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गुरुवार, 6 मार्च 2025

मार्च ६, रामकिंकर, सेना-टोपी, फाग, शिव, गणेश, भोजपुरी, त्रिभंगी, अहीर, रामकृष्ण, कविता, लघुकथा

सलिल सृजन मार्च ६
*
युग तुलसी स्मरण
सुमिर रामकिंकर को रे मन!
मानस मंदाकिनी मनोहर,
जो डूबे भव पार कर जतन,
राम नाम जप तार, आप तर।
राम-श्याम दोउ एक याद रख,
भक्ति भाव रस घोल श्वास में,
हरि-हर में अद्वैत जान मन,
द्वैत मोह मत पाल आस में,
किंकर-पद आराध्य मान ले।
मानस चिंतन, मानस मंथन,
शब्द शब्द रस भाव समुच्चय,
विचर भ्रमर हो मानस मधुवन,
कर परमात्म राम से परिचय।
कृपावंत गुणवंत सदय हों,
किंकर कीर्तन कर निर्भय हों।
६.३.२०२४
•••
विमर्श
जीवन का आरंभ
*
पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत लगभग ४०० करोड़ साल पहले हुई थी। कहाँ?, इस पर वैज्ञानिकों मेनंतभेद हैं। एक धारणा है कि जीवन की शुरुआत समुद्र की सतह पर हुई थी। पृथ्वी के बनने के बाद बहुत समय तक हमारे गृह की सतह पर उथल-पुथल चलती रही, गरम पिघली धातु और हवाएँ बहती रहीं। ऐसे वातावरण मे कार्बन पर आधारित जीवन का पनपना असंभव था। पृथ्वी का तापमान गिरने पर ही जीवन का आरंभ संभव हुआ। धरती पर आए पहले जीव हैं अंग्रेजी में प्रोकैरेयोट (Prokaryote) कहा जाता है। इन जीवों में केंद्रक/न्यूक्लियस (Nucleus) नहीं होता। ये हमारी कोशिकाओं के मुकाबले मे यह बहुत सरल होते हैं।
प्रोकैरेयोट किस्म के बैक्टीरिया वही हैं जिन्हें मारने के लिए हम एंटीबायोटिक (antibiotic) खाते हैं। जीवन आरंभ के समय दो तरह के प्रोकैरेयोट बैक्टीरिया और आर्किया (Archaea) प्रगट हुए। यह दो किस्म की कोशिकाएँ सरल होती हैं। ४०० करोड़ साल पहले धरती पर इन्हीं दोनों का धरती पर बोलबाला रहा। ऐसा लगभग २०० करोड़ साल के लंबे अंतराल के बाद एक आर्किया ने एक बैक्टीरिया को अपने अंदर समा लिया। कब और कैसे इस पर आज भी अनुसंधान जारी है।इस एक घटना ने धरती पर जीवन का रुख बदल दिया। आर्किया के अंदर बैक्टीरिया जाने से एक यूकेरियोट (Eukaryote) कोशिका पैदा हुई जिससे पेड़ , पौधे, जानवर, पक्षी और हम सभी विकसित हुए।
आर्किया के अंदर जाने वाला बैक्टीरिया क्रमागत उन्नति की प्रक्रिया के बाद एक कोशिका का वह केंद्र बन गया, जहाँ कोशिका की ऊर्जा का उत्पादन होता है. यह धरती पर जीवन के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण कदम था। इस एक घटना से एक कोशिका की ऊर्जा बहुत बढ़ गई। उसी कारण से मनुष्यों जैसे जटिल जीवों का धरती पर आना संभव हुआ। ऐसा होने में 200 करोड़ साल क्यों लगे? इस सवाल का कोई जवाब नहीं है। क्या ब्रह्मांड में अन्यत्र भी ऐसा होने में इतना ही समय लगा होगा या, कम-अधिक, कोई नहीं जानता।
***
भारतीय सेना की टोपियाँ
टोपी, पगड़ी या साफा सम्मान और प्रतिष्ठा की प्रतीक होती है। लोक प्रचलित मुहावरे टोपी पहनाना = मूर्ख बनाना, टोपी उतारना/उछालना = अपमान करना तथा टोपी रखना / ढकना = इज्जत बचाना आदि टोपी का महत्व दर्शाते हैं। भारतीय सेना के सैनिकों और अधिकारियों के लिए उनकी टोपियों (caps /हेडगियर) कब-कैसी की होगी यह उनकी रेजिमेंट, कार्यक्रम, विशेष ऑपरेशन, रैंक आदि पर निर्भर करता है। सेना के कर्मियों के लिए मुख्यतः ६ अलग-अलग प्रकार के हेडगेयर हैं।
१. .पीक कैप्स: पीक कैप भारतीय सेना के अधिकारियों की औपचारिक वर्दी का हिस्सा है। इसकी शान ही अनूठी है।
२. बेरेट: यह आम तौर पर सैनिकों के हथियारों और रेजिमेंट के रंग के अनुसार होती है। विभिन्न हथियारों और रेजिमेंटों में बेरेट के अलग-अलग रंग होते हैं। कई बेरेट कड़ी मेहनत और पसीने से अर्जित किए जाते हैं। उदाहरण के लिए: पैराशूट रेजिमेंट के मैरून बेरेट।
३.गोरखा कैप्स: गोरखा राइफल्स, कुमाऊं रेजिमेंट, नागा रेजिमेंट, लद्दाख स्काउट्स, सिक्किम स्काउट्स और गढ़वाल राइफल्स के सैनिक और अधिकारी इस पारंपरिक गोरखा कैप्स पहनते हैं।
४. पगड़ी: भारतीय सेना के सिख सैनिक और अधिकारी अपनी वर्दी और रेजिमेंट के रंग के अनुसार अपनी वर्दी के साथ पगड़ी पहनते हैं। पगड़ी का संबंध सिख धर्म से भी है। पगड़ी पहनने पर कद अधिक लंबा तथा प्रभावशाली दिखता है।
५. कॉम्बैट यूनिफॉर्म कैप्स: आमतौर पर सैनिक इन कैप्स को अपनी कॉम्बैट या फील्ड यूनिफॉर्म के साथ पहनते हैं।
६ -मैस सेरेमोनियल कैप यूनिफॉर्म के साथ CAPS: यह कैप आमतौर पर आधिकारिक डिनर पर पर्व गणवेश (सेरेमोनियल यूनिफ़ॉर्म) के सतह पहनी जाती है।
ब्रिगेडियर, मेजर जनरल, लेफ्टिनेंट जनरल और जनरल के रैंक के लिए, उनकी चोटी की टोपी, गोरखा टोपी और पगड़ी में एक समान प्रकार का बैज होता है। अधिकारियों की टोपी लेफ्टिनेंट कर्नल के पद तक समान हैं, लेकिन कर्नल बनने के बाद भारतीय सेना के इन वरिष्ठ अधिकारियों के पीक कैप्स, गोरखा कैप्स और पगड़ी (सिख अधिकारियों के लिए) में लाल रिबन जोड़ा जाता है।
***
फाग-
.
राधे! आओ, कान्हा टेरें
लगा रहे पग-फेरे,
राधे! आओ कान्हा टेरें
.
मंद-मंद मुस्कायें सखियाँ
मंद-मंद मुस्कायें
मंद-मंद मुस्कायें,
राधे बाँकें नैन तरेरें
.
गूझा खांय, दिखायें ठेंगा,
गूझा खांय दिखायें
गूझा खांय दिखायें,
सब मिल रास रचायें घेरें
.
विजया घोल पिलायें छिप-छिप
विजया घोल पिलायें
विजया घोल पिलायें,
छिप-छिप खिला भंग के पेड़े
.
मलें अबीर कन्हैया चाहें
मलें अबीर कन्हैया
मलें अबीर कन्हैया चाहें
राधे रंग बिखेरें
ऊँच-नीच गए भूल सबै जन
ऊँच-नीच गए भूल
ऊँच-नीच गए भूल
गले मिल नचें जमुन माँ तीरे
***
नवगीत:
.
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भाँग भवानी कूट-छान के
मिला दूध में हँस घोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
पेड़ा गटकें, सुना कबीरा
चिलम-धतूरा धर झोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
भसम-गुलाल मलन को मचलें
डगमग डगमग दिल डोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
आग लगाये टेसू मन में
झुलस रहे चुप बम भोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
.
विरह-आग पे पिचकारी की
पड़ी धार, बुझ गै शोला
शिव के मन मांहि
बसी गौरा
...
होली पर भोजपुरी गीत :
*
कईसे मनाईब होली ? हो मोदी !
कईसे मनाईब होली..ऽऽऽऽऽऽ
*
मीटिंग के गईला त मतदाता अईला
एक गिरउला, तऽ दूसर पठऊला
कईसे चलाइलऽ चैनल चरचा
दंग विपच्छी तू मौका न दईला
निगली का भंग की गोली? हो मोदी!
मिलके मनाईब होली ?ऽऽऽऽऽ
*
रोएँ बिरोधी मउका तऽ चाही
हाथ मिलाएँ चउका तऽ चाही
सरकारन का रउआ रे टोटा
राहुल की दुनिया में होवे हँसाई
माया की रीती झोली, हो राजा !
खिलके मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
मारे ममता दीदी रह-रह के बोली
नीतीश-अखिलेश कऽ बिसरी ठिठोली
दूध छठी का याद कराइल
अमित भाई कऽ टोली
बद लीनी बाजी अबोली हो राजा
भिड़के मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
जमके लगायल रे! चउआ-छक्का
कैच भयल ठाकरे है मुँह लटका
नानी शिंदे ने याद कराइल
फूटा बजरिया में मटका
दै दिहिन पटकी सदा जय हो राजा
जमके मनाईब होली ?,ऽऽऽऽऽऽऽ
*
अरे! अईसे मनाईब होली हो राजा,
अईसे मनाईब होली...
