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शुक्रवार, 14 नवंबर 2025

नवंबर १४, सॉनेट, नमन, हाइकु, ग़ज़ल, चौपाई ग़ज़ल, जनक छंदी ग़ज़ल, सोरठा ग़ज़ल, हवा, बाल, अचल, अचल धृति, छंद

सलिल सृजन नवंबर १४
*
सॉनेट
नमन
नमन गजानन, वंदन शारद
भू नभ रवि शशि पवन नमन।
नमन अनिल चर-अचर नमन शत
सलिल करे पद प्रक्षालन।।
नमन नाद कलकल कलरव को
नमन वर्ण लिपि क्षर-अक्षर।
नमन भाव रस लय को, भव को
नमन उसे जो तारे तर।।
नमन सुमन को, सुरभि भ्रमर को
प्यास हास को नमन रुदन।
नमन जन्म को, नमन मरण को
पीर धैर्य सद्भाव नमन।।
असंतोष को, जोश-घोष को
नमन तुष्टि के अचल कोष को।।
१४-११-२०२२
●●●
हाइकु ग़ज़ल-
नव दुर्गा का, हर नव दिन हो, मंगलकारी
नेह नर्मदा, जन-मन रंजक, संकटहारी
मैं-तू रहें न, दो मिल-जुलकर एक हो सकें
सुविचारों के, सुमन सुवासित, जीवन-क्यारी
गले लगाये, दिल को दिल खिल, गीत सुनाये
हों शरारतें, नटखटपन मन,-रञ्जनकारी
भारतवासी, सकल विश्व पर, प्यार लुटाते
संत-विरागी, सत-शिव-सुंदर, छटा निहारी
भाग्य-विधाता, लगन-परिश्रम, साथ हमारे
स्वेद बहाया, लगन लगाकर, दशा सुधारी
पंचतत्व का, तन मन-मंदिर, कर्म धर्म है
सत्य साधना, 'सलिल' करे बन, मौन पुजारी
चौपाई ग़ज़ल
यायावर मन दर-दर भटके, पर माया मृग हाथ न आए।
मन-नारायण तन नारद को, कह वानर शापित हो जाए।।
राजकुमारी चाह मनुज को, सौ-सौ नाच नचाती बचना।
'सलिल' अधूरी तृष्णा चालित, कह क्यों निज उपहास कराए।।
मन की बात करो मत हरदम, जन की बात कभी तो सुन लो।
हो जम्हूरियत तानाशाही, अपनों पर ही लट्ठ चलाए।।
दहशतगर्दी मेरी तेरी, जिसकी भी हो बहुत बुरी है।
ख्वाब हसीन मिटाकर सारे, धार खून की व्यर्थ बहाए।।
जमीं किसी की कभी न होती, बेच-खरीद हो रही नाहक।
लालच में पड़कर अपने भी, नाहक ही हो रहे पराए।।
दुश्मन की औकात नहीं जो, हमको कुछ तकलीफ दे सके।
जब भी ढाए जुल्म हमेशा, अपनों ने ही हम पर ढाए।।
कहते हैं उस्ताद मगर, शागिर्द न कोई बात मानते।
बस में हो तो उस्तादों को, पाठ लपक शागिर्द पढ़ाए।।
***
जनक छंदी ग़ज़ल
*
मेघ हो गए बाँवरे, आये नगरी-गाँव रे!, हाय! न बरसे राम रे!
प्राण न ले ले घाम अब, झुलस रहा है चाम अब, जान बचाओ राम रे!
गिरा दिया थक जल-कलश, स्वागत करते जन हरष, भीगे-डूबे भू-फ़रश
कहती उगती भोर रे, चल खेतों की ओर रे, संसद-मचे न शोर रे!
काटे वन, हो भूस्खलन, मत कर प्रकृति का दमन, ले सुधार मानव चलन
सुने नहीं इंसान रे, भोगे दण्ड-विधान रे, कलपे कह 'भगवान रे!'
तोड़े मर्यादा मनुज, करे आचरण ज्यों दनुज, इससे अच्छे हैं वनज
लोभ-मोह के पाश रे, करते सत्यानाश रे, क्रुद्ध पवन-आकाश रे!
तूफ़ां-बारिश-जल प्रलय, दोषी मानव का अनय, अकड़ नहीं, अपना विनय
अपने करम सुधार रे, लगा पौध-पतवार रे, कर धरती से प्यार रे!
*
सोरठा ग़ज़ल
आ समान जयघोष, आसमान तक गुँजाया
आस मान संतोष, आ समा न कह कराया
जिया जोड़कर कोष, खाली हाथों मर गया
व्यर्थ न करिए रोष, स्नेह न जाता भुनाया
औरों का क्या दोष, अपनों ने ही भुलाया
पालकर असंतोष, घर गैरों का बसाया
***
सुधियों के दोहे
यादों में जो बसा है, वही प्रेरणा स्रोत।
पग पग थामे हाथ वह, बनकर जीवन-ज्योत।।
जाकर भी जाते नहीं, जो हम उनके साथ।
पल पल जीवन का जिएँ, सुमिर उठाकर माथ।।
दिल में जिसने घर किया, दिल कर उसके नाम।
जागेंगे हम हर सुबह, सुमिरेंगे हर शाम।।
सुस्मृति के उद्यान में, सुरभित दिव्य गुलाब।
दिल की धड़कन है वही, वह नयनों का ख्वाब।।
बाकी जीवन कर दिया, बरबस उसके नाम।
जीवन की हर श्वास अब, उसके लिए प्रणाम।।
१४-११-२०२१
***
हवा पर दोहे
*
हवा हो गई हवा जब, मिली हवा के साथ।
दो थे मिलकर हैं, मिले हवा के हाथ।।
हवा हो गई दवा जब, हवा बही रह साफ।
हवा न दूषित कीजिए, ईश्वर करे न माफ।।
हवा न भूले कभी भी, अपना फर्ज जनाब।
हवा न बेपरदा रहे, ओढ़े नहीं नकाब।।
ऊँच-नीच से दूर रह, सबको एक समान।
मान बचाती सभी की, हवा हमेशा जान।।
भेद-भाव करती नहीं, इसे न कोई गैर।
हवा मनाती सभी की, रब से हरदम खैर।।
कुदरत का वरदान है, हवा स्वास्थ्य की खान।
हुई प्रदूषित हवा को, पल में ले ले जान।।
हवा नीर नभ भू अगन, पंचतत्व पहचान।
ईश खुदा क्राइस्ट गुरु, हवा राम-रहमान।।
*
सुंदर को सुंदर कहे, शिव है सत्य न भूल।
सुंदर कहे न जो उसे चुभता निंदा शूल।।
१४.११.२०१९
***
बाल दिवस पर
*
दाढ़ी-मूँछें बढ़ रहीं, बहुत बढ़ गए बाल।
क्यों न कटाते हो इन्हें, क्यों जाते हो टाल?
लालू लल्ला से कहें, होगा कभी बबाल।
कह आतंकी सुशासन, दे न जेल में डाल।।
लल्ला बोला समझिए, नई समय की चाल।
दाढ़ीवाले कर रहे, कुर्सी पकड़ धमाल।।
बाल बराबर भी नहीं, गली आपकी दाल।
बाल बाल बच रहा है, भगवा मचा बबाल।।
बाल न बाँका कर सकी, ३७० ढाल।
मूँड़ मुड़ा ओले पड़ें, तो होगा बदहाल।।
बाल सफेद न धूप में, होते लगते साल।
बाल झड़ें तो यूँ लगे, हुआ शीश कंगाल।।
सधवा लगती खोपड़ी, जब हों लंबे बाल।
हो विधवा श्रंगार बिन, बिना बाल टकसाल।।
चाल-चलन की बाल ही, देते रहे मिसाल।
बाल उगाने के लिए, लगता भारी माल।।
मौज उसी की जो बने, किसी नाक का बाल।
बाल मूँछ का मरोड़ें, दुश्मन हो बेहाल।।
तेल लगाने की कला, सिखलाते हैं बाल।
जॉनी वॉकर ने करी चंपी, हुआ निहाल।।
नागिन जैसी चाल हो, तो बल खाते बाल।
लट बन चूमें सुमुखि के, गोरे-गोरे गाल।।
दाढ़ी-मूँछ बढ़ाइए, तब सुधरेंगे हाल।
सब जग को भरमाइए, रखकर लंबे बाल।।
***
एक रचना
*
पुष्पाई है शुभ सुबह,
सूरज बिंदी संग
नीलाभित नभ सज रओ
भओ रतनारो रंग
*
झाँक मुँडेरे से गौरैया डोले
भोर भई बिद्या क्यों द्वार न खोले?
घिस ले दाँत गनेस, सुरसति मुँह धो
परबतिया कर स्नान, न नाहक उठ रो
बिसनू काय करे नाहक
लछमी खों तंग
*
हाँक रओ बैला खों भोला लै लठिया
संतोसी खों रुला रओ बैरी गठिया
किसना-रधिया छिप-छिप मिल रए नीम तले
बीना ऐंपन लिए बना रई हँस सतिया
मनमानी कर रए को रोके
सबई दबंग
***
नवगीत
*
सम अर्थक हैं,
नहीं कहो क्या
जीना-मरना?
*
सीता वन में;
राम अवध में
मर-मर जीते।
मिलन बना चिर विरह
किसी पर कभी न बीते।
मूरत बने एक की,
दूजी दूर अभी भी।
तब भी, अब भी
सिर्फ सियासत, सिर्फ सुभीते।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
मरना-तरना?
*
जमुन-रेणु जल,
वेणु-विरह सह,
नील हो गया।
श्याम पीत अंबर ओढ़े
कब-कहाँ खो गया?
पूछें कुरुक्षेत्र में लाशें
हाथ लगा क्या?
लुटीं गोपियाँ,
पार्थ-शीश नत,
हृदय रो गया।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
संसद-धरना?
*
कौन जिया,
ना मरा?
एक भी नाम बताओ।
कौन मरा,
बिन जिए?
उसी के जस मिल गाओ।
लोक; प्रजा; जन; गण का
खून तंत्र हँस चूसे
गुंडालय में
कृष्ण-कोट ले
दिल दहलाओ।
सम अर्थक हैं
नहीं कहो क्या
हाँ - ना करना?
१३-११-१९
***

