कुल पेज दृश्य

चित्रगुप्त लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
चित्रगुप्त लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 26 नवंबर 2025

नवंबर २६, चित्रगुप्त, तुल्ययोगिता, अलंकार, सरस्वती, नागा, नाग, नवगीत, लघुकथा, मुक्तक

सलिल सृजन नवंबर २६
*
नवगीत
*
जै जै बोलो
संविधान की
फिर बाँधो ठठरी
*
दीन-हीन जन के प्रतिनिधि बन मतदाता का चूसो खून।
मौज करो सरकारी धन पर
कहो पाँच होते दो दून।
स्वार्थों की मैदा
लालच का तेल
तलो मठरी
*
आदर्शों की कर नीलामी बेच-खरीदो खुल्लेआम।
नियम-कायदे तोड़-मरोड़ो बढ़ा-चढ़ाकर माँगो दाम।
मुँह काला हो
तो क्या चिंता
लाद मोह-गठरी
*
जनता मरती तो मरने दो, जाये भाड़ में देश।
बनो बेहया भाषण झाड़ो शर्म न करना लेश।
नीरो बनकर
बजा बाँसुरी
पुलिस चला लठरी
२६-११-२०१९
***
एक अलघुकथा
नैवेद्य
*
- प्रभु! मैं तुम सबका सेवक हूँ। तुम सब मेरे आराध्य हो। मुझे आलीशान महल दो। ऊँचा वेतन, निशुल्क भोजन, भत्ते, गाड़ी, मुफ्त इलाज का व्यवस्था कर दो ताकि तुम्हारी सेवा-पूजा कर सकूँ। बच्चे ने प्रार्थना की।
= प्रभु की पूजा तो उनको सुमिरन से होती है। इन सुविधाओं की क्या जरूरत है?
- जरूरत है, प्रभु त्रिलोक के स्वामी हैं। उन्हें छप्पन भोग अर्पण तभी कर सकूँगा जब यह सब होगा।
= प्रभु भोग नहीं भाव के भूखे होते हैं।
- फिर भाव अर्पित करनेवालों को अभाव में क्यों रखते हैं?
= वह तो उनकी करनी का फल है।
- इसीलिये तो, प्रभु से माँगना गलत कैसे हो सकता है? फिर जो माँगा उन्हीं के लिए
= लेकिन यह गलत है। ऐसा कोई नहीं करता ।
- क्यों नहीं करता? किसान का कर्जा उतारने के लिए एक दल से दूसरे दल में जाकर सरकार बनाने की जनसेवा हो सकती है तो प्रभु से माँगकर प्रभु की जन सेवा क्यों नहीं हो सकती?
मंदिर में दो बच्चों की वार्ता सुनकर स्तब्ध थे प्रभु लेकिन पुजारी प्रभु को दिखाकर ग्रहण कर रहा था नैवेद्य।
२६-११-२०१९
***
सामयिक नवगीत
*
नाग, साँप, बिच्छू भय ठाँड़े,
धर संतन खों भेस।
*
हात जोर रय, कान पकर रय,
वादे-दावे खूब।
बिजयी हो झट कै दें जुमला,
मरें नें चुल्लू डूब।।
की को चुनें, नें कौनउ काबिल,
कपटी, नकली भेस।
*
सींग मार रय, लात चला रय,
फुँफकारें बिसदंत।
डाकू तस्कर चोर बता रय,
खुद खें संत-महंत।
भारत मैया हाय! नोच रइ
इनैं हेर निज केस।
*
जे झूठे, बे लबरा पक्के,
बाकी लुच्चे-चोर।
आपन माँ बन रय रे मिट्ठू,
देख ठठा रय ढोर।
टी वी पे गरिया रय
भत्ते बढ़वा, सरम नें सेस।
२६-११-२०१८
***
विमर्श
नागाओं / नागों का रहस्य -2 : पुराण में नागाओं का उल्लेख
*
भारत के शासन-प्रशासन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले, निर्गुण ब्रम्ह चित्रगुप्त के उपासक कायस्थ अपने आदि पुरुष कि अवधारणा-कथा में उनके दो विवाह नाग कन्या तथा देव कन्या से तथा उनके १२ पुत्रों के विवाह बारह नाग कन्याओं से होना मानते हैं. कौन थे ये नाग? सर्प या मनुष्य? आर्य, द्रविड़ या गोंड़?
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ पुरातत्वविद डॉ. आर. के. शर्मा लिखित पुस्तक से नागों संबंधी जानकारी दे रही हैं माँ जीवन शैफाली.
*
नागों की उत्पत्ति का रहस्य अंधकार में डूबा है, इसलिए प्राचीन भारत के इतिहास की जटिल समस्याओं में से एक ये भी समस्या है. कुछ विद्वानों के अनुसार नाग मूलरूप से नाग की पूजा करनेवाले थे, इस कारण उनका संप्रदाय बाद में नाग के नाम से ही जाना जाने लगा. इसके समर्थन में जेम्स फर्ग्यूसन ने अपनी पुस्तक (Tree and Serpent Worship) में अक्सर उद्धृत करते हुए विचार व्यक्त किए हैं, और निःसंदेह काफी प्रभावित भी किया है, लेकिन आज के विद्वानों में उनका समर्थक मिलना मुश्किल होगा.
उनके अनुसार नाग, साँप की पूजा करनेवाली उत्तर अमेरिका में बसे तुरेनियन वंश की एक आदिवासी जाति थी जो युद्ध में आर्यों के अधीन हो गई. फर्ग्यूसन सकारात्मक रुप से ये घोषणा करते हैं कि ना आर्य साँप की पूजा करनेवाले थे, ना द्रविड़, और अपने इस सिद्धांत पर बने रहने के लिए वे ये भी दावा करते हैं कि नाग की पूजा का यदि कोई अंश वेद या आर्यों के प्रारंभिक लेखन में पाया भी गया है तो या तो वह बाद की तारीख का अंतर्वेशन होना चाहिए या आश्रित जातियों के अंधविश्वासों को मिली छूट. सर्प पूजा के स्थान पर जब बौद्ध धर्म आया, तो उसने उसे “आदिवासी जाति के छोटे मोटे अंधविश्वासों के थोड़े से पुनरुत्थारित रुप” से अधिक योग्य नहीं माना. वॉगेल ठीक ही कह गया है कि ‘ये सब अजीब और निराधार सिद्धांत हैं’.
कुछ विद्वानों का यह भी दावा है कि सर्प पूजा करने वालों की एक संगठित संप्रदाय के रुप में उत्पत्ति मध्य एशिया के सायथीयन के बीच से हुई है, जिन्होने इसे दुनियाभर में फैलाया. वे सर्प को राष्ट्रीय प्रतीक के रुप में उपयोग करने के आदि थे. इस संबंध में यह भी सुझाव दिया गया है कि भारत में आए प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़), सायथियन जैसी ही भाषा बोलते थे जिसका आधुनिक शब्दावली में अर्थ होता था फ़िनलैंड मे बसने वाले कबीलों के परिवार की भाषा. (फिनो-अग्रिअन भाषाओं का परिवार).
यह अवलोकन 19वीं शताब्दी के द्रविड़ भाषओं के अधिकारी कॅल्डवेल के साथ शुरू हुआ और जिसे ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसर टी. बरौ का समर्थन मिला. वहीं दूसरी ओर एस. सी. रॉय एवं अन्य ने सुझाव दिया कि प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़) भूमध्यसागर की जाति के आदिम प्रवासी थे जिनका भारत के सर्प संप्रदाय में योगदान रहा. इसलिए इस संप्रदाय की उत्पत्ति और प्रसार के सिद्धांतो में बहुत मतभेद मिलता है, जिनमें से कोई भी पूर्णरूपेण स्वीकार्य नहीं है, इसके अलावा नाग की पूजा मानव जगत में व्यापक रूप से प्रचलित थी.
सायथीयन का दावा दो कारणों से ठहर नहीं सकता, पहला नाग पूजा का जो सिद्धांत भारत लाया गया वह मात्र द्रविड़ और फिनो-अग्रिअन भाषाओं की सतही समानता पर आधारित है और मध्य एशिया के आक्रमण का कोई ऐतिहासिक उदाहरण नहीं मिलता. नवीनतम पुरातात्विक और आनुवंशिक निष्कर्ष ने यह सिद्ध कर दिया है कि दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. का आर्य आक्रमण/प्रवास सिद्धांत एक मिथक है. दूसरा, मध्य एशिया में सामान्य सर्प संप्रदाय का इस बात के अलावा कोई अंश नहीं मिलता कि वे साँपों का गहने या प्रतीक के रुप में उपयोग करते थे.
नाग सामान्य महत्व से अधिक शक्तिशाली और व्यापक लोग थे, जो आदिम समय से भारत के विभिन्न भागों में आजीविका चलाते दिखाई देते थे. संस्कृत में नाग नाम से बुलाये जाने से पहले वे किस नाम से जाने जाते थे ये ज्ञात नहीं है. द्रविड़ भाषा में नाग का अर्थ ‘पंबु’ या ‘पावु’ होता है. कदाचित ‘पावा’ नाम उत्तरी भारत के शहरों में से किसी एक से लिया गया था जो मल्ल की राजधानी हुआ करती थी और बुद्ध के समय में यहाँ निवास करनेवालों ने कबीले के पुराने नाम ‘नाग’ को बनाए रखा था. यह भी संभव है कि जैसे ‘मीना’ का नाम ‘मत्स्य’ में परिवर्तित हुआ, ‘कुदगा’ का ‘वानर’ में उसी तरह बाद में आर्यों द्वारा,’पावा’ (जिसका अर्थ है नाग) का नाम ‘नाग’ में परिवर्तित किया गया और संस्कृतज्ञ द्वारा समय के साथ साँप पालने वाले को नाग कहा जाने लगा.
हड़प्पा में खुदाई से मिले कुछ अवशेष अधिक रुचिकर है क्योंकि यह समकालीन लोगों के धार्मिक जीवन में सर्प के महत्व को अधिक से अधिक उजागर करते हैं. उनमें से एक छोटी सुसज्जित मेज है (faience tablet) है जिस पर एक देव प्रतिमा के दोनों ओर घुटने टेककर आदमी द्वारा पूजा की जा रही है. प्रत्येक उपासक के पीछॆ एक कोबरा अपना सिर उठाए और फन फैले दिखाई देता है जो प्रत्यक्ष रुप से यह दर्शाता है कि वह भी प्रभु की आराधना में साथ दे रहा है. इसके अलावा चित्रित मिट्टी के बर्तन भी पाए गए जिनमें से कुछ पर सरीसृप चित्रित थे, नक्काशी किया हुआ साँप का चित्र, मिट्टी का ताबीज जिस पर एक सरीसृप के सामने एक छोटी मेज पर दूध जैसी कोई भेंट दिखाई देती है.
