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शनिवार, 30 मार्च 2019

कृति चर्चा: मुक्त उड़ान: कुमार गौरव अजितेंदु

कृति चर्चा:
मुक्त उड़ान: कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु और सम्भावनाओं की आहट  
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[पुस्तक विवरण: मुक्त उड़ान, हाइकु संग्रह, कुमार गौरव अजितेंदु, आईएसबीएन ९७८-८१-९२५९४६-८-२ प्रथम संस्करण २०१४, पृष्ठ १०८, मूल्य १००रु., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, शुक्तिका प्रकाशन ५०८ मार्किट कॉम्प्लेक्स, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३, हाइकुकार संपर्क शाहपुर, ठाकुरबाड़ी मोड़, दाउदपुर, दानापुर कैंट, पटना ८०१५०२ चलभाष ९६३१६५५१२९]
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विश्ववाणी हिंदी का छंदकोष इतना समृद्ध और विविधतापूर्ण है कि अन्य कोई भी भाषा उससे होड़ नहीं ले सकती। देवभाषा संस्कृत से प्राप्त छांदस विरासत को हिंदी ने न केवल बचाया-बढ़ाया अपितु अन्य भाषाओँ को छंदों का उपहार (उर्दू को बहरें/रुक्न) दिया और अन्य भाषाओं से छंद ग्रहण कर (पंजाबी से माहिया, अवधी से कजरी, बुंदेली से राई-बम्बुलिया, मराठी से लावणी, अंग्रेजी से आद्याक्षरी छंद, सोनेट, कपलेट, जापानी से हाइकु, बांका, तांका, स्नैर्यू आदि) उन्हें भारतीयता के ढाँचे और हिंदी के साँचे ढालकर अपना लिया।

