्चे बहुत संस्कारी हैं उन्होंने देखा है हम किस प्रकार अपने माता-पिता की सेवा करते हैं’ कहकर उन्हें भगा देता।
दूर से दादा जी को उडकर आते हुए देखा। ‘अरे हरिया ! कैसा है? क्या कर रहा है?‘‘
'कुछ नही दादाजी! बस बैठा हूँ, आस लगाये बैठा हूँ शायद घर से कोई आये। घर के बच्चे दिख जाएं। दादाजी! आप कैसे हैं ?अभी-अभी पोते आकर खीर-पूडी खिला गए हैं, तृप्त हूँ। दादा जी ने बताया।
अरे! तेरा तो अभी पहला साल ही है, देख शायद कोई आ जाए। मुझे लगा
जीते जी तो मुझे भरपेट खाना दिया नही अब क्या देंगे? तब तक एक कौवे मित्र ने बात छेड दी। ‘मेरे घर में सभी मेरा सम्मान करते थे। समय-समय पर खाना-पानी , दवाई, कपडे-लत्ते सभी बातों का ध्यान रखते थे। लेकिन जब से मैं मरा हूँ कमबख़्त कोई एक ग्रास भी खाने का डालने नही आया। सोचते होंगे जीते जी कर तो दिया। वे भी अपनी जगह सही हैं । सदा खुशहाली का आशीर्वाद देता हूं अपने बच्चों को।
एक अन्य ने बताया उसके तो बच्चे ही नही थे पर एक पडोसी ने पिता की तरह मान-सम्मान दिया। कभी महसूस ही नही हुआ कि मेरी कोई संतान नही। मरते समय सब उसके नाम कर दिया। बहुत खुश है वह, मैं भी खूब आशीष देता हूँ उसे। जिस प्रकार मेरे कौवे मित्र अपनी बातें बता रहे थे मुझे लगा इससे तो मैं बेऔलाद ही होता तो अच्छा था।
अरे! ये क्या मेरे बेटे ब्राह्मण देव के साथ चले आ रहे हैं। हाथों में खाने-पीने का बहुत सा सामान दिखाई दे रहा है। ‘बेटा! तुम्हारे पिताजी का कर्मकाण्ड करते हुए तुम लोगों से कोई भूल हो गई है जिस कारण तुम्हारे पिता तुमसे नाराज हैं और तुम दोनों भाईयों को अनिष्ट का सामना करना पड रहा है।‘‘
पर अब तो सब ठीक हो जाएगा न?’ बडे बेटे ने पूछा।
‘हाँ-हाँ सब ठीक हो जाएगा यजमान’ माता-पिता अपने बच्चों का बुरा नही सोचते ‘ ब्राह्मण देव कहा।‘
‘पर पंडित जी हमने तो सदा माँ-बाबूजी का आदर किया, भरपेट और मनचाहा भोजन दिया, प्रत्येक कार्य उनकी ही सलाह से किया। फिर हमारे साथ ऐसा क्यों हो रहा है। जबसे पिताजी का देहांत हुआ है, घर में दुख का प्रवेश हो गया, खुशियों को तो जैसे हमारे घर का पता भूल ही गया है।‘ छोटा बेटा बोल रहा था।
कोई बात नही बेटा! हो जाता है कभी.... गलती किसी से भी हो सकती है । पितरों को तृप्त तो करना ही होगा। प्रतिवर्ष श्राद्ध कर दिया करो, प्रसन्न हो जायेंगे पितर देव । ब्राह्मण देव समझा रहे थे।
मैं देख रहा हूँ मेरे बेटों ने, विधि-विधान से स्नान, दान, स्वधा और फिर भोज्य पदार्थों का तर्पण किया .... अच्छा लग रहा था। बुढिया और मेरी रुचि के खाद्य पदार्थ, वस्त्रादि बडे प्रेम से अर्पित किए गए। मैं सोच रहा था, तब नही दिए अब सही। आगे भी देने का वादा किया है। मैं बहुत प्रसन्न था। उन शास्त्रों को भी लाखों धन्यवाद दे रहा था जिनके कारण मैं और मुझ जैसे अनेक लोग तृप्त होते हैं । मैं अपने छल-दंभ से भरे पुत्रों को सौ-सौ अशीष देता हुआ प्रार्थना कर रहा था कि हे परमात्मा! आज की पीढी को जीते जी माता-पिता का सम्मान करना सिखा, ढकोसलों से दूर रख, उन्हें श्राद्ध की नही श्रद्धा की जरूरत है।
***
संपर्क:आई-४६४, ११
ऐवेन्यू ,गौर सिटी २ नोएडा एक्सटैन्शन उ.प्र.
मो. नं. ७८३८०४३४८८

