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बुधवार, 25 मार्च 2020

छप्पय छन्द

रसानंद दे छंद नर्मदा २२ :
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार , ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई , हरिगीतिका, उल्लाला , गीतिका, घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी तथा सरसी छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए षट्पदिक छप्पय छन्द से.
रोला-उल्लाला मिले, बनता छप्पय छंद
*
छप्पय षट्पदिक (६ पंक्तियों का), संयुक्त (दो छन्दों के मेल से निर्मित), मात्रिक (मात्रा गणना के आधार पर रचित), विषम (विशन चरण ११ मात्रा, सम चरण१३ मात्रा ) छन्द हैं। इसमें पहली चार पंक्तियाँ चौबीस मात्रिक रोला छंद (११ + १३ =२४ मात्राओं) की तथा बाद में दो पंक्तियाँ उल्लाला छंद (१३+ १३ = २६ मात्राओं या १४ + १४ = २८मात्राओं) की होती हैं। उल्लाला में सामान्यत:: २६ तथा अपवाद स्वरूप २८ मात्राएँ होती हैं। छप्पय १४८ या १५२ मात्राओं का छंद है। संत नाभादास सिद्धहस्त छप्पयकार हुए हैं। 'प्राकृतपैंगलम्'[1] में इसका लक्षण और इसके भेद दिये गये हैं।
छप्पय के भेद- छंद प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद भानु के अनुसार छप्पय के ७१ प्रकार हैं। छप्पय अपभ्रंश और हिन्दी में समान रूप से प्रिय रहा है। चन्द[2], तुलसी[3], केशव[4], नाभादास [5], भूषण [6], मतिराम [7], सूदन [8], पद्माकर [9] तथा जोधराज हम्मीर रासो कुशल छप्पयकार हुए हैं। इस छन्द का प्रयोग मुख्यत:वीर रस में चन्द से लेकर पद्माकर तक ने किया है। इस छन्द के प्रारम्भ में प्रयुक्त रोला में 'गीता' का चढ़ाव है और अन्त में उल्लाला में उतार है। इसी कारण युद्ध आदि के वर्णन में भावों के उतार-चढ़ाव का इसमें अच्छा वर्णन किया जाता है। नाभादास, तुलसीदास तथा हरिश्चन्द्र ने भक्ति-भावना के लिये छप्पय छन्द का प्रयोग किया है।
उदाहरण - "डिगति उर्वि अति गुर्वि, सर्व पब्बे समुद्रसर। ब्याल बधिर तेहि काल, बिकल दिगपाल चराचर। दिग्गयन्द लरखरत, परत दसकण्ठ मुक्खभर। सुर बिमान हिम भानु, भानु संघटित परस्पर। चौंकि बिरंचि शंकर सहित, कोल कमठ अहि कलमल्यौ। ब्रह्मण्ड खण्ड कियो चण्ड धुनि, जबहिं राम शिव धनु दल्यौ॥"[10] पन्ने की प्रगति अवस्था आधार प्रारम्भिक माध्यमिक पूर्णता शोध टीका टिप्पणी और संदर्भ ऊपर जायें ↑ प्राकृतपैंगलम् - 1|105 ऊपर जायें ↑ पृथ्वीराजरासो ऊपर जायें ↑ कवितावली ऊपर जायें ↑ रामचन्द्रिका ऊपर जायें ↑ भक्तमाल ऊपर जायें ↑ शिवराजभूषण ऊपर जायें ↑ ललितललाम ऊपर जायें ↑ सुजानचरित ऊपर जायें ↑ प्रतापसिंह विरुदावली ऊपर जायें ↑ कवितावली : बाल. 11 धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 1 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 250।
लक्षण छन्द-
रोला के पद चार, मत्त चौबीस धारिये।
उल्लाला पद दोय, अंत माहीं सुधारिये।।
कहूँ अट्ठाइस होंय, मत्त छब्बिस कहुँ देखौ।
छप्पय के सब भेद मीत, इकहत्तर लेखौ।।
लघु-गुरु के क्रम तें भये,बानी कवि मंगल करन।
प्रगट कवित की रीती भल, 'भानु' भये पिंगल सरन।। -जगन्नाथ प्रसाद 'भानु'
*
उल्लाला से योग, तभी छप्पय हो रोला।
छाया जग में प्यार, समर्पित सुर में बोला।। .
मुखरित हो साहित्य, घुमड़ती छंद घटायें।
बरसे रस की धार, सृजन की चलें हवायें।।
है चार चरण का अर्धसम, पन्द्रह तेरह प्रति चरण।
सुन्दर उल्लाला सुशोभित, भाये रोला से वरण।। -अम्बरीश श्रीवास्तव
*
उदाहरण-
०१. कौन करै बस वस्तु कौन यहि लोक बड़ो अति।
को साहस को सिन्धु कौन रज लाज धरे मति।।
को चकवा को सुखद बसै को सकल सुमन महि।
अष्ट सिद्धि नव निद्धि देत माँगे को सो कहि।।
जग बूझत उत्तर देत इमि, कवि भूषण कवि कुल सचिव।
दच्छिन नरेस सरजा सुभट साहिनंद मकरंद सिव।। -महाकवि भूषण, शिवा बावनी
(सिन्धु = समुद्र; ocean or sea । रज = मिट्टी; mud, earth । सुमन = फूल; flower । इमि = इस प्रकार; this way । सचिव = मन्त्री; minister, secretary । सुभट = बहुत बड़ा योद्धा या वीर; great warrior.)
