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रविवार, 2 जुलाई 2023

ग्रंथि छंद, चित्रगुप्त, मुक्तिका, नवगीत, अमरेंद्र नारायण, विदग्ध, दोहा, मुक्तिका, नवगीत, पोएम, सूरज, प्रेम

 महामानव अमरेंद्र नारायण

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
इस कलिकाल में आदमी तो बहुत मिलते हैं। जहाँ देखिये वहीं भीड़ और शोर लेकिन मानव खोजना कठिन है। बकौल ग़ालिब "आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।" ऐसे समय में किसी महामानव से मिलना हो तो आइये जबलपुर। मैं आपको ले चलूँगा अग्रजवत अमरेंद्र नारायण जी के दर्शन कराने। प्रथम भेंट में आपको यही अनुभव होगा कि आप किसी 'सामान्य जन' से मिल रहे हैं जिसे बापू 'आम आदमी' कहते थे। जैसे जैसे आप अंतरंग होंगे आपको अमरेंद्र नारायण जी की असाधारणता की प्रतीति होती जाएगी।
अमरेंद्र नारायण जी 'सादा जीवन उच्च विचार' का जीवन सूत्र कहते नहीं जीते हैं। वे 'सत्यंब्रूयात प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यं अप्रियम' के जीवंत उदाहरण हैं। 'कोकिलकंठी' विशेषण सामान्यत: महिलाओं के लिए प्रयुक्त होता है, मुझे नहीं मालूम इसे किसी पुरुष के लिए प्रयोग करना चाहिए या नहीं पर मैं अमरेंद्र नारायण जी के लिए इसे प्रयोग कर सकता हूँ। कोयल के स्वर की मिठास अमरेंद्र जी की वाणी का अभिन्न अंग है। वे सहजता, सरलता, सादगी, अपनत्व, बड़प्पन, तकनीकी निपुणता तथा कारयित्री प्रतिभा के सतरंगी इंद्रधनुष को आत्मसात कर सृजन और सम्मान के शिखर पर हैं।
अभियंता गौरव अमरेंद्र नारायण जी देश ही नहीं विश्व के प्रतिष्ठित दूर संचार अभियंता हैं जो देश में ही नहीं देश के बाहर एशिया-प्रशांत क्षेत्र के अंतर्राष्ट्रीय पैसिफिक दूर संचार संगठन एशिया पेसिफिक टेलिकम्युनिटी के महासचिव के नाते संयुक्त राष्ट्र संघ की विशेष एजेंसी अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार संगठन द्वारा वैयक्तिक रजत पदक तथा संस्थागत स्वर्ण पदक से सम्मानित विभूति हैं।
लिपि-लेखनी-अक्षर दाता कर्मफल दाता देव चित्रगुप्त प्रणीत कायस्थ कुल में जन्मे अमरेंद्र नारायण जी पर माँ सरस्वती का वरद हस्त हमेशा रहा उनकी बहुमुखी लेखन सामर्थ्य तकनीकी परियोजनाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी उपन्यास 'फ्रेगरेंस बियोंड बॉर्डर्स', इसके उर्दू अनुवाद सरहदों के पार, म. गाँधी के प्रथम चम्पारण सत्याग्रह पर आधृत औपन्यासिक कृति 'संघर्ष' तथा राष्ट्र निर्माण में सरदार पटेल के अभूतपूर्व अवदान पर केंद्रित उपन्यास 'एकता और शक्ति' हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ कृतियाँ हैं जिनका सही मूल्यांकन भविष्य में होगा। इसके पूर्व पांच काव्य कृतियों सिर्फ एक लालटेन जलती है, अनुभूति, थोड़ी बारिश दो, तुम्हारा भी मेरा भी, और श्री हनुमत श्रद्धा सुमन द्वारा कवि अमरेंद्र नारायण पाठक पंचायत में प्रतिष्ठित हो चुके हैं।
अग्रजवत अमरेंद्र नारायण जी का एक और रूप विश्ववाणी हिंदी के प्रसार के प्रति समर्पित सेवक का भी है। थाईलैंड हिंदी परिषद के माध्यम से वे हिंदी को जगवाणी बनाने की दिशा में सक्रिय रहे हैं। मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनका स्नेहाशीष प्राप्त है। एक अभियंता, एक कवि, एक सामाजिक कार्यकर्ता, एक प्रकृति प्रेमी, एक देशभक्त नागरिक, एक समर्पित हिंदी प्रेमी और इन सबसे बढ़कर एक सह्रदय इंसान के रूप में वे मेरे आदर्श हैं। उनके अंगुली पकड़कर कुछ कदम चल सकूँ, उनका आशीष पा सकूँ तो मैं स्वयं को धन्य मानूँगा।
अपने अनुजों के प्रति उनकी सहृदयता असीम है। अपनी बहुआयामी व्यस्तता के बावजूद अमरेंद्र नारायण जी ने मेरे दोनों नवगीत संकलनों 'काल है संक्रान्ति का' तथा 'सड़क पर' की समीक्षाएँ लिखीं हैं। मुझे इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर के चैयरमैन के नाते और इंटेक जबलपुर के कार्यकारिणी सदस्य के नाते उनका सहयोग हमेश सुलभ रहा है। विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के संयोजक-संचालक के नाते मुझे उनका मार्गदर्शन ही नहीं सक्रिय सहयोग और प्रभावी विमर्श मिलता रहा है। उनके बारे में कहने के लिए शब्द कम पड़ते हैं।
मानव मणि 'अमरेंद्र' जी, 'नारायण' अवतार
कली में प्रगटे कर सकें, हिंदी का उद्धार
हिंदी का उद्धार, करें नित श्रेष्ठ सुरचना
तकनीकी सामर्थ्य, असाधारण है लिखना
कहे 'सलिल संजीव', आपका अद्भुत लाघव
नहीं आप सा अन्य, नमन वंदन अति मानव
***
- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', संचालक विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४, ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com
***
साहित्यिक नवाचार के अग्रदूत सलिल
प्रोफेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव विदग्ध
*
साहित्य का क्षेत्र आकाश जैसा असीम विस्तृत तथा व्यापक है। मानव मन प्रकृति की अनमोल देन है। वह एक क्षण में सकल ब्रह्मांड का विचरण कर सब कुछ देखकर उसका वर्णन कर सकता है जो किसी भी अन्य सत्ता के द्वारा असंभव है। इसीलिए ऐसे मन के स्वामी साहित्यकार को एक अनोखे सृजनकर्ता का सम्मान इस संसार ने दिया है।
विश्व के हर देश में, तथा हर देश-काल में ऐसे महान साहित्यकार हुए हैं जिनके जाने के बाद सदियाँ बीत गईं पर उनके नाम और यश उनकी साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से आज भी अमर हैं। मन का काम सोचना-विचारना तथा गहन चिंतन-मनन करना है, यह प्रक्रिया सभी के मन में निरंतर चलती रहती है पर सभी अपने मनोभाव शब्दों में व्यक्त नहीं कर पाते हैं। प्रकृति ने यह सामर्थ्य कुछ गिने-चुने व्यक्तियों को दी है। इसी ऊर्जा से साहित्यकार अपने मन के भावों को विभिन्न विधाओं में व्यक्त करता है। जिन महान रचनाकारों के विचार समाज को मार्गदर्शन और लाभ देते हैं, ऐसे ग्रंथ और उनके रचनाकार चिरस्मरणीय होते हैं। भारत में रामायण और महाभारत ऐसे ही पवित्र ग्रंथ हैं जिन्हें युगों से भारत पूजता और मानता आया है और उनके रचनाकार महात्मा वाल्मीकि और महात्मा व्यास जन-मन में आदर भाव से बसे हुए हैं ।
लोकहित की भावना से यही कार्य हर छोटा-बड़ा साहित्यकार आज भी करता है। श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी संस्कारधानी जबलपुर के एक लब्ध प्रतिष्ठ साहित्यकार हैं। उन्होंने अनेकों पुस्तकों की रचना की है। भाषा, पिंगल तथा तकनीकी लेखन के क्षेत्र में वे महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। अनेकों साहित्यकारों को प्रकाश में लाने का श्रेय उन्हें है। नर्मदा मासिक पत्रिका का संपादन कर सलिल जी ने देशव्यापी तथा अंतरजाल पर दिव्य नर्मदा हिंदी पत्रिका के माध्यम से विश्व व्यापी ख्याति अर्जित की है। वे गत ५ दशकों से साहित्य श्रीजन तथा हिंदी भाषा के परिष्कार व् प्रसार की दिशा में निरंतर कार्यरत हैं। वर्तमान में दोहा शतक मंजूषा शीर्षक के अन्तर्गत ३ दोहावलियों का प्रकाशन कर सलिल जी ने देश के दूरस्थ अंचलों के दोहाकारों के दोनों को को संकलित, संशोधित, प्रकाशित कर उन्हें साहित्य जगत में चमकते सितारों का रूप दिया है। उनका साहित्य प्रेम न केवल प्रशंसनीय अपितु अनुकरणीय है। हिंदी के प्रथम सवैया कोष तथा छंद कोष जैसे कार्य सलिल जी को कालजयी कीर्ति देंगे। व्यक्तिगत रूप से सलिल जी को मैं ४ दशकों से जानता हूँ और उनके सराहनीय साहित्यिक-सामाजिक प्रयासों का हमेशा से मूक प्रशंसक रहा हूँ। साहित्य सृजन के समानांतर सामाजिक कुरीति उन्मूलन, नवजागरण तथा पर्यावरण सुधार की उनकी सतत निस्वार्थ साधना प्रदेश और देश में बहुश्रुत-बहुप्रशंसित है। वे समकालिक साहित्यिक नवाचार के अग्रदूत हैं।
मैं उन्हें आशीर्वाद देता हूँ और उनके शतायु होने की कामना करते हुए हिंदी साहित्य को सतत समृद्ध करने की आशा करता हूँ।
[लेखक परिचय : श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद। गीता, रघुवंश व मेघदूत के काव्यानुवाद सहित २५ कृतियाँ प्रकाशित।संपर्क : गली नंबर १, विद्युत मंडल कॉलोनी, शिला कुंज, नयागाँव, जबलपुर ४८२००१ चलभाष ७०००३७५७९८]
***