***
फागुनी नवगीत -
तुम क्या आयीं
*
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
बासंती मौसम फगुनाया
आम्र-मौर जी भर इठलाया
शुक-सारिका कबीरा गाते
खिल पलाश ने चंग बजाया
गौरा-बौरा भांग चढ़ाये
जली होलिका
कनककशिपु की हार हो गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
ढपली-मादल, अम्बर बादल
हरित-पीत पत्ते नच पागल
लाल पलाश कुसुम्बी रंग बन
तन पर पड़े, करे मन घायल
करिया-गोरिया नैन लड़ायें
बैरन झरबेरी
सम भौजी छार हो फागुनी नवगीत -
तुम क्या आयीं
*
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
बासंती मौसम फगुनाया
आम्र-मौर जी भर इठलाया
शुक-सारिका कबीरा गाते
खिल पलाश ने चंग बजाया
गौरा-बौरा भांग चढ़ाये
जली होलिका
कनककशिपु गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
*
अररर पकड़ो, तररर झपटा
सररर भागा, फररर लपटा
रतनारी भई सदा सुहागन
रुके न चम्पा कितनऊ डपटा
'सदा अनंद रहे' गा-गाखें
गुझिया-पपड़ी
खाबे खों तकरार हो गयी
तुम क्या आयीं
रंगों की बौछार हो गयी
***
त्रिभंगी छंद:
*
ऋतु फागुन आये, मस्ती लाये, हर मन भाये, यह मौसम।
अमुआ बौराये, महुआ भाये, टेसू गाये, को मो सम।।
होलिका जलायें, फागें गायें, विधि-हर शारद-रमा मगन-
बौरा सँग गौरा, भूँजें होरा, डमरू बाजे, डिम डिम डम।
***
पुण्य स्मरण
रामकृष्ण देव
*
विश्व के एक महान संत, आध्यात्मिक गुरु एवं विचारक रामकृष्ण देव ने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। उन्हें बचपन से ही विश्वास था कि ईश्वर के दर्शन हो सकते हैं। अतः, ईश्वर की प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति का जीवन बिताया। स्वामी रामकृष्ण देव मानवता के पुजारी थे। साधना के फलस्वरूप वह इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संसार के सभी धर्म सच्चे हैं और उनमें कोई भिन्नता नहीं। वे ईश्वर तक पहुँचने के भिन्न-भिन्न साधन मात्र हैं। मानवीय मूल्यों के पोषक संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म १८ फ़रवरी १८३६ को बंगाल प्रांत स्थित कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके बचपन का नाम गदाधर था। पिताजी के नाम खुदीराम और माताजी का नाम चंद्रमणि देवी था। रामकृष्ण के माता-पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं और दृश्यों का अनुभव हुआ था। गया में उनके पिता खुदीराम ने एक स्वप्न देखा था जिसमें उन्होंने देखा कि भगवान गदाधर (विष्णु के अवतार) ने उन्हें कहा कि वे उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। उनकी माता चंद्रमणि देवी को भी ऐसा एक अनुभव हुआ। उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में प्रकाशपुंज को प्रवेश करते हुए देखा। सात वर्ष की अल्पायु में ही गदाधर के सिर से पिता का साया उठ गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में पूरे परिवार का भरण-पोषण कठिन होता चला गया। आर्थिक कठिनाइयाँ आईं। बालक गदाधर का साहस कम नहीं हुआ। इनके बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय कलकत्ता (कोलकाता) में एक पाठशाला के संचालक थे। वे गदाधर को शिक्षण तथा आजीविका के लिए अपने साथ कोलकाता ले गए।
निरंतर प्रयासों के बाद भी रामकृष्ण का मन अध्ययन-अध्यापन में नहीं लग पाया। १८५५ में रामकृष्ण परमहंस के बड़े भाई रामकुमार चट्टोपाध्याय को रानी रासमणि द्वारा बनाए गए दक्षिणेश्वर काली मंदिर के मुख्य पुजारी के रूप में नियुक्त किया गया था। रामकृष्ण और उनके भांजे ह्रदय रामकुमार की सहायता करते थे। रामकृष्ण को देवी प्रतिमा को सजाने का दायित्व दिया गया था। १८५६ में रामकुमार के मृत्यु के पश्चात रामकृष्ण को काली मंदिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त किया गया।रामकुमार की मृत्यु के बाद श्री रामकृष्ण ज़्यादा ध्यान मग्न रहने लगे। वे काली माता के मूर्ति को अपनी माता और ब्रम्हांड की माता के रूप में देखने लगे। कहा जाता हैं कि श्री रामकृष्ण को काली माता के दर्शन ब्रम्हांड की माता के रूप में हुआ था। रामकृष्ण इसकी वर्णना करते हुए कहते हैं "घर, द्वार, मंदिर और सब कुछ अदृश्य हो गया, जैसे कहीं कुछ भी नहीं था। मैंने एक अनंत, तट-विहीन आलोक का सागर देखा, यह चेतना का सागर था। जिस दिशा में भी मैंने दूर-दूर तक जहाँ भी देखा बस उज्जवल लहरें दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक, मेरी तरफ आ रही थी।
रामकृष्ण का अन्तर्मन अत्यंत निश्छल, सहज और विनयशील था। संकीर्णताओं से वह बहुत दूर थे। अपने कार्यों में लगे रहते थे।परम आध्यात्मिक संत रामकृष्ण देव की बालसुलभ सरलता और मंत्रमुग्ध मुस्कान से हर कोई सम्मोहित हो जाता था। अफवाह फ़ैल गयी थी कि दक्षिणेश्वर में आध्यात्मिक साधना के कारण रामकृष्ण का मानसिक संतुलन ख़राब हो गया है। गदाधर की माता और उनके बड़े भाई रामेश्वर उनका विवाह करवाने का निर्णय लिया। उनका यह मानना था कि शादी होने पर गदाधर का मानसिक संतुलन ठीक हो जायेगा, शादी के बाद आई ज़िम्मेदारियों के कारण उनका ध्यान आध्यात्मिक साधना से हट जाएगा।कालान्तर में बड़े भाई देहावसान से गदाधर व्यथित हुए। संसार की अनित्यता को देखकर उनके मन में वैराग्य का उदय हुआ। अन्दर से मन न होते हुए भी, गदाधर दक्षिणेश्वर मंदिर में माँ काली की पूजा एवं अर्चना करने लगे। दक्षिणेश्वर स्थित पंचवटी में वे ध्यानमग्न रहने लगे। ईश्वर दर्शन के लिए वे व्याकुल हो गये। लोग उन्हे पागल समझने लगे। रामकृष्ण ने खुद उन्हें यह कहा कि वे उनके लिए उपयुक्त जीवनसंगिनी कामारपुकुर से ३ मिल दूर उत्तर पूर्व की दिशा में स्थित गाँव जयरामबाटी में रामचन्द्र मुख़र्जी के घर में पा सकते हैं। १८५९ में ५ वर्ष की शारदामणि मुखोपाध्याय और २३ वर्ष के रामकृष्ण का विवाह संपन्न हुआ। विवाह के बाद शारदा जयरामबाटी में रहती रहीं और १८ वर्ष की आयु होने होने पर वे रामकृष्ण के पास दक्षिणेश्वर में रहने लगी। गदाधर तब भी संन्यासी का जीवन जीते थे।
इसके बाद भैरवी ब्राह्मणी का दक्षिणेश्वर में आगमन हुआ। उन्होंने उन्हें तंत्र की शिक्षा दी। मधुरभाव में अवस्थान करते हुए ठाकुर ने श्रीकृष्ण का दर्शन किया। उन्होंने तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदान्त की ज्ञान लाभ किया और जीवन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त किया। सन्यास ग्रहण करने के वाद उनका नया नाम हुआ श्रीरामकृष्ण परमहंस। इसके बाद उन्होंने इस्लाम और क्रिश्चियन धर्म की भी साधना की।
समय जैसे-जैसे व्यतीत होता गया, उनके कठोर आध्यात्मिक अभ्यासों और सिद्धियों के समाचार तेजी से फैलने लगे और दक्षिणेश्वर का मंदिर उद्यान शीघ्र ही भक्तों एवं भ्रमणशील संन्यासियों का प्रिय आश्रयस्थान हो गया। कुछ बड़े-बड़े विद्वान एवं प्रसिद्ध वैष्णव और तांत्रिक साधक जैसे- पं॰ नारायण शास्त्री, पं॰ पद्मलोचन तारकालकार, वैष्णवचरण और गौरीकांत तारकभूषण आदि उनसे आध्यात्मिक प्रेरणा प्राप्त करते रहे। वह शीघ्र ही तत्कालीन सुविख्यात विचारकों के घनिष्ठ संपर्क में आए जो बंगाल में विचारों का नेतृत्व कर रहे थे। इनमें केशवचंद्र सेन, विजयकृष्ण गोस्वामी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के नाम लिए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त साधारण भक्तों का एक दूसरा वर्ग था जिसके सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति रामचंद्र दत्त, गिरीशचंद्र घोष, बलराम बोस, महेंद्रनाथ गुप्त (मास्टर महाशय) और दुर्गाचरण नाग थे। स्वामी विवेकानन्द उनके परम शिष्य थे।
रामकृष्ण परमहंस जीवन के अंतिम दिनों में समाधि की स्थिति में रहने लगे। अत: तन से शिथिल होने लगे। शिष्यों द्वारा स्वास्थ्य पर ध्यान देने की प्रार्थना पर अज्ञानता जानकर हँस देते थे। इनके शिष्य इन्हें ठाकुर नाम से पुकारते थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा-वत्स हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी? इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया तब भी वे मुस्कराये। चिकित्सा कराने से रोकने पर भी विवेकानन्द इलाज कराते रहे। चिकित्सा के वाबजूद उनका स्वास्थ्य बिगड़ता ही गया। सन् १८८६ ई. में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रातःकाल रामकृष्ण परमहंस ने देह त्याग दी। १६ अगस्त का सवेरा होने के कुछ ही वक्त पहले आनन्दघन विग्रह श्रीरामकृष्ण इस नश्वर देह को त्याग कर महासमाधि द्वारा स्व-स्वरुप में लीन हो गये।
६-३-२०२२
***
लघुकथा
एक अधुनातन अतिबुद्धिजीवी पुत्री ने पिता को भारत में संदेश भेजा - 'डैड! मुझे एक लड़के से प्यार हो गया है। वह रूस में है मैं अमेरिका में। उसके माता-पिता चीन में हैं।हम एक दूसरे का पता मैरिज वेब साइट से मिला। हम डेटिंग वेबसाइट पर मिले। फेसबुक पर मित्र बने। वॉट्सऐप पर हमने कई बार बातचीत की। वीडियो चैट पर एक दूसरे को देखा। स्काइप पर मैंने उसे प्रोपोज़ किया। उसने टेलीग्राम पर एक्सेप्ट किया। हम एक साल से वाइबर पर रिलेशनशिप में हैं। हमें आपका आशीर्वाद चाहिए।
पिता ने झुमरीतलैया से मेटा पर उत्तर दिया - 'क्या वाकई? विचित्र किन्तु सत्य। ट्विटर पर आमंत्रण पत्र भेजो, टैंगो पर विवाह करो, अमेज़न से बच्चे गोद लेकर और पेपाल से भेज दो। पति से मन भर जाए तो उसे ईबे पर बेचने से मत हिचकना।
***
आओ! कविता करना सीखें -
यह स्तंभ उनके लिए है जो काव्य रचना करना बिलकुल नहीं जानते किन्तु कविता करना चाहते हैं। हम सरल से सरल तरीके से कविता के तत्वों पर प्रकाश डालेंगे। जिन्हें रूचि हो वे अपने नाम सूचित कर दें। केवल उन्हीं की शंकाओं का समाधान किया जाएगा जो गंभीर व नियमित होंगे। जानकार और विद्वान साथी इससे जुड़कर अपने समय का अपव्यय न करें।
*
कविता क्यों?