भावार्थ- संसार जानना चाहता है, कि वह कौन व्यक्ति है जो किसी वस्तु को अपने वश में कर सकता है, और वह कौन है जो इस पृथ्वी-लोक में सबसे महान है? साहस का समुद्र कौन है और वह कौन है जो अपनी जन्मभूमि की माटी की लाज की रक्षा करने का विचार सदैव अपने मन में रखेता है? चक्रवाक पक्षी को सुख प्रदान करने वाला१ कौन है? धरती के समस्त सात्विक-मनों में कौन बसा हुआ है? मांगते ही जो आठों प्रकार की सिद्धियों २ और नवों प्रकार की निधियों३ से परिपूर्ण बना देने का सामर्थ्य रखता है, वह कौन है? इन सभी प्रश्नों को जानने की उत्कट आकांक्षा संसार के मन में उत्पन्न हो गयी है। इसलिये कवियों के कुल के सचिव भूषण कवि, सभी प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार देते है − वे है दक्षिण के राजा, मनुष्यों में सर्वोत्कृष्ट एवं साहजी के कुल में जो उसी तरह उत्पन्न हुए हैं, जैसे फूलों में सुगंध फैलाने वाला पराग उत्पन्न होता है, अर्थात शिवाजी महाराज। शिवाजी के दादा, मालोजी को मालमकरन्द भी कहा जाता था। Who has the power to conquer all; who is the greatest of them all? Who is the ocean of courage; who is consumed by the thought of protecting the motherland? Who offers bliss to the Chakrawaak; who resides in every flower-like innocent souls? Who, in this world grants Ashtasiddhi and Navnidhi? The world seeks answers, and I, the minister of the poets’ clan, answer thus, He is the ruler of the Deccan, the great warrior, son of Shahaji, grandson of Maloji, i.e. Shivaji.
संकेतार्थ- १. शिवाजी का शौर्य सूर्य समान दमकता है। चकवा नर-मादा सूर्य-प्रकाश में ही मिलन करते है। शिवाजी का शौर्य-सूर्य रात-दिन चमकता रहता है, अत: चकवा पक्षी को अब रात होने का डर नहीं है। अतः वह सुख के सागर में डूबा हुआ है। २. अष्टसिद्धियाँ : अणिमा- अपने को सूक्ष्म बना लेने की क्षमता, महिमा: अपने को बड़ा बना लेने की क्षमता, गरिमा: अपने को भारी बना लेने की क्षमता, लघिमा: अपने को हल्का बना लेने की क्षमता, प्राप्ति: कुछ भी निर्माण कर लेने की क्षमता, प्रकाम्य: कोई भी रूप धारण कर लेने की क्षमता, ईशित्व: हर सत्ता को जान लेना और उस पर नियंत्रण करना, वैशित्व: जीवन और मृत्यु पर नियंत्रण पा लेने की क्षमता ३. नवनिधियाँ: महापद्म, पद्म, शंख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्ब।
काव्य-सुषमा और वैशिष्ट्य- 'साहस को सिंधु' तथा 'मकरंद सिव' रूपक अलंकार है। शिवाजी को साहस का समुद्र तथा शिवाजी महाराज मकरंद कहा गया है उपमेय, (जिसका वर्णन किया जा रहा हो, शिवाजी), को उपमान (जिससे तुलना की जाए समुद्र, मकरंद) बना दिया जाये तो रूपक अलंकार होता है। “सुमन”- श्लेष अलंकार है। एक बार प्रयुक्त किसी शब्द से दो अर्थ निकलें तो श्लेष अलंकार होता है। यहाँ सुमन = पुष्प तथा अच्छा मन। “सरजा सुभट साहिनंद”– अनुप्रास अलंकार है। एक वर्ण की आवृत्ति एकाधिक बार हो तो अनुप्रास अलंकार होता है। यहाँ ‘स’ वर्ण की आवृत्ति तीन बार हुई है। “अष्ट सिद्धि नव निद्धि देत माँगे को सो कहि?” अतिशयोक्ति अलंकार है। वास्तविकता से बहुत अधिक बढ़ा-चढ़ाकर कहने पर अतिशयोक्ति अलंकार होता है। यह राज्याश्रित कवियों की परंपरा रही है। प्रश्नोत्तर या पहेली-शैली का प्रयोग किया गया है। ०२. बूढ़े या कि ज़वान, सभी के मन को भाये। गीत-ग़ज़ल के रंग, अलग हट कर दिखलाये।। सात समंदर पार, अमन के दीप जलाये। जग जीता, जगजीत, ग़ज़ल सम्राट कहाये।। तुमने तो सहसा कहा था, मुझको अब तक याद है। गीत-ग़ज़ल से ही जगत ये, शाद और आबाद है।। -नवीन चतुर्वेदी, (जगजीत सिंह ग़ज़ल गायक के प्रति)
०३. लेकर पूजन-थाल प्रात ही बहिना आई।
उपजे नेह प्रभाव, बहुत हर्षित हो भाई।।
पूजे वह सब देव, तिलक माथे पर सोहे।
बँधे दायें हाथ, शुभद राखी मन मोहे।।
हों धागे कच्चे ही भले, बंधन दिल के शेष हैं।
पुनि सौम्य उतारे आरती, राखी पर्व विशेष है।। -अम्बरीश श्रीवास्तव (राखी पर)
२५.३.२०१६
==================
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, ९४२५१ ८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com

