कुल पेज दृश्य

महिया लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
महिया लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 21 जुलाई 2024

जुलाई २१, दीप, निधि, गंग, छबि, सुगती, जनक, महिया, लघुकथा, सॉनेट, मुक्तिका, दोहा, गीत, हाइकु, महिला क्रिकेट, बरसात

सलिल सृजन जुलाई २१
छंद सलिला
हाइकु
पानी बरसे
मेघ-नयन से
रुके न रोके।।
घन श्याम से
वर माँगते सब
घनश्याम से।।
आँखों में आँखें
डाल डाल झूमती
शाखें ही शाखें।।
माहिया
बिन बारिश रोते हैं
बारिश हो जमकर
झट नयन भिगोते हैं।
बुलडोजर बाबा जी!
अपने न रहे अपने
काशी या काबा जी।।
किस्से ही किस्से हैं,
सुख भोगें नेता 
दुख जन के हिस्से हैं।।
•••
जनक छंद
कंकर में शंकर मिले
देख सके तो देख ले
व्यर्थ न कर शिकवे गिले।।
हरयाया है ठूँठ हर
हैं विषाक्त फिर भी शहर
हुआ प्रदूषण ही कहर।।
खुशगवार मौसम कहे
नाच-झूम, चिंता न कर
होनी होकर ही रहे।।
•••
मुक्तक
आपमें बच्चा सदा जिंदा रहे
झूठ में सच्चा सदा जिंदा रहे
पक रहे, थक-चुक रहे हैं तन सभी
सभी का मन मृदुल अरु कच्चा रहे
कौन किसका कब हुआ कहिए कभी
खुद खुदी को जान पाए क्या सभी?
और पर रहते उठाते अँगुलियाँ
अँगुलियाँ खुद पर उठी देखें अभी।।
बात मत कर, काम कर
यह न हो बस नाम कर
आत्मश्लाघा दूर रख
नहीं विधि को वाम कर।।
•••
दोहा
कृष्णा कृष्णा कह रहे, रहे कृष्ण से दूर।
दो न, एक यह जान जप, हो दीदार जरूर।।
गुरु से गुर जो सीख ले, वही शिष्य मतिमान।
जान, अजान न रह कभी, गुरु ही गुण की खान।।
सरला वसुधा दे सदा, जोड़े कभी न कोष।
झोली खाली हो नहीं, यदि मन में संतोष।।
•••
सोरठा
करिए सरस विनोद, अगर समय विपरीत हो।
दे आलोक प्रमोद, संकट टल जाते सभी।।
रेखा लंबी आप, खींचें सदा हुजूर जी!
मिटा और की पाप, करें न पाल गुरूर जी।।
करें प्रशंसा गैर, निज मुख से करिए नहीं।
सदा रहेगी खैर, करें न निंदा गैर की।।
•••
सुगती छंद
जो भला है
झुक चला है।
बुरा है जो
तना है वो।
आइए हम
मिटाएँ तम।
बाँट दें सुख
माँग लें दुख।
खुश रहें प्रभु!
जीव सब विभु।
•••
छबि छंद
जपिए रमेश
हर दिन हमेश।
छबि में निखार
लाता सुधार।
कर ले प्रयास
फैले सुवास।
मत चाह मोह
मत पाल द्रोह।
चल अंत नाम
कह राम राम।
•••
गंग छंद
घन गरज घूमे
गिरि शिखर चूमे।
झट हुई वर्षा
मन मुकुल हर्षा।
बीज अंँकुराया
भू यश गुँजाया।
फुदक गौरैया
कर ता ता थैया।
मिल बजा ताली
वरो खुशहाली।
•••
निधि छंद
सिय राम निहार
गईं सुधि बिसार।
लख राम सीता
कहते पुनीता।
रसना न बोले
दृग राज खोले।
पल में बनाया
अपना पराया।
दीपक दिपा है
प्रभु की कृपा है।
•••
दीप छंद
दीपक अगिन बाल
नर्तित विहँस बाल।
किरणें थिरक गोल
लाईं मुदित ढोल।
गातीं हुलस गीत
पालें पुलक प्रीत।
सज्जित सुगृह द्वार
हर्षित सुमन वार।
गृहणी मदिर नैन
रुचिकर सुखद बैन।
हैं प्रि‌यतम निहाल
कुंजित पिंक रसाल।
गुरु पूर्णिमा
२१.७.२०२४
•••

