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शुक्रवार, 14 नवंबर 2025

नवंबर १४, सॉनेट, नमन, हाइकु, ग़ज़ल, चौपाई ग़ज़ल, जनक छंदी ग़ज़ल, सोरठा ग़ज़ल, हवा, बाल, अचल, अचल धृति, छंद

सलिल सृजन नवंबर १४
*
सॉनेट
नमन
नमन गजानन, वंदन शारद
भू नभ रवि शशि पवन नमन।
नमन अनिल चर-अचर नमन शत
सलिल करे पद प्रक्षालन।।
नमन नाद कलकल कलरव को
नमन वर्ण लिपि क्षर-अक्षर।
नमन भाव रस लय को, भव को
नमन उसे जो तारे तर।।
नमन सुमन को, सुरभि भ्रमर को
प्यास हास को नमन रुदन।
नमन जन्म को, नमन मरण को
पीर धैर्य सद्भाव नमन।।
असंतोष को, जोश-घोष को
नमन तुष्टि के अचल कोष को।।
१४-११-२०२२
●●●
हाइकु ग़ज़ल-
नव दुर्गा का, हर नव दिन हो, मंगलकारी
नेह नर्मदा, जन-मन रंजक, संकटहारी
मैं-तू रहें न, दो मिल-जुलकर एक हो सकें
सुविचारों के, सुमन सुवासित, जीवन-क्यारी
गले लगाये, दिल को दिल खिल, गीत सुनाये
हों शरारतें, नटखटपन मन,-रञ्जनकारी
भारतवासी, सकल विश्व पर, प्यार लुटाते
संत-विरागी, सत-शिव-सुंदर, छटा निहारी
भाग्य-विधाता, लगन-परिश्रम, साथ हमारे
स्वेद बहाया, लगन लगाकर, दशा सुधारी
पंचतत्व का, तन मन-मंदिर, कर्म धर्म है
सत्य साधना, 'सलिल' करे बन, मौन पुजारी
चौपाई ग़ज़ल
यायावर मन दर-दर भटके, पर माया मृग हाथ न आए।
मन-नारायण तन नारद को, कह वानर शापित हो जाए।।
राजकुमारी चाह मनुज को, सौ-सौ नाच नचाती बचना।
'सलिल' अधूरी तृष्णा चालित, कह क्यों निज उपहास कराए।।
मन की बात करो मत हरदम, जन की बात कभी तो सुन लो।
हो जम्हूरियत तानाशाही, अपनों पर ही लट्ठ चलाए।।
दहशतगर्दी मेरी तेरी, जिसकी भी हो बहुत बुरी है।
ख्वाब हसीन मिटाकर सारे, धार खून की व्यर्थ बहाए।।
जमीं किसी की कभी न होती, बेच-खरीद हो रही नाहक।
लालच में पड़कर अपने भी, नाहक ही हो रहे पराए।।
दुश्मन की औकात नहीं जो, हमको कुछ तकलीफ दे सके।
जब भी ढाए जुल्म हमेशा, अपनों ने ही हम पर ढाए।।
कहते हैं उस्ताद मगर, शागिर्द न कोई बात मानते।
बस में हो तो उस्तादों को, पाठ लपक शागिर्द पढ़ाए।।
***
जनक छंदी ग़ज़ल
*
मेघ हो गए बाँवरे, आये नगरी-गाँव रे!, हाय! न बरसे राम रे!
प्राण न ले ले घाम अब, झुलस रहा है चाम अब, जान बचाओ राम रे!
गिरा दिया थक जल-कलश, स्वागत करते जन हरष, भीगे-डूबे भू-फ़रश
कहती उगती भोर रे, चल खेतों की ओर रे, संसद-मचे न शोर रे!
काटे वन, हो भूस्खलन, मत कर प्रकृति का दमन, ले सुधार मानव चलन
सुने नहीं इंसान रे, भोगे दण्ड-विधान रे, कलपे कह 'भगवान रे!'
तोड़े मर्यादा मनुज, करे आचरण ज्यों दनुज, इससे अच्छे हैं वनज
लोभ-मोह के पाश रे, करते सत्यानाश रे, क्रुद्ध पवन-आकाश रे!
तूफ़ां-बारिश-जल प्रलय, दोषी मानव का अनय, अकड़ नहीं, अपना विनय
अपने करम सुधार रे, लगा पौध-पतवार रे, कर धरती से प्यार रे!
*
सोरठा ग़ज़ल
आ समान जयघोष, आसमान तक गुँजाया
आस मान संतोष, आ समा न कह कराया
जिया जोड़कर कोष, खाली हाथों मर गया
व्यर्थ न करिए रोष, स्नेह न जाता भुनाया
औरों का क्या दोष, अपनों ने ही भुलाया
पालकर असंतोष, घर गैरों का बसाया
***
सुधियों के दोहे
यादों में जो बसा है, वही प्रेरणा स्रोत।
पग पग थामे हाथ वह, बनकर जीवन-ज्योत।।
जाकर भी जाते नहीं, जो हम उनके साथ।
पल पल जीवन का जिएँ, सुमिर उठाकर माथ।।
दिल में जिसने घर किया, दिल कर उसके नाम।
जागेंगे हम हर सुबह, सुमिरेंगे हर शाम।।
सुस्मृति के उद्यान में, सुरभित दिव्य गुलाब।
दिल की धड़कन है वही, वह नयनों का ख्वाब।।
बाकी जीवन कर दिया, बरबस उसके नाम।
जीवन की हर श्वास अब, उसके लिए प्रणाम।।
१४-११-२०२१
***
हवा पर दोहे
*
हवा हो गई हवा जब, मिली हवा के साथ।
दो थे मिलकर हैं, मिले हवा के हाथ।।
हवा हो गई दवा जब, हवा बही रह साफ।
हवा न दूषित कीजिए, ईश्वर करे न माफ।।
हवा न भूले कभी भी, अपना फर्ज जनाब।
हवा न बेपरदा रहे, ओढ़े नहीं नकाब।।
ऊँच-नीच से दूर रह, सबको एक समान।
मान बचाती सभी की, हवा हमेशा जान।।
भेद-भाव करती नहीं, इसे न कोई गैर।
हवा मनाती सभी की, रब से हरदम खैर।।
कुदरत का वरदान है, हवा स्वास्थ्य की खान।
हुई प्रदूषित हवा को, पल में ले ले जान।।
हवा नीर नभ भू अगन, पंचतत्व पहचान।
ईश खुदा क्राइस्ट गुरु, हवा राम-रहमान।।
*
सुंदर को सुंदर कहे, शिव है सत्य न भूल।
सुंदर कहे न जो उसे चुभता निंदा शूल।।
१४.११.२०१९
***
बाल दिवस पर
*
दाढ़ी-मूँछें बढ़ रहीं, बहुत बढ़ गए बाल।
क्यों न कटाते हो इन्हें, क्यों जाते हो टाल?
लालू लल्ला से कहें, होगा कभी बबाल।
कह आतंकी सुशासन, दे न जेल में डाल।।
लल्ला बोला समझिए, नई समय की चाल।
दाढ़ीवाले कर रहे, कुर्सी पकड़ धमाल।।
बाल बराबर भी नहीं, गली आपकी दाल।
बाल बाल बच रहा है, भगवा मचा बबाल।।
बाल न बाँका कर सकी, ३७० ढाल।
मूँड़ मुड़ा ओले पड़ें, तो होगा बदहाल।।
बाल सफेद न धूप में, होते लगते साल।
बाल झड़ें तो यूँ लगे, हुआ शीश कंगाल।।
सधवा लगती खोपड़ी, जब हों लंबे बाल।
हो विधवा श्रंगार बिन, बिना बाल टकसाल।।
चाल-चलन की बाल ही, देते रहे मिसाल।
बाल उगाने के लिए, लगता भारी माल।।
मौज उसी की जो बने, किसी नाक का बाल।
बाल मूँछ का मरोड़ें, दुश्मन हो बेहाल।।
तेल लगाने की कला, सिखलाते हैं बाल।
जॉनी वॉकर ने करी चंपी, हुआ निहाल।।
नागिन जैसी चाल हो, तो बल खाते बाल।
लट बन चूमें सुमुखि के, गोरे-गोरे गाल।।
दाढ़ी-मूँछ बढ़ाइए, तब सुधरेंगे हाल।
सब जग को भरमाइए, रखकर लंबे बाल।।
***
एक रचना
*
पुष्पाई है शुभ सुबह,
सूरज बिंदी संग
नीलाभित नभ सज रओ
भओ रतनारो रंग
*
झाँक मुँडेरे से गौरैया डोले
भोर भई बिद्या क्यों द्वार न खोले?
घिस ले दाँत गनेस, सुरसति मुँह धो
परबतिया कर स्नान, न नाहक उठ रो
बिसनू काय करे नाहक
लछमी खों तंग
*
हाँक रओ बैला खों भोला लै लठिया
संतोसी खों रुला रओ बैरी गठिया
किसना-रधिया छिप-छिप मिल रए नीम तले
बीना ऐंपन लिए बना रई हँस सतिया
मनमानी कर रए को रोके
सबई दबंग
***
नवगीत
*
सम अर्थक हैं,
नहीं कहो क्या
जीना-मरना?
*
सीता वन में;
राम अवध में
मर-मर जीते।
मिलन बना चिर विरह
किसी पर कभी न बीते।
मूरत बने एक की,
दूजी दूर अभी भी।
तब भी, अब भी
सिर्फ सियासत, सिर्फ सुभीते।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
मरना-तरना?
*
जमुन-रेणु जल,
वेणु-विरह सह,
नील हो गया।
श्याम पीत अंबर ओढ़े
कब-कहाँ खो गया?
पूछें कुरुक्षेत्र में लाशें
हाथ लगा क्या?
लुटीं गोपियाँ,
पार्थ-शीश नत,
हृदय रो गया।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
संसद-धरना?
*
कौन जिया,
ना मरा?
एक भी नाम बताओ।
कौन मरा,
बिन जिए?
उसी के जस मिल गाओ।
लोक; प्रजा; जन; गण का
खून तंत्र हँस चूसे
गुंडालय में
कृष्ण-कोट ले
दिल दहलाओ।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
हाँ - ना करना?
१३-११-१९
***

बाल कविता:
मेरे पिता
*
जब तक पिता रहे बन साया!
मैं निश्चिन्त सदा मुस्काया!
*
रोता देख उठा दुलराया
कंधे पर ले जगत दिखाया
उँगली थमा,कहा: 'बढ़ बेटा!
बिना चले कब पथ मिल पाया?'
