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शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

kavita- diya

दिया :
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला.
फिर भर्र कभी
हाथों को नहीं मला.
होठों को नहीं सिला.
न किया शिकवा गिला.
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
***********************
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८
www.divyanarmada.in. #हिंदी_ब्लॉगर

kavita- diya

एक कविता:
दिया
संजीव 'सलिल'
*
राजनीति क साँप
लोकतंत्र के
मेंढक को खा रहा है.
भोली-भाली जनता को
ललचा-धमका रहा है.
जब तक जनता
मूक होकर सहे जाएगी.
स्वार्थों की भैंस
लोकतंत्र का खेत चरे जाएगी..
एकता की लाठी ले
भैंस को भगाओ अब.
बहुत अँधेरा देखा
दीप एक जलाओ अब..
*********************
salil.sanjiv@gmai.com, ७९९९५५९६१८
www.divynarmada.in, #हिंदी_ब्लॉगर

शनिवार, 25 मार्च 2017

doha

दोहा दुनिया 
*
रश्मि अभय रह कर करे, घोर तिमिर पर वार
खुद को करले अलग तो, कैसे हो भाव-पार?
*
बाती जग उजयारती , दीपक पाता नाम
रुके नहीं पर मदद से, सधता जल्दी काम
*
बाती सँग दीपक मिला, दिया पुलिस ने ठोंक
टीवी पर दो टाँग के, श्वान रहे हैं भौंक
 *
यह बाती उस दीप को, देख जल उठी आप
किसका कितना दोष है?, कौन सकेगा नाप??
*
बाती-दीपक को रहा, भरमाता जो तेल
उसे न कोइ टोंकता, और न भेजे जेल
*
दोष न 'का'-'की' का कहें, यही समय की माँग
बिना पिए भी हो नशा,घुली कुएँ में भाँग
***

बुधवार, 10 नवंबर 2010

दोहा सलिला:: दीवाली के संग : दोहा का रंग ---संजीव 'सलिल'

 दोहा सलिला:                                                                                          

दीवाली के संग : दोहा का रंग

संजीव 'सलिल' *
सरहद पर दे कटा सर, हद अरि करे न  पार.
राष्ट्र-दीप पर हो 'सलिल', प्राण-दीप बलिहार..
*
आपद-विपदाग्रस्त को, 'सलिल' न जाना भूल.
दो दीपक रख आ वहाँ, ले अँजुरी भर फूल..
*
कुटिया में पाया जनम, राजमहल में मौत.
रपट न थाने में हुई, ज्योति हुई क्यों फौत??
*
तन माटी का दीप है, बाती चलती श्वास.
आत्मा उर्मिल वर्तिका, घृत अंतर की आस..
*
दीप जला, जय बोलना, दुनिया का दस्तूर.
दीप बुझा, चुप फेंकना, कर्म क्रूर-अक्रूर..
*
चलते रहना ही सफर, रुकना काम-अकाम.
जलते रहना ज़िंदगी, बुझना पूर्ण विराम.
*
सूरज की किरणें करें नवजीवन संचार.
दीपक की किरणें करें, धरती का सिंगार..
*
मन देहरी ने वर लिये, जगमग दोहा-दीप.
तन ड्योढ़ी पर धर दिये, गुपचुप आँगन लीप..
*
करे प्रार्थना, वंदना, प्रेयर, सबद, अजान.
रसनिधि है रसलीन या, दीपक है रसखान..
*
मन्दिर-मस्जिद, राह-घर, या मचान-खलिहान.
दीपक फर्क न जानता, ज्योतित करे जहान..
*
मद्यप परवाना नहीं, समझ सका यह बात.
साक़ी लौ ले उजाला, लाई मरण-सौगात..
*

दोहा मुक्तिका: रमा रमा में... -- संजीव 'सलिल'

                                                                                        दोहा मुक्तिका:

रमा रमा में...  

