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मंगलवार, 15 जुलाई 2025

जुलाई १५, बरसात, चोका गीत, अनुगीत छंद, सोरठा - दोहा गीत, सॉनेट, जिजीविषा,

सलिल सृजन जुलाई १५
० 
सॉनेट
जिजीविषा
(नवान्वेषित चंद्रारोहण सवैया, पदभार ३२ मात्रा, यति १६-१६, पदांत यगण)
जिजीविषा जीवट की जय जो संघर्षों से हार न माने,
दोष न दे ईश्वर को किंचित, और नहीं किस्मत को रोए,
साहस और हौसला रखकर, संकट को जय करना ठाने,
कलपे नहीं, न पीछे देखे, और न अपना धीरज खोए।
शक्ति समूची जुटा यत्न कर, ले संकल्प न समय गँवाए,
मंजिल तयकर दौड़ लगाए,नहीं भटककर, एक दिशा में,
आश्रय-मदद न चाह किसी से नहीं याचना-टेर लगाए,
करे भरोसा निज मति-गति पर, ध्यान न जाए क्षुधा-तृषा में।
करे प्रयास प्राण-प्रण से जब, तब हो अपना भाग्य विधाता,
मलता हाथ अहेरी नत शिर, मृगया से बच मृग जय पाए,
शुभ संकल्पों की जय होती, तब जग जय-जयकार गुँजाता,
नहीं फूलकर होता कुप्पा, जयी सँकुच मन में मुस्काए।
वही जयी होता जीवन में, अपना आप सहायक हो जो।
दिखता भले जीव इस जग का, सच ही भाग्य विधायक वह हो
१५-७-२०२३
•••
लेख
वर्षा मंगल
*
भारतीय जन मानस उत्सवधर्मी है। ऋतु परिवर्तन के साथ-साथ तरह तरह के पर्व मनाये जाते हैं। वर्षा ऋतु ग्रीष्म से तप्त धरा, जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों और मानवों को सलिल बिंदुओं के साथ जीवन्मृत प्रदान कर उनमें नव चेतना का संचार करती है। लोक मानस झूम कर गाने-नाचने लगता है। चौपालों पर आल्हा, कजरी, सावन गीत, रास आदि सुनाई देने लगते हैं। धरती कर सर्वत्र नवांकुरों का हरित-पीत सौंदर्य बिखर जाता है। बेलें हुमसकर वृक्षों से लिपटकर बढ़ चलती हैं। आसमान पर गरजते मेघ, तड़कती बिजली भय हुए हर्ष की मिली-जुली भावनाओं का संचार करती है। बरसाती जलधार धरा को तृप्त कर आप भी तृप्त होती है। सुखी सलिलाएँ मदमाती नारी के तरह किनारे तोड़कर बहने लगती हैं।
ऋग्वेद के पाँचवे मंडल के ८३वें सूक्त की प्रथम ऋचा में उस वैदिक बलवान, दानवीर, भीम गर्जना करनेवाले पर्जन्य देवता की स्तुति की गई है- जो वृषभ के समान निर्भीक है और पृथ्वीतल की औषधियों में बीजारोपण करके नवजीवन के आगमन की सूचना देते हैं। यहाँ पर्जन्य "पृष' (जह सींचना) धातु में "अन्य' प्रत्यय लगाने से और ष को ज या य से विस्थापित करने से बना है। धारणा कि पर्जन्य देवता यानि मानसून के मेघ बरस कर धरती को जल से परिपूरित कर प्रकृति में नवजीवन की सृष्टि करते हैं। पर्जन्य देवता गर्जना करने वाले वृषभ हैं। संस्कृत भाषा में "वृष' का अर्थ भी सींचना है और इसी धातु से वृषभ, वृषण, वृष्टि, वर्षण, वर्षा और वर्ष आदि शब्द बने हैं।महाभारत में अपने देश को भारतवर्ष कहा गया है, कृष्ण अर्जुन को 'भारत' कहते हैं। भारत के पूर्वोत्तर भाग में स्थित मेघालय के अंतर्गत पूर्वी खासी पहाड़ी में मौसिनराम नामक एक गाँव में विश्व में सर्वाधिक वर्षा होती है। भारतवर्ष नामकरण का अन्य कारण कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था का वर्षा पर आश्रित होना है।
भारतीय जनमानस को प्रतिबिंबित करता भारतीय साहित्य भी वर्षा ऋतु की नैसर्गिक सुषमा से परिपूर्ण है। संस्कृत के आदिकवि वाल्मीकि और कवियों में श्रेष्ठ कालिदास ने तो वर्षा का जैसा बखान किया है, वह विश्व साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। वाल्मीकि कृत रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के २८ वें सर्ग में राम वर्षा की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहते हैं, "वर्षाकाल आ पहुँचा। देखो, पर्वत के समान बड़े-बड़े मेघों के समूह से आकाश आच्छादित हो गया है। आकाश सूर्य की किरणों के माध्यम से समुद्र के जल को खींचकर और नौ मास (मध्य आश्विन से मध्य ज्येष्ठ तक) तक गर्भ धारण कर, अब वृष्टि रूपी रसायन को उत्पन्न कर रहा है। इस समय इन मेघ रूपी सीढ़ियों से आकाश में पहुँचकर, कौरेया और अर्जुन के फूलों के हार सी दिखने वाली मेघमालाओं से सूर्य बिम्ब स्थित अलंकार प्रिय नारायण शोभा पा रहे हैं।'
पहाड़ों की ढलानों पर उतरते हुए मेघों को देखकर कवि मुग्ध हो कह उठते हैं, "इन पहाड़ों ने जिनकी कन्दरा रूपी मुखों में हवा भरी हुई है, जो मेघ रूपी काले मृगचर्म और वर्षा की धारा रूपी यज्ञोपवीत धारण किये हुए हैं, मानो वेदोच्चारण करना आरम्भ कर दिया है।' ध्यातव्य है कि प्राचीन काल में राजा, सैनिक, व्यापारी, गृहस्थ, ब्रााहृण और साधु-संत अपनी यात्रायें स्थगित कर देते थे और इस चातुर्मास की अवधि को वेद अध्ययन के लिए उपयुक्त माना जाता था, साथ ही चातुर्मास के आरम्भ से ही वर्षा का आरंभ मान्य था। कवि ने वर्षा काल में नदियों के कलकल निनाद, झरनों के झर-झर, मेढकों के टर्र-टर्र, झींगुरों के झिर-झिर और वनों, उपवनों की सुंदरता तथा पशु-पक्षियों के क्रीड़ा-किल्लोल का अद्भुत चित्रण किया है। कवि कुछ किंवदन्तियों का भी जिक्र करते हैं, यथा राजहंस नीर-क्षीर विवेकी होते हैं, अतएव वे बरसात के गंदले जल को छोड़ इस ऋतु में हिमालय स्थित मानसरोवर को प्रस्थान कर जाते हैं।
