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रविवार, 28 अप्रैल 2019

कुण्डलिनी

कुण्डलिनी:
संजीव 'सलिल'
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजा दे, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत मान ता ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
***

शनिवार, 24 नवंबर 2018

कुंडलिनी

नव प्रयोग
कुंडलिनी छंद
*
आँख आँख में डाल, चलो करें अब बात हम।
चुरा-झुकाकर आँख,  करें न निज विश्वास कम।।
करें न निज विश्वास कम, चलो निवारण हाथ।
काया-छाया की तरह,  हों उजास में साथ।।
अंधकार में एक हों, मिला चोंच अरि पाँख।
चलो करें अब बात हम, मिला आँख से आँख।।
***
संजीव,

२४-११-२०१८

शुक्रवार, 23 नवंबर 2018

कुंडलिनी छंद

एक कुण्डलिनी 
*
बोल भारती आप,  भारत माँ को नमन कर।
मंजिल वरिए झूम, हरसंभव सब जतन कर।।
हर संभव सब जतन कर,  हरा हार को जीत।
हार पहनिए जीत का, लुटा मीत पर प्रीत।।
अपने दिल का द्वार तू, जहाँ-तहाँ मत खोल।
बात मधुर सौ बार कह, कड़वा सच मत बोल।।
***
संजीव, ७९९९५५९६१८

कुंडलिनी छंद

हिंदी के नए छंद 
कुण्डलिनी छंद 
*
लक्षण: 
षट्पदिक्, द्वादश चरणीय, एक सौ चवालीस मात्रिक 
वैशिष्ट्य:
कुण्डलिया से साम्य-
१. दोनों ६ पदीय।  
२. दोनों में १२ चरण।  
३. दोनों में १४४ मात्राएँ।  
४. दोनों में आदि-अंत में समान शब्द या शब्द-युग्म।  
५. दोनों में चौथे चरण की पांचवे चरण के रूप में पुनरावृत्ति। 
६. दोनों में २ छंदों का प्रयोग। 
कुण्डलिया से अंतर 
१. कुण्डलिया का आरम्भ दोहा (१३-११) से, कुण्डलिनी का सोरठा (११-१३) से। 
२. कुण्डलिया में दूसरा छंद रोला (११-१३), कुण्डलिनी में दो दोहे (१३-११)
३. कुण्डलिया का अंत गुरु से हो सकता है, कुण्डलिनी का अंत लघु से ही होता है। 
४. कुण्डलिनी में अंत में गुरु-लघु अनिवार्य इसलिए कुण्डलिया में नहीं।  
५. कुण्डलिनी में आरंभ का पहला शब्द या शब्द समूह गुरु लघु होना अनिवार्य, कुण्डलिया में नहीं।  
६. कुण्डलिनी में सोरठा और दो दोहों का समायोजन, कुण्डलिया में दोहा और रोला का।   
लक्षण छंद 
आप सोरठा अग्र, दो दोहे पीछे रहें।
रच षट्पद अव्यग्र, बारह चरण ललित रचें।।
हों कुंडलिनी में सदा,  चौ-पच चरण समान।
आदि-अंत सादृश्य से, छंद बने रसवान।
गुरु-लघु से आरंभ कर, गुरु-लघु रखिए अंत।।
अनुशासन से कथ्य को, करें प्रभावी संत।।
२३-११-२०१८
उदाहरण-
सत्य बसे सौराष्ट्र, महाराष्ट्र भी राष्ट्र में।
भारत में ही तात, युद्ध महाभारत हुआ।।
युद्घ महाभारत हुआ, कृष्ण न पाए रोक।
रक्तपात संहार से, दस दिश फैला शोक।।
स्वार्थ-लोभ कारण बने, वाहक बना असत्य।
काम करें निष्काम हो, सीख मिली चिर सत्य।।