अपनी अनुभूतियों को विचारों के माध्यम से अन्य जनों तक पहुँचाने की इच्छा स्वाभाविक है। सामान्यत: बातचीत द्वारा यह कार्य किया जाता है। लेखक गद्य (लेख, निबंध, कहानी, लघुकथा, व्यंग्यलेख, संस्मरण, लघुकथा आदि) द्वारा, कवि पद्य (गीत, छंद, कविता आदि) द्वारा, गायक गायन के माध्यम से, नर्तक नृत्य द्वारा, चित्रकार चित्रों के माध्यम से तथा मूर्तिकार मूर्तियों के द्वारा अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करते हैं। यदि आप अपने विचार व्यक्त करना नहीं चाहते तो कविता करना बेमानी है।
कविता क्या है?
मानव ने जब से बोलना सीखा, वह अपनी अनुभूतियों को इस तरह अभिव्यक्त करने का प्रयास करता रहा कि वे न केवल अन्यों तक संप्रेषित हों अपितु उसे और उन्हें दीर्घकाल तक स्मरण रहें। इस प्रयास ने भाषिक प्रवाह संपन्न कविता को जन्म दिया। कविता में कहा गया कथ्य गद्य की तुलना में सुबोध और सहज ग्राह्य होता है। इसीलिये माताएँ शिशुओं को लोरी पहले सुनाती हैं, कहानी बाद में। अबोध शिशु न तो भाषा जानता है न शब्द और उनके अर्थ तथापि माँ के चेहरे के भाव और अधरों से नि:सृत शब्दों को सुनकर भाव हृदयंगम कर लेता है और क्रमश: शब्दों और अर्थ से परिचित होकर बिना सीखे भाषा सीख लेता है।
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार 'वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्' अर्थात रसमय वाक्य ही कविता है। पंडितराज जगन्नाथ कहते हैं, 'रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' यानि सुंदर अर्थ को प्रकट करनेवाली रचना ही काव्य है। पंडित अंबिकादत्त व्यास का मत है, 'लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः काव्यानाम् यातु' यानि लोकोत्तर आनंद देने वाली रचना ही काव्य है। आचार्य भामह के मत में "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्" अर्थात कविता शब्द और अर्थ का उचित मेल" है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ''जब कवि 'भावनाओं के प्रसव' से गुजरते हैं, तो कविताएँ प्रस्फुटित होती हैंं।'' महाकवि जयशंकर प्रसाद ने सत्य की अनुभूति को ही कविता माना है।
मेरे विचार में कवि द्वारा अनुभूत सत्य की शब्द द्वारा सार्थक-संक्षिप्त लयबद्ध अभिव्यक्ति कविता है। कविता का गुण गेयता मात्र नहीं अपितु वैचारिक संप्रेषणीयता भी है। कविता देश, काल, परिस्थितियों, विषय तथा कवि के अनुसार रूप-रंग आकार-प्रकार धारण कर जन-मन-रंजन करती है।
कविता के तत्व
विषय
कविता करने के लिए पहला तत्व विषय है। विषय न हो तो आप कुछ कह ही नहीं सकते। आप के चारों और दिख रही वस्तुएँ प्राणी आदि, ऋतुएँ, पर्व, घटनाएँ आदि विषय हो सकते हैं।
विचार
विषय का चयन करने के बाद उसके संबंध में अपने विचारों पर ध्यान दें। आप विषय के संबंध में क्या सोचते हैं? विचारों को मन में एकत्र करें।
अभिव्यक्ति
विचारों को बोलकर या लिखकर व्यक्त किया जा सकता है। इसे अभिव्यक्त करना कहते हैं।जब विचारों को व्याकरण के अनुसार वाक्य बनाकर बोला या लिखा जाता है तो उसे गद्य कहते हैं। जब विचारों को छंद शास्त्र के नियमों के अनुसार व्यक्त किया जाता है तो कविता जन्म लेती है।
लय
कविता लय युक्त ध्वनियों का समन्वय-सम्मिश्रण करने से बनती है। मनुष्य का जन्म प्रकृति की गोद में हुआ। मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकृति के उपादानों के साहचर्य में विकसित हुई हैं। प्रकृति में बहते पानी की कलकल, पक्षियों का कलरव, मेघों का गर्जन, बिजली की तडकन, सिंह आदि की दहाड़, सर्प की फुफकार, भ्रमर की गुंजार आदि में ध्वनियों तथा लय खण्डों की विविधता अनुभव की जा सकती है। पशु-पक्षियों की आवाज सुनकर आप उसके सुख या दुःख का अनुमान कर सकते हैं। माँ शिशु के रोने से पहचान जाती है कि वह भूखा है या उसे कोई पीड़ा है।
कविता और लोक जीवन
कविता सामान्य जान द्वारा अपने विचारों और अनुभूतियों को लयात्मकता के साथ व्यक्त करने से उपजाति है। कविता करने के लिए शिक्षा नहीं समझ आवश्यक है। कबीर आदि अनेक कवि निरक्षर थे। शिक्षा काव्य रचना में सहायक होती है। शिक्षित व्यक्ति को भाषा के व्याकरण व् छंद रचना के नियमों की जानकारी होती है। उसका शब्द भंडार भी अशिक्षित व्यक्ति की तुलना में अधिक होता है। इससे उसे अपने विचारों को बेहतर तरीके से अभिव्यक्त करने में आसानी होती है।
आशु कविता
ग्रामीण जन अशिक्षित अथवा अल्प शिक्षित होने पर भी लोक गीतों की रचना कर लेते हैं। खेतों में मचानों पर खड़े कृषक फसल की रखवाली करते समय अकेलापन मिटाने के लिए शाम के सुनसान सन्नाटे को चीरते हुए गीत गाते हैं। एक कृषक द्वारा गाई गई पंक्ति सुनकर दूर किसी खेत में खड़ा कृषक उसकी लय ग्रहण कर अन्य पंक्ति गाता है और यह क्रम देर रात रहता है। वे कृषक एक दूसरे को नहीं जानते पर गीत की कड़ी जोड़ते जाते हैं। बंबुलिया एक ऐसा ही लोक गीत है। होली पर कबीरा, राई, रास आदि भी आकस्मिक रूप से रचे और गाए जाते हैं। इस तरह बिना पूर्व तैयारी के अनायास रची गई कविता आशुकविता कहलाती है। ऐसे कवी को आशुकवि कहा जाता है।
कविता करने की प्रक्रिया
कविता करने के लिए विषय का चयन कर उस पर विचार करें। विचारों को किसी लय में पिरोएँ। पहली पंक्ति में ध्वनियों के उतार-चढ़ाव को अन्य पंक्तियों में दुहराएँ।
अन्य विधि यह कि पूर्व ज्ञान किसी धुन या गीत को गुनगुनाएँ और उसकी लय में अपनी बात कहने का प्रयास करें। ऐसा करने के लिए मूल गीत के शब्दों को समान उच्चारण शब्दों से बदलें। इस विधि से पैरोडी (प्रतिगीत) बनाई जा सकती है।
हमने बचपन में एक बाल गीत मात्राएँ सीखते समय पढ़ा था।
राजा आ राजा।
मामा ला बाजा।।
कर मामा ढमढम।
नाच राजा छमछम।।
अब इस गीत का प्रतिगीत बनाएँ -
गोरी ओ गोरी।
तू बाँकी छोरी।।
चल मेले चटपट।
खूब घूमें झटपट।।
लोकगीतों और भजनों की लय का अनुकरण कर प्रतिगीत की रचना करना आसान है।
६-३-२०२१
***
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।
*
ताक् धिना धिन् तबला बाजे, कान दे रहे ताल।
लहर लहरकर शुण्ड चढ़ाती जननी को गलमाल।।
नंदी सिंह के निकट विराजे हो प्रसन्न सुनते निर्भय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
कार्तिकेय ले मोर पंख, पंखा झलते हर्षित।
मनसा मन का मनका फेरें, फिरती मग्न मुदित।।
वीणा का हर तार नाचता, सुन अपने ही शुभ सुर मधुमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
ढोलक मौन न ता ता थैया, सुन गौरैया आई।
नेह नर्मदा की कलकल में, कलरव
ज्यों शहनाई।।
बजा मँजीरा नर्तित मूषक सर्प, सदाशिव पग हों गतिमय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
*
दशकंधर स्त्रोत कहे रच, उमा उमेश सराहें।
आत्मरूप शिवलिंग तुरत दे, शंकर रीत निबाहें।।
मति फेरें शारदा भवानी, मुग्ध दनुज माँ पर झट हो क्षय।
गणपति झूमें सुना प्रभाती, भोर भई भोले की जय जय।।
६-३-२०२१
***
दोहा-दोहा अलंकार
*
होली हो ली अब नहीं, होती वैसी मीत
जैसी होली प्रीत ने, खेली कर कर प्रीत
*
हुआ रंग में भंग जब, पड़ा भंग में रंग
होली की हड़बोंग है, हुरियारों के संग
*
आराधा चुप श्याम को, आ राधा कह श्याम
भोर विभोर हुए लिपट, राधा लाल ललाम
*
बजी बाँसुरी बेसुरी, कान्हा दौड़े खीझ
उठा अधर में; अधर पर, अधर धरे रस भीज
*
'दे वर' देवर से कहा, कहा 'बंधु मत माँग,
तू ही चलकर भरा ले, माँग पूर्ण हो माँग
*
'चल बे घर' बेघर कहे, 'घर सारा संसार'
बना स्वार्थ दे-ले 'सलिल', जो वह सच्चा प्यार
*
जितनी पायें; बाँटिए, खुशी आप को आप।
मिटा संतुलन अगर तो, होगा पश्चाताप।।
***
हिंदी ग़ज़ल
*
हिंदी ग़ज़ल इसने पढ़ी
फूहड़ हज़ल उसने गढ़ी
बेबात ही हर बात क्यों
सच बोल संसद में बढ़ी?