संजीव 'सलिल' 
रमा रमा में मन रहा, किसको याद गणेश? 
बलिहारी है समय की, दिया जलायें दिनेश.. 
बम फूटे धरती हिली, चहुँ दिशि भीति अशेष. 
भूतल-नीचे दिवाली, मना रहे हैं शेष.. 
आतंकी कश्मीर में, मरघट रम्य प्रदेश. 
दीवाली में व्यस्त है, सारा भारत देश.. 
सरहद पर चीनी चढ़े, हमें न चिंता लेश. 
चीनी झालर से हुआ, चिंतित दिया विशेष.. 
संध्या रजनी उषा को, छले चन्द्र गगनेश, 
करे चाँदनी शिकायत, है रक्तिम अरुणेश.. 
फुलझड़ियों के बीच में, बनता बाण सुरेश. 
निकट न जा जल जायेगा, दे चकरी उपदेश.. 
अंधकार ना कर सके, मन में कभी प्रवेश. 
आत्म-ज्योति दीपित रखें, दो वर हे कलमेश.. 
दीप-ज्योति शब्दाक्षर, स्नेह सरस रसिकेश. 
भाव उजाला, बिम्ब तम, रम्य अर्थ सलिलेश.. 
शक्ति-शारदा-लक्ष्मी, करिए कृपा हमेश. 
'सलिल' द्वार दीपावली, सदा रहे दर-पेश.. 
*

दिवाली के संग : दोहा का रंग संजीव 'सलिल' * दिया चन्द्र को साँझ ने, दीपक का उपहार. निशा जली, काली हुई, कौन बचावनहार?? * अँधियारे ने धरा पर, चाहा था अधिकार. तिलक लगा भू ने दिया, दीपक बंदनवार.. * काश दीप से सीख लें, हम जीवन-व्यवहार. मोह न आरक्षण करें, उजियारें संसार.. * घर-अंगना, तन धो लिया, रूप संवार-निखार. अपने मन का मैल भी, प्रियवर कभी बुहार.. * दीपशिखा का रूप लाख, हो दीवानावार. परवाना खुद जल-मरा, लेकिन मिला न प्यार.. * मिले प्यार को प्यार तब, जब हो प्यार निसार. है प्रकाश औ' ज्योति का, प्यार सांस-सिंगार.. * आयी आकर चली गयी, दीवाली कह यार. दीवाला निकले नहीं, कर इसका उपचार.. * श्री गणेश-श्री लक्ष्मी, गैर पुरुष-पर नार. पूजें, देख युवाओं को, क्यों है हाहाकार?? * पुरा-पुरातन देश है, आज महज बाज़ार. चीनी झालर से हुआ, है कुम्हार बेकार.. * लीप-पोतकर कर लिया, जगमग सब घर-द्वार. 'सलिल' न सोचा मिट सके, मन में पड़ी दरार.. * सब जग जगमग हो गया, अब मन भी उजियार. दीनबन्धु बनकर 'सलिल', पंकिल चरण पखार.. **********

दोहा सलिला/मुक्तिका

दिवाली के संग : दोहा का रंग

संजीव 'सलिल'  
                                                
*
दिया चन्द्र को साँझ ने, दीपक का उपहार.
निशा जली, काली हुई, कौन बचावनहार??
*
अँधियारे ने धरा पर, चाहा था अधिकार. 
तिलक लगा भू ने दिया, दीपक बंदनवार..
काश दीप से सीख लें, हम जीवन-व्यवहार. 
मोह न आरक्षण करें, उजियारें संसार.. 
घर-अंगना, तन धो लिया, रूप संवार-निखार. 
अपने मन का मैल भी, प्रियवर कभी बुहार.. 
दीपशिखा का रूप लाख, हो दीवानावार. 
परवाना खुद जल-मरा, लेकिन मिला न प्यार.. 
मिले प्यार को प्यार तब, जब हो प्यार निसार. 
है प्रकाश औ' ज्योति का, प्यार सांस-सिंगार.. 
आयी आकर चली गयी, दीवाली कह यार. 
दीवाला निकले नहीं, कर इसका उपचार.. 
श्री गणेश-श्री लक्ष्मी, गैर पुरुष-पर नार. 
पूजें, देख युवाओं को, क्यों है हाहाकार?? 
पुरा-पुरातन देश है, आज महज बाज़ार. 
चीनी झालर से हुआ, है कुम्हार बेकार.. 
लीप-पोतकर कर लिया, जगमग सब घर-द्वार. 
'सलिल' न सोचा मिट सके, मन में पड़ी दरार.. 
सब जग जगमग हो गया, अब मन भी उजियार. 
दीनबन्धु बनकर 'सलिल', पंकिल चरण पखार..  