*
बोल भारती आप,  भारत माँ को नमन कर।
मंजिल वरिए झूम, हरसंभव सब जतन कर।।
हर संभव सब जतन कर,  हरा हार को जीत।
हार पहनिए जीत का, लुटा मीत पर प्रीत।।
अपने दिल का द्वार तू, जहाँ-तहाँ मत खोल।
बात मधुर सौ बार कह, कड़वा सच मत बोल।।
२२-११-२०१८

लूट रहा है बाग, माली कलियाँ  रौंदकर। 
भाग रहे हैं सेठ, खुद ही डाका डालकर।।
खुद ही डाका डालकर, रपट सिखाते झूठ। 
जंगल बेचे खा गए, शेष बचे हैं ठूँठ।।
कौए गर्दभ पुज रहे, कोयल होती हूट।
गौरैया को कर रहा,  बाज अहिंसक शूट।।

*
आँख आँख में डाल, चलो करें अब बात हम। 
चुरा-झुकाकर आँख,  करें न निज विश्वास कम।।
करें न निज विश्वास कम, चलो निवारण हाथ। 
काया-छाया की तरह,  हों उजास में साथ।।
अंधकार में एक हों, मिला चोंच अरि पाँख।
चलो करें अब बात हम, मिला आँख से आँख।।
***
संजीव, ७९९९५५९६१२ 

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

kundalini

कुण्डलिनी 
संजीव
.
क्यों किशोर शर्मा कहे, सही न जाए शीत
च्यवनप्राश खा चुनौती, जीत बने नव रीत
जीत बने नव रीत, जुटाकर कुनबा अपना
करना सभी अनीत, देख सत्ता का सपना
कहे सलिल कविराय, नाचते हैं बंदर ज्यों
नचते नेता पिटे, मदारी स्वार्थ बना क्यों?
*
हुई अपर्णा नीम जब, तब पाती नव पात
कली पुष्प फिर निंबोली, पा पुजती ज्यों मात
पा पुजती ज्यों मात, खरे व्यवहार सिखाती
हैं अनेक में एक, एक में कई दिखाती
माता भगिनी सखी संगिनी सुता नित नई
साली सलहज समधन जीवन में सलाद हुई
*

शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

muktak, muktika, kundalini

मुक्तक
कल्पना के बिना खेल होता नहीं 
शब्द का शब्द से मेल होता यहीं 
गिर 'सलिल' पर हुईं बिजलियाँ लुप्त खुद 
कलप ना, कलपना व्यर्थ होता कहीं?
*
मुक्तिका
*
नाजनीं को नमन मुस्कुरा दीजिए
मशविरा है बिजलियाँ गिरा दीजिए 
*
चिलमनों के न पीछे से अब वार हो
आँख से आँखबरबस मिला दीजिए
 *
कल्पना ही सही क्या बुरा है अगर
प्रेरणा बन के आगे बढ़ा दीजिए
*
कांता के हुए कांत अब तो 'सलिल'
बैठ पलकों पे उनको बिठा दीजिए
*
जो खलिश दिल में बाकी रहे उम्र भर
ले के बाँहों में उसको सजा दीजिए
***

कुंडलिनी
*
जिस पर बिजली गिर गयी, वह तो बैठा शांत
गिरा रहे जो वे हुए अपने आप शांत
अपने आप अशांत बढ़ा बैठे ब्लड प्रेशर 
करें कल्पना हुए लाल कश्मीरी केसर
'सलिल' हुआ है मुग्ध अनूठा रूप देखकर
वह भुगते बिजली गिरनी है अब जिस जिस पर
***

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

जन्म दिन पर अनंत शुभ कामनाएँ 
आदरणीया लावण्य शर्मा शाह को 
*
उमर बढ़े बढ़ते रहे ओज, रूप, लावण्य 
हर दिन दिनकर दे नए सपने चिर तारुण्य 
सपने चिर तारुण्य विरासत चिरजीवी हो
पा नरेंद्र-आशीष अमर मन मसिजीवी हो
नमन 'सलिल' का स्वीकारें पा करती-यश अमर
चिरतरुणी हों आप असर दिखाए ना उमर
***