कुछ दूर तुम, कुछ दूर हम
यूँ बेल नफरत की चढ़ी
डालो पकौड़ी प्रेम की
स्वादिष्ट हो जीवन-कढ़ी
दे फतह ठाकुर श्वास को
हँस आस ठकुराइन गढ़ी
कोशिश मनाती जीत को
माने न जालिम नकचढ़ी
६-३-२०२०
***
नवगीत-
आज़ादी
*
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
किसी चिकित्सा-ग्रंथ में
वर्णित नहीं निदान
सत्तर बरसों में बढ़ा
अब आफत में जान
बदपरहेजी सभाएँ,
भाषण और जुलूस-
धर्महीनता से जला
देशभक्ति का फूस
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
*
देश-प्रेम की नब्ज़ है
धीमी करिए तेज
देशद्रोह की रीढ़ ने
दिया जेल में भेज
कोर्ट दंड दे सर्जरी
करती, हो आरोग्य
वरना रोगी बचेगा
बस मसान के योग्य
वैचारिक स्वातंत्र्य
स्वार्थ हितकर नाटक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात त्राटक है
*
मुँदी आँख कैसे सके
सहनशीलता देख?
सत्ता खातिर लिख रहे
आरोपी आलेख
हिंदी-हिन्दू विरोधी
केर-बेर का संग
नेह-नर्मदा में रहे
मिला द्वेष की भंग
एक लक्ष्य असफल करना
इनका नाटक है
संविधान से द्रोह
लगा भारी पातक है
भ्रामक आज़ादी का
सन्निपात घातक है
६-३-२०१६
***
छंद सलिला:
अहीर छंद
*
लक्षण: जाति रौद्र, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ११, चरणान्त लघु गुरु लघु (जगण)
लक्षण छंद:
चाहे रांझ अहीर, बाला पाये हीर
लघु गुरु लघु चरणांत, संग रहे हो शांत
पूजें ग्यारह रूद्र, कोशिश लँघे समुद्र
जल-थल-नभ में घूम, लक्ष्य सके पद चूम
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर?
आत्म-ग्वाल तज धेनु, मन प्रयास हो वेणु
प्रकृति-पुरुष सम संग, रचे सृष्टि कर दंग
ग्यारह हों जब एक, मानो जगा विवेक
२. करो संग मिल काम, तब ही होगा नाम
भले विधाता वाम, रखना साहस थाम
सुबह दोपहर शाम, रचना छंद ललाम
कर्म करें निष्काम, सहज गहें परिणाम
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति
जनगण-शक्ति समुद्र, दे अनंत अनुरक्ति
लघु-गुरु-लघु रह शांत, रच दें छंद अहीर
रखता ऊंचा मअ खाली हाथ फ़क़ीर
***
मुक्तक
*
नया हो या पुराना कुछ सुहाना ढूँढता हूँ मैं
कहीं भी हो ख़ुशी का ही खज़ाना ढूँढता हूँ मैं
निगाहों को न भटकाओ कहा था शिष्य से गुरुने-
मिलाऊँ जिससे हँस नज़रें निशाना ढूँढता हूँ मैं
*
चुना जबसे गया मौके भुनाना सीखता हूँ मैं
देखकर आईना खुद पर हमेशा रीझता हूँ मैं
ये संसद है अखाडा चाहो तो मण्डी इसे मानो-
गले मिलता कभी मैं, कभी लड़ खम ठोंकता हूँ मैं
*
खड़ा मैदान में मारा शतक या शून्य पर आउट
पकड़ लूँ कठिन, छोड़ूँ सरल यारों कैच हो शाउट
तेजकर गेंद घपलों की, घोटालों की करी गुगली
ये नूरा कुश्ती है प्यारे न नोटों से नज़र फिसली
६-३-२०१४
***
गीत :
किस तरह आए बसंत?...
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आए बसंत?...
*
होरी कैसे छाए टपरिया?,
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लीलकर हँसे नगरिया.
राजमार्ग बन गई डगरिया.
राधा को छल रहा सँवरिया.
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाए बसंत?...
*
बैला-बछिया कहाँ चराए?
सूखी नदिया कहाँ नहाए?
शेखू-जुम्मन हैं भरमाए.
तकें सियासत चुप मुँह बाए.
खुद से खुद ही हैं शरमाए.
जड़विहीन सूखा पलाश लख
किस तरह भाये बसंत?...
*
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ ग़ायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
वैश्विकता की दाढ़ें खूनी.
खुशी बिदा हो गई 'सलिल' चुप
किस तरह लाए बसंत?...
६-३-२०१०

*

गुरुवार, 23 जनवरी 2025

जनवरी २३, सोरठा, कृष्ण, सॉनेट, सुभाष, गीत, लघुकथा, पुनीत छंद, अहीर छंद, बाला साहब ठाकरे

सलिल सृजन जनवरी २३
*
नेताजी सुभाष चंद्र बोस जयंती
बाला साहब ठाकरे जयंती
***
गीत . 
कर्मयोगी को नमन शत . 
कोमल काया, दृढ़ अंतर्मन 
स्नेह-सलिल का किया आचमन 
माणिक-गिरिजा वंशधरा का 
करें अनुकरण सभी युवा जन 
कर्मठता के सम्मुख कवि नत 
कर्मयोगी को नमन शत 
मधुरा पथिक जवाहर पथ की 
सेवक मातु-श्वास के रथ की 
रंगों-रेखाओं से खेले 
कहे कहानी कार्य न कथ की 
दें आशीष आज गत आगत 
कर्मयोगी को नमन शत 
००० 
सॉनेट
बाला साहब ठाकरे
.
कथनी-करनी एक थी,
मानव थे सिंह के सदृश,
दृष्टि हमेशा नेक थी।
कर न सका कोई विवश।
जन गण की आवाज बन,
सरकारों से जूझते,
झुक जाते थे सिंहासन।
राज शक्ति का बूझते।
संपादक थे तुम प्रखर,
व्यंग्यचित्र चुभते हुए,
जिनमें सत्य सका निखर।
जले दीप बुझते हुए।
हिन्दू की ललकार थे,
देशभक्ति-तलवार थे।।
२३.१.२०२५  
०००
सोरठे कृष्ण के
.
जो पूजे तर जाए, द्वादश विग्रह कृष्ण के।
पुनर्जन्म नहिं पाए, मिले कृष्ण में कृष्ण हो।।
.
विग्रह-छाया रूप, राधा रुक्मिणी दो नहीं।
दोनों एक अनूप, जो जाने पा कृष्ण ले।।
.
नहीं आदि; नहिं अंत, कल-अब-कल के भी परे।
कृष्ण; कहें सब संत, कंत सृष्टि के कृष्ण जी।।
.
श्वेत रक्त फिर पीत हों, अंत श्याम श्रीकृष्ण।
भिन्न-अभिन्न प्रतीत हों, हो न कभी संतृष्ण।।
.
भेद दिखे होता नहीं, विधि-हरि-हर त्रय एक हैं।
चित्र गुप्त है त्रयी का, मति-विवेक अरु कर्म ज्यों।।
.
'अ उ म' सह प्रणव मिल, कृष्ण सृष्टि पर्याय।
कृष्णाराधन नहिं जटिल, 'क्लीं' जपे प्रभु पाय।।
.
कृष्ण सुलभ हैं भक्त को, व्यक्ताव्यक्त सुमूर्त हैं।
नयन मूँद कर ध्यान नित, भक्त-हृयदे में मूर्त हैं।।
.
हर अंतर कर दूर, कहें उपनिषद निकट जा।
हरि-दर्शन भरपूर, मन में कर तू तर सके।।
.
विप्र-भोज के बाद ही, सुनें कथा कर ध्यान।
कर्म खरे अनुपम सही, करते सदा सुजान।।
२३-१-२०२३
...
