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मंगलवार, 18 नवंबर 2025

नवंबर १८, चित्रगुप्त, चमेली, माहिया, हाइकु, दोहा, कुण्डलिया, अनुष्टुप, लघुकथा, गीत

सलिल सृजन नवंबर १८
*
पूर्णिका 
० 
ठंडी हवाएँ, मन को लुभाएँ
जाड़े में शैया-सपन सुहाएँ 
आएँ न जाएँ, बातें बनाएँ 
रूठे न सजनी प्रभु से मनाएँ
सूरज-अँगीठी तापें सुबह से 
संझा हो गुरसी झट सुलगाएँ 
बागों में बैठें, कर कविताई
सुनिए सुनाएँ, चैया पिलाएँ 
लैया-गजक का स्वाद अनूठा 
कहिए तो कैसे इनको भुलाएँ 
१८.११.२०२५ 
000 
चित्रगुप्त प्रभु, प्रगट होइए, माताओं के साथ।
पलक पाँवड़े बिछा हेरते, पथ हम जोड़े हाथ।।
जय जय जय हे निराकार प्रभु!
भक्तों हित साकार हुए विभु!
निरंकार जग-अलंकार हे!
शोभित मोहित सकल चराचर-
महिमा-गरिमा तव अपार है।
बारहमासी हम बारह सुत, शुभाशीष दो नाथ!
पलक पाँवड़े बिछा हेरते, पथ हम जोड़े हाथ।।
चमेली
माहिया
*
मन निर्मल रख मिलना
सबसे दुनिया में
चमेली सदृश खिलना।
*
गर्मी हो या सर्दी
दोनों ऋतु में खिलती
समदृष्टि चमेली की।
*
हो पीत गुलाबी श्वेत
दोमट मिट्टी में
जैस्मिन की झाड़ी-बेल।
***
हाइकु
*
चुन चमेली
अर्पित देव को
करते भक्त।
*
है सुवासित
सकल परिवेश
खिली चमेली।
*
सुरभि लुटा
निष्काम काम कर
चमेली चली।
*
है कर्मयोगी
सफेद चदरिया
ज्यों की त्यों रखी।
*
चंपा-चमेली
राधा-कृष्ण विहँस
रास रचाते।
१८.११.२०२४
***
मुक्तक
चुनो चमेली कुसुम, बनाओ हार पथिक को अर्पित कर।
कर जोड़ें गह सकें विरासत, अपना अहं विसर्जित कर।।
शब्द ब्रह्म का हो आराधन, नाद-ताल-लय की जय हो-
शारद पग पर सुमन चढ़ाएँ, सलिल विमल नित अर्पित कर।।
१७.११.२०२४
भोर भई आओ गौरैया,सुना प्रभाती हमें जगा।
संग गिलहरी को भी लाओ, नाता अद्भुत प्रेम पगा।।
खिले चमेली जुही मोगरा, रहे महकता घर अँगना-
दूर रखो मूषक को जिसने वसन काटकर हमें ठगा।।
१६.११.२०२४
दोहा सलिला
जुही-चमेली श्वास में, आस मोगरा फूल।
हरसिंगार सुहास हो, कर विषाद को धूल।।
पंचेंद्रिय हैं पँखुड़ियाँ, डंढल तन मन वास।
हरित पत्र शत कामना, जड़ हो नहीं उदास।।
चतुर चमेली चहककर, कहे, न हो गमगीन।
सुख-दुख जो देता उसे, दे हो उसमें लीन।।
वसुधा के आँचल पले, छत्र नीलिमा भव्य।
चंचल चपला चमेली, क्रीड़ा करती नव्य।।
चलो! चमेली कुंज में, कान्ह गुँजाता वेणु।
नित्य चरण छू तर रही, बड़भागी बृज रेणु।।
१४.११.२०२४
जगी चमेली विहँसकर, जाग जुही से बोल।
सूरज का स्वागत करे, नित दरवज्जा खोल।।
°
कुण्डलिया
चहक चपल चिड़िया करे, चूँ चूँ कर प्रभु गान।
बैठ चमेली डाल पर, मन ही मन अनुमान।।
मन ही मन अनुमान, गिलहरी करे कलेवा।
देख सके आकाश, बाज को आते देवा।।
कोटर में छिप गई, गिलहरी तुरत ही फुदक।
मिली जुही से पुलक, चमेली हुलसकर चहक।।
१३.११.२०२४
सोरठा
दे सुगंध बेदाम, अलबेली है चमेली।
खुश हर खासो-आम, उसको यह संतोष है।।
११.११.२०२४
°°°
नर्मदा-बंजर नदियों का संगम, सूर्यास्त
गीत
*
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
नेह-नर्मदा अरुणाई से
बिन बोले ही सजा गया।
*
सांध्य सुंदरी क्रीड़ा करती, हाथ न छोड़े दोपहरी।
निशा निमंत्रण लिए खड़ी है, वसुधा की है प्रीत खरी।
टेर प्रतीचि संदेसा भेजे
मिलनातुर मन कहाँ गया?