*
गिरा- उठाकर मन बहलाया
'फिर दौड़ो'उत्साह बढ़ाया
बाँह झुला भय दूर भगाया
'बड़े बनो' सपना दिखलाया
*
'फिर-फिर करो प्रयास न हारो'
हरदम ऐसा पाठ पढ़ाया
बढ़ा हौसला दिया सहारा
मंत्र जीतने का सिखलाया
*
लालच करते देख डराया
आलस से पीछा छुड़वाया
'भूल न जाना मंज़िल-राहें
दृष्टि लक्ष्य पर रखो' सिखाया
*
रवि बन जाड़ा दूर भगाया
शशि बन सर से ताप हटाया
मैंने जब भी दर्पण देखा
खुद में बिम्ब पिता का पाया
***
बाल गीत :
चिड़िया
*
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
आनंदित हो
झूम रही है
हवा मंद बहती है
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष
छाँह में
उनकी खेल रचाओ
तुम्हें सुनाऊँगी
मैं गाकर
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से
बन कान्हा
'सखी रूठ मत सज री'
टीप रेस,
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली
हिल-मिल खेलें
तब किस्मत भी
आकर बने सहेली
नमन करो
भू को, माता को
जो यादें तहती है
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
***
कृति चर्चा :
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' नव आशाएँ जोड़ते नवगीत
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति परिचय - चुप्पियों को तोड़ते हैं, नवगीत संग्रह, योगेंद्र प्रताप मौर्य, प्रथम संस्करण २०१९, ISBN ९७८-९३-८९१७७-८७-९, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, २०.५ से. मी .x १४से. मी., पृष्ठ १२४, मूल्य १५०/-, प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, सी ४६ सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया विस्तार, नाला मार्ग, २२ गोदाम, जयपुर ३०२००६, ईमेल bodhiprakashan@gmail.com, चलभाष ९८२९०१८०८७, दूरभाष ०१४१२२१३७, रचनाकार संपर्क - ग्राम बरसठी, जौनपुर २२२१६२ उत्तर प्रदेश, ईमेल yogendramaurya198384@gmail.com, चलभाष ९४५४९३१६६७, ८४००३३२२९४]
*
सृष्टि के निर्माण का मूल 'ध्वनि' है। वैदिक वांगमय में 'ओंकार' को मूल कहा गया है तो विज्ञान बिंग बैंग थ्योरी' की दुहाई देता है। मानव सभ्यता के विकास के बढ़ते चरण 'ध्वनि' को सुनना-समझना, पहचानना, स्मरण रखना, उसमें अन्तर्निहित भाव को समझना, ध्वनि की पुनरावृत्ति कर पाना, ध्वनि को अंकित कर सकना और अंकित को पुनः ध्वनि के रूप में पढ़-समझ सकना है। ध्वनि से आरम्भ कर ध्वनि पर समाप्त होने वाला यह चक्र सकल कलाओं और विद्याओं का मूल है। प्रकृति-पुत्र मानव को ध्वनि का यह अमूल्य उपहार जन्म और प्रकृति से मिला। जन्मते ही राव (कलकल) करने वाली सनातन सलिला को जल प्रवाह के शांतिदाई कलकल 'रव' के कारण 'रेवा' नाम मिला तो जन्मते ही उच्च रुदन 'रव' के कारण शांति हर्ता कैकसी तनय को 'रावण' नाम मिला। परम शांति और परम अशांति दोनों का मूल 'रव' अर्थात ध्वनि ही है। यह ध्वनि जीवनदायी पंचतत्वों में व्याप्त है। सलिल, अनिल, भू, नभ, अनल में व्याप्त कलकल, सनसन, कलरव, गर्जन, चरचराहट आदि ध्वनियों का प्रभाव देखकर आदि मानव ने इनका महत्व जाना। प्राकृतिक घटनाओं जल प्रवाह, जल-वृष्टि, आँधी-तूफ़ान, तड़ितपात, सिंह-गर्जन, सर्प की फुँफकार, पंछियों का कलरव-चहचहाहट, हास, रुदन, चीत्कार, आदि में अंतर्निहित अनुभूतियों की प्रतीति कर, उन्हें स्मरण रखकर-दुहराकर अपने साथियों को सजग-सचेत करना, ध्वनियों को आरम्भ में संकेतों फिर अक्षरों और शब्दों के माध्यम से लिखना-पढ़ना अन्य जीवों की तुलना में मानव के द्रुत और श्रेष्ठ विकास का कारण बना।
नाद की देवी सरस्वती और लिपि, लेखनी, स्याही और अक्षर दाता चित्रगुप्त की अवधारणा व सर्वकालिक पूजन ध्वनि के प्रति मानवीय कृतग्यता ज्ञापन ही है। ध्वनि में 'रस' है। रस के बिना जीवन रसहीन या नीरस होकर अवांछनीय होगा। इसलिए 'रसो वै स:' कहा गया। वह (सृष्टिकर्ता रस ही है), रसवान भगवान और रसवती भगवती। यह रसवती जब 'रस' का उपहार मानव के लिए लाई तो रास सहित आने के कारण 'सरस्वती' हो गई। यह 'रस' निराकार है। आकार ही चित्र का जनक होता है। आकार नहीं है अर्थात चित्र नहीं है, अर्थात चित्र गुप्त है। गुप्त चित्र को प्रगट करने अर्थात निराकार को साकार करनेवाला अक्षर (जिसका क्षर न हो) ही हो सकता है। अक्षर अपनी सार्थकता के साथ संयुक्त होकर 'शब्द' हो जाता है। 'अक्षर' का 'क्षर' त्रयी (पटल, स्याही, कलम) से मिलन द्वैत को मिटाकर अद्वैत की सृष्टि करता है। ध्वनि प्राण संचार कर रचना को जीवंत कर देती है। तब शब्द सन्नाटे को भंग कर मुखर हो जाते हैं, 'चुप्पियों को तोड़ते हैं'। चुप्पियों को तोड़ने से संवाद होता है। संवाद में कथ्य हो, रस हो, लय हो तो गीत बनता है। गीत में विस्तार और व्यक्तिपरक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होता है। जब यह अनुभूति सार्वजनीन संश्लिष्ट हो तो नवगीत बनता है।
शब्द का अर्थ, रस, लय से संयोग सर्व हित साध सके तो साहित्य हो जाता है। सबका हित समाहित करता साहित्य जन-जन के कंठ में विराजता है। शब्द-साधना तप और योग दोनों है। इंद्र की तरह ध्येय प्राप्ति हेतु 'योग' कर्ता 'योगेंद्र' का 'प्रताप', पीड़ित-दलित मानव रूपी 'मुरा' से व्युत्पन्न 'मौर्य' के साथ संयुक्त होकर जन-वाणी से जन-हित साधने के लिए शस्त्र के स्थान पर शास्त्र का वरण करता है तो आदि कवि की परंपरा की अगली कड़ी बनते हुए काव्य रचता है। यह काव्य नवता और गेयता का वरण कर नवगीत के रूप में सामने हो तो उसे आत्मसात करने का मोह संवरण कैसे किया जा सकता है?
कवि शब्द-सिपाही होता है। भाषा कवि का अस्त्र और शस्त्र दोनों होती है। भाषा के साथ छल कवि को सहन नहीं होता। वह मुखर होकर अपनी पीड़ा को वाणी देता है -
लगा भाल पर
बिंदी हिंदी-
ने धूम मचाई
बाहर-बाहर
खिली हुयी
पर भीतर से मुरझाई
लील गए हैं
अनुशासन को
फैशन के दीवाने
इंग्लिश देखो
मार रही है
भोजपुरी को ताने
गाँवों से नगरों की और पलायन, स्वभाषा बोलने में लज्जा और गलत ही सही विदेशी भाषा बोलने में छद्म गौरव की प्रतीति कवि को व्यथित करती है। 'अलगू की औरत' सम्बोधन में गीतकार उस सामाजिक प्रथा को इंगित करता है, जिसमें विवाहित महिला की पहचान उसके नाम से नहीं, उसके पति के नाम से की जाती है। गागर में सागर भरने की तरह कही गयी अभिव्यक्ति में व्यंजना कवि के भावों को पैना बनाती है-
अलगू की
औरत को देखो
बैठी आस बुने है
भले गाँव में
पली-बढ़ी है
रहना शहर चुने है
घर की
खस्ताहाली पर भी
आती नहीं दया है
सीख चुकी वह
यहाँ बोलना
फर्राटे से 'हिंग्लिश'
दाँतों तले
दबाए उँगली
उसे देखकर 'इंग्लिश'
हर पल फैशन
में रहने का
छाया हुआ नशा है
लोकतंत्र 'लोक' और 'तंत्र' के मध्य विश्वास का तंत्र है। जब जन प्रतिनिधियों का कदाचरण इस विश्वास को नष्ट कर देता है तब जनता जनार्दन की पीड़ा असहनीय हो जाती है। राजनेताओं के मिथ्या आश्वासन, जनहित की अनदेखी कर मस्ती में लीन प्रशासन और खंडित होती -आस्था से उपजी विसंगति को कवि गीत के माध्यम से स्वर देता है -
संसद स्वयं
सड़क तक आई
ले झूठा आश्वासन
छली गई फिर
भूख यहाँ पर
मौज उड़ाये शासन
लंबे-चौड़े
कोरे वादे
जानें पुनः मुकरना
अपसंस्कृति के संक्रांति काल में समय से पहले सयानी होती सहनशीलता में अन्तर्निहित लाक्षणिकता पाठक को अपने घर-परिवेश की प्रतीत होती है। हर दिन आता अख़बार नकारात्मक समाचारों से भरा होता है जबकि सकारात्मक घटनाएँ खोजने से भी नहीं मिलतीं। बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं। कटु यथार्थ से घबराकर मदहोशी की डगर पकड़ने प्रवृत्ति पर कवि शब्दाघात करता है-
सुबह-सुबह
अखबार बाँचता
पीड़ा भरी कहानी
सहनशीलता
आज समय से
पहले हुई सयानी
एक सफर की
आस लगाये
दिन का घाम हुआ
अय्याशी
पहचान न पाती
अपने और पराये
बीयर ह्विस्की
'चियर्स' में
किससे कौन लजाये?
धर्म के नाम पर होता पाखंड कवि को सालता है। रावण से अधिक अनीति करनेवाले रावण को जलाते हुए भी अपने कुकर्मों पर नहीं लजाते। धर्म के नाम पर फागुन में हुए रावण वध को कार्तिक में विजय दशमी से जोड़नेवाले भले ही इतिहास को झुठलाते हैं किन्तु कवि को विश्वास है कि अंतत: सच्चाई ही जीतेगी -
फिर आयी है
विजयादशमी
मन में ले उल्लास
एक ओर
कागज का रावण
एक ओर इतिहास
एक बार फिर
सच्चाई की
होगी झूठी जीत
शासक दल के मुखिया द्वारा बार-बार चेतावनी देना, अनुयायी भक्तों द्वारा चेतावनी की अनदेखी कर अपनी कारगुजारियाँ जारी रखी जाना, दल प्रमुख द्वारा मंत्रियों-अधिकारियों दलीय कार्यकर्ताओं के काम काम करने हेतु प्रेरित करना और सरकार का सोने रहना आदि जनतंत्री संवैधानिक व्यवस्थ के कफ़न में कील ठोंकने की तरह है -
महज कागजी
है इस युग के
हाकिम की फटकार
बे-लगाम
बोली में जाने
कितने ट्रैप छुपाये
बहरी दिल्ली
इयरफोन में
बैठी मौन उगाये
लंबी चादर
तान सो गई
जनता की सरकार
कृषि प्रधान देश को उद्योग प्रधान बनाने की मृग-मरीचिका में दम तोड़ते किसान की व्यथा ग्रामवासी कवि को विचलित करती है-
लगी पटखनी
फिर सूखे से
धान हुये फिर पाई
एक बार फिर से
बिटिया की
टाली गयी सगाई
गला घोंटती
यहाँ निराशा
टूट रहे अरमान
इन नवगीतों में योगेंद्र ने अमिधा, व्यंजना और लक्षणा तीनों का यथावश्यक उपयोग किया है। इन नवगीतों की भाषा सहज, सरल, सरस, सार्थक और सटीक है। कवि जानता है कि शब्द अर्थवाही होते हैं। अनुभूति को अभिव्यक्त करते शब्दों की अर्थवत्ता मुख्या घटक है, शब्द का देशज, तद्भव, तत्सम या अन्य भाषा से व्युत्पन्न हो पाठकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है, समीक्षक भले ही नाक-भौं सिकोड़ते रहे-
उतरा पानी
हैंडपम्प का
हत्था बोले चर-चर
बिन पानी के
व्याकुल धरती
प्यासी तड़प रही है
मिट्टी में से
दूब झाँकती
फिर भी पनप रही है
'दूब झाँकती', मुखर यहाँ अपराध / ओढ़कर / गाँधी जी की खादी, नहीं भरा है घाव / जुल्म का / मरहम कौन लगाये, मेहनत कर / हम पेट भरेंगे / दो मत हमें सहारे, जैसे प्रयोग कम शब्दों में अधिक कहने की सामर्थ्य रखते हैं। यह कवि कौशल योगेंद्र के उज्जवल भविष्य के प्रति आशा जगाता है।
रूपक, उपमा आदि अलंकारों तथा बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से यत्र-तत्र प्रस्तुत शब्द-चित्र नवोदित की सामर्थ्य का परिचय देते हैं-
जल के ऊपर
जमी बर्फ का
जलचर स्वेटर पहने
सेंक रहा है
दिवस बैठकर
जलती हुई अँगीठी
और सुनाती
दादी सबको
बातें खट्टी-मीठी
आसमान
बर्फ़ीली चादर
पंछी लगे ठिठुरने
दुबका भोर
रजाई अंदर
बाहर झाँके पल-पल
विसंगियों के साथ आशावादी उत्साह का स्वर नवगीतों को भीड़ से अलग, अपनी पहचान प्रदान करता है। उत्सवधर्मिता भारतीय जन जीवन के लिए के लिए संजीवनी का काम करती है। अपनत्व और जीवट के सहारे भारतीय जनजीवन यम के दरवाजे से भी सकुशल लौट आता है। होली का अभिवादन शीर्षक नवगीत नेह नर्मदा प्रवाह का साक्षी है-
ले आया ऋतुओं
का राजा
सबके लिए गुलाल
थोड़ा ढीला
हो आया है
भाभी का अनुशासन
पिचकारी
से करतीं देखो
होली का अभिवादन
किसी तरह का
मन में कोई
रखतीं नहीं मलाल
ढोलक,झाँझ,
मजीरों को हम
दें फिर से नवजीवन
इनके होंठों पर
खुशियों का
उत्सव हो आजीवन
भूख नहीं
मजबूर यहाँ हो
करने को हड़ताल
योगेंद्र नागर और ग्राम्य दोनों परिवेशों और समाजों से जुड़े होने के नाते दोनों स्थानों पर घटित विसंगतियों और जीवन-संघर्षों से सुपरिचित हैं। उनके लिए किसान और श्रमिक, खेत और बाजार, जमींदार और उद्योगपति, पटवारी और बाबू सिक्के के दो पहलुओं की तरह सुपरिचित प्रतीत होते हैं। उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों परिवेशों से समान रूप से सम्बद्ध हो पाती है। इन नवगीतों में अधिकाँश का एकांगी होना उनकी खूबी और खामी दोनों है। जनाक्रोश उत्पन्न करने के इच्छुक जनों को विसंगतियों, विडंबनाओं, विद्रूपताओं, टकरावों और असंतोष का अतिरेकी चित्रण अभीष्ट प्रतीत होगा किंतु उन्नति, शांति, समन्वय, सहिष्णुता और ऐक्य की कामना कर रहे पाठकों को इन गीतों में राष्ट्र गौरव, जनास्था और मेल-जोल, उल्लास-हुलास का अभाव खलेगा।
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' से योगेंद्र प्रताप मौर्य ने नवगीत के आँगन में प्रवेश किया है। वे पगडंडी को चहल-पहल करते देख किसानी अर्थात श्रम या उद्योग करने हेतु उत्सुक हैं। देश का युवा मन, कोशिश के दरवाजे पर दस्तक देता है -
सुबह-सुबह
उठकर पगडंडी
करती चहल-पहल है
टन-टन करे
गले की घंटी
करता बैल किसानी
उद्यम निरर्थक-निष्फल नहीं होता, परिणाम लाता है-
श्रम की सच्ची
ताकत ही तो
फसल यहाँ उपजाती
खुरपी,हँसिया
और कुदाली
मजदूरों के साथी
तीसी,मटर
चना,सरसों की
फिर से पकी फसल है
चूल्हा-चौका
बाद,रसोई
खलिहानों को जाती
देख अनाजों
के चेहरों को
फूली नहीं समाती
टूटी-फूटी
भले झोपड़ी
लेकिन हृदय महल है
नवगीत की यह भाव मुद्रा इस संकलन की उपलब्धि है। नवगीत के आँगन में उगती कोंपलें इसे 'स्यापा ग़ीत, शोकगीत या रुदाली नहीं, आशा गीत, भविष्य गीत, उत्साह गीत बनाने की दिशा में पग बढ़ा रही है। योगेंद्र प्रताप मौर्य की पीढ़ी यदि नवगीत को इस मुकाम पर ले जाने की कोशिश करती है तो यह स्वागतेय है। किसी नवगीत संकलन का इससे बेहतर समापन हो ही नहीं सकता। यह संकलन पाठक बाँधे ही नहीं रखता अपितु उसे अन्य नवगीत संकलन पढ़ने प्रेरित भी करता है। योगेंद्र 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि युवा योगेंद्र के आगामी नवगीत संकलनों में भारतीय जन मानस की उत्सवधर्मिता और त्याग-बलिदान की भावनाएँ भी अन्तर्निहित होकर उन्हें जन-मन से अधिक सकेंगी।
***
दोहा सलिला
आभा से आभा गहे, आ भा कहकर सूर्य।
आभित होकर चमकता, बजा रहा है तूर्य।।
हवा हो गई हवा जब, मिली हवा के साथ।
दो थे मिलकर हो गए, एक हवा के हाथ।।
हवा हो गई दवा जब, हवा बही रह साफ।
हवा न दूषित कीजिए, ईश्वर करे न माफ।।
हवा न भूले कभी भी, अपना फर्ज जनाब।
हवा न बेपरदा रहे, ओढ़े नहीं नकाब।।
ऊँच-नीच से दूर रह, सबको एक समान।
मान बचाती सभी की, हवा हमेशा जान।।
भेद-भाव करती नहीं, इसे न कोई गैर।
हवा मनाती सभी की, रब से हरदम खैर।।
कुदरत का वरदान है, हवा स्वास्थ्य की खान।
हुई प्रदूषित हवा को, पल में ले ले जान।।
हवा नीर नभ भू अगन, पंचतत्व पहचान।
ईश खुदा क्राइस्ट गुरु, हवा राम-रहमान।।
१४-११-२०१८
***
मुक्तिका
लहर में भँवर या भँवर में लहर है?
