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गुरुवार, 17 अप्रैल 2025
अप्रैल १७, रेवा, चामर छंद, नव गीत, सामी, गोपाल प्रसाद व्यास, भजन, सॉनेट
गुरुवार, 23 जनवरी 2025
नेताजी का तुलादान, गोपाल प्रसाद व्यास
कालजयी रचना
नेताजी का तुलादान
गोपाल प्रसाद व्यास
*
देखा पूरब में आज सुबह, एक नई रोशनी फूटी थी।
एक नई किरन, ले नया संदेशा, अग्निबाण -सी छूटी थी॥
एक नई हवा ले नया राग, कुछ गुन-गुन करती आती थी।
आज़ाद परिन्दों की टोली, एक नई दिशा में जाती थी॥
एक नई कली चटकी इस दिन, रौनक उपवन में आई थी।
एक नया जोश, एक नई ताज़गी, हर चेहरे पर छाई थी॥
नेताजी का था जन्मदिवस, उल्लास न आज समाता था।
सिंगापुर का कोना-कोना, मस्ती में भीगा जाता था।
हर गली, हाट, चौराहे पर,जनता ने द्वार सजाए थे।
हर घर में मंगलाचार खुशी के, बाँटे गए बधाए थे॥
पंजाबी वीर रमणियों ने, बदले सलवार पुराने थे।
थे नए दुपट्टे, नई खुशी में, गये नये तराने थे॥
वे गोल बाँधकर बैठ गईं, ढोलक-मंजीर बजाती थीं।
हीर-रांझा को छोड़ आज, वे गीत पठानी गाती थीं।
गुजराती बहनें खड़ी हुईं, गरबा की नई तैयारी में।
मानो वसन्त ही आया हो, सिंगापुर की फुलवारी में॥
महाराष्ट्र-नन्दिनी बहनों ने, इकतारा आज बजाया था।
स्वामी समर्थ के शब्दों को, गीतों में गति से गाया था॥
वे बंगवासिनी, वीर-बहूटी, फूली नहीं समाती थीं।
अंचल गर्दन में डाल, इष्ट के सम्मुख शीश झुकाती थीं-
“प्यारा सुभाष चिरंजीवी हो, हो जन्मभूमि, जननी स्वतंत्र!
माँ कात्यायिनि ऐसा वर दो, भारत में फैले प्रजातंत्र!!”
हर कण्ठ-कण्ठ से शब्द यही, सर्वत्र सुनाई देते थे।
सिंगापुर के नर-नारि आज, उल्लसित दिखाई देते थे॥
उस दिन सुभाष सेनापति ने, कौमी झण्डा फहराया था।
उस दिन परेड में सेना ने, फौजी सैल्यूट बजाया था॥
उस दिन सारे सिंगापुर में, स्वागत की नई तैयारी थी।
था तुलादान नेताजी का, लोगों में चर्चा भारी थी ॥
उस रोज तिरंगे फूलों की, एक तुला सामने आई थी॥
उस रोज तुला ने सचमुच ही, एक ऐसी शक्ति उठाई थी-
जो अतुल, नहीं तुल सकती थी,दुनिया की किसी तराजू से!
जो ठोस, सिर्फ बस ठोस,जिसे देखो चाहे जिस बाजू से!!
वह महाशक्ति सीमित होकर, पलड़े में आन विराजी थी।
दूसरी ओर सोना-चांदी, रत्नों की लगती बाजी थी॥
उस मन्त्रपूत मुद मंडप में,सुमधुर शंख-ध्वनि छाई थी।
जब कुन्दन-सी काया सुभाष की,पलड़े में मुस्काई थी॥
एक वृद्धा का धन सर्वप्रथम, उस धर्म-तुला पर आया था।
सोने की ईटों में जिसने, अपना सर्वस्व चढ़ाया था॥
गुजराती मां की पांच ईंट, मानो पलड़े में आईं थीं।
या पंचयज्ञ से हो प्रसन्न, कमला ही वहां समाई थीं!!