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
बंजर रही न; हुई उर्वरा, कृपण कल्पना विहँस उदार।
नयन नयन से मिले झुके उठ, फिर-फिर फिरकर रहे निहार।
फिरकी जैसे नचें पुतलियाँ
पुतली बाँका बन गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
अस्त त्रस्त सन्यस्त न पल भर, उदित मुदित फिर आएगा।
अनकहनी कह-कहकर भरमा, स्वप्न नए दिखलाएगा।
सहस किरण-कर में बाँधे
भुजपाश पहन पहना गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
कलरव की शहनाई गूँजी, पर्ण नाचते ठुमक-ठुमक।
छेड़ें लहर सालियाँ मिलकर, शिला हेरतीं हुमक-हुमक।
सहबाला शशि सँकुच छिप रहा,
सखियों के मन भा गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
*
मिलन-विरह की आँख मिचौली, खेल-खेल मन कब थकता।
आस बने विश्वास हास तब ख़ास अधर पर आ सजता।
जीवन जी मत नाहक भरमा
खुद को खो खुद पा गया।
अहा! कहा ज्यों ही श्रद्धा से
श्रद्धा ने रवि लजा गया।
१८.११.२०२४
***
कृति चर्चा :
''नवता'' लीक से हटकर भाव सविता
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: नवता, नवगीत संग्रह, देवकीनंदन 'शांत', प्रथम संस्करण, २०१९, आकार २१ से.मी. x १४ से.मी., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ ५८, मूल्य १५०/-, रचनाकार संपर्क - शान्तं, १०/३०/२ इंदिरा नगर, लखनऊ २२६०१६, चलभाष - ८८४०५४९२९६, ९९३५२१७८४१, ईमेल - shantdeokin@gmail.com]
*
हिंदी साहित्य की लोकप्रिय काव्य विधाओं में से एक गीत रचनाकारों के आकर्षण का केंद्र था, है और रहेगा। गीत रचना प्रकृति और लोक से होकर अध्येताओं और विद्वज्जनों में प्रतिष्ठित हुई है। गीत की जड़ माँ की लोरी, पर्व गीतों, वंदना गीतों, संस्कार गीतों, ऋतु गीतों, कृषि गीतों, जन गीतों, क्रांति गीतों आदि में है। वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल और छायावादी काल साक्षी हैं कि गीत हमेशा साहित्य के केंद्र में रहा है। देश-काल-परिस्थितियों तथा रचनाकार की रुचि के अनुरूप गीत का कलेवर तथा चोला परिवर्तित होता रहा है। पानी की तरह गीत अपने आप को बदलता, ढलता हुआ चिरजीवी रहा है। पद्य की थाली में गीत स्वतंत्र और अन्य तत्वों के अभिन्न अंग दोनों रूपों में भोजन में पानी की तरह रहा है। गीत की गेयता ला लयबद्धता से न तो छंद मुक्त हैं न कविता। चिरकाल से पारम्परिक गीतों के साथ नवप्रयोग धर्मी गीत रचे जाते रहे हैं जिन्हें आरंभ में अमान्य करते-करते थक-चूक कर विरोध कर रहे तत्व पस्त हो जाते हैं और परिवर्तन को क्रमश: लोक और विद्वज्जनों की मान्यता मिल जाती है। लगभग ७ दशकों पूर्व गीत को छायावादी अस्पष्टता से स्पष्टता की ओर, अमूर्तता से मूर्तता की ओर, भाव से कथ्य की ओर, आध्यात्मिकता से सांसारिकता की ओर, वैयक्तिक अभिव्यक्ति से सार्वजनिक अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख होने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
'गेयता' गीत का मूल तत्व है जबकि 'नवता' समय सापेक्ष तत्व है। जो आज नया है वही भविष्य में पुराना होकर परंपरा बन जाता है। नवता जड़ या स्थूल नहीं होती। गीतकार गीत की रचना कथ्य को कहने के लिए करता है। कथ्य गीत ही नहीं किसी भी रचना का मूल तत्व है। कुछ कहना ही नहीं हो तो रचना नहीं हो सकती। अनुभूति को अभिव्यक्त करना ही कथ्य को जन्म देता है। यह अभिव्यक्ति लयता और गेयता से संयुक्त होकर पद्य का रूप लेती है। पद्य रचना मुखड़ा - अंतरा - मुखड़ा के क्रमबद्ध रूप में गीत कही जाती है। गीत के तत्व कथ्य और शिल्प हैं। कथ्य को विषय अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है। शिल्प के अंग छंद, भाषा शैली, शब्द-चयन, अलंकार, शब्द शक्ति, गुण, बिम्ब, प्रतीक आदि हैं। गीत में नवता का प्रवेश इन सब में एक साथ प्राय: नहीं होता। एकाधिक तत्वों में नवता का प्रभाव प्रभावी हो तो उस गीति रचना को नवगीत कहा जाता है। मऊरानी पुर झाँसी में जन्मे, लखनऊ निवासी वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार देवकीनंदन 'शांत' हिंदी, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के जानकर हैं। आजीविका से अभियंता होते हुए भी उनकी प्रवृत्ति साहित्य और आध्यात्म की ओर उन्मुख रही है। सृजन के उत्तरार्ध में नवगीत की और आकृष्ट होकर शांत जी ने प्रचलित मान्यताओं और विधानों की अनदेखी कर अपनी राह आप बनाने की कोशिश की है। इस कोशिश में उनकी गीति रचनाएँ गीत-नवगीत की सीमारेखा पर हैं। संकलन की हर रचना को नवगीत नहीं कहा जा सकता किन्तु अधिकांश रचनाओं में सामान्य से भिन्न पथ अपनाने का प्रयास उन्हें नवगीत से सन्निकटता बनाता है।
नवता की भूमिका में सुधी समीक्षक डॉ. सुरेश ठीक ही लिखते हैं - "अछूते प्रतीक, नए बिम्ब,,
कथ्य, शिल्प, भाषा-शैली, की अनूठी अभिव्यक्ति किसी छान्दसिक रचना को नवगीत बनाती है। यह निर्विवाद सच है कि सपाटबयानी, वक्तव्यबाजी, घिसे-पिटे प्रतीक, पारस्परिक द्वेष, वैचारिक किलेबंदी, टकराव-बिखरावपरक नकारात्मकता नवगीत को दिग्भर्मित कर, सामाजिक-सद्भाव को क्षति पहुँचाकर असहिष्णुता की और ढकेलती है। शांत जी की गीति रचनाएँ ही नहीं, गज़लें भी सामाजिक समरसता, सहिष्णुता और साहचर्य को प्रोत्साहित करते हैं। इस अर्थ में शांत जी नवगीतों में वर्ग वैमनस्य, सामाजिक विसंगतियों, वैयक्तिक कुंठाओं, सार्वजनिक टकरावों को अधिक प्रभावी बनाने की प्रवृत्ति के विरुद्ध ताज़ा हवा के झोंके की तरह सद्भाव और सहिष्णुता की वकालत करते हैं।
डॉ. किशारीशरण शर्मा नवगीतों में शब्द शक्तियों के प्रभाव की चर्चा करते हुए लिखते हैं - "नवगीत में लक्षणा एवं व्यंजना शब्दों का विशेष प्रयोग होता है। बिम्बों और प्रतीकों के माध्यम से 'कही पे निगाहें, कहीं पे निशाना' की उक्ति चरितार्थ की जाती है। लक्षणा या व्यंजना का तीर चलाकर व्यक्ति (गीतकार) जोखिम से बचता है जबकि स्वयं को जोखिम में डालता है। कर्मयोगी कृष्ण के कर्मपथ के अनुयायी शांत जी जोखिम उठाने में नहीं हिचकते और अपनी बात अमिधा में कहकर नवगीत में नवता का संचार करते हैं। प्रसिद्ध समीक्षक डॉ. जगदीश गुप्त के अनुसार "कविता वही है जो प्रकथनीय कहे।" इस निकष पर शांत जी की रचनाएँ खरी उतरती हैं।
शांत जी अभियंता हैं, जानते हैं कि प्रकृति के उत्पादों के उत्पादों की नकल के मनुष्य काया भले बना ले, प्राण नहीं डाल सकता। वे इसी तथ्य को फूलों के माध्यम से सामने लाते हैं-
कागज़ के फूलों से
खुशबू आना मुश्किल है।
छूने की कोशिश
करने पर दूर लहर जाती
बूँद किनारे की
इस डर से सिहर-सिहर जाती
प्रश्न 'शीर्षक' रचना में शांत जी अपनी कार्यस्थलियों पर निरंतर कार्यरत श्रमिकों को देखकर एक सवाल उठाते हैं -
ऐसा क्यों होता?
तन तो श्रम करता मन सोता।
शोर करे न 'शांत' समन्दर
भीतर-भीतर ज्वर उठे।
दैत्य, अग्नि, पशु से क्या डरना
जब अंतस में प्यार जगे।
ऐसा क्यों होता?
नीलकंठ क्यों अमृत बोता?