द्विपदिक (द्विपदी, दोहा, रोला, सोरठा, दोसुखने आदि) तथा त्रिपदिक छंदों (कुकुभ, गायत्री, सलासी, माहिया, टप्पा, बंबुलियाँ आदि) की परंपरा संस्कृत व अन्य भारतीय भाषाओं में चिरकाल से रही है।  एकाधिक भाषाओँ के जानकार कवियों ने संस्कृत के साथ पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोकभाषाओं में भी इन छंदों का प्रयोग किया। विदेशों से लघ्वाकारी काव्य विधाओं में ३ पंक्ति के छंद (हाइकु, वाका, तांका, स्नैर्यू आदि) भारतीय भाषाओँ में विकसित हुए।
हिंदी में हाइकु का विकास स्वतंत्र वर्णिक छंद के साथ हाइकु-गीत, हाइकु-मुक्तिका, हाइकु खंड काव्य के रूप में भी हुआ है। वस्तुतः हाइकु ५-७-५ वर्णों नहीं, ध्वनि-घटकों (सिलेबल) से निर्मित है जिसे हिंदी भाषा में 'वर्ण' कहा जाता है।
कैनेथ यशुदा के अनुसार हाइकु का विकासक्रम 'रेंगा' से 'हाइकाइ' फिर 'होक्कु' और अंत में 'हाइकु' है। भारत में कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपनी जापान यात्रा के पश्चात् 'जापान यात्री' में चोका, सदोका आदि शीर्षकों से जापानी छंदों के अनुवाद देकर वर्तमान 'हाइकु' के लिये द्वार खोला। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् लौटे अमरीकियों-अंग्रेजों के साथ हाइकु का अंग्रेजीकरण हुआ। छंद-शिल्प की दृष्टि से हाइकु त्रिपदिक, ५-७-५ में १७ अक्षरीय वर्णिक छंद है। उसे जापानी छंद तांका / वाका की प्रथम ३ पंक्तियाँ भी कहा गया है। जापानी समीक्षक कोजी कावामोटो के अनुसार कथ्य की दृष्टि से तांका, वाका या रेंगा से उत्पन्न हाइकु 'वाका' (दरबारी काव्य) के रूढ़, कड़े तथा आम जन-भावनाओं से दूर विषय-चयन (ऋतु परिवर्तन, प्रेम, शोक, यात्रा आदि से उपजा एकाकीपन), शब्द-साम्य को महत्व दिये जाने तथा स्थानीय-देशज शब्दों का करने की प्रवृत्ति के विरोध में 'हाइकाइ' (हास्यपरक पद्य) के रूप में आरंभ हुआ जिसे बाशो ने गहनता, विस्तार व ऊँचाइयाँ हास्य कविता को 'सैंर्यु' नाम से पृथक पहचान दी। बाशो के अनुसार संसार का कोई भी विषय हाइकु का विषय हो सकता है।
शुद्ध हाइकु रच पाना हर कवि के वश की बात नहीं है। यह सूत्र काव्य की तरह कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्त करने की काव्य-साधना है। ३ अन्य जापानी छंदों तांका (५-७-५-७-७), सेदोका (५-७-७-५-७-७) तथा चोका (५-७, ५-७ पंक्तिसंख्या अनिश्चित) में भी ५-७-५ ध्वनिघटकों का संयोजन है किन्तु उनके आकारों में अंतर है।
छंद संवेदनाओं की प्रस्तुति का वाहक / माध्यम होता है। कवि को अपने वस्त्रों की तरह रचना के छंद-चयन की स्वतंत्रता होती है। हिंदी की छांदस विरासत को न केवल ग्रहण अपितु अधिक समृद्ध कर रहे हस्ताक्षरों में से एक कुमार गौरव अजितेंदु के हाइकु इस त्रिपदिक छंद के ५-७-५ वर्णिक रूप की रुक्ष प्रस्तुति मात्र नहीं हैं, वे मूल जापानी छंद का हिंदीकरण भी नहीं हैं, वे अपने परिवेश के प्रति सजग तरुण-कवि मन में उत्पन्न विचार तरंगों के आरोह-अवरोह की छंदानुशासन में बँधी-कसी प्रस्तुति हैं।
अजीतेंदु के हाइकु व्यक्ति, देश, समाज, काल के मध्य विचार-सेतु बनाते हैं। छंद की सीमा और कवि की अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का ताल-मेल भावों और कथ्य के प्रस्तुतीकरण को सहज-सरस बनाता है। शिल्प की दृष्टि से अजीतेंदु ने ५-७-५ वर्णों का ढाँचा अपनाया है। जापानी में यह ढाँचा (फ्रेम) सामने तो है किन्तु अनिवार्य नहीं। बाशो ने १९ व २२ तथा उनके शिष्यों किकाकु ने २१, बुशोन ने २४ ध्वनि घटकों के हाइकु रचे हैं। जापानी भाषा पॉलीसिलेबिक है। इसकी दो ध्वनिमूलक लिपियाँ 'हीरागाना' तथा 'काताकाना' हैं। जापानी भाषा में चीनी भावाक्षरों का विशिष्ट अर्थ व महत्व है। हिंदी में हाइकु रचते समय हिंदी की भाषिक प्रकृति तथा शब्दों के भारतीय परिवेश में विशिष्ट अर्थ प्रयुक्त किये जाना सर्वथा उपयुक्त है। सामान्यतः ५-७-५ वर्ण-बंधन को मानने
अजितेन्दु के हाइकु प्राकृतिक सुषमा और मानवीय ममता के मनोरम चित्र प्रस्तुत करते हैं। इनमें सामयिक विसंगतियों के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति है। ये पाठक को तृप्त न कर आगे पढ़ने की प्यास जगाते हैं। आप पायेंगे कि इन हाइकुओं में बहुत कुछ अनकहा है किन्तु जो-जितना कहा गया है वह अनकहे की ओर आपके चिंतन को ले जाता है। इनमें प्राकृतिक सौंदर्य- रात झरोखा / चंद्र खड़ा निहारे / तारों के दीप, पारिस्थितिक वैषम्य- जिम्मेदारियाँ / अपनी आकांक्षाएँ / कशमकश, तरुणोचित आक्रोश- बन चुके हैं / दिल में जमे आँसू / खौलता लावा, कैशोर्य की जिज्ञासा- जीवन-अर्थ / साँस-साँस का प्रश्न / क्या दूँ जवाब, युवकोचित परिवर्तन की आकांक्षा- लगे जो प्यास / माँगो न कहीं पानी / खोद लो कुँआ, गौरैया जैसे निरीह प्राणी के प्रति संवेदना- विषैली हवा / मोबाइल टावर / गौरैया लुप्त, राष्ट्रीय एकता- गाँव अग्रज / शहर छोटे भाई / बेटे देश के, राजनीति के प्रति क्षोभ- गिद्धों ने माँगी / चूहों की स्वतंत्रता / खुद के लिए, आस्था के स्वर- धुंध छँटेगी / मौसम बदलेगा / भरोसा रखो, आत्म-निरीक्षण, आव्हान- उठा लो शस्त्र / धर्मयुद्ध प्रारंभ / है निर्णायक, पर्यावरण प्रदूषण- रोक लेता है / कारखाने का धुँआ / साँसों का रास्ता, विदेशी हस्तक्षेप - देसी चोले में / विदेशी षडयंत्र / घुसे निर्भीक, निर्दोष बचपन- सहेजे हुए / मेरे बचपन को / मेरा ये गाँव, विडम्बना- सूखा जो पेड़ /जड़ों की थी साजिश / पत्तों का दोष, मानवीय निष्ठुरता- कौओं से बचा / इंसानों ने उजाड़ा / मैना का नीड़ अर्थात जीवन के अधिकांश क्षेत्रों से जुड़ी अभिव्यक्तियाँ हैं।
अजितेन्दु के हाइकु भारतीय परिवेश और समाज की समस्याओं, भावनाओं व चिंतन का प्रतिनिधित्व करते हैं. इनमें प्रयुक्त बिंब, प्रतीक और शब्द सामान्य जन के लिये सहज ग्रहणीय हैं। इन हाइकुओं के भाषा सटीक-शुद्ध है। अजितेन्दु का यह प्रथम हाइकु संकलन उनके आगामी रचनाकर्म के प्रति आश्वस्त करता है।
३०.३.२०१४ 
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लेखक: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
salil.sanjiv@gmail.com, ७९९९५५९६१८   

