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शनिवार, 18 जून 2022

रेलवे, कवित्त, चतुष्पदी, द्विपदी, नवगीत

गीत ३

पश्चिम-मध्य रेलवे की जय।
जन-सेवा-साधक हम निर्भय।।

तीर नर्मदा नगर जबलपुर।
मुख्यालय मनमोहक सुंदर।।
पथ विद्युतीकरण सुविधामय

ऐतिहासिक नगरी भोपाल।
उज्जयिनी बैठे जगपाल।।
साँची बुद्ध अस्थियाँ अक्षय

कोटा कोचिंग हब लासानी।
हवामहल जयपुर अभिमानी।।
मीरां कृष्ण-भक्ति की धुन-लय

शेर सफेद विंध्य बाँधवगढ़।
घूम पचमढ़ी चौरागढ़ चढ़।।
जा पातालकोट तज विस्मय
१८-६-२०२२
•••

कवित्त
*
शिवशंकर भर हुंकार, चीन पर करो प्रहार, हो जाए क्षार-क्षार, कोरोना दानव।
तज दो प्रभु अब समाधि, असहनीय हुई व्याधि, भूकलंक है उपाधि, देह भले मानव।।
करता नित अनाचार, वक्ष ठोंक दुराचार, मिथ्या घातक प्रचार, करे कपट लाघव।
स्वार्थ-रथ हुआ सवार, धोखा दे करे वार, सिंह नहीं है सियार, मिटा दो अमानव।।
१८-६-२०२०
***
चतुष्पदी
श्रेया
श्रेया है बगिया की कलिका, झूमे नित्य बहारों संग।
हर दिन होली रात दिवाली, पल-पल खुशियाँ भर दें रंग।।
कदम-कदम बढ़ नित नव मंजिल पाओ, दुनिया देखे दंग।
रुकना झुकना चुकना मत तुम, जीते जीवन की हर जंग।।
*
द्विपदी
पापा
पा पा कह हर इच्छित पाने को जो प्रोत्साहित करते।
नतमस्तक को पापा कहकर प्यार उन्हें बच्चे करते।।
१८-६-२०१९
***
नवगीत
क्या???
*
क्या तेरा?
क्या मेरा? साधो!
क्या तेरा?
क्या मेरा? रे!....
*
ताना-बाना कौन बुन रहा?
कहो कपास उगाता कौन?
सूत-कपास न लट्ठम-लट्ठा,
क्यों करते हम, रहें न मौन?
किसका फेरा?
किसका डेरा?
किसका साँझ-सवेरा रे!....
*
आना-जाना, जाना-आना
मिले सफर में जो; बेगाना।
किसका अब तक रहा?, रहेगा
किसका हरदम ठौर-ठिकाना?
जिसने हेरा,
जिसने टेरा
उसका ही पग-फेरा रे!....
*
कालकूट या अमिय; मिले जो
अँजुरी में ले; हँसकर पी।
जीते-जीते मर मत जाना,
मरते-मरते जीकर जी।
लाँघो घेरा,
लगे न फेरा
लूट, न लुटा बसेरा रे!....
***
१८.६.२०१८, ७९९९५५९६१८,
salil.sanjiv@gmail.com

सोमवार, 21 अगस्त 2017

आज की बात

षट्पदी-
आत्मानुभूति
कहाँ कब-कब हुआ पैदा, कहाँ कब-कब रहा डेरा?
कौन जाने कहाँ कब-कब, किया कितने दिन बसेरा?
है सुबह उठ हुआ पैदा, रात हर सोया गया मर-
कौन जाने कल्प कितने लगेगा अनवरत फेरा?
साथ पाया, स्नेह पाया, सत्य बडभागी हुआ हूँ.
व्यर्थ क्यों वैराग लूं मैं, आप अनुरागी हुआ हूँ.
२०-८-२०१७
***
षट्पदी-
कठिन-सरल
'क ख ग' भी लगा था, प्रथम कठिन लो मान.
बार-बार अभ्यास से, कठिन हुआ आसान
कठिन-सरल कुछ भी नहीं, कम-ज्यादा अभ्यास
मानव मन को कराता, है मिथ्या आभास.
भाषा मन की बात को, करती है प्रत्यक्ष
अक्षर जुड़कर शब्द हों, पाठक बनते दक्ष
***
षट्पदी-
कर-भार
चाहा रहें स्वतंत्र पर, अधिकाधिक परतंत्र
बना रहा शासन हमें, छीन मुक्ति का यंत्र
रक्तबीज बन चूसते, कर जनता का खून
गला घोंटते निरन्तर, नए-नए कानून
राहत का वादा करें, लाद-लाद कर-भार
हे भगवान्! बचाइए, कम हो अत्याचार
***
चतुष्पदी
फूल चित्र दे फूल मन, बना रहा है fool.
स्नेह-सुरभि बिन धूल है, या हर नाता शूल
स्नेह सुवासित सुमन से, सुमन कहे चिर सत्य
जिया-जिया में पिया है, पिया जिया ने सत्य