प्रवासी चिड़िया चातक /पपीहा की खासियत यह है कि यह मानसून (अरबी मूल व-स-म, चिह्न से बने शब्द मौसम से) के आगमन से कुछ पहले मई-जून में अफ्रीका से उड़ती हुई भारतीय प्रायद्वीप आ जाती है। इसे वर्षा के आगमन का पूर्व दूत माना जाता है। इसके नर "पियु पियु' की आवाज निकालते हैं, जिसे लोग "पिय आया, पिय आया' का संदेश समझते हैं। संस्कृत में चातक की व्युत्पत्ति -भीख माँगना और प्रत्यय है। किंवदन्ती है कि चातक मात्र वर्षा जल ही पीते हैं, अतएव ये गगन की ओर टकटकी लगाकर मेघों से वर्षा जल की भीख माँगते हैं। वर्षा ऋतु का एक पर्यायवाची शब्द चातकानंदन यानि चातक आनंदन (चातक को आनंद देने वाली ऋतु) भी है। वर्षा काल की समाप्ति के उपरान्त अक्टूबर-नवम्बर तक ये पक्षी लौटते मानसून के साथ पुनः अरब सागर होते हुए वापस अफ्रीका चले जाते हैं, ठीक वैसे जैसे परदेशी बलम चातुर्मास बीतने के बाद अपनी प्रियतमा को छोड़ वापस काम पर लौट जाया करते थे।
क्या पावस (प्रवृष) ऋतु का यह शब्दचित्र अन्यत्र सम्भव है? इसका उत्तर कविकुल शिरोमणि तुलसीदास कृत रामचरितमानस के वर्षा-वर्णन में हिंदी की लोकभाषा अवधी में रामकथा कहकर तुलसी वाल्मीकि से भी ज़्यादा जन-जन में ख्याति पाते हैं।
संस्कृत कवियों में श्रेष्ठ कालिदास रचित 'मेघदूतम्' विश्व साहित्य की अनमोल धरोहर है। इसमें अलकापुरी से भटके, शापग्रस्त यक्ष द्वारा मेघों को दूत मानकर अपनी प्रिया यक्षिणी तक विरह-वेदना और प्रेम सन्देश भेज देने का निवेदन है। कहते हैं कि कालिदास ही वह यक्ष थे, जो उज्जैन से कश्मीर तक अपनी प्रियतमा को मेघों से संदेश भेजना चाहते थे। आधुनिक हिंदी साहित्य के पहले नाटक "आषाढ़ का पहला दिन' में मोहन राकेश ने इसी विषय को उठाया है। इस नाटक पर आधारित कई फिल्में भी बन चुकी हैं। कालिदास से इतर सोच रखने वाले आधुनिक कवि श्रीकांत वर्मा का अंतर्द्व्न्द कविता 'भटका मेघ' में है।
भारतीय साहित्य ही नहीं मुगलकालीन चित्रों और भारतीय संगीत भी वर्षा-मंगल या वर्षा-उमंग से परिपूर्ण है। संगीत में राग मल्हार से जुड़े अनेक मिथक हैं और आम धारणा है कि यह राग ग्रीष्म ऋतु के मल को हर लेता है और मेघ-वर्षण का माहौल बनाता है। किंतु कम लोगों को यह पता है कि मालाबार केरल राज्य मे अवस्थित पश्चिमी घाट और अरब सागर के बीच भारतीय प्रायद्वीप के पश्चिम तट के समानांतर एक संकीर्ण तटवर्ती क्षेत्र है। मलयालम में माला का अर्थ है - पर्वत और वारम् का अर्थ है- क्षेत्र। कालांतर में मालाबार से दक्षिण भारत के पूरे चन्दन वन क्षेत्र को जाना जाने लगा। संस्कृत में मलयज का अर्थ - चन्दन से जन्मा है। संस्कृत और हिंदी साहित्य में मलय पवन या मलय मरुत् का जन्म स्थान भारत का यही दक्षिण पश्चिमी तट है, जहाँ गर्मियों के बाद अरब सागर से मानसून पवन दस्तक देता है और फिर पूरे भारत में वर्षा होती है। यह मलय पवन ही सम्भवतः मॉनसून विंड है, जिसकी चर्चा मलयानिल के नाम से काव्यों में है।
बंकिम बाबू "वन्दे मातरम्' में भारत भूमि को "मलयज शीतलाम् शस्य श्यामलाम्' कहते हैं, जिसका साधारण अर्थ - चन्दन सी शीतल और धान के श्यामल रंग से सुशोभित है; किन्तु इसका व्यापक अर्थ है - मलय पवन की वर्षा से ग्रीष्म ऋतु को शीतलता देती, धान्य सम्पन्न धरती। भारतीय संगीत का मल्हार राग वस्तुतः मलय पवन को हरने वाला, आहरित करने वाला राग है। जिस तरह राग दीपक में वातावरण में ऊष्मा का आभास कराने का सामर्थ्य है, उसी तरह मल्हार में वर्षा ऋतु का माहौल पैदा किया जाता है। राग मल्हार समेत उपशास्त्रीय संगीत की वर्षाकालीन विधा कजरी (कद् जल या काजल जैसे मेघ का संगीत) है। भारत में वर्षा काल ज्येष्ठ से शुरू होकर भादों तक चलता है। ज्येष्ठ ज्या (पृथ्वी) के तपन की शुरुआत है। आषाढ़ असह्र गर्मी का द्योतक है। श्रावण में प्रकृति के स्वरों का श्रवण होता है और भाद्रपद में घर-आँगन समेत पूरा बिखरे मेघों वाला आकाश ऐसा दिखता है, मानो किसी गाय (भद्रा) ने अपने खुर (पाद) से रौंद दिया हो। हमारे प्रवासी मित्र परदेस में वर्षा ऋतु का आनन्द-उत्सव कैसे मनाते हैं, इसे हमने ख़ास तौर पर जानने का प्रयास किया है। वर्षा ऋतु भारत के लिए सर्वतोभद्र है। यह महीनों रेगिस्तान की गर्मी में सफर कर रहे क्लांत पथिक को नदी का किनारा मिलने जैसा है। यह सुखद संयोग है कि इस वर्ष मौसम वैज्ञानिकों ने औसत से ज़्यादा वर्षा होने की भविष्यवाणी की है। इससे हमारे कृषकों को लाभ पहुँचे और हमारी अर्थव्यवस्था मज़बूत हो।
