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शनिवार, 12 मई 2012

ग़ज़ल अवनीश तिवारी

प्रयास:
अवनीश तिवारी
मुम्बई
*
(ग़ज़ल)  -1
काफिया - आई ,
रदीफ़ - होती है
 
आज - कल
 
आज - कल अक्सर तनहाई होती है ,
रात तड़प और नींद से जुदाई होती है |

चलते लोगों को पुकार रुकाता हूँ ,
हर शख्स में तेरी परछाई होती है |

चाहे शहर तेरा हो या शहर मेरा ,
मोहब्बत पर रोक और मनाई होती है |

दिखे कभी जो मुखड़ा तेरा ,
हुश्न औ इश्क की सगाई होती है |

बिन तेरे किस घर जाऊं अब ,
हर घर ' अवि ' की बुराई होती है |

***
बिन मेरे
 
ग़ज़ल 
काफिया - ऊरत ,
रदीफ़ - है

जैसे यह रात, चाँद की रोशनी से ख़ूबसूरत है ,
वैसे जिन्दगी में मेरे तेरे प्यार की जरुरत है ,

हुया करता कईयों से दीदार रोज अपना ,
जो मन में बसी वो तेरी ही प्यारी सूरत है ,

बदले दिन, बदले बरस और बदले मौसम ,
मिलने की तुझसे ना जाने कौनसी महूरत है ,

ना आये ख्याल तेरा दीमाग में मेरे ,
ऐसा हर दिन बेजान, हर रात बदसूरत है ,

बिन मेरे तेरा अपना वजूद हो सकता है ,
बिन तेरे ' अवि ' एक खामोश मूरत है |
*

अवनीश तिवारी
मुम्बई

गुरुवार, 3 मई 2012

एक कविता: उसकी और उनकी --अवनीश तिवारी

एक कविता:
उसकी और उनकी 
अवनीश तिवारी
*
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उसकी कोमल चाह ,
उनकी कठोर मांगों तले दब ,
किसी कोने में अकेले रोती है |
उसके नन्हे - नन्हे सपने ,
उनकी बड़ी महत्वाकांक्षाओं से टकरा,
टूट बिखर जाते हैं |
उसकी आस की नदिया,
उनकी योजनाओं के सागर में मिल,
अपना अस्तित्व खो देती है |
उसकी ममता के अंकुर,
उनके संबंधों के बरगद की छाँव में ,
घुट - घुट पनपते है |
इसतरह ...
उसके गर्भ की संतान,
बेटा ना होने के परिणाम से डर,
पल रही है, बढ़ रही है |

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

स्तवन : माँ शारदा अवनीश तिवारी

नारद के काव्य में,

मोहन की बंसी में,

नटराज के नृत्य में

सर्वत्र माँ शारदा

सुर और ताल में ,

गुण और गान में ,

वेद और पुराण में ,

सर्वत्र माँ शारदा

मस्तिष्क की संवेदना में ,

मन की वेदना में,

ह्रदय की भावना में

सर्वत्र माँ शारदा

मेरी मुक्त स्मृतियों में ,

ऋचा और कृतियों में ,

एकांत की अनुभूतियों में ,

सर्वत्र माँ शारदा
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शुक्रवार, 27 मार्च 2009

लघुकथा ; वह गरीब है ना... -- अवनीश तिवारी, मुम्बई

वह गरीब है ना...

आज फ़िर दफ्तर के कामों में उलझे होने और बचे कामों को पूरा करने की तंग अवधि के कारण, दोपहर के खाने से दूर रहना पड़ा सुबह का वह बैग शाम जाते समय भी उतना ही वजनदार था काम पूरा हो जाने की खुशी पेट के भूख को भुला कर रह रह संतोष का पुट मष्तिष्क में छोड़ जा रही थी यह संतोष मेरी चाल की तेजी में बदल मुझे अपने घर की ओर ले जा रही थी एकाएक पास के चाट की दूकान पर नज़र पड़ी और भूक ने अपना मुंह उढा लिया मन चाट का स्वाद लेने ललच पड़ा और मैं चाट की दूकान पर आ जमा मै चाट के लिए कह कर खडा रहा ४-६ जनों की मांग पहले से होने के कारण मेरा नंबर अभी नहीं आया था इस बीच एक फटे हाल , कुछ अधिक उम्र का दुबला सा आदमी, पैरों के टूटते हुए चप्पलो को खींचते धीरे - धीरे बढ़ा आ रहा था उसकी दीनता दूर से ही अपना परिचय दे रही थी गहरे रंग के इस आदमी ने भी चाट के लिए कहा और मेरे समीप रूक मुंह लटका कर खड़ा हुआ पास फेंकें गए चाट के जुठे पत्तलों को चाटने कई कुत्ते जमें थे उनमें एक पिल्ला किसी ज्यादा भरे जुठे पत्तल को पा उसे तूफानी गति से चाटे जा रहा था कोई दूसरा तंदुरुस्त कुत्ता उस पिल्लै को पत्तल चाटते देख उसकी तरफ़ झपटा और उसे काट भगाया पिल्लै को पत्तल चाटने के लिए मिली इस सजा से हुए हल्ले से चौक और यह सब देख उस गरीब के ह्रदय की पीड़ा उसके मुंह तक आ गयी वह कुत्ते की ओर अपने दाहिने हाथ की तर्जनी से निशाना लगा झुंझलाहट में बोल पड़ा - " ये उसे क्यों मारता है, वह गरीब है ना " गरीबी की व्यथा से निकला यह दर्द सुन मैं सन्न सा रह गया और लोग यह सब देख सुन उसे अनदेखा कर अपने अपने चाट में मस्त हो गए दीनता की पुकार हर कोई नहीं समझ सकता मै भी अपना चाट खा वहां से निकल पडा वह क्षणिक घटना बार बार दिमाग में चोट करे जा रही थी, जिससे आहत मैं अब मंद गति से, किसी सोच में खो चला जा रहा था

बुधवार, 18 मार्च 2009

कविता :

ऋतुराज बसंत

अवनीश तिवारी

जब धरती करवट लेती है ,
और अम्बर का जी भर देती है ,

जब गोरी पर नैन टिकती है ,
और बेचैनी में रैन कटती है ,

जब तन प्रेम रुधिर बहता है ,
और मन अस्थिर कर जाता है ,

जब छुअन , चुम्बन के दृश्य होते हैं,
और इर्द - गिर्द के परिदृश्य बदलते हैं,

जब प्रेम - पूर्ण ह्रदय इतराता है,
और प्रेम - रिक्त दिल पछताता है,

जब नव दुल्हन अक्सर हंसती है ,
और कुंवारी कोई तरसती है,

जब सारी सीमायें टूटती है,
और मिलन योजनायें बनती है,

जब गाँव के गाँव महकते है,
और शहर के शहर संवरते है,

तब ऋतुराज बसंत आता है,
और मधुमास, बहार दे जाता है

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