छंद चर्चा:

दोहा गोष्ठी:
*
सूर्य-कांता कह रही, जग!; उठ कर कुछ काम।
चंद्र-कांता हँस कहे, चल कर लें विश्राम।।
*
सूर्य-कांता भोर आ, करती ध्यान अडोल।
चंद्र-कांता साँझ सँग, हँस देती रस घोल।।
*
सूर्य-कांता गा रही, गौरैया सँग गीत।
चंद्र-कांता के हुए, जगमग तारे मीत।।
*
सूर्य-कांता खिलखिला, हँसी सूर्य-मुख लाल।
पवनपुत्र लग रहे हो, किसने मला गुलाल।।
*
चंद्र-कांता मुस्कुरा, रही चाँद पर रीझ।
पिता गगन को देखकर, चाँद सँकुचता खीझ।।
*
सूर्य-कांता मुग्ध हो, देखे अपना रूप।
सलिल-धार दर्पण हुई, सलिल हो गया भूप।।
*
चंद्र-कांता खेलती, सलिल-लहरियों संग।
मन मसोसता चाँद है, देख कुशलता दंग।।
*
सूर्य-कांता ने दिया, जग को कर्म सँदेश।
चंद्र-कांता से मिला, 'शांत रहो' निर्देश।।
२-७-२०१८
टीप: उक्त द्विपदियाँ दोहा हैं या नहीं?, अगर दोहा नहीं क्या यह नया छंद है?
मात्रा गणना के अनुसार प्रथम चरण में १२ मात्राएँ है किन्तु पढ़ने पर लय-भंग नहीं है। वाचिक छंद परंपरा में ऐसे छंद दोषयुक्त नहीं कहे जाते, चूँकि वाचन करते हुए समय-साम्य स्थापित कर लिया जाता है।
कथ्य के पश्चात ध्वनिखंड, लय, मात्रा व वर्ण में से किसे कितना महत्व मिले? आपके मत की प्रतीक्षा है।
***
मुक्तिका
*
उन्नीस मात्रिक महापौराणिक जातीय ग्रंथि छंद
मापनी: २१२२ २१२२ २१२
*
खौलती खामोशियों कुछ तो कहो
होश खोते होश सी चुप क्यों रहो?
*
स्वप्न देखो तो करो साकार भी
राह की बढ़ा नहीं चुप हो सहो
*
हौसलों के सौं नहीं मन मारना
हौसले सौ-सौ जियो, मत खो-ढहो
*
बैठ आधी रात संसद जागती
चैन की लो नींद, कल कहना अहो!
*
आ गया जी एस टी, अब देश में
साथ दो या दोष दो, चुप तो न हो
***
चिंतन और चर्चा-
चित्रगुप्त और कायस्थ
*
चित्रगुप्त अर्थात वह शक्ति जिसका चित्र गुप्त (अनुपलब्ध) है अर्थात नहीं है। चित्र बनाया जाता है आकार से, आकार काया (बॉडी) का होता है। काया बनती और नष्ट होती है। काया बनानेवाला, उसका उपयोग करनेवाला और उसे नष्ट करनेवाला कोई अन्य होता है। काया नश्वर होती है। काया का आकार (शेप) होता है जिसे मापा, नापा या तौला जा सकता है। काया का चित्र गुप्त नहीं प्रगट या दृश्य होता है। चित्रगुप्त का आकार तथा परिमाप नहीं है। स्पष्ट है कि चित्रगुप्त वह आदिशक्ति है जिसका आकार (शेप) नहीं है अर्थात जो निराकार है. आकार न होने से परिमाप (साइज़) भी नहीं हो सकता, जो किसी सीमा में नहीं बँधता वही असीम होता है और मापा नहीं जा सकता।आकार के बनने और मिटने की तिथि और स्थान, निर्माता तथा नाशक होते हैं। चित्रगुप्त निराकार अर्थात अनादि, अनंत, अक्षर, अजर, अमर, असीम, अजन्मा, अमरणा हैं। ये लक्षण परब्रम्ह के कहे गए हैं। चित्रगुप्त ही परब्रम्ह हैं।
.
"चित्रगुप्त प्रणम्यादौ वात्मानं सर्वदेहिनां" उन चित्रगुप्त को सबसे पहले प्रणाम जो सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विराजमान हैं। 'आत्मा सो परमात्मा' अत: चित्रगुप्त ही परमात्मा हैं। इसलिए चित्रगुप्त की कोई मूर्ति, कथा, कहानी, व्रत, उपवास, मंदिर आदि आदिकाल से ३०० वर्ष पूर्व तक नहीं बनाये गए जबकि उनके उपासक समर्थ शासक-प्रशासक थे। जब-जिस रूप में किसी दैवीय शक्ति की पूजा, उपासना, व्रत, कथा आदि हुई वह परोक्षत: चित्रगुप्त जी की ही हुई क्योंकि उनमें चित्रगुप्त जी की ही शक्ति अन्तर्निहित थी। विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारतीय शिक्षा संस्थानों को नष्ट करने और विद्वानों की हत्या के फलस्वरूप यह अद्वैत चिन्तन नष्ट होने लगा और अवतारवाद की संकल्पना हुई। इससे तात्कालिक रूप से भक्ति के आवरण में पीड़ित जन को सान्तवना मिली किन्तु पुष्ट वैचारिक आधार विस्मृत हुआ।अन्य मतावलंबियों का अनुकरण कर निराकार चित्रगुप्त की भी साकार कल्पना कर मूर्तियाँ और मंदिर बांये गए। वर्तमान में उपलब्ध सभी मूर्तियाँ और मंदिर मुग़ल काल और उसके बाद के हैं जबकि कायस्थों का उल्लेख वैदिक काल से है।
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"कायास्थित: स: कायस्थ:' अर्थात जब वह (परब्रम्ह) किसी काया में स्थित होता है तो उसे कायस्थ कहते हैं" तदनुसार सकल सृष्टि और उसका कण-कण कायस्थ है। मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, वनस्पतियाँ और अदृश्य जीव-जंतु भी कायस्थ है। व्यावहारिक दृष्टि से इस अवधारणा को स्वीकारकर जीनेवाला ही 'कायस्थ' है। तदनुसार कायस्थवाद मानवतावाद और वैशिवाकता से बहुत आगे सृष्टिवाद है। 'वसुधैव कुटुम्बकम', 'विश्वेनीडम', 'ग्लोबलाइजेशन', वैश्वीकरण आदि अवधारणायें कायस्थवाद का अंशमात्र है। अपने उदात्त रूप में 'कायस्थ' विश्व मानव है।
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देवता: वेदों में ३३ प्रकार के देवता (१२ आदित्य, १८ रूद्र, ८ वसु, १ इंद्र, और प्रजापति) ही नहीं श्री देवी, उषा, गायत्री आदि अन्य अनेक और भी अन्य पूज्य शक्तियाँ वर्णित हैं। मूलत: प्राकृतिक शक्तियों को दैवीय (मनुष्य के वश में न होने के कारण) देवता माना गया। इनके अमूर्त होने के कारण इनकी शक्तियों के स्वामी की कल्पना कर वरुण आदि देवों और देवों के राजा की कल्पना हुई। अमूर्त को मूर्त रूप देने के साथ मनुष्य आकृति और मनुष्य के गुणावगुण उनमें आरोपित कर अनेक कल्पित कथाएँ प्रचलित हुईं।प्रवचनकर्ताओं की इं कल्पित कथाओं ने यजमानों को संतोष और कथा वाचक को उदार पोषण का साधन तो दिया किन्तु धर्म की वैज्ञानिकता और प्रमाणिकता को नष्ट भी किया।
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आत्मा सो परमात्मा, अयमात्मा ब्रम्ह, कंकर सो शंकर, कंकर-कंकर में शंकर, शिवोहं, अहम ब्रम्हास्मि जैसी उक्तियाँ तो हर कण को ईश्वर कहती हैं। आचार्य रजनीश ने खुद को 'ओशो' कहा और आपत्तिकर्ताओं को उत्तर दिया कि तुम भी 'ओशो' हो अंतर यह है कि मैं जानता हूँ कि मैं 'ओशो' हूँ, तुम नहीं जानते। हर व्यक्ति अपने वास्वतिक दिव्य रूप को जानकार 'ओशो' हो सकता है।
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रामायण महाभारत ही नहीं अन्य वेद, पुराण, उपनिषद, आगम, निगम, ब्राम्हण ग्रन्थ आदि भी न केवल इतिहास हैं, न आख्यान या गल्प। भारत में सृजन दार्शनिक चिंतन पर आधारित रहा है। ग्रंथों में पश्चिम की तरह व्यक्तिपरकता नहीं है, यहाँ मूल्यात्मक चिंतन प्रमुख है। दृष्टान्तों या कथाओं का प्रयोग किसी चिंतनधारा को आम लोगों तक प्रत्यक्ष या परोक्षतः पहुँचाने के लिए किया गया है। अतः, सभी ग्रंथों में इतिहास, आख्यान, दर्शन और अन्य शाखाओं का मिश्रण है।
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देवताओं को विविध आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है। यथा: जन्मा - अजन्मा, आर्य - अनार्य, वैदिक, पौराणिक, औपनिषदिक, सतयुगीन - त्रेतायुगीन - द्वापरयुगीन कलियुगीन, पुरुष देवता- स्त्री देवता, सामान्य मनुष्य की तरह - मानवेतर, पशुरूपी-मनुष्यरूपी आदि।यह भी सत्य है की देवता और दानव, सुर और असुर कहीं सहोदर और कहीं सहोदर न होने पर भी बंधु-बांधव हैं। सर्व सामान्य के लिए शुभकारक हुए तो देव, अशुभकारक हुए तो दानव। शुभ और अशुभ दोनों ही कर्म हैं। कर्म है तो उसका फल और फलदाता भी होगा ही। सकल प्राकृतिक शक्तियों, उनके स्वामियों और स्वामियों के विरोधियों के साथ-साथ जनसामान्य और प्राणिमात्र के कर्मों के फल का निर्धारण वही कर सकता है जिसने उन्हें उत्पन्न किया हो। इसलिए चित्रगुप्त ही कर्मफल दाता या पाप-पुण्य नियामक है।
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फल देनेवाले या सर्वोच्च निर्णायक को निष्पक्ष भी होना होगा। वह अपने आराधकों के दुर्गुण क्षमा करे और अन्यों के सद्गुणों को भुला दे, यह न तो उचित है, न संभव। इसलिए उसे सकल पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार, कथा-वार्ता, यज्ञ-हवन आदि मानवीय उपासनापद्धतियों से ऊपर और अलग रखना ही उचित है। ये सब मनुष्य के करती हैं जिन्हें मनुष्येतर जीव नहीं कर सकते। मनुष्य और मनुष्येतर जीवों के कर्म के प्रति निष्पक्ष रहकर फल निर्धारण तभी संभव है जब निर्णायक इन सबसे दूर हो। चित्र गुप्त को इसीलिए कर्म काण्ड से नहीं जोड़ा गया। कालांतर में अन्यों की नकल कर और अपने वास्विक रूप को भूलकर भले ही कायस्थ इस ओर प्रवृत्त हुए।
२-७-२०१७
***
एक रचना
*
येन-केन जीते चुनाव हम
बनी हमारी अब सरकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