***
सॉनेट
जलसा घर
घर में जलसा घर घुस बैठा
साया ही हो गया पराया
मन को मोहे तन की माया
मानव में दानव है पैठा
पल में ऐंठे, पल में अकड़े
पल में माशा, पल में तोला
स्वार्थ साधने हो मिठबोला
जाने कितने करता लफड़े
जल सा घर रिस-रिसकर गीला
हर नाता हो रहा पनीला
कसकर पकड़ा फिर भी ढीला
सीली माचिस जैसे रिश्ते
हारे चकमक पत्थर घिसते
जलते ही झट चटपट बुझते
१४-७-२०२१
ए२/३ अमरकंटक एक्सप्रेस
•••
सॉनेट
मैं-तुम
मैं-तुम, तू तू मैं मैं करते
जैसे हों संसद में नेता
मरुथल में छिप नौका खेता
इसकी टोपी उस सिर धरते
सहमत हुए असहमत होने
केर-बेर का संग सुहाए
हर ढपली निज राग बजाए
मतभेदों की फसलें बोने
इससे लेकर उसको देना
आप चबाना चुप्प चबेना
जो बच जाए खुद धर लेना
ठेंगा दिखा ठीक सब कहते
मुखपोथी पर नाते तहते
पानी पर पत्ते सम बहते
१४-७-२०२२, २१•४६
ए २/३ अमरकंटक एक्सप्रेस
•••
सॉनेट
बहाना
बिना बताए सबने ठाना
अपनी ढपली अपना राग
सावन में गाएँगे फाग
बना बनाकर नित्य बहाना
भूले नाते बना निभाना
घर-घर पलते-डँसते नाग
अपने ही देते हैं दाग
आँख मूँदकर साध निशाना
कौआ खुद को मान सयाना
सेता अंडा जो बेगाना
सीख न पाए मीठा गाना
रहे रात-दिन नाहक भाग
भूले धरना सिर पर पाग
सो औरों से कहते जाग
१४-७-२०२२, २१•२५
ए २/३ अमरकंटक एक्सप्रेस
•••
गीत वर्षा के सलिल
बाल गीत
पानी दो
पानी दो, प्रभु पानी दो
मौला धरती धानी दो,
पानी दो...
*
तप-तप धरती सूख गई
बहा पसीना, भूख गई.
बहुत सयानी है दुनिया
प्रभु! थोड़ी नादानी दो,
पानी दो...
*
टप-टप-टप बूँदें बरसें
छप-छपाक-छप मन हरषे
टर्र-टर्र बोले दादुर
मेघा-बिजुरी दानी दो,
पानी दो...
*
रोको कारें, आ नीचे
नहा-नाच हम-तुम भीगे
ता-ता-थैया खेलेंगे
सखी एक भूटानी दो,
पानी दो...
*
सड़कों पर बहता पानी
याद आ रही क्या नानी?
जहाँ-तहाँ लुक-छिपते क्यों?
कर थोड़ी मनमानी लो,
पानी दो...
*
छलकी बादल की गागर
नचे झाड़ ज्यों नटनागर
हर पत्ती गोपी-ग्वालन
करें रास रसखानी दो,
पानी दो...
*
बाल गीत:
बरसे पानी
*
रिमझिम रिमझिम बरसे पानी.
आओ, हम कर लें मनमानी.
बड़े नासमझ कहते हमसे
मत भीगो यह है नादानी.
वे क्या जानें बहुतई अच्छा
लगे खेलना हमको पानी.
छाते में छिप नाव बहा ले.
जब तक देख बुलाये नानी.
कितनी सुन्दर धरा लग रही,
जैसे ओढ़े चूनर धानी.
काश कहीं झूला मिल जाता,
सुनते-गाते कजरी-बानी.
'सलिल' बालपन फिर मिल पाये.
बिसराऊँ सब अकल सयानी.
***
गीत
बरसातों में
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
***
नवगीत:
*
मेघ बजे
नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर
फिर मेघ बजे
ठुमुक बिजुरिया
नचे बेड़नी बिना लजे
*
दादुर देते ताल,
पपीहा-प्यास बुझी
मिले मयूर-मयूरी
मन में छाई खुशी
तोड़ कूल-मरजाद
नदी उफनाई तो
बाबुल पर्वत रूठे
तनया तुरत तजे
*
पल्लव की करताल
बजाती नीम मुई
खेत कजलियाँ लिये
मेड़ छुईमुई हुई
जन्मे माखनचोर
हरीरा भक्त पिये
गणपति बप्पा, लाये
मोदक हुए मजे
*
टप-टप टपके टीन
चू गयी है बाखर
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली
अभियंता को
डुकरो काँपें, 'सलिल'
जोड़ कर राम भजे
*
नवगीत:
.
खों-खों करते
बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी
.
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी 'रोको' पुकारें
पछुआ अम्मा
बड़बड़ करती
डाँट लगातीं तगड़ी
.
धरती बहिना राह हेरती
दिशा सहेली चाह घेरती
ऊषा-संध्या बहुएँ गुमसुम
रात और दिन बेटे अनुपम
पाला-शीत न
आये घर में
खोल न खिड़की अगड़ी
.
सूर बनाता सबको कोहरा
ओस बढ़ाती संकट दोहरा
कोस न मौसम को नाहक ही
फसल लाएगी राहत को ही
हँसकर खेलें
चुन्ना-मुन्ना
मिल चीटी-धप, लँगड़ी
....
नवगीत
*
पल में बारिश,
पल में गर्मी
गिरगिट सम रंग बदलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
खुशियों के ख्वाब दिखाता है
बहलाता है, भरमाता है
कमसिन कलियों की चाह जगा
सौ काँटे चुभा, खिजाता है
अपना होकर भी छाती पर
बेरहम! दाल दल हँसता है
यह मौसम हमको छलता है
*
जब एक हाथ में कुछ देता
दूसरे हाथ से ले लेता
अधिकार न दे, कर्तव्य निभा
कह, यश ले, अपयश दे देता
जन-हित का सूर्य बिना ऊगे
क्यों, कौन बताये ढलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
गर्दिश में नहीं सितारे हैं
हम तो अपनों के मारे हैं
आधे इनके, आधे उनके
कुटते-पिटते बंजारे हैं
घरवाले ही घर के बाहर
क्या ऐसे भी घर चलता है?