गुरुवार, 28 जून 2018

साहित्य त्रिवेणी २४. मगही लोकगीत: कुमार गौरव

२४. मगही लोक गीतों में छंद-छटा
कुमार गौरव अजितेंदु
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परिचय: नवोदित कवि, प्रकाशित: मुक्त उड़ान हाइकु संग्रह, संपर्क: द्वारा: श्री नवेंदु भूषण कुमार, शाहपुर, ठाकुरबाड़ी मोड़ के पास, पोस्ट दाउदपुर, दानापुर कैंट, पटना ८०१५०२ बिहार, चलभाष ९६३१६५५१२९।
छंद अर्थात अनुशासन और अनुशासन के बिना समस्त ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं है। यह सकल सृष्टि जगत ही छांदसिक है। कोई लाख छंदमुक्त होना चाहे, हो ही नहीं सकता। कब, कैसे और कहाँ छंद उसे अपने अंदर ले लेंगे या उसके अन्दर समाहित हो जाएँगे, उसे खुद ही पता नहीं चलेगा। छंदबद्ध रचनाओं का इतिहास हमारी गौरवशाली परंपरा का एक महत्वपूर्ण अंग है। धार्मिक से लेकर लौकिक साहित्य तक, छंदों ने अपनी गरिमामय उपस्थिति दर्ज कराई है। लोकगीत, स्थानीय भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति करते हैं। उनके रचयिता उनको किसी दायरे में बँधकर नहीं लिखते परंतु छंदों की सर्वव्यापकता के कारण ऐसा हो नहीं पाता। बिहार की प्राचीन लोक भाषाओँ में मगही का महत्वपूर्ण स्थान है। देश की अन्य लोकभाषाओँ की तरह मगही में भी लोकगीतों की एक समृद्ध परंपरा है। इन गीतों को यदि हम छंदों की कसौटी पर परखें तो विविध छंदों के सुंदर दृश्य सामने आते हैं:
कत दिन मधुपुर जायब, कत दिन आयब हे। / ए राजा, कत दिन मधुपुर छायब, मोहिं के बिसरायब हे॥
छव महीना मधुपुर जायब, बरिस दिन आयब हे। / धनियाँ, बारह बरिस मधुपुर छायब, तोहं नहिं बिसरायब हे॥
बारहे बरिस पर राजा लउटे दुअरा बीचे गनि ढारे हे। / ए ललना, चेरिया बोलाइ भेद पूछे, धनि मोर कवन रँग हे॥
तोर धनि हँथवा के फरहर,, मुँहवा के लायक हे। / ए राजा, पढ़ल पंडित केर धियवा, तीनों कुल रखलन हे॥
उहवाँ से गनिया उठवलन, अँगना बीचे गनि ढारे हे। / ए ललना, अम्माँ बोलाइ भेद पुछलन, कवन रँग धनि मोरा हे॥
तोर धनि हँथवा के फरहर, मुँहवा के लायक हे।
इसकी पंक्तियों में "सुखदा छंद" जो कि १२-१० मात्राओं पर यति, अंत गुरु की झलक स्पष्ट है। इसी प्रकार
देखि-देखि मुँह पियरायल, चेरिया बिलखि पूछे हे। / रानी, कहहु तूँ रोगवा के कारन, काहे मुँह झामर हे॥
का कहुँ गे चेरिया, का कहुँ, कहलो न जा हकइ हे। / चेरिया, लाज गरान के बतिया, तूँ चतुर सुजान हहीं गे॥
लहसि के चललइ त चेरिया, त चली भेलइ झमिझमि हे। / चेरिया, जाइ पहुँचल दरबार, जहाँ रे नौबत बाजहइ हे॥
सुनि के खबरिया सोहामन अउरो मनभावन हे।/ नंद जी उठलन सभा सयँ भुइयाँ न पग परे हे॥
जाहाँ ताहाँ भेजलन धामन, सभ के बोलावन हे। / केहु लयलन पंडित बोलाय, केहु रे लयलन डगरिन हे॥
पंडित बइठलन पीढ़ा चढ़ि, मन में विचारऽ करथ हे। / राजा, जलम लेतन नंदलाल जगतर के पालन हे॥
जसोदाजी बिकल सउरिया, पलक धीर धारहु हे। जलम लीहल तिरभुवन नाथ, महल उठे सोहर हे॥
यह गीत विद्या छंद के १४-१४ मात्राओं का अनुपालन करता है। एक तिलक गीत देखिए:
सभवा बइठले रउरा बाबू हो कवन बाबू। / कहवाँ से अइले पंडितवा, चउका सभ घेरि ले ले॥
दमड़ी दोकड़ा के पान-कसइली। / बाबू लछ रुपइया के दुलहा, बराम्हन भँडुआ ठगि ले ले॥
बाबू, लछ रुपइया के दुलहा, ससुर भँडुआ ठगि ले ले॥
इसकी लय कुकुभ छंद (३० मात्रिक, यति १६-१४) के बेहद निकट है। अंत में दो गुरु भी प्रतिष्ठित हैं।
मगही लोक गीत जीवन के हर क्षेत्र (सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक आदि) के क्रिया-कलापों से जुड़े हैं। विस्मय यह है कि अधिकाँश लोकगीत अल्प शिक्षित या अशिक्षित लोक कवियों द्वारा रचे जाने के बाद भी उनमें छंदों के मूल विधान का पालन किया गया है। मात्रा या वर्ण गणना के स्थान पर ध्वनिखंड के आधार पर परिक्षण किया जाए तो ये लोकगीत छांदस परंपरा में रचे गए हैं। स्थानीय उच्चारण भेद के कारण वर्ण या मात्रा गणना में यत्किंचित भिन्नता सहज स्वीकार्य होनी चाहिए।
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रुनुक झुनुक बिछिया[1] बाजल, पिया पलँग पर हे।
ललना, पहरि कुसुम रँग चीर, पाँचो रँग अभरन[2] हे॥1॥
जुगवा खेलइते तोंहे देवरा त, सुनहऽ बचन मोरा हे।
देवरा, भइयाजी के जलदी बोलावऽ, हम दरदे बेयाकुल हे॥2॥
जुगवा खेलइते तोंहे भइया त, सुनहऽ बचन मोरा हे।
भइया, तोर धनि दरद बेयाकुल, तोरा के बोलावथु[3] हे॥3॥
डाँर[4] मोर फाटहे करइली जाके, ओटिया चिल्हकि मारे हे।
पसवा त गिरलइ बेल तर, अउरो बबूर तर हे।
ललना, धाइ के पइसल गजओबर, कहु धनि कूसल हे॥4॥
हथिया खोलले हथिसरवा, त घोड़े घोड़सार खोलल हे।
राजा, का कहूँ दिलवा के बात, धरती मोर अन्हार लागे हे॥5॥
घोड़ा पीठे होबऽ असवार त डगरिन[5] बोलवहु हे॥6॥
कउन साही[7] के हहु तोही बेटवा, कतेक[8] राते आयल हे॥8॥
राजा, घोड़े पीठ भेलन असवार, त डगरिन बोलावन हे॥7॥
के मोरा खोले हे केवड़िया त टाटी फुरकावय[6] हे।
हम तोरा खोलऽ ही केवड़िया त टाटी फुरकावहि हे।
किया तोरा हथु गिरिथाइन[13] कते राते आयल हे॥10॥
डगरिन, दुलरइता[9] साही के हम हीअइ बेटवा, एते राते आयल हे॥9॥
किया तोरा माय से मउसी[10] सगर[11] पितियाइन[12] हे।
न मोरा माय से मउसी, न सगर पितिआइन हे।
डगरिन, हथिन मोर घर गिरिथाइन एते राते आयल हे॥11॥
डगरिन, जब मोरा होयतो त बेटवा, त कान दुनु सोना देबो हे।
हथिया पर हम नहीं जायब, घोड़े गिरि जायब हे।
लेइ आबऽ रानी सुखपालक,[14] ओहि रे चढ़ि जायब हे॥12॥
जवे तोरा होयतो त बेटवा, किए देबऽ दान दछिना हे।
जबे तोरा होयतो लछमिनियाँ, त कहि के सुनावह हे॥13॥
काहेला डगरिन रोस करे, काहेला बिरोध करे हे।
डगरिन, जब होयत मोरा लछमिनियाँ, पटोर[15] पहिरायब हे॥14॥
सोने के सुखपालकी चढ़ल डगरिन आयल हे।
डगरिन बोलले गरभ सयँ, सुनु राजा दसरथ ए॥15॥
राजा, तोर धनि हथवा के साँकर,[16] मुहँवा के फूहर हे।
नहीं जानथू[17] दुनियाँ के रीत, दान कइसे हम लेबो हे॥16॥
जुग-जुग जियो तोर होरिलवा, लबटि अँगना आयब हे॥18॥
डगरिन हम देबो अजोधेया के राज, लहसि[18] घर जयबऽ हे॥17
इयरी पियरी पेन्हले डगरिन, लहसि घर लउटल हे।