सोमवार, 22 जुलाई 2019

मनहरण घनाक्षरी छन्द

मनहरण घनाक्षरी छन्द
विधान: ८-८-८-७ वर्ण 
.
चीनियों को ठोंककर, पाकियों को पीटकर, 
फ़हरा तिरंगा आज, हम मुसकायेगे.
जन गण मन, वंदे मातरम गायेंगे.
सिक्किम भूटान नेपाल की न बात करो,
तिब्बत को भी फिर से, आजाद हम करायेंगे.
भारत से भाग किसी वक्त जो अलग हुए,
एक साथ जोड़ आर्यावर्त हम बनायेंगे.
*

शनिवार, 4 नवंबर 2017

hindi ke naye chhand 21

हिन्दी के  नए छंद २१  
*
प्रस्तुत छंद के समान मात्रिक-वर्णिक पदभार गति-यति युक्त छंद यदि आपने पढ़े हों तो कृपया, उनका सन्दर्भ, विधान व उदाहरण salil.sanjiv@gmail.com पर भेजें। 
नव रचनाकार इन छंदों का अभ्यास करें। 
कभी तो बुलाते, सुनाते-लुभाते, गले से लगाते हमें नेता। 
ने वादे निभाते, धता क्यों बताते?, लुकाते-छिपाते, ठगें नेता।।
चुनावी अदाएँ, न भूलें-भुलाऍ, सदा झूठ बोलें, छली नेता।
न कानून जाने, नहीं सत्य माने, नहीं काम आते बली नेता।।  
***
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५५९६१८
www.divyanarmada.in, #हिंदी_ब्लॉगर 