सॉनेट
स्नेह सलिल में सभी नहाओ
सद्भावों का करो कीर्तन
सदाचारमय रहे आचरण
सुमन सुमन सुरभि फैलाओ
सतत सजग सहकार न भूलो
स्वजनों का सत्कार सदा हो
सबका सबसे हित साधन हो
सुख-सपनों में झूल न फूलो
स्वेद नर्मदा नित्य नहाना
श्रम सौभाग्य निरंतर पाना
सत्य सखा को गले लगाना
ठोकर लगे, सम्हल उठ बढ़ना
पग-पग आगे-आगे बढ़ना
प्रभु अर्पित सारा फल करना
२३-१-२०२३
•••
यमकीय सोरठा
मन को हो आनंद, सर! गम सरगम भुला दे।
क्यों कल? रव कर आज, कलरव कर कर मिला ले।।
*
सॉनेट
सुभाष
*
नरनाहर शार्दूल था, भारत माँ का लाल।
आजादी का पहरुआ, परचम बना सुभाष।
जान हथेली पर लिए, ऊँचा रख निज भाल।।
मृत्युंजय है अमर यश, कीर्ति छुए आकाश।।
जीवन का उद्देश्य था, हिंद करें आजाद।
शत्रु शत्रु का मित्र कह, उन्हें ले लिया साथ।
जैसे भी हो कर सकें, दुश्मन को बर्बाद।।
नीति-रीति चाणक्य की, झुके न अपना माथ।।
नियति नटी से जूझकर, लिखा नया इतिहास।
काम किया निष्काम हर, कर्मयोग हृद धार।
बाकी नायक खास थे, तुम थे खासमखास।।
ख्वाब तुम्हारे करें हम, मिल-जुलकर साकार।।
आजादी की चेतना, तुममें थी जीवंत।
तुम जैसा दूजा नहीं, योद्धा नायक संत।।
२३-१-२०२२
***
हस्तिनापुर की बिथा कथा : मानव मूल्यों को गया मथा
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
मनुष्य सामाजिक जीव है। समाज में रहते हुए उसे सामाजिक मान्यताओं और संबंधों का पालन करना होता है। आने से जाने तक वह अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त और अन्यों की अनुभूतिजनित अभिव्यक्तियों को ग्रहण करता है। अभिव्यक्ति के विविध माध्यम अंग संचालन, भाव मुद्रा, रेखांकन, गायन, वादन नृत्य, वाणी आदि हैं। अनुभूतियों की वाणी द्वारा की गयी अभिव्यक्ति साहित्य की जननी है। साहित्य मानव-मन की सुरुचिपूर्ण ललित अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति निरुद्देश्य नहीं होती। संस्कृत में साहित्य को ‘सहितस्य भाव’ अथवा ‘हितेन सहितं’ अर्थात ‘समुदाय के साथ’ जोड़ा जाता है। जिसमें सबका हित समाहित हो वही साहित्य है। विख्यात साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार के शब्दों में - “मनुष्य का और मनुष्य जाति का भाषाबद्ध या अक्षर व्यक्त ज्ञान ही ‘साहित्य’ है। व्यापक अर्थ में साहित्य मानवीय भावों और विचारों का मूर्त रूप है।
बुंदेली और बुंदेलखंड
बुंदेली भारत के एक विशेष क्षेत्र बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। बुंदेली की प्राचीनता का ठीक-ठीक अनुमान संभव नहीं है। संवत ५०० से १०० विक्रम अपभृंश काल है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार "भारत मुनि (तीसरी सदी) ने अपभृंश नाम न देकर 'देश भाषा' कहा है। डॉ. उदयनारायण तिवारी के मत में अपभृंश का विसात राजस्थान, गुजरात, बुंदेलखंड, पश्चिमोत्तर भारत, बंगाल और दक्षिण में मान्यखेत तक था। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार अपभृंश लोक प्रचलित भाषा है जो विभिन्न समयों में विभिन्न रूपों में बोली जाती थी। बुंदेली पैशाची से निकली शौरसेनी से विकसित पश्चिमी हिंदी का एक देशज रूप है। 'बिंध्याचल' की लोकमाता 'बिंध्येश्वरी' हैं। यहाँ की लोकभाषा का नाम 'बिंध्याचली' से बदलते-बदलते 'बुंदेली' हो जाना स्वाभाविक है।
ठेठ बुंदेली शब्द अनूठे हैं। वे सदियों से ज्यों के त्यों लोक द्वारा प्रयोग किये जा रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बांग्ला, मैथिली, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, बघेली आदि बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं। प्राचीन काल में बुंदेली में हुए शासकीय पत्राचार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं। औरंगजेब और शिवाजी भी क्षेत्र के हिंदू राजाओं से बुंदेली में ही पत्र व्यवहार करते थे। बुंदेली में एक-एक क्षण के लिए अलग-अलग शब्द हैं। संध्या के लिए बुंदेली में इक्कीस शब्द हैं। बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है तो जबलपुर की मधुरता भी है।
वर्तमान बुंदेलखंड चेदि, दशार्ण एवं कारुष से जुड़ा था। यहाँ कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग आदि अनेक जनजातियाँ निवास करती थीं जिनकी स्वतंत्र भाषाएँ थीं। भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में बुंदेली बोली का उल्लेख है। बारहवीं सदी में दामोदर पंडित ने 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' की रचना की। इसमें पुरानी अवधी तथा शौरसेनी ब्रज के अनेक शब्दों का उल्लेख है। इसी काल (एक हजार ईस्वी) के बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरणों में देशज शब्दों, की बहुलता हैं। हिंदी शब्दानुशासन (पं॰ किशोरीलाल वाजपेयी) के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है। बुंदेली की माता प्राकृत-शौरसेनी मौसी संस्कृत तथा बृज व् कन्नौजी सहोदराएँ हैं। बुंदेली भाषा की अपनी चाल, अपनी प्रकृति तथा वाक्य विन्यास को अपनी मौलिक शैली है। भवभूति (उत्तर रामचरितकार) के ग्रामीणजनों की भाषा विंध्‍येली प्राचीन बुंदेली ही है। संभवतः चंदेल नरेश गंडदेव (सन् ९४० से ९९९ ई.) तथा उसके उत्तराधिकारी विद्याधर (९९९ ई. से १०२५ ई.) के काल में बुंदेली के प्रारंभिक रूप में महमूद गजनवी की प्रशंसा की कतिपय पंक्तियाँ लिखी गई। इसका विकास रासो काव्य धारा के माध्यम से हुआ। जगनिक आल्हाखंड तथा परमाल रासो प्रौढ़ भाषा की रचनाएँ हैं। बुंदेली के आदि कवि के रूप में प्राप्त सामग्री के आधार पर जगनिक एवं विष्णुदास सर्वमान्य हैं, जो बुंदेली की समस्त विशेषताओं से मंडित हैं। बुंदेली के बारे में कहा गया है: 'बुंदेली वा या है जौन में बुंदेलखंड के कवियों ने अपनी कविता लिखी, बारता लिखवे वारों ने वारता (गद्य वार्ता) लिखी।
बुंदेली वैविध्य
बोली के कई रूप जगा के हिसाब से बदलत जात हैं। जई से कही गई है कि- 'कोस-कोस पे बदले पानी, गाँव-गाँव में बानी'। बुंदेलखंड में जा हिसाब से बहुत सी बोली चलन में हैं जैसे डंघाई, चौरासी, पवारी, पछेली, बघेली आदि। उत्तरी क्षेत्र (भिंड, मुरैना, ग्वालियर, आगरा, मैनपुरी, दक्षिणी इटावा आदि में बृज मिश्रित बुंदेली (भदावरी ) प्रचलित है। दक्षिणी क्षेत्र (उत्तरी छिंदवाड़ा (अमरवाड़ा, चौरई) व् सिवनी जिला (महाराष्ट्र से सटे गाँव छोड़कर) बुंदेली भाषी है। पूर्वी क्षेत्र (जालौन, हमीरपुर, पूर्वी छतरपुर, पन्ना, कटनी) में शुद्ध बुंदेली बोली जाती है किन्तु उत्तर-पश्चिम हमीरपुर व् दक्षिणी जालौन में बुंदेली का 'लोधांती' रूप तथा यमुना के दक्षिणी भाग में 'निभट्टा' प्रचलित है। दक्षिणी पन्ना की बुंदेली पर बघेली का प्रभाव (बनाफरी) है। पश्चिमी क्षेत्र में (मुरैना, श्योपुर, शिवपुरी, गुना, विदिशा, पश्चिमी होशंगाबाद (हरदा मिश्रित बुंदेली भुवाने की बोली') व सीहोर (मालवी मिश्रित बुंदेली) सम्मिलित है। मध्यवर्ती क्षेत्र (दतिया, छतरपुर, झाँसी, टीकमगढ़, विदिशा, सागर दमोह, जबलपुर, रायसेन, नरसिंहपुर) में शुद्ध बुंदेली लोक भाषा है।
बुंदेली वैशिष्ट्य
बुंदेली में क्रियापदों में गा, गे, गी का अभाव है। होगा - हुइए, बढ़ेगा - बढ़हे, मरेगा - मरहै, खायेगा - खाहै हो जाते हैं। 'थ' का 'त' तथा 'ह' का 'अ' हो जाता है, नहीं था - नई हतो, ली थी - लई तीं, जाते थे - जात हते आदि। कर्म कारक परसर्ग में 'खों' और 'कों' प्रचलित हैं। संज्ञा शब्दों का बहुवचन 'न' और 'ऐं' प्रत्यय लगकर बनाये जाते हैं। करन कारक 'से' 'सें' हो जाता है। संयुक्त वर्ण को विभाजन हो जाता है ' प्रजा से' 'परजा सें' हो जाता है। हकार का लोप हो जाता है - बहिनें - बैनें, कहता - कैत, कहा - कई, उन्होंने - उन्नें, बहू - बऊ, पहुँची - पौंची, शाह - शाय आदि। लोच और माधुर्यमयी बुंदेली 'ण' को 'न' तथा 'ड़' को 'र' में बदल लेती है। उच्चारण में 'अनुस्वार' को प्रधानता है - कोई - कोनउँ, उसने - ऊनें, आदि। संज्ञा एकवचन को बहुवचन में बदलने हेतु 'न' व 'ए' प्रत्यय लगाए जाते हैं। यथा सैनिक - सैनिकन, आदमी - आदमियन, पुस्तक - पुस्तकें आदि। शब्दों के संयुक्त रूप भी प्रयोग किये जाते हैं। यथा जैसे ही - जैसई, हद ही कर दी - हद्दई कर दई आदि। अकारान्त संज्ञा-विशेषणों का उच्चारण औकारांत हो जाता है। पखवाड़ा - पखवाडो, धोकर - धोकेँ आदि। लेकिन के लिए 'पै' का प्रयोग होता है। तृतीय पुरुष में एकवचन 'वह' का 'बौ / बो' हो जाता है। इसके कारकीय रूप बा, बासें, बाने, बाकी, बह वगैरह हैं। सानुनासिकता बुंदेली की विशेषता है। उन्नें, नईं, हतीं, सैं आदि। था, थी, थे आदि क्रमश: हतौ, हती, हते आदि हो जाते हैं। भविष्यवाची प्रत्यय गा, गी, गे का रूप बदल जाता है। होगा - हुइए, चढ़ेगा - चढ़हे, चढ़ चूका होगा - चढ़ चुकौ हुइए।