सॉनेट
बूँदें
तपती धरती पर पड़ीं बूँदें
तपिश मन की हो गई शांत
भीगकर घर आ गए कांत
पर्ण पर मणि सम जड़ी बूँदें
हाय! लज्जा से गड़ीं बूँदें
देखकर गंदी नदी सूखी
गृह लक्ष्मी हो ज्यों दुखी-भूखी
ठिठक मेघों संग उड़ी बूँदें
हैं महज शुभ की सगी बूँदें
बिकें नेता सम नहीं बूँदें
स्नेह से मिलती पगी बूँदें
आँख से छिप-छिप बहीं बूँदें
गाल पर छप-छप गईं बूँदें
धैर्य धर; ढहती नहीं बूँदें
२१-७-२०२२
***
***
लघुकथा
सिसकियाँ
सिसकियों की आवाज सुनकर मैंने पीछे मुड़के देखा। सांझ के झुरमुट में घुटनों में सर झुकाए वह सिसक रही थी। उसकी सिसकियाँ सुनकर पूछे बिना न रहा गया। पहले तो उसने कोई उत्तर न दिया, फिर धीरे धीरे बोली- 'क्या कहूँ? मेरे अपने ही जाने-अनजाने मेरे बैरी हो गए।
- तुम उनसे कोई अपेक्षा ही क्यों करती हो?
= अपेक्षा मैं नहीं करती, मुझसे ही अपेक्षा की जाती है कि मैं सबके और हर एक के मन के अनुसार ही खुद को ढाल लूँ। मैं किस-किस के अनुसार खुद को बदलूँ?
- बदलाव ही तो जीवन है। सृष्टि में बदलाव न हो एक सा मौसम, एक से हालात रहें तो विकास ही रुक जाएगा।
= वही तो मैं भी कहती हूँ। मेरा जन्म लोक में हुआ। माताएँ अपने बच्चों को बहलाने के लिए मुझे बुला लेतीं। किसान-मजदूर अपनी थकान भुलाने के लिए मुझे अपना हमसाया पाते। गुरुजन अपने विद्यार्थियों को समझाने, राह दिखाने के लिए मुझे सहायक पाते रहे।
- यह तो बहुत अच्छा है, तुम्हारा होना तो सार्थक हो गया।
= होना तो ऐसा ही चाहिए पर जो होना चाहिए वह होता कहाँ है? हुआ यह कि वर्तमान ने अतीत को पहचनाने से ही इंकार कर दिया। पत्तियों और फूलों ने बीज, अंकुर और जड़ों को अपना मूल मानने से ही इंकार कर दिया।
- यह तो वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है।
= बात यहीं तक नहीं है। अब तो अलग अलग फलों ने अलग-अलग यह निर्धारित करना शुरू कर दिया है कि जड़ों, तने और शाखाओं को कैसा होना चाहिए, उनका आकार-प्रकार कैसा हो?, रूप रंग कैसा हो?
- ऐसा तो नहीं होना चाहिए। पत्तियों, फूलों और फलों को समझना चाहिए कि अतीत को बदला नहीं जा सकता, न झुठलाया जा सकता है।
= कौन किसे समझाए? हर पत्ती, फूल और फल खुद को नियामक मानकर नित नए मानक तय कर खुद को मसीहा मान बैठे हैं।
- तुम कौन हो? किसके बारे में बात कर रही हो?
= मैं उस वृक्ष की जीवन शक्ति हूँ जिसे तुम कहते हो लघुकथा।
***
मुक्तिका
*
कल दिया था, आज लेता मैं सहारा
चल रहा हूँ, नहीं अब तक तनिक हारा
सांस जब तक, आस तब तक रहे बाकी
जाऊँगा हँस, ईश ने जब भी पुकारा
देह निर्बल पर सबल मन, हौसला है
चल पड़ा हूँ, लक्ष्य भूलूँ? ना गवारा
पाँव हैं कमजोर तो बल हाथ का ले
थाम छड़ियाँ खड़ा पैरों पर दुबारा
साथ दे जो मुसीबत में वही अपना
दूर बैठा गैर, चुप देखे नज़ारा
मैं नहीं निर्जीव, हूँ संजीव जिसने
अवसरों को खोजकर फिर-फिर गुहारा
शक्ति हो तब संग जब कोशिश करें खुद
सफलता हो धन्य जब मुझको निहारा
*
२१-७-२०१६
***
गीत
*
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
सूर्य-बल्ब
जब होता रौशन
मेक'प करते बिना छिपे.
शाखाओं,
कलियों फूलों से
मिलते, नहीं लजाते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
बऊ धरती
आँखें दिखलाये
बहिना हवा उड़ाये मजाक
पर्वत दद्दा
आँख झुकाये,
लता संग इतराते झाड़
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
*
कमसिन सपने
देख थिरकते
डेटिंग करें बिना हिचके
बिना गये
कर रहे आउटिंग
कभी नहीं पछताते
नहा रहे हैं
बरसातों में
हरे-भरे बतियाते झाड़
अपनी जगह
हमेशा ठांड़े
झूम-झूम मस्ताते झाड़
***
दोहा सलिला
*
प्रभु सारे जग का रखे, बिन चूके नित ध्यान।
मैं जग से बाहर नहीं, इतना तो हैं भान।।
*
कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
*
जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
*
दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
*
स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
*
होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
*
प्रभु सारे जग का रखें, बिन चूके नित ध्यान।
मैं जग से बाहर नहीं, इतना तो हैं भान।।
*
कौन किसी को कर रहा, कहें जगत में याद?
जिसने सब जग रचा है, बिसरा जग बर्बाद
*
जिसके मन में जो बसा वही रहे बस याद
उसकी ही मुस्कान से सदा रहे दिलशाद
*
दिल दिलवर दिलदार का, नाता जाने कौन?
दुनिया कब समझी इसे?, बेहतर रहिए मौन
*
स्नेह न कांता से किया, समझो फूटे भाग
सावन की बरसात भी, बुझा न पाए आग
*
होती करवा चौथ यदि, कांता हो नाराज
करे कृपा तो फाँकिये, चूरन जिस-तिस व्याज
*
दोहे बूँदाबाँदी के:
*
झरझर बूँदे झर रहीं, करें पवन सँग नृत्य।
पत्ते ताली बजाते, मनुज हुए कृतकृत्य।।
*
माटी की सौंधी महक, दे तन-मन को स्फूर्ति।
संप्राणित चैतन्य है, वसुंधरा की मूर्ति।।
*
पानी पानीदार है, पानी-पानी ऊष्म।
बिन पानी सूना न हो, धरती जाओ ग्रीष्म।।
*
कुहू-कुहू कोयल करे, प्रेम-पत्रिका बाँच।
पी कहँ पूछे पपीहा, झुलस विरह की आँच।।
*
नभ-शिव नेहिल नर्मदा, निर्मल वर्षा-धार।
पल में आतप दूर हो, नहा; न जा मँझधार।।
*
जल की बूँदे अमिय सम, हरें धरा का ताप।
ढाँक न माटी रे मनुज!, पछताएगा आप।।
*
माटी पानी सोखकर, भरती जल-भंडार।
जी न सकेगा मनुज यदि, सूखे जल-आगार।।
*
हरियाली ओढ़े धरा, जड़ें जमा ले दूब।
बीरबहूटी जब दिखे, तब खुशियाँ हों खूब।।
*
पौधे अगिन लगाइए, पालें ज्यों संतान।
संतति माँगे संपदा, पेड़ करें धनवान।।
*
पूत लगाता आग पर, पेड़ जलें खुद साथ।
उसके पालें; काटते, क्यों इसको मनु-हाथ।।
*
बूँद-बूँद जल बचाओ, बची रहेगी सृष्टि।
आँखें रहते अंध क्यों?, मानव! पूछे वृष्टि।।
*
दोहा सलिला:
मेघ की बात
*
उमड़-घुमड़ अा-जा रहे, मेघ न कर बरसात।
हाथ जोड़ सब माँगते, पानी की सौगात।।
*
मेघ पूछते गगन से, कहाँ नदी-तालाब।
वन-पर्वत दिखते नहीं, बरसूँ कहाँ जनाब।।
*
भूमि भवन से पट गई, नाले रहे न शेष।
करूँ कहाँ बरसात मैं, कब्जे हुए अशेष।।
*
लगा दिए टाइल अगिन, भू है तृषित अधीर।
समझ नहीं क्यों पा रहे, तुम माटी की पीर।।
*
स्वागत तुम करते नहीं, साध रहे हो स्वार्थ।
हरी चदरिया उढ़ाओ, भू पर हो परमार्थ।।
*
वर्षा मंगल भूलकर, ठूँस कान में यंत्र।
खोज रहे मन मुताबिक, बारिश का तुम मंत्र।।
*
जल प्रवाह के मार्ग सब, लील गया इंसान।
करूँ कहाँ बरसात कब, खोज रहा हूँ स्थान।।
*
रिमझिम गिरे फुहार तो, मच जाती है कीच।
भीग मजा लेते नहीं, प्रिय को भुज भर भींच।।
*
कजरी तुम गाते नहीं, भूले आल्हा छंद।
नेह न बरसे नैन से, प्यारा है छल-छंद।।
*
घास-दूब बाकी नहीं, बीरबहूटी लुप्त।
रौंद रहे हो प्रकृति को, हुई चेतना सुप्त।।
*
हवा सुनाती निरंतर, वसुधा का संदेश।
विरह-वेदना हर निठुर, तब जाना परदेश।।
*
प्रणय-निमंत्रण पा करूँ, जब-जब मैं बरसात।
जल-प्लावन से त्राहि हो, लगता है आघात।।
*
बरसूँ तो संत्रास है, डूब रहे हैं लोग।
ना बरसूँ तो प्यास से, जीवनांत का सोग।।
*
मनमानी आदम करे, दे कुदरत को दोष।
कैसे दूँ बरसात कर, मैं अमृत का कोष।।
*
नग्न नारियों से नहीं, हल चलवाना राह।
मेंढक पूजन से नहीं, पूरी होगी चाह।।
*
इंद्र-पूजना व्यर्थ है, चल मौसम के साथ।
हरा-भरा पर्यावरण, रखना तेरा हाथ।।
*
खोद तलैया-ताल तू, भर पानी अनमोल।
बाँध अनगिनत बाँध ले, पानी रोक न तोल।।
*
मत कर धरा सपाट तू, पौध लगा कर वृक्ष।
वन प्रांतर हों दस गुना, तभी फुलाना वक्ष।।
*
जूझ चुनौती से मनोज, श्रम को मिले न मात।
स्वागत कर आगत हुई, ले जीवन बरसात
***
२७.६.२०१८
***
हाइकु सलिला
*
हाइकु लिखा
मन में झाँककर
अदेखा दिखा।
*
पानी बरसा
तपिश शांत हुई
मन विहँसा।
*
दादुर कूदा
पोखर में झट से
छप - छपाक।
*
पतंग उड़ी
पवन बहकर
लगा डराने
*
हाथ ले डोर
नचा रहा पतंग
दूसरी ओर
***
दोहा सलिला:
कुछ दोहे बरसात के
*
गरज नहीं बादल रहे, झलक दिखाकर मौन
बरस नहीं बादल रहे, क्यों? बतलाये कौन??
*
उमस-पसीने से हुआ, है जनगण हैरान
जल्द न देते जल तनिक, आफत में है जान
*
जो गरजे बरसे नहीं, हुई कहावत सत्य
बिन गरजे बरसे नहीं, पल में हुई असत्य
*
आँख और पानी सदृश, नभ-पानी अनुबंध
बन बरसे तड़पे जिया, बरसे छाये धुंध
*
पानी-पानी हैं सलिल, पानी खो घनश्याम
पानी-पानी हो रहे, दही चुरा घनश्याम
*
बरसे तो बरपा दिया, कहर न बाकी शांति
बरसे बिन बरपा दिया, कहर न बाकी कांति
*
धन-वितरण सम विषम क्यों, जल वितरण जगदीश?
कहीं बाढ़ सूखा कहीं, पूछे क्षुब्ध गिरीश
*
अधिक बरस तांडव किया, जन-जीवन संत्रस्त
बिन बरसे तांडव किया, जन-जीवन अभिशप्त
*
महाकाल से माँगते, जल बरसे वरदान
वर देकर डूबे विवश, महाकाल हैरान
२१-७-२०१९
***
महिला क्रिकेट
*
जा विदेश में बोलिए,
हिन्दी तब हो गर्व.
क्या बोला सुन समझ लें,
भारतीय हम सर्व.
*
चौको से यारी करो,
छक्को से हो प्यार.
शतक साथ डेटिग करो,
मीताली सौ बार.
*
खेलो हर स्ट्रोक तुम,
पीटो हँस हर गेंद.
गेंदबाज भयभीत हो,
लगा न पाए सेंध.
*
दस हजार का लक्ष्य ले,
खेलो धरकर धीर.
खेल नायिका पा सको,
नया नाम रन वीर.
*
कर किताब से मित्रता,
रह तनाव से दूर.
शान्त चित्त खेलो क्रिकेट,
मिले वाह भरपूर.
*
राज मिताली राज का,
तूफानी रफ़्तार.
राज कर रही विकेट पर,
दौड़ दौड़ हर बार.
*
अंग्रेजी का मोह तज,
कर हिन्दी में बात.
राज दिलों पर राज का,
यह मीताली राज.
*
चौको छक्को की करी,
लगातार बरसात.
हक्का बक्का रह गए,
कंगारू खा मात.
*
हरमन पर हर मन फिदा,
खूब दिखाया खेल.
कंगारू पीले पड़े,
पल में निकला तेल.
*
सरहद सारी सुरक्षित,
दुश्मन फौज फ़रार.
पता पड़ गया आ रही,
हरमन करने वार.
*
हरमन ने की दनादन,
चोट, चोट पर चोट.
दीवाली की बम लडी,
ज्यों करती विस्फ़ोट.
*
गेंदबाज चकरा गए,
भूले सारे दाँव.
पंख उगे हैं गेंद के,
या ऊगे हैं पाँव.
या ऊगे हैं पाँव
विकेटकीपर को भूली.
आँख मिचौली खेल,
भीड़ के हाथों झूली.
हरमन से कर प्रीत,
शोट खेल में छा गए.
भूले सारे दाँव,
गेंदबाज चकरा गए.
२१-७-२०१७
***
मुक्तिका
*
कल दिया था, आज लेता मैं सहारा
चल रहा हूँ, नहीं अब तक तनिक हारा
सांस जब तक, आस तब तक रहे बाकी
जाऊँगा हँस, ईश ने जब भी पुकारा
देह निर्बल पर सबल मन, हौसला है
चल पड़ा हूँ, लक्ष्य भूलूँ? ना गवारा
पाँव हैं कमजोर तो बल हाथ का ले
थाम छड़ियाँ खड़ा पैरों पर दुबारा
साथ दे जो मुसीबत में वही अपना
दूर बैठा गैर, चुप देखे नज़ारा
मैं नहीं निर्जीव, हूँ संजीव जिसने
अवसरों को खोजकर फिर-फिर गुहारा
शक्ति हो तब संग जब कोशिश करें खुद
सफलता हो धन्य जब मुझको निहारा
२१-७-२०१६
***
दोहा - सोरठा गीत
पानी की प्राचीर
*
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।
पीर, बाढ़ - सूखा जनित
हर, कर दे बे-पीर।।
*
रखें बावड़ी साफ़,
गहरा कर हर कूप को।
उन्हें न करिये माफ़,
जो जल-स्रोत मिटा रहे।।
चेतें, प्रकृति का कहीं,
कहर न हो, चुक धीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
सकें मछलियाँ नाच,
पोखर - ताल भरे रहें।
प्रणय पत्रिका बाँच,
दादुर कजरी गा सकें।।
मेघदूत हर गाँव को,
दे बारिश का नीर।
आओ! मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
*
पर्वत - खेत - पठार पर
हरियाली हो खूब।
पवन बजाए ढोलकें,
हँसी - ख़ुशी में डूब।।
चीर अशिक्षा - वक्ष दे ,
जन शिक्षा का तीर।
आओ मिलकर बचाएँ,
पानी की प्राचीर।।
२०-७-२०१६
***
सोरठा - दोहा गीत
संबंधों की नाव
*
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।
अनचाहा अलगाव,
नदी-नाव-पतवार में।।
*
स्नेह-सरोवर सूखते,
बाकी गन्दी कीच।
राजहंस परित्यक्त हैं,
पूजते कौए नीच।।
नहीं झील का चाव,
सिसक रहे पोखर दुखी।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
कुएँ - बावली में नहीं,
शेष रहा विश्वास।
निर्झर आवारा हुआ,
भटके ले निश्वास।।
घाट घात कर मौन,
दादुर - पीड़ा अनकही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
*
ताल - तलैया से जुदा,
देकर तीन तलाक।
जलप्लावन ने कर दिया,
चैनो - अमन हलाक।।
गिरि खोदे, वन काट
मानव ने आफत गही।
संबंधों की नाव,
पानी - पानी हो रही।।
२०-७-२०१६
***
नवगीत:
*
हर चेहरे में
अलग कशिश है
आकर्षण है
*
मिलन-विरह में,
नयन-बयन में
गुण-अवगुण या
चाल-चलन में
कहीं मोह का
कहीं द्रोह का
संघर्षण है
*
मन की मछली,
तन की तितली
हाथ न आयी
पल में फिसली
क्षुधा-प्यास का
हास-रास का
नित तर्पण है
*
चितवन चंचल
सद्गुण परिमल
मृदु मिठासमय
आनन मंजुल
हाव-भाव ये
ताव-चाव ये
प्रभु-अर्पण है
*
गिरि सलिलाएँ
काव्य-कथाएँ
कहीं-अनकहीं
सुनें-सुनाएँ
कलरव-गुंजन
माटी-कंचन
नव दर्पण है
*
बुनते सपने
मन में अपने
समझ न आते
जग के नपने
जन्म-मरण में
त्याग-वरण में
संकर्षण है
दिसंबर २००७, प्रयास अलीगढ़
*
द्विपदियाँ और दोहे
*
बसा लो दिल में, दिल में बस जाओ
फिर भुला दो तो कोई बात नहीं
*
खुद्कुशी अश्क की कहते हो जिसे
वो आँसुओं का पुनर्जन्म हुआ
*
अल्पना कल्पना की हो ऐसी
द्वार जीवन का जरा सज जाये.
*
गौर गुरु! मीत की बातों पे करो
दिल किसी का दुखाना ठीक नहीं
*
श्री वास्तव में हो वहीं, जहाँ रहे श्रम साथ
जीवन में ऊँचा रखे, श्रम ही हरदम माथ
*
खरे खरा व्यवहार कर, लेते हैं मन जीत
जो इन्सान न हो खरे, उनसे करें न प्रीत.
*
गौर करें मन में नहीं, 'सलिल' तनिक हो मैल
कोल्हू खीन्चे द्वेष का, इन्सां बनकर बैल
*
काया की माया नहीं जिसको पाती मोह,
वही सही कायस्थ है, करे गलत से द्रोह.