यह मौसम हमको छलता है
*
तुम नकली आँसू बहा रहे
हम दुःख-तकलीफें तहा रहे
अंडे कौओं के घर में धर
कोयल कूके, जग अहा! कहे
निर्वंश हुए सद्गुण के तरु
दुर्गुण दिन दूना फलता है
यह मौसम हमको छलता है
*
है यहाँ गरीबी अधनंगी
है वहाँ अमीरी अधनंगी
उन पर जरुरत से ज़्यादा है
इन पर हद से ज्यादा तंगी
धीरज का पैर न जम पाता
उन्मन मन रपट-फिसलता है
यह मौसम हमको छलता है
***
कविता पर दोहे़:
*
कविता कवि की प्रेरणा, दे पल-पल उत्साह।
कभी दिखाती राह यह, कभी कराती वाह।।
*
कविता में ही कवि रहे, आजीवन आबाद।
कविता में जीवित रहे, श्वास-बंद के बाद।।
*
भाव छंद लय बिंब रस, शब्द-चित्र आनंद।
गति-यति मिथक प्रतीक सँग, कविता गूँथे छंद।।
*
कविता कवि की वंशजा, जीवित रखती नाम।
धन-संपत्ति न माँगती, जिंदा रखती काम।।
*
कवि कविता तब रचे जब, उमड़े मन में कथ्य।
कुछ सार्थक संदेश हो, कुछ मनरंजन; तथ्य।।
*
कविता सविता कथ्य है, कलकल सरिता भाव।
गगन-बिंब; हैं लहरियाँ चंचल-चपल स्वभाव।।
*
करे वंदना-प्रार्थना, भजन बने भजनीक।
कीर्तन करतल ध्वनि सहित, कविता करे सटीक।।
*
जस-भगतें; राई सरस, गिद्दा, फागें; रास।
आल्हा-सड़गोड़ासनी, हर कविता है खास।।
*
सुनें बंबुलिया माहिया, सॉनेट-कप्लेट साथ।
गीत-गजल, मुक्तक बने, कविता कवि के हाथ।।
*
दूब नहीं असली बची, नकली है मैदान।
गायब हों कविता सहित, धरती से इंसान।।
१५-७-२०१८
***
गीत 
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
यह कायथ है, वह बामन
यह ठकुरा है, वह बनिया
एक दूसरे के सर पर-
फोड़ रहे हम ही ठीकरा
मित्रता-बन्धुत्व कुछ दिखाइए
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
अवसरवादी हावी हैं
मिले न श्रम को चाबी है
आम आदमी मुश्किल में
जीवन आपाधापी है
कैसे हों सफल?, जरा सिखाइए
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
क्यों पूजा पाखंड बनी?
क्यों आपस में ठनाठनी?
इसे चाहिए आरक्षण
उसे न मिलता, पीर घनी
नीति क्यों समान न बनाइये?
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
राजनीति ने डाली फूट
शासक दल करता है लूट
करे विपक्षी दल नाटक
धन-बलशाली करते शूट
काम एक-दूसरे के आइये
कौन है सवर्ण यह बताइए?
*
क्यों जातीय संस्थाएँ
हों न सवर्णी अब जाएँ?
रोटी-बेटी के सम्बन्ध
बाँध सवर्णी जुड़ जाएँ.
भेद-भाव दूरियाँ मिटाइये
कौन है सवर्ण यह बताइए?
१५-७-२०१७
***
नवगीत
बारिश
*
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
नाव बनाना
कौन सिखाये?
बहे जा रहे समय नदी में.
समय न मिलता रिक्त सदी में.
काम न कोई
किसी के आये.
अपना संकट आप झेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
डेंगू से भय-
भीत सभी हैं.
नहीं भरोसा शेष रहा है.
कोइ न अपना सगा रहा है.
चेहरे सबके
पीत अभी हैं.
कितने पापड विवश बेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
*
उतर गया
चेहरे का पानी
दो से दो न सम्हाले जाते
कुत्ते-गाय न रोटी पाते
कहीं न बाकी
दादी-नानी.
चूहे भूखे दंड पेलते
बारिश तो अब भी होती है
लेकिन बच्चे नहीं खेलते.
***
दोहा - सोरठा गीत
पानी की प्राचीर
*
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।
पीर, बाढ़ - सूखा जनित
हर, कर दे बे-पीर।।
*
रखें बावड़ी साफ़,
गहरा कर हर कूप को।
उन्हें न करिये माफ़,
जो जल-स्रोत मिटा रहे।।
चेतें, प्रकृति का कहीं,
कहर न हो, चुक धीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
सकें मछलियाँ नाच,
पोखर - ताल भरे रहें।
प्रणय पत्रिका बाँच,
दादुर कजरी गा सकें।।
मेघदूत हर गाँव को,
दे बारिश का नीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
पर्वत - खेत - पठार पर
हरियाली हो खूब।
पवन बजाए ढोलकें,
हँसी - ख़ुशी में डूब।।
चीर अशिक्षा - वक्ष दे ,
जन शिक्षा का तीर।
आओ मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
***
सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।
नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।
घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।
गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
***
अनुगीत छंद
*
छंद लक्षण: जाति महाभागवत, प्रति पद २६ मात्रा,
यति१६-१०, पदांत लघु
लक्षण छंद:
अनुगीत सोलह-दस कलाएँ , अंत लघु स्वीकार
बिम्ब रस लय भाव गति-यतिमय , नित रचें साभार
उदाहरण:
१. आओ! मैं-तुम नीर-क्षीरवत , एक बनें मिलकर
देश-राह से शूल हटाकर , फूल रखें चुनकर
आतंकी दुश्मन भारत के , जा न सकें बचकर
गढ़ पायें समरस समाज हम , रीति नयी रचकर
२. धर्म-अधर्म जान लें पहलें , कर्तव्य करें तब
वर्तमान को हँस स्वीकारें , ध्यान धरें कल कल
किलकिल की धारा मोड़ें हम , धार बहे कलकल
कलरव गूँजे दसों दिशा में , हरा रहे जंगल
३. यातायात देखकर चलिए , हो न कहीं टक्कर
जान बचायें औरों की , खुद आप रहें बचकर
दुर्घटना त्रासद होती है , सहें धीर धरकर
पीर-दर्द-दुःख मुक्त रहें सब , जीवन हो सुखकर
१५-७-२०१६
***
हास्य रचनाः
नियति
*
सहते मम्मी जी का भाषण, पूज्य पिताश्री का फिर शासन
भैया जीजी नयन तरेरें, सखी खूब लगवाये फेरे
बंदा हलाकान हो जाए, एक अदद तब बीबी पाए 
सोचे रोब जमाऊँ इस पर, नचवाए वह आँसू भरकर  
चुन्नू-मुन्नू बाल नोच लें, मुन्नी को बहलाए गोद ले
कहीं पड़ोसी कहें न द्ब्बू, लड़ता सिर्फ इसलिये बब्बू
***
अभिनव प्रयोग
एक चोका गीत
बरसात
*
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।
कौन पा सके
व्यथा-दर्द की थाह?