अगर खुद न सम्हले, कहर ही कहर है.
उसे पूजना है, जिसे चाहना है
भले कंठ में हँस लिए वह ज़हर है
गजल क्या न पूछो कभी तुम किसी से
इतना ही देखो मुकम्मल बहर है
नहाना नदी में जाने न बच्चे
पिंजरे का कैदी हुआ सब शहर है
तुम आईं तो ऐसा मुझको लगा है
गई रात आया सुहाना सहर है
***
दोहा सलिला
सागर-सिकता सा रहें, मैं-तुम पल-पल साथ.
प्रिय सागर प्यासी प्रिया लिए हाथ में हाथ.
.
रहा गाँव में शेष है, अब भी नाता-नेह.
नगर न नेह-विहीन पर, व्याकुल है मन-देह.
.
जब तक मन में चाह थी, तब तक मिली न राह.
राह मिली अब तो नहीं, शेष रही है चाह.
.
राम नाम की चाह कर, आप मिलेगी राह.
राम नाम की राह चल, कभी न मिटती चाह.
.
दुनिया कहती युक्ति कर, तभी मिलेगी राह.
दिल कहता प्रभु-भक्ति कर, मिले मुक्ति बिन चाह.
.
भटक रहे बिन राह ही, जग में सारे जीव.
राम-नाम की राह पर, चले जीव संजीव..
१४-११-२०१७
***
बाल गीत
बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के चश्में से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खा मुस्काए
तनिक न भाती सब्जी-रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
१४-११-२०१६
***
छंद सलिला:
अचल धृति छंद
*
छंद विधान: सूत्र: ५ न १ ल, ५ नगण १ लघु = ५ (१ + १ +१ )+१ = हर पद में १६ लघु मात्रा, १६ वर्ण
उदाहरण:
१. कदम / कदम / पर ठ/हर ठ/हर क/र
ठिठक / ठिठक / कर सि/हर सि/हर क/र
हुलस / हुलस / कर म/चल म/चल क/र
मनसि/ज सम / खिल स/लिल ल/हर क/र
२. सतत / अनव/रत प/थ पर / पग ध/र
अचल / फिसल / गर सँ/भल ठि/ठकक/र
रुक म/त झुक / मत चु/क मत / थक म/त
'सलिल' / विहँस/कर प्र/वह ह/हरक/र
---
छंद सलिला:
अचल छंद
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है. इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है. हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है. मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया होगा। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है. तदनुसार
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ.
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ..
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ.
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ..
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य.
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य..
इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं
१४.११.२०१३
***

शनिवार, 18 अक्टूबर 2025

अक्टूबर १८, भाषा गीत, व्यंग्य गीत, बाल गीत, धन-तेरस, लक्ष्मी मंत्र, फलित विद्या, धर्म, दोहा,धन्वन्तरि

सलिल सृजन अक्टूबर १८
*
धन-तेरस
धन-तेरस सब जानें
धन ते रस सब मानें
धन ते प्रिय हँसता क्या?
धन ते सुख मिलता क्या?
ज्यों की त्यों चादर को
धन पा जन रखता क्या?
धन बिन सार्थक जीवन
कब मिलता धन ते जस?
परमात्मा-आत्मा का
बंधन के धन के बस?
धन कब किसको करता
बोल तनिक भी तेजस?
बस में जो धन के हो
उसका जीवन नीरस,
बस में धन जिसके हो
पाता वह ही षड्-रस
००० 

धन्वन्तरि प्राकट्य- दिवस
               (धनतेरस)
             =========
         आरोग्यशास्त्र के प्रवर्तक भगवान धन्वन्तरि के समुद्र से  अवतरण की तिथि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी "धन्वंतरि- जयंती" के रूप मे प्रतिष्ठित है। श्रीमद्भागवत के अनुसार धन्वंतरि भगवान विष्णु के अंशावतार थे। भगवान धन्वंतरि का अनुग्रह न केवल सांसारिक प्राणियों पर ही है, अपितु देवता भी इन्हीं के आश्रय से असुरों की विभीषिका से मुक्त होकर स्वस्थ, निर्भीक एवं आनंदित हो सके थे। बात उस समय की है, जब देवगणों से महर्षि दुर्वासा जी का अपराध बन पड़ा था और इसके परिणामस्वरूप न केवल देवता अपितु त्रिलोक श्रीहीन  हो गया था। दैवीसम्पद के विलुप्त हो जाने से सर्वत्र आसुरी साम्राज्य स्थापित हो चुका था। दुखी हो देवता ब्रह्माजी को साथ लेकर भगवान नारायण की शरण मे पहुंचे। नारायण ने उन्हे असुरों को साथ लेकर समुद्र मंथन का परामर्श दिया और बताया कि इस मंथन से अमृत का कलश लेकर स्वयं मै धन्वन्तरि नाम से प्रकट होऊँगा और इस अमृत के बल पर आप लोग सदा के लिए अमर हो जाएंगे।
            वेदव्यासजी श्रीमद्भागवत मे धन्वन्तरि के अवतरण का वर्णन करते हुये कहते हैं कि उस समय समुद्र के मध्य से जो दिव्यपुरुष प्रकट हुए थे, वे बड़े ही सुंदर तथा मनोज्ञ थे।उनके सभी अंग अनेक प्रकार के दिव्याभूषणों तथा अलंकारों से अलंकृत थे। उनकी तरुण अवस्था थी तथा उनका सौंदर्य अनुपम था। चिकने और घुंघराले बाल लहराते हुए उनकी छवि बड़ी अनोखी थी। उन्होंने अमृत से पूर्ण कलश धारण कर रखा था। वे साक्षात विष्णु के अंशावतार थे। वे ही आयुर्वेद के प्रवर्तक तथा यज्ञभोक्ता धन्वंतरि के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। महर्षि वाल्मीकि ने उन्हें "आयुर्वेदमय" कहा है। वे नारायण के अंश से ही अवतरित थे।उस समय भगवान विष्णु ने अप् (जल) से उत्पन्न होने के कारण उनका "अब्ज" यह नाम रखा और अनेक वर प्रदान करते हुए उनसे कहा वत्स! तुम्हारा आविर्भाव तीनों लोकों का कल्याण करने के लिए हुआ है ।अब अमृत प्राप्त कर देवता असुरों के उत्पीड़न से मुक्त हो जाएंगे। दूसरे जन्म मे तुम आयुर्वेद को परावर्तित करके उसे आठ अंगों में विभाजित कर  आरोग्य के दान से जीवमात्र का कल्याण करोगे। देवताओं के अजर, अमर तथा निरामय आदि नाम भगवान धन्वंतरि के प्रभाव से ही सार्थक हुये और भगवान धन्वंतरि आयुर्वेद के प्रवर्तक तथा आरोग्य के देवता रूप में प्रतिष्ठित हो गये। 
          इन्हीं भगवान धन्वंतरि ने कालांतर मे काशिराज 'धन्व'  के यहां जन्म लिया और उनका नाम भी धन्वंतरि ही पड़ा। वे भी नारायण के ही परंपरा- प्राप्त  अवतार थे ।उनमे सब प्रकार के रोगों को दूर करने की शक्ति प्रतिष्ठित थी। हरिवंशपुराण मे भगवान धन्वंतरि ने स्वयं कहा है कि देवताओं की वृद्धावस्था, रोग तथा मृत्यु को दूर करनेवाला आदिदेव धन्वंतरि मै ही हूं ।आयुर्वेद के अन्य अंगों सहित शल्यतंत्र का उपदेश करने के लिए फिर से इस पृथ्वी पर आया हूं। भागवत आदि अनेक ग्रंथों मे इन्हें "दीर्घतमा"  का पुत्र भी कहा गया है। शल्यशास्त्र के प्रमुख ग्रंथ 'सुश्रुत संहिता' मे अंकित है कि काशिराज धन्वंतरि से ही महर्षि सुश्रुत ने सम्पूर्ण आयुर्वेद ग्रहण किया। वहां धन्वंतरि को "दिवोदास धन्वन्तरि" कहा गया है। इस प्रकार भगवान नारायण पहले अब्ज धन्वंतरि के रूप मे, पुनः काशिराज धन्वंतरि के रूप में अवतरित हुए। उनके समुद्र से अवतरण की तिथि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी "धन्वंतरि -जयन्ती" के रूप मे प्रतिष्ठित है। आरोग्य के अधिष्ठातृ देवता के रूप मे इस तिथि को इनका विशेष पूजन आराधन आदि समारोह किया जाता है तथा आरोग्य के अवदान एवं कृपा प्राप्ति की प्रार्थना की जाती है।   
       दक्षिण भारत मे विशेष रूप से केरल मे भगवान धन्वंतरि के अनेक मंदिर और विग्रह प्रतिष्ठित हैं।तमिलनाडु के श्री रंगनाथस्वामी मंदिर के आवरण मे एक धन्वंतरि मंदिर है। वहां स्थानीय लोग रोगों से छुटकारा पाने के लिए धन्वंतरि की पूजा ,अभिषेक आदि करवाते हैं। इसी प्रकार कांचीपुरम के वरदराज स्वामी के मंदिर के परिसर मे भी धन्वंतरि का एक छोटा सा मंदिर है।  सबसे अधिक सुंदर, विशाल तथा प्रत्येक रूप का मंदिर केरल के नेल्लूवायि मे है। यह पलक्कड़ तथा त्रिशूर के बीच स्थित है ।इस मंदिर के मुख्य देवता धन्वंतरि हैं। बहुत दूर से रोगग्रस्त लोग आकर यहां कुछ दिन रहकर सेवा करते हैं और रोगों से मुक्त होकर आनंद से वापस लौटते हैं ।केरल मे "अष्टवैद्य" नामक वैद्यों के वंश प्रसिद्ध हैं। उनके वंशज अभी भी वैद्य -चिकित्सा से जनता की सेवा कर रहे हैं। इन वैद्य -वंशजों मे धन्वंतरि पूजा का विशिष्ट संप्रदाय चला आ रहा है।
        भगवान धन्वन्तरि हम सभी को आरोग्य प्रदान करें। स्वास्थ्य ही सबसे बडा धन है।"धन" तेरस पर अपने स्वास्थ्य का भी चिंतन किया जाय।
  🌺🌺🌺🌺🌺🌺                     🙏

१८.१०.२०१५
०००
अनुष्ठान:
लक्ष्मी मंत्र : क्यों और कैसे?