२१-७-२०१४
***
बसा लो दिल में, दिल में बस जाओ / फिर भुला दो तो कोई बात नहीं
*
खुद्कुशी अश्क की कहते हो जिसे / वो आंसुओं का पुनर्जन्म हुआ
*
अल्पना कल्पना की हो ऐसी / द्वार जीवन का जरा सज जाये.
*
गौर गुरु! मीत की बातों पे करो / दिल किसी का दुखाना ठीक नहीं
*
श्री वास्तव में हो वहीं, जहां रहे श्रम साथ / जीवन में ऊन्चा रखे श्रम ही हरदम माथ
*
खरे खरा व्यव्हार कर, लेते हैं मन जीत / जो इन्सान न हो खरे, उनसे करें न प्रीत.
*
गौर करें मन में नहीं, 'सलिल' तनिक हो मैल / कोल्हू खीन्चे द्वेष का, इन्सां बनकर बैल
*काया की माया नहीं जिसको पाती मोह, वही सही कायस्थ है, करे गलत से द्रोह.
२१-७-२०१४
***
मुक्तिका:
बरसात में
*
बन गयी हैं दूरियाँ, नज़दीकियाँ बरसात में.
हो गये दो एक, क्या जादू हुआ बरसात में..
आसमां का प्यार लाई जमीं तक हर बूँद है.
हरी चूनर ओढ़ भू, दुल्हन बनीं बरसात में..
तरुण बादल-बिजुरिया, बारात में मिल नाचते.
कुदरती टी.वी. का शो है, नुमाया बरसात में..
डालियाँ-पत्ते बजाते बैंड, झूमे है हवा.
आ गयीं बरसातियाँ छत्ते लिये बरसात में..
बाँह उनकी राह देखे चाह में जो हैं बसे.
डाह हो या दाह, बहकर गुम हुई बरसात में..
चू रहीं कवितायेँ-गज़लें, छत से- हम कैसे बचें?
छंद की बौछार लायीं, खिड़कियाँ बरसात में..
राज-नर्गिस याद आते, भुलाए ना भूलते.
बन गए युग की धरोहर, काम कर बरसात में..
बाँध,झीलें, नदी विधवा नार सी श्री हीन थीं.
पा 'सलिल' सधवा सुहागन, हो गईं बरसात में..
मुई ई कविता! उड़ाती नींद, सपने तोड़कर.
फिर सजाती नित नए सपने 'सलिल' बरसात में..
२१-७-२०११
*

सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

५ फरवरी, सॉनेट, कुण्डलिया, दोहा, नयन, सोरठा, सरस्वती, शीत, रोहिताश्व, रामा छंद, गीत, महिया, यमक

सलिल सृजन ५ फरवरी
कार्य शल्य
दो कवि एक कुण्डलिया
जन्म दिवस की मंगल कामना। आप शतायु हों और स्वास्थ्य-मस्त रहिए। 

प्रत्यूषा उठ, पूर्व के, खोले बंद किवाड़।
सोते को हर दिन रहा, सूरज प्रहरी ताड़। -राजकुमार महोबिया

सूरज प्रहरी ताड़, कह रहा है उड़ान भर।
पूरे कर अरमान, आसमां झट करले सर।।
राजकुमारों! उठो, खोल श्रम की मंजूषा।
हो जाओ संजीव, जगाती है प्रत्यूषा।। - संजीव
•••
दोहा सलिला

ज्यों का त्यों संजय कहे, करे न निंदा-वाह।
मौन सुने धृतराष्ट्र फिर, मुँह से निकले आह।।
दृष्टिकोण हो रुकावट, तब करिए बदलाव।
हों न निगेटिव, पॉजिटिव बनकर पाएँ वाह।।
किसे प्राथमिकता मिले, किसे रखेंगे बाद।
पहले तय कर लीजिए, समय न कर बर्बाद।।
अग्र वाल पर जो रहे, उसे सराहें आप।
कर न आय का वाह पर, सदा सदय हो आप।।
•••
प्रसंग
हिंदी गजल
है प्रसंग मकबूल, अमर नयन अभियान।
करते सभी कुबूल,आस श्वास की शान।।
रुही हो संजीव, सत-शिव-सुंदर गान।
शब्द-शब्द राजीव, गीत-गजल रस-खान
होकर संत बसंत, बन जाता रहमान।
मिलें कामिनी-कंत, तृप्त करें रस-पान।।
दुर्गा सिंह आसीन, हरे अशिव अभिमान।
नत सिर कह आमीन, हो आकाश समान।।
करते रहें विनोद, सतत सृजन पहचान।
नेह-नर्मदा ओद, जबलपूर की शान।।
किसलय अगर प्रवीण, हो तरुवर गुणवान।
हो आलोक न क्षीण, अंबर भू महमान।।
हो चिर तरुण प्रसंग, मिले कीर्ति यश मान।
नित नव सृजन अभंग, सलिल-धार सम ठान।।
मकबूल = सर्वप्रिय, रुही = आत्मावान,
संजीव = प्राणवान,रहमान = कृपालु,
आमीन = ऐसा ही हो, ओद = पौधे की कलम,
•••
विमर्श
*
किस पौधे में बिना फूल के फल लगते हैं?