*
विरह अग्नि
झुलसाती बदन
नीर बहाते
निश-दिन नयन
तरु भैया ने
पात गिराए हाय!
पवन पिता के
टूटे सभी सपन।
नंद चाँदनी
बैरन देती दाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
टेर विधाता
सुनो न सूखे पानी
आँख न रोए
होए धरती धानी
दादुर बोले
झींगुर नाचे झूम
टिमकी बाजे
गूँजे छप्पर-छानी
मादल पाले
ढोलकिया की चाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
बजा नगाड़ा
बिजली बैरन सास
डाँट लगाती
बुझा न पाये प्यास
देवर रवि
दे वर; ले वर आ
दो पल तो हों
भू-नभ दोनों पास
क्षितिज हँसा
मिली चाह ले चाह
लिए बाँह में बाँह
***
नवगीत
कारे बदरा
*
आ रे कारे बदरा
*
टेर रही धरती तुझे
आकर प्यास बुझा
रीते कूप-नदी भरने की
आकर राह सुझा
ओ रे कारे बदरा
*
देर न कर अब तो बरस
बजा-बजा तबला
बिजली कहे न तू गरज
नारी है सबला
भा रे कारे बदरा
*
लहर-लहर लहरा सके
मछली के सँग झूम
बीरबहूटी दूब में
नाचे भू को चूम
गा रे कारे बदरा
*
लाँघ न सीमा बेरहम
धरा न जाए डूब
दुआ कर रहे जो वही
मनुज न जाए ऊब
जारे कारे बदरा
*
हरा-भरा हर पेड़ हो
नगमे सुना हवा
'सलिल' बूंद नर्तन करे
गम की बने दवा
जारे कारे बदरा
*****
दोहा सलिला:
मेघ की बात
*
उमड़-घुमड़ अा-जा रहे, मेघ न कर बरसात।
हाथ जोड़ सब माँगते, पानी की सौगात।।
*
मेघ पूछते गगन से, कहाँ नदी-तालाब।
वन-पर्वत दिखते नहीं, बरसूँ कहाँ जनाब।।
*
भूमि भवन से पट गई, नाले रहे न शेष।
करूँ कहाँ बरसात मैं, कब्जे हुए अशेष।।
*
लगा दिए टाइल अगिन, भू है तृषित अधीर।
समझ नहीं क्यों पा रहे, तुम माटी की पीर।।
*
स्वागत तुम करते नहीं, साध रहे हो स्वार्थ।
हरी चदरिया उढ़ाओ, भू पर हो परमार्थ।।
*
वर्षा मंगल भूलकर, ठूँस कान में यंत्र।
खोज रहे मन मुताबिक, बारिश का तुम मंत्र।।
*
जल प्रवाह के मार्ग सब, लील गया इंसान।
करूँ कहाँ बरसात कब, खोज रहा हूँ स्थान।।
*
रिमझिम गिरे फुहार तो, मच जाती है कीच।
भीग मजा लेते नहीं, प्रिय को भुज भर भींच।।
*
कजरी तुम गाते नहीं, भूले आल्हा छंद।
नेह न बरसे नैन से, प्यारा है छल-छंद।।
*
घास-दूब बाकी नहीं, बीरबहूटी लुप्त।
रौंद रहे हो प्रकृति को, हुई चेतना सुप्त।।
*
हवा सुनाती निरंतर, वसुधा का संदेश।
विरह-वेदना हर निठुर, तब जाना परदेश।।
*
प्रणय-निमंत्रण पा करूँ, जब-जब मैं बरसात।
जल-प्लावन से त्राहि हो, लगता है आघात।।
*
बरसूँ तो संत्रास है, डूब रहे हैं लोग।
ना बरसूँ तो प्यास से, जीवनांत का सोग।।
*
मनमानी आदम करे, दे कुदरत को दोष।
कैसे दूँ बरसात कर, मैं अमृत का कोष।।
*
नग्न नारियों से नहीं, हल चलवाना राह।
मेंढक पूजन से नहीं, पूरी होगी चाह।।
*
इंद्र-पूजना व्यर्थ है, चल मौसम के साथ।
हरा-भरा पर्यावरण, रखना तेरा हाथ।।
*
खोद तलैया-ताल तू, भर पानी अनमोल।
बाँध अनगिनत बाँध ले, पानी रोक न तोल।।
*
मत कर धरा सपाट तू, पौध लगा कर वृक्ष।
वन प्रांतर हों दस गुना, तभी फुलाना वक्ष।।
*
जूझ चुनौती से मनोज, श्रम को मिले न मात।
स्वागत कर आगत हुई, ले जीवन बरसात
***
दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
***

शनिवार, 5 जुलाई 2025

जुलाई ५, अचल छंद, गुरु, षट्पदी, दोहा मुक्तक, चोका गीत, अमरनाथ, घनाक्षरी, आक्षेप अलंकार, हाइकु,

सलिल सृजन जुलाई ५
पूर्णिका
.
दैव की रजा
मजा ही मजा
.
वही है मिला
जिसे था तजा
.
रुके जब घड़ी
कहो क्या बजा?
.
काम बिन राम
क्या कभी भजा?
.
साँच की थाम
हाथ में ध्वजा
५.७.२०२५
०0०
सॉनेट
आना-जाना हो सुखदा प्रिय!
मोह न कर, मत नीर बहाना
पीर छिपा मन में, मुस्काना
ठौर-ठिकाना हो मुदिता प्रिय!
नहीं पनपने दे दुविधा प्रिय!
क्या छूटेगा?, क्या है पाना?
मस्ती में जी भरकर गाना
सहज मिले जो, वह सुविधा प्रिय!

पल भर भी मत धीरज खोना
और नहीं होना उदास मन
झूम सुनाना सॉनेट लिखकर।
हँस फसलें ख्वाबों की बोना
भर अँजुरी कर सलिल आचमन
जाग-जगा मन हो जा दिनकर।
५.७.२०२५
०0०
गुरुवंदन
गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरुवार.
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..
*
विधि-हरि-हर, परब्रम्ह भी, गुरु-सम्मुख लघुकाय.
अगम अमित है गुरु कृपा, अन्य नहीं पर्याय..
*
गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश.
ब्रम्हा-विष्णु-महेश सम, काटे भव का पाश..
*
गुरु भास्कर अज्ञान तम, ज्ञान सुमंगल भोर.
शिष्य पखेरू कर्म कर, गहे सफलता कोर..
*
गुरु-चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान.
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान..
*
गुरुता जिसमें वही गुरु, शत-शत नम्र प्रणाम.
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम..
*
गुरु पल में ले शिष्य के, गुण-अवगुण पहचान.
दोष मिटाकर बना दे, आदम से इंसान..