सोमवार, 21 नवंबर 2016

कुण्डलिनी

कुन्डलिनी
*
मन उन्मन हो जब सखे!, गढ़ें चुटकुला एक
खुद ही खुद को सुनाकर, हँसें मशविरा नेक
हँसें मशविरा नेक, निकट दर्पण के जाएँ
अपनी सूरत निरख, दिखाकर जीभ चिढ़ाएँ
तरह-तरह मुँह बना, तरेंरे नैना खंजन
गढ़ें चुटकुला एक, सखे! जब मन हो उन्मन
***

बुधवार, 1 जून 2016

kundalini

कुंडलिनी 

*
देख रहे गिरजेश हँस, गिरि पर खिला शिरीष 

गिरिजा से बोले विहँस, देखो मौन मनीष

देखो मौन मनीष, न नाहक शोर मचाता 

फूल लुटाता दाम न लेकिन कुछ भी पाता 

वैरागी सा खड़ा, मिटाता - खींच न रेख 

करता काम न औरों के गुण-अवगुण देख

***

गुरुवार, 7 अप्रैल 2016

कुण्डलिनी

​​रसानंद दे छंद नर्मदा २४​​: ​ ६-४-२०१६
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
​दोहा, ​सोरठा, रोला, ​आल्हा, सार​,​ ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई​, ​हरिगीतिका, उल्लाला​,गीतिका,​घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी,​ छप्पय तथा भुजंगप्रयात छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए​ कुण्डलिनी छंद से.

कुण्डलिनी का वृत्त है दोहा-रोला युग्म
*
कुण्डलिनी हिंदी के कालजयी और लोकप्रिय छंदों में अग्रगण्य है एक दोहा (दो पंक्तियाँ, १३-११ पर यति, विषम चरण के आदि में जगण वर्जित, सम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु) तथा एक रोला (चार पंक्तियाँ, ११-१३यति, विषम चरणान्त गुरु-लघु या लघु- लघु-लघु, सम चरण के आदि में जगण वर्जित,सम चरण के अंत में २ गुरु, लघु-लघु-गुरु, या ४ लघु) मिलकर षट्पदिक (छ: पंक्ति) कुण्डलिनी छंद को आकार देते हैं दोहा और रोला की ही तरह कुण्डलिनी भी अर्ध सम मात्रिक छंद है दोहा का अंतिम या चौथा चरण रोला  प्रथम चरण बनाकर दोहराया जाता है दोहा का प्रारंभिक शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश रोला का अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश होता है प्रारंभिक और अंतिम शब्द, शब्द-समूह या शब्दांश की समान आवृत्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो जहाँ से आरम्भ किया वही लौट आये, इस तरह शब्दों के एक वर्तुल या वृत्त की प्रतीति होती है सर्प जब कुंडली मारकर बैठता है तो उसकी पूँछ का सिरा जहाँ होता है वहीं से वह फन उठाकर चतुर्दिक  देखता है   

१. कुण्डलिनी छंद ६ पंक्तियों का छंद है जिसमें एक दोहा और एक रोला छंद  होते हैं
२. दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है
३. दोहा का आरंभिक शब्द, शब्दांश, शब्द समूह या पूरा चरण रोला के अंत में प्रयुक्त होता है
४. दोहा तथा रोला अर्ध सम मात्रिक  छंदहैं अर्थात इनके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ  होती हैं

अ. दोहा में २ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में १३+११=२४ मात्राएँ होती हैं. दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे) चरण में १३ मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ११ मात्राएँ होती हैं
आ. दोहा के विषम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते 
इ. दोहा के विषम चरण का अंत रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए 
ई. दोहा के सम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है
उ. दोहा के लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर २३ प्रकार होते हैं
उदाहरण: समय-समय की बात है, समय-समय का फेर
               जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर
 