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

purowak: thame haath mashaal- ajitendu kee kudaliyaa -sanjiv

थामे हाथ मशाल : अजीतेंदु की कुण्डलियाँ 

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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हाथ मशाल थाम ले तो तिमिर का अंत हो-न हो उसे चुनौती तो मिलती ही है। तरुण कवि कुमार गौरव अजितेंदु हिंदी कविता में सत-शिव-सुंदर की प्रतिष्ठा की चाह रखनेवाले कलमकारों की श्रृंखला की नयी कड़ी बनने की दिशा में प्रयासरत हैं। तरुणाई को परिवर्तन का पक्षधर होना ही चाहिए। परिवर्तन के लिये विसंगतियों को न केवल देखना-पहचानना जरूरी है अपितु उनके सम्यक निराकरण की सोच भी अपरिहार्य है तभी सत-चित-आनंद की प्रतीति संभव है।

काव्य को शब्द-अर्थ का उचित मेल ('शब्दार्थो सहितो काव्यम्' -भामह), अलंकार (मेधाविरुद्र तथा दण्डी, काव्यादर्श), रसवत अलंकार (रुद्रट व उद्भट भट्ट), रीति (रीतिरात्मा काव्यस्य -वामन, काव्यालंकार सूत्र), रस-ध्वनि (आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक), चारुत्व (लोचन),  सुंदर अर्थ ('रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' -जगन्नाथ), वक्रोक्ति (कुंतल), औचित्य (क्षेमेंद्र), रसानुभूति ('वाक्यम् रसात्मकं काव्यम्'- विश्वनाथ, साहित्य दर्पण), रमणीयार्थ (जगन्नाथ, रस गंगाधर), लोकोत्तर आनंद ('लोकोत्तरानन्ददाता प्रबंधः काव्यानाम् यातु' -अंबिकादत्त व्यास),  जीवन की अनुभूति (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल -कविता क्या है निबंध), सत्य की अनुभूति (जयशंकर प्रसाद), कवि की विशेष भावनाओं का चित्रण (महीयसी महादेवी वर्मा) कहकर परिभाषित किया गया है। वर्तमान काव्य-धारा का प्रमुख लक्षण विसंगति-संकेत अजितेंदु  के काव्य में में अन्तर्निहित है। 

छंद एक ध्वनि समष्टि है। 'छद' धातु से बने छन्दस् शब्द का धातुगत व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है- 'जो अपनी इच्छा से चलता है'। 'छंद' शब्द के मूल में गति का भाव है। छंद पद्य रचना का चिरकालिक मानक या मापदंड है। आचार्य पिंगल नाग रचित 'छंदशास्त्र' इस विधा का मूल ग्रन्थ है। उन्हीं के नाम पर छंदशास्त्र को पिंगल कहा गया है काव्य रचना में प्रयुक्त छोटी-छोटी अथवा छोटी-बड़ी ध्वनियाँ एक निश्चित व्यवस्था (मात्रा या वर्ण संख्या, क्रम, विराम, गति, लय तथा तुक आदि  विशिष्ट नियमों) के अंतर्गत व्यवस्थित होकर  छंद या वृत्त बनती है। सर्वप्रथम ऋग्वेद में छंद का उल्लेख मिलता हैवेद-सूक्त भी छंदबद्ध हैं गद्य की कसौटी व्याकरण है तो पद्य की कसौटी पिंगल है। हिंदी कविता की छांदस परंपरा का वरणकर अजितेंदु ऋग्वेद से आरंभ सृजनधारा से जुड़ जाते हैं। सतत साधना के बिना कविता में छंद योजना को साकार नहीं किया जा सकता। 

काव्य में छंद का महत्त्व सौंदर्यबोधवर्धक, भावना-उत्प्रेरक, स्थायित्वकारक, सरस तथा शीघ्र स्मरण योग्य होने के कारण है।

छंद के अंग गति (कथ्य का बहाव), यति ( पाठ के बीच में विरामस्थल), तुक (समान उच्चारणवाले शब्द), मात्रा (वर्ण के उच्चारण में लगा समय, २ प्रकार लघु व गुरु या ह्रस्व, मान १ व २, संकेत। व ) तथा गण (मात्रा व वर्ण गणना की सुविधा हेतु ३ वर्णों  की इकाई) हैं। ८ गणों (यगण ऽऽ , मगण ऽऽऽ, तगण ऽऽ, रगण , जगण , भगण ।।, नगण ।।।, सगण ।।ऽ) का सूत्र 'यमाताराजभानसलगा' है। प्रथम ८ अक्षरों में हर अक्षर से बनने वाले गण का मान अगले दो अक्षरों सहित मात्राभार लिखने पर स्वयमेव आ जाता है। अंतिम २ अक्षर 'ल' व 'ग' लघु/गुरु के संकेत हैं। छंदारंभ में दग्धाक्षरों (झ, ह, र, भ, ष) का प्रयोग देव व गुरुवाची काव्य के अलावा वर्जित मान्य है 