सहस्त्रों वर्ष पूर्व रचित भागवत पुराण के अनुसार कलियुग में एक अच्छा कुल (परिवार) वही कहलाएगा, जिसके पास सबसे अधिक धन होगा। आजकल धन जीवन की आवश्यकता पूर्ति का साधन मात्र नहीं, समाज में सम्मान पाने आधार है। जीवन में सफलता के दो आधार भाग्य और पौरुष हैं। तुलसी 'हुईहै सोहि जो राम रचि राखा / को करि तरक बढ़ावै साखा' के साथ 'कर्म प्रधान बिस्व करि राखा / जो जस करहि सो तस फल चाखा' कहकर इस द्वैत को व्यक्त करते हैं। शास्त्रों में 'उद्यमेन हि सिद्धन्ति कार्याणि न मनोरथैः / नहिं सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुख्य मृगा:' कहकर कर्म का महत्त्व दर्शाया गया है। गीता भी 'कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन' अर्थात 'कर्म मात्र अधिकार तुम्हारा, क्या फल होगा सोच न कऱ निष्काम कर्म हेतु प्रेरित करती है।
यह भी देखा जाता है कि भाग्य में धन लिखा है तो किसी न किसी प्रकार मिल जाता है, भाग्य में न हो तो सकल सावधानी के बाद भी सब वैभव नष्ट हो जाता है। सत्य नारायण की कथा के अनुसार अपने पूर्व जन्मों के कर्म का फल भी जीव को भोगना पड़ता है। ज्योतिष शास्त्र तथा धार्मिक कर्मकांड के अनुसार अनेक शास्त्रीय उपाय हैं जिन्हें करने से मनुष्य अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने में सक्षम होता है। ये शास्त्रीय उपाय मंत्र जाप, दान-पुण्य आदि हैं। धनवान बनने हेतु जातक की राशि के अनुसार धन की देवी लक्ष्मी के मंत्र का जाप करने से जातक पर धन-वर्षा होकर जीवन से दरिद्रता दूर होती है और वह सुखी बनता है। लक्ष्मी का आशीर्वाद जीवन में धन और खुशहाली दोनों लाते हैं।
मेष राशि- मंगल ग्रह से प्रभावित मेष जातक में कम साधनों में गुजारा करने का गुण नहीं होता। ये हमेशा जीवन से अधिक की अपेक्षा रखते हैं। मेष जातक को धन हेतु ‘श्रीं’ मंत्र का जाप १०००८ बार करना चाहिए।
वृषभ राशि- परिवार व जीवन के प्रति संवेदनशील वृषभ जातक 'ॐ सर्व बढ़ा विनिर्मुक्तो धन-धान्यसुतान्वित:। मनुष्योमत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:।।' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
मिथुन राशि- दोहरे व्यक्तित्ववाले मिथुन जातक अपनी धुन के पक्के तथा कार्य के प्रति समर्पित होते हैं। इन्हें 'ॐ श्रीं श्रींये नम:' मंत्र की एक माला नित्य जपनी चाहिए ।
कर्क राशि- परिवार की हर आवश्यकतापूर्ति को अपनी जिम्मेदारी समझनेवाले कर्क जातक 'ॐ श्री महालक्ष्म्यै च विद्महे विष्णु पत्न्यै च धीमहि तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ॐ॥' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
सिंह राशि- सम्मान, यश व धन के प्रति बेहद आकर्षित रहनेवाले सिंह जातक 'ॐ श्रीं महालक्ष्म्यै नम:' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
कन्या राशि- समझदार और सभी लोगों को साथ लेकर चलने वाले कन्या जातकों की जीवन के प्रति सोच सरल किन्तु शेष से भिन्न होती है। ये 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्मी नम:' मंत्र की एक माला नित्य प्रात: जपें।
तुला राशि- समझदार और सुलझे तुला जातक' ॐ श्रीं श्रीय नम:' मंत्र की एक या अधिक माला नित्य जपें।
वृश्चिक राशि- जीवनारंभ में परेशानियाँ झेल, २८ वर्ष के होने तक संपन्न होनेवाले वृश्चिक जातक अधिक उन्नति हेतु 'ॐ ह्रीं श्रीं लक्ष्मीभयो नम:' मन्त्र की एक माला नित्य जपें।
मकर राशि- मेहनती-समझदार मकर जातक जल्दबाजी न कर, हर काम सोच-विचार कर करते हैं। ये ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं सौं ॐ ह्रीं क्लीं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं ह्रीं ॐ सौं ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ॥' मंत्र की एक माला नित्य जपें।
कुंभ राशि- कुम्भ राशि स्वामी शनि कर्मानुसार फल देने वाला ग्रह है। कुम्भ जातक कर्मानुसार शुभाशुभ फल शीघ्र पाते हैं। इन्हें 'ऐं ह्रीं श्रीं अष्टलक्ष्यम्ये ह्रीं सिद्धये मम गृहे आगच्छागच्छ नमः स्वाहा।' मंत्र की एक माला जाप नित्य जपना चाहिए।
मीन राशि- राशि स्वामी देवगुरु बृहस्पतिधन-धान्य प्रदाता हैं। मीन जातक को ॐ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ॐ महालक्ष्म्यै नम:' मंत्र की दो माला नित्य जपने से फल की प्राप्ति होगी।
१८-१०-२०१७
***
धन तेरस
बरसे रस...
*
मत निन्दित
बन वन्दित।
कर ले श्रम
मन चंदित।
रचना कर
बरसे रस।
मनती तब
धन तेरस ...
*
कर साहस
वर ले यश।
ठुकरा मत
प्रभु हों खुश।
मन की सुन
तन को कस।
असली तब
धन तेरस ...
*
सब की सुन
कुछ की गुन।
नित ही नव
सपने बुन।
रख चादर
जस की तस।
उजली तब
धन तेरस
***
कृति चर्चा :
'शरणम' - निष्काम कर्मयोग आमरणं
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण - शरणं, उपन्यास, नरेंद्र कोहली, प्रथम संस्करण, २०१५, पृष्ठ २२४, मूल्य ३९५/-, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, प[रक्षक - वाणी प्रकाशन नई दिल्ली]
उपन्यास शब्द में ‘अस’ धातु है जो ‘नि’ उपसर्ग से मिलकर 'न्यास' शब्द बनाती है। 'न्यास' शब्द का अर्थ है 'धरोहर'। उपन्यास शब्द दो शब्दों उप+न्यास से मिलकर बना है। ‘उप’ अधिक समीप वाची उपसर्ग है। संस्कृत के व्याकरण सिद्ध शब्दों, न्यास व उपन्यास का पारिभाषिक अर्थ कुछ और ही होता है। एक विशेष प्रकार की टीका पद्धति को 'न्यास' कहते हैं। हिन्दी में उपन्यास शब्द कथा साहित्य के रूप में प्रयोग होता है। बांग्ला भाषा में आख्यायिका, गुजराती में नवल कथा, मराठी में कादम्बरी तथा अंग्रेजी में 'नावेल' पर्याय के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। वे सभी ग्रंथ उपन्यास हैं जो कथा सिद्धान्त के नियमों का पालन करते हुए मानव की सतत्, संगिनी, कुतूहल, वृत्ति को पात्रों तथा घटनाओं को काल्पनिक तथा ऐतिहासिक संयोजन द्वारा शान्त करते हैं। इस विधा में मनुष्य के आसपास के वातावरण दृश्य और नायक आदि सभी सम्मिलित होते हैं। इसमें मानव चित्र का बिंब निकट रखकर जीवन का चित्र एक कागज पर उतारा जाता है। प्राचीन काल में उपन्यास अविर्भाव के समय इसे आख्यायिका नाम मिला था। ‘‘कभी इसे अभिनव की अलौकिक कल्पना, आश्चर्य वृत्तान्त कथा, कल्पित प्रबन्ध कथा, सांस्कृतिक वार्ता, नवन्यास, गद्य काव्य आदि नामों से प्रसिद्धि मिली। उपन्यास को मध्यमवर्गीय जीवन का महाकाव्य भी कहा गया है वह वस्तु या कृति जिसे पढ़कर पाठक को लगे कि यह उसी की है, उसी के जीवन की कथा, उसी की भाषा में कही गई है। सारत: उपन्यास मानव जीवन की काल्पनिक कथा है।
आधुनिक युग में उपन्यास शब्द अंग्रेजी के 'नावेल' अर्थ में प्रयुक्त होता है जिसका अर्थ एक दीर्घ कथात्मक गद्य रचना है। उपन्यास के मुख्य सात तत्व कथावस्तु, पात्र या चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, देशकाल, शैली, उपदेश तथा तत्व भाव या रस हैं। उपन्यास की कथावस्तु में प्रमुख कथानक के साथ-साथ कुछ अन्य प्रासंगिक कथाएँ भी चल सकती है।उपन्यास की कथावस्तु के तीन आवश्यक गुण रोचकता स्वाभाविकता और गतिशीलता हैं। सफल उपन्यास वही है जो उपन्यास पाठक के हृदय में कौतूहल जागृत कर दे कि वह पूरी रचना को पढ़ने के लिए विवश हो जाए। पात्रों के चरित्र चित्रण में स्वभाविकता, सजीवता एवं मार्मिक विकास आवश्यक है। कथोपकथन देशकाल और शैली पर भी स्वभाविकता और सजीवता की बात लागू होती है। विचार, समस्या और उद्देश्य की व्यंजना रचना की स्वभाविकता और रोचकता में बाधक न हो। नरेंद्र कोहली के 'शरणम्' उपन्यास में तत्वों की संतुलित प्रस्तुति दृष्टव्य है। श्रीमद्भगवद्गीता जैसे अध्यात्म-दर्शन प्रधान ग्रंथ पर आधृत इस कृति में स्वाभाविकता, निरन्तरता, उपदेशपरकता, सरलता और रोचकता का पंचतत्वी सम्मिश्रण 'शरणम्' को सहज ग्राह्य बनाता है।
डॉ. श्याम सुंदर दास के अनुसार 'उपन्यास मनुष्य जीवन की काल्पनिक कथा है। 'प्रेमचंद ने उपन्यास को 'मानव चरित्र का चित्र कहा है।' तदनुसार मानव चरित्र पर प्रकाश डालना तथा उसके रहस्य को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्व है। सुधी समीक्षक आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी के शब्दो में ‘‘उपन्यास से आजकल गद्यात्मक कृति का अर्थ लिया जाता है, पद्यबद्ध कृतियाँ उपन्यास नहीं हुआ करते हैं।’’ डा. भगीरथ मिश्र के शब्दों में : ‘‘युग की गतिशील पृष्ठभूमि पर सहज शैली मे स्वाभाविक जीवन की पूर्ण झाँकी को प्रस्तुत करने वाला गद्य ही उपन्यास कहलाता है।’’ बाबू गुलाबराय लिखते हैं : ‘‘उपन्यास कार्य कारण श्रृंखला मे बँधा हुआ वह गद्य कथानक है जिसमें वास्तविक व काल्पनिक घटनाओं द्वारा जीवन के सत्यों का उद्घाटन किया है।’’ उक्त में से किसी भी परिभाषा के निकष पर 'शरणम्' को परखा जाए, वह सौ टंच खरा सिद्ध होता है।
हिंदी के आरंभिक उपन्यास केवल विचारों को ही उत्तेजित करते थे, भावों का उद्रेक नहीं करते थे। दूसरी पीढ़ी के उपन्यासकार अपने कर्तव्य व दायित्व के प्रति सजग थे। वे कलावादी होने के साथ-साथ सुधारवादी तथा नीतिवादी भी रहे। विचार तत्व उपन्यास को सार्थक व सुन्दर बनाता है। भाषा शैली में सरलता के साथ-साथ सौष्ठव पाठक को बाँधता है। घटनाओं की निरंतरता आगे क्या घटा यह जानने की उत्सुकता पैदा करती है। 'शरणम्' का कथानक से सामान्य पाठक सुपरिचियत है, इसलिए जिज्ञासा और उत्सुकता बनाए रखने की चुनौती स्वाभाविक है। इस संदर्भ में कोहली जी लिखते हैं- 'मैं उपन्यास ही लिख सकता हूँ और पाठक उपन्यास को पढ़ता भी है और समझता भी है। मैं जनता था कि यह कार्य सरल नहीं था। गीता में न कथा है, न अधिक पात्र। घटना के नाम पर विराट रूप के दर्शन हैं, घटनाएँ नहीं हैं, न कथा का प्रवाह है। संवाद हैं, वह भी इन्हीं, प्रश्नोत्तर हैं, सिद्धांत हैं, चिंतन है, दर्शन है, अध्यात्म है। उसे कथा कैसा बनाया जाए? किन्तु उपन्यासकार का मन हो तो उपन्यास ही बनता है। जैसे मनवाई के गर्भ में मानव संतान ही आकार ग्रहण करती है। टुकड़ों-टुकड़ों में उपन्यास बनता रहा। पात्रों के रूप में संजय और धृतराष्ट्र तो थे ही, हस्तिनापुर में उपस्थित कुंती भी आ गई, विदुर और उनकी पत्नी भी आ गए, गांधारी हुए उसकी बहुएँ भी आ गईं। द्वारका में बैठे वासुदेव, देवकी, रुक्मिणी और उद्धव भी आ गए। उपन्यासकार जितनी छूट ले सकता है, मैंने ली किन्तु गीता के मूल से छेड़छाड़ नहीं की।' सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यही है कि उपन्यासकार सत्य में कल्पना कितनी मिलना है, यह समझ सके और अपनी वैचारिक उड़ान की दिशा और गति पर नियंत्रण रख सके। नरेंद्र जी 'शरणम्' लिखते समय यह आत्मनियंत्रण रख सके हैं। न तो यथार्थ के कारण उपन्यास बोझिल हुआ है, न अतिरेकी कल्पना के कारण अविश्वनीय हुआ है।