बाल कविता:
मेरे पिता
*
जब तक पिता रहे बन साया!
मैं निश्चिन्त सदा मुस्काया!
*
रोता देख उठा दुलराया
कंधे पर ले जगत दिखाया
उँगली थमा,कहा: 'बढ़ बेटा!
बिना चले कब पथ मिल पाया?'
*
गिरा- उठाकर मन बहलाया
'फिर दौड़ो'उत्साह बढ़ाया
बाँह झुला भय दूर भगाया
'बड़े बनो' सपना दिखलाया
*
'फिर-फिर करो प्रयास न हारो'
हरदम ऐसा पाठ पढ़ाया
बढ़ा हौसला दिया सहारा
मंत्र जीतने का सिखलाया
*
लालच करते देख डराया
आलस से पीछा छुड़वाया
'भूल न जाना मंज़िल-राहें
दृष्टि लक्ष्य पर रखो' सिखाया
*
रवि बन जाड़ा दूर भगाया
शशि बन सर से ताप हटाया
मैंने जब भी दर्पण देखा
खुद में बिम्ब पिता का पाया
***
बाल गीत :
चिड़िया
*
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
आनंदित हो
झूम रही है
हवा मंद बहती है
कहती: 'बच्चों!
पानी सींचो,
पौधे लगा-बचाओ
बन जाएँ जब वृक्ष
छाँह में
उनकी खेल रचाओ
तुम्हें सुनाऊँगी
मैं गाकर
लोरी, आल्हा, कजरी
कहना राधा से
बन कान्हा
'सखी रूठ मत सज री'
टीप रेस,
कन्ना गोटी,
पिट्टू या बूझ पहेली
हिल-मिल खेलें
तब किस्मत भी
आकर बने सहेली
नमन करो
भू को, माता को
जो यादें तहती है
चहक रही
चंपा पर चिड़िया
शुभ प्रभात कहती है
***
कृति चर्चा :
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' नव आशाएँ जोड़ते नवगीत
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[कृति परिचय - चुप्पियों को तोड़ते हैं, नवगीत संग्रह, योगेंद्र प्रताप मौर्य, प्रथम संस्करण २०१९, ISBN ९७८-९३-८९१७७-८७-९, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, २०.५ से. मी .x १४से. मी., पृष्ठ १२४, मूल्य १५०/-, प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, सी ४६ सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया विस्तार, नाला मार्ग, २२ गोदाम, जयपुर ३०२००६, ईमेल bodhiprakashan@gmail.com, चलभाष ९८२९०१८०८७, दूरभाष ०१४१२२१३७, रचनाकार संपर्क - ग्राम बरसठी, जौनपुर २२२१६२ उत्तर प्रदेश, ईमेल yogendramaurya198384@gmail.com, चलभाष ९४५४९३१६६७, ८४००३३२२९४]
*
सृष्टि के निर्माण का मूल 'ध्वनि' है। वैदिक वांगमय में 'ओंकार' को मूल कहा गया है तो विज्ञान बिंग बैंग थ्योरी' की दुहाई देता है। मानव सभ्यता के विकास के बढ़ते चरण 'ध्वनि' को सुनना-समझना, पहचानना, स्मरण रखना, उसमें अन्तर्निहित भाव को समझना, ध्वनि की पुनरावृत्ति कर पाना, ध्वनि को अंकित कर सकना और अंकित को पुनः ध्वनि के रूप में पढ़-समझ सकना है। ध्वनि से आरम्भ कर ध्वनि पर समाप्त होने वाला यह चक्र सकल कलाओं और विद्याओं का मूल है। प्रकृति-पुत्र मानव को ध्वनि का यह अमूल्य उपहार जन्म और प्रकृति से मिला। जन्मते ही राव (कलकल) करने वाली सनातन सलिला को जल प्रवाह के शांतिदाई कलकल 'रव' के कारण 'रेवा' नाम मिला तो जन्मते ही उच्च रुदन 'रव' के कारण शांति हर्ता कैकसी तनय को 'रावण' नाम मिला। परम शांति और परम अशांति दोनों का मूल 'रव' अर्थात ध्वनि ही है। यह ध्वनि जीवनदायी पंचतत्वों में व्याप्त है। सलिल, अनिल, भू, नभ, अनल में व्याप्त कलकल, सनसन, कलरव, गर्जन, चरचराहट आदि ध्वनियों का प्रभाव देखकर आदि मानव ने इनका महत्व जाना। प्राकृतिक घटनाओं जल प्रवाह, जल-वृष्टि, आँधी-तूफ़ान, तड़ितपात, सिंह-गर्जन, सर्प की फुँफकार, पंछियों का कलरव-चहचहाहट, हास, रुदन, चीत्कार, आदि में अंतर्निहित अनुभूतियों की प्रतीति कर, उन्हें स्मरण रखकर-दुहराकर अपने साथियों को सजग-सचेत करना, ध्वनियों को आरम्भ में संकेतों फिर अक्षरों और शब्दों के माध्यम से लिखना-पढ़ना अन्य जीवों की तुलना में मानव के द्रुत और श्रेष्ठ विकास का कारण बना।
नाद की देवी सरस्वती और लिपि, लेखनी, स्याही और अक्षर दाता चित्रगुप्त की अवधारणा व सर्वकालिक पूजन ध्वनि के प्रति मानवीय कृतग्यता ज्ञापन ही है। ध्वनि में 'रस' है। रस के बिना जीवन रसहीन या नीरस होकर अवांछनीय होगा। इसलिए 'रसो वै स:' कहा गया। वह (सृष्टिकर्ता रस ही है), रसवान भगवान और रसवती भगवती। यह रसवती जब 'रस' का उपहार मानव के लिए लाई तो रास सहित आने के कारण 'सरस्वती' हो गई। यह 'रस' निराकार है। आकार ही चित्र का जनक होता है। आकार नहीं है अर्थात चित्र नहीं है, अर्थात चित्र गुप्त है। गुप्त चित्र को प्रगट करने अर्थात निराकार को साकार करनेवाला अक्षर (जिसका क्षर न हो) ही हो सकता है। अक्षर अपनी सार्थकता के साथ संयुक्त होकर 'शब्द' हो जाता है। 'अक्षर' का 'क्षर' त्रयी (पटल, स्याही, कलम) से मिलन द्वैत को मिटाकर अद्वैत की सृष्टि करता है। ध्वनि प्राण संचार कर रचना को जीवंत कर देती है। तब शब्द सन्नाटे को भंग कर मुखर हो जाते हैं, 'चुप्पियों को तोड़ते हैं'। चुप्पियों को तोड़ने से संवाद होता है। संवाद में कथ्य हो, रस हो, लय हो तो गीत बनता है। गीत में विस्तार और व्यक्तिपरक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होता है। जब यह अनुभूति सार्वजनीन संश्लिष्ट हो तो नवगीत बनता है।
शब्द का अर्थ, रस, लय से संयोग सर्व हित साध सके तो साहित्य हो जाता है। सबका हित समाहित करता साहित्य जन-जन के कंठ में विराजता है। शब्द-साधना तप और योग दोनों है। इंद्र की तरह ध्येय प्राप्ति हेतु 'योग' कर्ता 'योगेंद्र' का 'प्रताप', पीड़ित-दलित मानव रूपी 'मुरा' से व्युत्पन्न 'मौर्य' के साथ संयुक्त होकर जन-वाणी से जन-हित साधने के लिए शस्त्र के स्थान पर शास्त्र का वरण करता है तो आदि कवि की परंपरा की अगली कड़ी बनते हुए काव्य रचता है। यह काव्य नवता और गेयता का वरण कर नवगीत के रूप में सामने हो तो उसे आत्मसात करने का मोह संवरण कैसे किया जा सकता है?
कवि शब्द-सिपाही होता है। भाषा कवि का अस्त्र और शस्त्र दोनों होती है। भाषा के साथ छल कवि को सहन नहीं होता। वह मुखर होकर अपनी पीड़ा को वाणी देता है -
लगा भाल पर
बिंदी हिंदी-
ने धूम मचाई
बाहर-बाहर
खिली हुयी
पर भीतर से मुरझाई
लील गए हैं
अनुशासन को
फैशन के दीवाने
इंग्लिश देखो
मार रही है
भोजपुरी को ताने
गाँवों से नगरों की और पलायन, स्वभाषा बोलने में लज्जा और गलत ही सही विदेशी भाषा बोलने में छद्म गौरव की प्रतीति कवि को व्यथित करती है। 'अलगू की औरत' सम्बोधन में गीतकार उस सामाजिक प्रथा को इंगित करता है, जिसमें विवाहित महिला की पहचान उसके नाम से नहीं, उसके पति के नाम से की जाती है। गागर में सागर भरने की तरह कही गयी अभिव्यक्ति में व्यंजना कवि के भावों को पैना बनाती है-
अलगू की
औरत को देखो
बैठी आस बुने है
भले गाँव में
पली-बढ़ी है
रहना शहर चुने है
घर की
खस्ताहाली पर भी
आती नहीं दया है
सीख चुकी वह
यहाँ बोलना
फर्राटे से 'हिंग्लिश'
दाँतों तले
दबाए उँगली
उसे देखकर 'इंग्लिश'
हर पल फैशन
में रहने का
छाया हुआ नशा है
लोकतंत्र 'लोक' और 'तंत्र' के मध्य विश्वास का तंत्र है। जब जन प्रतिनिधियों का कदाचरण इस विश्वास को नष्ट कर देता है तब जनता जनार्दन की पीड़ा असहनीय हो जाती है। राजनेताओं के मिथ्या आश्वासन, जनहित की अनदेखी कर मस्ती में लीन प्रशासन और खंडित होती -आस्था से उपजी विसंगति को कवि गीत के माध्यम से स्वर देता है -
संसद स्वयं
सड़क तक आई
ले झूठा आश्वासन
छली गई फिर
भूख यहाँ पर
मौज उड़ाये शासन
लंबे-चौड़े
कोरे वादे
जानें पुनः मुकरना
अपसंस्कृति के संक्रांति काल में समय से पहले सयानी होती सहनशीलता में अन्तर्निहित लाक्षणिकता पाठक को अपने घर-परिवेश की प्रतीत होती है। हर दिन आता अख़बार नकारात्मक समाचारों से भरा होता है जबकि सकारात्मक घटनाएँ खोजने से भी नहीं मिलतीं। बच्चे समय से पहले बड़े हो रहे हैं। कटु यथार्थ से घबराकर मदहोशी की डगर पकड़ने प्रवृत्ति पर कवि शब्दाघात करता है-
सुबह-सुबह
अखबार बाँचता
पीड़ा भरी कहानी
सहनशीलता
आज समय से
पहले हुई सयानी
एक सफर की
आस लगाये
दिन का घाम हुआ
अय्याशी
पहचान न पाती
अपने और पराये
बीयर ह्विस्की
'चियर्स' में
किससे कौन लजाये?
धर्म के नाम पर होता पाखंड कवि को सालता है। रावण से अधिक अनीति करनेवाले रावण को जलाते हुए भी अपने कुकर्मों पर नहीं लजाते। धर्म के नाम पर फागुन में हुए रावण वध को कार्तिक में विजय दशमी से जोड़नेवाले भले ही इतिहास को झुठलाते हैं किन्तु कवि को विश्वास है कि अंतत: सच्चाई ही जीतेगी -
फिर आयी है
विजयादशमी
मन में ले उल्लास
एक ओर
कागज का रावण
एक ओर इतिहास
एक बार फिर
सच्चाई की
होगी झूठी जीत