फिर क्या था, एक-एक करके, आभूषण उतरे आते थे।
वे आत्मदान के साथ-साथ, पलड़े पर चढ़ते जाते थे॥
मुंदरी आई, छल्ले आए, जो पी की प्रेम-निशानी थे।
कंगन आए, बाजू आए, जो रस की स्वयं कहानी थे॥
आ गया हार, ले जीत स्वयं, माला ने बन्धन छोड़ा था।
ललनाओं ने परवशता की,जंजीरों को धर तोड़ा था॥
आ गईं मूर्तियां मन्दिर की, कुछ फूलदान, टिक्के आए।
तलवारों की मूठें आईं, कुछ सोने के सिक्के आए॥
कुछ तुलादान के लिए, युवतियों ने आभूषण छोड़े थे।
जर्जर वृद्धाओं ने भेजे, अपने सोने के तोड़े थे॥
छोटी-छोटी कन्याओं ने भी, करणफूल दे डाले थे।
ताबीज गले से उतरे थे, कानों से उतरे बाले थे॥
प्रति आभूषण के साथ-साथ, एक नई कहानी आती थी।
रोमांच नया, उदगार नया, पलड़े में भरती जाती थी॥
नस-नस में हिन्दुस्तानी की, बलिदान आज बल खाता था।
सोना-चांदी, हीरा-पन्ना, सब उसको तुच्छ दिखाता था॥
अब चीर गुलामी का कोहरा, एक नई किरण जो आई थी।
उसने भारत की युग-युग से, यह सोई जाति जगाई थी॥
लोगों ने अपना धन-सरबस, पलड़े पर आज चढ़ाया था।
पर वजन अभी पूरा नहीं हुआ, कांटा न बीच में आया था॥
तो पास खड़ी सुन्दरियों ने, कानों के कुण्डल खोल दिए।
हाथों के कंगन खोल दिए, जूड़ों के पिन अनमोल दिए॥
एक सुन्दर सुघड़ कलाई की,खुल 'रिस्टवाच' भी आई थी।
पर नहीं तराजू की डण्डी, कांटे को सम पर लाई थी॥
कोने में तभी सिसकियों की, देखा आवाज़ सुनाई दी।
कप्तान लक्ष्मी लिए एक, तरुणी को साथ दिखाई दी॥
उसका जूड़ा था खुला हुआ, आंखें सूजी थीं लाल-लाल!
इसके पति को युद्ध-स्थल में, कल निगल गया था कठिन काल!!
नेताजी ने टोपी उतार, उस महिला का सम्मान किया।
जिसने अपने प्यारे पति को, आज़ादी पर कुर्बान किया॥
महिला के कम्पित हाथों से, पलड़े में शीशफूल आया!
सौभाग्य चिह्न के आते ही, कांटा सहमा, कुछ थर्राया!
दर्शक जनता की आंखों में,आंसू छल-छल कर आए थे।
बाबू सुभाष ने रुद्ध कण्ठ से, यूं कुछ बोल सुनाए थे-
“हे बहन, देवता तरसेंगे, तेरे पुनीत पद-वन्दन को।
हम भारतवासी याद रखेंगे, तेरे करुणा-क्रन्दन को!!
पर पलड़ा अभी अधूरा था, सौभाग्य-चिह्न को पाकर भी।
थी स्वर्ण-राशि में अभी कमी, इतना बेहद ग़म खाकर भी॥
पर, वृद्धा एक तभी आई, जर्जर तन में अकुलाती-सी।
अपनी छाती से लगा एक, सुन्दर-चित्र छिपाती-सी॥
बोली, “अपने इकलौते का, मैं चित्र साथ में लाई हूं।
नेताजी, लो सर्वस्व मेरा, मैं बहुत दूर से आई हूं॥ “
वृद्धा ने दी तस्वीर पटक, शीशा चरमर कर चूर हुआ!
वह स्वर्ण-चौखटा निकल आप, उसमें से खुद ही दूर हुआ!!
वह क्रुद्ध सिंहनी-सी बोली, “बेटे ने फांसी खाई थी!
उसने माता के दूध-कोख को, कालिख नहीं लगाई थी!!