**********

सोमवार, 8 नवंबर 2010

दोहा के संग : दीवाली का रंग ---- संजीव 'सलिल'

दोहा के संग : दीवाली का रंग

संजीव 'सलिल'
*
अँधियारे का पानकर, करे उजाला आदान.
दीपक माटी का 'सलिल', रवि-शशि सदृश महान..

मन का दीपक लो जला, तन की बाती डाल.
इच्छाओं का घृत जले, मन नाचे दे ताल..
*
दीप अलग सबके मगर, उजियारा है एक.
राह अलग हर पन्थ की, ईश्वर सबका एक..
*
मिट जाता है दीप हर, माटी भी बुझ जाय.
श्वास आख़िरी तक अथक, उजियारा फैले..
*
नन्हें दीपक की लगन, तूफां को दे मात.
'मावस का तम चीरकर, ऊषा लाये प्रभात..
*
बाती मन दीपक बदन, 'सलिल' कामना तेल.
लौ-प्रकाश, कोशिश-सुफल, जल-बुझना विधि-खेल..
*
दीपक-बाती का रहे, साथ अमर हे नाथ.
'सलिल' पगों से कभी भी, दूर नहीं हो पाथ ..
*
मृण्मय दीपक दे तभी, उजियारा उपहार.
दीप तेल बाती करें, जब हिल-मिल सहकार..
*
राजमहल को रौशनी, दे कुटिया का दीप.
जैसे मोती पालती, गुपचुप नन्हीं सीप..
*
दीप ब्रम्ह है दीप हरि, दीप काल सच मान.
सत-चित-सुन्दर भी यही, सत-चित-आनंद-गान..
*
मिले दीप से दीप तो, खिले रात में प्रात.
मिले ज्योत से ज्योत दे, तम को शह औ' मात..
*

बुधवार, 3 नवंबर 2010

एक कविता: दिया : संजीव 'सलिल'

एक कविता:                                      

दिया :

संजीव 'सलिल'
*

राजनीति कल साँप
लोकतंत्र के
मेंढक को खा रहा है.
भोली-भाली जनता को
ललचा-धमका रहा है.
जब तक जनता
मूक होकर सहे जाएगी.
स्वार्थों की भैंस
लोकतंत्र का खेत चरे जाएगी..
एकता की लाठी ले
भैंस को भागो अब.
बहुत अँधेरा देखा
दीप एक जलाओ अब..

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एक कविता: दिया संजीव 'सलिल'

एक कविता:                       

दिया

संजीव 'सलिल'
*
सारी ज़िन्दगी
तिल-तिल कर जला.
फिर भर्र कभी
हाथों को नहीं मला.
होठों को नहीं सिला.
न किया शिकवा गिला.
आख़िरी साँस तक
अँधेरे को पिया
इसी लिये तो मरकर भी
अमर हुआ
मिट्टी का दिया.
*

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

एक कविता: मीत मेरे संजीव 'सलिल'

एक कविता:                                        

मीत मेरे

संजीव 'सलिल'
*
मीत मेरे!
राह में हों छाये
कितने भी अँधेरे,
उतार या कि चढ़ाव
सुख या दुःख
तुमको रहें घेरे.
सूर्य प्रखर प्रकाश दे
या घेर लें बादल घनेरे.
खिले शीतल ज्योत्सना या
अमावस का तिमिर घेरे.
मुस्कुराकर, करो स्वागत
द्वार पर जब-जो हो आगत
आस्था का दीप मन में
स्नेह-बाती ले जलाना.
बहुत पहले था सुना
अब फिर सुनाना
दिए से तूफ़ान का
लड़ हार जाना..

*****************