शनिवार, 5 दिसंबर 2020

विरासत : विष्णु शर्मा कृत पंचतंत्र से कहानी 'एक और एक ग्यारह'

विरासत :
विष्णु शर्मा कृत पंचतंत्र से कहानी 'एक और एक ग्यारह' 
*
एक बार की बात हैं कि बनगिरी के घने जंगल में एक उन्मुत्त हाथी ने भारी उत्पात मचा रखा था। वह अपनी ताकत के नशे में चूर होने के कारण किसी को कुछ नहीं समझता था। बनगिरी में ही एक पेड़ पर एक चिड़िया व चिड़े का छोटा-सा सुखी संसार था। चिड़िया अंडों पर बैठी नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चों के निकलने के सुनहरे सपने देखती रहती। एक दिन क्रूर हाथी गरजता, चिंघाडता पेड़ों को तोड़ता-मरोड़ता उसी ओर आया। देखते ही देखते उसने चिड़िया के घोंसले वाला पेड़ भी तोड डाला। घोंसला नीचे आ गिरा। अंडे टूट गए और ऊपर से हाथी का पैर उस पर पड़ा।
चिड़िया और चिड़ा चीखने चिल्लाने के सिवा और कुछ न कर सके। हाथी के जाने के बाद चिड़िया छाती पीट-पीटकर रोने लगी। तभी वहां कठफोडवी आई। वह चिड़िया की अच्छी मित्र थी। कठफोडवी ने उनके रोने का कारण पूछा तो चिड़िया ने अपनी सारी कहानी कह डाली। कठफोडवी बोली 'इस प्रकार ग़म में डूबे रहने से कुछ नहीं होगा। उस हाथी को सबक सिखाने के लिए हमे कुछ करना होगा।'
चिड़िया ने निराशा दिखाई 'हम छोटे-मोटे जीव उस बलशाली हाथी से कैसे टक्कर ले सकते हैं?'
कठफोडवी ने समझाया 'एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। हम अपनी शक्तियां जोडेंगे।'
'कैसे?' चिड़िया ने पूछा।
'मेरा एक मित्र वींआख नामक भंवरा हैं। हमें उससे सलाह लेनी चाहिए।' चिड़िया और कठफोडवी भंवरे से मिली। भंवरा गुनगुनाया 'यह तो बहुत बुरा हुआ। मेरा एक मेंढक मित्र हैं आओ, उससे सहायता मांगे।'
अब तीनों उस सरोवर के किनारे पहुंचे, जहां वह मेंढक रहता था। भंवरे ने सारी समस्या बताई। मेंढक भर्राये स्वर में बोला 'आप लोग धैर्य से जरा यहीं मेरी प्रतीक्षा करें। मैं गहरे पाने में बैठकर सोचता हूं।'
ऐसा कहकर मेंढक जल में कूद गया। आधे घंटे बाद वह पानी से बाहर आया तो उसकी आंखे चमक रही थी। वह बोला 'दोस्तो! उस हत्यारे हाथी को नष्ट करने की मेरे दिमाग में एक बडी अच्छी योजना आई हैं। उसमें सभी का योगदान होगा।'
मेंढक ने जैसे ही अपनी योजना बताई, सब खुशी से उछल पड़े। योजना सचमुच ही अदभुत थी। मेंढक ने दोबारा बारी-बारी सबको अपना-अपना रोल समझाया।
कुछ ही दूर वह उन्मत्त हाथी तोड़फोड़ मचाकर व पेट भरकर कोंपलों वाली शाखाएं खाकर मस्ती में खडा झूम रहा था। पहला काम भंवरे का था। वह हाथी के कानों के पास जाकर मधुर राग गुंजाने लगा। राग सुनकर हाथी मस्त होकर आंखें बंद करके झूमने लगा।
तभी कठफोडवी ने अपना काम कर दिखाया। वह आई और अपनी सुई जैसी नुकीली चोंच से उसने तेजी से हाथी की दोनों आंखें बींध डाली। हाथी की आंखे फूट गईं। वह तडपता हुआ अंधा होकर इधर-उधर भागने लगा।
जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, हाथी का क्रोध बढता जा रहा था। आंखों से नजर न आने के कारण ठोकरों और टक्करों से शरीर जख्मी होता जा रहा था। जख्म उसे और चिल्लाने पर मजबूर कर रहे थे।
चिड़िया कॄतज्ञ स्वर में मेंढक से बोली 'बहिया, मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूंगी। तुमने मेरी इतनी सहायता कर दी।'
मेंढक ने कहा 'आभार मानने की ज़रुरत नहीं। मित्र ही मित्रों के काम आते हैं।'
एक तो आंखों में जलन और ऊपर से चिल्लाते-चिंघाड़ते हाथी का गला सूख गया। उसे तेज प्यास लगने लगी। अब उसे एक ही चीज़ की तलाश थी, पानी। मेंढक ने अपने बहुत से बंधु-बांधवों को इकट्ठा किया और उन्हें ले जाकर दूर बहुत बडे गड्ढे के किनारे बैठकर टर्राने के लिए कहा। सारे मेंढक टर्राने लगे। मेंढक की टर्राहट सुनकर हाथी के कान खडे हो गए। वह यह जानता था कि मेंढक जल स्त्रोत के निकट ही वास करते हैं। वह उसी दिशा में चल पड़ा। टर्राहट और तेज होती जा रही थी। प्यासा हाथी और तेज भागने लगा।
जैसे ही हाथी गड्ढे के निकट पहुंचा, मेंढकों ने पूरा ज़ोर लगाकर टर्राना शुरू किया। हाथी आगे बढा और विशाल पत्थर की तरह गड्ढे में गिर पडा, जहां उसके प्राण पखेरु उडते देर न लगे इस प्रकार उस अहंकार में डूबे हाथी का अंत हुआ।