'शरणम्' के पूर्व नरेंद्र कोहली ने उपन्यास, व्यंग्य, नाटक, कहानी के अलावा संस्मरण, निबंध आदि विधाओं में लगभग सौ पुस्तकें लिखीं हैं। उन्होंने महाभारत की कथा को अपने उपन्यास महासमर के आठ खंडों में समाहित किया। अपने विचारों में बेहद स्पष्ट, भाषा में शुद्धतावादी और स्वभाव से सरल लेकिन सिद्धांतों में बेहद कठोर थे। उनके चर्चित उपन्यासों में पुनरारंभ, आतंक, आश्रितों का विद्रोह, साथ सहा गया दुख, मेरा अपना संसार, दीक्षा, अवसर, जंगल की कहानी, संघर्ष की ओर, युद्ध, अभिज्ञान, आत्मदान, प्रीतिकथा, कैदी, निचले फ्लैट में, संचित भूख आदि हैं। संपूर्ण रामकथा को उन्होंने चार खंडों में १८०० पन्नों के वृहद उपन्यास में प्रस्तुत किया। उन्होंने पाठकों को भारतीयता की जड़ों तक खींचने की कामयाब कोशिश की और पौराणिक कथाओं को प्रयोगशीलता, विविधता और प्रखरता के साथ नए कलेवर में लिखा। संपूर्ण रामकथा के जरिये उन्होंने भारत की सांस्कृतिक परंपरा, समकालीन मूल्यों और आधुनिक संस्कारों की अनुभूति कराई।
हिन्दी साहित्य में 'महाकाव्यात्मक उपन्यास' की विधा को प्रारम्भ करने का श्रेय नरेंद्र जी को ही जाता है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक चरित्रों की गुत्थियों को सुलझाते हुए उनके माध्यम से आधुनिक सामाज की समस्याओं एवं उनके समाधान को समाज के समक्ष प्रस्तुत करना कोहली की अन्यतम विशेषता है। कोहलीजी सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्यकार हैं, जिन्होंने अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जीवन-शैली एवं दर्शन का सम्यक् परिचय करवाया है।
उपन्यासों के मुख्य प्रकार सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, लोक कथात्मक, आंचलिक उपन्यास, रोमानी उपन्यास, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान, प्राकृतिक, विज्ञानपरक, आध्यात्मिक, प्रयोगात्मक आदि हैं। इस कसौटी पर 'शरणम्' को किसी एक खाँचे में नहीं रखा जा सकता। 'शरणम्' के कथानक और घटनाक्रम उसे उक्त लगभग सभी श्रेणियों की प्रतिनिधि रचना बनाते हैं। यह नरेंद्र जी के लेखकीय कौशल और भाषिक नैपुण्य की अद्भुत मिसाल है। स्मृति श्रेष्ठ उपन्यास सम्राट नरेंद्र कोहली के उपन्यास 'शरणं' का अध्ययन एवं अनुशीलन पाठकों-समीक्षकों के लिए कसौटी पर कसा जाना है। यह उपन्यास एक साथ सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, यथार्थवादी, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक, तिलस्मी जादुई, वैज्ञानिक, लोक कथात्मक, कथानक प्रधान, चरित्र प्रधान, वातावरण प्रधान, महाकाव्यात्मक, जासूसी, समस्या प्रधान, भाव प्रधान, आदर्शवादी, नीति प्रधान, प्राकृतिक, विज्ञानपरक, प्रयोगात्मक, आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न उपन्यास कहा जा सकता है। इस एक उपन्यास की कथा सुपरिचित है किन्तु 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और' के अनुरूप कहना होगा कि 'निश्चय ही नरेंद्र जी का है उपन्यास हरेक और'।
हिंदी में सांस्कृतिक विरासत पर उपन्यास लेखन की नींव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बाण भट्ट की आत्मकथा (१९४६), चारुचंद्र लेख (१९६३) तथा पुनर्नवा (१९७३) जैसी औपन्यासिक कृतियों का प्रणयन कर रखी थी। आचार्य द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य में एक ऐसे द्वार को खोला जिससे गुज़र कर नरेन्द्र कोहली ने एक सम्पूर्ण युग की प्रतिष्ठा कर डाली। यह हिन्दी साहित्य के इतिहास का सबसे उज्जवल पृष्ठ है और इस नवीन प्रभात के प्रमुख ज्योतिपुंज होने का श्रेय अवश्य ही आचार्य द्विवेदी का है जिसने युवा नरेन्द्र कोहली को प्रभावित किया। परम्परागत विचारधारा एवं चरित्रचित्रण से प्रभावित हुए बगैर स्पष्ट एवं सुचिंतित तर्क के आग्रह पर मौलिक दृष्ट से सोच सकना साहित्यिक तथ्यों, विशेषतः ऐतिहासिक-पौराणिक तथ्यों का मौलिक वैज्ञानिक विश्लेषण यह वह विशेषता है जिसकी नींव आचार्य द्विवेदी ने डाली थी और उसपर रामकथा, महाभारत कथा एवं कृष्ण-कथाओं आदि के भव्य प्रासाद खड़े करने का श्रेय नरेंद्र कोहली जी का है। संक्षेप में कहा जाए तो भारतीय संस्कृति के मूल स्वर आचार्य द्विवेदी के साहित्य में प्रतिध्वनित हुए और उनकी अनुगूंज ही नरेन्द्र कोहली रूपी पाञ्चजन्य में समा कर संस्कृति के कृष्णोद्घोष में परिवर्तित हुई जिसने हिन्दी साहित्य को हिला कर रख दिया।
आधुनिक युग में नरेन्द्र कोहली ने साहित्य में आस्थावादी मूल्यों को स्वर दिया था। सन् १९७५ में उनके रामकथा पर आधारित उपन्यास 'दीक्षा' के प्रकाशन से हिंदी साहित्य में 'सांस्कृतिक पुनर्जागरण का युग' प्रारंभ हुआ जिसे हिन्दी साहित्य में 'नरेन्द्र कोहली युग' का नाम देने का प्रस्ताव भी जोर पकड़ता जा रहा है। तात्कालिक अन्धकार, निराशा, भ्रष्टाचार एवं मूल्यहीनता के युग में नरेन्द्र कोहली ने ऐसा कालजयी पात्र चुना जो भारतीय मनीषा के रोम-रोम में स्पंदित था। महाकाव्य का ज़माना बीत चुका था, साहित्य के 'कथा' तत्त्व का संवाहक अब पद्य नहीं, गद्य बन चुका था। अत्याधिक रूढ़ हो चुकी रामकथा को युवा कोहली ने अपनी कालजयी प्रतिभा के बल पर जिस प्रकार उपन्यास के रूप में अवतरित किया, वह तो अब हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ बन चुका है। युगों युगों के अन्धकार को चीरकर उन्होंने भगवान राम की कथा को भक्तिकाल की भावुकता से निकाल कर आधुनिक यथार्थ की जमीन पर खड़ा कर दिया. साहित्यिक एवम पाठक वर्ग चमत्कृत ही नहीं, अभिभूत हो गया। किस प्रकार एक उपेक्षित और निर्वासित राजकुमार अपने आत्मबल से शोषित, पीड़ित एवं त्रस्त जनता में नए प्राण फूँक देता है, 'अभ्युदय' में यह देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था। युग-युगांतर से रूढ़ हो चुकी रामकथा जब आधुनिक पाठक के रुचि-संस्कार के अनुसार बिलकुल नए कलेवर में ढलकर जब सामने आयी, तो यह देखकर मन रीझे बिना नहीं रहता कि उसमें रामकथा की गरिमा एवं रामायण के जीवन-मूल्यों का लेखक ने सम्यक् निर्वाह किया है। यह पुस्तक धर्म का ग्रंथ नहीं है। ऐसा स्वयं लेखक का कहना है। यह गीता की टीका या भाष्य भी नहीं है। यह एक उपन्यास है, शुद्ध उपन्यास, जो गीता में चर्चित सिद्धांतों को उपन्यास के रूप में पाठक के सामने रखता है। यह उपन्यास लेखक के मन में उठने वाले प्रश्नों का नतीजा है। 'शरणम्' में सामाजिक मानदंड की एक सीमा तय की गयी है जो पाठक को आकर्षित करने में सक्षम है।
***
एक शेर -
मुहब्बत भी सिमट कर रह गयी है चंद घंटों की
कि जिस दिन याद करते हैं , उसी दिन भूल जाते हैं.. -सुरेंद्र श्रीवास्तव
तुड़ा उपवास करवाचौथ का नेता सियासत में
लपटकर गैर की बाँहों में अपने भूल जाते हैं - संजीव
१८-१०-२०१६
***
भाषा गीत
(९० भाषाएँ सम्मिलित)
.
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की सब भाषाओं से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरी होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
सिंधी पश्तो बोल, लिखें व्यवहार करें हम
​​हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी का सत्कार करें हम
​हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
​कन्नौजी, ​​​​मागधी, ​​​खोंड​,​ ​सादरी, निमाड़ी​,
​सरायकी​, डिंगल​, ​खासी, ​​​​अंगिका,​ ​बज्जिका,
​जटकी, हरयाणवी,​ बैंसवाड़ी,​ ​​मारवाड़ी,​
मीज़ो​,​ मुंडा​री​​,​​ ​गारो​ ​​ ​​भुज-हार करें हम ​
​​​​​​हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
कुई​,​ मिशिंग​,​​​ ​तुलु​, ​हो​, ​भीली, खाड़ो में गाएँ
कुरूख, खानदेशी​, नागा, शेमा पढ़ पाएँ
कोकबराक, म्हार, आओ, निशि, मिकिर, सावरा
कोया, खडिया, मालतो, कोन्याक गुंजाएँ
जौनसारी, कच्छी, मुंडा, उच्चार करें हम
​हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
'सलिल' विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
***
व्यंग्य गीत :
मेरी आतुर आँखों में हैं
*
मेरी आतुर आँखों में हैं
सपना मैं भी लौटा पाऊँ
कभी कहीं तो एक इनाम।
*
पहला सुख सूचना मिलेगी
कोई मुझे सराह रहा.
मुझे पुरस्कृत करना कोई
इस दुनिया में चाह रहा.
अपने करते रहे तिरस्कृत
सदा छिपाया कड़वा सच-
समाचार छपवा सुख पाऊँ
खुद से खुद कह वाह रहा.
मेरी आतुर आँखों में हैं
नपना, छपता अख़बारों में
मैं भी देख सकूँ निज नाम।
*
दूजा सुख मैं लेने जाऊँ
पुरस्कार, फूले छाती.
महसूसूं बिन-दूल्हा-घोड़ा
मैं बन पाया बाराती.
फोटू खिंचे-छपे, चर्चा हो
बिके किताब हजारों में
भाषण - इंटरव्यू से गर्वित
हों मेरे पोते-नाती।
मेरी आतुर आँखों में हैं
समारोह करतल ध्वनि
सभागार की दिलकश शाम।
*
तीजा सुख मैं दोष किसी को
दे, सिर ऊँचा कर पाऊँ.
अपनी करनी रहूँ छिपाये
दोष अन्य के गिनवाऊँ.
चुनती जिसे करोड़ों जनता
मैं उसको ही कोसूँगा-
अहा! विधाता सारी गड़बड़
मैं उसके सर थोपूँगा.