छंद के मुख्य प्रकार वैदिक (गायत्री, अनुष्टुप, त्रिष्टुप, जगती आदि), मात्रिक (मात्रा संख्या निश्चित यथा दोहा, रोला, चौपाई आदि), वर्णिक (वर्ण गणना पर आधारित यथा वसुमती, मालती, तोमर, आदि),  तालीय (लय पर आधारित यथा त्रिकलवर्तिनी आदि) तथा मुक्तछंद (स्वच्छंद गति, भावपूर्ण यति) हैं। मात्रिक छंदों के उपप्रकार दण्डक (३२ मात्राओं से अधिक के छंद यथा मदनहारी, हरिप्रिया आदि), सवैया (१६ वीं मात्रा पर यति यथा सुगत, सार, मत्त आदि), सम (चारों चरण समान यथा चौपाई आदि), अर्ध सम (विषम चरण समान, सम चरण भिन्न समान यथा दोहा आदि), विषम (चरणों में  यथा आर्या आदि), संयुक्त छंद (दो छंदों को मिलाकर बने छंद यथा कुण्डलिया, छप्पय आदि) हैं। 

मात्रिक छंद कुण्डलिया हिंदी के सर्वाधिक लोकप्रिय छंदों में से एक है। दोहा तथा रोला के सम्मिलन से बने छंद को सर्वप्रथम  द्विभंगी (कवि दर्पण) कहा गया। तेरहवीं सदी में अपभ्रंश के कवि जज्जल ने कुण्डलिया का प्रयोग किया। आरम्भ में दोहा-रोला तथा रोला-दोहा दोनों प्रकार के कुण्डलिया छंद 'द्विभंगी' कहे गये। 

दोहा छंद जि पढ़मपढ़ि, कब्बर अद्धु निरुत 
तं कुण्डलिया बुह मुड़हु, उल्लालइ संजुत   - छंद्कोश पद्य ३१ (प्राकृत पैंगलम् १/१४६)

यहाँ 'उल्लाला' शब्द का अर्थ 'उल्लाला छंद' नहीं रोला के पद के दुहराव से है. आशय यह कि दोहा तथा रोला को संयुक्त कर बने  छंद को कुण्डलिया समझो। राजशेखर ने कुण्डलिया में पहले रोला तथा बाद में दोहा का प्रयोग कर प्रगाथ छंद कुण्डलिया रचा है:


किरि ससि बिंब कपोल, कन्नहि डोल फुरंता 

नासा वंसा गरुड़ - चंचु दाड़िमफल दंता 
अहर पवाल तिरेह, कंठु राजल सर रूडउ 
जाणु वीणु रणरणइ, जाणु कोइलटहकडलउ
सरल तरल भुववल्लरिय, सिहण पीण घण तुंग 
उदरदेसि लंकाउलिय, सोहइ तिवल तरंगु   

अपभ्रंश साहित्य में १६ पद (पंक्ति) तक के प्रगाथ छंद हैं अपभ्रंश में इस छंद के प्रथम शब्द / शब्द समूह से छंद का अंत करने, दोहे की अंतिम पंक्ति के उत्तरार्ध को रोला की प्रथम पंक्ति का पूर्वार्ध रखने तथा रोला की दूसरी व तीसरी पंक्ति का पूर्वार्ध समान रखा गया है कालांतर में दोहा-रोला क्रम तथा ६ पंक्तियों का नियम बना तथा कुण्डलिया नामकरण हुआ छंदकोष और प्राकृत पैंगलम् में कुण्डलिया छंद है। आचार्य केशवदास ने भी कहीं - कहीं अपभ्रंश मानकों का पालन किया है। देखें:  


टूटै टूटनहार तरु, वायुहिं दीजत दोष 

त्यौं अब हर के धनुष को, हम पर कीजत रोष
हम पर कीजत रोष, कालगति जानि न जाई 
होनहार ह्वै रहै, मिटै मेटी न मिटाई 
होनहार ह्वै रहै, मोद मद सबको टूटै 
होय तिनूका बज्र, ज्र तिनुका हवाई टूटै   

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने दोहे के प्रथम चरण को सोरठे की तरह उलटकर कुण्डलिया के अंत में प्रयोग किया है: 


सोहत ओढ़े पीत पट, स्याम सलोने गात 

मनो नील मनि सैल पर, आतप परयो प्रभात 
आतप परयो प्रभात, किधौं बिजुरी घन लपटी 
जरद चमेली तरु तमाल में सोभित सपटी 
पिया रूप अनुरूप, जानि हरिचंद विमोहत 
                        स्याम सलोने गात, पीत पट ओढ़े सोहत     -सतसई श्रृंगार 

गिरधर कवि की नीतिपरक कुण्डलियाँ हिंदी साहित्य की धरोहर हैं। उनकी समर्थ लेखनी ने इस छंद को अमरता तथा वैविध्यता दी है.  