सीख -- 1. एकता में बल हैं। 2. अहंकारी का देर या सबेर अंत होता ही हैं।

गुरुवार, 13 अगस्त 2020

कहानी अकेलापन स्व. प्राण शर्मा

कहानी 

अकेलापन

स्व. प्राण शर्मा 

३ जून १९३७ को वजीराबाद में जन्में, श्री प्राण शर्मा ब्रिटेन मे बसे भारतीय मूल के हिंदी लेखक है। दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए बी एड प्राण शर्मा कॉवेन्टरी, ब्रिटेन में हिन्दी ग़ज़ल के उस्ताद शायर हैं। प्राण जी बहुत शिद्दत के साथ ब्रिटेन के ग़ज़ल लिखने वालों की ग़ज़लों को पढ़कर उन्हें दुरुस्त करने में सहायता करते हैं। ग़ज़ल कहता हूँ, तथा सुराही (मुक्तक संग्रह) उनकी कृतियाँ हैं। कुछ लोगों का कहना है कि ब्रिटेन में पहली हिन्दी कहानी शायद प्राण जी ने ही लिखी थी। देश-विदेश के कवि सम्मेलनों, मुशायरों तथा आकाशवाणी कार्यक्रमों में भाग ले चुके प्राण शर्मा जी  को उनके लेखन के लिये अनेक पुरस्कार प्राप्त हुए थे । आज प्राण जी नहले ही नहीं हैं पर उनकी रचनाएँ हमारे साथ हैं। मुझे उनका स्नेह हमेशा मिला। हम दोनों एक दूसरे के प्रशंसक रहे। माहिया लेखन में मुझे प्राण जी से सहायता मिली, हिंदी छंद लेखन में वे मेरी मदद लेते रहे। उनकी विनम्रता हुए जिज्ञासु भाव अनुकरणीय था। २५-४-२०१८ को प्राण जी हमसे सदा-सदा के लिए बिछुड़ गए। 
*
गोपाल दास सत्तर के हो गए थे। न पत्नी थी और न ही कोई संतान। शादी की होती तो संतान होती न। शादी उन्होंने इसलिए नहीं की क्योंकि शादी को वे जंजाल समझते थे। कौन पत्नी और बच्चों के मायाजाल में पड़े ? कौन उनकी रोज़-रोज़ की फरमाइशें और शिकायतें सुने ? उनसे दूर रहना ही अच्छा। अकेले रहने में सुख ही सुख है, न किसी की रोक और और न ही किसी की टोक। अपनी मर्जी से कहीं भी आओ-जाओ और कुछ भी खाओ-पीयो। उनके माँ-बाप कह-कह कर मर-खप गए लेकिन उन्होंने शादी नहीं की।
एक बार वे किसी साधू आश्रम में पहुँच गए थे, साधु बनने के लिए पर वहाँ चेलों की क्रीड़ाएँ देख कर भाग खड़े हुए थे। अकेले रहकर ही जीवन बिताना उन्होंने बेहतर समझा। 
अब अकेलापन गोपालदास को कचोटने लगा था। किसी साथी की कमी को वे महसूस करने लगे थे। सिगरेट, शराब या जुआ का कोई ऐब उन्हें होता तो शायद किसी साथी की ज़रुरत की चिंता वे नहीं करते। इस उम्र में शादी करना यारों की नज़र में उपहास बन जाता। सभी कहते - “ सत्तर की उम्र के बुड्ढे को शादी का शौक़ पैदा हो गया है। “