शनिवार, 23 जुलाई 2016

doha -yamak

गले मिले दोहा यमक २
*
चल बे घर बेघर नहीं, जो भटके बिन काज
बहुत हुई कविताई अब, कलम घिसे किस व्याज?
*
पटना वाली से कहा, 'पट ना' खाई मार
चित आए पट ना पड़े, अब की सिक्का यार
*
धरती पर धरती नहीं, चींटी सिर का भार
सोचे "धर दूँ तो धरा, कैसे सके सँभार?"
*
घटना घट ना सब कहें, अघट न घटना रीत
घट-घटवासी चकित लख, क्यों मनु करे अनीत?
*
सिरा न पाये फ़िक्र हम, सिरा न आया हाथ
पटक रहे बेफिक्र हो, पत्थर पर चुप माथ
*
बेसिर-दानव शक मुआ, हरता मन का चैन
मनका ले विश्वास का, सो ले सारी रैन
*
करता कुछ करता नहीं, भरता भरता दंड
हरता हरता शांति सुख, धरता धरता खंड
*
बजा रहे करताल पर, दे न सके कर ताल
गिनते हैं कर माल फिर, पहनाते कर माल
*
जल्दी से आ भार ले, व्यक्त करूँ आभार
असह्य लगे जो भार दें, हटा तुरत साभार
*
हँस सहते हम दर्द जब, देते हैं हमदर्द
अपना पन कर रहा है सब अपनापन सर्द
*
भोग लगाकर कर रहे, पंडित जी आराम
नहीं राम से पूछते, "ग्रहण करें आ राम!"
*****

गुरुवार, 21 जुलाई 2016

नवगीत

दोहा - सोरठा गीत
पानी की प्राचीर
*
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।
पीर, बाढ़ - सूखा जनित 
हर, कर दे बे-पीर।।
*
रखें बावड़ी साफ़,
गहरा कर हर कूप को।
उन्हें न करिये माफ़,
जो जल-स्रोत मिटा रहे।।

चेतें, प्रकृति का कहीं,
कहर न हो, चुक धीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
सकें मछलियाँ नाच,
पोखर - ताल भरे रहें।
प्रणय पत्रिका बाँच,
दादुर कजरी गा सकें।। 

मेघदूत हर गाँव को,
दे बारिश का नीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
पर्वत - खेत  - पठार पर
हरियाली हो खूब।
पवन बजाए ढोलकें,
हँसी - ख़ुशी में डूब।।

चीर अशिक्षा - वक्ष दे ,
जन शिक्षा का तीर।
आओ मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
***
२०-७-२०१६
-----------------

navgeet

सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।

नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।

घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।

गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।  
 ***
२०-७-२०१६
---------------

सोमवार, 20 जून 2016

doha

दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त 
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त 
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम 
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत 
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत 
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम 
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार 
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार 
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम 
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम 
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६ 
lnct jabalpur 

dwipadiyan

एक रचना 
*
प्रभु जी! हम जनता, तुम नेता
हम हारे, तुम भए विजेता।। 

प्रभु जी! सत्ता तुमरी चेरी  
हमें यातना-पीर घनेरी ।। 

प्रभु जी! तुम घपला-घोटाला   
हमखों मुस्किल भयो निवाला।।

प्रभु जी! तुम छत्तीसी छाती   
तुम दुलहा, हम महज घराती।।

प्रभु जी! तुम जुमला हम ताली 
भरी तिजोरी, जेबें खाली।।

प्रभु जी! हाथी, हँसिया, पंजा 
कंघी बाँटें, कर खें गंजा।।

प्रभु जी! भोग और हम अनशन   
लेंय खनाखन, देंय दनादन।।

प्रभु जी! मधुवन, हम तरु सूखा  
तुम हलुआ, हम रोटा रूखा।।

प्रभु जी! वक्ता, हम हैं श्रोता 
कटे सुपारी, काट सरोता।।
(रैदास से क्षमा प्रार्थना सहित)
​***
२०-११-२०१५ 
चित्रकूट एक्सप्रेस, उन्नाव-कानपूर
 