***
मुक्तिका: १
जागे बहुत, चलो अब सोएँ
किसका कितना रोना रोएँ?
नेता-अफसर माखन खाएँ
आम आदमी दही बिलोएँ
पाये-जोड़े की तज चिंता
जो पाया, दे कर खुद खोएँ
शासन चाहे बने भिखारी
हम-तुम केवल साँसें ढोएँ
रहे विपक्ष न शेष देश में
फूल रौंदकर काँटे बोएँ
सत्ता करे देश को गंदा
जनगण केवल मैला धोएँ
***
मुक्तिका: २
जागे बहुत, चलो अब सोएँ
स्वप्न सजा नव जग में खोएँ
जनगण वे कांटे काटेंगे
जो नेताजी निश-दिन बोएँ
हुए चिकित्सक आज कसाई
शिशु मारें फिर भी कब रोएँ?
रोज रेलगाड़ियाँ पलटेंगी
मंत्री हँसें, न नयन भिगोएँ
आना-जाना लगा रहेगा
नाहक नैना नहीं भिगोएँ
अधरों पर मुस्कान सजाकर
मधुर मिलन के स्वप्न सँजोएँ
***
मुक्तिका ३
बेटी
*
बेटी दे आशीष, आयु बढ़ती है
विधि निज लेखा मिटा, नया गढ़ती है
*
सचमुच है सौभाग्य बेटियाँ पाना-
आस पुस्तकें, श्वास मौन पढ़ती है.
*
कभी नहीं वह रुकती,थकती, चुकती
चुक जाते सोपान अथक चढ़ती है
*
पथ भटके तो नाक कुलों की कटती
काली लहू खलों का पी कढ़ती है
*
असफलता का फ्रेम बनाकर गुपचुप
चित्र सफलता का सुन्दर मढ़ती है

***

मुक्तक
जिसने सपने में देखा, उसने ही पाया
जिसने पाया, स्वप्न मानकर तुरत भुलाया
भुला रहा जो याद उसी को फिर-फिर आया
आया बाँहों-चाहों में जो वह मन-भाया
***
मुक्तक:
मिलीं मंगल कामनाएँ, मन सुवासित हो रहा है।
शब्द, चित्रों में समाहित, शुभ सुवाचित हो रहा है।।
गले मिल, ले बाँह में भर, नयन ने नयना मिलाए-
अधर भी पीछे कहाँ, पल-पल सुहासित हो रहा है।।
*** दोहा सलिला
मन-मंजूषा जब खिली, यादें बन गुलकंद
मतवाली हो महककर, लुटा रही मकरंद
*
सुमन सुमन उपहार पा, प्रभु को नमन हजार
सुरभि बिखेरें हम 'सलिल ', दस दिश रहे बहार
*
जिससे मिलकर हर्ष हो, उससे मिलना नित्य
सुख न मिले तो सुमिरिए, प्रभु को वही अनित्य
*

salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

muktak: -sanjiv

मुक्तक:
गीता पंडित-संजीव 'सलिल' 


घुटी-घुटी सी श्वासों में, आस-किरण है शेष अभी 
उठ जा, चलना मीलों है, थक ना जाना देख अभी
मकड़ी फिर-फिर कोशिश कर, बुन ही लेती जाल सदा-
गिर-उठ-बढ़कर तुझको है, मंज़िल पाना शेष अभी 
.  

शुक्रवार, 28 अगस्त 2009

मुक्तक : आचार्य संजीव 'सलिल'

मुक्तक : आचार्य सन्जीव 'सलिल'
जो दूर रहते हैं वही तो पास होते हैं.

जो हँस रहे, सचमुच वही उदास होते हैं.

सब कुछ मिला 'सलिल' जिन्हें अतृप्त हैं वहीं-

जो प्यास को लें जीत वे मधुमास होते हैं.

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पग चल रहे जो वे सफल प्रयास होते हैं

न थके रुक-झुककर वही हुलास होते हैं.

चीरते जो सघन तिमिर को सतत 'सलिल'-

वे दीप ही आशाओं की उजास होते है.

*********

जो डिगें न तिल भर वही विश्वास होते हैं.

जो साथ न छोडें वही तो खास होते हैं.

जो जानते सीमा, 'सलिल' कह रहा है सच देव!

वे साधना-साफल्य का इतिहास होते हैं

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