दौलत पाय न कीजिये, सपनेहूँ अभिमान। 

चंचल जल दिन चारिको, ठाऊँ न रहत निदान।। 
ठाँऊ न रहत निदान, जियत जग में जस लीजै। 
मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।। 
कह 'गिरिधर कविराय' अरे यह सब घट तौलत। 
पाहुन निसि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।।   

वर्तमान कुण्डलिया की पहली दो पंक्तियाँ दोहा (२ x १३-११ ) तथा शेष ४ पंक्तियाँ रोला (४ x ११-१३) होती हैं। दोहा का अंतिम चरण रोला का प्रथम चरण होता है तथा दोहा के आरम्भ का शब्द, शब्दांश या शब्द समूह कुंडली के अंत में दोहराया जाता है२४ मात्रा की ६ पंक्तियाँ होने के कारण कुण्डलिया १४४ मात्रिक षट्पदिक छंद है। वर्तमान में कुण्डलिया से साम्य रखनेवाले अन्य छंद कुण्डल (२२ मात्रिक, १२-१० पर यति, अंत दो गुरु), कुंडली (२१ मात्रिक, यति ११-१०, चरणान्त दो गुरु), अमृत कुंडली (षटपदिक प्रगाथ छंद. पहले ४ पंक्ति त्रिलोकी बाद में २ पंक्ति हरिगीतिका), कुंडलिनी (गाथा/आर्या और रोला),  नवकुण्डलिया (दोहा+रोल २ पंक्ति+दोहा, आदि-अंत सामान अक्षर, शेष नियम कुंडली के), लघुकुण्डलिया (दोहा+२पंक्ति रोला) तथा नाग कुंडली (दोहा+रोला २ पंक्ति+ दोहा+रोला ४ पंक्ति) भी लोकप्रिय हो रहे हैं।  
  
कुण्डलिया: 
दोहा 
अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अ: ऋ, xxxx xxx xxxx             
xxx xxx xx xxx xx, * * * * * * * * * * *    
रोला        
* * * * * * * * * * *, xxx xx xxxx xxxx           
xxxx xxxx xxx, xxx xx xxxx xxxx              
xxxx xxxx xxx, xxx xx xxxx xxxx                
xxxx xxxx xxx, xxx xx xxxx xxxY            


टिप्पणी: Y = अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ अं अ: ऋ का पूर्ण या आंशिक दुहराव 


उदाहरण -
कमरी थोरे दाम की, बहुतै आवै काम।
खासा मलमल वाफ्ता, उनकर राखै मान॥
उनकर राखै मान, बँद जहँ आड़े आवै।
बकुचा बाँधे मोट, राति को झारि बिछावै॥
कह 'गिरिधर कविराय', मिलत है थोरे दमरी।
सब दिन राखै साथ, बड़ी मर्यादा कमरी॥

दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान। 
चंचल जल दिन चारिको, ठाऊँ न रहत निदान।। 
ठाँऊ न रहत निदान, जयत जग में जस लीजै। 
मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।। 
कह 'गिरिधर कविराय' अरे यह सब घट तौलत। 
पाहुन निशि दिन चारि, रहत सबही के दौलत।। 

विवेच्य कुंडली संकलन में १६० कुण्डलियाँ अपनी शोभा से पाठक को मोहने हेतु तत्पर हैं। इन कुंडलियों के विषय आम लोगों के दैनंदिन जीवन से जुड़े हैं। देश की सीमा पर पडोसी देश द्वारा हो रहा उत्पात कवि को उद्वेलित करता है और वह सीमा का मानवीकरण कर उसके दुःख को कुंडली के माध्यम से सामने लाता है।      

सीमा घबराई हुईबैठी बड़ी निराश।
उसके रक्षक हैं बँधेबँधा न पाते आस॥
बँधा न पाते आसनहीं रिपु घुस पाएंगे,
काट हमारे शीशनहीं अब ले जाएंगे।
तुष्टिकरण का खेलदेश का करता कीमा,
सोच-सोच के रोजजी रही मर-मर सीमा॥

भारत की संस्कृति उत्सव प्रधान है। ऋतु परिवर्तन के अवसर पर आबाल-वृद्ध नर-नारी ग्राम-शहर में पूरे उत्साह से पर्व मानते हैं। रंगोत्सव होली में छंद भी सम्मिलित हैं हरिया रहे छंदों की अद्भुत छटा देखिये:   

दोहे पीटें ढोल तोरोला मस्त मृदंग।
छंदोंपर मस्ती चढ़ीदेख हुआ दिल दंग॥
देख हुआ दिल दंगभंग पीती कुंडलिया,
छप्पय संग अहीरबना बरवै है छलिया।
तरह-तरह के वेशबना सबका मन मोहे,
होली में मदहोशसवैयाआल्हादोहे॥