बुंदेली साहित्य सृजन परंपरा
बुंदेली साहित्य और लोक साहित्य की सुदीर्घ परंपरा १००० वि. से अब तक अक्षुण्ण है। जगनिक (संवत १२३०), विष्णुदास, मानिक कवि, थेपनाथ, छेहल अग्रवाल,गुलाब कायस्थ (१५०० वि.), बलभद्र मिश्र (१६०० वि.), हरिराम व्यास, कृपाराम, गोविंद स्वामी, बलभद्र कायस्थ (१६१० वि.), केशवदास (१६१२ वि.), खड़गसेन कायस्थ (१६६० वि.), सुवंशराय कायस्थ (१६८० वि.), अंबाप्रसाद श्रीवास्तव 'अक्षर अनन्य', बख्शी हंसराज,ईसुरी (१८०० वि.), पद्माकर (१८१० वि.), गंगाधर व्यास, ख्यालीराम, घनश्याम कायस्थ (१७२९ वि.), रघुराम कायस्थ (१७३७ वि.), लाल कवि, हिम्मद सिंह कायस्थ (१७४८ वि.), रसनिधि (१७५० वि.), हंसराज कायस्थ (१७५२ वि.), खंडन कायस्थ (१७५५ वि.), खुमान कवि, नवल सिंह कायस्थ (१८५० वि.), फतेहसिंह कायस्थ (१७८० वि.), शिवप्रसाद कायस्थ (१७९८ वि.), गुलालसिंह बख्शी (१९२२ वि.), मदनेश (१९२४ वि.), मुंशी अजमेरी (१९३९ वि.), रामचरण हयारण 'मित्र' (१९४७ वि.), जीवनलाल वर्मा 'विद्रोही व भगवान सिंह गौड़ (१९७२ वि.), कन्हैयालाल 'कलश' (१९७६ वि.), भैयालाल व्यास (१९७७ वि.), वासुदेव प्रसाद खरे (१९७९ वि.), नर्मदाप्रसाद गुप्त ( १९८८ वि.) के क्रम में इस प्रबंध काव्य के रचयिता महाकवि मुरारीलाल खरे (१९८९ वि.) ने बुंदेली और हिंदी वांग्मय को अपनी विलक्षण काव्य प्रतिभा से समृद्ध किया है। वाल्मीकि रामायण का ७ भागों में हिंदी पद्यानुवाद, रामकथा संबंधी निबंध संग्रह यावत् स्थास्यन्ति महीतले, संक्षिप्त बुंदेली रामायण तथा रघुवंशम के हिंदी पद्यानुवाद, के पश्चात् बुंदेली में संक्षिप्त महाभारत 'कुरुक्षेत्र की बिथा कथा रचकर हिंदी-बुंदेली दोनों को समृद्ध है। भौतिकी के आचार्य डॉ. एम. एल. खरे भाषिक शुद्धता और कथा-क्रम के प्रति आग्रही हैं। वे छंद की वाचिक परंपरा के रचनाकार हैं। वार्णिक-मात्रिक छंदों मानकों का पालन करने के लिए कथ्य या कथा वस्तु से समझौता स्वीकार्य नहीं है। इसलिए उनका काव्य कथानक के साथ न्याय कर पाता है।
बुंदेली में वीर काव्य
विश्व की सभी प्रधान भाषाओँ में वीर काव्य लेखन की परंपरा रही है। रामनारायण दूगड़ 'रहस' या 'रहस्य' से तथा आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रो। ललिता प्रसाद सुकुल आदि 'रसायण' से रासो की उत्पत्ति मानते हैं। डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल कविराज श्यामदास आदि 'रहस्य - रहस्सो - रअस्सो - रासो' विकासक्रम के समर्थक हैं। मुंशी देवी प्रसाद के मत में बुंदेली में वीर काव्य को 'रासो' कहा जाता है। डॉ. ग्रियर्सन राज्यादेश से रासो उत्पत्ति मानते हैं। महामहोपाध्याय डॉ. हरप्रसाद शास्त्री रासा (क्रीड़ा या झगड़ा) को रासो का जनक बताते हैं। महामहोपाध्याय डॉ.गौरीशंकर हीराचंद ओझा संस्कृत 'रास' रासो की उत्पत्ति के पक्षधर हैं। बुंदेलखंड में 'हों लगे सास-बहू के राछरे' जैसी पक्तियाँ रासो का उद्भव राछरे से इंगित करती हैं। रासो में किसी वीर नायक का चरित्र, संघर्ष, जय-पराजय आदि गीतमय वर्णन होता है। रासो शोकांत (ट्रेजिक एंड) जान मानस में सफल होता है। जगनिक कृत आल्ह खंड, चंद बरदाई रचित पृथ्वीराज रासो, दलपति विजय कवि कृत खुमान रासो, नरपति नाल्ह द्वारा लिखित बीसलदेव रासो आदि अपने कथानायकों के शौर्य का अतिरेकी, अतिशयोक्तिपूर्ण अतिरंजित वर्णन। अवास्तविक भले ही हो श्रोताओं-पाठकों को मोहता है। जगनिक "एक को मारे दो मर जाँय, तीजा गिरे कुलाटी खाँय'' लिखकर इस परंपरा का बीजारोपण करते हैं। रासो काव्यों की ऐतिहासिकता भी प्रश्नों के घेरे में रही है।
संस्कृत काव्यशास्त्र में महाकाव्य (एपिक) का प्रथम सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य भामह ने प्रस्तुत किया है और परवर्ती आचार्यों में दंडी, रुद्रट तथा विश्वनाथ ने अपने अपने ढंग से इस महाकाव्य(एपिक)सूत्रबद्ध के लक्षण का विस्तार किया है। आचार्य विश्वनाथ का लक्षण निरूपण इस परंपरा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सार-संकलन के रूप में उपलब्ध है। महाकाव्य में भारत को भारतवर्ष अथवा भरत का देश कहा गया है तथा भारत निवासियों को भारती अथवा भरत की संतान कहा गया है ,
महाभारत रासो काव्यों के लक्षणों से युक्त महाकाव्य है। रासो की तरह नायकों की अतिरेकी शौर्य कथाएँ और वंश परिचय महाभारत में है। रासों से भिन्नता यह कि नायक कई हैं तथा नायकों के अवगुणों, पराजयों व पीड़ाओं का उल्लेख है। भिन्न-भिन्न प्रसंगों में उदात्त-वीर नायक बदलते हैं। एक सर्ग का नायक अन्य सर्ग में खलनायक की तरह दिखता है। इस दृष्टि से महाभारत रासो-का समुच्चय प्रतीत है।महाभारत की कथा चिर काल से सृजनधर्मियों का चित्त हरण करती रही है। अनेक रचनाकारों ने गद्य और पद्य दोनों में महाभारत की कथा के विविध आयाम उद्घाटित किये हैं। डॉ. मुरारीलाल खरे जी द्वारा रचित यह प्रबंध काव्य कृति रासो काव्य लक्षणों से यथास्थान अलंकृत है।
श्रव्य काव्य : प्रबंध काव्य और महाकाव्य
श्रव्य काव्य का लक्षण श्रवण में आनंद मिलना है। प्रबंध काव्य में श्रवयत्व और पाठ्यत्व दोनों गुण होते हैं।
प्रबंध का अर्थ है प्रबल रूप से बँधा हुआ। प्रबंध का प्रत्येक अंश अपने पूर्व और पर अंश के साथ निबध्द होता है। प्रबंध काव्य में कोई प्रमुख कथा काव्य के आदि से अंत तक क्रमबद्ध रूप में चलती है। कथा का क्रम बीच में कहीं नहीं टूटता और गौण कथाएँ बीच-बीच में सहायक बन कर आती हैं। प्रबंध काव्य के दो भेद होते हैं -
महाकाव्य
खण्डकाव्य
महाकाव्य में किसी ऐतिहासिक या पौराणिक महापुरुष की संपूर्ण जीवन कथा का आद्योपांत वर्णन होता है। खंडकाव्य में किसी की संपूर्ण जीवनकथा का वर्णन न होकर केवल जीवन के किसी एक ही भाग का वर्णन होता है। महाकाव्य अपने देश की जातीय और युगीन सभ्यता-संस्कृति के वाहक होते हैं। इनमें ऐतिहासिक घटनाओं के साथ मिथकों का अंतर्गुफन रहता है। इन महाकाव्यों के केन्द्र में युद्ध रहता है जो व्यक्तिगत तथा वंशगत सीमाओं से ऊपर उठकर जातीय युद्ध का रूप धारण कर लेता है। भारतीय महाकाव्यों में ये 'धर्मयुद्ध' के रूप में लड़े गए हैं। इलियड और ओडिसी में ये युद्ध मूलतः जातीय युद्ध हैं- धर्मयुद्ध नहीं। इसका कारण यह है कि यूनानी चिंतक भाग्यवादी रहा है किन्तु यहाँ भी धर्म की पराजय और अधर्म की विजय को मान्यता नहीं दी गई। रचनाबद्ध होने से पहले इनकी मूलवर्ती घटनाएं मौखिक परंपरा के रूप में रहती हैं। इसलिए सार्वजनिक प्रस्तुति के साथ किसी-न-किसी रूप में इनका प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष संबंध रहता है। इनकी शैली पर वाचन-शैली का प्रभाव अनिवार्यतः लक्षित होता है।
हिंदी में आल्ह खंड (जगनिक), पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई), पद्मावत (जायसी), रामचरित मानस (तुलसीदास), साकेत (मैथिलीशरण गुप्त), साकेत संत (बलदेव प्रसाद मिश्र), प्रियप्रवास (अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'), कृष्णायण (द्वारिकाप्रसाद मिश्र), कामायनी (जयशंकर प्रसाद), वैदेही वनवास (हरिऔध), सिद्धार्थ (अनूप शर्मा), हल्दीघाटी (श्यामनारायण नारायण पांडेय), कुरुक्षेत्र (दिनकर), आर्यावर्त (मोहन लाल महतो), नूरजहां (गुरुभक्त सिंह), गांधी पारायण (अंबिकाप्रसाद दिव्य), कैकेयी (इंदु सक्सेना), उत्तर रामायण तथा उत्तर भागवत (डॉ. किशोर काबरा), दधीचि (आचार्य भगवत दुबे), महिजा तथा रत्नजा (डॉ. सुशीला कपूर), वीरांगना दुर्गावती ( गोविंद प्रसाद तिवारी), विवेक श्री (श्रीकृष्ण सरल), मृत्युंजय मानव गणेश (डॉ. जगन्नाथ प्रसाद 'मिलिंद'), कुटिया का राजपुरुष (विश्वप्रकाश दीक्षित 'बटुक'), कुँअर सिंह (चंद्रशेखर मिश्र), उत्तर कथा (प्रतिभा सक्सेना), महामात्य, सूतपुत्र तथा कालजयी (दयाराम गुप्त 'पथिक'), दलितों का मसीहा (जयसिंह व्यथित), क्षत्राणी दुर्गावती (केशव सिंह दिखित), रणजीत राय (गोमतीप्रसाद विकल), स्वयं धरित्री ही थी (रमाकांत श्रीवास्तव), परे जय पराजय के (डॉ. रमेश कुमार बुधौलिआ), मानव (डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल'), महानायक वीरवर तात्या टोपे (वीरेंद्र अंशुमाली), दमयंती (नर्बदाप्रसाद गुप्त), महाराणा प्रताप व् आहुति (डॉ. बृजेश सिंह), राष्ट्र पुरुष नेताजी सुभाषचंद्र बोस (रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'), मांडवी एक विस्मृता (सरोज गौरिहार), शौर्य वंदन (रवींद्र नाथ तिवारी) आदि महाकाव्य के रत्नहार में 'हस्तिनापुर की बिथा कथा' एक दीप्तिमान रत्न की तरह विश्ववाणी हिंदी के रत्नागार की श्रीवृद्धि करेगा।