हड़प्पा में भी एक ताबीज पाया गया जिस पर एक गरुड़ के दोनों ओर दो नागों को रक्षा में खड़े हुए चित्रित किया गया है. ऊपर दी गई खोज सिंधु घाटी के लोगों की पूजा में साँप के होने के तथ्य को इंगित करती है, केनी के अनुसार आवश्यक रुप से ख़ुद पूजा की वस्तु के रुप में ना सही, और उस क्षेत्र में नाग टोटेम वाले लोग होना चाहिए.
महाभारत में दिए वर्णन के अनुसार नाग जो कि कश्यप और कद्रु की संतान है, रमणियका की भूमि जो समुद्र के पार थी, पर बहुत गर्मी, तूफान और बारिश का सामना करने के बाद पहुँचे थे, ऐसा माना जाता है कि नाग मिस्र द्वारा खोजे गए देश की ओर चले गए थे. ये कहा जाता है कि वे गरुड़ प्रमुख के नेतृत्व में आगे बढ़े थे. चाहे यह सिद्धांत स्वीकार्य हो या ना हो यह जानना रुचिकर है कि मिस्र के फरौह (pharaohs of egypt -प्राचीन मिस्त्र के राजाओं की जाति या धर्म या वर्ग संबंधी नाम) कुछ हद तक बाज़ या गरुड़ और सर्प से संबंधित थे.
नाग आर्य थे या गैर-आर्य, इस प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ लिखा गया और अधिकतर विद्वानों का यही मानना है कि आर्यों के भारत में आने से पहले नाग द्रविड़ थे जो भारत के उत्तरी क्षेत्र में रहते थे. आर्यन आव्रजन सिद्धांत के विवाद में प्रवेश के बिना, जो नवीनतम शोधकर्ता द्वारा मिथक साबित हुई है यह इंगित किया जा सकता है कि नाग सिर्फ साँप जो कि उनका टोटेम था ना कि पूजा के लिए आवश्यक वस्तु, की पूजा की वजह से गैर-आर्य लोग नहीं थे. वे गैर-आर्य कबीले के थे चाहे वे साँप की पूजा करते थे या नहीं. कबीले के टोटेम के रुप में सर्प और पूजा की एक वस्तु के रुप में सर्प, ये दो अलग कारक है. पहले कारक को स्वीकार करने के लिए दूसरे को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है. प्राचीन भारत के संपूर्ण इतिहास में यह पर्याप्त रुप से सिद्ध कर दिया गया है कि नाग के टोटेम को अपनाने वाले सत्तारूढ़ कबीले/राजवंश नाग की पूजा करनेवाले और गैर-आर्य हो ये आवश्यक नहीं है.
प्राचीन भारत के दौरान, उत्तरी भारत का सबसे अधिक भाग नागों द्वारा बसा हुआ था. ऋग्वेद में व्रित्र और तुग्र के लिए स्थान है. महाभारत कई नाग राजाओं के शोषण के विवरण से भरा है . महान महाकाव्य इन्द्रप्रस्थ या पुरानी दिल्ली के पास जमुना की घाटी में महान खांडव जंगल में रहने वाले राजा तक्षक के तहत नाग के ऐतिहासिक उत्पीड़न के साथ खुलता है.
वास्तव में नाग कबीले या जनजाति के कई बहुत शक्तिशाली राजा थे जिनमें सबसे अधिक ज्ञात थे शेषनाग या अनंत, वासुकि, तक्षक, कर्कोतक, कश्यप, ऐरावत, कोरावा और धृतराष्ट्र, जो सब कद्रु में पैदा हुए थे. धृतराष्ट्र जो सभी नागों के अग्रणी थे उनके अकेले के अपने अनुयायियों के रूप में अट्ठाईस नाग थे. उत्तर भारत में नाग के अस्तित्व को साबित करने के लिए जातक (jatakas) में भी उल्लेखों की कमी नहीं है.
इक्ष्वाकु (iksvauku) वंश के महान राजा पाटलिपुत्र के प्राचीन नाग थे. भारत राजाओं को भी सर्प जाति में सम्मिलित किया गया था. महान राजा ययति, समान रुप से महान राजा पुरु के पिता, नहुसा नाग के पुत्र और अस्तक के नाना थे. पाँच पाँडव भाई भी नाग आर्यक या अर्क के पोते के पोते थे. फिर इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अर्जुन ने नाग राजकुमारी युलूपि से विवाह किया.
यादव भी नाग थे. ना केवल कुंती बल्कि पाँच वीर पाँडव की माता और कृष्ण की चाची, कृष्ण तो नाग प्रमुख आर्यक जो कि वासुदेव के महान दादा और यादव राजा के पितृ थे, के सीधे वंशज थे. बल्कि उनके बड़े भाई बलदेव के सिर को विशाल साँपों से ढँका हुआ प्रस्तुत किया गया है, जिसे वास्तव में छत्र कहा जाता था, जो महान राजाओं की पहचान में भेद के लिए होता था. बलदेव को शेषनाग का अंश कहा जाता है, जिसका अर्थ है या तो वह महान शेषनाग का कोई संबंधी है या उनके जितना शक्तिशाली. चूंकि यादव कुल के इन दो सूरमाओं के मामा कंस, मगध के जरसंधा राजा बर्हद्रथ के दामाद थे, हम देखते हैं कि मगध के प्राचीन राज्यवंश में भी नाग शासक के रुप में थे, जिन्हें बर्हद्रथ कहा गया.
पुराण के अनुसार मगध के बर्हद्रथ प्रद्योत द्वारा जीत लिए गए, जो बदले में शिशुनाग के अनुयायी हुए. कई लेखकों ने ठीक ही कहा है, कि शिशुनाग में मगध के पास एक नाग राजवंश उस पर शासन करने के लिए था. शिशुनाग शब्द अपने आप में ही बहुत महत्वपूर्ण है. बर्हद्रथ राजवंश जो कि एक नाग राजवंश था, के पतन के बाद एक अन्य राजवंश सत्तारूढ़ हुआ, जिसे प्रद्योत राजवंश कहा गया. परंतु यह राजवंश जो कि अपने पूर्ववर्ति नाग राजवंश से बिल्कुल भिन्न था, शिशुनाग राजवंश जैसे कि उसके नाम से ही पता चलता है कि एक नाग राजवंश है, द्वारा फिर से पराजित हुई. अर्थात प्रद्योत के एक छोटे से अंतराल के बाद नाग एक बार फिर सत्ता में आया. यह शिशुनाग बर्हद्रथ राजवंश के प्राचीन नागों के ही अनुयायी थे. प्राचीन सीनियर नाग बर्हद्रथ के अनुयायी होने के कारण सत्ता में आने के बाद एक बार फिर वे शिशुनाग या जूनियर नाग के रूप में पहचाने जाने लगे. नागओ द्वारा रक्षित बौद्ध परंपरा जो कि शिशुनाग की संस्थापक बल्कि पुंर्स्थापक थी, ने शिशुनाग की उत्पत्ति के बारे में यही सिद्ध किया है कि वह नाग थे.
यहाँ तक कि चंद्रगुप्त मौर्य भी नाग वंश के अंतर्गत माने जाते हैं. सिंधु घाटी को पार करने के बाद सिकंदर I (Alexander I) जिन लोगों के संपर्क में आया वे भी नाग थे.
***
सरस्वती वंदना
सकल सुरासुर सामिनी, सुन माता सरसत्ति।
विनय करीन इ वीनवुं, मुझ तउ अविरल मत्ति।।
(संवत १६७७ में रचित ढोल-मारू दा दूहा से अपभृंश दोहा)
*
सुर-असुरों की स्वामिनी, सुनेंसरस्वती मात।
विनय करूँ सर नवा; दो, निर्मल मति सौगात।।
२६.११.२०१८
संदर्भ: दोहा-दोहा नर्मदा
***
अलंकार सलिला: ३२
तुल्ययोगिता अलंकार
तुल्ययोगिता में क्रिया, या गुण मिले समान
*
*
जब उपमेयुपमान में, क्रिया साम्य हो मित्र.
तुल्ययोगिता का वहाँ, अंकित हो तब चित्र.
तुल्ययोगिता में क्रिया, या गुण मिले समान.
एक धर्म के हों 'सलिल', उपमेयो- उपमान..