५.  रोला भी अर्ध सम मात्रिक  छंद है अर्थात इसके आधे-आधे हिस्सों में समान मात्राएँ  होती हैं
क. रोला में  ४ पंक्तियाँ होती हैं, प्रत्येक के २ चरणों में ११+१३=२४ मात्राएँ होती हैं दोनों पंक्तियों में विषम (पहले, तीसरे, पाँचवे, सातवें) चरण में ११  मात्राएँ तथा सम (दूसरे, चौथे, छठवें, आठवें) चरण में १३ मात्राएँ होती हैं
का. रोला के विषम चरण के अंत में गुरुलघु (जैसे ईश) होना आवश्यक है
कि. रोला के सम चरण के आदि में जगण (जभान, लघुगुरुलघु जैसे अनाथ) वर्जित होता है शुभ शब्द जैसे विराट अथवा दो शब्दों में जगण जैसे रमा रमण वर्जित नहीं होते
की. रोला के सम चरण का अंत  रगण (राजभा गुरुलघुगुरु जैसे भारती) या नगण (नसल लघुलघुलघु जैसे सलिल) से होना चाहिए 
उदाहरण: सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़
 
               हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़
               भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय
               नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय
६. कुण्डलिनी:
                      समय-समय की बात है, समय-समय का फेर
                      जहाँ देर है वहीं है, सच मानो अंधेर
                      सच मानो अंधेर, मचा संसद में हुल्लड़
                      हर सांसद को भाँग, पिला दो भर-भर कुल्हड़
                      भाँग चढ़े मतभेद, दूर हो करें न संशय
                      नाचें गायें झूम, सियासत भूल हर समय

कुण्डलिया है जादुई, छन्द श्रेष्ठ श्रीमान
दोहा रोला का मिलन, इसकी है पहिचान
इसकी है पहिचान, मानते साहित सर्जक
आदि-अंत सम-शब्द, साथ बनता ये सार्थक
लल्ला चाहे और, चाहती इसको ललिया
सब का है सिरमौर छन्द, प्यारे, कुण्डलिया  - नवीन चतुर्वेदी 

कुण्डलिया छन्द का विधान उदाहरण सहित

कुण्डलिया है जादुई
२११२ २ २१२ = १३ मात्रा / अंत में लघु गुरु के साथ यति
छन्द श्रेष्ठ श्रीमान
२१ २१ २२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
दोहा रोला का मिलन
२२ २२ २ १११ = १३ मात्रा / अंत में लघु लघु लघु [प्रभाव लघु गुरु] के साथ यति
इसकी है पहिचान
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में गुरु लघु
इसकी है पहिचान,
११२ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
मानते साहित सर्जक
२१२ २११ २११ = १३ मात्रा
आदि-अंत सम-शब्द,
२१ २१ ११ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
साथ, बनता ये सार्थक
२१ ११२ २ २११ = १३ मात्रा
लल्ला चाहे और
२२ २२ २१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
चाहती इसको ललिया
२१२ ११२ ११२ = १३ मात्रा
सब का है सिरमौर
११ २ २ ११२१ = ११ मात्रा / अंत में लघु के साथ यति
छन्द प्यारे कुण्डलिया
२१ २२ २११२ = १३ मात्रा

उदाहरण -
०१. भारत मेरी जान है,  इस पर मुझको नाज़      
      नहीं रहा बिल्कुल मगर, यह कल जैसा आज
      यह कल जैसा आज, गुमी सोने की चिड़िया
      बहता था घी-दूध, आज सूखी हर नदिया
      करदी भ्रष्टाचार- तंत्र ने, इसकी दुर्गत      
      पहले जैसा आज,  कहाँ है? मेरा भारत  - राजेंद्र स्वर्णकार 