हां, इतना गम है, अगर कहीं, यदि एक पुत्र भी पाती मैं!
तो उसको भी अपनी भारत-माता की भेंट चढ़ाती मैं!!”
इन शब्दों के ही साथ-साथ, चौखटा तुला पर आया था!
हो गई तुला समतल, कांटा, झुक गया, नहीं टिक पाया था!!
बाबू सुभाष उठ खड़े हुए, वृद्धा के चरणों को छूते!
बोले, “मां, मैं कृतकृत्य हुआ, तुझ-सी माताओं के बूते!!
है कौन आज जो कहता है, दुश्मन बरबाद नहीं होगा!
है कौन आज जो कहता है, भारत आज़ाद नहीं होगा!!”
०००
मंगलवार, 25 अप्रैल 2023
गोपाल प्रसाद व्यास
शनिवार, 17 अप्रैल 2021
विरासत : गोपाल प्रसाद व्यास
कोरोना काल में आराम करने के फायदे जानिए हास्यावतार गोपाल प्रसाद व्यास से
* जन्म १३ फ़रवरी १९१५
* निधन २८ मई २००५
*जन्म स्थान महमदपुर, जिला मथुरा, उ. प्र ।
विविध शलाका सम्मान से सम्मानित।
कविता
* आराम करो , आराम करो *
एक मित्र बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो
क्या रक्खा माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।
आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है
आराम सुधा की एक बूँद, तन का दुबलापन खोती है
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।
यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ, है मज़ा मूर्ख कहलाने में
जीवन-जागृति में क्या रक्खा, जो रक्खा है सो जाने में।
मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ
दीप जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ
मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।
अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।
मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।
*
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020
विरासत : गोपाल प्रसाद व्यास
गुरुवार, 9 मई 2013
darohar sasural chalo gopal prasad vyas
हास्य रचना
ससुराल चलो
गोपाल प्रसाद व्यास
*
तुम बहुत बन लिए यार संत,
अब ब्रम्हचर्य में नहीं तंत,
क्यों दंड व्यर्थ में पेल रहे,
ससुराल चलो बुद्धू बसंत।
मुख में बीड़ा, कर में गजरा,
आँखों में मस्ताना कजरा,
कुर्ते में चुन्नट डाल चलो,
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
रूखे-रूखे से बाल चलो,
पिचके-पिचके से गाल चलो,
दो-दो चश्मे, छै-छै टोनिक,
दर्जन भर साथ रुमाल चलो,
स्लीपिंग टेबलेट, अमृतधारा,
कुछ च्यवनप्राश, शोधित पारा,
थैले में सब कुछ डाल चलो,
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
छोडो फ़ाइल, छोडो लैदर,
देखो कैसा जोली वैदर,
क्यों कलम अकेले रगड़ रहे?
हो जाओ वन से टूगैदर।
वे वहाँ पड़ीं, तुम यहाँ पड़े,
वे वहाँ छड़ीं, तुम यहाँ छड़े।
अर्जेंट आ गयी काल चलो,
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
मम्मी के मन के मून चलो,
डैडी के अफलातून चलो.
बंडी-बंडी बुश शर्ट पहन,
चिपकी-चिपकी पतलून चलो.
सींकिया सनम, मजनू माडल ,
आँखों पर बैलों सा गोगल।
जी नहीं नमस्ते, कहो 'हलो'
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
साली से गाली खाने को,
सरहज का लहजा पाने को,
उनकी सखियों से नजर बचा,
कतराने को, इतराने को,
मनचले चलो, मन छले चलो
मन मले चलो, मन जले
भावों में लिए उबाल चलो
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*
लो नयी ट्यून सीखो मिस्टर,
डारा डारा डररर डररर.
फिल्मों के नए नाम रट लो,
शौक़ीन बहुत उनकी सिस्टर।
वे शर्मीलीन, तुम शर्मीले,
मत ट्विस्ट करो ढीले-ढीले।
हो चुस्त-चपल, वाचाल चलो
ससुराल चलो, ससुराल चलो...
*