यहाँ शांत जी ने अपने साहित्यिक उपनाम का शब्दकोशीय अर्थ में प्रयोग कर अपनी सामर्थ्य का परिचय दिया है। विष पीकर अमृत देने की विरासत का वारिस कवि ही होता है। वह जानता है कि अहम् का वहम ही सारे टकरावों की जड़ है। 'रूठना' जिंदगी जीने का सही ढंग नहीं है। 'मनाना' और मान जाना ही को आगे बढ़ाता है। विडंबनाओं को नवगीत का कलेवर मान कर निरंतर विखण्डन की खेती कर रहे, तथाकथित गीतकार मानें न मानें गीतसृजन पथ का अनुगामी बना रहेगा और गीत का श्रोता सनातन मूल्यों की अवहेला सहन न कर ऐसे गीतों को हृदयंगम करता रहेगा। शांत जी संवाद को समस्याओं के समाधान में सहायक मानते हुए लिखते हैं-
फिर संवाद करें,
आओ, फिर से बात करें हम....
...रत्ती भर ना डरें,
ना आघात, ना घात करें हम।
शांत जी ने नवगीतों में राष्ट्रीय भावधारा को उपेक्षित होते देखते हुए, खुद नवता पथ पर पग रखकर राष्ट्रीयता का रंग घोलने का प्रयास किया है। अपने इस प्रथम प्रयास में भले ही कवि गीत-नवगीत की संधि रेखा पर खड़ा दिखता है किन्तु 'गिरते हैं शह-सवार ही मैदाने-जंग में वह तिफ़्ल क्या गिरेगा जो घुटनों के बल चले?' शांत जी चुनौती को स्वीकारकर आगे बढ़ते हैं -
हो संपन्न राष्ट्र अपना
सबको अधिकार मिले
सोच-विचार मूक प्राणी को
एक नया संसार मिले अब तक नवगीतों में मानवीय पीड़ा और इंसानी परेशानियाँ हो कथ्य का विषय बनती आई हैं। शांत जी मनुष्य मात्र तक सीमित रहते, उनकी संवेदनाएँ मूक प्राणियों विस्तार पाती है। नवगीत के कथ्य में यह एक नव्य प्रयोग है। शांत जानते हैं कि 'लकीर के फ़कीर' ऐसी रचनाओं को नवगीत मानने से इंकार कर सकते हैं, फिर भी वे 'वैचारिक प्रतिबद्धों' के गिरोह में सत्य कहने का साहस करते हैं। वे ऐसे गिरोहबाजों को ललकारते हैं-
जिसे तुम कविता कहते हो
क्या
वही बस कविता है?
जिसमें तुम गोते लगाते हो
क्या
वही सरिता है?...
.... कविता, सरिता और सविता
सिर्फ वही नहीं है
जो तुम्हारी परिभाषा में बँधा है।
नवगीत को नश्वर सांसारिक अभिव्यक्तियों तक सीमित रखने के पक्षधरों को शांत जी का कवि मन, आवरण-ेयह बताता है कि नवता सांसारिक होते हुए आध्यात्मिक भी है। आवरण चित्र में कदम्ब शाख पर वेणुवादन करते हुए श्रीकृष्ण विराजमान हैं, उनके सम्मुख सुन्दर वस्त्रों में सज्जित बृज वनिताएँ हैं। वस्त्रहीन स्नान करने की कुप्रथा को वस्त्र-हरण कर छुड़वाने का वचन लेने के बाद कृष्ण लौटा चुके हैं। कुप्रथा को छोड़कर सुवस्त्रों से सज्जित बृज बालाएँ नवता का वरण कर चुकी हैं। संदेश स्पष्ट है कि नवगीत की नवता वैचारिक, आचारिक मौलिक तथा सर्व हितकारी हो तभी लोक - मान्य होगी।
कठमुल्लेपन की हद तक जड़ता का वरण कर रहे तथाकथित प्रगतिवादियों (वास्तव में साम्यवादियों) की वैचारिक दासता स्वीकार कर नवगीत को वैचारिक प्रतिबद्धता के पिंजरे में कैद रखने के आग्रही नवगीतकारों को शांत जी सर्वहितकारी नव-पथ अपनाने का सन्देश देते हैं। 'सुधियों के गीत' शीर्षक के अंतर्गत शांत जी नवगीत के माध्यम से मानवीय संबंधों की संवेदनाओं को पारंपरिकता से हटकर अभिव्यक्ति देते हैं-
साथी रूठ गया
अब सपने सूली लटकेंगे
प्रतिबंधों की ज़ंजीरों से
खूब कसे
उसके ज़ज़्बात
अनुबंधों के संकेतों से
घिर आई
दिन में ही रात
धीरज छूट गया
जीवन भर दर-दर भटकेंगे
विषय, विषय-वस्तु, कहन, शब्द चयन आदि में शांत जी किसी का अनुकरण नहीं करते। शांत जी के आत्मीय मित्र मधुकर अष्ठाना जी प्रगतिशील विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं तो, मनोज श्रीवास्तव राष्ट्रीय ओज के प्रतिनिधि , राजेश अरोरा 'शलभ' हास्य के महारथी हैं तो अमरनाथ हिंदी छांदस भावधारा के दिग्गज है, राजेंद्र वर्मा उर्दू उरूज के उस्ताद हैं तो नरेश सक्सेना अपने राह बनाने वाले शिखर हस्ताक्षर हैं। शांत इनमें से किसी का अनुकरण, यहाँ तक कि अपने उस्ताद शायरे-आज़म कृष्ण बिहारी 'नूर' के शागिर्दे-ख़ास होने के बाद भी शायरी बुंदेली और हिंदी लेखन की राह खुद बनाते नज़र आते हैं। अपने प्रश्नों के उत्तर खुद तलाशने की प्रवृत्ति उन्हें उनके अभियंता है। लिपिकीय और अध्यापकीय प्रवृत्ति पीछे देखकर आगे बढ़ने की होती है। जो पहले चुका है, पुनरावृत्ति सहज, सरल शीघ्र परिणामदायी होने के बावजूद इंजीनियर को हर निर्माणस्थली पर भिन्न आधारभूमि, समस्याएँ और संसाधन चुनकर नव प्रविधि का चयन करना होता है। शांत जी अभियंता होने के नाते प्रकृति से निकटता से जुड़े हैं। प्रकृति मानवीय भाषा न जानते हुए बहुधा सब कुछ बोल देती है, बशर्ते आप प्रकृति से जुड़कर सुन-समझ सकें। नारी प्रकृति भी कहा जाता है। शांत जी कहते हैं-
तुमने बिन बोले
आँखों से
सब कुछ कह डाला।
सदियों से
प्यासे मरुथल को
कर डाला पानी-पानी।
जल को ही
मीठा कर खारेपन के
बदल दिए मानी।
होंठ बिना खोले
रिक्त किया
विष सिक्त प्याला।
विश्व ऊर्जा संकट से जूझ और ऊर्जा प्राप्ति के नए साधन खोज रहा है। ऊर्जा के लिए ईंधन और ईंधन की खपत पर्यावरण प्रदूषण का खतरा, शांत इंगित करते हैं -
साइकिल पर चल हैं
दीप से हम जल रहे हैं
गीत गाते हैं
गुनगुनाते हैं
ऊर्जा अपनी बचाते हैं।
'सत्य होता है चिरंतन' शीर्षक से शांत कहते हैं -
देख ले तू
करके चिंतन
सत्य चिरंतन
चाह तुझको है पुरातन
स्वर लहरियों की।
'नवता' के नवगीत और गीत नीर-क्षीर समरस हैं, उनके बीच में भारत की तरह सीमा रेखा खींची जा सकती। नवता के नवगीतकार को परिपक्व होने में समय लगेगा। संतोष की बात यह है कि वह सस्ती लोकप्रियता और शीघ्र फल प्राप्ति के लिए स्थापितों अंधानुकरण न कर अपनी राह आप बना रहा है।
१८.११.२०१९
***
दोहा सलिला
अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ।
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ।।
.