०२. भारत माता की सुनो, महिमा अपरम्पार ।
      इसके आँचल से बहे, गंग जमुन की धार ।।
      गंग जमुन की धार, अचल नगराज हिमाला ।
      मंदिर मस्जिद संग, खड़े गुरुद्वार शिवाला ।।
      विश्वविजेता जान, सकल जन जन की ताकत ।
      अभिनंदन कर आज, धन्य है अनुपम भारत ।। - महेंद्र वर्मा

०३. भारत के गुण गाइए, मतभेदों को भूल
      फूलों सम मुस्काइये, तज भेदों के शूल
      तज भेदों के, शूल / अनवरत, रहें सृजनरत
      मिलें अँगुलिका, बनें / मुष्टिका, दुश्मन गारत
      तरसें लेनें. जन्म / देवता, विमल विनयरत
      'सलिल' पखारे, पग नित पूजे, माता भारत
      (यहाँ अंतिम पंक्ति में ११ -१३ का विभाजन 'नित' ले मध्य में है अर्थात 'सलिल' पखारे पग नि/त पूजे, माता भारत में यति एक शब्द के मध्य में है यह एक काव्य दोष है और इसे नहीं होना चाहिए। 'सलिल' पखारे चरण करने पर यति और शब्द एक स्थान पर होते हैं, अंतिम चरण 'पूज नित माता भारत' करने से दोष का परिमार्जन होता है।)

०४. कंप्यूटर कलिकाल का, यंत्र बहुत मतिमान
      इसका लोहा मानते, कोटि-कोटि विद्वान
      कोटि-कोटि विद्वान, कहें- मानव किंचित डर
      तुझे बना ले, दास अगर हो, हावी तुझ पर
      जीव श्रेष्ठ, निर्जीव हेय, सच है यह अंतर
      'सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर
      ('सलिल' न मानव से बेहतर कोई कंप्यूटर' यहाँ 'बेहतर' पढ़ने पर अंतिम पंक्ति में २४ के स्थान पर २५ मात्राएँ हो रही हैं। उर्दूवाले 'बेहतर' या 'बिहतर' पकर यह दोष दूर हुआ मानते हैं किन्तु हिंदी में इसकी अनुमति नहीं है। यहाँ एक दोष और है, ११ वीं-१२ वीं मात्रा है 'बे' है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। 'सलिल' न बेहतर मानव से' करने पर अक्षर-विभाजन से बच सकते हैं पर 'मानव' को 'मा' और 'नव' में तोड़ना होगा, यह भी निर्दोष नहीं है। 'मानव से अच्छा न, 'सलिल' कोई कंप्यूटर' करने पर पंक्ति दोषमुक्त होती है।)

०५. सुंदरियाँ घातक 'सलिल', पल में लें दिल जीत
      घायल करें कटाक्ष से, जब बनतीं मन-मीत
      जब बनतीं मन-मीत, मिटे अंतर से अंतर
      बिछुड़ें तो अवढरदानी भी हों प्रलयंकर
      असुर-ससुर तज सुर पर ही रीझें किन्नरियाँ
      नीर-क्षीर बन, जीवन पूर्ण करें सुंदरियाँ    
     (इस कुण्डलिनी की हर पंक्ति में २४ मात्राएँ हैं। इसलिए पढ़ने पर यह निर्दोष प्रतीत हो सकती है। किंतु यति स्थान की शुद्धता के लिये अंतिम ३ पंक्तियों को सुधारना होगा।   
'अवढरदानी बिछुड़ / हो गये थे प्रलयंकर', 'रीझें सुर पर असुर / ससुर तजकर किन्नरियाँ', 'नीर-क्षीर बन करें / पूर्ण जीवन सुंदरियाँ'  करने पर छंद दोष मुक्त हो सकता है।) 