मेरी आतुर आँखों में हैं
गर्वित निज छवि, देखूँ
उसका मिटता नाम।
१८-१०-२०१५
***
अंध श्रद्धा और अंध आलोचना के शिकंजे में भारतीय फलित विद्याएँ
भारतीय फलित विद्याओं (ज्योतषशास्त्र, सामुद्रिकी, हस्तरेखा विज्ञान, अंक ज्योतिष आदि) तथा धार्मिक अनुष्ठानों (व्रत, कथा, हवन, जाप, यज्ञ आदि) के औचित्य, उपादेयता तथा प्रामाणिकता पर प्रायः प्रश्नचिन्ह लगाये जाते हैं. इनपर अंधश्रद्धा रखनेवाले और इनकी अंध आलोचना रखनेवाले दोनों हीं विषयों के व्यवस्थित अध्ययन, अन्वेषणों तथा उन्नयन में बाधक हैं. शासन और प्रशासन में भी इन दो वर्गों के ही लोग हैं. फलतः इन विषयों के प्रति तटस्थ-संतुलित दृष्टि रखकर शोध को प्रोत्साहित न किये जाने के कारण इनका भविष्य खतरे में है.
हमारे साथ दुहरी विडम्बना है
१. हमारे ग्रंथागार और विद्वान सदियों तक नष्ट किये गए. बचे हुए कभी एक साथ मिल कर खोये को दुबारा पाने की कोशिश न कर सके. बचे ग्रंथों को जन्मना ब्राम्हण होने के कारण जिन्होंने पढ़ा वे विद्वान न होने के कारण वर्णित के वैज्ञानिक आधार नहीं समझ सके और उसे ईश्वरीय चमत्कार बताकर पेट पालते रहे. उन्होंने ग्रन्थ तो बचाये पर विद्या के प्रति अन्धविश्वास को बढ़ाया। फलतः अंधविरोध पैदा हुआ जो अब भी विषयों के व्यवस्थित अध्ययन में बाधक है.
२. हमारे ग्रंथों को विदेशों में ले जाकर उनके अनुवाद कर उन्हें समझ गया और उस आधार पर लगातार प्रयोग कर विज्ञान का विकास कर पूरा श्रेय विदेशी ले गये. अब पश्चिमी शिक्षा प्रणाली से पढ़े और उस का अनुसरण कर रहे हमारे देशवासियों को पश्चिम का सब सही और पूर्व का सब गलत लगता है. लार्ड मैकाले ने ब्रिटेन की संसद में भारतीय शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन पर हुई बहस में जो अपन लक्ष्य बताया था, वह पूर्ण हुआ है.
इन दोनों विडम्बनाओं के बीच भारतीय पद्धति से किसी भी विषय का अध्ययन, उसमें परिवर्तन, परिणामों की जाँच और परिवर्धन असीम धैर्य, समय, धन लगाने से ही संभव है.
अब आवश्यक है दृष्टि सिर्फ अपने विषय पर केंद्रित रहे, न प्रशंसा से फूलकर कुप्पा हों, न अंध आलोचना से घबरा या क्रुद्ध होकर उत्तर दें. इनमें शक्ति का अपव्यय करने के स्थान पर सिर्फ और सिर्फ विषय पर केंद्रित हों.
संभव हो तो राष्ट्रीय महत्व के बिन्दुओं जैसे घुसपैठ, सुरक्षा, प्राकृतिक आपदा (भूकंप, तूफान. अकाल, महत्वपूर्ण प्रयोगों की सफलता-असफलता) आदि पर पर्याप्त समयपूर्व अनुमान दें तो उनके सत्य प्रमाणित होने पर आशंकाओं का समाधान होगा। ऐसे अनुमान और उनकी सत्यता पर शीर्ष नेताओं, अधिकारियों-वैज्ञानिकों-विद्वानों को व्यक्तिगत रूप से अवगत करायें तो इस विद्या के विधिवत अध्ययन हेतु व्यवस्था की मांग की जा सकेगी।
***
मुक्तिका:
मुक्त कह रहे मगर गुलाम
तन से मन हो बैठा वाम
कर मेहनत बन जायेंगे
तेरे सारे बिगड़े काम
बद को अच्छा कह-करता
जो वह हो जाता बदनाम
सदा न रहता कोई यहाँ
किसका रहा हमेशा नाम?
भले-बुरे की फ़िक्र नहीं
करे कबीरा अपना काम
बन संजीव, न हो निर्जीव
सुबह, दुपहरी या हो शाम
खिला पंक से भी पंकज
सलिल निरंतर रह निष्काम
*
बाल गीत:
अहा! दिवाली आ गयी
आओ! साफ़-सफाई करें
मेहनत से हम नहीं डरें
करना शेष लिपाई यहाँ
वहाँ पुताई आज करें
हर घर खूब सजा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
कचरा मत फेंको बाहर
कचराघर डालो जाकर
सड़क-गली सब साफ़ रहे
खुश हों लछमी जी आकर
श्री गणेश-मन भा गयी
अहा! दिवाली आ गयी
स्नान-ध्यान कर, मिले प्रसाद
पंचामृत का भाता स्वाद
दिया जला उजियारा कर
फोड़ फटाके हो आल्हाद
शुभ आशीष दिला गयी
अहा! दिवाली आ गयी
*
मुक्तक:
मँहगा न मँहगा सस्ता न सस्ता
सस्ता विदेशी करे हाल खस्ता
लेना स्वदेशी कुटियों से सामां-
उसका भी बच्चा मिले ले के बस्ता
उद्योगपतियों! मुनाफा घटाओ
मजदूरी थोड़ी कभी तो बढ़ाओ
सरकारों कर में रियायत करो अब
मरा जा रहा जन उसे मिल जिलाओ
कुटियों का दीपक महल आ जलेगा
तभी स्वप्न कोई कुटी में पलेगा
शहरों! की किस्मत गाँवों से चमके
गाँवों का अपना शहर में पलेगा
*
क्षणिका :
तुम्हारा हर सच
गलत है
हमारा
हर सच गलत है
यही है
अब की सियासत
दोस्त ही
करते अदावत
१८-१०-२०१४
*
दोहा सलिला:
जिज्ञासा ही धर्म है
*
धर्म बताता है यही, निराकार है ईश.
सुनते अनहद नाद हैं, ऋषि, मुनि, संत, महीश..
मोहक अनहद नाद यह, कहा गया ओंकार.
सघन हुए ध्वनि कण, हुआ रव में भव संचार..
चित्र गुप्त था नाद का. कण बन हो साकार.
परम पिता ने किया निज, लीला का विस्तार..
अजर अमर अक्षर यही, 'ॐ' करें जो जाप.
ध्वनि से ही इस सृष्टि में, जाता पल में व्याप..
'ॐ' बना कण फिर हुए, ऊर्जा के विस्फोट.
कोटि-कोटि ब्रम्हांड में, कण-कण उसकी गोट..
चौसर पाँसा खेल वह, वही दाँव वह चाल.
खिला खेलता भी वही, होता करे निहाल..
जब न देख पाते उसे, लगता भ्रम जंजाल.
अस्थि-चर्म में वह बसे, वह ही है कंकाल..
धूप-छाँव, सुख-दुःख वही, देता है पोशाक.
वही चेतना बुद्धि वह, वही दृष्टि वह वाक्..
कर्ता-भोक्ता भी वही, हम हैं मात्र निमित्त.
कर्ता जानें स्वयं को, भरमाता है चित्त..
जमा किया सत्कर्म जो, वह सुख देता नित्य.
कर अकर्म दुःख भोगती, मानव- देह अनित्य..
दीनबन्धु वह- आ तनिक, दीनों के कुछ काम.
मत धनिकों की देहरी, जा हो विनत प्रणाम..
धन-धरती है उसी की, क्यों करता भण्डार?
व्यर्थ पसारा है 'सलिल', ढाई आखर सार..
ज्यों की त्यों चादर रहे, लगे न कोई दाग.
नेह नर्मदा नित नहा, तज सारा खटराग..
जिज्ञासा ही धर्म है, ज्ञान प्राप्ति ही कर्म.
उसकी तनिक प्रतीति की, चेतनता का मर्म..
१८-१०-२०१०
*




बुधवार, 15 अक्टूबर 2025

अक्तूबर १५, ग़ज़ल, बाल, दोहा, प्रभाती, फिटकरी, आंकिक उपमान, नेपाली, नदी, देवनागरी

सलिल सृजन अक्तूबर १५
विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर
पर्यटन प्रकोष्ठ
 गत २ मई २०२५ से ८ मई २०२५ तक मारीशस तथा २६अगस्त २०२५ से ३१ अगस्त २०२५ तक श्री लंका की सफल यात्राओं के पश्चात अब दुबई (२५ दिसंबर २०२५ से ३१ दिसंबर २०२५) तथा उत्तराखंड (१० फरवरी २०२५ से १६ फरवरी २०२५) यात्राएँ प्रस्तावित हैं। 
जो साथी इन स्थानों की यात्रा निर्धारित तारीखों में करने के इच्छुक हैं वे अपना नाम, शहर तथा वाट्स एप क्रमांक अंकित करें।

अ. दुबई यात्रा (२५ दिसंबर २०२५ से ३१ दिसंबर २०२५) 
व्यय अनुमान प्रति व्यक्ति- १.१ लाख रु. 
१. संजीव वर्मा 'सलिल' जबलपुर ९४२५१८३२४४
२. दुर्गेश ब्योहार 'दर्शन' जबलपुर ८८३९२०६३९१
३. 
४. 
५.

आ. उत्तराखंड यात्रा (१० फरवरी २०२६ से १६ फरवरी २०२६)
व्यय अनुमान प्रति व्यक्ति- ३० हजार रु.
१. संजीव वर्मा 'सलिल' जबलपुर ९४२५१८३२४४
२. चंद्र शेखर लोहुमी पुणे ९५६१२११९९०
३. 
४.
५.
६. 
००० 
एक रचना: नेपाली अनुवाद :
संजीव वर्मा 'सलिल' विधि गुरुङ्ग
* *
ओ मेरी नेपाली सखी! हे मेरो नेपाली संगी!
एक सच जान लो एउटा सत्य थाहा पाऊ
समय के साथ आती-जाती है समय संग आउञ्छ जान्छ
धूप और छाँव छाया र घाम
लेकिन हम नहीं छोड़ते हैं तर हामी छोर्दैनौ है
अपना घर या गाँव। आफ्नो घर र गाम
परिस्थितियाँ बदलती हैं, परिस्थिति बद्लि रहन्छ
दूरियाँ घटती-बढ़ती हैं दुरी घटी-बढ़ी रहन्छ
लेकिन दोस्त नहीं बदलते तर मित्रता बदलिन्दैन
दिलों के रिश्ते नहीं टूटते। मनको नाता तुतिन्दैन
मुँह फुलाकर रूठ जाने से मुख फुलाएर रिसाउने बितिकै
सदियों की सभ्यताएँ सदियौंको सभ्यता
समेत नहीं होतीं। बिलिन हुँदैन।
हम-तुम एक थे, हामी तिमि एक थियौं ,
एक हैं, एक रहेंगे। एक छौं एक रही रहनेछौ
अपना सुख-दुःख आफ्नो सुख-दुःख,
अपना चलना-गिरना हिंद्नु- लड्नु
संग-संग उठना-बढ़ना संग - संग उठ्नु - अघि बढनु
कल भी था, हिजो पनि थियौं,
कल भी रहेगा। आज पनि छौं भोलिनी रहनेछौं
आज की तल्खी आजको कट्तुता
मन की कड़वाहट मनको कड़वाहट
बिन पानी के बदल की तरह पानी बिनको बादल सरी
न कल थी, न हिजो थियो
न कल रहेगी। न भोली रहन्छ
नेपाल भारत के ह्रदय में नेपाल भारतको मनमा
भारत नेपाल के मन में भारत नेपालको मनमा
था, है और रहेगा। सदा रहन्छ।
इतिहास हमारी मित्रता की इतिहांस ले हाम्रो मित्रता को
कहानियाँ कहता रहा है, कथा सुनाउंछ
कहता रहेगा। सुनाई रहनेछ
आओ, हाथ में लेकर हाथ आऊ, हाथ मा लिएर हाथ
कदम बढ़ाएँ एक साथ पाइला चालऊं एक साथ
न झुकाया है, न झुकाएँ न निहुराएको थियौं, शिर न झुकाउने छौं
हमेशा ऊँचा रखें अपना माथ। हमेसा उच्च थियो शिर उच्चनै राख्ने छौं
नेता आयेंगे-जायेंगे नेता आउँछ - जान्छ
संविधान बनेंगे-बदलेंगे संबिधान बन्छ बद्लिन्छ
लेकिन हम-तुम तर तिमि-हामी,
कोटि-कोटि जनगण करोडौं जनता
न बिछुड़ेंगे, न लड़ेंगे न छुट छौं, न लड्छौं
दूध और पानी की तरह दूध र पानी जस्तै
शिव और भवानी की तरह शिव र पार्वती जस्तै
जन्म-जन्म साथ थे, जुनी जुनी साथ थियौं
हैं और रहेंगे छौं र रही रहन्छौं
ओ मेरी नेपाली सखी! हे मेरो नेपाली संगी!
*** ***

हिंदी ग़ज़ल
वज़्न: २२ २२ २२ २
अरकान- फेलुन फेलुन फेलुन फा।
बह्र- बहरे मीर (लघु)
० 
पर्वत सागर खाई दे।
गगन पिता भू माई दे।।
.