मन में क्या?, कैसे कहें? हो न सके अनुमान।
राजनीति के फेर में, फिल्मकार कुर्बान।।
.
बना बतंगड़ बात का, उडी खूब अफवाह
बना सत्य जाने करें, क्यों सद्भाव तबाह?
.
यह प्रसंग है ही नहीं, झूठ रहा है फ़ैल।
अपने चेहरे मल रहे, झूठे खुद ही मैल।।
.
सही-गलत जाने बिना, बेमतलब आरोप।
लगा, दिखाते नासमझ, अपनों पर ही कोप।।
१८.११.१७
...
मुक्तक
किसका मन है मौन?, मन पर वश किसका चला?
परवश कहिए कौन?, परवश होकर भी नहीं,
जड़ का मन है मौन, संयम मन को वश करे-
वश में पर के भौन।, परवश होकर भी नहीं।।
छंद: सोरठा
***
कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ३
*
मुक्तिका
चलें साथ हम
(छंद- तेरह मात्रिक भागवत जातीय, अष्टाक्षरी अनुष्टुप जातीय छंद, सूत्र ययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२, यगण यगण लघु गुरु ]
*
चलें भी चलें साथ हम
करें दुश्मनों को ख़तम
*
न पीछे हटेंगे कदम
न आगे बढ़ेंगे सितम
*
न छोड़ा, न छोड़ें तनिक
सदाचार, धर्मो-करम
*
तुम्हारे-हमारे सपन
हमारे-तुम्हारे सनम
*
कहीं और है स्वर्ग यह
न पाला कभी भी भरम
१८.११.२०१६
***
नवगीत:
मैं लड़ूँगा....
.
लाख दागो गोलियाँ
सर छेद दो
मैं नहीं बस्ता तजूँगा।
गया विद्यालय
न वापिस लौट पाया
तो गए तुम जीत
यह किंचित न सोचो,
भोर होते ही उठाकर
फिर नये बस्ते हजारों
मैं बढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
खून की नदियाँ बहीं
उसमें नहा
हर्फ़-हिज्जे फिर पढ़ूँगा।
कसम रब की है
मदरसा हो न सूना
मैं रचूँगा गीत
मिलकर अमन बोओ।
भुला औलादें तुम्हारी
तुम्हें, मेरे साथ होंगी
मैं गढूँगा।
मैं लड़ूँगा....
.
आसमां गर स्याह है
तो क्या हुआ?
हवा बनकर मैं बहूँगा।
दहशतों के
बादलों को उड़ा दूँगा
मैं बनूँगा सूर्य
तुम रण हार रोओ ।
वक़्त लिक्खेगा कहानी
फाड़ पत्थर मैं उगूँगा
मैं खिलूँगा।
मैं लड़ूँगा....
...
लघुकथाएँ:
उत्सव
*
सड़क दुर्घटना, दम्पति की मौत, नन्ही बच्ची अनाथ पढ़ते-पढ़ते उसकी दृष्टी अपने नन्हीं बिटिया पर पड़ी.… मन में कोई विचार कौंधा और सिहर उठा वह, बिटिया को बांहों में भरकर चूम लिया…… पत्नी ने देखा तो कारण पूछा।
थोड़ी देर बाद तीनों पहुँचे कलेक्टर के कमरे में, कुछ लिखा-पढ़ी के बाद घर लौटे, दुर्घटना में माँ-बाप खो चुकी बिटिया के साथ.…
धीरे-धीरे चारों का जीवन बन गया एक उत्सव।
***
मानवाधिकार
*
राजमार्ग से आते-जाते विभाजक के एक किनारे पर उसे अक्सर देखते हैं लोग। किसे फुर्सत है जो उसकी व्यथा-कथा पूछे। कुछ साल पहले वह अपने माता-पिता, भाई-बहिन के साथ गरीबी में भी प्रसन्न हुआ करता था। एक रात वे यहीं सो रहे थे कि एक मदहोश रईसजादे की लहराती कार सोते हुई ज़िन्दगियों पर मौत बनकर टूटी। पल भर में हाहाकार मच गया, जब तक वह जागा उसकी दुनिया ही उजड़ गयी थी। कैमरों और नेताओं की चकाचौंध १-२ दिन में और साथ के लोगों की हमदर्दी कुछ महीनों में ख़त्म हो गयी।
एक पडोसी ने कुछ दिन साथ में रखकर उसे बेचना सिखाया और पहचान के कारखाने से बुद्धि के बाल दिलवाये। आँखों में मचलते आँसू, दिल में होता हाहाकार और दुनिया से बिना माँगे मिलती दुत्कार ने उसे पेट पालना तो सीखा दिया पर जीने की चाह नहीं पैदा कर सके। दुनियावी अदालतें बचे हुओं को कोई राहत न दे पाईं। रईसजादे को पैरवीकारों ने मानवाधिकारों की दुहाई देकर छुड़ा दिया लेकिन किसी को याद नहीं आया निरपराध मरने वालों का मानवाधिकार।
***
सच्चा उत्सव
*
उपहार तथा शुभकामना देकर स्वरुचि भोज में पहुँचा, हाथों में थमी प्लेटों में कहीं मुरब्बा दही-बड़े से गले मिल रहा था, कहीं रोटी पापड़ के गाल पर दाल मल रही थी, कहीं भटा भिन्डी से नैन मटक्का कर रहा था और कहीं इडली-सांभर को गुत्थमगुत्था देखकर डोसा मुँह फुलाये था।
इनकी गाथा छोड़ चले हम मीठे के मैदान में वहाँ रबड़ी के किले में जलेबी सेंध लगा रही थी, दूसरे दौने में गोलगप्पे आलूचाप को ठेंगा दिखा रहे थे।
जितने अतिथि उतने प्रकार की प्लेटें और दौने, जिस तरह सारे धर्म एक ईश्वर के पास ले जाते हैं वैसे ही सब प्लेटें और दौने कम खाकर अधिक फेंके गये स्वादिष्ट सामान को वेटर उठाकर बाहर कचरे के ढेर पर पहुँचा रहे थे।
हेलो-हाय करते हुए बाहर निकला तो देखा चिथड़े पहने कई बड़े-बच्चे और श्वान-शूकर उस भंडारे में अपना भाग पाने में एकाग्रचित्त निमग्न थे, उनके चेहरों की तृप्ति बता रही थी की यही है सच्चा उत्सव।
***
गणराज्य
*
व्यापम घोटाला समाचार पत्रों, दूरदर्शन, नुक्कड़ से लेकर पनघट हर जगह बना रहा चर्चा का केंद्र, बड़े-बड़ों के लिपटने के समाचारों के बीच पकड़े गए कुछ छुटभैये।