एक मित्र ने सुझाव दिया - “ कुत्ते को रखिये। उससे बढ़ कर और कोई सच्चा साथी आपको नहीं मिलेगा। “

गोपाल दास को मित्र का सुझाव पसंद आया। उनको एक और हमउम्र मित्र की बात याद आयी - “ भई, इस उम्र में कुत्ते के साथ अपने दिन सुख-शांति से बीत रहे हैं। सुबह-शाम उसके साथ पार्क में टहलने जाता हूँ, घर में भी उसके साथ खेलना-वेलना लगा रहता है, कभी गेंद के साथ और कभी दुलार-वुलार के साथ। रात को किसी चोर-वोर की चिंता नहीं। निडर हो कर सोता हूँ। 

गोपाल दास ने डेली मेल और टेलीग्राफ में विज्ञापन दे दिया - “ एक अच्छी नस्ल के कुत्ते की तलाश है। अच्छी कीमत दी जाएगी। “

अगले दिन ही गोपाल दास के घर एक अँगरेज़ आ पहुँचा। उसके साथ जर्मन शेफर्ड कुत्ता था। हेलो, हेलो कहने के बाद उसने बाहर खड़े-खड़े ही गोपाल दास से पूछा - “ क्या आपको ही कुत्ता खरीदना है ? “

“ आइये, आइये। अंदर आइये। “ गोपाल दास ने अभिवादन में कहा। 

“ नहीं, मुझे कहीं जाना है। क्या आपको ही कुत्ता खरीदना है ? “

“ जी। “ गोपाल दास ने “ हाँ “ में अपनी लम्बी गर्दन हिला दी। 

“ मैं ये कुत्ता बेचना चाहता हूँ। ये जर्मन शेफर्ड है आप जानते ही होंगे कि जर्मन शेफर्ड कुत्ता संसार भर में प्रसिद्ध है। हम अँगरेज़ तो इस नस्ल पर जान देते हैं। ये चीते जैसा तगड़ा तो होता ही है, रखवाली करने में भी किसी सुरक्षा कर्मी से कम नहीं होता। 

इसका कोई सानी नहीं है। यारों का यार है। खूब यारी निभाएगा आपसे ये। “

“ इसे बेच क्यों रहे हैं आप ? “

“ मैं कुछ ही दिनों के बाद इंग्लैंड छोड़ रहा हूँ, आस्ट्रेलिया बसने के लिए जा रहा हूँ। “

“ आप इसे अपने साथ क्यों नहीं ले जाते हैं ? “

“ वो क्या है दोस्त, हवाई जहाज में इसे ले जाना बहुत महँगा है। “

“ कितने में बेचेंगे ? “

“ एक सौ पच्चीस पौंड में। “

“ एक सौ पौंड चलेगा ? “

“ नहीं। एक सौ पच्चीस पौंड ही लूँगा, एक पैनी कम नहीं । सुना है, आप हिन्दुस्तानी हर चीज़ का मोल करते हैं। “

“ नहीं ऐसी बात नहीं है। आप एक सौ पच्चीस पौंड ही लेंगे ? “

“ जी। “

गोपाल दास मन ही मन उछल पड़े। चलो, एक सौ पच्चीस पौंड ही सही। इतनी रकम में जर्मन शेफर्ड कुत्ता भला कहाँ मिलता है ? कम से कम पाँच-छे सौ पौंड का तो होगा ही। झट खरीदना लेना चाहिए। 