हँसी उड़ा लूँ खुद की खुद।
तू न मुझे रुसवाई दे।। 
कर लूँ साँसें बाराती।
नव आशा शहनाई दे।। 
.
दिन दोहा होकर झूमे।
रात मुझे चौपाई दे।। 
.
जीते जी जो जान ले ले।
ऐसी मत मँहगाई दे।। 
.
रुपयों ने सुख-चैन हरा
धेला-आना-पाई दे।।
.
मुक्ति दिला दे 'ब्रो-सिस' से।
घर-घर जीजी-भाई दे।।
.
पर सुख की प्रभु चाह न हो
चाहे पीर पराई दे।।
.
जन्म मिला संजीव बनूँ
थोड़ी तो बीनाई दे।।
०००
ब्रो-सिस = ब्रदर-सिस्टर
बीनाई= सत्य देखने की क्षमता
१५-१०-२०२५ 
***
बाल रचना
बोलो कम तुम ज्यादा पढ़ना
एक-एक कर सीढ़ी चढ़ना
अपने सपने यदि सच करना
कंकर से तुम शंकर गढ़ना
पीछे रहो न धक्का देना
चलना तेज निरंतर बढ़ना
है आसान बैठना घर में
मुश्किल होता बाहर कढ़ना
कोशिश-फ्रेम बना ले पहले
चित्र सफलता का तब मढ़ना
***
एक रचना 
सृष्टि, तप और मुक्ति 
० 
सृष्टि रची क्यों प्रभु ने कौन बताएगा? 
तप में बाधक या साधक समझाएगा?
लक्ष्य मुक्ति या पुनर्जन्म है कौन कहे-
मिले कर्म-परिणाम, नहीं बच पाएगा।। 
*
बाधा होता अगर विश्व यह
क्यों रचता इसको करतार?
साधन है यह साध्य नहीं है
समझ सहायक है संसार।
मन से मन की बात करो रे!
मत औरों को दो उपदेश।
मन ही पालन करे हुक्म का
मन ही दे मन को आदेश।
देख बाहरी दुनिया मन ने
चैन न पाया मूँदे नैन।
देखूँ तनिक भीतरी दुनिया
उजियाली हो मन में रैन।
अपने में डूबूँ, अपने से
आप करूँ साक्षात् तनिक।
आप प्रश्न कर उत्तर खोजूँ
सुनूँ आप की बात तनिक।
कर मस्तक में ऊर्जा केंद्रित
मन में झिलमिल दिखे प्रकाश।
ग्रह नक्षत्र सूर्य शशि भू सह
दिखे सिंधु, सारा आकाश।
हेरे मन को मन ही मन, मन
टेरे मन को मन ही मन।
शांति असीम मिले अंतर को
परम शांत हो निज चेतन।
तप तब ही जब देह-जगत हो
बिन काया-माया तप नाहिं।
छाया ईश्वर की पाना तो
रम कर, मत रम तू जग माहिं।
१५-१०-२०२२
***
कार्य शाला - छंद दोहा
प्रकार: अर्धसम मात्रिक छंद
विधान २ पद, २ विषम चरण, २ सम चरण, १३-११ पर यति, पदादि में एज शब्द में जगण निषेध, पदांत गुरु-लघु
*
दोहा में 'दो' मूल है, द्विपदी दो पग जान।
दो-दो हैं सम-विषम पद, कहता चरण जहान।।
*
गौ भाषा को दोहता, दोहा गहता अर्थ।
गागर में सागर भरे, दोहाकार समर्थ।।
*
विषम चरण दो आदि में, पहला-तीजा देख।
दूजा-चौथा सम चरण, दो इनको अवरेख।।
*
दो अक्षर गुरु-लघु रहें, पंक्ति-अंत उच्चार।
दो शब्दों में जगन का, है प्रयोग स्वीकार।।
*
मानव की करतूत लख, भुवन भास्कर लाल।
पर्यावरण बिगाड़कर, आप बुलाता काल।।
*
प्रकृति अपर्णा हो रही, ठूँठ रहे कुछ शेष।
शीघ्र समय वह आ रहा, मानव हो निश्शेष।।
*
नीर् वायु कर प्रदूषित, मचा रहा नर शोर।
प्रकृति-पुत्र होकर करे, नाश प्रकृति का घोर।।
*
हत्या करता वनों की, रौंदे खोद पहाड़।
क्रुद्ध प्रकृति आकाश भी, विपदा रही दहाड़।।
*
माटी मिट है कीच अब, बनी न तेरी कब्र।
चेताता है लाल रवि, सुधर तनिक कर सब्र।।
१५-१०-२०२१
***
प्रभाती
*
टेरे गौरैया जग जा रे!
मूँद न नैना, जाग शारदा
भुवन भास्कर लेत बलैंया
झट से मोरी कैंया आ रे!
ऊषा गुइयाँ रूठ न जाए
मैना गाकर तोय मनाए
ओढ़ रजैया मत सो जा रे!
टिट-टिट करे गिलहरी प्यारी
धौरी बछिया गैया न्यारी
भूखा चारा तो दे आ रे!
पायल बाजे बेद-रिचा सी
चूड़ी खनके बने छंद भी
मूँ धो सपर भजन तो गा रे!
बिटिया रानी! बन जा अम्मा
उठ गुड़िया का ले ले चुम्मा
रुला न आते लपक उठा रे!
अच्छर गिनती सखा-सहेली
महक मोगरा चहक चमेली
श्यामल काजल नजर उतारे
सुर-सरगम सँग खेल-खेल ले
कठिनाई कह सरल झेल ले
बाल भारती पढ़ बढ़ जा रे!
१५-१०-२०१९
***
घरेलू नुस्खे / आयुर्वेद
फिटकरी के उपयोग:
१. पिसी फिटकरी चौथाई चम्मच, एक कप कच्चे दूध में डाल,लस्सी बनाकर दो-दो घंटे बाद पिलाने से गर्भपात रुकता है
२. श्वेत प्रदर एवं रक्त प्रदर दोनों में चौथाई चम्मच पिसी फिटकरी पानी से रोजाना 3 बार फाँकें।
३.खूनी बवासीर होने पर फिटकरी को पानी में घोलकर गुदा में पिचकारी दें। साफ कपड़ा फिटकरी के पानी में भिगोकर गुदा-द्वार पर रखें ।
४. सुजाक (पेशाब करते समय जलन) हो तो ६ ग्राम पिसी हुई फिटकरी एक गिलास पानी में घोलकर कुछ दिन पिएँ।
५. सर्दियों में पानी में ज्यादा काम करने से अँगुलियों में सूजन या खाज होने पर पानी में फिटकरी उबालकर उससे धोएँ।
६. ज्यादा सुरापान के बाद ६ग्राम फिटकरी पानी में घोलकर पीने से नशा कम होता है।
७. गले में दर्द होने पर गर्म पानी में फिटकरी और नमक डालकर गरारे करने से टॉन्सिल ठीक होते हैं। मुँह, गला और दाँत भी साफ होते हैं।
८. बार-बार बुखार आने एक ग्राम फिटकरी में दो ग्राम चीनी को मिलाकर २-२ घंटे के अंतर से से दो बार दें।
९. दाँत दर्द हो तो फिटकरी को रूई में रखकर छेद में दबा दें और लार टपकाएँ। दाँत दर्द ठीक हो जाएगा।
१०. फिटकरी को पानी में घोलकर कुल्ले करने से मुँह के छाले ठीक हो जाते हैं।
११. कान में चींटी चली जाए तो फिटकरी को पानी में घोलकर कान में डालें। चींटी बाहर निकल आएगी।
१२. आधा गिलास पानी में ६ ग्राम फिटकरी घोलकर कुछ दिन पिलाने से हैजे में लाभ होता है।
१३. आंतरिक चोट लगने पर ४ ग्राम फिटकरी पीसकर आधा किलो गाय के दूध में मिलाकर पिलाने से लाभ होता है।
१४. हाथ-पाँव में पसीना आता हो तो फिटकरी को पानी में घोलकर इससे हाथ-पाँव धोएँ।
१५. फिटकरी के पानी से सिर धोने से जुएँ नष्ट हो जाती हैं।
१६. चार्म रोग से प्रभावित भाग को फिटकरी के पानी से दिन में ३-४ बार धो लें। सभी प्रकार के चर्मरोग मिट जाते हैं।
१७. आधा ग्राम पिसी हुई फिटकरी शहद में मिलाकर चाटने से दमा और खाँसी में आराम मिलता है।
१८. गाय के दूध में थोड़ी-सी फिटकरी घोलकर ३-४-बूँद नाक में डालने से नाक में खून आना बंद हो जाता है।
१९. फिटकरी के चूर्ण में शहद मिलाकर उसमें रूई लपेटकर कान में रखने से कान का घाव भर जाता है।
२०. पिसी हुई फिटकरी पानी में घोलकर दिन में २ बार कुल्ला करने से पायरिया रोग ठीक होता है।
२१. नजला-जुकाम होने पर फिटकरी को गर्म तवे पर फुलाकर महीन पीस लें,एक चुटकी गुनगुने पानी के साथ दिन में तीन बार लें।
२२. अनचाहे बाल हटाने के लिए फिटकरी को पानी के साथ जहाँ से बाल हटाना हैं, वहाँ सप्ताह में दो दिन लगाकर आधे घंटे बाद पानी से धोलें। उसके बाद वेक्स द्वारा बालों को हटा दें। कुछ समय बाद बाल आने बंद हो जाएँगे।
***
कार्य शाला- छंद दोहा
प्रकार: अर्धसम मात्रिक छंद
विधान २ पद, २ विषम चरण, २ सम चरण, १३-११ पर यति, पदादि में एज शब्द में जगण निषेध, पदांत गुरु-लघु
*
मानव की करतूत लख, भुवन भास्कर लाल.
पर्यावरण बिगाड़कर, आप बुलाता काल.
*
प्रकृति अपर्णा हो रही, ठूँठ रहे कुछ शेष
शीघ्र समय वह आ रहा, मानव हो निश्शेष
*
नीर् वायु कर प्रदूषित, मचा रहा नर शोर
प्रकृति-पुत्र होकर करे, नाश प्रकृति का घोर.
*
हत्या करता वनों की, रौंदे खोद पहाड़.
क्रुद्ध प्रकृति आकाश भी, विपदा रही दहाड़
*
माटी मिट है कीच अब, बनी न तेरी कब्र.
चेताता है लाल रवि, सुधर तनिक कर सब्र.
***
मुक्तिका
*
२६ मात्रिक राशि-रत्न छंद
विधान- यति १२-१४, पदांत IS
*
पंक जब दे छोड़ तब, पंकज लुटा परिमल सके
रहे लिपटा पंक में, जो वह न पूजित हो सखे!
सिर्फ कमियाँ खोजना, औरों की खुद को श्रेष्ठ कह
आत्म-अवलोकन करे, तो कमी खुद में भी दिखे
और की खूबी नहीं, होती सहन जिस दृष्टि को
मोतिया बन खामियाँ, देखीं वहीं हमने पले
क्लिष्टता आराध्य कह, जो प्रेत हैं कठिनाई के
डर उन्हीं से छंद तज, युव राह ग़ज़लों की चुने
सराहे तुलसी गए, जब जायसी से अधिक तो
विवश खेमेबाज मिल, मानस रखें नीचे लजे
मुक्तिका हिंदी गजल, पर गीतिका जो कह रहे
तेवरी उपहास कर, उनका सतत गुपचुप हँसे
[टिप्पणी- नवाविष्कृत छंद, राशि १२, रत्न १४]
***
छंद शास्त्र में आंकिक उपमान:
*
छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, बताइये।
क्या नवगीतों में इन आंकिक प्रतिमानों का उपयोग इन अर्थों में किया जाना उचित होगा?
*
एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत, एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: ?। दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म/गर्मी।मामा:कंस, शकुनि, माहुल।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज / त्रिकोण तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: । अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य।धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम, द्वारिका। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्त्व: पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।,
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र,
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: । दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
घतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।
सोलह - षोडश मातृका: गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजय, जाया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, शांति, पुष्टि, धृति, तुष्टि, मातर, आत्म देवता। ब्रम्ह की सोलह कला: प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम।, चन्द्र कलाएं: अमृता, मंदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, ससिचिनी, चन्द्रिका, कांता, ज्योत्सना, श्री, प्रीती, अंगदा, पूर्ण, पूर्णामृता। १६ कलाओंवाले पुरुष के १६ गुण सुश्रुत शारीरिक से: सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्राण, अपान, उन्मेष, निमेष, बुद्धि, मन, संकल्प, विचारणा, स्मृति, विज्ञान, अध्यवसाय, विषय की उपलब्धि। विकारी तत्व: ५ ज्ञानेंद्रिय, ५ कर्मेंद्रिय तथा मन। संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि। श्रृंगार: ।
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।,
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।
छब्बीस - राशि-रत्न (१४-१२ =२६)
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
*
३३ कोटि देवता
*
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
१५-१०-१०१८
***
दोहा
नेह-नर्मदा नहाकर, मन-मयूर के नाम
तन्मय तन ने लिख दिया, चिन्मय चित बेदाम
***
एक रचना: नेपाली अनुवाद :
संजीव वर्मा 'सलिल' विधि गुरुङ्ग
* *
ओ मेरी नेपाली सखी! हे मेरो नेपाली संगी!