फिर आरम्भ हुआ गवाहों के मरने का क्रम लगभग वैसे ही जैसे श्री आसाराम बापू और अन्य इस तरह के प्रकरणों में हुआ।
सत्ताधारियों के सिंहासन डोलने और परिवर्तन के खबरों के बीच विश्व हिंदी सम्मेलन का भव्य आयोजन, चीन्ह-चीन्ह कर लेने-देने का उपक्रम, घोटाले के समाचारों की कमी, रसूखदार गुनहगारों का जमानत पर रिहा होना, समान अपराध के गिरफ्तार अन्य को जमानत न मिलना, सत्तासीनों के कदम अंगद के पैर की तरह जम जाना, समाचार माध्यमों से व्यापम ही नहीं छात्रवृत्ति और अन्य घोटालों की खबरों का विलोपित हो जाना, पुस्तक हाथ में लिए मैं कोशिश कर रहा हूँ किन्तु समझ नहीं पा रहा हूँ समानता, मौलिक अधिकारों और लोककल्याणकारी गणतांत्रिक गणराज्य का अर्थ।
***
अंध मोह
*
मध्य प्रदेश बांगला साहित्य अकादमी रजत जयंती समारोह मुख्य अतिथि वक्ता के नाते भाषा के उद्भव, उपादेयता, स्वर-व्यंजन, लिपि के विकास,विविध भाषाओँ बोलिओं के मध्य सामंजस्य, जीवन में भाषा की भूमिका, भाषा से आजीविका, अनुवाद, लिप्यंतरण तथा स्थानीय, देशज व् राष्ट्रीय भाषा में मध्य अंतर्संबंध जैसे जटिल और नीरस विषय को सहज बनाते हुए हिंदी में अपनी बात पूरी की. महिलाएं, बच्चे तथा पुरुष रूचि लेकर सुनते रहे, उनके चेहरों से पता चलता था कि वे बात समझ रहे हैं, सुनना चाहते हैं.
मेरे बाद भागलपुर से पधारे ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता बांगला प्रोफ़ेसर ने बांगला में बोलना प्रारम्भ किया। विस्मय हुआ की बांगलाभाषी जनों ने हिंदी में कही बात मन से सुनी किन्तु बांगला वक्तव्य आरम्भ होते ही उनकी रूचि लगभग समाप्त हो गयी, आपस में बात-चीत होने लगी. वोिदवान वक्त ने आंकड़े देकर बताया कि गीतांजलि के कितने अनुवाद किस-किस भाषा में हुए. शरत, बंकिम, विवेकानंद आदि कासाहित्य किन-किन भाषाओँ में अनूदित हुआ किन्तु यह नहीं बता सके कि कितनी भाषाओँ का साहित्य बांगला में अनूदित हुआ.
कोई कितना भी धनी हो उसके कोष से धन जाता रहे किन्तु आये नहीं तो तिजोरी खाली हो ही जाएगी। प्रयास कर रहा हूँ कि बांगला भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जाने लगे तो हम मूल रचनाओं को उसी तरह पढ़ सकें जैसे उर्दू की रचनाएँ पढ़ लेते हैं. लिपि के प्रति अंध मोह के कारण वे नहीं समझ पा रहे हैं मेरी बात का अर्थ
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सहिष्णुता
*
'हममें से किसी एक में अथवा सामूहिक रूप से हम सबमें कितनी सहिष्णुता है यह नापने, मापने या तौलने का कोई पैमाना अब तक ईजाद नहीं हुआ है. कोई अन्य किसी अन्य की सहिष्णुता का आकलन कैसे कर सकता है? सहिष्णुता का किसी दल की हार - जीत अथवा किसी सरकार की हटने - बनने से कोई नाता नहीं है. किसी क्षेत्र में कोई चुनाव हो तो देश असहिष्णु हो गया, चुनाव समाप्त तो देेश सहिष्णु हो गया, यह कैसे संभव है?' - मैंने पूछा।
''यह वैसे हो संभव है जैसे हर दूरदर्शनी कार्यक्रमवाला दर्शकों से मिलनेवाली कुछ हजार प्रतिक्रियाओं को लाखों बताकर उसे देश की राय और जीते हुए उम्मीदवार को देश द्वारा चुना गया बताता है, तब तो किसी को आपत्ति नहीं होती जबकि सब जानते हैं कि ऐसी प्रतियोगिताओं में १% लोग भी भाग नहीं लेते।'' - मित्र बोला।
''तुमने जैसे को तैसा मुहावरा तो सुना ही होगा। लोक सभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ने ढेरों वायदे किये, जितने पर उनके दलाध्यक्ष ने इसे 'जुमला' करार दिया, यह छल नहीं है क्या? छल का उत्तर भी छल ही होगा। तब जुमला 'विदेशों में जमा धन' था, अब 'सहिष्णुता' है. जनता दोनों चुनावों में ठगी गयी।
इसके बाद भी कहीं किसी दल अथवा नेता के प्रति उनके अनुयायियों में असंतोष नहीं है, धार्मिक संस्थाएँ और उनके अधिष्ठाता समाज कल्याण का पथ छोड़ भोग-विलास और संपत्ति - अर्जन को ध्येय बना बैठे हैं फिर भी उन्हें कोई ठुकराता नहीं, सब सर झुकाते हैं, सरकारें लगातार अपनी सुविधाएँ और जनता पर कर - भार बढ़ाती जाती हैं, फिर भी कोई विरोध नहीं होता, मंडियां बनाकर किसान को उसका उत्पाद सीधे उपभोक्ता को बेचने से रोका जाता है और सेठ जमाखोरी कर सैंकड़ों गुना अधिक दाम पर बेचता है तब भी सन्नाटा .... काश! न होती हममें या सहिष्णुता।'' मित्र ने बात समाप्त की।
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साँसों का कैदी
*
जब पहली बार डायलिसिस हुआ था तो समाचार मिलते ही देश में तहलका मच गया था। अनेक महत्वपूर्ण व्यक्ति और अनगिनत जनता अहर्निश चिकित्सालय परिसर में एकत्र रहते, डॉक्टर और अधिकारी खबरचियों और जिज्ञासुओं को उत्तर देते-देते हलाकान हो गए थे।