गोपाल दास ने कुत्ता खरीद लिया। 

बेचने वाला “ शेफर्ड सोल्ड एस सीन “ की रसीद देकर भाग खड़ा हुआ। 

बड़ी मुश्किल से शेफर्ड घर के अंदर गया। 

गोपाल दास ने उसका नाम रखा - शेरू। 

चुपचाप सा बैठा शेरू गोपाल दास को बहुत भोला-भोला लग रहा था। वे बोले - काश, तुझसे मेरा सम्बन्ध सालों से ही होता। मेरे जीवन में रौनक कब से आ गई होती ! आज से तू मेरा शेरू है, शेरू। शेरू का मतलब जानता है ? अरे, पंजाब के गाँवों में हर पुत्तर माँ-बाप के लिए शेरू होता है यानि शेर जैसा निडर और तगड़ा-वगड़ा। अब तू ही मेरा रखवाला है। तेरे खाने-पीने में कोई कमी नहीं आने दूँगा। यहाँ की महारानी से बढ़ कर तेरा ख्याल रखूँगा। देख, मेरे घर में तेरे प्रवेश करने की खुशी में अभी सारी गली में चॉकलेट बँटवाता हूँ। 

गोपाल दास ने एक पड़ोसी से ढेर सारी चॉकलेट मँगवा कर गली के सभी घरों में बँटवा दी सब में खुशी की लहर दौड़ गई। सभी कह उठे - “ वाह, गोपाल दास ने शेफर्ड खरीदा है। बच्चे देखने के लिए लालायित हो उठे। सभी दौड़े-दौड़े आये। उससे मिलते ही सबने उसकी प्रशंसा में उछल-उछल कर गीत गाना शुरू कर दिया-

शेफर्ड, शेफर्ड 
तेरी जात निराली है 
सबका तू रखवाला है 
सबने देखा भाला है 
तुझ सा प्यारा कौन है 
तुझ सा न्यारा कौन है 
शेफर, शेफर्ड 

सभी खूब झूमे-नाचे। किसीने उसके सर को दुलार किया और किसी ने उसकी पीठ को। 

शेफर्ड को गुमसुम सा देख कर एक बच्चा पूछ बैठा - “ अंकल, ये चुप-चुप क्यों है ? “
“ बेटे, ये अभी इस घर में नया-नया है। एक-दो दिनों में खुल जाएगा। “ 

जाते समय सभी एक स्वर में बोले - “ अब तो हम रोज़ ही इसके साथ खेलने के लिए आया करेंगे। अंकल, आप मना तो नहीं करेंगे न ? “

“ नहीं बेटो, मना क्यों करूँगा, रोज़ आया करो। जी भर कर खेला करो इससे। “

गर्मियों के दिन थे। उसी दिन गोपाल दास ने शेरू के लिए नरम-नरम रेशमी कपडे मँगवा लिए। मँहगे से मँहगा खाना उसके लिए खरीद लिया। 

सारी रात शेरू कू-कू करता रहा। गोपाल दास उससे मुखातिब हुए - “ मैं जानता हूँ, तू घड़ी-घड़ी कू-कू क्यों कर रहा है ? तुझसे मालिक का बिछोह सहन नहीं हो रहा है। तुझे एक बात बताता हूँ, मुझसे भी माँ-बाप का बिछोह सहन नहीं हुआ था। मैं कई दिनों तक रोता रहा था, नींद मेरी आँखों से गायब हो गई थी। आ तुझे मैं अपनी गोद में ले लेता हूँ। आराम से सो जा। मैं तेरा मालिक नहीं, साथी हूँ, साथी। सो जा मेरे शेरू, सो जा। सुबह तुझे नहलाऊँगा, धुलाऊँगा। अच्छे रेशमी कपड़े पहनाऊँगा। उम्दा भोजन खिलाऊँगा। तुझे रोज़ गार्डन में ले जाऊँगा, इधर-उधर घुमाऊँगा। हम दोनों ही फुटबॉल खेलेंगे। घर आने से पहले तुझे पिश्ते वाली आइस क्रीम खिलाऊँगा। ख़ूब मौज़मस्ती में हमारा दिन गुज़रेगा। “