*
हम भाषा के मालिक, कर सम्मेलन ताली बजवाएँ
टाँगें चित्र मगर रचनाकारों को बाहर करवाएँ
है साहित्य न हमको प्यारा, भाषा के हम ठेकेदार
भाषा करे विरोध न किंचित, छीने अंक बिना आधार
अंग्रेजी के अंक थोपकर, हिंदी पर हम करें प्रहार
भेज भाड़ में उन्हें, आज जो हैं हिंदी के रचनाकार
लिखो प्रशंसा मात्र हमारी
जो, हम उसके पैरोकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
*
जो आलोचक उनकी कलमें तोड़, नष्ट कर रचनाएँ
हम प्रशासनिक अफसर से, साहित्य नया ही लिखवाएँ
अब तक तुमने की मनमानी, आई हमारी बारी है
तुमसे ज्यादा बदतर हों हम, की पूरी तैयारी है
सचिवालय में भाषा गढ़ने, बैठा हर अधिकारी है
छुटभैया नेता बन बैठा, भाषा का व्यापारी है
हमें नहीं साहित्य चाहिए,
नहीं असहमति है स्वीकार
कोई न रोके, कोई न टोके
करना हमको बंटाढार
२-७-२०१६
***
नवगीत:
*
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
चैन तुम बिन?
नहीं गवारा है.
दर्द जो भी मिले
मुझे सहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
रात-दिन बिन
रुके पुकारा है
याद की चादरें
रुचा तहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
मुस्कुरा दो कि
कल हमारा है
आसुँओं का न
पहनना गहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
हर कहीं तुझे
ही निहारा है
ढाई आखर ही
तुझसे है कहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
*
दिल ने दिल को
सतत गुहारा है
बूँद बन 'सलिल'
संग ही बहना
आँख की किरकिरी
बने रहना
***
मुक्तिका:
संजीव
*
हाथ माटी में सनाया मैंने
ये दिया तब ही बनाया मैंने
खुद से खुद को न मिलाया मैंने
या खुदा तुझको भुलाया मैंने
बिदा बहनों को कर दिया लेकिन
किया उनको ना पराया मैंने
वक़्त ने लाखों दिये ज़ख्म मगर
नहीं बेकस को सताया मैंने
छू सकूँ आसमां को इस खातिर
मन को फौलाद बनाया मैंने
***
कविता-प्रतिकविता
* रामराज फ़ौज़दार 'फौजी'
जाने नहिं पीर न अधीरता को मान करे
अइसी बे-पीर से लगन लगि अपनी
अपने ही चाव में, मगन मन निशि-दिनि
तनिक न सुध करे दूसरे की कामिनी
कठिन मिताई के सताये गये 'फौजी' भाई
समय न जाने, गाँठे रोब बड़े मानिनी
जीत बने न बने मरत कहैं भी कहा
जाने कौन जन्मों की भाँज रही दुश्मनी
*
संजीव
राम राज सा, न फौजदार वन भेज सके
काम-काज छोड़ के नचाये नाच भामिनि
कामिनी न कोई आँखों में समा सके कभी
इसीलिये घूम-घूम घेरे गजगामिनी
माननी हो कामिनी तो फ़ौजी कर जोड़े रहें
रूठ जाए 'मावस हो, पूनम की यामिनी
जामिनि न कोई मिले कैद सात जनमों की
दे के, धमका रही है बेलन से नामनी
(जामनी = जमानत लेनेवाला, नामनी = नामवाला, कीर्तिवान)
२-७-२०१५ ***
छंद सलिला:
​सवाई /समान छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति लाक्षणिक, प्रति चरण मात्रा ३२ मात्रा, यति १६-१६, पदांत गुरु लघु लघु ।
लक्षण छंद:
हर चरण समान रख सवाई / झूम झूमकर रहा मोह मन
गुरु लघु लघु ले पदांत, यति / सोलह सोलह रख, मस्त मगन
उदाहरण:
१. राय प्रवीण सुनारी विदुषी / चंपकवर्णी तन-मन भावन
वाक् कूक सी, केश मेघवत / नैना मानसरोवर पावन
सुता शारदा की अनुपम वह / नृत्य-गान, शत छंद विशारद
सदाचार की प्रतिमा नर्तन / करे लगे हर्षाया सावन
२. केशवदास काव्य गुरु पूजित,/ नीति धर्म व्यवहार कलानिधि
रामलला-नटराज पुजारी / लोकपूज्य नृप-मान्य सभी विधि
भाषा-पिंगल शास्त्र निपुण वे / इंद्रजीत नृप के उद्धारक
दिल्लीपति के कपटजाल के / भंजक- त्वरित बुद्धि के साधक
३. दिल्लीपति आदेश: 'प्रवीणा भेजो' नृप करते मन मंथन
प्रेयसि भेजें तो दिल टूटे / अगर न भेजें_ रण, सुख भंजन
देश बचाने गये प्रवीणा /-केशव संग करो प्रभु रक्षण
'बारी कुत्ता काग मात्र ही / करें और का जूठा भक्षण
कहा प्रवीणा ने लज्जा से / शीश झुका खिसयाया था नृप
छिपा रहे मुख हँस दरबारी / दे उपहार पठाया वापि
२-७-२०१३
***
दोस्त / FRIEND
दोस्त
POEM : FRIEND
You came into my life as an unwelcome face,
Not ever knowing our friendship, I would one day embrace.
As I wonder through my thoughts and memories of you,
It brings many big smiles and laughter so true.
I love the special bond that we beautifully share,
I love the way you show you really care,
Our friendship means the absolute world to me,
I only hope this is something I can make you see.
Thankyou for opening your mind and your souls,
I wiee do all I can to help heal your hearts little holes.
Remember, your secrects are forever safe within me,
I will keep them under the tightest lock and key.
Thankyou for trusting me right from the start.
You truely have got a wonderful heart.
I am now so happy I felt that embrace.
For now I see the beauty of my best friend's face...
*********************
***
SMILE ALWAYS
Inside the strength is the laughter.
Inside the strength is the game.
Inside the strength is the freedom.
The one who knows his strength knows the paradise.
All which appears over your strengths is not necessarily Impossible,
but all which is possible for the human cannot be over your strengths.
Know how to smile :
What a strength of reassurance,
Strength of sweetness, peace,
Strength of brilliance !
May the wings of the butterfly kiss the sun
and find your shoulder to light on...
to bring you luck
happiness and cheers
smile always
२-७-२०१२
***
-: मुक्तिका :-
सूरज - १
*
उषा को नित्य पछियाता है सूरज.
न आती हाथ गरमाता है सूरज..
धरा समझा रही- 'मन शांत करले'
सखी संध्या से बतियाता है सूरज..
पवन उपहास करता, दिखा ठेंगा.
न चिढ़ता, मौन बढ़ जाता है सूरज..
अरूपा का लुभाता रूप- छलना.
सखी संध्या पे मर जाता है सूरज..
भटककर सच समझ आता है आखिर.
निशा को चाह घर लाता है सूरज..
नहीं है 'सूर', नाता नहीं 'रज' से
कभी क्या मन भी बहलाता है सूरज?.
करे निष्काम निश-दिन काम अपना.
'सलिल' तब मान-यश पाता है सूरज..
*
सूरज - २
चमकता है या चमकाता है सूरज?
बहुत पूछा न बतलाता है सूरज..
तिमिर छिप रो रहा दीपक के नीचे.
कहे- 'तन्नक नहीं भाता है सूरज'..
सप्त अश्वों की वल्गाएँ सम्हाले
कभी क्या क्लांत हो जाता है सूरज?
समय-कुसमय सभी को भोगना है.
गहन में श्याम पड़ जाता है सूरज..
न थक-चुक, रुक रहा, ना हार माने,
डूब फिर-फिर निकल आता है सूरज..
लुटाता तेज ले चंदा चमकता.
नया जीवन 'सलिल' पाता है सूरज..
'सलिल'-भुजपाश में विश्राम पाता.
बिम्ब-प्रतिबिम्ब मुस्काता है सूरज..
*
सूरज - ३
शांत शिशु सा नजर आता है सूरज.
सुबह सचमुच बहुत भाता है सूरज..
भरे किलकारियाँ बचपन में जी भर.
मचलता, मान भी जाता है सूरज..
किशोरों सा लजाता-झेंपता है.
गुनगुना गीत शरमाता है सूरज..
युवा सपने न कह, खुद से छिपाता.
कुलाचें भरता, मस्ताता है सूरज..
प्रौढ़ बोझा उठाये गृहस्थी का.
देख मँहगाई डर जाता है सूरज..
चांदनी जवां बेटी के लिये वर
खोजता है, बुढ़ा जाता है सूरज..
न पलभर चैन पाता ज़िंदगी में.
'सलिल' गुमसुम ही मर जाता है सूरज..
२-७-२०११
***
गीत:
प्रेम कविता...
*
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम कविता को लिखा जाता नहीं है.
प्रेम होता है किया जाता नहीं है..
जन्मते ही सुत जननि से प्रेम करता-
कहो क्या यह प्रेम का नाता नहीं है?.
कृष्ण ने जो यशोदा के साथ पाला
प्रेम की पोथी का उद्गाता वही है.
सिर्फ दैहिक मिलन को जो प्रेम कहते
प्रेममय गोपाल भी
क्या दिख सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
प्रेम से हो क्षेम?, आवश्यक नहीं है.
प्रेम में हो त्याग, अंतिम सच यही है..
भगत ने, आजाद ने जो प्रेम पाला.
ज़िंदगी कुर्बान की, देकर उजाला.
कहो मीरां की करोगे याद क्या तुम
प्रेम में हो मस्त पीती गरल-प्याला.
और वह राधा सुमिरती श्याम को जो
प्रेम क्या उसका कभी
कुछ चुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
*
अपर्णा के प्रेम को तुम जान पाये?
सिया के प्रिय-क्षेम को अनुमान पाये?
नर्मदा ने प्रेम-वश मेकल तजा था-
प्रेम कैकेयी का कुछ पहचान पाये?.
पद्मिनी ने प्रेम-हित जौहर वरा था.
शत्रुओं ने भी वहाँ थे सिर झुकाए.
प्रेम टूटी कलम का मोहताज क्यों हो?
प्रेम कब रोके किसी के
रुक सका है?
प्रेम कविता कब कलम से
कभी कोई लिख सका है?
२-७-२०१०
*