शासक दल के मुखिया द्वारा बार-बार चेतावनी देना, अनुयायी भक्तों द्वारा चेतावनी की अनदेखी कर अपनी कारगुजारियाँ जारी रखी जाना, दल प्रमुख द्वारा मंत्रियों-अधिकारियों दलीय कार्यकर्ताओं के काम काम करने हेतु प्रेरित करना और सरकार का सोने रहना आदि जनतंत्री संवैधानिक व्यवस्थ के कफ़न में कील ठोंकने की तरह है -
महज कागजी
है इस युग के
हाकिम की फटकार
बे-लगाम
बोली में जाने
कितने ट्रैप छुपाये
बहरी दिल्ली
इयरफोन में
बैठी मौन उगाये
लंबी चादर
तान सो गई
जनता की सरकार
कृषि प्रधान देश को उद्योग प्रधान बनाने की मृग-मरीचिका में दम तोड़ते किसान की व्यथा ग्रामवासी कवि को विचलित करती है-
लगी पटखनी
फिर सूखे से
धान हुये फिर पाई
एक बार फिर से
बिटिया की
टाली गयी सगाई
गला घोंटती
यहाँ निराशा
टूट रहे अरमान
इन नवगीतों में योगेंद्र ने अमिधा, व्यंजना और लक्षणा तीनों का यथावश्यक उपयोग किया है। इन नवगीतों की भाषा सहज, सरल, सरस, सार्थक और सटीक है। कवि जानता है कि शब्द अर्थवाही होते हैं। अनुभूति को अभिव्यक्त करते शब्दों की अर्थवत्ता मुख्या घटक है, शब्द का देशज, तद्भव, तत्सम या अन्य भाषा से व्युत्पन्न हो पाठकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है, समीक्षक भले ही नाक-भौं सिकोड़ते रहे-
उतरा पानी
हैंडपम्प का
हत्था बोले चर-चर
बिन पानी के
व्याकुल धरती
प्यासी तड़प रही है
मिट्टी में से
दूब झाँकती
फिर भी पनप रही है
'दूब झाँकती', मुखर यहाँ अपराध / ओढ़कर / गाँधी जी की खादी, नहीं भरा है घाव / जुल्म का / मरहम कौन लगाये, मेहनत कर / हम पेट भरेंगे / दो मत हमें सहारे, जैसे प्रयोग कम शब्दों में अधिक कहने की सामर्थ्य रखते हैं। यह कवि कौशल योगेंद्र के उज्जवल भविष्य के प्रति आशा जगाता है।
रूपक, उपमा आदि अलंकारों तथा बिम्बों-प्रतीकों के माध्यम से यत्र-तत्र प्रस्तुत शब्द-चित्र नवोदित की सामर्थ्य का परिचय देते हैं-
जल के ऊपर
जमी बर्फ का
जलचर स्वेटर पहने
सेंक रहा है
दिवस बैठकर
जलती हुई अँगीठी
और सुनाती
दादी सबको
बातें खट्टी-मीठी
आसमान
बर्फ़ीली चादर
पंछी लगे ठिठुरने
दुबका भोर
रजाई अंदर
बाहर झाँके पल-पल
विसंगियों के साथ आशावादी उत्साह का स्वर नवगीतों को भीड़ से अलग, अपनी पहचान प्रदान करता है। उत्सवधर्मिता भारतीय जन जीवन के लिए के लिए संजीवनी का काम करती है। अपनत्व और जीवट के सहारे भारतीय जनजीवन यम के दरवाजे से भी सकुशल लौट आता है। होली का अभिवादन शीर्षक नवगीत नेह नर्मदा प्रवाह का साक्षी है-
ले आया ऋतुओं
का राजा
सबके लिए गुलाल
थोड़ा ढीला
हो आया है
भाभी का अनुशासन
पिचकारी
से करतीं देखो
होली का अभिवादन
किसी तरह का
मन में कोई
रखतीं नहीं मलाल
ढोलक,झाँझ,
मजीरों को हम
दें फिर से नवजीवन
इनके होंठों पर
खुशियों का
उत्सव हो आजीवन
भूख नहीं
मजबूर यहाँ हो
करने को हड़ताल
योगेंद्र नागर और ग्राम्य दोनों परिवेशों और समाजों से जुड़े होने के नाते दोनों स्थानों पर घटित विसंगतियों और जीवन-संघर्षों से सुपरिचित हैं। उनके लिए किसान और श्रमिक, खेत और बाजार, जमींदार और उद्योगपति, पटवारी और बाबू सिक्के के दो पहलुओं की तरह सुपरिचित प्रतीत होते हैं। उनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति दोनों परिवेशों से समान रूप से सम्बद्ध हो पाती है। इन नवगीतों में अधिकाँश का एकांगी होना उनकी खूबी और खामी दोनों है। जनाक्रोश उत्पन्न करने के इच्छुक जनों को विसंगतियों, विडंबनाओं, विद्रूपताओं, टकरावों और असंतोष का अतिरेकी चित्रण अभीष्ट प्रतीत होगा किंतु उन्नति, शांति, समन्वय, सहिष्णुता और ऐक्य की कामना कर रहे पाठकों को इन गीतों में राष्ट्र गौरव, जनास्था और मेल-जोल, उल्लास-हुलास का अभाव खलेगा।
'चुप्पियों को तोड़ते हैं' से योगेंद्र प्रताप मौर्य ने नवगीत के आँगन में प्रवेश किया है। वे पगडंडी को चहल-पहल करते देख किसानी अर्थात श्रम या उद्योग करने हेतु उत्सुक हैं। देश का युवा मन, कोशिश के दरवाजे पर दस्तक देता है -
सुबह-सुबह
उठकर पगडंडी
करती चहल-पहल है
टन-टन करे
गले की घंटी
करता बैल किसानी
उद्यम निरर्थक-निष्फल नहीं होता, परिणाम लाता है-
श्रम की सच्ची
ताकत ही तो
फसल यहाँ उपजाती
खुरपी,हँसिया
और कुदाली
मजदूरों के साथी
तीसी,मटर
चना,सरसों की
फिर से पकी फसल है
चूल्हा-चौका
बाद,रसोई
खलिहानों को जाती
देख अनाजों
के चेहरों को
फूली नहीं समाती
टूटी-फूटी
भले झोपड़ी
लेकिन हृदय महल है
नवगीत की यह भाव मुद्रा इस संकलन की उपलब्धि है। नवगीत के आँगन में उगती कोंपलें इसे 'स्यापा ग़ीत, शोकगीत या रुदाली नहीं, आशा गीत, भविष्य गीत, उत्साह गीत बनाने की दिशा में पग बढ़ा रही है। योगेंद्र प्रताप मौर्य की पीढ़ी यदि नवगीत को इस मुकाम पर ले जाने की कोशिश करती है तो यह स्वागतेय है। किसी नवगीत संकलन का इससे बेहतर समापन हो ही नहीं सकता। यह संकलन पाठक बाँधे ही नहीं रखता अपितु उसे अन्य नवगीत संकलन पढ़ने प्रेरित भी करता है। योगेंद्र 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि युवा योगेंद्र के आगामी नवगीत संकलनों में भारतीय जन मानस की उत्सवधर्मिता और त्याग-बलिदान की भावनाएँ भी अन्तर्निहित होकर उन्हें जन-मन से अधिक सकेंगी।
***
दोहा सलिला
आभा से आभा गहे, आ भा कहकर सूर्य।
आभित होकर चमकता, बजा रहा है तूर्य।।
हवा हो गई हवा जब, मिली हवा के साथ।
दो थे मिलकर हो गए, एक हवा के हाथ।।
हवा हो गई दवा जब, हवा बही रह साफ।
हवा न दूषित कीजिए, ईश्वर करे न माफ।।
हवा न भूले कभी भी, अपना फर्ज जनाब।
हवा न बेपरदा रहे, ओढ़े नहीं नकाब।।
ऊँच-नीच से दूर रह, सबको एक समान।
मान बचाती सभी की, हवा हमेशा जान।।
भेद-भाव करती नहीं, इसे न कोई गैर।
हवा मनाती सभी की, रब से हरदम खैर।।
कुदरत का वरदान है, हवा स्वास्थ्य की खान।
हुई प्रदूषित हवा को, पल में ले ले जान।।
हवा नीर नभ भू अगन, पंचतत्व पहचान।
ईश खुदा क्राइस्ट गुरु, हवा राम-रहमान।।
१४-११-२०१८
***
मुक्तिका
लहर में भँवर या भँवर में लहर है?
अगर खुद न सम्हले, कहर ही कहर है.
उसे पूजना है, जिसे चाहना है
भले कंठ में हँस लिए वह ज़हर है
गजल क्या न पूछो कभी तुम किसी से
इतना ही देखो मुकम्मल बहर है
नहाना नदी में जाने न बच्चे
पिंजरे का कैदी हुआ सब शहर है
तुम आईं तो ऐसा मुझको लगा है
गई रात आया सुहाना सहर है
***
दोहा सलिला
सागर-सिकता सा रहें, मैं-तुम पल-पल साथ.
प्रिय सागर प्यासी प्रिया लिए हाथ में हाथ.
.
रहा गाँव में शेष है, अब भी नाता-नेह.
नगर न नेह-विहीन पर, व्याकुल है मन-देह.
.
जब तक मन में चाह थी, तब तक मिली न राह.
राह मिली अब तो नहीं, शेष रही है चाह.
.
राम नाम की चाह कर, आप मिलेगी राह.
राम नाम की राह चल, कभी न मिटती चाह.
.
दुनिया कहती युक्ति कर, तभी मिलेगी राह.
दिल कहता प्रभु-भक्ति कर, मिले मुक्ति बिन चाह.
.
भटक रहे बिन राह ही, जग में सारे जीव.
राम-नाम की राह पर, चले जीव संजीव..
१४-११-२०१७
***
बाल गीत
बिटिया छोटी
*
फ़िक्र बड़ी पर बिटिया छोटी
क्यों न खेलती कन्ना-गोटी?
*
ऐनक के चश्में से आँखें
झाँकें लगतीं मोटी-मोटी
*
इतनी ज्यादा गुस्सा क्यों है?
किसने की है हरकत खोटी
*
दो-दो फूल सजे हैं प्यारे
सर पर सोहे सुंदर चोटी
*
हलुआ-पूड़ी इसे खा मुस्काए
तनिक न भाती सब्जी-रोटी
*
खेल-कूद में मन लगता है
नहीं पढ़ेगी पोथी मोटी
१४-११-२०१६
***
छंद सलिला:
अचल धृति छंद
*
छंद विधान: सूत्र: ५ न १ ल, ५ नगण १ लघु = ५ (१ + १ +१ )+१ = हर पद में १६ लघु मात्रा, १६ वर्ण
उदाहरण:
१. कदम / कदम / पर ठ/हर ठ/हर क/र
ठिठक / ठिठक / कर सि/हर सि/हर क/र
हुलस / हुलस / कर म/चल म/चल क/र
मनसि/ज सम / खिल स/लिल ल/हर क/र
२. सतत / अनव/रत प/थ पर / पग ध/र
अचल / फिसल / गर सँ/भल ठि/ठकक/र
रुक म/त झुक / मत चु/क मत / थक म/त
'सलिल' / विहँस/कर प्र/वह ह/हरक/र
---
छंद सलिला:
अचल छंद
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है. इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है. हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है. मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया होगा। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है. तदनुसार
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ.
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ..
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ.
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ..
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य.
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य..
इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं
१४.११.२०१३
***