गज़ब तो तब हुआ जब प्रधान मंत्री ने संसद में उनके देहावसान की खबर दे दी, जबकि वे मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे। वस्तुस्थिति जानते ही अस्पताल में उमड़ती भीड़ और जनाक्रोश सम्हालना कठिन हो गया। प्रशासन को अपनी भूल विदित हुई तो उसके हाथ-पाँव ठन्डे हो गए। गनीमत हुई कि उनके एक अनुयायी जो स्वयं भी प्रभावी नेता थे, वहां उपस्थित थे, उन्होंने तत्काल स्थिति को सम्हाला, प्रधान मंत्री से बात की, संसद में गलत सूचना हेतु प्रधानमंत्री ने क्षमायाचना की।
धीरे-धीरे संकट टला.… आंशिक स्वास्थ्य लाभ होते ही वे फिर सक्रिय हो गए, सम्पूर्ण क्रांति और जनकल्याण के कार्यों में। बार-बार डायलिसिस की पीड़ा सहता तन शिथिल होता गया पर उनकी अदम्य जिजीविषा उन्हें सक्रिय किये रही। तन बाधक बनता पर मन कहता मैं नहीं हो सकता साँसों का कैदी।
***
पिंजरा
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परिंदे के पंख फ़ड़फ़ड़ाने से उनकी तन्द्रा टूटी, न जाने कब से ख्यालों में डूबी थीं। ध्यान गया कि पानी तो है ही नहीं है, प्यासी होगी सोचकर उठीं, खुद भी पानी पिया और कटोरी में भी भर दिया।
मन खो गया यादों में, बचपन, गाँव, खेत-खलिहान, छात्रावास, पढ़ाई, विवाह, बच्चे, बच्चों का बसा होना, नौकरी, विवाह और घर में खुद का अकेला होना। यह अकेलापन और अधिक सालने लगा जब वे भी चले गए कभी न लौटने के लिये। दुनिया का दस्तूर, जिसने सुना आया, धीरज धराया और पीठ फेर ली, किसी से कुछ घंटों में, किसी ने कुछ दिनों में।
अंत में रह गया बेटा, बहु तो आयी ही नहीं कि पोते की परीक्षा है, आज बेटा भी चला गया।
उनसे साथ चलने का अनुरोध किया किन्तु उन्हें इस औपचारिकता के पीछे के सच का अनुमान करने में देर न लगी, अनुमान सच साबित हुआ जब बेटे ने उनके दृढ़ स्वर में नकारने के बाद चैन की सांस ली।
चारों ओर व्याप्त खालीपन को भर रही थी परिंदे की आवाज़। 'बाई साब! कब लौं बिसूरत रैहो? उठ खें सपर ल्यो, मैं कछू बना देत हूँ। सो चाय-नास्ता कर ल्यो जल्दी से। जे आ गयी है जिद करके, जाहे सीखना है कछू, तन्नक बता दइयो' सुनकर चौंकी वह। देखा कामवाली के पीछे उसकी अनाथ नातिन छिप रही थी।
'कहाँ छिप रही है? यहाँ आ, कहते हुए हाथ बढ़ाकर बच्ची को खींच लिया अपने पास। क्या सीखेगी पूछा तो बच्ची ने इशारा किया हारमोनियम की तरफ। विस्मय से पूछा यह सीखेगी? अच्छा, सिखाऊँगी तुझे लेकिन तू क्या देगी मुझे?
सुनकर बच्ची ठिठकी कुछ सोचती रही फिर आगे बढ़कर दे दी एक पप्पी। पानी पीकर गा रही थी चिड़िया और मुस्कुरा रही बच्ची के साथ अब उन्हें घर नहीं लग रहा था पिंजरा।
१८.११.२०१५
***
नवगीत :
काल बली है
बचकर रहना
सिंह गर्जन के
दिन न रहे अब
तब के साथी?
कौन सहे अब?
नेह नदी के
घाट बहे सब
सत्ता का सच
महाछली है
चुप रह सहना
कमल सफल है
महा सबल है
कभी अटल था
आज अचल है
अनिल-अनल है
परिवर्तन की
हवा चली है
यादें तहना
ये इठलाये
वे इतराये
माथ झुकाये
हाथ मिलाये
अख़बारों
टी. व्ही. पर छाये
सत्ता-मद का
पैग ढला है
पर मत गहना
बिना शर्त मिल
रहा समर्थन
आज, करेगा
कल पर-कर्तन
कहे करो
ऊँगली पर नर्तन
वर अनजाने
सखा पुराने
तज मत दहना
१८.११.२०१४
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गुरुवार, 13 नवंबर 2025

नवंबर १३, चमेली, सरस्वती, हाइकु गीत, सगुण छंद, सुमेरु छंद, नरहरी छंद, राम, गहोई,

 सलिल सृजन नवंबर १३

*
चमेली चर्चा
°
जगी चमेली विहँसकर, जाग जुही से बोल।
सूरज का स्वागत करे, नित दरवज्जा खोल।।
°
चहक चपल चिड़िया करे, चूँ चूँ कर प्रभु गान।
बैठ चमेली डाल पर, मन ही मन अनुमान।।
मन ही मन अनुमान, गिलहरी करे कलेवा।
देख सके आकाश, बाज को आते देवा।।
कोटर में छिप गई, गिलहरी तुरत ही फुदक।
मिली जुही से पुलक, चमेली हुलसकर चहक।।
१३.११.२०२४
°
सरस्वती वंदना
(हाइकु गीत)
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।
विनत हम
सिर पर हमारे
हाथ धरिए।।
*
हंसवाहिनी!
अमल विमल दो
मति हमें माँ।
ध्याएँ तुमको
भजन गाकर
नित्य प्रति माँ।।
भाव-रस के
सृजन पथ पर
साथ चलिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।।
शब्द-अक्षर
सरस सहचर
बन सहारे।
पकड़कर
कर कलम छवि
प्यारी उतारे।।
आँख मन की
खुल निरख जग
कथा कहिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।।
*
बात अपनी
बिन हिचक हम
मिल लिखेंगे।
समय सच
दर्पण सदृश बिन
भय कहेंगे।।
पीर जग की
सकल हर भव
पार करिए।
सरस्वती जी!