जिन अलंकारों में क्रिया की समानता का चमत्कारपूर्ण वर्णन होता है, वे क्रिया साम्यमूलक अलंकार कहे जाते हैं।
ये पदार्थगत या गम्यौपम्याश्रित अलंकार भी कहे जाते हैं. इस वर्ग का प्रमुख अलंकार तुल्ययोगिता अलंकार है।
जहाँ प्रस्तुतों और अप्रस्तुतों या उपमेयों और उपमानों में गुण या क्रिया के आधार पर एक धर्मत्व की स्थापना
की जाए वहाँ तुल्ययोगिता अलंकार होता है।
जब अनेक प्रस्तुतों या अनेक अप्रस्तुतों को एक ही (सामान्य / कॉमन) धर्म से अन्वित किया जाए तो वहाँ तुल्य
योगिता अलंकार होता है।
उदाहरण:
१. गुरु रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भये पुनि-पुनि पुलकाहीं।।
यहाँ विश्वामित्र जी, राम जी, और मुनियों इस सभी प्रस्तुतों का एक समान धर्म मुदित और पुलकित होना है।
२. सब कर संसय अरु अज्ञानू । मंद महीपन्ह कर अभिमानू।।
भृगुपति केरि गरब-गरुआई। सुर-मुनिबरन्ह केरि कदराई।।
सिय कर सोच जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुःख-दावा।।
संभु-चाप बड़ बोहित पाई। चढ़े जाइ सब संग बनाई।।
यहाँ अनेक अप्रस्तुतों (राजाओं, परशुराम, देवतनों, मुनियों, सीता, जनक, रानियों) का एक समान धर्म शिव धनुष रूपी
जहाज पर चढ़ना है। राम ने शिव धनुष भंग किया तो सब यात्री अर्थात भय के कारण (सबका संशय और अज्ञान,
दुष्ट राजाओं का अहंकार, परशुराम का अहं, देवों व मुनियों का डर, सीता की चिंता, जनक का पश्चाताप, रानियों
की दुखाग्नि) नष्ट हो गये।
३. चन्दन, चंद, कपूर नव, सित अम्भोज तुषार।
तेरे यश के सामने, लागें मलिन अपार।।
यहाँ चन्दन, चन्द्रमा, कपूर तथा श्वेत कमल व तुषार इन अप्रस्तुतों (उपमानों) का एक ही धर्म 'मलिन लगना' है।
४. विलोक तेरी नव रूप-माधुरी, नहीं किसी को लगती लुभावनी।
मयंक-आभा, अरविंद मालिका, हंसावली, हास-प्ररोचना उषा।।
यहाँ कई अप्रस्तुतों का एक ही धर्म 'लुभवना न लगना' है।
५. कलिंदजा के सुप्रवाह की छटा, विहंग-क्रीड़ा, कलनाद माधुरी।
नहीं बनाती उनको विमुग्ध थीं, अनूपता कुञ्ज-लता-वितान की।।
६. सरोवरों की सुषमा, सुकंजता सुमेरु की, निर्झर की सुरम्यता।
न थी यथातथ्य उन्हें विमोहती, अनंत-सौंदर्यमयी वनस्थली।।
७. नाग, साँप, बिच्छू खड़े, जिसे करें मतदान।
वह कुर्सी पा दंश दे, लूटे कर अभिमान।।
तुल्ययोगिता अलंकार के चार प्रमुख प्रकार हैं-
अ. प्रस्तुतों या उपमेयों की एकधर्मता:
१. मुख-शशि निरखि चकोर अरु, तनु पानिप लखु मीन।
पद-पंकज देखत भ्रमर, होत नयन रस-लीन।।
२. रस पी कै सरोजन ऊपर बैठि दुरेफ़ रचैं बहु सौंरन कों।
निज काम की सिद्धि बिचारि बटोही चलै उठि कै चहुं ओरन को।।
सब होत सुखी रघुनाथ कहै जग बीच जहाँ तक जोरन को।
यक सूर उदै के भए दुःख होत चोरन और चकोरन को।।
आ. अप्रस्तुतों या उपमानों में एकधर्मता:
१. जी के चंचल चोर सुनि, पीके मीठे बैन।
फीके शुक-पिक वचन ये, जी के लागत हैं न।।
२. बलि गई लाल चलि हूजिये निहाल आई हौं लेवाइ कै यतन बहुबंक सों।
बनि आवत देखत ही बानक विशाल बाल जाइ न सराही नेक मेरी मति रंक सों।।
अपने करन करतार गुणभरी कहैं रघुनाथ करी ऐसी दूषण के संक सों।
जाकी मुख सुषमा की उपमा से न्यारे भए जड़ता सो कमल कलानिध कलंक सों।।
इ. गुणों की उत्कृष्टता में प्रस्तुत की एकधर्मिता:
१. शिवि दधीचि के सम सुयस इसी भूर्ज तरु ने लिया।
जड़ भी हो कर के अहो त्वचा दान इसने दिया।।
यहाँ भूर्ज तरु को शिवि तथा दधीचि जैसे महान व्यक्तियों के समान उत्कृष्ट गुणोंवाला बताया गया है।
ई. हितू और अहितू दोनों के साथ व्यवहार में एकधर्मता:
१. राम भाव अभिषेक समै जैसा रहा,
वन जाते भी समय सौम्य वैसा रहा।
वर्षा हो या ग्रीष्म सिन्धु रहता वही,
मर्यादा की सदा साक्षिणी है मही।।
२. कोऊ काटो क्रोध करि, कै सींचो करि नेह।
बढ़त वृक्ष बबूल को, तऊ दुहुन की देह।।
२६.११.२०१५
***
गीत :
*
आत्म मोह से
रहे ग्रस्त जो
उनकी कलम उगलती विष है
करें अनर्थ
अर्थ का पल-पल
पर निन्दाकर
हँस सोते हैं
*
खुद को
कहते रहे मसीहा
औरों का
अवदान न मानें
जिसने गले लगाया उस पर
कीच डालने का हठ ठानें
खुद को नहीं
तोलते हैं जो
हल्कापन ही
जिनकी फितरत
खोल न पाते
मन की गाँठें
जो पाया आदर खोते हैं
*
मनमानी
व्याख्याएँ करते
लिखें उद्धरण
नकली-झूठे
पढ़ पाठक, सच समझ
नहीं क्यों
ऐसे लेखक ऊपर थूके?
सबसे अधिक
बोलते हैं वे
फिर भी शिकवा
बोल न पाए
ऐसे वक्ता
अपनी गरिमा खो
जब भी मिलते रोते हैं
***
गीत :
चढ़ा, बैठ फिर उतर रहा है
ये पहचाना,
वो अनजाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
साँसों का कर सफर मौन रह
औरों की सुन फिर अपनी कह
हाथ आस का छोड़ नहीं, गह
मत बन गैरों का दीवाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
जो न काम का उसे बाँट दे
कोई रोके डपट-डाँट दे
कंटक पथ से बीन-छाँट दे
बन मधुकर कुछ गीत सुनाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
कौन न माँगे? सब फकीर हैं
केवल वे ही कुछ अमीर हैं
जिनके मन रमते कबीर हैं
ज्यों की त्यों चादर धर जाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
*
गैर आज, कल वही सगा है
रिश्ता वह जो नेह पगा है
साये से ही पायी दगा है
नाता मन से 'सलिल' निभाना
दुनिया एक मुसाफिर खाना
२६.११.२०१५
***
नवगीत :
नीले-नीले कैनवास पर
बादल-कलम पकड़ कर कोई
आकृति अगिन बना देता है
मोह रही मन द्युति की चमकन
डरा रहा मेघों का गर्जन
सांय-सांय-सन पवन प्रवाहित
जल बूँदों का मोहक नर्तन
लहर-लहर लहराता कोई
धूसर-धूसर कैनवास पर
प्रवहित भँवर बना देता है
अमल विमल निर्मल तुहिना कण
हरित-भरित नन्हे दूर्वा तृण
खिल-खिल हँसते सुमन सुवासित
मधुकर का मादक प्रिय गुंजन
अनहद नाद सुनाता कोई
ढाई आखर कैनवास पर
मन्नत कफ़न बना देता है
***
दोहे
राम आत्म परमात्म भी, राम अनादि-अनंत
चित्र गुप्त है राम का, राम सृष्टि के कंत
विधि-हरि-हर श्री राम हैं, राम अनाहद नाद
शब्दाक्षर लय-ताल हैं, राम भाव रस स्वाद
राम नाम गुणगान से, मन होता है शांत
राम-दास बन जा 'सलिल', माया करे न भ्रांत
***
मुक्तक:
मेरी तो अनुभूति यही है शब्द ब्रम्ह लिखवा लेता
निराकार साकार प्रेरणा बनकर कुछ कहला लेता
मात्र उपकरण मानव भ्रमवश खुद को रचनाकार कहे
दावानल में जैसे पत्ता खुद को करता मान दहे
***
काव्यांजलि
सलिल-धार लहरों में बिम्बित 'हर नर्मदे' ध्वनित राकेश
शीश झुकाते शब्द्ब्रम्ह आराधक सादर कह गीतेश
जहाँ रहें घन श्याम वहाँ रसवर्षण होता सदा अनूप
कमल कुसुम सज शब्द-शीश गुंजित करता है प्रणव अरूप
गौतम-राम अहिंसा-हिंसा भव में भरते आप महेश
मानोशी शार्दुला नीरजा किरण दीप्ति चारुत्व अशेष
ममता समता श्री प्रकाश पा मुदित सुरेन्द्र हुए अमिताभ
प्रतिभा को कर नमन हुई है कविता कविता अब अजिताभ
सीता राम सदा करते संतोष मंजु महिमा अद्भुत
व्योम पूर्णिमा शशि लेखे अनुराग सहित होकर विस्मित
ललित खलिश हृद पीर माधुरी राहुल मन परितृप्त करे
कान्त-कामिनी काव्य भामिनि भव-बाधा को सुप्त करे
२६.११.२०१४
***
लेख :
:चित्रगुप्त रहस्य:
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं
परात्पर परमब्रम्ह श्री चित्रगुप्त जी सकल सृष्टि के कर्मदेवता हैं, केवल कायस्थों के नहीं। उनके अतिरिक्त किसी अन्य कर्ण देवता का उल्लेख किसी भी धर्म में नहीं है, न ही कोई धर्म उनके कर्म देव होने पर आपत्ति करता है। अतः, निस्संदेह उनकी सत्ता सकल सृष्टि के समस्त जड़-चेतनों तक है। पुराणकार कहता है:
''चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानाम सर्व देहिनाम.''