रविवार, 29 जून 2025

जून २९, उष्ण कटिबन्ध, बुंदेली, सड़गोड़ासनी, चौपाई, दोहा, मुक्तिका, सरस्वती, तुलसी

सलिल सृजन जून २९
अंतर्राष्ट्रीय उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिक्स) दिवस
*
२०१६ में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा घोषित अंतर्राष्ट्रीय उष्णकटिबंधीय दिवस हर साल २९ जून को मनाया जाता है। यह दिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों की अनूठी विशेषताओं और उनके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण भूमिका, सामने आने वाली चुनौतियों जैसे जलवायु परिवर्तन, वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान के बारे में जागरूकता बढ़ाने का भी एक अवसर है। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र पृथ्वी पर भूमध्य रेखा के आसपास का क्षेत्र है, जो कर्क रेखा (२३.४°N) और मकर रेखा (२३.४°S) के बीच स्थित है। इस क्षेत्र में पूरे वर्ष गर्म तापमान और उच्च आर्द्रता होती है, और इसमें दो मुख्य मौसम होते हैं: गीला और शुष्क। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र पृथ्वी की लगभग ३६% भूमि को कवर करते हैं और दुनिया की आधी से अधिक जैव विविधता का घर है।
***
तुलसी
तुलसी में गजब की रोगनाशक शक्ति है। विशेषकर सर्दी, खांसी व बुखार में यह अचूक दवा का काम करती है। इसीलिए भारतीय आयुर्वेद के सबसे प्रमुख ग्रंथ चरक संहिता में कहा गया है।
- तुलसी हिचकी, खांसी,जहर का प्रभाव व पसली का दर्द मिटाने वाली है। इससे पित्त की वृद्धि और दूषित वायु खत्म होती है। यह दूर्गंध भी दूर करती है।
- तुलसी कड़वे व तीखे स्वाद वाली दिल के लिए लाभकारी, त्वचा रोगों में फायदेमंद, पाचन शक्ति बढ़ाने वाली और मूत्र से संबंधित बीमारियों को मिटाने वाली है। यह कफ और वात से संबंधित बीमारियों को भी ठीक करती है।
- तुलसी कड़वे व तीखे स्वाद वाली कफ, खांसी, हिचकी, उल्टी, कृमि, दुर्गंध, हर तरह के दर्द, कोढ़ और आंखों की बीमारी में लाभकारी है। तुलसी को भगवान के प्रसाद में रखकर ग्रहण करने की भी परंपरा है, ताकि यह अपने प्राकृतिक स्वरूप में ही शरीर के अंदर पहुंचे और शरीर में किसी तरह की आंतरिक समस्या पैदा हो रही हो तो उसे खत्म कर दे। शरीर में किसी भी तरह के दूषित तत्व के एकत्र हो जाने पर तुलसी सबसे बेहतरीन दवा के रूप में काम करती है। सबसे बड़ा फायदा ये कि इसे खाने से कोई रिएक्शन नहीं होता है।
तुलसी की मुख्य जातियां- तुलसी की मुख्यत: दो प्रजातियां अधिकांश घरों में लगाई जाती हैं। इन्हें रामा और श्यामा कहा जाता है।
- रामा के पत्तों का रंग हल्का होता है। इसलिए इसे गौरी कहा जाता है।
- श्यामा तुलसी के पत्तों का रंग काला होता है। इसमें कफनाशक गुण होते हैं। यही कारण है कि इसे दवा के रूप में अधिक उपयोग में लाया जाता है।
- तुलसी की एक जाति वन तुलसी भी होती है। इसमें जबरदस्त जहरनाशक प्रभाव पाया जाता है, लेकिन इसे घरों में बहुत कम लगाया जाता है। आंखों के रोग, कोढ़ और प्रसव में परेशानी जैसी समस्याओं में यह रामबाण दवा है।
- एक अन्य जाति मरूवक है, जो कम ही पाई जाती है। राजमार्तण्ड ग्रंथ के अनुसार किसी भी तरह का घाव हो जाने पर इसका रस बेहतरीन दवा की तरह काम करता है।
मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी - मच्छरों के काटने से होने वाली बीमारी, जैसे मलेरिया में तुलसी एक कारगर औषधि है। तुलसी और काली मिर्च का काढ़ा बनाकर पीने से मलेरिया जल्दी ठीक हो जाता है। जुकाम के कारण आने वाले बुखार में भी तुलसी के पत्तों के रस का सेवन करना चाहिए। इससे बुखार में आराम मिलता है। शरीर टूट रहा हो या जब लग रहा हो कि बुखार आने वाला है तो पुदीने का रस और तुलसी का रस बराबर मात्रा में मिलाकर थोड़ा गुड़ डालकर सेवन करें, आराम मिलेगा।
- साधारण खांसी में तुलसी के पत्तों और अडूसा के पत्तों को बराबर मात्रा में मिलाकर सेवन करने से बहुत जल्दी लाभ होता है।
- तुलसी व अदरक का रस बराबर मात्रा में मिलाकर लेने से खांसी में बहुत जल्दी आराम मिलता है।
- तुलसी के रस में मुलहटी व थोड़ा-सा शहद मिलाकर लेने से खांसी की परेशानी दूर हो जाती है।
- चार-पांच लौंग भूनकर तुलसी के पत्तों के रस में मिलाकर लेने से खांसी में तुरंत लाभ होता है।
- शिवलिंगी के बीजों को तुलसी और गुड़ के साथ पीसकर नि:संतान महिला को खिलाया जाए तो जल्द ही संतान सुख की प्राप्ति होती है।
- किडनी की पथरी में तुलसी की पत्तियों को उबालकर बनाया गया काढ़ा शहद के साथ नियमित 6 माह सेवन करने से पथरी मूत्र मार्ग से बाहर निकल जाती है।
- फ्लू रोग में तुलसी के पत्तों का काढ़ा, सेंधा नमक मिलाकर पीने से लाभ होता है।
- तुलसी थकान मिटाने वाली एक औषधि है। बहुत थकान होने पर तुलसी की पत्तियों और मंजरी के सेवन से थकान दूर हो जाती है।
- प्रतिदिन 4- 5 बार तुलसी की 6-8 पत्तियों को चबाने से कुछ ही दिनों में माइग्रेन की समस्या में आराम मिलने लगता है।
- तुलसी के रस में थाइमोल तत्व पाया जाता है। इससे त्वचा के रोगों में लाभ होता है।
- तुलसी के पत्तों को त्वचा पर रगड़ दिया जाए तो त्वचा पर किसी भी तरह के संक्रमण में आराम मिलता है।
- तुलसी के पत्तों को तांबे के पानी से भरे बर्तन में डालें। कम से कम एक-सवा घंटे पत्तों को पानी में रखा रहने दें। यह पानी पीने से कई बीमारियां पास नहीं आतीं।
- दिल की बीमारी में यह अमृत है। यह खून में कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करती है। दिल की बीमारी से ग्रस्त लोगों को तुलसी के रस का सेवन नियमित रूप से करना चाहिए।
२९-.६.२०२५
***
जन-मन को भाई चौपाई/चौपायी :
भारत में शायद ही कोई हिन्दीभाषी होगा जिसे चौपाई छंद की जानकारी न हो। रामचरित मानस की रचना चौपाई छंद में ही हुई है।
चौपाई छंद पर चर्चा करने के पूर्व मात्राओं की जानकारी होना अनिवार्य है
मात्राएँ दो हैं १. लघु या छोटी (पदभार एक) तथा दीर्घ या बड़ी (पदभार २)।
स्वरों-व्यंजनों में हृस्व, लघु या छोटे स्वर ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा सभी मात्राहीन व्यंजनों की मात्रा लघु या छोटी (१) तथा दीर्घ, गुरु या बड़े स्वरों (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) तथा इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: मात्रा युक्त व्यंजनों की मात्रा दीर्घ या बड़ी (२) गिनी जाती हैं.
चौपाई छंद : रचना विधान-
चारपाई से हम सब परिचित हैं। चौपाई के चार चरण होने के कारण इसे चौपाई नाम मिला है। यह एक मात्रिक सम छंद है चूँकि इसकी चार चरणों में मात्राओं की संख्या निश्चित तथा समान रहती है। चौपाई द्विपदिक छंद है जिसमें दो पद या पंक्तियाँ होती हैं। प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी अंतिम मात्राएँ समान (दोनों में लघु लघु या दोनों में गुरु) होती हैं। चौपायी के प्रत्येक चरण में १६ तथा प्रत्येक पद में ३२ मात्राएँ होती हैं। चारों चरण मिलाकर चौपाई ६४ मात्राओं का छंद है। चौपाई के चारों चरणों के समान मात्राएँ हों तो नाद सौंदर्य में वृद्धि होती है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। चौपाई के पद के दो चरण विषय की दृष्टि से आपस में जुड़े होते हैं किन्तु हर चरण अपने में स्वतंत्र होता है। चौपाई के पठन या गायन के समय हर चरण के बाद अल्प विराम लिया जाता है जिसे यति कहते हैं। अत: किसी चरण का अंतिम शब्द अगले चरण में नहीं जाना चाहिए। चौपाई के चरणान्त में गुरु-लघु मात्राएँ वर्जित हैं।
उदाहरण:
१. शिव चालीसा की प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें.
जय गिरिजापति दीनदयाला । -प्रथम चरण
१ १ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
सदा करत संतत प्रतिपाला ।। -द्वितीय चरण
१ २ १ १ १ २ १ १ १ १ २ २ = १६१६ मात्राएँ
भाल चंद्रमा सोहत नीके। - तृतीय चरण