नमन शत शत
दया करिए।
१३-११-२०२२
●●●
मुक्तक
खड़े सीमा पर सजग, सोते न प्रहरी ।
अड़े सरहद पर अभय, रोते न प्रहरी।।
शत्रु भय से काँपते, आएँ न सम्मुख -
मिले अवसर तो कभी, खोते न प्रहरी।।
छंदशाला ५०
सगुण छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष व तमाल छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, पदादि ल, पदांत ज।
लक्षण छंद
सगुण-निर्गुण दोनों है ईश एक।
यह सच सब जानते जिनमें विवेक।।
लघु-जगण हों आदि-अंत साथ-साथ।
करें देशसेवा सभी उठा माथ।।
उदाहरण
गुनगुना रहे भ्रमर, लखकर बसंत।
हिल-मिलकर घूमते, कामिनी-कंत।।
महक मोगरा कहे, मैं भी जवान।
मन मोहे चमेली, सुनाकर गान।।
१२-११-२०२२
•••
छंदशाला ५१
सुमेरु छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल व सगुण छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति १२-७ या १०-९।
लक्षण छंद
रखे यति बारह-सात, सुमेरु छंद।
दस-नौ भी हो यति, पाएं आनंद।।
लघु आदि; यगण से, पदांत भी करें-
काठज्या भाव लय रस, बिंब संग रखें।
उदाहरण
सत्य का अनुगमन, करना है सदा।
धर्म का अनुसरण, करना है बदा।।
जूझना खुद से हमें, प्रभु को भजें-
संतुलन ही साध्य है, सुख मत तजें।।
१३-११-२०२२
•••
छंदशाला ५२
नरहरी छंद
(इससे पूर्व- सुगती/शुभगति, छवि/मधुभार, गंग, निधि, दीप, अहीर/अभीर, शिव, भव, तोमर, ताण्डव, लीला, नित, चंद्रमणि/उल्लाला, धरणी/चंडिका, कज्जल, सखी, विजाति, हाकलि, मानव, मधुमालती, सुलक्षण, मनमोहन, सरस, मनोरम, चौबोला, गोपी, जयकारी/चौपई, भुजंगिनी/गुपाल, उज्जवला, पुनीत, पादाकुलक, पद्धरि, अरिल्ल, डिल्ला, पज्झटिका, सिंह, मत्त समक, विश्लोक, चित्रा, उपचित्रा, वानवसिका, राम, चंद्र, राजीवगण/माली, शक्ति, बंदन/रोली, पुरारि, पीयूषवर्ष, तमाल, सगुण व सुमेरु छंद)
विधान
प्रति पद १९ मात्रा, यति १४-५, पदांत न ग ।
लक्षण छंद
बचाने प्रह्लाद प्रगटे, नरहरी।
यति रखे यम-तत्व झपटे, नरहरी।।
नगण गुरु पद अंत रखकर, कवि रचें।
लोक में रचना सरस पुनि, पुनि बचें।।
टीप - याम १४, तत्व ५।
उदाहरण
छल न अपने आपसे किंचित करें।
फल न अपना आपका जो, मत धरें।।
बीज बोया आपने जो वह फले।
देखकर अरि आपसे नाहक जले।।
१३-११-२०२२
•••
***
दोहा सलिला
राम कथा
वह नर हुआ सुरेश, राम कृपा जिस पर हुई।
उससे खुद देवेश, करे स्पृहा निरंतर।।
कहें आंगिरस सत्य, राम कृष्ण दोउ एक हैं।
वे परमेश अनित्य, वेणु छोड़ धनु कर गहें।।
संगीता हर श्वास, जिसके मन संतोष है।
पूरी हो हर आस, सदानंद उसको मिले।।
जब कृपालु हों राम, जय जयंत को तब मिले।
प्रभु बिन विधना वाम, सिय अनंत गुण-धाम हैं।।
कृष्ण कथा रवि-रश्मि, राम कथा आदित्य है।
प्रभु महिमा का काव्य, सच सच्चा साहित्य है।।
भरद्वाज आश्रम चलें, राम कथा सुन धन्य।
मूल्य आचरण में ढलें, जीवन बने प्रणम्य।।
करिए मंगल कार्य, बाधाएँ हों उपस्थित।
करें विहँस स्वीकार्य, तजें न शुभ संकल्प हम।।
परखें आस्था दैव, किसकी कैसी भक्ति है?
विचलित हुआ न कौन?, जिसकी दृढ़ अनुरक्ति है।।
हों सात्विक तब लोग, संत रूप राजा रहे।
तब सत्ता है रोग, अगर नहीं सद आचरण।।
हो शासक सामान्य, हो विशिष्ट किंचित नहीं।
जनमत का प्राधान्य, राम राज्य तब हो यहीं।।
नहीं किसी से बैर, सदा सभी से निकटता।
तभी रहेगी खैर, जब शासक निष्पक्ष हो।।
समरसता ही साध्य, कहें राम दें बैर तज।
स्वामी-सेवक सम रहें, तभी सकेंगे ईश भज।।
राम सखा वर दीन, दीनों के प्रिय हो गए।
बंधु मानकर दौड़ , भेंटें भुज भरकर भरत।।
हैं परमेश्वर एक, किन्तु विभूति अनंत हैं।
हम मानव हों नेक, भिन्न भले ही पंथ हैं।।
कोई ऊँच; न नीच, कण-कण में सिय-राम।
देश-बाग दें सींच, फूले-फले सुदेश तब।।
राजपुत्र होकर नहीं, जन-चयनित थे राम।
जन आकांक्षा थी तभी, राम अवध-राजा हुए।।
मानव है चैतन्य, प्रश्न करे; हल चाहता।
क्यों जग में वैभिन्न्य, प्रभु से उत्तर चाहता।।
परम शक्ति भगवान्, सब कुछ करता है वही।
रखें हमेशा ध्यान, जो करते भोगें 'सलिल'।।
मनुज सोचता रहा, जाकर आते या नहीं?
एक नहीं मत रहा, विविध पंथ तब ही बने।।
भक्ति शक्ति अनुरक्ति, गुरु अनुकंपा से मिले।
साध्य न होती मुक्ति, प्रभु सेवा ही साध्य हो।।
सोच गहे आनंद, कामी नारी मिलन बिन।
धन से रखता प्रेम, लोभी करता व्यय नहीं।।
भक्त न साधे स्वार्थ, प्रेम अकारण ही करे।
लक्ष्य मात्र परमार्थ, कष्ट अगिन हँसकर सही।।
चित्रकार हर चित्र, निजानंद हित बनाता।
कब देखेगा कौन?, क्रय-विक्रय नहिं सोचता।।
निष्ठा ही हो साध्य, बार-बार बदलें नहीं।
अगिन न हों आराध्य, तभी भक्ति होती सफल।।
तन न; साध्य हो आत्म, माय-छाया एक है।
मूर्त तभी परमात्म, काया जब हो समर्पित।।
१३-११-२०२२
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पुरोवाक
फ़ुरक़त के बहाने : वस्ल के तराने
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'फ़ुरक़त' (विरह) और वस्ल (मिलन) एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सृष्टि की उत्पत्ति ही प्रकृति और पुरुष के मिलन से होती है। मिलन नव संतति को जन्म देता है जिसका पालन-पोषण मिलनकी अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। अन्य प्राणियों के लिए 'वस्ल' वंश-वृद्धि का माध्यम मात्र है इसलिए 'फ़ुरक़त' का वॉयस सिर्फ मौत होती है। इंसान ने अपने दिमाग के जरिए 'वस्ल' को रोजमर्रा की ज़िंदगी में शामिल कर लिया है। साइंसदां न्यूटन के मुताबिक कुदरत में हर 'एक्शन' का समान लेकिन उलटा 'रिएक्शन' होता है। जब इंसान ने 'वस्ल' की ख़ुशी को रोजमर्रा की ज़िंदगी में जोड़ लिया तो कुदरत ने इंसान के न चाहने पर भी 'फ़ुरक़त' को ज़िंदगी का हिस्सा बना दिया। 'वस्ल' और 'फ़ुरक़त' की शायरी ही 'ग़ज़ल' है। हिंदी में श्रृंगार रस के दो रंग 'मिलन' और 'विरह' के बिना रसानंद की प्राप्ति नहीं हो सकती। यह श्रृंगार जब सूफियाना रंग में ढलता है तो भक्त और भगवान के मध्य संवाद बन जाता है और जब दुनियावी शक्ल अख्तियार करता है तो माशूक और माशूका के दरमियां बातचीत का वायस बनता है।