बुधवार, 15 जून 2016

doha

दोहा सलिला- 
ब्रम्ह अनादि-अनन्त है, रचता है सब सृष्टि 
निराकार आकार रच, करे कृपा की वृष्टि 
*
परम सत्य है ब्रम्ह ही, चित्र न उसका प्राप्त 
परम सत्य है ब्रम्ह ही, वेद-वचन है आप्त 
*
ब्रम्ह-सत्य जो जानता, ब्राम्हण वह इंसान 
हर काया है ब्रम्ह का, अंश सके वह मान
*
भेद-भाव करता नहीं, माने ऊँच न नीच
है समान हर आत्म को, प्रेम भाव से सींच
*
काया-स्थित ब्रम्ह ही, 'कायस्थ' ले जो जान 
छुआछूत को भूलकर, करता सबका मान 
*
राम श्याम रहमान हरि, ईसा मूसा एक 
ईश्वर को प्यारा वही, जिसकी करनी नेक 
*
निर्बल की रक्षा करे, क्षत्रिय तजकर स्वार्थ 
तभी मुक्ति वह पा सके, करे नित्य परमार्थ 
*
कर आदान-प्रदान जो, मेटे सकल अभाव 
भाव ह्रदय में प्रेम का, होता वैश्य स्वभाव 
*
पल-पल रस का पान कर, मनुज बने रस-खान 
ईश तत्व से रास कर, करे 'सलिल' गुणगान 
*
सेवा करता स्वार्थ बिन, सचमुच शूद्र महान 
आत्मा सो परमात्मा, सेवे सकल जहान 
*
चार वर्ण हैं धर्म के, हाथ-पैर लें जान 
चारों का पालन करें, नर-नारी है आन 
*
हर काया है शूद्र ही, करती सेवा नित्य 
स्नेह-प्रेम ले-दे बने, वैश्य बात है सत्य 
*
रक्षा करते निबल की, तब क्षत्रिय हों आप 
ज्ञान-दान, कुछ सीख दे, ब्राम्हण हों जग व्याप 
*
काया में रहकर करें, चारों कार्य सहर्ष 
जो वे ही कायस्थ हैं, तजकर सकल अमर्ष 
*
विधि-हरि-हर ही राम हैं, विधि-हरि-हर ही श्याम 
जो न सत्य यह मानते, उनसे प्रभु हों वाम 
*

सोमवार, 6 जून 2016

सखी छन्द

रसानंद दे छंद नर्मदा ३३ : सखी छन्द

​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा तथा इंद्रवज्रा छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए​ सखी छन्द ​से

छन्द लक्षण -
सखी मानव जातीय चौदह मात्रिक छन्द है। सखी छन्द के पंक्तयांत में लघु गुरु गुरु (१२२ यगण) या तीन गुरु (२२२ मगण) मात्राएँ होती हैं।

लक्षण छंद -
चौदह सुमात्रा सखी है
हो य-म तुकांती सदा ही।
मानव न भूले हमेशा
है वतन - भाषा पूजा ही।।
संकेत- य-म = यगण या मगण

उदाहरण-
०१. मुक्तिका
*
आँख जब भी बोलती है
राज दिल के खोलती है
.
मन बनाता है बहाना
जुबां गुपचुप तोलती है
*
ख्वाब करवट ले रहे हैं
संग कोशिश डोलती है
*
कामना जनभावना हो
श्वास में रस घोलती है
*
वृत्ति आदिम सगा-साथी
झुका आँख टटोलती है
*
याचनामय दृष्टि, दाता
पेंडुलम संग डोलती है
*
२. राजनीति मायावी है
लोभ नीति ही प्यारी है
लोक नीति से दूरी है
देश भूल मक्कारी है
***

गुरुवार, 2 जून 2016

इंद्रवज्रा

छंद सलिला ​​ : 

इंद्रवज्रा छंद 

सम वर्ण वृत्त छंद इन्द्रवज्रा (प्रत्येक चरण ११-११ वर्ण, लक्षण "स्यादिन्द्र वज्रा यदि तौ जगौ ग:" = हर चरण में तगण तगण जगण गुरु) की दो आवृत्ति। पदांत साम्य २१ वर्ण बाद। 