२ १ २ १ २ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
कानन कुंडल नाक फनीके।।
-चतुर्थ चरण
२ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
रामचरित मानस के अतिरिक्त शिव चालीसा, हनुमान चालीसा आदि धार्मिक रचनाओं में चौपाई का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है किन्तु इनमें प्रयुक्त भाषा उस समय की बोलियों (अवधी, बुन्देली, बृज, भोजपुरी आदि ) है।
निम्न उदाहरण वर्त्तमान काल में प्रचलित खड़ी हिंदी के तथा समकालिक कवियों द्वारा रचे गये हैं।
२. श्री रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भुवन भास्कर बहुत दुलारा।
मुख मंडल है प्यारा-प्यारा।।
सुबह-सुबह जब जगते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
३. श्री छोटू भाई चतुर्वेदी
हर युग के इतिहास ने कहा।
भारत का ध्वज उच्च ही रहा।।
सोने की चिड़िया कहलाया।
सदा लुटेरों के मन भाया।।
४. शेखर चतुर्वेदी
मुझको जग में लानेवाले।
दुनिया अजब दिखनेवाले।।
उँगली थाम चलानेवाले।
अच्छा बुरा बतानेवाले।।
५. श्री मृत्युंजय
श्याम वर्ण, माथे पर टोपी।
नाचत रुन-झुन रुन-झुन गोपी।।
हरित वस्त्र आभूषण पूरा।
ज्यों लड्डू पर छिटका बूरा।।
६. श्री मयंक अवस्थी
निर्निमेष तुमको निहारती।
विरह –निशा तुमको पुकारती।।
मेरी प्रणय –कथा है कोरी।
तुम चन्दा, मैं एक चकोरी।।
७.श्री रविकांत पाण्डे
मौसम के हाथों दुत्कारे।
पतझड़ के कष्टों के मारे।।
सुमन हृदय के जब मुरझाये।
तुम वसंत बनकर प्रिय आये।।
८. श्री राणा प्रताप सिंह
जितना मुझको तरसाओगे।
उतना निकट मुझे पाओगे।।
तुम में 'मैं', मुझमें 'तुम', जानो।
मुझसे 'तुम', तुमसे 'मैं', मानो।।
९. श्री शेषधर तिवारी
एक दिवस आँगन में मेरे।
उतरे दो कलहंस सबेरे।।
कितने सुन्दर कितने भोले।
सारे आँगन में वो डोले।।
१०. श्री धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'
नन्हें मुन्हें हाथों से जब।
छूते हो मेरा तन मन तब॥
मुझको बेसुध करते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
११. श्री संजीव 'सलिल'
कितने अच्छे लगते हो तुम ।
बिना जगाये जगते हो तुम ।।
नहीं किसी को ठगते हो तुम।
सदा प्रेम में पगते हो तुम ।।
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम।
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम।।
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम।
बिल्ली से डर बचते हो तुम।।
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम।
चूजे भाई! रुचते हो तुम।।
अंतिम उदाहरण में चौपाई छन्द का प्रयोग कर 'चूजे' विषय पर मुक्तिका (हिंदी गजल) लिखी गयी है। यह एक अभिनव साहित्यिक प्रयोग है।
***
एक पत्र
"आदरणीया मंजूषा मन,
आप आचार्य संजीव 'सलिल' से चार वर्ष पूर्व मिलीं और इतना कुछ लिख डाला, हम दादा को विगत २५ वर्षों से
जानते हैं।
'लोकतंत्र का मकबरा' काव्य-संग्रह का लोकार्पण उन्होंने कृपाकर हमारे लखनऊ आवास पर आकर श्री गिरीश नारायण पाण्डेय, वरि०साहि० एवं तत्कालीन आयकर आयुक्त के कर-कमलों द्वारा लखनऊ नगर के साहित्य -कारों के बीच इं०अमरनाथ और इं० गोविन्दप्रसाद तथा इं०संतोष प्रकाश माथुर ,संयुक्त प्र०नि०सेतु निगम एवं अध्यक्ष 'अभियान' की उपस्थिति में कराया था।
बाद में वे इन्स्टीट्यूटशन्स आफ़ इन्जीनियर्स आफ़ इण्डिया आदि की पत्रिका से सम्बद्ध होकर हिन्दी की सेवा में अभूतपूर्व कार्य करते रहे।
नर्मदा विषयक उनके कार्य का सानी नहीं तो महादेवी वर्मा से प्राप्त आशीष जगत् विख्यात है।
हमने आचार्य संजीव 'सलिल' को सदैव की भाँति सरल, गम्भीर, स्मित हास्य-युक्त उनका व्यक्तित्व मोहित करता है।
आपने उनके विषय में जो भी कहा अक्षरश: सत्य है।"
-देवकी नन्दन'शान्त',साहित्यभूषण, 'शान्तम्',१०/३०/२,इन्दिरानगर, लखनऊ-२२६०१६(उ०प्र०), मो० 9935217841;8840549296
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी के साथ मेरा संबंध वर्षों पुराना है। उनके साथ मेरी पहली मुलाकात सन् 2003 में कर्णाटक के बेलगाम में हुई थी। सलिल जी द्वारा संपादित पत्रिका नर्मदा के तत्वावधान में आयोजित दिव्य अलंकरण समारोह में मुझे हिंदी भूषण पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उस सम्मान समारोह में उन्होंने मुझे कुछ किताबें उपहार के रूप में दी थीं, जिनमें एक किताब मध्य प्रदेश के दमोह के अंग्रेजी प्रोफसर अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल संकलन Off and On भी थी। उस पुस्तक में संकलित अंग्रेजी ग़ज़लों से हम इतने प्रभावित हुए कि हमने उन ग़ज़लों का हिंदी में अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। सलिल जी के प्रयास से हमें इसके लिए प्रोफसर अनिल जैन की अनुमति मिली और Off and On का हिंदी अनुवाद यदा-कदा शीर्षक पर जबलपुर से प्रकाशित भी हुआ। सलिल जी हमेशा उत्तर भारत के हिंदी प्रांत को हिंदीतर भाषी क्षेत्रों से जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। उनके इस श्रम के कारण BSF के DIG मनोहर बाथम की हिंदी कविताओं का संकलन सरहद से हमारे हाथ में आ गया। हिंदी साहित्य में फौजी संवेदना की सुंदर अभिव्यक्ति के कारण इस संकलन की कविताएं बेजोड़ हैं। हमने इस काव्य संग्रह का मलयालम में अनुवाद किया, जिसका शीर्षक है 'अतिर्ति'। इस पुस्तक के लिए बढ़िया भूमिका लिखकर सलिल जी ने हमारा उत्साह बढ़ाया। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय बात है कि सलिल जी के कारण हिंदी के अनेक विद्वान, कवि,लेखक आदि हमारे मित्र बन गए हैं। हिंदी साहित्य में कवि, आलोचक एवं संपादक के रूप में विख्यात सलिल जी की बहुमुखी प्रतिभा से हिन्दी भाषा का गौरव बढ़ा है। उन्होंने हिंदी को बहुत कुछ दिया है। इस लिए हिंदी साहित्य में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। हमने सलिल जी को बहुत दूर से देखा है, मगर वे हमारे बहुत करीब हैं। हमने उन्हें किताबें और तस्वीरों में देखा है, मगर वे हमें अपने मन की दूरबीन से देखते हैं। उनकी लेखनी के अद्भुत चमत्कार से हमारे दिल का अंधकार दूर हो गया है। सलिल जी को केरल से ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
डॉ. बाबू जोसफ, वडक्कन हाऊस, कुरविलंगाडु पोस्ट, कोट्टायम जिला, केरल-686633, मोबाइल.09447868474
***
मुक्तिका
*
सरला तरला विमला मति दे, शारद मैया तर जाऊँ
वीणा के तारों जैसे पल पल तेरा ही गुण गाऊँ
वाक् शब्द सरगम निनाद तू, तू ही कलकल कलरव है
कल भूला, कल पर न टाल, इस पल ही भज, कल मैं पाऊँ
हारा, कौन सहारा तुम बिन, तारो तारो माँ तारो
कुमति नहीं, शुचि सुमति मिले माँ, कर सत्कर्म तुझे भाऊँ
डगमग पग धर पगडंडी पर, गिर थक डर झुक रुकूँ नहीं
फल की फिक्र न कर, सूरज सम दे प्रकाश जग पर छाऊँ
पग प्रक्षालन करे सलिल, हो मुक्त आचमन कर सब जग
आकुल व्याकुल चित्त शांत हों, सबको तुझ तक ला पाऊँ
२९-६-२०२१
***
धर्म सत्र
दोहा सलिला
*
मर्म धर्म का कर्म है, मत अकर्म लें मान।
काम करें निष्काम मन, तन प्रभु-अर्पित जान।।
*
माया ममता मोह को, कहें नहीं निस्सार।
संयम सहित विचारिए, कब कितना है सार।।
*
अन्य करें या ना करें, क्या यह सोचें आप।
वही आप अपनाए, जीवन हो निष्पाप।।
*
सत्य न जड़ होता कभी, चेतन बदले नित्य।
है असत्य में भी निहित, होता नित्यानित्य।।
*
जो केवल पद चाहते, करें नहीं कर्तव्य।
सच मानें होता नहीं, उनका कोई भविष्य।।
***
२९-६-२०२०
***
शारद वंदन
*
आरती करो, अनहद की करो, सरगम की, मातु शारद की,
आरती करो शारद की...
*
वसन सफेद पहननेवाली, हंस-मोर पर उड़नेवाली।
कला-ग्यान-विग्यान प्रदात्री, विपद हरो निज जन की।।
आरती करो शारद की...
*
महामयी जय-जय वीणाधर, जयगायनधर, जय नर्तनधर।
हो चित्रण की मूल मिटाओ, दुविधा नव सर्जन की।।
आरती करो शारद की...
*
भाव-कला-रस-ग्यान वाहिनी, सुर-नर-किन्नर-असुर भावनी।
दस दिश हर अग्यान, ग्यान दो,
मूल ब्रह्म-हरि-हर की।
आरती करो शारद की...
***
२९-६-२०२०
सड़गोड़ासनी:
बुंदेली छंद, विधान: मुखड़ा १५-१६, ४ मात्रा पश्चात् गुरु लघु अनिवार्य,
अंतरा १६-१२, मुखड़ा-अन्तरा सम तुकांत .
*
जन्म हुआ किस पल? यह सोच
मरण हुआ कब जानो?
*
जब-जब सत्य प्रतीति हुई तब
कह-कह नित्य बखानो.
*
जब-जब सच ओझल हो प्यारे!
निज करनी अनुमानो.
*
चलो सत्य की डगर पकड़ तो
मीत न अरि कुछ मानो.
*
देख तिमिर मत मूँदो नयना
अंतर-दीप जलानो.
*
तन-मन-देश न मलिन रहे मिल
स्वच्छ करेंगे ठानो.
*
ज्यों की त्यों चादर तब जब
जग सपना विहँस भुलानो.
२९.६.२०१८
***
समस्यापूर्ति
प्रदत्त पंक्ति- मैं जग को दिल के दाग दिखा दूँ कैसे - बलबीर सिंह।
*
मुक्तिका:
(२२ मात्रिक महारौद्र जातीय राधिका छंद)
मैं जग को दिल के दाग, दिखा दूँ कैसे?
अपने ही घर में आग, लगा दूँ कैसे?
*
औरों को हँसकर सजा सुना सकता हूँ
अपनों को खुद दे सजा, सजा दूँ कैसे?
*
सेना को गाली बकूँ, सियासत कहकर
निज सुत सेना में कहो, भिजा दूँ कैसे?
*
तेरी खिड़की में ताक-झाँक कर खुश हूँ
अपनी खिड़की मैं तुझे दिखा दूँ कैसे?
*
'लाइक' कर दूँ सब लिखा, जहाँ जो जिसने
क्या-कैसे लिखना, कहाँ सिखा दूँ कैसे?
२९-६-२०१७
* **
नीति का दोहा
व्याघ्रानां महत् निद्रा, सर्पानां च महद् भयम् ।
ब्राह्मणानाम् अनेकत्वं, तस्मात् जीवन्ति जन्तवः ।।
.
शेरों को नींद बहुत आती है, सांपों को डर बहुत लगता है, और ब्राह्मणों में एकता नही है, इसीलिए सभी जीव जी रहे है ।
.
नाहर को निंदिया बहुत, नागराज भयभीत।
फूट विप्र में हुई तो, गई जिंदगी जीत।। -सलिल
***
एक दस मात्रिक रचना
दशावातार छंद
*
चाँदनी में नहा
चाँदनी महमहा
रात-रानी हुई
कुछ दिवानी हुई
*
रातरानी खिली
मोगरे से मिली
हरसिंगारी ग़ज़ल
सुन गया मन मचल
देख टेसू दहा
चाँदनी में नहा
*
रंग पलाशी चढ़ा
कुछ नशा सा बढ़ा
बालमा चंपई
तक जुही मत मुई
छिप फ़साना कहा
चाँदनी में नहा
*
रचना-प्रतिरचना
राकेश खण्डेलवाल-संजीव
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
अभय दान जो मांगा करते उन हाथों में शक्ति नहीं है
पाना है अधिकार अगर तो कमर बांध कर लड़ना होगा
कौन व्यवस्था का अनुयायी? केवल हम हैं या फिर तुम हो
अपना हर संकल्प हमीं को अपने आप बदलना होगा
मूक समर्थन कृत्य हुआ है केवल चारण का भाटों का
विद्रोहों के ज्वालमुखी को फिर से हमें जगाना होगा
रहे लुटाते सिद्धांतों पर और मानयताओं पर् अपना
सहज समर्पण कर दे ऐसा पास हमारे ह्रदय नहीं है
अपराधी है कौन दशा का ? जितने वे हैं उतने हम है
हमने ही तो दुत्कारा है मधुमासों को कहकर नीरस
यदि लौट रही स्वर की लहरें कंगूरों से टकरा टकरा
हम क्यों हो मौन ताकते हैं उनको फिर खाली हाथ विवश
अपनी सीमितता नजरों की अटकी है चौथ चन्द्रमा में
रह गयी प्रतीक्षा करती ही द्वारे पर खड़ी हुई चौदस
दुर्गमता से पथ की डरकर जो ्रहे नीड़ में छुपा हुआ
र्ग गंध चूमें आ उसको, ऐसी कोई वज़ह नहीं है
द्रोण अगर ठुकरा भी दे तो एकलव्य तुम खुद बन जाओ
तरकस भरा हुआ है मत का, चलो तीर अपने संधानो
बिना तुम्हारी स्वीकृति के अस्तित्व नहीं सुर का असुरों का
रही कसौटी पास तुम्हारे , अन्तर तुम खुद ही पहचानो
पर्वत, नदिया, वन उपवन सब गति के सन्मुख झुक जाते हैं
कोई बाधा नहीं अगर तुम निश्चय अपने मन में ठानो
सत्ताधारी हों निशुम्भ से या कि शुम्भ से या रावण से
बतलाता इतिहास राज कोई भी रहता अजय नहीं है.
***
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
बिना विचारे कदम उठाना, क्या खुद लाना प्रलय नहीं है?
*
सुर-असुरों ने एक साथ मिल, नर-वानर को तंग किया है
इनकी ही खातिर मर-मिटकर नर ने जब-तब जंग किया है
महादेव सुर और असुर पर हुए सदय, नर रहा उपेक्षित
अमिय मिला नर को भूले सब, सुर-असुरों ने द्वन्द किया है
मतभेदों को मनभेदों में बदल, रहा कमजोर सदा नर
चंचल वृत्ति, न सदा टिक सका एक जगह पर किंचित वानर
ऋक्ष-उलूक-नाग भी हारे, येन-केन छल कर हरि जीते
नारी का सतीत्व हरने से कब चूके, पर बने पूज्यवर
महाकाल या काल सत्य पर रहा अधिकतर सदय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
अपराधी ही न्याय करे तो निरपराध को मरना होगा
ताकतवर के अपराधों का दण्ड निबल को भरना होगा
पूँजीपतियों के इंगित पर सत्ता नाच नाचती युग से
निरपराध सीता को वन जा वनजा बनकर छिपना होगा
घंटों खलनायक की जय-जय, युद्ध अंत में नायक जीते
लव-कुश कीर्ति राम की गायें, हाथ सिया के हरदम रीते
नर नरेंद्र हो तो भी माया-ममता बैरन हो जाती हैं
आप शाप बन अनुभव पाता-देता पल-पल कड़वे-तीते
बहा पसीना फसल उगाए जो वह भूखा ही जाता है मर
लोभतंत्र से लोकतंत्र की मृत्यु यही क्या प्रलय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
कितना भी विपरीत समय हो, जिजीविषा की ही होगी जय
जो बाकी रह जायें वे मिल, काम करें निष्काम बिना भय
भीष्म कर्ण कृप द्रोण शकुनि के दिन बीते अलविदा उन्हें कह
धृतराष्ट्री हर परंपरा को नष्ट करे नव दृष्टि-धनञ्जय
मंज़िल जय करना है यदि तो कदम-कदम मिल बढ़ना होगा
मतभेदों को दबा नींव में, महल ऐक्य का गढ़ना होगा
दल का दलदल रोक रहां पथ राष्ट्रीय सरकार बनाकर
विश्व शक्तियों के गढ़ पर भी वक़्त पड़े तो चढ़ना होगा
दल-सीमा से मुक्त प्रमुख हो, सकल देश-जनगण का वक्ता
प्रत्यारोपों-आरोपों के समाचार क्या अनय नहीं है?
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
२९-६-२०१६
***
दोहे
वीणा की झंकार में, शब्दब्रम्ह है व्याप्त
कलकल ध्वनि है 'सलिल' की, वही सनातन आप्त
*
गौरैया चहचह करे, कूके कोयल मोर
सनसन चलती पवन में, छान्दसता है घोर
*
नाद ताल में, थाप में, छिपे हुए हैं छंद
आँख मूँद सुनिए जरा, पाएंगे आनंद
*
सुन मेघों की गर्जना, कजरी आल्हा झूम
कितनों का दिल लुट गया, तुझको क्या मालूम
*
मेंढक की टर-टर सुनो, झींगुर की झंकार
गति-यति उसमें भी बसी, कौन करे इंकार
*
सरगम सुना रही बरखा, हवा सुनाती छंद
दसों दिशाओं में छाया है, पल-पल नव आनंद
*
सूरज साथ खेलता रहता, धरती गाती गीत
नेह-प्रेम से गुंथी हुई है, आस-श्वास की रीत
२९-६-२०१५
***
दो कवि एक कुण्डलिया
नवीन चतुर्वेदी
दो मनुष्य रस-सिन्धु का, कर न सकें रस-पान
एक जिसे अनुभव नहीं, दूजा अति-विद्वान
संजीव
दूजा अति विद्वान नहीं किस्मत में हो यश
खिला करेला नीम चढ़ा दो खा जाए गश
तबियत होगी झक्क भांग भी घोल पिला दो
'सलिल' नवीन प्रयोग करो जड़-मूल हिला दो
२९-६-२०१५
***
बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
२९-६-२०१४
***
पद
छंद: दोहा.
*
मन मंदिर में बैठे श्याम।।
नटखट-चंचल सुकोमल, भावन छवि अभिराम।
देख लाज से गड़ रहे, नभ सज्जित घनश्याम।।
मेघ मृदंग बजा रहे, पवन जप रहा नाम।
मंजु राधिका मुग्ध मन, छेड़ रहीं अविराम।।
छीन बंसरी अधर धर, कहें न करती काम।
कहें श्याम दो फूँक तब, जब मन हो निष्काम।।
चाह न तजना है मुझे, रहें विधाता वाम।
ये लो अपनी बंसरी, दे दो अपना नाम।।
तुम हो जाओ राधिका, मुझे बना दो श्याम।
श्याम थाम कर हँस रहे, मैं गुलाम बेदाम।।
२९.६.२०१२
***
गीत
कहे कहानी, आँख का पानी.
*
कहे कहानी, आँख का पानी.
की सो की, मत कर नादानी...
*
बरखा आई, रिमझिम लाई.
नदी नवोढ़ा सी इठलाई..
ताल भरे दादुर टर्राये.
शतदल कमल खिले मन भाये..
वसुधा ओढ़े हरी चुनरिया.
बीरबहूटी बनी गुजरिया..
मेघ-दामिनी आँख मिचोली.
खेलें देखे ऊषा भोली..
संध्या-रजनी सखी सुहानी.
कहे कहानी, आँख का पानी...
*
पाला-कोहरा साथी-संगी.
आये साथ, करें हुडदंगी..
दूल्हा जाड़ा सजा अनूठा.
ठिठुरे रवि सहबाला रूठा..
कुसुम-कली पर झूमे भँवरा.
टेर चिरैया चिड़वा सँवरा..
चूड़ी पायल कंगन खनके.
सुन-गुन पनघट के पग बहके.
जो जी चाहे करे जवानी.
कहे कहानी, आँख का पानी....
*
अमन-चैन सब हुई उड़न छू.
सन-सन, सांय-सांय चलती लू..
लंगड़ा चौसा आम दशहरी
खाएँ ख़ास न करते देरी..
कूलर, ए.सी., परदे खस के.
दिल में बसी याद चुप कसके..
बन्ना-बन्नी, चैती-सोहर.
सोंठ-हरीरा, खा-पी जीभर..
कागा सुन कोयल की बानी.
कहे कहानी, आँख का पानी..
२९-६-२०१०
***