वनस्पति विज्ञान के संदर्भ में, परिजात को 'ऐडानसोनिया डिजिटाटा' के नाम से जाना जाता है, तथा इसे एक विशेष श्रेणी में रखा गया है, क्योंकि यह अपने फल या उसके बीज का उत्पादन नहीं करता है, और न ही इसकी शाखा की कलम से एक दूसरा परिजात वृक्ष पुन: उत्पन्न किया जा सकता है। अंजीर ऐसा पेड़ है जिस पर फल आते हैं फूल नहीं। अफ्रीका में विटीशिया नामक वृक्ष में बिना फूल के ही फल लगते हैं।
•••
दो नयन दो सॉनेट दो शैली
१.
नयन अबोले सत्य बोलते
नयन असत्य देख मुँद जाते
नयन मीत पा प्रीत घोलते
नयन निकट प्रिय पा खुल जाते


नयन नयन में रच-बस जाते
नयन नयन में आग लगाते
नयन नयन में धँस-फँस जाते
नयन नयन को नहीं सुहाते


नयन नयन-छवि हृदय बसाते
नयन फेरकर नयन भुलाते
नयन नयन से नयन चुराते
नयन नयन को नयन दिखाते


नयन नयन को जगत दिखाते
नयन नयन सँग रास रचाते
(इंग्लिश शैली)
•••
सॉनेट
नयन
नयन खुले जग जन्म हुआ झट
नयन खोजते नयन दोपहर
नयन सजाए स्वप्न साँझ हर
नयन विदाई मुँदे नयन पट
नयन मिले तो पूछा परिचय
नयन झुके लज बात बन गई
नयन उठे सँग सपने कई कई
नयन नयन में बसे मिटा भय


नयन आईना देखें सँवरे
नयन आई ना कह अकुलाए
नयन नयन को भुज में भरे
नय न नयन तज, सकुँचे-सिहरे
नयन वर्जना सुनें न, बहरे
नयन न रोके रुके, न ठहरे
(इटैलियन शैली)
●●●