अर्थात श्री चित्रगुप्त सर्वप्रथम प्रणम्य हैं जो आत्मा के रूप में सर्व देहधारियों में स्थित हैं. आत्मा क्या है? सभी जानते और मानते हैं कि 'आत्मा सो परमात्मा' अर्थात परमात्मा का अंश ही आत्मा है। स्पष्ट है कि श्री चित्रगुप्त जी ही आत्मा के रूप में समस्त सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। इसलिए वे सबके लिए पूज्य हैं सिर्फ कायस्थों के लिए नहीं।
चित्रगुप्त निर्गुण परमात्मा हैं
सभी जानते हैं कि आत्मा निराकार है। आकार के बिना चित्र नहीं बनाया जा सकता। चित्र न होने को चित्र गुप्त होना कहा जाना पूरी तरह सही है। आत्मा ही नहीं आत्मा का मूल परमात्मा भी मूलतः निराकार है इसलिए उन्हें 'चित्रगुप्त' कहा जाना स्वाभाविक है। निराकार परमात्मा अनादि (आरंभहीन) तथा (अंतहीन) तथा निर्गुण (राग, द्वेष आदि से परे) हैं।
चित्रगुप्त पूर्ण हैं
अनादि-अनंत वही हो सकता है जो पूर्ण हो। अपूर्णता का लक्षण आराम तथा अंत से युक्त होना है। पूर्ण वह है जिसका क्षय (ह्रास या घटाव) नहीं होता। पूर्ण में से पूर्ण को निकल देने पर भी पूर्ण ही शेष बचता है, पूर्ण में पूर्ण मिला देने पर भी पूर्ण ही रहता है। इसे 'ॐ' से व्यक्त किया जाता है। इसी का पूजन कायस्थ जन करते हैं।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते
*
पूर्ण है यह, पूर्ण है वह, पूर्ण कण-कण सृष्टि सब
पूर्ण में पूर्ण को यदि दें निकाल, पूर्ण तब भी शेष रहता है सदा।
चित्रगुप्त निर्गुण तथा सगुण हैं
चित्रगुप्त निराकार ही नहीं निर्गुण भी है। वे अजर, अमर, अक्षय, अनादि तथा अनंत हैं। परमेश्वर के इस स्वरूप की अनुभूति सिद्ध ही कर सकते हैं इसलिए सामान्य मनुष्यों के लिए वे साकार-सगुण रूप में प्रगट होते हैं। आरम्भ में वैदिक काल में ईश्वर को निराकार और निर्गुण मानकर उनकी उपस्थिति हवा, अग्नि (सूर्य), धरती, आकाश तथा पानी में अनुभूत की गयी क्योंकि इनके बिना जीवन संभव नहीं है। इन पञ्च तत्वों को जीवन का उद्गम और अंत कहा गया। काया की उत्पत्ति पञ्चतत्वों से होना और मृत्यु पश्चात् आत्मा का परमात्मा में तथा काया का पञ्च तत्वों में विलीन होने का सत्य सभी मानते हैं।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पञ्च तत्वमय देह।
परमात्मा का अंश है, आत्मा निस्संदेह।।
*
परमब्रम्ह के अंश कर, कर्म भोग परिणाम
जा मिलते परमात्म से, अगर कर्म निष्काम।।
कर्म ही वर्ण का आधार
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण कहते हैं: 'चातुर्वर्ण्यमयासृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात गुण-कर्मों के अनुसार चारों वर्ण मेरे द्वारा ही बनाये गये हैं। स्पष्ट है कि वर्ण जन्म पर आधारित नहीं हो था। वह कर्म पर आधारित था। कर्म जन्म के बाद ही किया जा सकता है, पहले नहीं। अतः, किसी जातक या व्यक्ति में बुद्धि, शक्ति, व्यवसाय या सेवा वृत्ति की प्रधानता तथा योग्यता के आधार पर ही उसे क्रमशः ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र वर्ग में रखा जा सकता था। एक पिता की चार संतानें चार वर्णों में हो सकती थीं। मूलतः कोई वर्ण किसी अन्य वर्ण से हीन या अछूत नहीं था। सभी वर्ण समान सम्मान, अवसरों तथा रोटी-बेटी सम्बन्ध के लिए मान्य थे। सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, आर्थिक अथवा शैक्षणिक स्तर पर कोई भेदभाव मान्य नहीं था। कालांतर में यह स्थिति पूरी तरह बदल कर वर्ण को जन्म पर आधारित मान लिया गया।
चित्रगुप्त पूजन क्यों और कैसे?
श्री चित्रगुप्त का पूजन कायस्थों में प्रतिदिन विशेषकर यम द्वितीया को किया जाता है। कायस्थ उदार प्रवृत्ति के सनातन धर्मी हैं। उनकी विशेषता सत्य की खोज करना है इसलिए सत्य की तलाश में वे हर धर्म और पंथ में मिल जाते हैं। कायस्थ यह जानता और मानता है कि परमात्मा निराकार-निर्गुण है इसलिए उसका कोई चित्र या मूर्ति नहीं है, उसका चित्र गुप्त है। वन हर चित्त में गुप्त है अर्थात हर देहधारी में उसका अंश होने पर भी वह अदृश्य है। जिस तरह कहने की थाली में पानी न होने पर भी हर खाद्यान्न में पानी होता है उसी तरह समस्त देहधारियों में चित्रगुप्त अपने अंश आत्मा रूप में विराजमान होते हैं। चित्रगुप्त ही सकल सृष्टि के मूल तथा निर्माणकर्ता हैं। सृष्टि में ब्रम्हांड के निर्माण, पालन तथा विनाश हेतु उनके अंश ब्रम्हा-महासरस्वती, विष्णु-महालक्ष्मी तथा शिव-महाशक्ति के रूप में सक्रिय होते हैं। सर्वाधिक चेतन जीव मनुष्य की आत्मा परमात्मा का ही अंश है।मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य परमात्मा की प्राप्ति कर उसमें विलीन हो जाना है। अपनी इस चितन धारा के अनुरूप ही कायस्थजन यम द्वितीय पर चित्रगुप्त पूजन करते हैं।
सृष्टि निर्माण और विकास का रहस्य:
आध्यात्म के अनुसार सृष्टिकर्ता की उपस्थिति अनहद नाद से जानी जाती है। यह अनहद नाद सिद्ध योगियों के कानों में परतो पल भँवरे की गुनगुन की तरह गूँजता हुआ कहा जाता है। इसे 'ॐ' से अभिव्यक्त किया जाता है। विज्ञान सम्मत बिग बैंग थ्योरी के अनुसार ब्रम्हांड का निर्माण एक विशाल विस्फोट से हुआ जिसका मूल यही अनहद नाद है। इससे उत्पन्न ध्वनि तरंगें संघनित होकर कण तथा क्रमश: शेष ब्रम्हांड बना। यम द्वितीय पर कायस्थ एक कोरा सफ़ेद कागज़ लेकर उस पर चन्दन, हल्दी, रोली, केसर के तरल 'ॐ' अंकित करते हैं। यह अंतरिक्ष में परमात्मा चित्रगुप्त की उपस्थिति दर्शाता है। 'ॐ' परमात्मा का निराकार रूप है। निराकार के साकार होने की क्रिया को इंगित करने के लिए 'ॐ' को श्रृष्टि की सर्वश्रेष्ठ काया मानव का रूप देने के लिए उसमें हाथ, पैर, नेत्र आदि बनाये जाते हैं। तत्पश्चात ज्ञान की प्रतीक शिखा मस्तक से जोड़ी जाती है। शिखा का मुक्त छोर ऊर्ध्वमुखी (ऊपर की ओर उठा) रखा जाता है जिसका आशय यह है कि हमें ज्ञान प्राप्त कर परमात्मा में विलीन (मुक्त) होना है।
बहुदेव वाद की परंपरा
इसके नीचे कुछ श्री के साथ देवी-देवताओं के नाम लिखे जाते हैं, फिर दो पंक्तियों में 9 अंक इस प्रकार लिखे जाते हैं कि उनका योग 9 बार 9 आये। परिवार के सभी सदस्य अपने हस्ताक्षर करते हैं और इस कागज़ के साथ कलम रखकर उसका पूजन कर दण्डवत प्रणाम करते हैं। पूजन के पश्चात् उस दिन कलम नहीं उठाई जाती। इस पूजन विधि का अर्थ समझें। प्रथम चरण में निराकार निर्गुण परमब्रम्ह चित्रगुप्त के साकार होकर सृष्टि निर्माण करने के सत्य को अभिव्यक्त करने के पश्चात् दूसरे चरण में निराकार प्रभु के साकार होकर सृष्टि के कल्याण के लिए विविध देवी-देवताओं का रूप धारण कर जीव मात्र का ज्ञान के माध्यम से कल्याण करने के प्रति आभार विविध देवी-देवताओं के नाम लिखकर व्यक्त किया जाता है। ज्ञान का शुद्धतम रूप गणित है। सृष्टि में जन्म-मरण के आवागमन का परिणाम मुक्ति के रूप में मिले तो और क्या चाहिए? यह भाव दो पंक्तियों में आठ-आठ अंक इस प्रकार लिखकर अभिव्यक्त किया जाता है कि योगफल नौ बार नौ आये।
पूर्णता प्राप्ति का उद्देश्य
निर्गुण निराकार प्रभु चित्रगुप्त द्वारा अनहद नाद से साकार सृष्टि के निर्माण, पालन तथा नाश हेतु देव-देवी त्रयी तथा ज्ञान प्रदाय हेतु अन्य देवियों-देवताओं की उत्पत्ति, ज्ञान प्राप्त कर पूर्णता पाने की कामना तथा मुक्त होकर पुनः परमात्मा में विलीन होने का समुच गूढ़ जीवन दर्शन यम द्वितीया को परम्परगत रूप से किये जाते चित्रगुप्त पूजन में
अन्तर्निहित है। इससे बड़ा सत्य कलम व्यक्त नहीं कर सकती तथा इस सत्य की अभिव्यक्ति कर कलम भी पूज्य हो जाती है इसलिए कलम की पूजा की जाती है। इस गूढ़ धार्मिक तथा वैज्ञानिक रहस्य को जानने तथा मानने के प्रमाण स्वरूप परिवार के सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्चियां अपने हस्ताक्षर करते हैं, जो बच्चे लिख नहीं पाते उनके अंगूठे का निशान लगाया जाता है। उस दिन व्यवसायिक कार्य न कर आध्यात्मिक चिंतन में लीन रहने की परम्परा है।
'ॐ' की ही अभिव्यक्ति अल्लाह और ईसा में भी होती है। सिख पंथ इसी 'ॐ' की रक्षा हेतु स्थापित किया गया। 'ॐ' की अग्नि आर्य समाज और पारसियों द्वारा पूजित है। सूर्य पूजन का विधान 'ॐ' की ऊर्जा से ही प्रचलित हुआ है।
उदारता तथा समरसता की विरासत
यम द्वितीया पर चित्रगुप्त पूजन की आध्यात्मिक-वैज्ञानिक पूजन विधि ने कायस्थों को एक अभिनव संस्कृति से संपन्न किया है। सभी देवताओं की उत्पत्ति चित्रगुप्त जी से होने का सत्य ज्ञात होने के कारण कायस्थ किसी धर्म, पंथ या सम्प्रदाय से द्वेष नहीं करते। वे सभी देवताओं, महापुरुषों के प्रति आदर भाव रखते हैं। वे धार्मिक कर्म कांड पर ज्ञान प्राप्ति को वरीयता देते हैं। चित्रगुप्त जी के कर्म विधान के प्रति विश्वास के कारण कायस्थ अपने देश, समाज और कर्त्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। मानव सभ्यता में कायस्थों का योगदान अप्रतिम है। कायस्थ ब्रम्ह के निर्गुण-सगुण दोनों रूपों की उपासना करते हैं। कायस्थ परिवारों में शैव, वैष्णव, गाणपत्य, शाक्त, राम, कृष्ण, सरस्वतीसभी का पूजन किया जाता है। आर्य समाज, साईं बाबा, युग निर्माण योजना आदि हर रचनात्मक मंच पर कायस्थ योगदान करते मिलते हैं।
२८.१२.२०११

मंगलवार, 18 नवंबर 2025

नवंबर १८, चित्रगुप्त, चमेली, माहिया, हाइकु, दोहा, कुण्डलिया, अनुष्टुप, लघुकथा, गीत

सलिल सृजन नवंबर १८
*
पूर्णिका 
० 
ठंडी हवाएँ, मन को लुभाएँ
जाड़े में शैया-सपन सुहाएँ 
आएँ न जाएँ, बातें बनाएँ 
रूठे न सजनी प्रभु से मनाएँ
सूरज-अँगीठी तापें सुबह से 
संझा हो गुरसी झट सुलगाएँ 
बागों में बैठें, कर कविताई
सुनिए सुनाएँ, चैया पिलाएँ 
लैया-गजक का स्वाद अनूठा 
कहिए तो कैसे इनको भुलाएँ 
१८.११.२०२५ 
000 
चित्रगुप्त प्रभु, प्रगट होइए, माताओं के साथ।
पलक पाँवड़े बिछा हेरते, पथ हम जोड़े हाथ।।
जय जय जय हे निराकार प्रभु!