शुक्रवार, 30 जून 2023

गीत, बुन्देली मुक्तिका, राकेश खण्डेलवाल, राधिका छंद, सड़गोड़ासनी छंद, चौपाई,

जन-मन को भाई चौपाई/चौपायी :
भारत में शायद ही कोई हिन्दीभाषी होगा जिसे चौपाई छंद की जानकारी न हो। रामचरित मानस की रचना चौपाई छंद में ही हुई है।
चौपाई छंद पर चर्चा करने के पूर्व मात्राओं की जानकारी होना अनिवार्य है
मात्राएँ दो हैं १. लघु या छोटी (पदभार एक) तथा दीर्घ या बड़ी (पदभार २)।
स्वरों-व्यंजनों में हृस्व, लघु या छोटे स्वर ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा सभी मात्राहीन व्यंजनों की मात्रा लघु या छोटी (१) तथा दीर्घ, गुरु या बड़े स्वरों (आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:) तथा इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: मात्रा युक्त व्यंजनों की मात्रा दीर्घ या बड़ी (२) गिनी जाती हैं.
चौपाई छंद : रचना विधान-
चारपाई से हम सब परिचित हैं। चौपाई के चार चरण होने के कारण इसे चौपाई नाम मिला है। यह एक मात्रिक सम छंद है चूँकि इसकी चार चरणों में मात्राओं की संख्या निश्चित तथा समान रहती है। चौपाई द्विपदिक छंद है जिसमें दो पद या पंक्तियाँ होती हैं। प्रत्येक पद में दो चरण होते हैं जिनकी अंतिम मात्राएँ समान (दोनों में लघु लघु या दोनों में गुरु) होती हैं। चौपायी के प्रत्येक चरण में १६ तथा प्रत्येक पद में ३२ मात्राएँ होती हैं। चारों चरण मिलाकर चौपाई ६४ मात्राओं का छंद है। चौपाई के चारों चरणों के समान मात्राएँ हों तो नाद सौंदर्य में वृद्धि होती है किन्तु यह अनिवार्य नहीं है। चौपाई के पद के दो चरण विषय की दृष्टि से आपस में जुड़े होते हैं किन्तु हर चरण अपने में स्वतंत्र होता है। चौपाई के पठन या गायन के समय हर चरण के बाद अल्प विराम लिया जाता है जिसे यति कहते हैं। अत: किसी चरण का अंतिम शब्द अगले चरण में नहीं जाना चाहिए। चौपाई के चरणान्त में गुरु-लघु मात्राएँ वर्जित हैं।
उदाहरण:
१. शिव चालीसा की प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें.
जय गिरिजापति दीनदयाला । -प्रथम चरण
१ १ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
सदा करत संतत प्रतिपाला ।। -द्वितीय चरण
१ २ १ १ १ २ १ १ १ १ २ २ = १६१६ मात्राएँ
भाल चंद्रमा सोहत नीके। - तृतीय चरण
२ १ २ १ २ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
कानन कुंडल नाक फनीके।।
-चतुर्थ चरण
२ १ १ २ १ १ २ १ १ २ २ = १६ मात्राएँ
रामचरित मानस के अतिरिक्त शिव चालीसा, हनुमान चालीसा आदि धार्मिक रचनाओं में चौपाई का प्रयोग सर्वाधिक हुआ है किन्तु इनमें प्रयुक्त भाषा उस समय की बोलियों (अवधी, बुन्देली, बृज, भोजपुरी आदि ) है।
निम्न उदाहरण वर्त्तमान काल में प्रचलित खड़ी हिंदी के तथा समकालिक कवियों द्वारा रचे गये हैं।
२. श्री रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भुवन भास्कर बहुत दुलारा।
मुख मंडल है प्यारा-प्यारा।।
सुबह-सुबह जब जगते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
३. श्री छोटू भाई चतुर्वेदी
हर युग के इतिहास ने कहा।
भारत का ध्वज उच्च ही रहा।।
सोने की चिड़िया कहलाया।
सदा लुटेरों के मन भाया।।
४. शेखर चतुर्वेदी
मुझको जग में लानेवाले।
दुनिया अजब दिखनेवाले।।
उँगली थाम चलानेवाले।
अच्छा बुरा बतानेवाले।।
५. श्री मृत्युंजय
श्याम वर्ण, माथे पर टोपी।
नाचत रुन-झुन रुन-झुन गोपी।।
हरित वस्त्र आभूषण पूरा।
ज्यों लड्डू पर छिटका बूरा।।
६. श्री मयंक अवस्थी
निर्निमेष तुमको निहारती।
विरह –निशा तुमको पुकारती।।
मेरी प्रणय –कथा है कोरी।
तुम चन्दा, मैं एक चकोरी।।
७.श्री रविकांत पाण्डे
मौसम के हाथों दुत्कारे।
पतझड़ के कष्टों के मारे।।
सुमन हृदय के जब मुरझाये।
तुम वसंत बनकर प्रिय आये।।
८. श्री राणा प्रताप सिंह
जितना मुझको तरसाओगे।
उतना निकट मुझे पाओगे।।
तुम में 'मैं', मुझमें 'तुम', जानो।
मुझसे 'तुम', तुमसे 'मैं', मानो।।
९. श्री शेषधर तिवारी
एक दिवस आँगन में मेरे।
उतरे दो कलहंस सबेरे।।
कितने सुन्दर कितने भोले।
सारे आँगन में वो डोले।।
१०. श्री धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'
नन्हें मुन्हें हाथों से जब।
छूते हो मेरा तन मन तब॥
मुझको बेसुध करते हो तुम।
कितने अच्छे लगते हो तुम।।
११. श्री संजीव 'सलिल'
कितने अच्छे लगते हो तुम ।
बिना जगाये जगते हो तुम ।।
नहीं किसी को ठगते हो तुम।
सदा प्रेम में पगते हो तुम ।।
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम।
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम।।
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम।
बिल्ली से डर बचते हो तुम।।
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम।
चूजे भाई! रुचते हो तुम।।
अंतिम उदाहरण में चौपाई छन्द का प्रयोग कर 'चूजे' विषय पर मुक्तिका (हिंदी गजल) लिखी गयी है। यह एक अभिनव साहित्यिक प्रयोग है।
***
***

मुक्तिका
*
सरला तरला विमला मति दे, शारद मैया तर जाऊँ
वीणा के तारों जैसे पल पल तेरा ही गुण गाऊँ
वाक् शब्द सरगम निनाद तू, तू ही कलकल कलरव है
कल भूला, कल पर न टाल, इस पल ही भज, कल मैं पाऊँ
हारा, कौन सहारा तुम बिन, तारो तारो माँ तारो
कुमति नहीं, शुचि सुमति मिले माँ, कर सत्कर्म तुझे भाऊँ
डगमग पग धर पगडंडी पर, गिर थक डर झुक रुकूँ नहीं
फल की फिक्र न कर, सूरज सम दे प्रकाश जग पर छाऊँ
पग प्रक्षालन करे सलिल, हो मुक्त आचमन कर सब जग
आकुल व्याकुल चित्त शांत हों, सबको तुझ तक ला पाऊँ
२९-६-२०२१
***
धर्म सत्र
दोहा सलिला
*
मर्म धर्म का कर्म है, मत अकर्म लें मान।
काम करें निष्काम मन, तन प्रभु-अर्पित जान।।
*
माया ममता मोह को, कहें नहीं निस्सार।
संयम सहित विचारिए, कब कितना है सार।।
*
अन्य करें या ना करें, क्या यह सोचें आप।
वही आप अपनाए, जीवन हो निष्पाप।।
*
सत्य न जड़ होता कभी, चेतन बदले नित्य।
है असत्य में भी निहित, होता नित्यानित्य।।
*
जो केवल पद चाहते, करें नहीं कर्तव्य।
सच मानें होता नहीं, उनका कोई भविष्य।।
***
२९-६-२०२०
***
शारद वंदन
*
आरती करो, अनहद की करो, सरगम की, मातु शारद की,
आरती करो शारद की...
*
वसन सफेद पहननेवाली, हंस-मोर पर उड़नेवाली।
कला-ग्यान-विग्यान प्रदात्री, विपद हरो निज जन की।।
आरती करो शारद की...
*
महामयी जय-जय वीणाधर, जयगायनधर, जय नर्तनधर।
हो चित्रण की मूल मिटाओ, दुविधा नव सर्जन की।।
आरती करो शारद की...
*
भाव-कला-रस-ग्यान वाहिनी, सुर-नर-किन्नर-असुर भावनी।
दस दिश हर अग्यान, ग्यान दो,
मूल ब्रह्म-हरि-हर की।
आरती करो शारद की...
***
२९-६-२०२०


सड़गोड़ासनी:
बुंदेली छंद, विधान: मुखड़ा १५-१२, ४ मात्रा पश्चात् गुरु लघु अनिवार्य,
अंतरा १६-१२, मुखड़ा-अन्तरा सम तुकांत .
*
जन्म हुआ किस पल? यह सोच
मरण हुआ कब जानो?
*
जब-जब सत्य प्रतीति हुई तब
कह-कह नित्य बखानो.
*
जब-जब सच ओझल हो प्यारे!
निज करनी अनुमानो.
*
चलो सत्य की डगर पकड़ तो
मीत न अरि कुछ मानो.
*
देख तिमिर मत मूँदो नयना
अंतर-दीप जलानो.
*
तन-मन-देश न मलिन रहे मिल
स्वच्छ करेंगे ठानो.
*
ज्यों की त्यों चादर तब जब जग 
सपना विहँस भुलानो.
२९.६.२०१८
***

समस्यापूर्ति
प्रदत्त पंक्ति- मैं जग को दिल के दाग दिखा दूँ कैसे - बलबीर सिंह।
*
मुक्तिका:
(२२ मात्रिक महारौद्र जातीय राधिका छंद)
मैं जग को दिल के दाग, दिखा दूँ कैसे?
अपने ही घर में आग, लगा दूँ कैसे?
*
औरों को हँसकर सजा सुना सकता हूँ
अपनों को खुद दे सजा, सजा दूँ कैसे?
*
सेना को गाली बकूँ, सियासत कहकर
निज सुत सेना में कहो, भिजा दूँ कैसे?
*
तेरी खिड़की में ताक-झाँक कर खुश हूँ
अपनी खिड़की मैं तुझे दिखा दूँ कैसे?
*
'लाइक' कर दूँ सब लिखा, जहाँ जो जिसने
क्या-कैसे लिखना, कहाँ सिखा दूँ कैसे?
२९-६-२०१७
* **