'हस्तिनापुर की बिथा कथा' महाभारत में वर्णित कौरव-पांडव संघर्ष केंद्रित होते हुए भी स्वतंत्र काव्य कृति है। हस्तिनापुर नायक है जिसकी व्यथा कारण कुरु कुलोत्पन्न धृतराष्ट्र पुत्र और पाण्डु पुत्र बने। वस्तुत: हस्तिनापुर मानव संस्कृति और मानव मूल्यों के अतिरेक का शिकार हुआ। आदर्शवादियों ने आत्मकेंद्रित होकर मूल्यों का मनमाना अर्थ लगाया और नीति पर चलते-चलते अनीति कर बैठे। स्वार्थ-संचालित जनों ने 'स्व' के लिए 'पर' ही नहीं 'सर्व' को भी नाश नहीं किया, बिन यह सोचे कि वे स्वयं नहीं बच सकेंगे। डॉ.खरे ने आरंभ में ही राजवंश में अंतर्व्याप्त द्वेष को द्वन्द का मूल कारण बताते हुए 'गेहूँ के साथ घुन पिसने' की तरह आर्यावर्त अर्थात आम जन का बिना किसी कारण विनाश होने का संकेत किया है।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्यावर्त गओ
घर में आग लगाई घर में बरत दिया की भड़की लौ
कौरव-पांडवों की द्वेषाग्नि और कुल की रक्षा हेतु राजकुमारों को दिलायी गयी शिक्षा और अस्त्र-शस्त्र ही कुल के विनाश में सहायक हुए।
दिव्य अस्त्र पाए ते जतन सें होवे खों कुल के रक्षक
नष्ट भये आपस में भिड़कें , बने बंधुअन के भक्षक
महाभारत के विस्तृत कथ्य को समेटते हुए मौलिकता की रक्षा करने के साथ-साथ पाठकीय अभिरुचि, आंचलिक बोली का वैशिष्ट्य, छांदस लयबद्धता और लालित्य बनाये रखने पञ्च निकषों पर खरी कृति जी रचना कर पाना खरे जी के ही बस की बात है।संस्कृत काव्य शास्त्र में भामह, डंडी, रुद्रट, विश्वनाथ आदि आचार्यों ने कथानक की ऐतिहासिकता, कथानक का अष्टसर्गीय अथवा अधिक विस्तार, कथानक का क्रमिक विकास, धीरोदात्त नायक, अंगी रस (श्रृंगार, वीर, शांत व् करुण में से एक), लोक कल्याण की प्राप्ति, छंद वैविध्य, भाषिक लालित्य आदि महाकाव्य के तत्व कहे हैं। अरस्तू के अनुसार महाकाव्य की भाषा प्रसन्नतादायी हो किंतु क्षुद्र (अशुद्ध) न हो। स्पेंसर महाकाव्य के लिए वैभव-गरिमा को आवश्यक मानते हैं। औदात्य और औदार्य, शौर्य और पराक्रम, श्रृंगार और विलास, त्याग और वैराग, गुण और दोष के पञ्च निकषों पर ' हस्तिनापुर की बिथा कथा' अपनी मिसाल आप है।
मौलिकता
महाकाव्य में मौलिकता का अपना महत्त्व है। खरे जी ने यत्र - तत्र पात्रों और घटनाओं पर अपनी ओर से गागर में सागर की तरह टिप्पणियाँ की हैं। द्रोणाचार्य के मनोविज्ञान पर दो पंक्तियाँ देखें -
द्रोण चाउतते उनकौ बेटा अर्जुन सें बड़केँ जानें
सो अर्जुन खों पौंचाउतते पानी ल्याबे के लाने
सत्यवती के पोतों में से विदुर में क्षत्रिय रक्त न होने के कारण स्वस्थ्य व योग्य होते हुए भी सिंहासन योग्य न माने जाने की तर्कसम्मत स्थापना खरे जी है। गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित महाभारत में भीष्म का लालन-पालन गंगा द्वारा करना वर्णित है जबकि खरे जी ने शांतनु द्वारा बताया है। अशिक्षित सत्यवती द्वारा उचित-अनुचित का विचार किये बिना, पुत्र वधुओं की सहमति के बिना वंश वृद्धि के मोह में बलात सन्तानोपत्ति हेतु विवश करना और उसका दुष्प्रभाव संतान पर होना विज्ञान सम्मत है।
गांधारी द्वारा अंधे पति की आँखें न बनकर खुद भी आँखों पर पट्टी बाँधकर नेत्रहीन होने के दुष्प्रभाव को भी इंगित किया गया है।
पतिब्रता धरम जानकेँ धरमसंगिनी तौ हो गइ
आँखें खुली राख के भोली अंधे की लठिया नइं भइ
आदर्श और पराक्रमी माने जाने वाले भीष्म धृतराष्ट्र को सम्राट बनाते समय यह नहीं सोच सके कि पदका का नशा चढ़ता है, उतरता नहीं -
धृतराष्ट्र को पुत्र जेठो अधिकार माँगहै गद्दी पै
जौ नइं सोचे भीष्म , बिचार कर सकोतो धीवर जी पै
बुंदेलखंड में दोहा प्रचलित है 'जब जैसी भबितब्यता, तब तैसी बने सहाय / आप न जावै ताहि पै, ताहि तहाँ लै जाए', तुलसीदास जी लिखते हैं 'होइहै सोही जो राम रचि राखा', खरे जी के अनुसार हैं हस्तिनापुर में भी 'भावी प्रबल' थी जिसे भीष्म नहीं जान या टाल सके-
सोचन लगे पितामह घर में इत्ते सूरबीर हैं जब
कोऊ दुस्मन कर नइं पाये ई राज पै आक्रमन अब
बे का जानतते जा शिक्षा मिली परस्पर लड़बे खों
अस्त्र - सस्त्र जे काम आउनें आपुस में मर मिटवे खों
धृतराष्ट्र के बुलाने पर पांडव दोबारा जुआं खेलने पहुँचे। कवि इस पर टिप्पणी करता है -
काका की आज्ञा को पालन मानत धरम युधिष्ठिर रए
एक बेर के जरे आग में हाँत जराउन फिर आ गए
ऐसी ही टिप्पणी गंधर्वराज से लड़-हार कर बंदी बने कौरवों को पांडवों द्वारा मुक्त कराये जाने के प्रसंग में भी है -
नीच सुभाव होत जिनकौ , ऐसान कौऊ कौ नइं मानत
बदी करत नेकी के बदलैं , होशयार खुद खों जानत
ऐसी टिप्पणियाँ कथा - प्रवाह में बाधक न होकर , पाठक के मन की बात व्यक्त कर उसे कथा से जोड़ने में सफल हुई हैं।
पांडवों के मामा शल्य उनकी सहायता हेतु आते हुए मार्ग दुर्योधन के कपट जाल में फँसकर उसके पक्ष में फिसल गए। यहाँ (अन्यत्र भी) कवि ने मुहावरे का सटीक प्रयोग किया है - ' बेपेंदी के लोटा घाईं लुड़क दूसरी तरफ गए ' ।
दिशा - दर्शन
महाकवि खरे जी ने यत्र - तत्र नीतिगत संकेत इस तरह किये हैं कि वे कथा - प्रवाह को अवरुद्ध किये बिना पाठकों और राष्ट्र नायकों को राह दिखा सकें -
' सत्यानास देस का भओ तो , नई बंस कौ भओ भलो '
संकेत स्पष्ट है कि देश को हानि पहुँचाकर खुद का भला नहीं किया जा सकता। ऐसे अनेक संकेत कृति को प्रासंगिक और उपादेय बनाते हैं।
जीवन में अव्यवहारिक, अस्वाभाविक निर्णय दुखद तथा विनाशकारी परिणाम देते हैं। आत्मगौरव को सर्वोच्च मानने और कुल अथवा समाज के हित को गौड़ मानने का परिणाम दुखद हुआ -
महात्याग से नाव भीष्म कौ जग में भौत बड़ो हो गओ
पर कुल की परंपरा टूटी , बीज अनीति कौ पर गओ
आगें जाकर अंकुर फूटे , बड़ अनीति विष बेल बनी
जीसें कुल में तनातनी भइ , भइयन बीच लड़ाई ठनी
रक्त शुद्धता न होने कारण सर्वथा योग्य विदुर की अवमानना , जाति के आधार पर एकलव्य और कर्ण के साथ अन्याय , अंबा , अंबिका , अंबालिका द्रौपदी आदि स्त्री रत्नों की अवहेलना , पुत्र मोह , ईर्ष्या , द्वेष अहंकार आदि यथास्थान यथोचित विवेचना कर खरे जी ने कृति को युगबोध, सामयिकता लोकोपयोगिता के निकष पर खरा रचा है।
कथाक्रम सुविदित होने कारण उत्सुकता और कौतुहल बनाये रखने की चुनौती को खरे ने स्वीकारा और जीता है। देश - काल की परिस्थितियों और चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में सर्पोवोपयोगी कृति का प्रणयन कर खरे जी ने हिंदी - बुंदेली रत्नागार को समृद्ध किया है। उनकी आगामी कृति की प्रतीक्षा पाठकों को रहेगी।
२३.१.२०२१
***

दोहा सलिला
*
हर संध्या संजीव हो, स्वप्नमयी हो रात।
आँख मिलाकर ज़िंदगी, करे प्रात से बात।।
*
मंजूषा मन की रहे, स्नेह-सलिल भरपूर।
द्वेष न कर पाए कभी, सजग रहें आघात।।
*
ऋतु बसंत की आ रही, झूम मंजरी शाख।
मधुरिम गीत सुना रही, दे कोयल को मात।।
*
जब-जब मन उन्मन हुआ, तुम ही आईं याद।
सफल साधना दे गई, सपनों की सौगात।।
*
तन्मय होकर रूप को, आराधा दिन-रैन।
तन तनहा ही रह गया. चुप अंतर्मन तात।।


२३.१.२०१९
***
नवगीत
सड़क पर
*
सड़क पर
सिसकती-घिसटती
हैं साँसें।
*
इज्जत की इज्जत
यहाँ कौन करता?
हल्ले के हाथों
सिसक मौन मरता।
झुठला दे सच,
अफसरी झूठ धाँसे।
*
जबरा यहाँ जो
वही जीतता है।
सच का घड़ा तो
सदा रीतता है।
शरीफों को लुच्चे
यहाँ रोज ठाँसें।
*
सौदा मतों का
बलवा कराता।
मज़हबपरस्तों
को, फतवा डराता।
सतत लोक को तंत्र
देता है झाँसे।
*
यहाँ गूँजते हैं
जुलूसों के नारे।
सपनों की कोशिश
नज़र हँस उतारे।
भोली को छलिए
बिछा जाल फाँसें।
*
विरासत यही तो
महाभारती है।
सत्ता ही सत को
रही तारती है
राजा के साथी
हुए हाय! पाँसे।
२०.१.२०१८
***
लघु कथा -
जैसे को तैसा
*
कत्ल के अपराध में आजीवन कारावास पाये अपराधी ने न्यायाधीश के सामने ही अपने पिता पर घातक हमला कर दिया। न्यायाधीश ने कारण पूछा तो उसने नाट्य की उसके अपराधी बनने के मूल में पिता का अंधा प्यार ही था। बचपन में मामा की शादी में उसने पिता के एक साथी की पिस्तौलसे ११ गोलियाँ चला दी थीं। पिता ने उसे डाँटने के स्थान पर जाँच करने आये पुलिस निरीक्षक को राजनैतिक पहुँच से रुकवा दिया तथा झूठा बयान दिलवा दिया की उसने खिलौनेवाली पिस्तौल चलायी थी। पहली गलती पर सजा मिल गयी होती तो वह बात-बात पर पिस्तौल का उपयोग करना नहीं सीखता और आज आजीवन कारावास नहीं पाता। पिता उसका अपराधी है जिसे दुनिया की कोई अदालत या कानून दोषी नहीं मानेगा इसलिए वह अपने अपराधी को दंडित कर संतुष्ट है, अदालत उसे एक जन्म के स्थान पर दो जन्म का कारावास दे दे तो भी उसे स्वीकार है।
२३.१.२०१६
***
मुक्तिका:
रात
( तैथिक जातीय पुनीत छंद ४-४-४-३, चरणान्त sssl)
.