भक्तों हित साकार हुए विभु!
निरंकार जग-अलंकार हे!
शोभित मोहित सकल चराचर-
महिमा-गरिमा तव अपार है।
बारहमासी हम बारह सुत, शुभाशीष दो नाथ!
पलक पाँवड़े बिछा हेरते, पथ हम जोड़े हाथ।।
चमेली
माहिया
*
मन निर्मल रख मिलना
सबसे दुनिया में
चमेली सदृश खिलना।
*
गर्मी हो या सर्दी
दोनों ऋतु में खिलती
समदृष्टि चमेली की।
*
हो पीत गुलाबी श्वेत
दोमट मिट्टी में
जैस्मिन की झाड़ी-बेल।
***
हाइकु
*
चुन चमेली
अर्पित देव को
करते भक्त।
*
है सुवासित
सकल परिवेश
खिली चमेली।
*
सुरभि लुटा
निष्काम काम कर
चमेली चली।
*
है कर्मयोगी
सफेद चदरिया
ज्यों की त्यों रखी।
*
चंपा-चमेली
राधा-कृष्ण विहँस
रास रचाते।
१८.११.२०२४
***
मुक्तक
चुनो चमेली कुसुम, बनाओ हार पथिक को अर्पित कर।
कर जोड़ें गह सकें विरासत, अपना अहं विसर्जित कर।।
शब्द ब्रह्म का हो आराधन, नाद-ताल-लय की जय हो-
शारद पग पर सुमन चढ़ाएँ, सलिल विमल नित अर्पित कर।।
१७.११.२०२४
भोर भई आओ गौरैया,सुना प्रभाती हमें जगा।
संग गिलहरी को भी लाओ, नाता अद्भुत प्रेम पगा।।
खिले चमेली जुही मोगरा, रहे महकता घर अँगना-
दूर रखो मूषक को जिसने वसन काटकर हमें ठगा।।
१६.११.२०२४
दोहा सलिला
जुही-चमेली श्वास में, आस मोगरा फूल।
हरसिंगार सुहास हो, कर विषाद को धूल।।
पंचेंद्रिय हैं पँखुड़ियाँ, डंढल तन मन वास।
हरित पत्र शत कामना, जड़ हो नहीं उदास।।
चतुर चमेली चहककर, कहे, न हो गमगीन।
सुख-दुख जो देता उसे, दे हो उसमें लीन।।
वसुधा के आँचल पले, छत्र नीलिमा भव्य।
चंचल चपला चमेली, क्रीड़ा करती नव्य।।
चलो! चमेली कुंज में, कान्ह गुँजाता वेणु।
नित्य चरण छू तर रही, बड़भागी बृज रेणु।।
१४.११.२०२४
जगी चमेली विहँसकर, जाग जुही से बोल।
सूरज का स्वागत करे, नित दरवज्जा खोल।।
°
कुण्डलिया
चहक चपल चिड़िया करे, चूँ चूँ कर प्रभु गान।
बैठ चमेली डाल पर, मन ही मन अनुमान।।
मन ही मन अनुमान, गिलहरी करे कलेवा।
देख सके आकाश, बाज को आते देवा।।
कोटर में छिप गई, गिलहरी तुरत ही फुदक।
मिली जुही से पुलक, चमेली हुलसकर चहक।।
१३.११.२०२४
सोरठा
दे सुगंध बेदाम, अलबेली है चमेली।
खुश हर खासो-आम, उसको यह संतोष है।।
११.११.२०२४
°°°
नर्मदा-बंजर नदियों का संगम, सूर्यास्त
गीत
*
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
नेह-नर्मदा अरुणाई से
बिन बोले ही सजा गया।
*
सांध्य सुंदरी क्रीड़ा करती, हाथ न छोड़े दोपहरी।
निशा निमंत्रण लिए खड़ी है, वसुधा की है प्रीत खरी।
टेर प्रतीचि संदेसा भेजे
मिलनातुर मन कहाँ गया?
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
बंजर रही न; हुई उर्वरा, कृपण कल्पना विहँस उदार।
नयन नयन से मिले झुके उठ, फिर-फिर फिरकर रहे निहार।
फिरकी जैसे नचें पुतलियाँ
पुतली बाँका बन गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
अस्त त्रस्त सन्यस्त न पल भर, उदित मुदित फिर आएगा।
अनकहनी कह-कहकर भरमा, स्वप्न नए दिखलाएगा।
सहस किरण-कर में बाँधे
भुजपाश पहन पहना गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
कलरव की शहनाई गूँजी, पर्ण नाचते ठुमक-ठुमक।
छेड़ें लहर सालियाँ मिलकर, शिला हेरतीं हुमक-हुमक।
सहबाला शशि सँकुच छिप रहा,
सखियों के मन भा गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
मिलन-विरह की आँख मिचौली, खेल-खेल मन कब थकता।
आस बने विश्वास हास तब ख़ास अधर पर आ सजता।
जीवन जी मत नाहक भरमा
खुद को खो खुद पा गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
१८.११.२०२४
***
कृति चर्चा :
''नवता'' लीक से हटकर भाव सविता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: नवता, नवगीत संग्रह, देवकीनंदन 'शांत', प्रथम संस्करण, २०१९, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ५८, मूल्य १५०/-, रचनाकार संपर्क - शान्तं, १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष - ८८४०५४९२९६, ९९३५२१७८४१, ईमेल - shantdeokin@gmail.com]
*
हिंदी साहित्य की लोकप्रिय काव्य विधाओं में से एक गीत रचनाकारों के आकर्षण का केंद्र था, है और रहेगा। गीत रचना प्रकृति और लोक से होकर अध्येताओं और विद्वज्जनों में प्रतिष्ठित हुई है। गीत की जड़ माँ की लोरी, पर्व गीतों, वंदना गीतों, संस्कार गीतों, ऋतु गीतों, कृषि गीतों, जन गीतों, क्रांति गीतों आदि में है। वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल और छायावादी काल साक्षी हैं कि गीत हमेशा साहित्य के केंद्र में रहा है। देश-काल-परिस्थितियों तथा रचनाकार की रुचि के अनुरूप गीत का कलेवर तथा चोला परिवर्तित होता रहा है। पानी की तरह गीत अपने आप को बदलता, ढलता हुआ चिरजीवी रहा है। पद्य की थाली में गीत स्वतंत्र और अन्य तत्वों के अभिन्न अंग दोनों रूपों में भोजन में पानी की तरह रहा है। गीत की गेयता ला लयबद्धता से न तो छंद मुक्त हैं न कविता। चिरकाल से पारम्परिक गीतों के साथ नवप्रयोग धर्मी गीत रचे जाते रहे हैं जिन्हें आरंभ में अमान्य करते-करते थक-चूक कर विरोध कर रहे तत्व पस्त हो जाते हैं और परिवर्तन को क्रमश: लोक और विद्वज्जनों की मान्यता मिल जाती है। लगभग ७ दशकों पूर्व गीत को छायावादी अस्पष्टता से स्पष्टता की ओर, अमूर्तता से मूर्तता की ओर, भाव से कथ्य की ओर, आध्यात्मिकता से सांसारिकता की ओर, वैयक्तिक अभिव्यक्ति से सार्वजनिक अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
'गेयता' गीत का मूल तत्व है जबकि 'नवता' समय सापेक्ष तत्व है। जो आज नया है वही भविष्य में पुराना होकर परंपरा बन जाता है। नवता जड़ या स्थूल नहीं होती। गीतकार गीत की रचना कथ्य को कहने के लिए करता है। कथ्य गीत ही नहीं किसी भी रचना का मूल तत्व है। कुछ कहना ही नहीं हो तो रचना नहीं हो सकती। अनुभूति को अभिव्यक्त करना ही कथ्य को जन्म देता है। यह अभिव्यक्ति लयता और गेयता से संयुक्त होकर पद्य का रूप लेती है। पद्य रचना मुखड़ा - अंतरा - मुखड़ा के क्रमबद्ध रूप में गीत कही जाती है। गीत के तत्व कथ्य और शिल्प हैं। कथ्य को विषय अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। शिल्प के अंग छंद, भाषा शैली, शब्द-चयन, अलंकार, शब्द शक्ति, गुण, बिम्ब, प्रतीक आदि हैं। गीत में नवता का प्रवेश इन सब में एक साथ प्राय: नहीं होता। एकाधिक तत्वों में नवता का प्रभाव प्रभावी हो तो उस गीति रचना को नवगीत कहा जाता है। मऊरानी पुर झाँसी में जन्मे, लखनऊ निवासी वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार देवकीनंदन 'शांत' हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के जानकर हैं। आजीविका से अभियंता होते हुए भी उनकी प्रवृत्ति साहित्य और आध्यात्म की ओर उन्मुख रही है। सृजन के उत्तरार्ध में नवगीत की और आकृष्ट होकर शांत जी ने प्रचलित मान्यताओं और विधानों की अनदेखी कर अपनी राह आप बनाने की कोशिश की है। इस कोशिश में उनकी गीति रचनाएँ गीत-नवगीत की सीमारेखा पर हैं। संकलन की हर रचना को नवगीत नहीं कहा जा सकता किन्तु अधिकांश रचनाओं में सामान्य से भिन्न पथ अपनाने का प्रयास उन्हें नवगीत से सन्निकटता बनाता है।
नवता की भूमिका में सुधी समीक्षक डॉ. सुरेश ठीक ही लिखते हैं - "अछूते प्रतीक, नए बिम्ब,,
कथ्य, शिल्प, भाषा-शैली, की अनूठी अभिव्यक्ति किसी छान्दसिक रचना को नवगीत बनाती है। यह निर्विवाद सच है कि सपाटबयानी, वक्तव्यबाजी, घिसे-पिटे प्रतीक, पारस्परिक द्वेष, वैचारिक किलेबंदी, टकराव-बिखरावपरक नकारात्मकता नवगीत को दिग्भर्मित कर, सामाजिक-सद्भाव को क्षति पहुँचाकर असहिष्णुता की और ढकेलती है। शांत जी की गीति रचनाएँ ही नहीं, गज़लें भी सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और साहचर्य को प्रोत्साहित करते हैं। इस अर्थ में शांत जी नवगीतों में वर्ग वैमनस्य, सामाजिक विसंगतियों, वैयक्तिक कुंठाओं, सार्वजनिक टकरावों को अधिक प्रभावी बनाने की प्रवृत्ति के विरुद्ध ताज़ा हवा के झोंके की तरह सद्भाव और सहिष्णुता की वकालत करते हैं।
डॉ. किशारीशरण शर्मा नवगीतों में शब्द शक्तियों के प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखते हैं - "नवगीत में लक्षणा एवं व्यंजना शब्दों का विशेष प्रयोग होता है। बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से 'कही पे निगाहें, कहीं पे निशाना' की उक्ति चरितार्थ की जाती है। लक्षणा या व्यंजना का तीर चलाकर व्यक्ति (गीतकार) जोखिम से बचता है जबकि स्वयं को जोखिम में डालता है। कर्मयोगी कृष्ण के कर्मपथ के अनुयायी शांत जी जोखिम उठाने में नहीं हिचकते और अपनी बात अमिधा में कहकर नवगीत में नवता का संचार करते हैं। प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. जगदीश गुप्त के अनुसार "कविता वही है जो प्रकथनीय कहे।" इस निकष पर शांत जी की रचनाएँ खरी उतरती हैं।
शांत जी अभियंता हैं, जानते हैं कि प्रकृति के उत्पादों के उत्पादों की नकल के मनुष्य काया भले बना ले, प्राण नहीं डाल सकता। वे इसी तथ्य को फूलों के माध्यम से सामने लाते हैं-
कागज़ के फूलों से
खुशबू आना मुश्किल है।
छूने की कोशिश
करने पर दूर लहर जाती
बूँद किनारे की
इस डर से सिहर-सिहर जाती
प्रश्न 'शीर्षक' रचना में शांत जी अपनी कार्यस्थलियों पर निरंतर कार्यरत श्रमिकों को देखकर एक सवाल उठाते हैं -
ऐसा क्यों होता?