सोरठा सलिला
उसे नमन कर मौन, जो अपना मन जीत ले।
छिपा आपमें कौन?, निज मन से यह पूछिए।।
*
जब हो कन्यादान, नारी पाती दो जगत।
भले न हो वर-दान, पा-देती वरदान वह।।
*
उछल छुएँ आकाश, अब बैसाखी छोड़कर।
वे जो रहें हताश, गिर उठ फिर बढ़ते नहीं।।
*
'जो घर में बेकार, सब रद्दी सामान दें।'
गृहणी कहे पुकार, 'फिर आना, बाहर गए'।।
*
भू से नभ पर रोज, चंद्र-कांता कूदती।
हो इसकी कुछ खोज, हिम्मत लाती कहाँ से।।
वचन दोष-
तुम हो मेरे साथ, नेता बोले भीड़ से, ।
रखें हाथ में हाथ, हम यह वादा कर रहे।।
***
सॉनेट
सुरेश पाल वर्मा
*
बहुमुखी प्रतिभा के हैं धनी
मेहनत करें सतत हैं धुनी
मंज़िल से मित्रता है घनी
सपनों की चादर नव बुनी
है सुरेश पर्याय जसाला
मन का मनका मन से फेरा
वर्ण पिरामिड गूँथी माला
शारद मैया को नित टेरा
छंद नए रच; करी साधना
छंद सिखा नव दीप जलाए
प्रसरित पल-पल पुण्य भावना
बालारुण शत शत मुस्काए
गगन छुए तव कीर्ति पताका
तुम सा हुआ न दूजा बाँका
५-२-२०२३
***
शारद वंदन
*
शारद मैया शस्त्र उठाओ,
हंस छोड़ सिंह पर सज आओ...
.
सीमा पर दुश्मन आया है, ले हथियार रहा ललकार।
वीणा पर हो राग भैरवी, भैरव जाग भरें हुंकार।।
रुद्र बने हर सैनिक अपना, चौंसठ योगिनी खप्पर ले।
पिएँ शत्रु का रक्त तृप्त हो, गुँजा जयघोषों से जग दें।।
नव दुर्गे! सैनिक बन जाओ
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
.
एक वार दो को मारे फिर, मरे तीसरा दहशत से।
दुनिया को लड़ मुक्त कराओ, चीनी दनुजों के भय से।।
जाप महामृत्युंजय का कर, हस्त सुमिरनी हाे अविचल।
शंखघोष कर वक्ष चीर दो, भूलुंठित हों अरि के दल।।
रणचंडी दस दिश थर्राओ,
शारद मैया शस्त्र उठाओ...
.
कोरोना दाता यह राक्षस,मानवता का शत्रु बना।
हिमगिरि पर अब शांति-शत्रु संग, शांति-सुतों का समर ठना।।
भरत कनिष्क समुद्रगुप्त दुर्गा राणा लछमीबाई।
चेन्नम्मा ललिता हमीद सेंखों सा शौर्य जगा माई।।
घुस दुश्मन के किले ढहाओ,
शारद मैया! शस्त्र उठाओ...
***
शारद! अमृत रस बरसा दे।
हैं स्वतंत्र अनुभूति करा दे।।
*
मैं-तू में बँट हम करें, तू तू मैं मैं रोज।
सद्भावों की लाश पर, फूट गिद्ध का भोज।।
है पर-तंत्र स्व-तंत्र बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
अमर शहीदों को भूले हम, कर आपस में जंग।
बिस्मिल-भगत-दत्त आहत हैं, दुर्गा भाभी दंग।।
हैं आजाद प्रतीति करा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
प्रजातंत्र में प्रजा पर, हावी होकर तंत्र।
छीन रहा अधिकार नित, भुला फर्ज का मंत्र।।
दीन-हीन को सुखी बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
ज॔गल-पर्वत-सरोवर, पल पल करते नष्ट।
कहते हुआ विकास है, जन प्रतिनिधि हो भ्रष्ट।।
जन गण मन को इष्ट बना दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
शोक लोक का बढ़ रहा, लोकतंत्र है मूक।
सारमेय दलतंत्र के, रहे लोक पर भूँक।।
दलदल दल का मातु मिटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
'गण' पर 'गन' का निशाना, साधे सत्ता हाय।
जन भाषा है उपेक्षित, पर-भाषा मन भाय।।
मैया! हिंदी हृदय बसा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जन की रोटी छिन रही, तन से घटते वस्त्र।
मन आहत है राम का, सीता है संत्रस्त।।
अस्त नवाशा सूर्य उगा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
रोजी-रोटी छीनकर, कोठी तानें सेठ।
अफसर-नेता घूस लें, नित न भर रहा पेट।।
माँ! मँहगाई-टैक्स घटा दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
*
जिए आखिरी आदमी, श्रम का पाए दाम।
ऊषा गाए प्रभाती, संध्या लगे ललाम।।
रात दिखाकर स्वप्न सुला दे।
शारद! अमृत रस बरसा दे।।
***
कृति चर्चा
'चुनिंदा हिंदी गज़लें' संग्रहणीय संकलन
*
[कृति विवरण : चुनिंदा हिंदी गज़लें, संपादक डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ १८४, मूल्य ५९५/-, प्रकाशक - ज्ञानधारा पब्लिकेशन, २६/५४ गली ११, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली ११००३२]
*
विश्ववाणी हिंदी की काव्य परंपरा लोक भाषाओँ प्राकृत, अपभृंश और संस्कृत से रस ग्रहण करती है। द्विपदिक छंद रचना के विविध रूपों को प्रकृत-अपभृंश साहित्य में सहज ही देखा जा सकता है। संस्कृत श्लोक-परंपरा में भिन्न पदभार और भिन्न तुकांत प्रयोग किए गए हैं तो दोहा, चौपाई, सोरठा आदि में समभारिक-संतुकांती पंक्तियों का प्रयोग किया जाता रहा है। द्विपदिक छंद की समतुकान्तिक एक अतिरिक्त आवृत्ति ने चतुष्पदिक छंद का रूप ग्रहण किया जिसे मुक्तक कहा गया। मुक्तक की तीसरी पंक्ति को भिन्न तुकांत किन्तु समान पदभार के साथ प्रयोग से चारुत्व वृद्धि हुई। भारतीय भाषा साहित्य अरब और फारस गया तो भारतीय लयखण्डों के फारसी रूपान्तरण को 'बह्र' कहा गया। मुक्तक की तीसरी और चौथी पंक्ति की तरह अन्य पंक्तियाँ जोड़कर रची गयी अपेक्षाकृत लंबी काव्य रचनाओं को 'ग़ज़ल' कहा गया। भारत में लोककाव्य में यह प्रयोग होता रहा किन्तु भद्रजगत ने इसकी अनदेखी की। मुग़ल आक्रांताओं के विजयी होकर सत्तासीन होनेपर उनकी अरबी-फारसी भाषाओं और भारतीय सीमंती भाषाओँ का मिश्रण लश्करी, रेख़्ता, उर्दू के रूप में प्रचलित हुआ। लगभग २००० वर्ष पूर्व 'तश्बीब' (लघु प्रणय गीत), 'ग़ज़ाला-चश्म' (मृगनयनी से वार्तालाप) या 'कसीदा' (प्रेयसी प्रशंसा के गीत) के रूप में प्रचलित हुई ग़ज़ल भारत में आने पर सूफ़ी रंगत में रंगने के साथ-साथ, क्रांति के आह्वान-गान और सामाजिक परिवर्तनों की वाहक बन गई। अरबी ग़ज़ल का यह भारतीय रूपांतरण ही हिंदी ग़ज़ल का मूल है।
डॉ. रोहिताश्व अस्थाना हिंदी ग़ज़ल के प्रथम शोधार्थी ही नहीं उसके संवर्धक भी हैं। कबीर, खुसरो, वली औरंगाबादी, ज़फ़र, ग़ालिब, रसा, बिस्मिल, अशफ़ाक़, सामी, नादां, साहिर, अर्श, फैज़, मज़ाज़, जोश, नज़रुल, नूर, फ़िराक, मज़हर, शकील, केशव, अख्तर, कैफ़ी, जिगर, सौदा, तांबा, चकबस्त, दाग़, हाली, इक़बाल, ज़ौक़, क़तील, रंग, अंचल, नईम, फ़ुग़ाँ, फ़ानी, निज़ाम, नज़ीर, राही, बेकल, नीरज, दुष्यंत, विराट, बशीर बद्र, अश्क, साज, शांत, यति, परवीन हक़, प्रसाद, निराला, दिनकर, कुंवर बेचैन, अंबर, अनंत, अंजुम, सलिल, सागर मीरजापुरी, बेदिल, मधुकर, राजेंद्र वर्मा, समीप, हस्ती, आदि सहस्त्राधिक हिंदी ग़ज़लकारों ने हिंदी ग़ज़ल को समृद्ध-संपन्न करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
डॉ. रोहिताश्व अस्थाना ने हिंदी ग़ज़ल को लेकर शोध ग्रन्थ 'हिंदी ग़ज़ल : उद्भव और विकास', व्यक्तिगत ग़ज़ल संग्रह 'बांसुरी विस्मित है', हिंदी ग़ज़ल पंचदशी संकलन श्रृंखला आदि के पश्चात् 'चुनिंदा हिंदी गज़लें' के समापदं का सराहनीय कार्य किया है। इस पठनीय, संग्रहणीय संकलन में ४४ ग़ज़लकारों की ४-४ ग़ज़लें संकलित की गयी हैं। डॉ, अस्थाना के अनुसार "मैं आश्वस्त हूँ कि संकलित कवि अथवा गज़लकार किसी मिथ्याडंबर अथवा अहंकार से मुक्त होकर निस्वार्थ भाव से हिंदी ग़ज़ल के क्षेत्र में साधनारत हैं।'' इस संकलन में वर्णमाला क्रमानुसार अजय प्रसून, अनिरुद्ध सिन्हा, अशोक आलोक, अशोक 'अंजुम', अशोक 'मिज़ाज', ओंकार 'गुलशन, उर्मिलेश, किशन स्वरूप, सजल, कृष्ण सुकुमार, कौसर साहिरी, ख़याल खन्ना, गिरिजा मिश्रा, नीरज, विराट, चाँद शेरी, पथिक, वियजय, नलिन, याद राम शर्मा, महर्षि, रोहिताश्व, विकल सकती, निर्मम, श्याम, अंबर, बिस्मिल, विशाल, संजीव 'सलिल', मुहसिन, हस्ती, वहां, प्रजापति, विनम्र, दिनेश रस्तोगी, दिनेश सिंदल, दीपक, राकेश चक्र, विद्यासागर वर्मा, सत्य, भगत, मिलान, अडिग, रऊफ परवेज की सहभागिता है। ग़ज़लकारों के वरिष्ठ और कनिष्ठ दोनों ही हैं। ग़ज़लकारों और ग़ज़लों का चयन करने में रोहिताश्व जी विषय वैविध्य और शिल्प वैविध्य में संतुलन स्थापित कर संकलन की गुणवत्ता बनाए रखने में सफल हैं।
डॉ. अजय प्रसून 'हर कोई अपनी रक्षा को व्याकुल है' कहकर असुरक्षा की जन भावना को सामने लाते हैं। अनिरुद्ध सिन्हा 'दर्द अपना छिपा लिया उसने' कहकर आत्मगोपन की सहज मानवीय प्रवृत्ति का उल्लेख करते हैं। 'सच बयानी धुंआ धुंआ ही सही' - अशोक अंजुम, धीरे-धीरे शोर सन्नाटों में गुम हो जायेगा' - मिज़ाज, अपने कदमों पे खड़े होने के काबिल हो जा - उर्मिलेश, अंधियारे ने सूरज की अगवानी की - किशन स्वरूप, आँसू पीकर व्रत तोड़े हैं - गिरिजा मिश्रा, बढ़ता था रोज जिस्म मगर घाट रही थी उम्र - नीरज, कालिख है कोठरी की लगेगी अवश्य ही - विराट, शहर के हिन्दोस्तां से कुछ अलग / गाँव का हिन्दोस्तां है और हम - महर्षि, राहत के दो दिन दे रब्बा - श्याम, सुविधा से परिणय मत करना -अंबर, रिश्तों की कब्रों पर मिटटी मत डालो - विशाल, छोड़ चलभाष प्रिय! / खत-किताबत करो -संजीव 'सलिल', सच है लहूलुहान अगर झूठ है तो बोल - हस्ती, सर उठाकर न जमीन पर चलिए - वहम, सुख मिथ्या आश्वासन जैसा - विनम्र, रोज ही होता मरण है - राकेश चक्र, एक सागर नदी में रहता है - मिलन, घर में पूजा करो, नमाज पढ़ो - रऊफ परवेज़ आदि हिंदी जगत के सम सामायिक परिवेश की विसंगतियों, विडंबनाओं, अपेक्षाओं, आशंकाओं आदि को पूरी शिद्दत से उद्घाटित करते हैं।
डॉ. अस्थाना ने रचना-चयन करते समय पारंपरिकता पर अधुनातन प्रयोगधर्मिता को वरीयता ठीक ही दी है। इससे संकलन सहज ग्राह्य और विचारणीय बन सका है। हर दिन प्रकाशित हो रहे सामूहिक संकलनों की भीड़ में यह संकलन अपनी पृथक पहचान स्थापित करने में सफल है। आकर्षक आवरण, त्रुटिहीन मुद्रण, स्तरीय रचनाएँ इसे 'सोने में सुहागा' की तरह पाठकों में लोकप्रिय और शोधार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध करेगी।
*
संपर्क - विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, वॉट्सऐप ९४२५१८३२४४
***
सॉनेट
शीत
पलट शीत फिर फिर है आती।
सखी! चुनावी नेता जैसे।
रँभा रहीं पगुराती भैंसे।।
यह क्यों बे मौसम टर्राती।।
कँपा रही है हाड़-माँस तक।
छुड़ा रही छक्के, छक्का जड़।
खड़ी द्वार पर, बन छक्का अड़।।
जमी जा रही हाय श्वास तक।।
सूरज ओढ़े मेघ रजाई।
उषा नवेली नार सुहाई।
रिसा रही वसुधा महताई।।
पाला से पाला है दैया।
लिपटे-चिपटे सजनी-सैंया।
लल्ला मचले लै लै कैंया।।
५-२-२०२२
•••
गीत
छंद - दोहा
पदभार- २४।
यति - १३-११।
पदांत - लघु गुरु।
*
तू चंदा मैं चाँदनी, तेरी-मेरी प्रीत।
युगों-युगों तक रहेगी, अमर रचें कवि गीत।।
*
सपना पाला भगा दें
हम जग से तम दूर।
लोक हितों की माँग हो,
सहिष्णुता सिंदूर।।
अनगिन तारागण बनें,
नभ के श्रमिक-किसान।
श्रम-सीकर वर्षा बने, कोशिश बीज पुनीत।
चल हम चंदा-चाँदनी, रचें अनश्वर रीत।।
*
काम अकाम-सकाम वर,
बन पाएँ निष्काम।
श्वासें अल्प विराम हों,
आसें अर्ध विराम।।
पूर्ण विराम अनाम हो, छोड़ें हम नव नीत।
श्री वास्तव में पा सकें, मन हारें मन जीत।।
*
अमल विमल निर्मल सलिल, छप्-छपाक् संजीव।
शैशव वर वार्धक्य में, हो जाएँ राजीव।।
भू-नभ की कुड़माई हो, भावी बने अतीत।
कलरव-कलकल अमर हो, बन सत स्वर संगीत।।
५-२-२०२१
***
सोरठा गीत
पदभार- २४।
यति - १३-११।
पदांत - लघु गुरु।
*
तेरी-मेरी प्रीत, युगों-युगों तक रहेगी।
अमर रचें कवि गीत, तू चंदा मैं चाँदनी।।
*
कर जग से तम दूर, हम मिल पाला भगा दें।
सहिष्णुता सिंदूर, लोक हितों की माँग हो।।
नभ के श्रमिक-किसान, अनगिन तारागण बनें।
कोशिश बीज पुनीत, श्रम-सीकर वर्षा बने।
रचें अनश्वर रीत, चल हम चंदा-चाँदनी।।
*
बन पाएँ निष्काम, काम अकाम-सकाम वर।
आसें अर्ध विराम, श्वासें अल्प विराम हों।।
रच दें हम नव नीत, पूर्ण विराम अनाम हो।
मन हारें मन जीत, श्री वास्तव में पा सकें।।
*
छप्-छपाक् संजीव, विमल निर्मल सलिल।
हो जाएँ राजीव, शैशव वर वार्धक्य में।।
भावी बने अतीत, भू-नभ की कुड़माई हो।
बन सत स्वर संगीत, कलरव-कलकल अमर हो।।
५-२-२०२१
***