०६. गुन के गाहक सहस नर, बिन गन लहै न कोय
      जैसे कागा-कोकिला, शब्द सुनै सब कोय 
      शब्द सुनै सब कोय, कोकिला सबै सुहावन 
       दोऊ को इक रंग, काग सब लगै अपावन 
       कह 'गिरधर कविराय', सुनो हे ठाकुर! मन के
      बिन गुन लहै न कोय, सहस नर गाहक गुन के। - गिरधर 
      कुण्डलिनी छंद का सर्वाधिक और निपुणता से प्रयोग करनेवाले गिरधर कवि ने यहाँ आरम्भ के अक्षर, शब्द या शब्द समूह का प्रयोग अंत में ज्यों का त्यों न कर, प्रथम चरण के शब्दों को आगे-पीछे कर प्रयोग किया है। ऐसा करने के लिये भाषा और छंद पर अधिकार चाहिए।   

०७. हे माँ! हेमा है कुशल, खाकर थोड़ी चोट 
      बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट 
      थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
      अभिनेता हैं खास, आम जन हुए पराये
      सहकर पीड़ा-दर्द, जनता करती है क्षमा?
      समझें व्यथा-कथा, आम जन का कुछ हेमा
      यहाँ प्रथम चरण का एक शब्द अंत में है किन्तु वह प्रथम शब्द नहीं है

०८. दल का दलदल ख़त्म कर, चुनिए अच्छे लोग
      जिन्हें न पद का लोभ हो, साध्य न केवल भोग
      साध्य न केवल भोग, लक्ष्य जन सेवा करना
      करें देश-निर्माण, पंथ ही केवल वरना
      कहे 'सलिल' कवि करें, योग्यता को मत ओझल
      आरक्षण कर  ख़त्म, योग्यता ही हो संबल 
      यहाँ आरम्भ के शब्द 'दल' का समतुकांती शब्द 'संबल' अंत में है।  प्रयोग मान्य हो या न हो, विचार करें

०९. हैं ऊँची दूकान में, यदि फीके पकवान।
      जिसे- देख आश्चर्य हो, वह सचमुच नादान।
      वह सचमुच नादान, न फल या छाँह मिलेगी।
      ऊँचा पेड़ खजूर, व्यर्थ- ना दाल गलेगी।
      कहे 'सलिल' कविराय, दूर हो ऊँचाई से।
      ऊँचाई दिख सके, सदा ही नीचाई से
      यहाँ प्रथम शब्द 'है' तथा अंत में प्रयुक्त शब्द 'से' दोनों गुरु हैं। प्रथम दृष्टया भिन्न प्रतीत होने पर भी दोनों के उच्चारण में लगनेवाला समय समान होने से छंद निर्दोष है
***    

गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015

kundalini

कुण्डलिनी:
आँखों में सपने हसीं, अधरों पर मुस्कान
सुख-दुःख की सीमा नहीं, श्रम कर हों गुणवान
श्रम कर हों गुणवान बनेंगे मोदी जैसे
बौने हो जायेंगे सुख सुविधाएँ पैसे
करें अनुसरण जग में प्रेरित मानव लाखों
श्रम से जय कर जग मुस्कायें आँखों-आँखों

सोमवार, 6 जुलाई 2015

kundalini

कुण्डलिनी:
संजीव 
*
हे माँ! हेमा है खबर, खाकर थोड़ी चोट 
बच्ची हुई दिवंगता, थी इलाज में खोट 
थी इलाज में खोट, यही अच्छे दिन आये
व्ही आई पी है खास, आम जन हुए पराये
कब तक नेताओं को, जनता करे क्यों क्षमा?
काश समझ लें दर्द, आम जन का कुछ हेमा
***

बुधवार, 1 जुलाई 2015

kundalini

दो कवि एक कुण्डलिनी 
नवीन चतुर्वेदी 
दो मनुष्य रस-सिन्धु का, कर न सकें रस-पान 
एक जिसे अनुभव नहीं, दूजा अति-विद्वान
संजीव 
दूजा अति विद्वान नहीं किस्मत में हो यश
खिला करेला नीम चढ़ा दो खा जाए गश
तबियत होगी झक्क भांग भी घोल पिला दो
'सलिल' नवीन प्रयोग करो जड़-मूल हिला दो
***

