गीत :
मैं अकेली लड़ रही थी
- संजीव 'सलिल'
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
सामने सागर मिला तो, थम गये थे पग तुम्हारे.
सिया को खोकर कहो सच, हुए थे कितने बिचारे?
जो मिला सब खो दिया, जब रजक का आरोप माना-
डूब सरयू में गये, क्यों रुक न पाये पग किनारे?
छूट मर्यादा गयी कब
क्यों नहीं अनुमान पाये???.....
*
समय को तुमने सदा, निज प्रशंसा ही सुनाई है.
जान यह पाये नहीं कि, हुई जग में हँसाई है..
सामने तव द्रुपदसुत थे, किन्तु पीछे थे धनञ्जय.
विधिनियंता थे-न थे पर, राह तुमने दिखायी है..
जानते थे सच न क्यों
सच का कभी कर गान पाये???.....
*
हथेली पर जान लेकर, क्रांति जो नित रहे करते.
विदेशी आक्रान्ता को मारकर जो रहे मरते..
नींव उनकी थी, इमारत तुमने अपनी है बनायी-
हाय! होकर बागबां खेती रहे खुद आप चरते..
श्रम-समर्पण का न प्रण क्यों
देश के हित ठान पाये.....
*
'आम' के प्रतिनिधि बने पर, 'खास' की खातिर जिए हो.
चीन्ह् कर बाँटी हमेशा, रेवड़ी- पद-मद पिए हो..
सत्य कर नीलाम सत्ता वरी, धन आराध्य माना.
झूठ हर पल बोलते हो, सच की खातिर लब सिये हो..
बन मियाँ मिट्ठू प्रशंसा के
स्वयं ही गान गाये......
*
मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, आस्था-निष्ठा अजय हूँ.
आत्मा हूँ अमर-अक्षय, सृजन संधारण प्रलय हूँ.
पवन धरती अग्नि नभ हूँ, 'सलिल' हूँ संचेतना मैं-
द्वैत मैं, अद्वैत मैं, परमात्म में होती विलय हूँ..
कर सके साक्षात् मुझसे
तीर कब संधान पाए?.....
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
www.divyanarmada.in
#हिंदी_ब्लॉगर
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
गीत तुम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
गीत तुम लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
शनिवार, 27 मार्च 2021
गीत
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ (Atom)