एक सच जान लो एउटा सत्य थाहा पाऊ
समय के साथ आती-जाती है समय संग आउञ्छ जान्छ
धूप और छाँव छाया र घाम
लेकिन हम नहीं छोड़ते हैं तर हामी छोर्दैनौ है
अपना घर या गाँव। आफ्नो घर र गाम
परिस्थितियाँ बदलती हैं, परिस्थिति बद्लि रहन्छ
दूरियाँ घटती-बढ़ती हैं दुरी घटी-बढ़ी रहन्छ
लेकिन दोस्त नहीं बदलते तर मित्रता बदलिन्दैन
दिलों के रिश्ते नहीं टूटते। मनको नाता तुतिन्दैन
मुँह फुलाकर रूठ जाने से मुख फुलाएर रिसाउने बितिकै
सदियों की सभ्यताएँ सदियौंको सभ्यता
समेत नहीं होतीं। बिलिन हुँदैन।
हम-तुम एक थे, हामी तिमि एक थियौं ,
एक हैं, एक रहेंगे। एक छौं एक रही रहनेछौ
अपना सुख-दुःख आफ्नो सुख-दुःख,
अपना चलना-गिरना हिंद्नु- लड्नु
संग-संग उठना-बढ़ना संग - संग उठ्नु - अघि बढनु
कल भी था, हिजो पनि थियौं,
कल भी रहेगा। आज पनि छौं भोलिनी रहनेछौं
आज की तल्खी आजको कट्तुता
मन की कड़वाहट मनको कड़वाहट
बिन पानी के बदल की तरह पानी बिनको बादल सरी
न कल थी, न हिजो थियो
न कल रहेगी। न भोली रहन्छ
नेपाल भारत के ह्रदय में नेपाल भारतको मनमा
भारत नेपाल के मन में भारत नेपालको मनमा
था, है और रहेगा। सदा रहन्छ।
इतिहास हमारी मित्रता की इतिहांस ले हाम्रो मित्रता को
कहानियाँ कहता रहा है, कथा सुनाउंछ
कहता रहेगा। सुनाई रहनेछ
आओ, हाथ में लेकर हाथ आऊ, हाथ मा लिएर हाथ
कदम बढ़ाएँ एक साथ पाइला चालऊं एक साथ
न झुकाया है, न झुकाएँ न निहुराएको थियौं, शिर न झुकाउने छौं
हमेशा ऊँचा रखें अपना माथ। हमेसा उच्च थियो शिर उच्चनै राख्ने छौं
नेता आयेंगे-जायेंगे नेता आउँछ - जान्छ
संविधान बनेंगे-बदलेंगे संबिधान बन्छ बद्लिन्छ
लेकिन हम-तुम तर तिमि-हामी,
कोटि-कोटि जनगण करोडौं जनता
न बिछुड़ेंगे, न लड़ेंगे न छुट छौं, न लड्छौं
दूध और पानी की तरह दूध र पानी जस्तै
शिव और भवानी की तरह शिव र पार्वती जस्तै
जन्म-जन्म साथ थे, जुनी जुनी साथ थियौं
हैं और रहेंगे छौं र रही रहन्छौं
ओ मेरी नेपाली सखी! हे मेरो नेपाली संगी!
*** ***
महाकवि सूरदास का एक दुर्लभ पद-
...................................................
महराज भवानी, ब्रह्म्भुवन की रानी।
आगे शंकर तांडव करत हैं, भाव करत शूलपानी।।
सुर-नर-गन्धर्व की भीड़ भई है, आगे खड़ा दंडपानी।
‘सूरदास’ प्रभु पल-पल निरखत, भक्तवत्सल जगदानी।।
(नोट- इस पद को पं० भीमसेन जोशी ने गाया है, जिसको ‘म्यूजिक टुडे’ ने अपनी ‘भक्तिमाला’ सीरीज में रिकॉर्ड कर कैसेट संख्या डी-92005 में प्रस्तुत किया है.)
***
नव गीत:
*
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
*
खिलता हुआ पलाश सुलगता
वॅलिंटाइन पर्व याद कर
हवा बसंती, फ़िज़ां नशीली
बहक रही है लिपट-चिपटकर
घूँघट-बेंदा, पायल-झुमका
झिझक-झेंपती लाज कहाँ है?
सर की, दर की
फ़िक्र जिसे थी, बाट नहीं है
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
*
पनघट, नुक्क्ड़, चौपालों से
अपनापन हो गया पराया
खलिहानों ने अमराई को-
लूट-रौंदकर दिल बहलाया
नौ दिन-रात पूज नौ देवी
खुद, जग को छले भक्त ही
बदी बढ़ी पर
हुई न अब तक खाट खड़ी है
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
*
पूरा-पुरातन दिव्य सभ्यता
अब केवल बाजार हो गयी
रिश्ते-नाते, ममता-लोरी
राखी, बिंदिया भार हो गयी
जंगल, पर्वत, रेत, शिलाएँ
बेचीं, अब आत्मा की बारी
संसाधन हैं
तबियत मगर उचाट हुई है
नदी वही है
लेकिन वह घर-घाट नहीं है
१४- १०-२०१५
***
विमर्श
देवनागरी लिपि में लिखने वालों के लिए कुछ उपयोगी बाते...
हिन्दी लिखने वाले अक़्सर 'ई' और 'यी' में, 'ए' और 'ये' में और 'एँ' और 'यें' में जाने-अनजाने गड़बड़ करते हैं...।
कहाँ क्या इस्तेमाल होगा, इसका ठीक-ठीक ज्ञान होना चाहिए...।
जिन शब्दों के अन्त में 'ई' आता है वे संज्ञाएँ होती हैं क्रियाएँ नहीं... जैसे: मिठाई, मलाई, सिंचाई, ढिठाई, बुनाई, सिलाई, कढ़ाई, निराई, गुणाई, लुगाई, लगाई-बुझाई...।
इसलिए 'तुमने मुझे पिक्चर दिखाई' में 'दिखाई' ग़लत है... इसकी जगह 'दिखायी' का प्रयोग किया जाना चाहिए...। इसी तरह कई लोग 'नयी' को 'नई' लिखते हैं...। 'नई' ग़लत है , सही शब्द 'नयी' है... मूल शब्द 'नया' है , उससे 'नयी' बनेगा...।
क्या तुमने क्वेश्चन-पेपर से आंसरशीट मिलायी...?
( 'मिलाई' ग़लत है...।)
आज उसने मेरी मम्मी से मिलने की इच्छा जतायी...।
( 'जताई' ग़लत है...।)
उसने बर्थडे-गिफ़्ट के रूप में नयी साड़ी पायी...। ('पाई' ग़लत है...।)
अब आइए 'ए' और 'ये' के प्रयोग पर...।
बच्चों ने प्रतियोगिता के दौरान सुन्दर चित्र बनाये...। ( 'बनाए' नहीं...। )
लोगों ने नेताओं के सामने अपने-अपने दुखड़े गाये...। ( 'गाए' नहीं...। )
दीवाली के दिन लखनऊ में लोगों ने अपने-अपने घर सजाये...। ( 'सजाए' नहीं...। )
तो फिर प्रश्न उठता है कि 'ए' का प्रयोग कहाँ होगा..? 'ए' वहाँ आएगा जहाँ अनुरोध या रिक्वेस्ट की बात होगी...।
अब आप काम देखिए, मैं चलता हूँ...। ( 'देखिये' नहीं...। )
आप लोग अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी के विषय में सोचिए...। ( 'सोचिये' नहीं...। )
नवेद! ऐसा विचार मन में न लाइए...। ( 'लाइये' ग़लत है...। )
अब आख़िर (अन्त) में 'यें' और 'एँ' की बात... यहाँ भी अनुरोध का नियम ही लागू होगा... रिक्वेस्ट की जाएगी तो 'एँ' लगेगा , 'यें' नहीं...।
आप लोग कृपया यहाँ आएँ...। ( 'आयें' नहीं...। )
जी बताएँ , मैं आपके लिए क्या करूँ ? ( 'बतायें' नहीं...। )
मम्मी , आप डैडी को समझाएँ...। ( 'समझायें' नहीं...। )
अन्त में सही-ग़लत का एक लिटमस टेस्ट... एकदम आसान सा... जहाँ आपने 'एँ' या 'ए' लगाया है , वहाँ 'या' लगाकर देखें...। क्या कोई शब्द बनता है ? यदि नहीं , तो आप ग़लत लिख रहे हैं...।
आजकल लोग 'शुभकामनायें' लिखते हैं... इसे 'शुभकामनाया' कर दीजिए...। 'शुभकामनाया' तो कुछ होता नहीं , इसलिए 'शुभकामनायें' भी नहीं होगा...।
'दुआयें' भी इसलिए ग़लत हैं और 'सदायें' भी... 'देखिये' , 'बोलिये' , 'सोचिये' इसीलिए ग़लत हैं क्योंकि 'देखिया' , 'बोलिया' , 'सोचिया' कुछ नहीं होते...।
रचयिता...अज्ञात...
डॉ Anita Singh की वाल से साभार ।
Sanjiv Verma 'salil' आपके अनुसार तो 'भला हुआ' में 'हुआ' क्रिया होने के कारण स्त्रीलिंग 'हुयी' होगा जो गलत है। मूल बात यह है की 'आ' का 'स्त्रीलिंग 'ई' होगा और 'या' का 'यी' बहुवचन में क्रमश: 'ए' और 'ये' होगा। अपवाद भी हैं। जैसे' तू आ' यह स्त्रीलिंग और पुल्लिंग में समान रहेगा और बहुवचन में 'तुम सब आओ' होगा। हुआ, हुई, हुए, गया, गयी, गये सही रूप हैं।
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Book Review
Showers to the Bowers : Poetry full of emotions
(Particulars of the book _ Showers to Bowers, poetry collection, N. Marthymayam 'Osho', pages 72, Price Rs 100, Multycolour Paperback covr, Amrit Prakashan Gwalior )
Poetry is the expression of inner most feelings of the poet. Every human being has emotions but the sestivity, depth and realization of a poet differs from others. that's why every one can'nt be a poet. Shri N. Marthimayam Osho is a mechanical engineer by profession but by heart he has a different metal in him. He finds the material world very attractive, beautiful and full of joy inspite of it's darkness and peshability. He has full faith in Almighty.
The poems published in this collection are ful of gratitudes and love, love to every one and all of us. In a poem titled 'Lending Labour' Osho says- ' Love is life's spirit / love is lamp which lit / Our onus pale room / Born all resplendor light / under grace, underpeace / It's time for Divine's room / who weave our soul bright. / Admire our Aur, Wafting breez.'
'Lord of love, / I love thy world / pure to cure, no sword / can scan of slain the word / The full of fragrance. I feel / so charming the wing along the wind/ carry my heart, wchih meet falt and blend' the poem ' We are one' expresses the the poet's viewpoint in the above quoted lines.
According to famous English poet Shelly ' Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.' Osho's poetry is full of sweetness. He feels that to forgive & forget is the best policy in life. He is a worshiper of piece. In poem 'Purity to unity' the poet say's- 'Poems thine eternal verse / To serve and save the mind / Bringing new twilight to find / Pray for the soul's peace to acquire.'
Osho prays to God 'Light my life,/ Light my thought,/ WhichI sought.' 'Infinite light' is the prayer of each and every wise human being. The speciality of Osho's poetry is the flow of emotions, Words form a wave of feelings. Reader not only read it but becomes indifferent part of the poem. That's why Osho's feeliongs becomes the feelings of his reader.
Bliss Buddha, The Truth, High as heaven, Ode to nature, Journey to Gnesis, Flowing singing music, Ending ebbing etc. are the few of the remarkable poems included in this collection. Osho is fond of using proper words at proper place. He is more effective in shorter poems as they contain ocean of thoughts in drop of words. The eternal values of Indian philosophy are the inner most instict and spirit of Osho's poetry. The karmyoga of Geeta, Vasudhaiv kutumbakam, sarve bhavantu sukhinah, etc. can be easily seen at various places. The poet says- 'Beings are the owner of their action, heirs of their action" and 'O' eternal love to devine / Becomes the remedy.'
In brief the poems of this collection are apable of touching heart and take the reader in a delighted world of kindness and broadness. The poet prefers spirituality over materialism.
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दोहा सलिला
भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य.
स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य..
आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ.
फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ..
मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत.
हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत..
शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान.
जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान..
राम वही आराम हो. जिसको सदा हराम.
जो निज-चिंता भूलकर सबके सधे काम..
दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान.
दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान..
सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प.
पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प..
हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ.
विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ..
कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान.
परम सत्य उससे नहीं, रह पता अनजान..
हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास.
इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास..
रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार. स्वार्थ- बैर,
मद-क्रोध को, बन लछमन संहार..
१५-१०-२०१०
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