मंगलवार, 2 जून 2015

kundalini: sanjiv

कुंडलिनी:
अफसर आईएएस  हैं, सब कष्टों की खान
नाच नचा मंत्रियों को, धमकाते भर कान
धमकाते भर कान, न मानी बात हमारी
तो हम रहें न साथ, खोल दें पोल तुम्हारी
केर-बेर सा संग, निभाते दोनों अक्सर
नीति सुझाते बना-बना मंत्री को अफसर.
***  

मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

kundalini

कुण्डलिनी
संजीव
.
क्यों किशोर शर्मा कहे, सही न जाए शीत
च्यवनप्राश खा चुनौती, जीत बने नव रीत
जीत बने नव रीत, जुटाकर कुनबा अपना
करना सभी अनीत, देख सत्ता का सपना
कहे सलिल कविराय, नाचते हैं बंदर ज्यों
नचते नेता पिटे, मदारी स्वार्थ बना क्यों?
*
हुई अपर्णा नीम जब, तब पाती नव पात
कली पुष्प फिर निंबोली, पा पुजती ज्यों मात
पा पुजती ज्यों मात, खरे व्यवहार सिखाती
हैं अनेक में एक, एक में कई दिखाती
माता भगिनी सखी संगिनी सुता नित नई
साली सलहज समधन जीवन में सलाद हुई
*

शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

kundalini:

कुंडली :

उन्मन मन हैं शांत ज्यों, गुजर गया तूफ़ान
तिनका सिकता का रहा, आँधी से अनजान
आँधी से अनजान, दूब मुस्काकर बोली
पीपल-बरगद उखड़े, कर-कर हँसी-ठिठोली
नम जाते जो उनका बच जाता है जीवन
जिन्हें न नमना भाता वे रहते हैं उन्मन
*

धुआं धूम्र कचरा किया, खूब मना त्यौहार
रसायनों से हो रहे, खुद ही हम बीमार
खुद ही हम बीमार, दोष कुदरत को देते
छप्पर हर मुश्किल का शासन पर धर देते
कहे यही संजीव खोद रहे हम खुद कुआं
अमन-शांति, सुख-चैन करते हमीं धुआं-धुआं
*


मंगलवार, 27 सितंबर 2011

एक कुण्डलिनी: गूगल के १३ वें जन्मदिवस पर -- संजीव वर्मा 'सलिल'

एक कुण्डलिनी:
गूगल के १३ वें जन्मदिवस पर
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
सकल जगत एक गाँव है, गूगल है चौपाल.
सबको सबसे जोड़ता, करता रोज कमाल.
करता रोज कमाल, धमाल मचाता जीभर.
चढ़ जाता है नशा, स्नेह की मदिरा पीकर..
कहे सलिल कविराय, अकेला रहे बे-अकल.
अकलवान है वही, जोड़ता जगत जो सकल..
Acharya Sanjiv Salil

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बुधवार, 17 अगस्त 2011

सामयिक कुण्डलिनी छंद : रावण लीला देख ---संजीव 'सलिल'

सामयिक कुण्डलिनी छंद :
रावण लीला देख
--संजीव 'सलिल'
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लीला कहीं न राम की, रावण लीला देख.
मनमोहन है कुकर्मी, यह सच करना लेख..
यह सच करना लेख काटेगा इसका पत्ता.
सरक रही है इसके हाथों से अब सत्ता..
कहे 'सलिल' कविराय कफन में ठोंको कीला.
कभी न कोई फिर कर पाये रावण लीला..
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खरी-खरी बातें करें, करें खरे व्यवहार.
जो  कपटी कोंगरेस है,उसको दीजे हार..
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कुचले जो जनता को वह सरकार है मरी.
'सलिल' नहीं लाचार बात करता है खरी.
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फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
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Acharya Sanjiv Salil
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