शुक्रवार, 29 जुलाई 2022

सॉनेट,हिंदी,शिवतांडव,लघुकथा,नवगीत,पोएम, रिवर


सॉनेट 
मर्यादा
मंत्री जी मर्यादा भूले
इसकी गलती, उस पर वार 
बढ़ा रहे खुद ही तकरार
अहंकार झूले में झूले

चीख-चीख कर करते बात
सत्य-तथ्य का तनिक न जिक्र 
स्वार्थ साधने की है फिक्र
मर्यादा पर कर आघात 

सांसद जी की जुबां फिसलती 
अवसर मिल जाता औरों को
लापरवाह करें क्यों गलती 

सभाध्यक्ष निष्पक्ष न रहते
है विश्वास न सँग विपक्ष का
रीति-नीति निज दल की कहते
२९-७-२०२२
•••
सॉनेट 
प्रभुता
प्रभुता पाहि काहि मद नाहीं 
सत्य यही, अपवाद नहीं तुम
आक्रामकता से गलबाँही
सुनते हो फरियाद नहीं तुम

फल पाकर तरु झुक, तज देता
फल पाकर मनु घमंड कर तनता
चुप रह, दे पटकी तब जनता
 समय बदलता, साथ न देता

विनय, विनय का त्याग मत करो
अपने घर को राख मत करो
मिट्टी अपनी साख मत करो

हम सब एक देश के वासी
समझ सभी में अच्छी-खासी
सिर्फ श्वास को स्वार्थ मत करो
२९-७-२०२२
•••