प्रार्थना
छंद मुक्तक
*
अजर अमर माँ शारद जय जय।
आस पूर्ण कर करिए निर्भय।।
इस मन में विश्वास अचल हो।
ईश कृपा प्रति श्रद्धा अक्षय।।
उमड़ उजाला सब तम हर ले।
ऊसर ऊपर सलिल प्रचुर दे।।
एक जननि संतान अगिन हम
ऐक्य भाव पथ, माँ! अक्षर दे।।
ओसारे चहके गौरेया।
और रँभाए घर घर गैया।
अंकुर अंबर छू ले बढ़कर
अः हँसे सँग बहिना-भैया।।
क्षणभंगुर हों शंका संशय।
त्रस्त रहे बाधा, शुभ की जय।
ज्ञान मिले सत्य-शिव-सुंदर का
ऋद्धि-सिद्धि दो मैया जय जय।।
*
५-२-२०१०
***
सामयिक माहिया
*
त्रिपदिक छंद।
मात्रा भार - १२-१०-१२।
*
भारत के बेटे हैं
किस्मत के मारे
सड़कों पर बैठे हैं।
*
गद्दार नहीं बोलो
विवश किसानों को
नेता खुद को तोलो।
*
मत करो गुमान सुनो,
अहंकार छोड़ो,
जो कहें किसान सुनो।
*
है कुछ दिन की सत्ता,
नेता सेवक है
है मालिक मतदाता।
*
मत करना मनमानी,
झुक कर लो बातें,
टकराना नादानी।
*
सब जनता सोच रही
खिसियानी बिल्ली
अब खंबा नोच रही।
*
कितनों को रोकोगे?
पूरी दिल्ली में
क्या कीले ठोंकोगे?
*
जनमत मत ठुकराओ
रूठी यदि जनता
कह देगी घर जाओ।
*
फिर है चुनाव आना
अड़े रहे यूँ ही
निश्चित फिर पछताना।
५-२-२०२१
***
दोहा सलिला अब बैसाखी छोड़कर, उछल छुएं आकाश।
चल गिर उठ बढ़ते नहीं, जो वे रहें हताश।।
*
चंद्र कांता कूदती, भू से नभ पर रोज।
हिम्मत लाती कहाँ से, हो इसकी कुछ खोज।।
***
विमर्श
वचन दोष-
उदाहरण:
नेता बोले भीड़ से,
तुम हो मेरे साथ।
हम यह वादा कर रहे,
रखें हाथ में हाथ।।
टीप- नेता एकवचन, बोले बहुवचन, भीड़ बहुवचन, तुम एकवचन, हम बहुवचन।
*
छाया सक्सेना जबलपुर- वचन दोष का सटीक उदाहरण देकर आपने हम सभी को लाभान्वित किया।
नेता कहते भीड़ से, रखें हाथ में हाथ।
हम ये वादा कर रहे, सब हो मेरे साथ ।।
क्या यह ठीक है?
संजीव वर्मा 'सलिल'