*
गुरु-चरणों में स्वर्ग है, गुरु-सेवा में मुक्ति.
भव सागर-उद्धार की, गुरु-पूजन ही युक्ति..
*
माटी शिष्य कुम्हार गुरु, करे न कुछ संकोच.
कूटे-साने रात-दिन, तब पैदा हो लोच..
*
कथनी-करनी एक हो, गुरु उसको ही मान.
चिन्तन चरखा पठन रुई, सूत आचरण जान..
*
शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक.
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक..
*
गुरु तो गिरिवर उच्च हो, शिष्य 'सलिल' सम दीन.
गुरु-पद-रज बिन विकल हो, जैसे जल बिन मीन..
*
ज्ञान-ज्योति गुरु दीप ही, तम का करे विनाश.
लगन-परिश्रम दीप-घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश..
*
गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु-घंटाल.
पाठ पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उड़ाते माल..
*
गुरु-गरिमा-गायन करे, पाप-ताप का नाश.
गुरु-अनुकम्पा काटती, महाकाल का पाश..
*
विश्वामित्र-वशिष्ठ बिन, शिष्य न होता राम.
गुरु गुण दे, अवगुण हरे, अनथक आठों याम..
*
गुरु खुद गुड़ रह शिष्य को, शक्कर सदृश निखार.
माटी से मूरत गढ़े, पूजे सब संसार..
*
गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य.
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य..
*
मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष.
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष..
*
शिष्य बिना गुरु अधूरा, गुरु बिन शिष्य अपूर्ण.
सिन्धु-बिंदु, रवि-किरण सम, गुरु गिरि चेला चूर्ण..
*
गुरु अनुकम्पा नर्मदा, रुके न नेह-निनाद.
अविचल श्रृद्धा रहे तो, भंग न हो संवाद..
*
गुरु की जय-जयकार कर, रसना होती धन्य.
गुरु पग-रज पाकर तरें, कामी क्रोधी वन्य..
*
गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग्य.
लोभ-मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य..
*
गुरु को पारस जानिए, करे लौह को स्वर्ण.
शिष्य और गुरु जगत में, केवल दो ही वर्ण..
*
संस्कार की सान पर, गुरु धरता है धार.
नीर-क्षीर सम शिष्य के, कर आचार-विचार..
*
माटी से मूरत गढ़े, सद्गुरु फूंके प्राण.
कर अपूर्ण को पूर्ण गुरु, भव से देता त्राण..
*
गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर.
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आँखें रहते सूर.
*
टीचर-प्रीचर गुरु नहीं, ना मास्टर-उस्ताद.
गुरु-पूजा ही प्रथम कर, प्रभु की पूजा बाद..
***
अभिनव प्रयोग
एक चोका गीत
बरसात
*
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।
कौन पा सके
व्यथा-दर्द की थाह?
*
विरह अग्नि
झुलसाती बदन
नीर बहाते
निश-दिन नयन
तरु भैया ने
पात गिराए हाय!
पवन पिता के
टूटे सभी सपन।
नंद चाँदनी
बैरन देती दाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
टेर विधाता
सुनो न सूखे पानी
आँख न रोए
होए धरती धानी
दादुर बोले
झींगुर नाचे झूम
टिमकी बाजे
गूँजे छप्पर-छानी
मादल पाले
ढोलकिया की चाह
वसुधा हेरे
मेघदूत की राह।।
*
बजा नगाड़ा
बिजली बैरन सास
डाँट लगाती
बुझा न पाये प्यास
देवर रवि
दे वर; ले वर आ
दो पल तो हों
भू-नभ दोनों पास
क्षितिज हँसा
मिली चाह ले चाह
लिए बाँह में बाँह
५-७-२०१९
***
भाषा व्याकरण ३
*
*रस*
स्वाद भोज्य का सार है, गंध सुमन का सार।
रस कविता का सार है, नीरस बेरस खार।।
*
*रस महिमा*
गो-रस मध-ुरस आम्र-रस,
गन्ना रस कर पान।
जौ-रस अंगूरी चढ़़े, सिर पर बच मतिमान।।
बतरस, गपरस दे मजा, नेतागण अनजान।
निंदारस में लीन हों, कभी नहीं गुणवान।।
पी लबरस प्रेमी हुए, धन्य कभी कुर्बान।
संजीवित कर काव्य-रस, फूँके सबमें प्राण।।
***
*अलंकार*
पत्र-पुष्प हरितिमा है, वसुधा का श्रृंगार।
शील मनुज का; शौर्य है, वीरों का आचार।।
आभूषण प्रिय नारियाँ, चला रहीं संसार।
गह ना गहना मात्र ही, गहना भाव उदार।।
शब्द भाव रस बिंब लय, अर्थ बिना बेकार।
काव्य कामिनी पा रही, अलंकार सज प्यार।।
शब्द-अर्थ संयोग से, अलंकार साकार।
मम कलियों का मोहकर, हरे चित्त हर बार।।
५-७-२०१९
***
हाइकु सलिला:
*
रेशमी बूटी
घास चादर पर
वीर बहूटी
*
मेंहदी रची
घास हथेली पर
मखमली सी.
*
घास दुलहन
माथे पर बिंदिया
बीरबहूटी
*
हाइकु पर
लगा है जी एस टी
कविता पर.
*
कहें नाकाफी
लगाए नए कर
पूछें: 'है कोफी?'
*
भाजपाई हैं
बड़े जुमलेबाज
तमाशाई हैं.
*
जीत न हार
दोनों की जय-जय
हुआ है निर्णय ..
*
कजरी नहीं
स्वच्छ करो दीवाल
केजरीवाल.
***
रचना - प्रति रचना:
समुच्चय और आक्षेप अलंकार
घनाक्षरी छंद
*
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
*
दुर्गा गणेश ब्रह्मा विष्णु महेश
पांच देव मेरे भाग्य के सितारे चमकाइये
पांचों का भी जोर भाग्य चमकाने कम पड़े
रामकृष्ण जी को इस कार्य में लगाइए।
रामकृष्ण जी के बाद भाग्य ना चमक सके
लगे हाथ हनुमान जी को आजमाइए।
सभी मिलकर एक साथ मुझे कॉलोनी में
तीस बाई साठ का प्लाट दिलवाइए।
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
देव! कवि 'गुरु' प्लाट माँगते हैं आपसे
गुरु गुड, चेले को शुगर आप मानिए.
प्लाट ऐसा दे दें धाँसू कवितायें हो सकें,
चेले को भूखंड दे भवन एक तानिए.
प्रार्थना है आपसे कि खाली मन-मंदिर है,,
सिया-उमा-भोले जी के संग आ विराजिए.