सुबह हुई। 

गोपाल दास की सभी आशाओं पर पानी पड़ गया। शेरू के पाखाने में ख़ून था। देख कर वे घबरा उठे। झट उन्होंने मित्र को फोन किया - “क्या कुत्ते को भी बवासीर होती है?" जवाब में मित्र ने कहा - “हाँ, कुत्ते भी बवासीर होती है। कल को फिर ख़ून आये तो पशु चिकित्सिक के पास ले जाइए।“

सारा दिन शेरू निढाल हो कर सोफे पर लेटा रहा। गोपाल दास उससे लाड-प्यार करते रहे। दोनों ने कुछ नहीं खाया-पीया। 

अगली सुबह शेरू के पाखाने में धारा प्रवाह ख़ून बहा। खून का रंग कुछ-कुछ काला था। गोपाल दास का कलेजा जैसे निकल गया। उन्होंने फौरन टैक्सी ली और शेरू को लेकर नगर के प्रसिद्ध पशु चिकित्सिक के पास पहुँच गए। पशु चिकिस्तिक शेफर्ड को देखते ही बोल पड़ा - “ये कुत्ता आपके पास कैसे ? ये तो''

“ इसे मैंने खरीद लिया है, इसका मालिक आस्ट्रेलिया जा रहा है।''

“ धोखेबाज़।''

“ कौन ?''

“ वो जिसने आपको शेफर्ड बेचा है।''

“ क्या इसे गंभीर बीमारी है ?''

“ बहुत गंभीर। इसकी आँतों में कैंसर है।''

“ कैंसर ? “ गोपाल दास ने काँपते हुए पूछा। 

“ हाँ, कैंसर। कैंसर इसकी एक-एक आँत में फ़ैल चुका है। मैंने इसको पिछले सप्ताह ही देखा था। इसका बचना मुश्किल है अब।''

“ डाक्टर सॉब, इसका इलाज कीजिये, कुछ कीजिये। इसको बचाइये। एक आध दिन में ही ये मेरे जिगर का टुकड़ा बन गया है। जो खर्चा आएगा, मैं दूँगा।''

देखते ही देखते शेरू निढाल हो गया। 

“ डाक्टर सॉब ,मेरे शेरू बचाइये, किसी तरह बचाइये। इसके बिना मैं फिर अकेला हो जाऊँगा।''

शेरू को तुरंत ही ऐक्सिडेंट ऐंड एमर्जेन्सी डिपार्टमेंट में ले जाया गया। डॉक्टर की कोशिश के बावजूद शेरू को आँखें मूँदने में देर नहीं लगी। गोपाल दास को लगा कि उनके भाग्य में अकेलापन ही लिखा है। उनकी आँखों में आँसू ही आँसू थे।
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बुधवार, 8 अप्रैल 2020