नेता बोला भीड़ से, तुम सब मेरे साथ।
मैं यह वादा कर रहा, रखो हाथ में हाथ।।
बीनू भटनागर दिल्ली- बोले आदर सूचक भी तो है , इसलिये ग़लत नहीं है। भीड़ शब्द एकवचन की तरह प्रयोग होता है। 'हम' बहुवचन होता है पर बहुत अधिक लोग उत्तर प्रदेश में इसे एकवचन की तरह प्रयोग करते हैं।
संजीव वर्मा 'सलिल'

अब बैसाखी छोड़कर, उछल छुएँ आकाश।
चल गिर उठ बढ़ते नहीं, जो वे रहें हताश।।
अवनीश तिवारी

संजीव जी, प्रणाम। कभी कभी सम्मान सूचक के रूप में एक वचन संज्ञा के साथ बहुवचन क्रिया उपयोग करते हैं। जैसे यहाँ 'नेता' और 'बोले'।
क्या यह सही नही ?
संजीव वर्मा 'सलिल'- ऐसे तर्क हर अंचल में दिए जाते हैं। बिहार में कारक और क्रिया में भिन्नता होती है। मानक हिंदी को उन्हें अपवाद मान अनदेखी कर बढ़ना ही है।

बीनू भटनागर, दिल्ली- लेकिन हिन्दी में इंगलिश की तरह collective noun को एक वचन नहीं माना जाता क्या? जैसे भीड़! आदर सूचक के लिये तो मानक हिंदी क्रिया में बहुवचन लगाना ही सही मानती है। एक और जिज्ञासा कि नेता का बहुवचन क्या होगा? "नेता हमेशा झूठ बोलते है।" इस वाक्य में नेता बहुवचन के रूप में सही नहीं है? यदि ग़लत है तो सही क्या है? 'हम'को एकवचन में प्रयोग करना तो मानक हिन्दी के हिसाब से ग़लत है, आंचलिक भाषा का प्रयोग है।
काव्य में क्या आंचलिक भाषा का प्रयोग वर्जित है?
संजीव वर्मा 'सलिल'- काव्य में आंचलिक भाषा का प्रयोग वर्जित नहीं है। वह रचनाकार की शैलीगत विशेषता है। जाना व्याकरण का प्रश्न हो वहाँ उसे मानक नहीं कहा जाएगा।
***
कार्यशाला
दोहे पर दोहे
'सब रद्दी सामान दें, जो घर में बेकार।'
'फिर आना, बाहर गए,' गृहणी कहे पुकार।।
- दर्शन बेजा़र, आगरा

ना पति रद्दी ना कभी पत्नी रद्दी होय-
बृद्धावस्था में यही रह पाते संग दोय।।
रह पाते संग दोय, शिथिल जब तन हो जाये-
ज्यादा तर को छोड़ पुत्र अमरीका जाये।।
बात सलिल"बेज़ार" हो रही संस्कार क्षति-
रद्दी होते नहीं कभी पत्नी या ना पति।।
बहुत सुंदर वक्रोक्ति सलिल जी , अद्भुत प्रयोग
- संजीव वर्मा 'सलिल'
क्या रहते हैं यहां ही, शायर श्री बेजा़र?
गृहस्वामिन ने आ कहा, मैं भी हूँ बेजा़र।।
- मनोरमा सक्सेना, गुड़गाँव
संस्कार ,संस्कृति सुखद भूल गए परिवार ।
घर के बूढ़े हो गए ज्यूँ रद्दी अखबार।।
-जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर
वंदन करता हूँ सखे, वक्रोक्ति मे प्यार ।
चुहल चाल से ही खुशी, रहता यह संसार ।
५.२.२०१८
गले मिले दोहा-यमक
*
नारी पाती दो जगत, जब हो कन्यादान
पाती है वरदान वह, भले न हो वर-दान
*
दिल न मिलाये रह गए, मात्र मिलकर हाथ
दिल ने दिल के साथ रह, नहीं निभाया साथ
*
निर्जल रहने की व्यथा, जान सकेगा कौन?
चंद्र नयन-जल दे रहा, चंद्र देखता मौन
*
खोद-खोदकर थका जब, तब सच पाया जान
खो देगा ईमान जब, खोदेगा ईमान
*
कौन किसी का सगा है, सब मतलब के मीत
हार न चाहें- हार ही, पाते जब हो जीत
*
निकट न होकर निकट हैं, दूर न होकर दूर
चूर न मद से छोर हैं, सूर न हो हैं सूर
*
इस असार संसार में, खोज रहा है सार
तार जोड़ता बात का, डिजिटल युग बे-तार
*
५-२-२०१७
बाल गीत:
"कितने अच्छे लगते हो तुम "
*
कितने अच्छे लगते हो तुम |
बिना जगाये जगते हो तुम ||
नहीं किसी को ठगते हो तुम |
सदा प्रेम में पगते हो तुम ||
दाना-चुग्गा चुगते हो तुम |
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ करते हो तुम ||
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम |
बिल्ली से डर बचते हो तुम ||
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम |
चूजे भाई! रुचते हो तुम |
***
बासंती दोहा ग़ज़ल:
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित हैं कचनार
किंशुक कुसुम दहक रहे, या दहके अंगार?
*
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री-श्रृंगार
*
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार
मधुशाला में बिन पिये, सिर पर नशा सवार
*
नहीं निशाना चूकती, पञ्चशरों की मार
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार
*
नैन मिले लड़ झुक उठे, करने को इंकार
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार
*
मैं-तुम, यह-वह ही नहीं, बौराया संसार
सब पर बासंती नशा, मिल लें गले खुमार
*
ढोलक, टिमकी, मंजीरा, करें ठुमक इसरार
दुनियावी चिंता भुला, नाचो-झूमो यार
*
घर आँगन तन धो दिया, तन का रूप निखार
अंतर्मन का मेल भी, प्रियवर! कभी बुहार।
*
बासंती दोहा-गज़ल, मन्मथ की मनुहार
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार
***
छंद सलिला:
रामा छंद
*
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, एकावली, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, मधुभार, रामा, माला, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सार, सुगति, सुजान, हंसी)
*
रामा छंद में माला छंद के सर्वथा विपरीत प्रथम पद में दो चरण इंद्र वज्रा छंद के तथा द्वितीय पद में उपेन्द्र वज्रा छंद के दो चरण होते हैं.
उदाहरण:
१. पूजा उसे ही हमने हमेशा, रामा हमारा सबका सहारा
उसे सभी की रहती सदा ही, फ़िक्र न भूले वह देव प्यारा
२. कैसे बहलायें परदेश में जो, भाई हमारे रहने गये हैं
कहीं रहें वे हमको न भूलें, बसे हमारे दिल में वही हैं
३. कोई नहीं है अपना-पराया, जैसा जहाँ जो सब है तुम्हारा
तुम्हें मनायें दिन-रात देवा!, हमें न मोहे भ्रम-मोह-माया
५-२-२०१४
***
एक दोहा
जो निज मन को जीत ले, उसे नमन कर मौन.
निज मन से यह पूछिए, छिपा आपमें कौन?
५.२.२०१०
***