***
विमर्श
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ईरान की प्राचीन भाषा अवेस्ता में ‘स्’ ध्वनि नहीं बोली जाती थी। ‘स्’ को ‘ह्’ रूप में बोला जाता था। जैसे संस्कृत के ‘असुर’ शब्द को वहाँ ‘अहुर’ कहा जाता था। अफ़गानिस्तान के बाद सिन्धु नदी के इस पार हिन्दुस्तान के पूरे इला़के को प्राचीन फ़ारसी साहित्य में भी ‘हिन्द’, ‘हिन्दुश’ के नामों से पुकारा गया है। यहाँ की किसी भी वस्तु, भाषा, विचार को ‘एडजेक्टिव’ के रूप में ‘हिन्दीक’ कहा गया है जिसका मतलब है ‘हिन्द का’। यही ‘हिन्दीक’ शब्द अरबी से होता हुआ ग्रीक में ‘इंदिके’, ‘इंदिका’, लैटिन में ‘इंदिया’ तथा अंग्रेजी में ‘इंडिया’ बन गया। यह हिन्दी एवं इंडिया शब्दों की व्युत्पत्ति का भाषावैज्ञानिक इतिहास है।
अवेस्ता तथा ‘डेरियस के शिलालेख’ में ( ५२२ से ४८६ ईस्वी पूर्व ) में ‘हिन्दु’ शब्द का प्रयोग ‘सिंध’ के समीपवर्ती क्षेत्र के निवासियों के लिए हुआ है। ‘हिन्द’ शब्द धीरे-धीरे भारत में रहने वाले निवासियों तथा फिर पूरे भारत के लिए होने लगा। भारत की भाषाओं के लिए ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ईरान के बादशाह नौशेरवाँ के काल में ( ५३१ - ५७९ ईस्वी ) उसके एक दरबारी कवि द्वारा संस्कृत भाषा के ‘पंचतंत्र’ के ईरानी भाषा ‘पहलवी’ में किए गए अनुवाद ‘कलीलहउदिमना’ में पंचतंत्र की भाषा को ‘जबान-ए-हिन्दी’ कहा गया है। सातवीं शताब्दी में महाभारत के कुछ अंशों का पहलवी में अनुवाद करने वाले विद्वान ने मूल भाषा को ‘जबान-ए-हिन्दी’ कहा है। दसवीं शताब्दी में अब्दुल हमीद ने भी पंचतंत्र की भाषा को ‘हिन्दी’ कहा है। तेरहवीं शताब्दी में मिनहाजुस्सिराज द्वारा अपने ग्रन्थ ‘तबकाते नासरी’ में भारतीय देसी भाषाओं के लिए ‘जबाने हिन्दी’ शब्द का प्रयोग किया है। इस प्रकार दसवीं - ग्यारहवीं शताब्दी तक अरबी एवं फारसी साहित्य में भारत में बोली जाने वाली ज़बानों के लिए ‘ज़बान-ए-हिन्दी’ लफ्ज़ का प्रयोग हुआ है। भारत आने के बाद मुसलमानों ने ‘ज़बान-ए-हिन्दी’, ‘हिन्दी जुबान’ अथवा ‘हिन्दी’ का प्रयोग दिल्ली-आगरा के चारों ओर बोली जाने वाली भाषा के अर्थ में किया। भारत के गैर-मुस्लिम लोग तो इस क्षेत्र में बोले जाने वाले भाषा-रूप को ‘भाखा’ नाम से पुकराते थे, ‘हिन्दी’ नाम से नहीं। कबीरदास की प्रसिद्ध काव्य पंक्ति है – संस्कृत है कूप जल, भाखा बहता नीर। (संस्कृत तो कुए के पानी की तरह है। भाखा बहते पानी की तरह है।)
जिस समय मुसलमानों का यहाँ आना शुरु हुआ उस समय भारत के इस हिस्से में साहित्य-रचना शौरसेनी अपभ्रंश में होती थी। बाद में डिंगल साहित्य रचा गया। मुग़लों के काल में अवधी तथा ब्रज में साहित्य लिखा गया। आधुनिक हिन्दी साहित्य की जो जुबान है, उस जुबान ‘हिन्दवी’ को आधार बनाकर रचना करने वालों में सबसे पहले रचनाकार का नाम अमीर खुसरो है जिनका समय १२५३ ई0 से १३२५ ई0 के बीच माना जाता है। ये फ़ारसी के भी विद्वान थे तथा इन्होंने फ़ारसी में भी रचनाएँ लिखीं मगर ‘हिन्दवी’ में रचना करने वाले ये प्रथम रचनाकार थे। इनकी अनेक पहेलियाँ इसका प्रमाण है। उदाहरण के लिए खुसरो की दो रचनाएँ प्रस्तुत हैं।
(1) क्या जानूँ वह कैसा है। जैसा देखा वैसा है।
(2) एक नार ने अचरज किया। साँप मारि पिंजड़े में दिया।
अमीर खुसरो ने अपनी भाषा को ‘हिन्दवी’ कहा है। एक जगह उन्होने लिखा है जिसका भाव है कि मैं हिन्दुस्तानी तुर्क हूँ, हिन्दवी में जवाब देता हूँ। ( उनकी मूल पंक्ति इस प्रकार है: ‘तुर्क हिन्तुस्तानियम हिन्दवी गोयम जवाब’)
२९-७-२०२०
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सुभाषित संजीवनी १
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मुख पद्मदलाकारं, वाचा चंदन शीतलां।
हृदय क्रोध संयुक्तं, त्रिविधं धूर्त लक्ष्णं।।
*
कमल पंखुड़ी सदृश मुख, बोल चंदनी शीत।
हृदय युक्त हो क्रोध से, धूर्त चीन्ह त्रैरीत।।
*
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रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
*
श्री गणेश विघ्नेश शिवा-शव नंदन-वंदन.
लिपि-लेखनि, अक्षरदाता कर्मेश शत नमन..
नाद-ताल,स्वर-गान अधिष्ठात्री माँ शारद-
करें कृपा नित मातु नर्मदा जन-मन-भावन..
*
प्रात स्नान कर, श्वेत वसन धरें कुश-आसन.
मौन करें शिवलिंग, यंत्र, विग्रह का पूजन..
'ॐ नमः शिवाय' जपें रुद्राक्ष माल ले-
बार एक सौ आठ करें, स्तोत्र का पठन..
भाँग, धतूरा, धूप, दीप, फल, अक्षत, चंदन,
बेलपत्र, कुंकुम, कपूर से हो शिव-अर्चन..
उमा-उमेश करें पूरी हर मनोकामना-
'सलिल'-साधन सफल करें प्रभु, निर्मल कर मन..
*
: रावण रचित शिवताण्डवस्तोत्रम् :
हिन्दी काव्यानुवाद तथा अर्थ - संजीव 'सलिल'
श्रीगणेशाय नमः
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् |
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्ड्ताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् || १||
सघन जटा-वन-प्रवहित गंग-सलिल प्रक्षालित.
पावन कंठ कराल काल नागों से रक्षित..
डम-डम, डिम-डिम, डम-डम, डमरू का निनादकर-
तांडवरत शिव वर दें, हों प्रसन्न, कर मम हित..१..
सघन जटामंडलरूपी वनसे प्रवहित हो रही गंगाजल की धाराएँ जिन शिवजी के पवित्र कंठ को प्रक्षालित करती (धोती) हैं, जिनके गले में लंबे-लंबे, विक्राक सर्पों की मालाएँ सुशोभित हैं, जो डमरू को डम-डम बजाकर प्रचंड तांडव नृत्य कर रहे हैं-वे शिवजी मेरा कल्याण करें.१.
*
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी- विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्धनि |
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचन्द्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम|| २||
सुर-सलिला की चंचल लहरें, हहर-हहरकर,
करें विलास जटा में शिव की भटक-घहरकर.
प्रलय-अग्नि सी ज्वाल प्रचंड धधक मस्तक में,
हो शिशु शशि-भूषित शशीश से प्रेम अनश्वर.. २
जटाओं के गहन कटावों में भटककर अति वेग से विलासपूर्वक भ्रमण करती हुई देवनदी गंगाजी की लहरें जिन शिवजी के मस्तक पा र्लाहरा रहे एहेन, जिनके मस्तक में अग्नि की प्रचंड ज्वालायें धधक-धधककर प्रज्वलित हो रही हैं, ऐसे- बाल-चन्द्रमा से विभूषित मस्तकवाले शिवजी में मेरा अनुराग प्रतिपल बढ़ता रहे.२.
धराधरेन्द्रनंदिनीविलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे |
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्दिगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि || ३||
पर्वतेश-तनया-विलास से परमानन्दित,
संकट हर भक्तों को मुक्त करें जग-वन्दित!
वसन दिशाओं के धारे हे देव दिगंबर!!
तव आराधन कर मम चित्त रहे आनंदित..३..