तन तो श्रम करता मन सोता।
शोर करे न 'शांत' समन्दर
भीतर-भीतर ज्वर उठे।
दैत्य, अग्नि, पशु से क्या डरना
जब अंतस में प्यार जगे।
ऐसा क्यों होता?
नीलकंठ क्यों अमृत बोता?
यहाँ शांत जी ने अपने साहित्यिक उपनाम का शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। विष पीकर अमृत देने की विरासत का वारिस कवि ही होता है। वह जानता है कि अहम् का वहम ही सारे टकरावों की जड़ है। 'रूठना' जिंदगी जीने का सही ढंग नहीं है। 'मनाना' और मान जाना ही को आगे बढ़ाता है। विडंबनाओं को नवगीत का कलेवर मान कर निरंतर विखण्डन की खेती कर रहे, तथाकथित गीतकार मानें न मानें गीतसृजन पथ का अनुगामी बना रहेगा और गीत का श्रोता सनातन मूल्यों की अवहेला सहन न कर ऐसे गीतों को हृदयंगम करता रहेगा। शांत जी संवाद को समस्याओं के समाधान में सहायक मानते हुए लिखते हैं-
फिर संवाद करें,
आओ, फिर से बात करें हम....
...रत्ती भर ना डरें,
ना आघात, ना घात करें हम।
शांत जी ने नवगीतों में राष्ट्रीय भावधारा को उपेक्षित होते देखते हुए, खुद नवता पथ पर पग रखकर राष्ट्रीयता का रंग घोलने का प्रयास किया है। अपने इस प्रथम प्रयास में भले ही कवि गीत-नवगीत की संधि रेखा पर खड़ा दिखता है किन्तु 'गिरते हैं शह-सवार ही मैदाने-जंग में वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले?' शांत जी चुनौती को स्वीकारकर आगे बढ़ते हैं -
हो संपन्न राष्ट्र अपना
सबको अधिकार मिले
सोच-विचार मूक प्राणी को
एक नया संसार मिले अब तक नवगीतों में मानवीय पीड़ा और इंसानी परेशानियाँ हो कथ्य का विषय बनती आई हैं। शांत जी मनुष्य मात्र तक सीमित रहते, उनकी संवेदनाएँ मूक प्राणियों विस्तार पाती है। नवगीत के कथ्य में यह एक नव्य प्रयोग है। शांत जानते हैं कि 'लकीर के फ़कीर' ऐसी रचनाओं को नवगीत मानने से इंकार कर सकते हैं, फिर भी वे 'वैचारिक प्रतिबद्धों' के गिरोह में सत्य कहने का साहस करते हैं। वे ऐसे गिरोहबाजों को ललकारते हैं-
जिसे तुम कविता कहते हो
क्या
वही बस कविता है?
जिसमें तुम गोते लगाते हो
क्या
वही सरिता है?...
.... कविता, सरिता और सविता
सिर्फ वही नहीं है
जो तुम्हारी परिभाषा में बँधा है।
नवगीत को नश्वर सांसारिक अभिव्यक्तियों तक सीमित रखने के पक्षधरों को शांत जी का कवि मन, आवरण-ेयह बताता है कि नवता सांसारिक होते हुए आध्यात्मिक भी है। आवरण चित्र में कदम्ब शाख पर वेणुवादन करते हुए श्रीकृष्ण विराजमान हैं, उनके सम्मुख सुन्दर वस्त्रों में सज्जित बृज वनिताएँ हैं। वस्त्रहीन स्नान करने की कुप्रथा को वस्त्र-हरण कर छुड़वाने का वचन लेने के बाद कृष्ण लौटा चुके हैं। कुप्रथा को छोड़कर सुवस्त्रों से सज्जित बृज बालाएँ नवता का वरण कर चुकी हैं। संदेश स्पष्ट है कि नवगीत की नवता वैचारिक, आचारिक मौलिक तथा सर्व हितकारी हो तभी लोक - मान्य होगी।
कठमुल्लेपन की हद तक जड़ता का वरण कर रहे तथाकथित प्रगतिवादियों (वास्तव में साम्यवादियों) की वैचारिक दासता स्वीकार कर नवगीत को वैचारिक प्रतिबद्धता के पिंजरे में कैद रखने के आग्रही नवगीतकारों को शांत जी सर्वहितकारी नव-पथ अपनाने का सन्देश देते हैं। 'सुधियों के गीत' शीर्षक के अंतर्गत शांत जी नवगीत के माध्यम से मानवीय संबंधों की संवेदनाओं को पारंपरिकता से हटकर अभिव्यक्ति देते हैं-
साथी रूठ गया
अब सपने सूली लटकेंगे
प्रतिबंधों की ज़ंजीरों से
खूब कसे
उसके ज़ज़्बात
अनुबंधों के संकेतों से
घिर आई
दिन में ही रात
धीरज छूट गया
जीवन भर दर-दर भटकेंगे
विषय, विषय-वस्तु, कहन, शब्द चयन आदि में शांत जी किसी का अनुकरण नहीं करते। शांत जी के आत्मीय मित्र मधुकर अष्ठाना जी प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं तो, मनोज श्रीवास्तव राष्ट्रीय ओज के प्रतिनिधि , राजेश अरोरा 'शलभ' हास्य के महारथी हैं तो अमरनाथ हिंदी छांदस भावधारा के दिग्गज है, राजेंद्र वर्मा उर्दू उरूज के उस्ताद हैं तो नरेश सक्सेना अपने राह बनाने वाले शिखर हस्ताक्षर हैं। शांत इनमें से किसी का अनुकरण, यहाँ तक कि अपने उस्ताद शायरे-आज़म कृष्ण बिहारी 'नूर' के शागिर्दे-ख़ास होने के बाद भी शायरी बुंदेली और हिंदी लेखन की राह खुद बनाते नज़र आते हैं। अपने प्रश्नों के उत्तर खुद तलाशने की प्रवृत्ति उन्हें उनके अभियंता है। लिपिकीय और अध्यापकीय प्रवृत्ति पीछे देखकर आगे बढ़ने की होती है। जो पहले चुका है, पुनरावृत्ति सहज, सरल शीघ्र परिणामदायी होने के बावजूद इंजीनियर को हर निर्माणस्थली पर भिन्न आधारभूमि, समस्याएँ और संसाधन चुनकर नव प्रविधि का चयन करना होता है। शांत जी अभियंता होने के नाते प्रकृति से निकटता से जुड़े हैं। प्रकृति मानवीय भाषा न जानते हुए बहुधा सब कुछ बोल देती है, बशर्ते आप प्रकृति से जुड़कर सुन-समझ सकें। नारी प्रकृति भी कहा जाता है। शांत जी कहते हैं-
तुमने बिन बोले
आँखों से
सब कुछ कह डाला।
सदियों से
प्यासे मरुथल को
कर डाला पानी-पानी।
जल को ही
मीठा कर खारेपन के
बदल दिए मानी।
होंठ बिना खोले
रिक्त किया
विष सिक्त प्याला।
विश्व ऊर्जा संकट से जूझ और ऊर्जा प्राप्ति के नए साधन खोज रहा है। ऊर्जा के लिए ईंधन और ईंधन की खपत पर्यावरण प्रदूषण का खतरा, शांत इंगित करते हैं -
साइकिल पर चल हैं
दीप से हम जल रहे हैं
गीत गाते हैं
गुनगुनाते हैं
ऊर्जा अपनी बचाते हैं।
'सत्य होता है चिरंतन' शीर्षक से शांत कहते हैं -
देख ले तू
करके चिंतन
सत्य चिरंतन
चाह तुझको है पुरातन
स्वर लहरियों की।
'नवता' के नवगीत और गीत नीर-क्षीर समरस हैं, उनके बीच में भारत की तरह सीमा रेखा खींची जा सकती। नवता के नवगीतकार को परिपक्व होने में समय लगेगा। संतोष की बात यह है कि वह सस्ती लोकप्रियता और शीघ्र फल प्राप्ति के लिए स्थापितों अंधानुकरण न कर अपनी राह आप बना रहा है।
१८.११.२०१९
***
दोहा सलिला
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
.
मन में क्या?, कैसे कहें? हो न सके अनुमान।
राजनीति के फेर में, फिल्मकार कुर्बान।।
.
बना बतंगड़ बात का, उडी खूब अफवाह
बना सत्य जाने करें, क्यों सद्भाव तबाह?
.
यह प्रसंग है ही नहीं, झूठ रहा है फ़ैल।
अपने चेहरे मल रहे, झूठे खुद ही मैल।।
.