चुपके-चुपके आयी रात
सुबह-शाम को भायी रात
झरना नदिया लहरें धार
घाट किनारे काई रात
शरतचंद्र की पूनो है
'मावस की परछाईं रात
आसमान की कंठ लंगोट
चाहे कह लो टाई रात
पर्वत जंगल धरती तंग
कोहरा-पाला लाई रात
वर चंदा तारे बारात
हँस करती कुडमाई रात
दिन है हल्ला-गुल्ला-शोर
गुमसुम चुप तनहाई रात
२३-१-२०१५
गीतः
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
सन्जीव
*
सुग्गा बोलो
जय सिया राम...
*
काने कौए कुर्सी को
पकड़ सयाने बन बैठे
भूल गये रुकना-झुकना
देख आईना हँस एँठे
खिसकी पाँव तले धरती
नाम हुआ बेहद बदनाम...
*
मोहन ने फिर व्यूह रचा
किया पार्थ ने शर-सन्धान
कौरव हुए धराशायी
जनगण सिद्‍ध हुआ मतिमान
खुश मत हो, सच याद रखो
जन-हित बिन होगे गुमनाम...
*
हर चूल्हे में आग जले
गौ-भिक्षुक रोटी पाये
सांझ-सकारे गली-गली
दाता की जय-जय गाये
मौका पाये काबलियत
मेहनत पाये अपना दाम...
*
१३-७-२०१४
छंद सलिला:
(अब तक प्रस्तुत छंद: अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्र वज्रा, उपेन्द्र वज्रा, कीर्ति, घनाक्षरी, छवि, दीप, दोधक, निधि, प्रेमा, माला, वाणी, शक्तिपूजा, शाला, सार, सुगति/शुभगति, सुजान, हंसी)
ग्यारह मात्रिक रौद्र छंद
ग्यारह मात्राओं से बननेवाले रौद्र छंद में विविध वर्णवृत्त संयोजन से १४४ प्रकार के छंद रचे जा सकते हैं.
अहीर छंद
अहीर ग्यारह मात्राओं का छंद है जिसके अंत में जगण (१२१) वर्ण वृत्त होता है.
उदाहरण:
१. सुर नर संत फ़क़ीर, कहें न कौन अहीर
आत्म ग्वाल तन धेनु, हो प्रयास मन-वेणु
प्रकृति-पुरुष कर संग, रचते सृष्टि अनंग
ग्यारह हों जब एक, पायें बुद्धि-विवेक
२. करे सतत निज काम, कर्ता मौन अनाम
'सलिल' दैव यदि वाम, रखना साहस थाम
सुबह दोपहर शाम, रचना रचें ललाम
कर्म करें अविराम, गहें सुखद परिणाम
३. पूजें ग्यारह रूद्र, मन में रखकर भक्ति
हो जल-बिंदु समुद्र, दे अनंत शुभ शक्ति
लघु-गुरु-लघु वर अंत, रचिए छंद अहीर
छंद कहे कवि-संत, जैसे बहे समीर
२३.१.२०१४
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गुरुवार, 26 सितंबर 2024

शिव, भव, तोमर, अहीर, दीप, निधि, गंग, वासव, सुगति, तांडव, छंद

 


छंदशाला १०
ताण्डव छंद
(अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव, भव तथा तोमर छंद)
विधान-
प्रति पद १२ मात्रा, पदादि-पदांत लघु।
लघु आदि-अंत ताण्डव।
बारह मात्रिक लाघव।
शिव नचें, शिवा अपलक।
मोहित देखें इकटक।।
उदाहरण
सरहद रखवाले हम।
अरि समझे हमें न कम।।
दिल दहले फेंको बम।
अरि-दल दल में हो मातम।।
करना मत तनिक रहम।
घर-घर में घूमे यम।।
निकले नहिं जब तक दम।
करना अरि-दल को कम।।
बिन रहम करो बेदम।
दनु हों धरती से कम।।
(काव्य रूप - हिंदी ग़ज़ल/मुक्तिका)
२५-९-२०२२
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छंदशाला ९
तोमर छंद
(अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर शिव तथा भव छंद)
विधान-
प्रति पद १२ मात्रा, पदांत गुरु लघु।
बारह कल रहें साथ।
तोमर में लिए हाथ।
गुरु लघु पद अंत मीत।
निभा सकें अटल प्रीत।।
उदाहरण
आल्हा तलवार थाम।
जूझ पड़ा बिन विराम।।
दुश्मन दल मुड़ा भाग।
प्राणों से हुआ राग।।
ऊदल ने लगा होड़।
जा पकड़ा बाँह तोड़।।
अरि भय से हुआ पीत।
चरण-शरण मुआ भीत।।
प्राणों की माँग भीख।
भागा पर मिली सीख।।
२५-९-२०२२
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छंदशाला ८
भव छंद
(अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप, अहीर तथा शिव छंद)
विधान-
प्रति पद ११ मात्रा, पदांत यगण।
भव का भय भुला रे।
यगण अंत लगा रे।।
ग्यारह कल जमाएँ।
कविता गुनगुनाएँ।।
उदाहरण-
अरि से डर न जाएँ।
भय से मर न जाएँ।।
बना न अब बहाना।
लगा सही निशाना।।
आँख मिला न पाए।
दुश्मन बच न पाए।।
शीश सदा उठाएँ।
मुट्ठियाँ लहराएँ।।
पताका फहराएँ।
जय के गीत गाएँ।।
२५-९-२०२२
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छंदशाला ७
शिव छंद
(अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग, निधि, दीप तथा अहीर छंद)
विधान-
प्रति पद ११ मात्रा, पदांत सरन।
एकादश शिव भज मन।
पद अंत रखो सरन।।
रख भक्ति पूज उमा।
माँ सदय करें क्षमा।।
उदाहरण-
नदी नर्मदा नहा।
श्रांति-क्लांति दे बहा।
धुआँधार घूम ले।
संग देख झूम ले।।
लहर-लहर मचलती।
नाच मीन फिसलती।।
ईश भक्ति तारती।
पूज करो आरती।।
गहो देव की शरण।
करो नेक आचरण।।
२५-९-२०२२
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छंदशाला ६
अहीर छंद
(अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग, निधि तथा दीप छंद)
विधान-
प्रति पद १२ मात्रा, पदांत जगण।
ग्यारह कला अहीर।
पद-अंत जगण सुधीर।।
रौद्र जातीय छंद।
रस गंग हो न मंद।।
उदाहरण-
भारत देश महान।
देव भूमि शुभ जान।।
नगपति हिमगिरि ताज।
जन हितमयी सुराज।।
जनगण धीर उदार।
पलता हर दिल प्यार।।
हैं अनेक पर एक।
जाग्रत रखें विवेक।।
देश हेतु बलिदान।
होते विहँस जवान।।
२५-९-२०२२
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छंदशाला ५
दीप छंद
(अब तक पठित छंद- सुगती, छवि, गंग तथा निधि छंद)
विधान-
प्रति पद दस मात्रा, पदांत नगण गुरु लघु।
बाल कर दस दीप।
रख प्रभु-पग महीप।।
नगण गुरु लघु साथ।
पद अंत नत माथ।।
उदाहरण-
हो पुलकित निशांत।
गगनपति रवि कांत।।
प्राची विहँस धन्य।
कहे नमन प्रणम्य।।
दें धरणि उजियार।
बाँट कण-कण प्यार।।
रच पुलक शुभ गीत।
हँसे कलम विनीत।।
कूक पिक हर शाम।
करे विनत प्रणाम।।
२५-९-२०२२
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छंदशाला ४
निधि छंद
(अब तक पठित छंद- सुगती, छवि तथा गंग छंद)
विधान-
प्रति पद नौ मात्रा, पदांत लघु।
निधि नौ न बिसार।
तुम लो न उधार।।
लघु अंत न भूल।
चुभ सके न शूल।।
उदाहरण-
जग सको उजार।
कुछ करो सुधार।।
हँस, भुला न नीत।
झट पाल न प्रीत।।
यदि कर उपकार।
मत समझ उधार।।
उठ उगा विहान।
मत मिटा निशान।।
बन फूल गुलाब।
अब छोड़ हिजाब।।
२५-९-२०२२
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छंदशाला ३
गंग छंद
(सुगती छंद तथा छवि छंद के बाद)
विधान-
प्रति पद नौ मात्रा, पदांत दो गुरु।
अंक नौ सीखो।
सफलतम दीखो।।
अंत गुरु दो हो।
गंग रच डोलो।।
उदाहरण-
सूरज उगाओ।
तम को मिटाओ।।
आलस्य छोड़ो।
नाहक न जोड़ो।।
रखो दोस्ताना।
करो न बहाना।।
सच मत बिसारो।
दुनिया सँवारो।।
पौधे लगाओ।
सींचो बढ़ाओ।।
२५-९-२०२२
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छंदशाला २
वासव जातीय, छवि छंद
विधान-
प्रति पद आठ मात्रा, पदांत जगण।
अठ वसु न भूल।
छवि सदृश फूल।।
रख जगण अंत।
रच छंद कंत।।
उदाहरण-
पुरखे अनाम।
पुरखों प्रणाम।।
तुम थे महान।
हम हों महान।।
कर काम चाम।
हो कीर्ति-नाम।।
तन तज न राग।
मन वर विराग।।
जप ईश-नाम।
चुप सुबह-शाम।।
२५-९-२०२२
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छंदशाला १
लौकिक जातीय, सुगती छंद
विधान-
प्रति पद सात मात्रा, पदांत गुरु।
उदाहरण-
सत लोक है।
सुख-शोक है।।
धीरज धरो।
साहस वरो।।
कुछ काम हो।
कुछ नाम हो।।
कुछ नित पढ़ो।
कुछ नित लिखो।।
जीवन खिले।
सुगती मिले।।
२५-९-२०२२
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