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मंगलवार, 8 मई 2012

दोहा सलिला: अमलतास है धन्य... --संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:
अमलतास है धन्य...
संजीव 'सलिल'
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चटक धूप सह खिल रहा, अमलतास है धन्य.
गही पलाशी विरासत, सुमन न ऐसा अन्य..
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मौन मौलश्री संत सम, शांत लगाये ध्यान.
भीतर जो घटता निरख, सत-शिव-सुंदर जान..
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देवदारु पछता रहा, बनकर भू पर भार.
भू जल पी मरुथल बना, जीवन जी निस्सार..
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ऊँचा पेड़ खजूर का, एकाकी बिन बाँह.
श्रमित पथिक अकुला रहा, मिली  न तिल भार छाँह..
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आम्र बौर की पालकी, शहनाई है कूक.
अंतर में ऋतुराज के, प्रकृति मिलन की हूक..
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कदली पत्रों से सजा, मंडप-बंदनवार.
कचनारी वधु ने किया, केसर-धवल सिंगार..
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पवन झंकोरे झुलाते झूला, गाकर छंद.
प्रेम पींग जितना बढ़े, उतना ही आनंद..
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शिशु रवि प्राची से रहा, अपलक रूठ निहार.
धरती माँ ने गोद से, नाहक दिया उतार..
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जनक गगन के गाल पर, मलती उषा गुलाल.
लाड़ लड़ाती लडैती, जननी धरा निहाल..
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चहक-चहक पंछी करें, कलरव चारों ओर.
पर्ण डाल पर झूमते होकर भाव-विभोर..
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शैशव हँसता गोद में, बचपन करे किलोल.
गति किशोर, मति जवानी, प्रौढ़ शांति का ढोल..
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com