SSI     SSI     ISI   SS         
तगण   तगण   जगण गुरु गुरु     


विद्येव पुंसो महिमेव राज्ञः, प्रज्ञेव वैद्यस्य दयेव साधोः।
लज्जेव शूरस्य मुजेव यूनो, सम्भूषणं तस्य नृपस्य सैव॥
उदाहरण- 
०१. माँगो न माँगो भगवान देंगे, 
चाहो न चाहो भव तार देंगे।                                                                                                                       
होगा वही जो तकदीर में है, 
तदबीर के भी अनुसार देंगे।।                                                                                                                     
हारो न भागो नित कोशिशें हो, 
बाधा मिलें जो कर पार लेंगे। 
माँगो सहारा मत भाग्य से रे!,  
नौका न चाहें मँझधार लेंगे। 
०२   नाते निभाना मत भूल जाना, 
वादा किया है करके निभाना।                                                                                                                  
तोड़ा  भरोसा जुमला बताया, 
लोगों न कोसो खुद को गिराया  
____________

बुधवार, 1 जून 2016

kundalini

कुंडलिनी 

*
देख रहे गिरजेश हँस, गिरि पर खिला शिरीष 

गिरिजा से बोले विहँस, देखो मौन मनीष

देखो मौन मनीष, न नाहक शोर मचाता 

फूल लुटाता दाम न लेकिन कुछ भी पाता 

वैरागी सा खड़ा, मिटाता - खींच न रेख 

करता काम न औरों के गुण-अवगुण देख

***

बुधवार, 25 मई 2016

दोहा

दोहा सलिला :
*
अक्षर अजर अमर असित, अजित अतुल अमिताभ 
अकत अकल अकलक अकथ, अकृत अगम अजिताभ 
*
आप आब आनंदमय, आकाशी आल्हाद 
आक़ा आक़िल अजगबी, आज्ञापक आबाद 
*
इक्षवाकु इच्छुक इरा, इर्दब इलय इमाम 
इड़ा इदंतन इदंता, इन इब्दिता इल्हाम 
*
ईक्षा ईक्षित ईक्षिता, ई ईड़ा ईजान 
ईशा ईशी ईश्वरी, ईश ईष्म ईशान 
*
उत्तम उत्तर उँजेरा, उँजियारी उँजियार 
उच्छ्वासित  उज्जवल उतरु,  उजला उत्थ उकार
ऊजन ऊँचा ऊजरा, ऊ ऊतर ऊदाभ 
ऊष्मा ऊर्जा ऊर्मिदा, ऊर्जस्वी ऊ-आभ 
*
एकाकी एकाकिनी, एकादश एतबार 
एषा एषी एषणा, एषित एकाकार
*​
ऐश्वर्यी ऐरावती, ऐकार्थ्यी ऐकात्म्य
ऐतरेय ऐतिह्यदा, ऐणिक ऐंद्राध्यात्म 
*
ओजस्वी ओजुतरहित, ओंकारित ओंकार 
ओल ओलदा ओबरी, ओर ओट ओसार
*  
औगत औघड़ औजसिक, औत्सर्गिक औचिंत्य
औंगा औंगी औघड़ी, औषधीश औचित्य
*
अंक अंकिकी आंकिकी, अंबरीश अंबंश  
अंहि अंशु अंगाधिपी, अंशुल अंशी अंश 
*

मंगलवार, 24 मई 2016

doha

दोहा सलिला 

लहर-लहर लहर रहे, नागिन जैसे केश। 
कटि-नितम्ब से होड़ ले, थकित न होते लेश।।
*
वक्र भृकुटि ने कर दिए, खड़े भीत के केश।
नयन मिलाये रह सके, साहस रहा न शेष।।
*
मनुज-भाल पर स्वेद सम, केश सजाये फूल।
लट षोडशी कुमारिका, रूप निहारे फूल।।
*
मदिर मोगरा गंध पा, केश हुए मगरूर।
जुड़े ने मर्याद में, बाँधा झपट हुज़ूर।।
*
केश-प्रभा ने जब किया, अनुपम रूप-सिंगार।
कैद केश-कारा हुए, विनत सजन बलिहार।।
*
पलक झपक अलसा रही, बिखर गये हैं केश।
रजनी-गाथा अनकही, कहतीं लटें हमेश।।
*
केश-पाश में जो बँधा, उसे न भाती मुक्ति।
केशवती को पा सकें, अधर खोजते युक्ति।।
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'सलिल' बाल बाँका न हो, रोज गूँथिये बाल।
किन्तु निकालें मत कभी, आप बाल की खाल।।
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बाल खड़े हो जाएँ तो, झुका लीजिए शीश।
रुष्ट रूप से भीत ही, रहते भूप-मनीष।।
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२४-५०२०१६