पर्वतराज-सुता पार्वती के विलासमय रमणीय कटाक्षों से परमानन्दित (शिव), जिनकी कृपादृष्टि से भक्तजनों की बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ दूर हो जाती हैं, दिशाएँ ही जिनके वस्त्र हैं, उन शिवजी की आराधना में मेरा चित्त कब आनंदित होगा?.३.
*
लताभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे |
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदमद्भुतं बिभर्तुभूतभर्तरि || ४||
केशालिंगित सर्पफणों के मणि-प्रकाश की,
पीताभा केसरी सुशोभा दिग्वधु-मुख की.
लख मतवाले सिन्धु सदृश मदांध गज दानव-
चरम-विभूषित प्रभु पूजे, मन हो आनंदी..४..
जटाओं से लिपटे विषधरों के फण की मणियों के पीले प्रकाशमंडल की केसर-सदृश्य कांति (प्रकाश) से चमकते दिशारूपी वधुओं के मुखमंडल की शोभा निरखकर मतवाले हुए सागर की तरह मदांध गजासुर के चरमरूपी वस्त्र से सुशोभित, जगरक्षक शिवजी में रामकर मेरे मन को अद्भुत आनंद (सुख) प्राप्त हो.४.
*
ललाटचत्वरज्वलद्धनंजस्फुल्लिंगया, निपीतपंचसायकं नमन्निलिम्पनायकं |
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं, महाकलपालिसंपदे सरिज्जटालमस्तुनः ||५||
ज्वाला से ललाट की, काम भस्मकर पलमें,
इन्द्रादिक देवों का गर्व चूर्णकर क्षण में.
अमियकिरण-शशिकांति, गंग-भूषित शिवशंकर,
तेजरूप नरमुंडसिंगारी प्रभु संपत्ति दें..५..
अपने विशाल मस्तक की प्रचंड अग्नि की ज्वाला से कामदेव को भस्मकर इंद्र आदि देवताओं का गर्व चूर करनेवाले, अमृत-किरणमय चन्द्र-कांति तथा गंगाजी से सुशोभित जटावाले नरमुंडधारी तेजस्वी शिवजी हमें अक्षय संपत्ति प्रदान करें.५.
*
सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसराङ्घ्रिपीठभूः |
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटक श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ||६||
सहसनयन देवेश-देव-मस्तक पर शोभित,
सुमनराशि की धूलि सुगन्धित दिव्य धूसरित.
पादपृष्ठमयनाग, जटाहार बन भूषित-
अक्षय-अटल सम्पदा दें प्रभु शेखर-सोहित..६..
इंद्र आदि समस्त देवताओं के शीश पर सुसज्जित पुष्पों की धूलि (पराग) से धूसरित पाद-पृष्ठवाले सर्पराजों की मालाओं से अलंकृत जटावाले भगवान चन्द्रशेखर हमें चिरकाल तक स्थाई रहनेवाली सम्पदा प्रदान करें.६.
*
करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्ध नञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके |
धराधरेन्द्रनन्दिनीकुचाग्रचित्रपत्रक-प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचनेरतिर्मम || ७||
धक-धक धधके अग्नि सदा मस्तक में जिनके,
किया पंचशर काम-क्षार बस एक निमिष में.
जो अतिदक्ष नगेश-सुता कुचाग्र-चित्रण में-
प्रीत अटल हो मेरी उन्हीं त्रिलोचन-पद में..७..
*
अपने मस्तक की धक-धक करती जलती हुई प्रचंड ज्वाला से कामदेव को भस्म करनेवाले, पर्वतराजसुता (पार्वती) के स्तन के अग्र भाग पर विविध चित्रकारी करने में अतिप्रवीण त्रिलोचन में मेरी प्रीत अटल हो.७.
नवीनमेघमण्डली निरुद्धदुर्धरस्फुरत् - कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः |
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरंधरः || ८||
नूतन मेघछटा-परिपूर्ण अमा-तम जैसे,
कृष्णकंठमय गूढ़ देव भगवती उमा के.
चन्द्रकला, सुरसरि, गजचर्म सुशोभित सुंदर-
जगदाधार महेश कृपाकर सुख-संपद दें..८..
नयी मेघ घटाओं से परिपूर्ण अमावस्या की रात्रि के सघन अन्धकार की तरह अति श्यामल कंठवाले, देवनदी गंगा को धारण करनेवाले शिवजी हमें सब प्रकार की संपत्ति दें.८.
*
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् |
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकछिदं तमंतकच्छिदं भजे || ९||
पुष्पित नीलकमल की श्यामल छटा समाहित,
नीलकंठ सुंदर धारे कंधे उद्भासित.
गज, अन्धक, त्रिपुरासुर भव-दुःख काल विनाशक-
दक्षयज्ञ-रतिनाथ-ध्वंसकर्ता हों प्रमुदित..
खिले हुए नीलकमल की सुंदर श्याम-प्रभा से विभूषित कंठ की शोभा से उद्भासित कन्धोंवाले, गज, अन्धक, कामदेव तथा त्रिपुरासुर के विनाशक, संसार के दुखों को मिटानेवाले, दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करनेवाले श्री शिवजी का मैं भजन करता हूँ.९.
*
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदंबमञ्जरी रसप्रवाहमाधुरी विजृंभणामधुव्रतम् |
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे || १०||
शुभ अविनाशी कला-कली प्रवहित रस-मधुकर,
दक्ष-यज्ञ-विध्वंसक, भव-दुःख-काम क्षारकर.
गज-अन्धक असुरों के हंता, यम के भी यम-
भजूँ महेश-उमेश हरो बाधा-संकट हर..१०..
नष्ट न होनेवाली, सबका कल्याण करनेवाली, समस्त कलारूपी कलियों से नि:सृत, रस का रसास्वादन करने में भ्रमर रूप, कामदेव को भस्म करनेवाले, त्रिपुर नामक राक्षस का वध करनेवाले, संसार के समस्त दु:खों के हर्ता, प्रजापति दक्ष के यज्ञ का ध्वंस करनेवाले, गजासुर व अंधकासुर को मारनेवाले,, यमराज के भी यमराज शिवजी का मैं भजन करता हूँ.१०.
*
जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वसद्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् |
धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्डताण्डवः शिवः || ११||
वेगवान विकराल विषधरों की फुफकारें,
दह्काएं गरलाग्नि भाल में जब हुंकारें.
डिम-डिम डिम-डिम ध्वनि मृदंग की, सुन मनमोहक.
मस्त सुशोभित तांडवरत शिवजी उपकारें..११..
अत्यंत वेगपूर्वक भ्रमण करते हुए सर्पों के फुफकार छोड़ने से ललाट में बढ़ी हुई प्रचंड अग्निवाले, मृदंग की मंगलमय डिम-डिम ध्वनि के उच्च आरोह-अवरोह से तांडव नृत्य में तल्लीन होनेवाले शिवजी सब प्रकार से सुशोभित हो रहे हैं.११.
*
दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः |
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहत || १२||
कड़ी-कठोर शिला या कोमलतम शैया को,
मृदा-रत्न या सर्प-मोतियों की माला को.
शत्रु-मित्र, तृण-नीरजनयना, नर-नरेश को-
मान समान भजूँगा कब त्रिपुरारि-उमा को..१२..
कड़े पत्थर और कोमल विचित्र शैया, सर्प और मोतियों की माला, मिट्टी के ढेलों और बहुमूल्य रत्नों, शत्रु और मित्र, तिनके और कमललोचनी सुंदरियों, प्रजा और महाराजाधिराजों के प्रति समान दृष्टि रखते हुए कब मैं सदाशिव का भजन करूँगा?
*
कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरस्थमञ्जलिं वहन् |
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् || १३||
कुञ्ज-कछारों में गंगा सम निर्मल मन हो,
सिर पर अंजलि धारणकर कब भक्तिलीन हो?
चंचलनयना ललनाओं में परमसुंदरी,
उमा-भाल-अंकित शिव-मन्त्र गुंजाऊँ सुखी हो?१३..