सही-गलत जाने बिना, बेमतलब आरोप।
लगा, दिखाते नासमझ, अपनों पर ही कोप।।
१८.११.१७
...
मुक्तक
किसका मन है मौन?, मन पर वश किसका चला?
परवश कहिए कौन?, परवश होकर भी नहीं,
जड़ का मन है मौन, संयम मन को वश करे-
वश में पर के भौन।, परवश होकर भी नहीं।।
छंद: सोरठा
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ३
*
मुक्तिका
चलें साथ हम
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ]
*
चलें भी चलें साथ हम
करें दुश्मनों को ख़तम
*
न पीछे हटेंगे कदम
न आगे बढ़ेंगे सितम
*
न छोड़ा, न छोड़ें तनिक
सदाचार, धर्मो-करम
*
तुम्हारे-हमारे सपन
हमारे-तुम्हारे सनम
*
कहीं और है स्वर्ग यह
न पाला कभी भी भरम
१८.११.२०१६
***
नवगीत:
मैं लड़ूँगा....
.
लाख दागो गोलियाँ
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय
न वापिस लौट पाया
तो गए तुम जीत
यह किंचित न सोचो,
भोर होते ही उठाकर
फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
खून की नदियाँ बहीं
उसमें नहा
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा।
कसम रब की है
मदरसा हो न सूना
मैं रचूँगा गीत
मिलकर अमन बोओ।
भुला औलादें तुम्हारी
तुम्हें, मेरे साथ होंगी
मैं गढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उड़ा दूँगा
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ ।
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा
मैं खिलूँगा।
मैं लड़ूँगा....
...
लघुकथाएँ:
उत्सव
*
सड़क दुर्घटना, दम्पति की मौत, नन्ही बच्ची अनाथ पढ़ते-पढ़ते उसकी दृष्टी अपने नन्हीं बिटिया पर पड़ी.… मन में कोई विचार कौंधा और सिहर उठा वह, बिटिया को बांहों में भरकर चूम लिया…… पत्नी ने देखा तो कारण पूछा।
थोड़ी देर बाद तीनों पहुँचे कलेक्टर के कमरे में, कुछ लिखा-पढ़ी के बाद घर लौटे, दुर्घटना में माँ-बाप खो चुकी बिटिया के साथ.…
धीरे-धीरे चारों का जीवन बन गया एक उत्सव।
***
मानवाधिकार
*
राजमार्ग से आते-जाते विभाजक के एक किनारे पर उसे अक्सर देखते हैं लोग। किसे फुर्सत है जो उसकी व्यथा-कथा पूछे। कुछ साल पहले वह अपने माता-पिता, भाई-बहिन के साथ गरीबी में भी प्रसन्न हुआ करता था। एक रात वे यहीं सो रहे थे कि एक मदहोश रईसजादे की लहराती कार सोते हुई ज़िन्दगियों पर मौत बनकर टूटी। पल भर में हाहाकार मच गया, जब तक वह जागा उसकी दुनिया ही उजड़ गयी थी। कैमरों और नेताओं की चकाचौंध १-२ दिन में और साथ के लोगों की हमदर्दी कुछ महीनों में ख़त्म हो गयी।
एक पडोसी ने कुछ दिन साथ में रखकर उसे बेचना सिखाया और पहचान के कारखाने से बुद्धि के बाल दिलवाये। आँखों में मचलते आँसू, दिल में होता हाहाकार और दुनिया से बिना माँगे मिलती दुत्कार ने उसे पेट पालना तो सीखा दिया पर जीने की चाह नहीं पैदा कर सके। दुनियावी अदालतें बचे हुओं को कोई राहत न दे पाईं। रईसजादे को पैरवीकारों ने मानवाधिकारों की दुहाई देकर छुड़ा दिया लेकिन किसी को याद नहीं आया निरपराध मरने वालों का मानवाधिकार।
***
सच्चा उत्सव
*
उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
***
गणराज्य
*
व्यापम घोटाला समाचार पत्रों, दूरदर्शन, नुक्कड़ से लेकर पनघट हर जगह बना रहा चर्चा का केंद्र, बड़े-बड़ों के लिपटने के समाचारों के बीच पकड़े गए कुछ छुटभैये।
फिर आरम्भ हुआ गवाहों के मरने का क्रम लगभग वैसे ही जैसे श्री आसाराम बापू और अन्य इस तरह के प्रकरणों में हुआ।
सत्ताधारियों के सिंहासन डोलने और परिवर्तन के खबरों के बीच विश्व हिंदी सम्मेलन का भव्य आयोजन, चीन्ह-चीन्ह कर लेने-देने का उपक्रम, घोटाले के समाचारों की कमी, रसूखदार गुनहगारों का जमानत पर रिहा होना, समान अपराध के गिरफ्तार अन्य को जमानत न मिलना, सत्तासीनों के कदम अंगद के पैर की तरह जम जाना, समाचार माध्यमों से व्यापम ही नहीं छात्रवृत्ति और अन्य घोटालों की खबरों का विलोपित हो जाना, पुस्तक हाथ में लिए मैं कोशिश कर रहा हूँ किन्तु समझ नहीं पा रहा हूँ समानता, मौलिक अधिकारों और लोककल्याणकारी गणतांत्रिक गणराज्य का अर्थ।
***
अंध मोह
*
मध्य प्रदेश बांगला साहित्य अकादमी रजत जयंती समारोह मुख्य अतिथि वक्ता के नाते भाषा के उद्भव, उपादेयता, स्वर-व्यंजन, लिपि के विकास,विविध भाषाओँ बोलिओं के मध्य सामंजस्य, जीवन में भाषा की भूमिका, भाषा से आजीविका, अनुवाद, लिप्यंतरण तथा स्थानीय, देशज व् राष्ट्रीय भाषा में मध्य अंतर्संबंध जैसे जटिल और नीरस विषय को सहज बनाते हुए हिंदी में अपनी बात पूरी की. महिलाएं, बच्चे तथा पुरुष रूचि लेकर सुनते रहे, उनके चेहरों से पता चलता था कि वे बात समझ रहे हैं, सुनना चाहते हैं.
मेरे बाद भागलपुर से पधारे ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता बांगला प्रोफ़ेसर ने बांगला में बोलना प्रारम्भ किया। विस्मय हुआ की बांगलाभाषी जनों ने हिंदी में कही बात मन से सुनी किन्तु बांगला वक्तव्य आरम्भ होते ही उनकी रूचि लगभग समाप्त हो गयी, आपस में बात-चीत होने लगी. वोिदवान वक्त ने आंकड़े देकर बताया कि गीतांजलि के कितने अनुवाद किस-किस भाषा में हुए. शरत, बंकिम, विवेकानंद आदि कासाहित्य किन-किन भाषाओँ में अनूदित हुआ किन्तु यह नहीं बता सके कि कितनी भाषाओँ का साहित्य बांगला में अनूदित हुआ.
कोई कितना भी धनी हो उसके कोष से धन जाता रहे किन्तु आये नहीं तो तिजोरी खाली हो ही जाएगी। प्रयास कर रहा हूँ कि बांगला भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाने लगे तो हम मूल रचनाओं को उसी तरह पढ़ सकें जैसे उर्दू की रचनाएँ पढ़ लेते हैं. लिपि के प्रति अंध मोह के कारण वे नहीं समझ पा रहे हैं मेरी बात का अर्थ
***
सहिष्णुता
*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
***
साँसों का कैदी
*
जब पहली बार डायलिसिस हुआ था तो समाचार मिलते ही देश में तहलका मच गया था। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अनगिनत जनता अहर्निश चिकित्सालय परिसर में एकत्र रहते, डॉक्टर और अधिकारी खबरचियों और जिज्ञासुओं को उत्तर देते-देते हलाकान हो गए थे।
गज़ब तो तब हुआ जब प्रधान मंत्री ने संसद में उनके देहावसान की खबर दे दी, जबकि वे मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे। वस्तुस्थिति जानते ही अस्पताल में उमड़ती भीड़ और जनाक्रोश सम्हालना कठिन हो गया। प्रशासन को अपनी भूल विदित हुई तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे हो गए। गनीमत हुई कि उनके एक अनुयायी जो स्वयं भी प्रभावी नेता थे, वहां उपस्थित थे, उन्होंने तत्काल स्थिति को सम्हाला, प्रधान मंत्री से बात की, संसद में गलत सूचना हेतु प्रधानमंत्री ने क्षमायाचना की।
धीरे-धीरे संकट टला.… आंशिक स्वास्थ्य लाभ होते ही वे फिर सक्रिय हो गए, सम्पूर्ण क्रांति और जनकल्याण के कार्यों में। बार-बार डायलिसिस की पीड़ा सहता तन शिथिल होता गया पर उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें सक्रिय किये रही। तन बाधक बनता पर मन कहता मैं नहीं हो सकता साँसों का कैदी।
***
पिंजरा
*
परिंदे के पंख फ़ड़फ़ड़ाने से उनकी तन्द्रा टूटी, न जाने कब से ख्यालों में डूबी थीं। ध्यान गया कि पानी तो है ही नहीं है, प्यासी होगी सोचकर उठीं, खुद भी पानी पिया और कटोरी में भी भर दिया।
मन खो गया यादों में, बचपन, गाँव, खेत-खलिहान, छात्रावास, पढ़ाई, विवाह, बच्चे, बच्चों का बसा होना, नौकरी, विवाह और घर में खुद का अकेला होना। यह अकेलापन और अधिक सालने लगा जब वे भी चले गए कभी न लौटने के लिये। दुनिया का दस्तूर, जिसने सुना आया, धीरज धराया और पीठ फेर ली, किसी से कुछ घंटों में, किसी ने कुछ दिनों में।
अंत में रह गया बेटा, बहु तो आयी ही नहीं कि पोते की परीक्षा है, आज बेटा भी चला गया।
उनसे साथ चलने का अनुरोध किया किन्तु उन्हें इस औपचारिकता के पीछे के सच का अनुमान करने में देर न लगी, अनुमान सच साबित हुआ जब बेटे ने उनके दृढ़ स्वर में नकारने के बाद चैन की सांस ली।
चारों ओर व्याप्त खालीपन को भर रही थी परिंदे की आवाज़। 'बाई साब! कब लौं बिसूरत रैहो? उठ खें सपर ल्यो, मैं कछू बना देत हूँ। सो चाय-नास्ता कर ल्यो जल्दी से। जे आ गयी है जिद करके, जाहे सीखना है कछू, तन्नक बता दइयो' सुनकर चौंकी वह। देखा कामवाली के पीछे उसकी अनाथ नातिन छिप रही थी।
'कहाँ छिप रही है? यहाँ आ, कहते हुए हाथ बढ़ाकर बच्ची को खींच लिया अपने पास। क्या सीखेगी पूछा तो बच्ची ने इशारा किया हारमोनियम की तरफ। विस्मय से पूछा यह सीखेगी? अच्छा, सिखाऊँगी तुझे लेकिन तू क्या देगी मुझे?