युवा कवि अपने पर्यावरण और परिवेश को लेकर सजग है यह एक शुभ लक्षण है। जब युवा पीढ़ी पर अपने आपमें मस्त रहने और अनुत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार के आक्षेप लग रहे हों तब अजीतेन्दु की कुंडली आँगन में गौरैया को न पाकर व्यथित हो जाती है 

गौरैया तेरे असलदोषी हम इंसान।
पाप हमारे भोगतीतू नन्हीं सी जान॥
तू नन्हीं सी जानघोंसलों में है रहती,
रसायनों का वाररेडिएशन क्या सहती।
इक मौका दे औरउठा मत अपने डेरे,
मानेंगे उपकारसदा गौरैया तेरे॥

घटती हरियाली, कम होता पानी, कानून की अवहेलना से ग़रीबों के सामने संकट, रिश्वतखोरी, बाहुबल की राजनीति, मिट रही जादू कला, नष्ट होते कुटीर उद्योग, सूखते नदी-तालाब, चीन से उत्पन्न खतरा, लड़कियों की सुरक्षा पर खतरा, बढ़ती मंहगाई, आत्म नियंत्रण और अनुशासन की कमी, जन सामान्य जन सामान्य में जिम्मेदारी की भावना का अभाव, दरिया-पेड़ आदि की परोपकार भावना, पेड़-पौधों-वनस्पतियों से लाभ आदि विविध विषयों को अजीतेन्दु ने बहुत प्रभावी तरीके से कुंडलियों में पिरोया है। 

अजीतेन्दु को हिंदी के प्रति शासन-प्रशासन का उपेक्षा भाव खलता है। वे जन सामान्य में अंग्रेजी शब्दों के प्रति बढ़ते मोह से व्यथित-चिंतित हैं:  

हिन्दी भाषा खो रहीनित अपनी पहचान।
अंग्रेजी पाने लगीघर-घर में सम्मान॥
घर-घर में सम्मान, "हायहैल्लो" ही पाते,
मॉम-डैड से वर्ड, "आधुनिकता" झलकाते।
बनूँ बड़ा अँगरेजसभी की है अभिलाषा,
पूरा करने लक्ष्यत्यागते हिन्दी भाषा॥ 

सामान्यतः अपने दायित्व को भूलकर अन्य को दोष देने की प्रवृत्ति सर्वत्र दृष्टव्य है। अजीतेन्दु आत्मावलोकन, आत्मालोचन और आत्ममूल्यांकन के पथ पर चलकर आत्मसुधार करने के पक्षधर हैं। वे जननेताओं के कारनामों को भी जिम्मेदार मानते हैं    

नेताओं को दोष बसदेना है बेकार।
चुन सकते हैं काग कोहंस भला सरदार॥
हंस भला सरदारबकों के कभी बनेंगे,
जो जिसके अनुकूलवहीं वो सभी फबेंगे।
जैसी होती चाहमतों के दाताओं को,
उसके ही अनुसारबुलाते नेताओं को॥

विसंगतियों से यह तरुण कवि हताश-निराश नहीं होता, वह नन्हें दीपक से प्रेरणा लेकर वृद्ध  सहायता देने हेतु तत्पर है। प्रतिकूल परिस्थितियों को झुकाने का यह तरीका उसके मन भाता है   

तम से लड़ता साहसीनन्हा दीपक एक।
वृद्ध पथिक ले सहाराचले लकुटिया टेक॥
चले लकुटिया टेकमंद पर बढ़े निरंतर,
दीपक को आशीषदे रहा उसका अंतर।
स्थितियाँ सब प्रतिकूलहुईं नत इनके दम से,
लगीं निभाने साथदूर हट मानो तम से॥

बहुधा  पीढ़ी पर दोष दर्शन करते-कराते स्वदायित्व बोध से दूर हो जाती है। यह कुण्डलिकार धार के विपरीत तैरता है। वह 'सत्यमेव जयते' सनातन सत्य पर विश्वास रखता है। 

आएगा आकाश खुदचलकर तेरे पास।
मन में यदि पल-पल रहेसच्चाई का वास॥
सच्चाई का वासजहाँ वो पावन स्थल है,
सात्विकशुद्धपवित्रबहे ज्यों गंगाजल है।
कब तक लेगा साँसझूठ तो मर जाएगा,
सत्य अंततः जीतहमेशा ही आएगा॥

सारतः, अजीतेन्दु की कुण्डलियाँ शिल्प और कथ्य में असंतुलन स्थापित करते हुए, युगीन विसंगतियों और विडम्बनाओं पर मानवीय आस्था, जिजीविषा औ विश्वास का जयघोष करते हुए युवा मानस के दायित्व बोध की प्रतीति का दस्तावेज हैं। सहज-सरल-सुबोध भाषा और सुपरिचैत शब्दों को स्पष्टता से कहता कवि छंद के प्रति न्याय कर सका है।