सियासत हो रही अवध में न आप रुकें,
नर्मदा किनारे 'सलिल' सँग पंजीरी फांकिये.
५-७-२०१८
***
दोहा मुक्तक सलिला:
अमरनाथ
*
अमरनाथ! रहिए सदय, करिए दैव निहाल।
करूँ विनय संकट हरें, प्रभु! तव ह्रदय विशाल।।
अमरनाथ की कृपा से, विजय-तिलक वर भाल।
करतल में करताल ले, भजन करे हर हाल।।
*
अमर नाथ; सेवक नहीं, पल में हो निर्जीव।
प्रभु संप्राणित करें तो, शव भी हो संजीव।।
भोले पल में तुष्ट हो, बनते करुणासींव।
रुष्ट हुए तो खैरियत, मन न सकता जीव।।
*
अमर नाथ जिसके न वह, रहे कभी भयभीत।
शब्द-सुमन अर्पित करे, अक्षर-अक्षर प्रीत।।
भाव-सलिल साथी बने, नव रस का हो मीत।
समर सत्य-हित कर सदा, निश्चय मिलना जीत।।
*
अमरनाथ-जयकार कर, शंका का हो अंत।
कंकर शंकर-दास हो, कोशिश कर-कर कंत।।
आनंदित हैं भू-गगन, नर्तित दिशा-दिगंत।
शून्य-सांत हैं जो वही, हैं सर्वस्व अनंत।।
*
अमर नाथ बसते वहीं, जहाँ 'सलिल' की धार।
यह पद-प्रक्षालन करे, वे रखते सिर-धार।।
गरल-अमिय सम भाव से, ईश करें स्वीकार।
निराकार हैं जो वही, हैं कण-कण साकार।।
*
अमरनाथ ही आस हो, शकुंतला सी श्वास।
प्रगति-योजना हर सके, जीवन का संत्रास।।
मन-दीपक जलता रहे, ले अधरों पर हास।
स्वेद खिले साफल्य का, सुमन बिखेर सुवास।।
*
अमरनाथ जो ठान लें, तत्क्षण करते काम।
राम मिल सकें जप 'मरा', सीधी हो विधि वाम।।
सुर-नर-असुरों से पूजें, करते काम तमाम।
दुराचार के नाश हित करते काम तमाम। ।
**
५.७.२०१८
***
एक षट्पदी:
*
ब्रह्मा-विष्णु-सदाशिव को जप, पी ब्रांडी-व्हिस्की-शैम्पेन,
रम पी राम-राम जप प्यारे, भाँग छान ले भोले मैन।
चिलम धतूरा चंचल चित ले, चिन्मय से साक्षात् करे-
चकित-भ्रमित या थकित अगर तू, खुद में डूब न हो बेचैन।
सुर-नर-असुर सुरा पीने हित, तज मतभेद एक होते
पी स्कोच चढ़ा ठर्रा सँग दीन-धनी दूरी खोते।।
५-७-२०१७
***
रसानंद दे छंद नर्मदा ३८ : छन्द
दोहा, सोरठा, रोला, आल्हा, सार, ताटंक, रूपमाला (मदन), चौपाई, हरिगीतिका, उल्लाला,गीतिका,घनाक्षरी, बरवै, त्रिभंगी, सरसी, छप्पय, भुजंगप्रयात, कुंडलिनी, सवैया, शोभन या सिंहिका, सुमित्र, सुगीतिका, शंकर, मनहरण (कवित्त/घनाक्षरी), उपेन्द्रवज्रा, इंद्रवज्रा, सखी, वासव, अचल धृति छंदों से साक्षात के पश्चात् मिलिए अचल छंद से
अचल छंद
*
अपने नाम के अनुरूप इस छंद में निर्धारित से विचलन की सम्भावना नहीं है. यह मात्रिक सह वर्णिक छंद है। इस चतुष्पदिक छंद का हर पद २७ मात्राओं तथा १८ वर्णों का होता है। हर पद (पंक्ति) में ५-६-७ वर्णों पर यति इस प्रकार है कि यह यति क्रमशः ८-८-११ मात्राओं पर भी होती है। मात्रिक तथा वार्णिक विचलन न होने के कारण इसे अचल छंद कहा गया है। छंद प्रभाकर तथा छंद क्षीरधि में दिए गए उदाहरणों में मात्रा बाँट १२१२२/१२१११२/२११२२२१ रखी गयी है। तदनुसार
उदाहरण -
१.
सुपात्र खोजे, तभी समय दे, मौन पताका हाथ।
कुपात्र पाये, कभी न पद- दे, शोक सभी को नाथ।।
कभी नवायें, न शीश अपना, छूट रहा हो साथ-
करें विदा क्यों, सदा सजल हो, नैन- न छोड़ें हाथ।।
*
वर्ण तथा मात्रा बंधन यथावत रखते हुए मात्रा बाँट में परिवर्तन करने से इस छंद में प्रयोग की विपुल सम्भावनाएँ हैं.
उदाहरण-
१.
मौन पियेगा, ऊग सूर्य जब, आ अँधियारा नित्य।
तभी पुजेगा, शिवशंकर सा, युगों युगों आदित्य।।
चन्द्र न पाये, मान सूर्य सम, ले उजियारा दान-
इसीलिये तारक भी नभ में, करें न उसका मान।।
इस तरह के परिवर्तन किये जाएं या नहीं? विद्वज्जनों के अभिमत आमंत्रित हैं।
***
***
एक दोहा
रमा रमा में मन रहा, किसको याद रमेश।
छोड़ विष्णु पुज रहीं हैं, लछमी सहित गणेश।।
५-७-२०१६
***
दोहा संग्रह की दोहा समीक्षा
(कृति विवरण: होते ही अंतर्मुखी, दोहा संग्रह, दोहाकार : स्वामी श्यामानंद सरस्वती 'रौशन', पृष्ठ ११२, सजिल्द, बहुरंगी आकर्षक आवरण, १५० रु., आकार डिमाई, विद्या भगत प्रकाशन, रानी बाग, दिल्ली ३४.)
विश्व वांग्मय में नहीं, दोहा जैसा छंद.
छंदराज यह सूर्य सम, हरता तिमिर अमंद..
जन-जीवन पर्याय यह, जन-मानस का मित्र.
अंकित करता शब्दशः आँखों देखे चित्र..
होते ही अंतर्मुखी, दोहा रचिए आप.
बहिर्मुखी हो देखिये, शांति गयी मन-व्याप..
स्वामी श्यामानंद ने, रौशन शारद-कोष.
यह कृति देकर किया है, फिर दोहा- जयघोष..
सारस्वत वरदान सम, दोहा अद्भुत छंद.
समय सारथी सनातन, पथ दर्शक निर्द्वंद..