मैं कब गंगाजी कछार-कुंजों में निवास करता हुआ, निष्कपट होकर सिर पर अंजलि धारण किये हुए, चंचल नेत्रोंवाली ललनाओं में परमसुंदरी पार्वती जी के मस्तक पर अंकित शिवमन्त्र का उच्चारण करते हुए अक्षय सुख प्राप्त करूँगा.१३.
*
निलिम्पनाथनागरी कदंबमौलिमल्लिका, निगुम्फ़ निर्भरक्षन्म धूष्णीका मनोहरः.
तनोतु नो मनोमुदं, विनोदिनीं महर्नीशं, परश्रियं परं पदं तदंगजत्विषां चय:|| १४||
सुरबाला-सिर-गुंथे पुष्पहारों से झड़ते,
परिमलमय पराग-कण से शिव-अंग महकते.
शोभाधाम, मनोहर, परमानन्दप्रदाता,
शिवदर्शनकर सफल साधन सुमन महकते..१४..
देवांगनाओं के सिर में गुंथे पुष्पों की मालाओं से झड़ते सुगंधमय पराग से मनोहर परम शोभा के धाम श्री शिवजी के अंगों की सुंदरताएँ परमानन्दयुक्त हमारे मनकी प्रसन्नता को सर्वदा बढ़ाती रहें.१४.
प्रचंडवाडवानल प्रभाशुभप्रचारिणी, महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूतजल्पना.
विमुक्तवामलोचनों विवाहकालिकध्वनि:, शिवेतिमन्त्रभूषणों जगज्जयाम जायतां|| १५||
पापभस्मकारी प्रचंड बडवानल शुभदा,
अष्टसिद्धि अणिमादिक मंगलमयी नर्मदा.
शिव-विवाह-बेला में सुरबाला-गुंजारित,
परमश्रेष्ठ शिवमंत्र पाठ ध्वनि भव-भयहर्ता..१५..
प्रचंड बड़वानल की भाँति पापकर्मों को भस्मकर कल्याणकारी आभा बिखेरनेवाली शक्ति (नारी) स्वरूपिणी अणिमादिक अष्ट महासिद्धियों तथा चंचल नेत्रोंवाली देवकन्याओं द्वारा शिव-विवाह के समय की गयी परमश्रेष्ठ शिवमंत्र से पूरित, मंगलध्वनि सांसारिक दुखों को नष्टकर विजयी हो.१५.
*
इदम् हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं स्तवं पठन्स्मरन्ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेतिसंततम् |
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं विमोहनं हि देहिनां सुशङ्करस्य चिंतनम् || १६||
शिवतांडवस्तोत्र उत्तमोत्तम फलदायक,
मुक्तकंठ से पाठ करें नित प्रति जो गायक.
हो सन्ततिमय भक्ति अखंड रखेंहरि-गुरु में.
गति न दूसरी, शिव-गुणगान करे सब लायक..१६..
इस सर्वोत्तम शिवतांडव स्तोत्र का नित्य प्रति मुक्त कंठ से पाठ करने से भरपूर सन्तति-सुख, हरि एवं गुरु के प्रति भक्ति अविचल रहती है, दूसरी गति नहीं होती तथा हमेशा शिव जी की शरण प्राप्त होती है.१६.
*
पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं यः शंभुपूजनपरं पठति प्रदोषे |
तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां लक्ष्मीं सदैव सुमुखिं प्रददाति शंभुः || १७||
करें प्रदोषकाल में शिव-पूजन रह अविचल,
पढ़ दशमुखकृत शिवतांडवस्तोत्र यह अविकल.
रमा रमी रह दे समृद्धि, धन, वाहन, परिचर.
करें कृपा शिव-शिवा 'सलिल'-साधना सफलकर..१७..
परम पावन, भूत भवन भगवन सदाशिव के पूजन के नत में रावण द्वारा रचित इस शिवतांडव स्तोत्र का प्रदोष काल में पाठ (गायन) करने से शिवजी की कृपा से रथ, गज, वाहन, अश्व आदि से संपन्न होकर लक्ष्मी सदा स्थिर रहती है.१७.
|| इतिश्री रावण विरचितं शिवतांडवस्तोत्रं सम्पूर्णं||
|| रावणलिखित(सलिलपद्यानुवादित)शिवतांडवस्तोत्र संपूर्ण||
***
छंद परिचय : २
पहचानें इस छंद को, क्या लक्षण?, क्या नाम?
रच पायें तो रचें भी, मिले प्रशंसा-नाम..
*
भोग्य यह संसार हो तुझको नहीं
त्याज्य भी संसार हो तुझको नहीं
देह का व्यापार जो भी कर रहा
गेह का आधार बिसरा मर रहा
***
वरिष्ठ ग़ज़लकार प्राण शर्मा, लंदन के प्रति भावांजलि
*
फूँक देते हैं ग़ज़ल में प्राण अक्सर प्राण जी
क्या कहें किस तरह रचते हैं ग़ज़ल सम्प्राण जी
.
ज़िन्दगी के तजुर्बों को ढाल देते शब्द में
सिर्फ लफ़्फ़ाज़ी कभी करते नहीं हैं प्राण जी
.
सादगी से बात कहने में न सानी आपका
गलत को कहते गलत ही बिना हिचके प्राण जी
.
इस मशीनी ज़िंदगी में साँस ले उम्मीद भी
आदमी इंसां बने यह सीख देते प्राण जी
.
'सलिल'-धारा की तरह बहते रहे, ठहरे नहीं
मरुथलों में भी बगीचा उगा देते प्राण जी
***
लघुकथा
ज़हर
*
--'टॉमी को तुंरत अस्पताल ले जाओ।' जैकी बोला।
--'जल्दी करो, फ़ौरन इलाज शुरू होना जरूरी है। थोड़ी सी देर भी घातक हो सकती है।' टाइगर ने कहा।
--'अरे! मुझे हुआ क्या है?, मैं तो बीमार नहीं हूँ फ़िर काहे का इलाज?' टॉमी ने पूछा।
--'क्यों अभी काटा नहीं उसे...?' जैकी ने पूछा।
--'काटा तो क्या हुआ? आदमी को काटना हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है।'
--'है, तो किसी आदमी को काटता। तूने तो नेता को काट लिया। कमबख्त ज़हर चढ़ गया तो भाषण देने, धोखा देने, झूठ बोलने, रिश्वत लेने, घोटाला करने और न जाने कौन-कौन सी बीमारियाँ घेर लेंगी? बहस मत कर, जाकर तुंरत इलाज शुरू करा। जैकी ने आदेश के स्वर में कहा...बाकी कुत्तों ने सहमति जताई और टॉमी चुपचाप सर झुकाए चला गया इलाज कराने।
२९-७-२०१७
***
नवगीत :
संजीव
*
विंध्याचल की
छाती पर हैं
जाने कितने घाव
जंगल कटे
परिंदे गायब
धूप न पाती छाँव
*
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना
भोला छला गया.
'आऊँ न जब तक झुके रहो' कह
चतुरा चला गया.
समुद सुखाकर असुर सँहारे
किन्तु न लौटे आप-
वचन निभाता
विंध्य आज तक
हारा जीवन-दाँव.
*
शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर
मेकल को ठगते.
रूठी नेह नर्मदा कूदी
पर्वत से झट से.
जनकल्याण करे युग-युग से
जगवंद्या रेवा-
सुर नर देव दनुज
तट पर आ
बसे बसाकर गाँव.
*
वनवासी रह गये ठगे
रण लंका का लड़कर.
कुरुक्षेत्र में बलि दी लेकिन
पछताये कटकर.
नाग यज्ञ कह कत्ल कर दिया
क्रूर परीक्षित ने-
नागपंचमी को पूजा पर
दिया न
दिल में ठाँव.
*
मेकल और सतपुड़ा की भी
यही कहानी है.
अरावली पर खून बहाया
जैसे पानी है.
अंग्रेजों के संग-बाद
अपनों ने भी लूटा-
आरक्षण कोयल को देकर
कागा
करते काँव.
*
कह असभ्य सभ्यता मिटा दी
ठगकर अपनों ने.
नहीं कहीं का छोड़ा घर में
बेढब नपनों ने.
शोषण-अत्याचार द्रोह को
नक्सलवाद कहा-
वनवासी-भूसुत से छीने
जंगल
धरती-ठाँव.
*
२८-७-२०१५
Poem:
RIVER
Sanjiv
*
I wish to be a river.
Why do you laugh?
I'm not joking,
I really want to be a river>
Why?
Just because
River is not only a river.
River is civilization.
River is culture.
River is humanity.
River is divinity.
River is life of lives.
River is continuous attempt.
River is journey to progress.
River is never ending roar.
River is endless silence.
That's why river is called 'mother'.
That's why river is worshipped.
'Namami devi Narmade'.
River live for hunman
But human pollute it until it die.
I wish to
Live and die for others.
Bless mother earth with forests.
Finish the thrust.
Regenerate my energy
again and again.
That's why I wish to be a river.
***
26-7-2015