समीक्षा ‘सरे राह’ -सुमनलता श्रीवास्तव

पुस्तक सलिलां-
‘सरे राह’ मुखौटे उतारती कहानियाॅ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- सरे राह, कहानी संग्रह, डाॅं. सुमनलता श्रीवास्तव, प्रथम संस्करण २०१५, आकार २१.५ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक लेमिनेटेड जैकट सहित, मूल्य १५० रु., त्रिवेणी परिषद प्रकाशन, ११२१ विवेकानंद वार्ड, जबलपुर, कहानीकार संपर्क १०७ इंद्रपुरी, नर्मदा मार्ग, जबलपुर।]
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‘कहना’ मानव के अस्तित्व का अपरिहार्य अंग है। ‘सुनना’,‘गुनना’ और ‘करना’ इसके अगले चरण हैं। इन चार चरणों ने ही मनुष्य को न केवल पशु-पक्षियों अपितु सुर, असुर, किन्नर, गंधर्व आदि जातियों पर जय दिलाकर मानव सभ्यता के विकास का पथ प्रशस्त किया। ‘कहना’ अनुशासन और उद्दंेश्य सहित हो तो ‘कहानी’ हो जाता है। जो कहा जंाए वह कहानी, क्या कहा जाए?, वह जो कहे जाने योग्य हो, कहे जाने योग्य क्या है?, वह जो सबके लिये हितकर है। जो सबके हित सहित है वही ‘साहित्य’ है। सबके हित की कामना से जो कथन किया गया वह ‘कथा’ है। भारतीय संस्कृति के प्राणतत्वों संस्कृत और संगीत को हृदयंगम कर विशेष दक्षता अर्जित करनेवाली विदुषी डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव की चैथी कृति और दूसरा कहानी संग्रह ‘सरे राह’ उनकी प्रयोगधर्मी मनोवृत्ति का परिचाायक है।
विवेच्य कृति मुग्धा नायिका, पाॅवर आॅफ मदर, सहानुभूति, अभिलषित, ऐसे ही लोग, सेवार्थी, तालीम, अहतियात, फूलोंवाली सुबह, तीमारदारी, उदीयमान, आधुनिका, विष-वास, चश्मेबद्दूर, क्या वे स्वयं, आत्मरक्षा, मंजर, विच्छेद, शुद्धि, पर्व-त्यौहार, योजनगंधा, सफेदपोश, मंगल में अमंगल, सोच के दायरे, लाॅस्ट एंड फाउंड, सुखांत, जीत की हार तथा उड़नपरी 28 छोटी पठनीय कहानियों का संग्रह है।
इस संकलन की सभी कहानियाॅं कहानीकार कम आॅटोरिक्शा में बैठने और आॅटोरिक्शा सम उतरने के अंतराल में घटित होती हैं। यह शिल्यगत प्रयोग सहज तो है पर सरल नहीं है। आॅटोरिक्शा नगर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅंचाने में जो अल्प समय लेता है, उसके मध्य कहानी के तत्वों कथावस्तु, चरित्रचित्रण, पात्र योजना, कथेपकथन या संवाद, परिवेश, उद्देश्य तथा शैली का समावेश आसान नहीं है। इस कारण बहुधा कथावस्तु के चार चरण आरंभ, आरोह, चरम और अवरोह कां अलग-अलग विस्तार देे सकना संभव न हो सकने पर भी कहानीकार की कहन-कला के कौशल ने किसी तत्व के साथ अन्याय नहीं होने दिया है। शिल्पगत प्रयोग ने अधिकांश कहानियों को घटना प्रधान बना दिया है तथापि चरित्र, भाव और वातावरण यथावश्यक-यथास्थान अपनी उपस्थिति दर्शाते हैं।
कहानीकार प्रतिष्ठित-सुशिक्षित पृष्ठभूमि से है, इस कारण शब्द-चयन सटीक और भाषा संस्कारित है। तत्सम-तद्भव शब्दों का स्वाभविकता के साथ प्रयोग किया गया है। संस्कृत में शोधोपाधि प्राप्त लेखिका ने आम पाठक का ध्यानकर दैनंदिन जीवन में प्रयोग की जा रही भाषा का प्रयोग किया है। ठुली, फिरंगी, होंड़ते, गुब्दुल्ला, खैनी, हीले, जीमने, जच्चा, हूॅंक, हुमकना, धूरि जैसे शब्दकोष में अप्राप्त किंतु लोकजीवन में प्रचलित शब्द, कस्बाई, मकसद, दीदे, कब्जे, तनख्वाह, जुनून, कोफ्त, दस्तखत, अहतियात, कूवत आदि उर्दू शब्द, आॅफिस, आॅेडिट, ब्लडप्रैशर, स्टाॅप, मेडिकल रिप्रजेन्टेटिव, एक्सीडेंट, केमिस्ट, मिक्स्ड जैसे अंग्रेजी शब्द गंगो-जमनी तहजीब का नजारा पेश करते हैं किंतु कहीं-कहंी समुचित-प्रचलित हिंदी शब्द होते हुए भी अंग्रेजी शब्द का प्रयोग भाषिक प्रदूषण प्रतीत होतं है। मदर, मेन रोड, आफिस आदि के हिंदी पर्याय प्रचलित भी है और सर्वमान्य भी किंतु वे प्रयोग नहीं किये गये। लेखिका ने भाषिक प्रवाह के लिये शब्द-युग्मों चक्कर-वक्कर, जच्चा-बच्चा, ओढ़ने-बिछाने-पहनने, सिलाई-कढ़ाई, लोटे-थालियाॅं, चहल-पहल, सूर-तुलसी, सुविधा-असुविधा, दस-बारह, रोजी-रोटी, चिल्ल-पों, खोज-खबर, चोरी-चकारी, तरो-ताजा, मुड़ा-चुड़ा, रोक-टोक, मिल-जुल, रंग-बिरंगा, शक्लो-सूरत, टांका-टाकी आदि का कुशलतापूर्वक प्रयोग किया है।