गीति-गगन में सोहता, दोहा दिव्य दिनेश.
अन्य छंद सुर किन्तु यह, है सुर-राज सुरेश..
सत्-चित-आनंद मन बसे, सत्-शिव-सुन्दर देह.
शेष अशेष विशेष है, दोहा निस्संदेह..
दो पद शशि-रवि, रात-दिन, इडा-पिंगला जान.
बना स्वार्थ परमार्थ को, बन जा मन मतिमान..
स्वामी श्यामानंद को है सरस्वती सिद्ध.
हर दोहा-शर कर रहा, अंतर्मन को बिद्ध..
होते ही अंतर्मुखी, रौशन हुआ जहान.
दीखता हर इन्सान में बसा हुआ भगवान्..
हिंदी उर्दू संस्कृत पिंगल में निष्णात.
शब्द-ब्रम्ह आराधना, हुई साध्य दिन-रात..
दोहा-लेखन साधना, करें ध्यान में डूब.
हर दोहा दिल को छुए, करे प्रभावित खूब..
पढिये-गुनिये-समझिये, कवि के दोहे चंद.
हर दोहे की है अलग, दीप्ति-उजास अखंड..
''दोहा कहना कठिन है, दुष्कर है कवि-कर्म.
कितनों को आया समझ, दोहे का जो मर्म..''--पृष्ठ १७
''दोहा कहने की कला, मत समझो आसान.
धोखा खाते हैं यहाँ, बड़े-बड़े विद्वान्..'' -''--पृष्ठ १७
सरल-शुद्ध शब्दावली, सरस उक्ति-माधुर्य.
भाव, बिम्ब, लय, कथ्य का, दोहों में प्राचुर्य..
''दोहे में मात्रा गिरे, है भारी अपराध.
यति-गति हो अपनी जगह, दोहा हो निर्बाध..''--पृष्ठ १७
प्रेम-प्यार को मानते, हैं जीवन का सार.
स्वामी जी दे-पा रहे, प्यार बिना तकरार..
''प्यार हमारा धर्म है, प्यार दीन-ईमान.
हमने समझा प्यार को, ईश्वर का वरदान..''--पृष्ठ २२
''उपमा सच्चे प्रेम की, किससे दें श्रीमान?
प्रेम स्वयं उपमेय है, प्रेम स्वयं उपमान..''--पृष्ठ २१
दिखता रूप अरूप में, है अरूप खुद रूप.
द्वैताद्वैत भरम मिटा, भिक्ष्क लगता भूप..
''रूप कभी है छाँव तो, रूप कभी है धूप.
जिससे प्रगत रूप है, उसका रूप अनूप''--पृष्ठ २४
स्वामी जी की संपदा, सत्य-शांति-संतोष.
देशप्रेम, सत् आचरण, संयम सुख का घोष..
देख विसंगति-विषमता, कवि करता संकेत.
सोचें-समझें-सुधारें, खुद को खुद अभिप्रेत..
''लोकतंत्र में भी हुआ, कैसा यह उपहास?
इंग्लिश को कुर्सी मिली, हिंदी को वनवास..''--पृष्ठ २७
''राजनीति के क्षेत्र में सबके अपने स्वार्थ.
अपने-अपने कृष्ण हैं, अपने-अपने पार्थ..''--पृष्ठ ३८
''ले आया किस मोड़ पर सुन्दरता का रोग.
देह प्रदर्शन देखते आंखें फाड़े लोग..''--पृष्ठ ४३
''कैसे इनको मिल गया, जनसेवक का नाम?
खून चूसना ही अगर, ठहरा इनका काम..''--पृष्ठ ५३
शायर सिंह सपूत ही, चलें तोड़कर लीक.
स्वामी जी काव्य पढ़, उक्ति लगे यह ठीक..
''रोती रहती है सदा, रात-रात भर रात,
दिन से होती ही नहीं, मुलाकात की बात..''--पृष्ठ ६२
कवि कहता है- ''व्यर्थ है, सिर्फ किताबी ज्ञान.
करना अपने ढंग से, सच का सदा बखान..'
''भौंचक्के से रह गए द्वैत और अद्वैत.
दोनों पर भारी पड़ा, केवल एक लठैत..''--पृष्ठ ६४
''मँहगा पड़ता है सदा, माटी का अपमान.
माटी ने माटी किया, कितनों का अभिमान..''--पृष्ठ ८३
'गंता औ' गन्तव्य का, जब मिट जाता द्वैत.
बने आत्म परमात्म तब, शेष रहे अद्वैत..
''चलते-चलते ही मिला, मुझको यह मन्तव्य.
गंता भी हूँ मैं स्वयम, और स्वयं गन्तव्य..''--पृष्ठ ११०
दोहे श्यामानंद के, 'सलिल' स्नेह की धार.
जो पड़ता वह डूबता, डूबा लगता पार..
अलंकार, रस, बिम्ब, लय, भाव भरे भरपूर.
दोहों को पढ़ सीखिए, दोहा छंद जरूर..
दोहा-दर्पण दिखाता, 'सलिल'-स्नेह ही सत्य.
होते ही अंतर्मुखी, मिटता बाह्य असत्य..
रचिए दोहे और भी, रसिक देखते राह.
'सलिल' न बूडन से डरे, बूडे हो भव-पार..
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मुक्तिका:
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नित नयी आशा मुखर हो साल भर
अब न नेता जी बजायें गाल भर
मिले हिंदी को प्रमुखता शोध श्री
तोड़कर अंग्रेजियत का जाल भर
सनेही है राम का जो लाल वह
चाहता धरती रहे खुशहाल भर
करेगा उद्यान में तब पुष्प राज
जब सुनीता हो हमारी चाल भर
हों खरे आचार अपने यदि सदा
ज्योति को तम में मिलेगा काल भर
हसरतों पर कस लगामें रे मनुज!
मत भुलाना बाढ़ और भूचाल भर
मिटेगी गड़बड़ सभी कानून यदि
खींच ले बिन पेशियों के खाल भर
सुरक्षित कन्या हमेशा ही रहे
संयमित जीवन जियें यदि लाल भर
तंत्र सुधरेगा 'सलिल' केवल तभी
सम रहें सबके हमेशा हाल भर
५-७-२०१५
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आइये, सोचें-विचारें
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जिन्हें हमारी फ़िक्र, उन्हें हम रहे रुलाते.
रोये उनके लिए, न जिनके मन हम भाते..
करते उनकी फ़िक्र, न जिनको फ़िक्र हमारी-
है अजीब, पर सत्य समझ-स्वीकार न पाते..
'सलिल' समझ सच को, बदलें हम खुद को फ़ौरन.
कभी नहीं से देर भली, कहते विद्वज्जन..
५-७-२०१०
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