नीति का दोहा


व्याघ्रानां महत् निद्रा, सर्पानां च महद् भयम् ।
ब्राह्मणानाम् अनेकत्वं, तस्मात् जीवन्ति जन्तवः ।।
.
शेरों को नींद बहुत आती है, सांपों को डर बहुत लगता है, और ब्राह्मणों में एकता नही है, इसीलिए सभी जीव जी रहे है ।
.
नाहर को निंदिया बहुत, नागराज भयभीत।
फूट विप्र में हुई तो, गयी जिंदगी जीत।। -सलिल
***

एक रचना
*
चाँदनी में नहा
चाँदनी महमहा
रात-रानी हुई
कुछ दीवानी हुई
*
रातरानी खिली
मोगरे से मिली
हरसिंगारी ग़ज़ल
सुन गया मन मचल
देख टेसू दहा
चाँदनी में नहा
*
रंग पलाशी चढ़ा
कुछ नशा सा बढ़ा
बालमा चंपई
तक जुही मत मुई
छिप फ़साना कहा
चाँदनी में नहा
*


रचना-प्रतिरचना
राकेश खण्डेलवाल-संजीव
*
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
हुई व्यवस्था ही प्रधान, जो करे व्यवस्था अभय नहीं है
अभय दान जो मांगा करते उन हाथों में शक्ति नहीं है
पाना है अधिकार अगर तो कमर बांध कर लड़ना होगा
कौन व्यवस्था का अनुयायी? केवल हम हैं या फिर तुम हो
अपना हर संकल्प हमीं को अपने आप बदलना होगा
मूक समर्थन कृत्य हुआ है केवल चारण का भाटों का
विद्रोहों के ज्वालमुखी को फिर से हमें जगाना होगा
रहे लुटाते सिद्धांतों पर और मानयताओं पर् अपना
सहज समर्पण कर दे ऐसा पास हमारे ह्रदय नहीं है
अपराधी है कौन दशा का ? जितने वे हैं उतने हम है
हमने ही तो दुत्कारा है मधुमासों को कहकर नीरस
यदि लौट रही स्वर की लहरें कंगूरों से टकरा टकरा
हम क्यों हो मौन ताकते हैं उनको फिर खाली हाथ विवश
अपनी सीमितता नजरों की अटकी है चौथ चन्द्रमा में
रह गयी प्रतीक्षा करती ही द्वारे पर खड़ी हुई चौदस
दुर्गमता से पथ की डरकर जो ्रहे नीड़ में छुपा हुआ
र्ग गंध चूमें आ उसको, ऐसी कोई वज़ह नहीं है
द्रोण अगर ठुकरा भी दे तो एकलव्य तुम खुद बन जाओ
तरकस भरा हुआ है मत का, चलो तीर अपने संधानो
बिना तुम्हारी स्वीकृति के अस्तित्व नहीं सुर का असुरों का
रही कसौटी पास तुम्हारे , अन्तर तुम खुद ही पहचानो
पर्वत, नदिया, वन उपवन सब गति के सन्मुख झुक जाते हैं
कोई बाधा नहीं अगर तुम निश्चय अपने मन में ठानो
सत्ताधारी हों निशुम्भ से या कि शुम्भ से या रावण से
बतलाता इतिहास राज कोई भी रहता अजय नहीं है.
***
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
बिना विचारे कदम उठाना, क्या खुद लाना प्रलय नहीं है?
*
सुर-असुरों ने एक साथ मिल, नर-वानर को तंग किया है
इनकी ही खातिर मर-मिटकर नर ने जब-तब जंग किया है
महादेव सुर और असुर पर हुए सदय, नर रहा उपेक्षित
अमिय मिला नर को भूले सब, सुर-असुरों ने द्वन्द किया है
मतभेदों को मनभेदों में बदल, रहा कमजोर सदा नर
चंचल वृत्ति, न सदा टिक सका एक जगह पर किंचित वानर
ऋक्ष-उलूक-नाग भी हारे, येन-केन छल कर हरि जीते
नारी का सतीत्व हरने से कब चूके, पर बने पूज्यवर
महाकाल या काल सत्य पर रहा अधिकतर सदय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
अपराधी ही न्याय करे तो निरपराध को मरना होगा
ताकतवर के अपराधों का दण्ड निबल को भरना होगा
पूँजीपतियों के इंगित पर सत्ता नाच नाचती युग से
निरपराध सीता को वन जा वनजा बनकर छिपना होगा
घंटों खलनायक की जय-जय, युद्ध अंत में नायक जीते
लव-कुश कीर्ति राम की गायें, हाथ सिया के हरदम रीते
नर नरेंद्र हो तो भी माया-ममता बैरन हो जाती हैं
आप शाप बन अनुभव पाता-देता पल-पल कड़वे-तीते
बहा पसीना फसल उगाए जो वह भूखा ही जाता है मर
लोभतंत्र से लोकतंत्र की मृत्यु यही क्या प्रलय नहीं है
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
*
कितना भी विपरीत समय हो, जिजीविषा की ही होगी जय
जो बाकी रह जायें वे मिल, काम करें निष्काम बिना भय
भीष्म कर्ण कृप द्रोण शकुनि के दिन बीते अलविदा उन्हें कह
धृतराष्ट्री हर परंपरा को नष्ट करे नव दृष्टि-धनञ्जय
मंज़िल जय करना है यदि तो कदम-कदम मिल बढ़ना होगा
मतभेदों को दबा नींव में, महल ऐक्य का गढ़ना होगा
दल का दलदल रोक रहां पथ राष्ट्रीय सरकार बनाकर
विश्व शक्तियों के गढ़ पर भी वक़्त पड़े तो चढ़ना होगा
दल-सीमा से मुक्त प्रमुख हो, सकल देश-जनगण का वक्ता
प्रत्यारोपों-आरोपों के समाचार क्या अनय नहीं है?
अचल रहे संकल्प, विकल्पों पर विचार का समय नहीं है
२९-६-२०१६
***
दोहे
वीणा की झंकार में, शब्दब्रम्ह है व्याप्त
कलकल ध्वनि है 'सलिल' की, वही सनातन आप्त
*
गौरैया चहचह करे, कूके कोयल मोर
सनसन चलती पवन में, छान्दसता है घोर
*

नाद ताल में, थाप में, छिपे हुए हैं छंद
आँख मूँद सुनिए जरा, पाएंगे आनंद
*
सुन मेघों की गर्जना, कजरी आल्हा झूम
कितनों का दिल लुट गया, तुझको क्या मालूम
*
मेंढक की टर-टर सुनो, झींगुर की झंकार
गति-यति उसमें भी बसी, कौन करे इंकार
*
सरगम सुना रही बरखा, हवा सुनाती छंद
दसों दिशाओं में छाया है, पल-पल नव आनंद
*
सूरज साथ खेलता रहता, धरती गाती गीत
नेह-प्रेम से गुंथी हुई है, आस-श्वास की रीत
२९-६-२०१५


***
दो कवि एक कुण्डलिनी
नवीन चतुर्वेदी
दो मनुष्य रस-सिन्धु का, कर न सकें रस-पान
एक जिसे अनुभव नहीं, दूजा अति-विद्वान
संजीव
दूजा अति विद्वान नहीं किस्मत में हो यश
खिला करेला नीम चढ़ा दो खा जाए गश
तबियत होगी झक्क भांग भी घोल पिला दो
'सलिल' नवीन प्रयोग करो जड़-मूल हिला दो
२९-६-२०१५
***
बुन्देली मुक्तिका:
बखत बदल गओ
*
बखत बदल गओ, आँख चुरा रए।
सगे पीठ में भोंक छुरा रए।।
*
लतियाउत तें कल लों जिनखों
बे नेतन सें हात जुरा रए।।
*
पाँव कबर मां लटकाए हैं
कुर्सी पा खें चना मुरा रए।।
*
पान तमाखू गुटका खा खें
भरी जवानी गाल झुरा रए।।
*
झूठ प्रसंसा सुन जी हुमसें
सांच कई तेन अश्रु ढुरा रए।।
२९-६-२०१४
***
पद
छंद: दोहा.
*
मन मंदिर में बैठे श्याम।।
नटखट-चंचल सुकोमल, भावन छवि अभिराम।
देख लाज से गड़ रहे, नभ सज्जित घनश्याम।।
मेघ मृदंग बजा रहे, पवन जप रहा नाम।
मंजु राधिका मुग्ध मन, छेड़ रहीं अविराम।।
छीन बंसरी अधर धर, कहें न करती काम।
कहें श्याम दो फूँक तब, जब मन हो निष्काम।।
चाह न तजना है मुझे, रहें विधाता वाम।
ये लो अपनी बंसरी, दे दो अपना नाम।।
तुम हो जाओ राधिका, मुझे बना दो श्याम।
श्याम थाम कर हँस रहे, मैं गुलाम बेदाम।।
२९.६.२०१२
***
गीत
कहे कहानी, आँख का पानी.
*
कहे कहानी, आँख का पानी.
की सो की, मत कर नादानी...
*
बरखा आई, रिमझिम लाई.
नदी नवोढ़ा सी इठलाई..
ताल भरे दादुर टर्राये.
शतदल कमल खिले मन भाये..
वसुधा ओढ़े हरी चुनरिया.
बीरबहूटी बनी गुजरिया..
मेघ-दामिनी आँख मिचोली.
खेलें देखे ऊषा भोली..
संध्या-रजनी सखी सुहानी.
कहे कहानी, आँख का पानी...
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पाला-कोहरा साथी-संगी.
आये साथ, करें हुडदंगी..
दूल्हा जाड़ा सजा अनूठा.
ठिठुरे रवि सहबाला रूठा..
कुसुम-कली पर झूमे भँवरा.
टेर चिरैया चिड़वा सँवरा..
चूड़ी पायल कंगन खनके.
सुन-गुन पनघट के पग बहके.
जो जी चाहे करे जवानी.
कहे कहानी, आँख का पानी....
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अमन-चैन सब हुई उड़न छू.
सन-सन, सांय-सांय चलती लू..
लंगड़ा चौसा आम दशहरी
खाएँ ख़ास न करते देरी..
कूलर, ए.सी., परदे खस के.
दिल में बसी याद चुप कसके..
बन्ना-बन्नी, चैती-सोहर.
सोंठ-हरीरा, खा-पी जीभर..
कागा सुन कोयल की बानी.
कहे कहानी, आँख का पानी..
२९-६-२०१०
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