किसी भाषा का विकास साहित्य से ही होता है। हिंदी विश्वभाषा बनने का सपना तभी साकार कर सकती है जब उसके साहित्य में भाषा का मानक रूप हो। लेखिका सुशिक्षित ही नहीं सुसंस्कृत भी हैं, उनकी भाषा अन्यों के लिये मानक होगी। विवेच्य कृति में बहुवचन शब्दों में एकरूपता नहीं है। ‘महिलाएॅं’ में हिंदी शब्दरूप है तो ‘खवातीन’ में उर्दू शब्दरूप, जबकि ‘रिहर्सलों’ में अंग्रेजी शब्द को हिंदी व्याकरण-नियमानुसार बहुवचन किया ंगया है।
सुमन जी की इन कहानियों की शक्ति उनमें अंतर्निहित रोचकता है। इनमें ‘उसने कहा था’ और ‘ताई’ से ली गयी प्रेरणा देखी जा सकती है। कहानी की कोई रूढ़ परिभाषा नहीं हो सकती। संग्रह की हर कहानी में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेखिका और आॅटोरिक्शा है, सूत्रधार, सहयात्री, दर्शक, रिपोर्टर अथवा पात्र के रूप में वह घटना की साक्ष्य है। वह घटनाक्रम में सक्रिय भूमिका न निभाते हुए भी पा़त्र रूपी कठपुतलियों की डोरी थामे रहती है जबकि आॅटोेरिक्शा रंगमंच बन जाता है। हर कहानी चलचित्र के द्श्य की तरह सामने आती है। अपने पात्रों के माघ्यम से कुछ कहती है और जब तक पाठक कोई प्रतिकिया दे, समाप्त हो जाती है। समाज के श्वेत-श्याम दोनों रंग पात्रों के माघ्यम ेंसे सामने आते हैं।
अनेकता में एकता भारतीय समाज और संस्कृति दोनों की विशेषता है। यहाॅं आॅटोरिक्शा और कहानीकार एकता तथा घटनाएॅं और पात्र अनेकता के वाहक है। इन कहानियों में लघुकथा, संस्मरण, रिपोर्ताज और गपशप का पुट इन्हें रुचिकर बनाता है। ये कहानियाॅं किसी वाद, विचार या आंदोलन के खाॅंचे में नहीं रखी जा सकतीं तथापि समाज सुधार का भाव इनमें अंतर्निहित है। ये कहानियाॅं बच्चों नहीं बड़ों, विपन्नों नहीं संपन्नों के मुखौटों के पीछे छिपे चेहरों को सामने लाती हैं, उन्हें लांछित नहीं करतीं। ‘योजनगंधा’ और ‘उदीयमान’ जमीन पर खड़े होकर गगन छूने, ‘विष वास’, ‘सफेदपोश’, ‘उड़नपरी’, ‘चश्मेबद्दूर आदि में श्रमजीवी वर्ग के सदाचार, ‘सहानूभूति’, ‘ऐसे ही लोग’, ‘शुद्धि’, ‘मंगल में अमंगल’ आदि में विसंगति-निवारण, ‘तालीम’ और ‘सेवार्थी’ में बाल मनोविज्ञान, ‘अहतियात’ तथा ‘फूलोंवाली सुबह’में संस्कारहीनता, ‘तीमारदारी’, ‘विच्छेद’ आदि में दायित्वहीनता, ‘आत्मरक्षा’ में स्वावलंबन, ‘मुग्धानायिका’ में अंधमोह को केंद्र में रखकर कहानीकार ने सकारात्मक संदेष दिया है।
सुमन जी की कहानियों का वैशिष्ट्य उनमें व्याप्त शुभत्व है। वे गुण-अवगुण के चित्रण में अतिरेकी नहीं होतीं। कालिमा की न तो अनदेखी करती हैं, न भयावह चित्रण कर डराती हैं अपितु कालिमा के गर्भ में छिपी लालिमा का संकेत कर ‘सत-शिव-सुंदर’ की ओर उन्मुख होने का अवसर पाने की इच्छा पाठक में जगााती हैं। उनकी आगामी कृति में उनके कथा-कौशल का रचनामृत पाने की प्रतीक्षा पाठक कम मन में अनायास जग जाती है, यह उनकी सफलता है।
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- समन्वयम, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ , salil.sanjiv@gmail.com