सुनकर बच्ची ठिठकी कुछ सोचती रही फिर आगे बढ़कर दे दी एक पप्पी। पानी पीकर गा रही थी चिड़िया और मुस्कुरा रही बच्ची के साथ अब उन्हें घर नहीं लग रहा था पिंजरा।
१८.११.२०१५
***
नवगीत :
काल बली है
बचकर रहना
सिंह गर्जन के
दिन न रहे अब
तब के साथी?
कौन सहे अब?
नेह नदी के
घाट बहे सब
सत्ता का सच
महाछली है
चुप रह सहना
कमल सफल है
महा सबल है
कभी अटल था
आज अचल है
अनिल-अनल है
परिवर्तन की
हवा चली है
यादें तहना
ये इठलाये
वे इतराये
माथ झुकाये
हाथ मिलाये
अख़बारों
टी. व्ही. पर छाये
सत्ता-मद का
पैग ढला है
पर मत गहना
बिना शर्त मिल
रहा समर्थन
आज, करेगा
कल पर-कर्तन
कहे करो
ऊँगली पर नर्तन
वर अनजाने
सखा पुराने
तज मत दहना
१८.११.२०१४
***

सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

अक्टूबर २७, करवा चौथ, मुक्तक, ताजमहल, लघुकथा, चित्रगुप्त, गीत, दोहा,नैरंतर्य छंद

सलिल सृजन अक्टूबर २७
*
भोर उठिए सुमिर प्रभु को, दोपहर में काम कर।
साँझ सुख-संतोष पा ले, रात सो शुभ स्वप्न धर।।
गीत
जीवन जी ले धीरज धरकर
सुख-दुख से मत भाग रे!
ना हो अतिशय भोग-विलासी
और न सब कुछ त्याग रे!
जो जैसा है प्रभु की माया,
काया पर ईश्वर की छाया।
कर्म किया परिणाम भोग ले,
घटे नहीं अनुराग रे!
चित्र गुप्त होता है प्रभु का,
नाहक दे आकार तू।
कर्मकांड भरमाते तुझको,
सच को बना सुहाग रे!
धर्म नंदिनी श्वास-श्वास हो,
शुभावती हर आस हो।
शिव हरि रवि राशि बारह सम,
बन जलने दे आग रे!
२७.१०.२०२४
•••
एक रचना
*
दिल जलता है तो जलने दे, दीवाली है
आँसू न बहा फरियाद न कर, दीवाली है
दीपक-बाती में नाता क्या लालू पूछे
चुप घरवाला है, चपल मुखर घरवाली है
फिर तेल धार क्या लगी तनिक यह बतलाओ
यह दाल-भात में मूसल रसमय साली है
जो बेच-खरीद रहे उनको समधी जानो
जो जला रही तीली सरहज मतवाली है
सासू याद करे अपने दिन मुस्काकर
साला बोला हाथ लगी हम्माली है
सखी-सहेली हवा छेड़ती जीजू को
भभक रही लौ लाल न जाए सँभाली है
दिल जलता है तो जलने दे दीवाली है
आँसू न बहा फरियाद न कर दीवाली है
२७-१०-२०१९
***
करवा चौथ
*
अर्चना कर सत्य की, शिव-साधना सुन्दर करें।
जग चलें गिर उठ बढ़ें, आराधना तम हर करें।।
*
कौन किसका है यहाँ?, छाया न देती साथ है।
मोह-माया कम रहे, श्रम-त्याग को सहचर करें।।
*
एक मालिक है वही, जिसने हमें पैदा किया।
मुक्त होकर अहं से, निज चित्त प्रभु-चाकर करें।।
*
वरे अक्षर निरक्षर, तब शब्द कविता से मिले।
भाव-रस-लय त्रिवेणी, अवगाह चित अनुचर करें।।
*
पूर्णिमा की चंद्र-छवि, निर्मल 'सलिल में निरखकर।
कुछ रचें; कुछ सुन-सुना, निज आत्म को मधुकर करें।।
करवा चौथ २७-१०-२०१८
***
मुक्तक
*
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह स्वाभाविक है, स्मृतियाँ बिन बिछड़े होती नहीं प्रबल
क्यों दोष किसी को दें हम-तुम, जो साथ उसे कब याद किया?
बिन शीश कटाये बना रहे, नेता खुद अपने शीशमहल
*
जीवन में हुआ न मूल्यांकन, शिव को भी पीना पड़ा गरल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
यह दुनिया पत्थर को पूजे, सम्प्राणित को ठुकराती है
जो सचल पूजता हाथ जोड़ उसको जो निष्ठुर अटल-अचल
*
कविता होती तब सरस-सरल, जब भाव निहित हों सहज-तरल
मन से मन तक रच सेतु सबल, हों शब्द-शब्द मुखरित अविचल
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
हँस रूपक बिम्ब प्रतीकों में, रस धार बहा करती अविकल
*
जन-भाषा हिंदी की जय-जय, चिरजीवी हो हिंदी पिंगल
सुरवाणी प्राकृत पाली बृज, कन्नौजी अपभ्रंशी डिंगल
इतिहास यही बतलाता है, जो सम्मुख वह अनदेखा हो
जीते जी मिलता प्यार नहीं, मरने पर बनते ताजमहल
*
दोहा सलिला -
नेह नर्मदा सलिल ही, पा नयनों का गेह
प्रवहित होता अश्रु बन, होती देह विदेह
*
स्नेह-सलिल की लहर सम, बहिये जी भर मीत
कूल न तोड़ें बाढ़ बन, यह जीवन की रीत
*
मिले प्रेरणा तो बने, दोहा गीत तुरंत
सदा सदय माँ शारदा, साक्षी दिशा-दिगंतदोहा
२७-१०-२०१६
***
लघुकथा:
प्यार के नाम
*
पलट रहा हूँ फेसबुक आउट वाट्स ऐप के पन्ने, कहीं गीत-ग़ज़ल है, कहीं शेरो-शायरी, कहीं किस्से-कहानी, कहीं कहीं मदमस्त अदायें और चुलबुले कमेंट्स, लिव इन की खबरें, सबका दावा है कि वे उनका जीवन है सिर्फ प्यार के नाम.…
तलाश कर थक गया लेकिन नहीं मिला कोई भजन, प्रार्थना, सबद, अरदास, हम्द, नात, प्रेयर उसके नाम जिसने बनाई है यह कायनात, जो पूरी करता है सबकी मुरादें, कहें नहीं है चंद सतरें-कोई पैगाम उसके प्यार के नाम।
***
मुक्तक:
जुदा-जुदा किस्से हैं अपने
जुदा-जुदा हिस्से हैं अपने
पीड़ा सबकी एक रही है-
जुदा-जुदा सपने हैं अपने
*
कौन किसको प्यार कर पाया यहाँ?
कौन किससे प्यारा पा पाया यहाँ?
अपने सुर में बात अपनी कह रहे-
कौन सबकी बात कर पाया यहाँ?
*
अक्षर-अक्षर अलग रहा तो कह न सका कुछ
शब्द-शब्द से विलग रहा तो सह न सका कुछ
अक्षर-शब्द मिले तो मैं-तुम से हम होकर
नहीं कह सका ऐसा बाकी नहीं रहा कुछ
२७-१०-२०१५
***
नवगीत:
चित्रगुप्त को
पूज रहे हैं
गुप्त चित्र
आकार नहीं
होता है
साकार वही
कथा कही
आधार नहीं
बुद्धिपूर्ण
आचार नहीं
बिन समझे
हल बूझ रहे हैं
कलम उठाये
उलटा हाथ
भू पर वे हैं
जिनका नाथ
खुद को प्रभु के
जोड़ा साथ
फल यह कोई
नवाए न माथ
खुद से खुद ही
जूझ रहे हैं
पड़ी समय की
बेहद मार
फिर भी
आया नहीं सुधार
अकल अजीर्ण
हुए बेज़ार
नव पीढ़ी का
बंटाधार
हल न कहीं भी
सूझ रहे हैं
***
नवगीत:
ऐसा कैसा
पर्व मनाया ?
मनुज सभ्य है
करते दावा
बोल रहे
कुदरत पर धावा
कोई काम
न करते सादा
करते कभी
न पूरा वादा
अवसर पाकर
स्वार्थ भुनाया
धुआँ, धूल
कचरा फैलाते
हल्ला-गुल्ला
शोर मचाते
आज पूज
कल फेकें प्रतिमा
समझें नहीं
ईश की गरिमा
अपनों को ही
किया पराया
धनवानों ने
किया प्रदर्शन
लंघन करता
भूखा-निर्धन
फूट रहे हैं
सरहद पर बम
नहीं किसी को
थोड़ा भी गम
तजी सफाई
किया सफाया
***
नैरंतर्य छंद
रात जा रही, उषा आ रही
उषा आ रही, प्रात ला रही
प्रात ला रही, गीत गा रही
गीत गा रही, मीत भा रही
मीत भा रही, जीत पा रही
जीत पा रही, रात आ रही
गुप-चुप डोलो, राज न खोलो
राज न खोलो, सच मत तोलो
सच मत तोलो,मन तुम सो लो
मन तुम सो लो, नव रस घोलो
नव रस घोलो, घर जा सो लो
घर जा सो लो, गुप-चुप डोलो
***
दोहा सलिला :
कथ्य भाव रस छंद लय, पंच तत्व की खान
पड़े कान में ह्रदय छू, काव्य करे संप्राण
मिलने हम मिल में गये, मिल न सके दिल साथ
हमदम मिले मशीन बन, रहे हाथ में हाथ
हिल-मिलकर हम खुश रहें, दोनों बने अमीर
मिल-जुलकर हँस जोर से, महका सकें समीर.
मन दर्पण में देख रे!, दिख जायेगा अक्स
वो जिससे तू दूर है, पर जिसका बरअक्स
जिस देहरी ने जन्म से, अब तक करी सम्हार
छोड़ चली मैं अब उसे, भला करे करतार
माटी माटी में मिले, माटी को स्वीकार
माटी माटी से मिले, माटी ले आकार
मैं ना हूँ तो तू रहे, दोनों मिट हों हम
मैना - कोयल मिल गले, कभी मिटायें गम
२७-१०-२०१४

***