सोमवार, 16 मई 2022

छंद विमोह, द्विपदियाँ, दोहे, मुक्तक,poem, चित्रगुप्त वंदना भोजपुरी

चित्रगुप्त वंदना भोजपुरी
*
करत रहल बा चित्रगुप्त प्रभु!, सगरो जै-जैकार।
मति; मेहनत अरु मेल-जोल बर; आए सरन तोहार।।

जगवा में केहू नईखे हे, तोहरे बिना सहाई।
डोल रहल बा दा न जगाई, काहे भगिया हमार।।

छोड़ी चरनिया तोहरो, बारह भाई कहाँ हम जाई।
कृपा करल बा दूनो माई, फेरी दा न दिनवा हमार।।

कलम-दावत-कृपाण सजाइब, चूनर लाल चढ़ाई।
ओंकार केर जै गुंजाई, काहे न सुनल पुकार।।

श्रीफल कदली फल स्वीकारब, भगवन भोग मिठाई।
सर पर हाथ धरल दोऊ माई, किरपा दृष्टि निहार।।
***
दोहा सलिला
अनिल अनल भू नभ सलिल, अजय उच्च रख माथ।
राम नाथ सीता सहित, रखिए सिर पर हाथ।।

राम नाथ अब अवध में, थामे हैं धनु-बाण।
अब तक दयानिधान थे, अब हरते हैं प्राण।।

राम नाथ भी थे विवश, सके न सिय को रोक।
समय बली विपरीत था, कोई सका न टोक।।

आ! वारा तुझ पर ह्रदय, शारद मातु पुनीत।
आवारा थे शब्द कर, वंदन हुए सुगीत।।

ललिता लय लालित्य ले, नमन करे हो लीन।
मीनाकारी स्वरों की, सुमधुर जैसे बीन।।

सँग नारायण शरद जी, जड़कर नीलम रत्न।
खरे-खरे दोहे कहें, मुक्तक-गीत सुयत्न।।

राम; केश सिय के लिए, सजा रहे हैं फूल।
राम-केश हँस बाँधतीं, सीता सब दुःख भूल।।

कंकर में शंकर बसे, शिमला शर्मा मौन।
सूर्य तपे शिव जी कहें, हिम ला देगा कौन?

चंदा दो चंदा कहे, गई चाँदनी भाग।
नीता-शीला अब न वह, चंद्रकला अनुराग।।

मारीशस से मिल गले, भारत माता झूम।
प्रेमलता महका रही, भुज भर माथा चूम।।

मँज री मति! गुरु निकट जा, माँजेंगे गुरु खूब।
अर्पित कर मन-मंजरी, भाव-भक्ति में डूब।।

अनामिका मति साधिका, रम्य राधिका भ्रांत।
सुमित अमित परिमित सतत, करे न मन को भ्रांत।।

वह बोली आदाब पर, यह समझा आ दाब।
आगे बढ़ते ही पड़ा, थप्पड़ एक जनाब।।
१६-५-२०२२
***
Poem
I
*
I don't care to those
Who don't care to me
I prefer to play with them
Who prefer to play with me.

Mountain for mountains
For seas I also am a sea
Being nowhere I'm everywhere
Want to meet?, Try to se.e

Forget I and You
Remember only Us
No place for no
Always welcome yes.
15-5-2022
***
द्विपदी
दोस्ती की दरार छोटी पर
साँप शक का वहीं मिला लंबा।
१६-५-२०१९
***
छंद बहर का मूल है १३
*
संरचना- २१२ २१२, सूत्र- रर.
वार्णिक छंद- ६ वर्णीय गायत्री जातीय विमोह छंद.
मात्रिक छंद- १० मात्रिक देशिक जातीय छंद
*
सत्य बोलो सभी
झूठ छोडो कभी
*
रीतती रात भी
जीतता प्रात ही
*
ख्वाब हो ख्वाब ही
आँख खोलो तभी
*
खाद-पानी मिले
फूल हो सौरभी
*
मुश्किलों आ मिलो
मात ले लो अभी
१३-४-२०१७
९.४५ पूर्वाह्न
***
मुक्तक
तुझको अपना पता लगाना है?
खुद से खुद को अगर मिलाना है
मूँद कर आँख बैठ जाओ भी
दूर जाना करीब आना है
***
द्विपदी
ठिठक कर रुक गयीं तुम
आ गया भूकम्प झट से.
*
दाग न दामन पर लगा है
बोल सियासत ख़ाक करी है
*
मौन से बातचीत अच्छी है
भाप प्रेशर कुकर से निकले तो
*
तीन अंगुलिया उठातीं खुद पर
एक किसी पर अगर उठाई
*
जो गिर-उठकर बढ़ा मंजिल मिली है
किताबों में मिला हमको लिखित है
*
घुँघरू पायल के इस कदर बजाये जाएँ
नींद उड़ जाए औ' महबूब दौड़ते आएँ
*
सिर्फ कहना सही ही काफी नहीं है
बात कहने का सलीका है जरूरी
*
दुष्ट से दुष्ट मिले कष्ट दे संतुष्ट हुए
दोनों जब साथ गिरे हँसी हसीं कहके 'मुए'
*
सखापन 'सलिल' का दिखे श्याम खुद पर
अँजुरी में सूर्य दिखे देख फिर-फिर
*
अजय हैं न जय कर सके कोई हमको
विजय को पराजय को सम देखते हैं
*
किस्से दिल में न रखें किससे कहें यह सोचें
गर न किस्से कहे तो ख्वाब भी मुरझाएंगे
*
रंज ना कर बिसारे जिसने मधुर अनुबंध हैं
वही इस काबिल न था कि पा सके मन-रंजना
*
रन करते जब वीर तालियाँ दुनिया देख बजाती है
रन न बनें तो हाय प्रेमिका भी आती है पास नहीं
*
रूप देखकर नजर झुका लें कितनी वह तहजीब भली थी
रूप मर गया बेहूदों ने आँख फाड़के उसे तका है
*
***
दोहा का रंग आँखों के संग
*
आँख अबोले बोलती, आँख समझती बात.
आँख राज सब खोलत, कैसी बीती रात?
*
आँख आँख से मिल झुके, उठे लड़े झुक मौन.
क्या अनकहनी कह गई, कहे-बताये कौन?.
*
आँख आँख में बस हुलस, आँख चुराती आँख.
आँख आँख को चुभ रही, आँख दिखाती आँख..
*
आँख बने दर्पण कभी, आँख आँख का बिम्ब.
आँख अदेखे देखती, आँखों का प्रतिबिम्ब..
*
गहरी नीली आँख क्यों, उषा गाल सम लाल?
नेह नर्मदा नहाकर, नत-उन्नत बेहाल..
*
देह विदेहित जब हुई, मिला आँख को चैन.
आँख आँख ने फेर ली, आँख हुई बेचैन..
*
आँख दिखाकर आँख को, आँख हुई नाराज़.
आँख मूँदकर आँख है, मौन कहो किस व्याज?
*
पानी आया आँख में, बेमौसम बरसात.
आँसू पोछे आँख चुप, बैरन लगती रात..
*
अंगारे बरसा रही आँख, धरा है तप्त.
किसकी आँखों पर हुई, आँख कहो अनुरक्त?.
*
आँख चुभ गई आँख को, आँख आँख में लीन.
आँख आँख को पा धनी, आँख आँख बिन दीन..
*
कही कहानी आँख की, मिला आँख से आँख.
आँख दिखाकर आँख को, बढ़ी आँख की साख..
*
आँख-आँख में डूबकर, बसी आँख में मौन.
आँख-आँख से लड़ पड़ी, कहो जयी है कौन?
*
आँख फूटती तो नहीं, आँख कर सके बात.
तारा बन जा आँख का, 'सलिल' मिली सौगात..
*
कौन किरकिरी आँख की, उसकी ऑंखें फोड़.
मिटा तुरत आतंक दो, नहीं शांति का तोड़..
*
आँख झुकाकर लाज से, गयी सानिया पाक.
आँख झपक बिजली गिरा, करे कलेजा चाक..
*
आँख न खटके आँख में, करो न आँखें लाल.
काँटा कोई न आँख का, तुम से करे सवाल..
*
आँख न खुलकर खुल रही, 'सलिल' आँख है बंद.
आँख अबोले बोलती, सुनो सृजन के छंद..
१६-५-२०१५
***
माँ ममता का गाँव है, शुभाशीष की छाँव. कैसी भी सन्तान हो, माँ-चरणों में ठाँव..
*
ॐ जपे नीरव अगर, कट जाएँ सब कष्ट
मौन रखे यदि शोर तो, होते दूर अनिष्ट
*
चित्र गुप्त जिसका वही, लेता जब आकार
ब्रम्हा-विष्णु-महेश तब, होते हैं साकार
*
स्नेह सरोवर सुखाकर करते जो नाशाद
वे शादी कर किस तरह, हो पायेंगे शाद?
*