ग़ज़ल : दिल को दिल से जोड़ती
ग़ज़ल अरबी साहित्य की प्रसिद्ध काव्य विधा है जो बाद में फ़ारसी, उर्दू, हिंदी, बांगला, मराठी, अंग्रेजी सहित विश्व की कई भाषाओँ में कहीं-पढ़ी और सुनी जाती है। अरबी में ग़ज़ल की पैदाइश भारत में आम लोगों और संतों द्वारा गयी जाती दूहों, त्रिपदियों और चौपदियों और षट्पदीयों के परंपरा में थोड़ा बदलाव कर किया गया। चौपदी की तीसरी और चौथी पंक्ति की तरह समभारिक पंक्तियों को जोड़ने पर मुक्तक ने जो शक्ल पाई, उसे ही 'ग़ज़ल' कहा गया। भारत से अरब-फारस तक आम लोगों, संत-फकीरों और व्यापारियों का आना-जाना हमेशा से होता रहा है। उनके साथ अदबी किताबें और जुबान भी यहाँ से वहां जाती रही। पहले तो जुबानी (मौखिक) लेन-देन हुआ होगा , बाद में लिपि का विकास होने पर ताड़पत्र, भोजपत्र पर कलम से लिखकर किताबें और उनकी नकलें इधर से उधर और उधर से इधर होती रहीं। भारत पर मुगलों के हमलों और उनकी सल्तनत कायम होने के दौर में अरबी-फ़ारसी-तुर्की वगैरह का भारत के सरहदी सूबों की जुबानों के साथ घुलना-मिलना होता रहा। नतीजतन एक नई जुबान सिपाहियों, मजदूरों, किसानों, व्यापारियों और हुक्मरानों के काम-काज के दौरान शक्ल अखित्यार करती रही। लश्करों में बोले जाने की वजह से इसे लश्करी, बाजारू काम-काज की जुबान होने की वजह से 'उर्दू' और महलों में काम आने की वज़ह से 'रेख़्ता' कहा गया। बाद में दिल्ली, हैदराबाद और लखनऊ मुगलों की सत्ता के केंद्र बने तो उर्दू जुबान की तीन शैलियाँ (स्कूल्स) सामने आईं।
हिंदी - उर्दू
अरबी-फारसी की जो काव्य शैलियाँ भारत में पसंद की गईं, उनमें 'भारत की चौपदियों को बढ़ाकर सातवीं सदी में बनाई गई ग़ज़ल' अव्वल थी और है। भारत में अपभृंश, संस्कृत, हिंदी तथा अन्य भाषाओँ/बोलिओं में गीति काव्य का विकास उच्चार (सिलेबल्स) के आधार पर उपयोग किये जा रहे वर्णों और मात्राओं से विकसित लय खंड (रुक्न) और छंद (बह्र) से हुआ। बहुत बाद में इसी तरह अरबी-फ़ारसी में ग़ज़ल कही गई। इसी वजह से भारत के लोगों को ग़ज़ल अपनी सी लगी और हिंदी ही नहीं भारत की कई सी दीगर जुबानों में ग़ज़ल कही जाने लगी। भारत में ग़ज़ल की दो शैलियाँ सामने आईं - पहली जो अरबी-फारसी ग़ज़लों की नकल कर उनके भाष-नियमों और बह्रों को आधार बनाकर लिखी गईं और दूसरी जो भारत के छंदों और हिंदी भाषा के व्याकरण, छंदशास्त्र, षट्कोण, बिम्बों का उपयोग कर कही गईं। शुरुआत में उर्दूभाषियों ने हिंदी ग़ज़ल को खारिज करने की कोशिश की बावजूद इसके कि उनके घरों में चूल्हे हिन्दीवालों द्वारा देवनागरी लिपि में उनकी गज़लें पढ़ने की वजह से जल रहे थे। इस तंग नज़रिए ने हिंदी ग़ज़ल को अलहदा पहचान दिलाने के हालत बनाये और हिंदी ग़ज़ल या भारतीय ग़ज़ल मुक्तिका, गीतिका, पूर्णिका, सजल, तेवरी आदि कही जाने लगी।
हिंदी ग़ज़ल - उर्दू ग़ज़ल
एक बात और साफ़ तौर पर समझी जानी चाहिए कि हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल न तो एक ही चीज हैं, न उनको शब्दों (अलफ़ाज़) की बिना पर अलग-अलग किया जा सकता है। बकौल प्रेमचंद बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्राय:एक सी हैं। दोनों जुबानों की निरस्त साझा है सिवाय इसके कि उर्दू की लिपि विदेशी है हिंदी की स्वदेशी। उर्दू ग़ज़ल को देवनागरी में लिखेजाने से यह फर्क भी खत्म होता जा रहा है। अब जो फर्क है वह है भाषाओं के भिन्न व्याकरण और पिंगल का। अरबी-फ़ारसी और हिंदी वर्णमाला का अंतर ही उर्दू-हिंदी ग़ज़ल को अलग-अलग करता है। अरबी-फ़ारसी के कुछ हर्फ़ हिंदी वर्णमाला में नहीं हैं, इसी तरह हिंदी वर्णमाला के कुछ अक्षर (वर्ण) अरबी-फारसी जुबान में नहीं हैं। तुकांत-पदांत (काफिया-रदीफ़) नियमों के अनुसार उनके उच्चार भिन्न नहीं समान होने चाहिए। हिंदी वर्णमाला की पंचम ध्वनिवाले शब्द तुकांत-पदांत में हों तो वे अरबी-फ़ारसी वर्णमाला में न होने के कारण उर्दू ग़ज़ल में नहीं लिखे जा सकते। इसी तरह कुछ ध्वनियों के लिए हिंदी वर्णमाला में एक वर्ण है किंतु अरबी-फ़ारसी वर्णमाला में एक से अधिक हर्फ़ हैं, इस वजह से हिंदी के शायर जिन शब्दों को ठीक समझ कर उपयोग करेगा कि उनमें सम ध्वनि है, अरबी-फ़ारसी के अनुसार उनमें भिन्न ध्वनि वाले हर्फ़ होने की वज़ह से उसे गलत कहा जाएगा। हिंदी के संयुक्ताक्षर भी उर्दू ग़ज़ल में स्थान नहीं पा सकते। अरबी-फ़ारसी के बिम्ब-प्रतीक हिंदी ग़ज़ल में अनुपयुक्त होंगे।
डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार 'हिंदी-उर्दू भाषियों की दो कौमें नहीं है, उनकी जाति एक है और बोलचाल की भाषा भी एक सी है।१ डॉ. शर्मा भूल जाते हैं कि जाती और भाषा एक होने पर भी आदमी-औरत, बच्चे-जवान-बूढ़े कुछ समानता रखते हुए भी पूरी तरह एक ही नहीं, भिन्न होते हैं। वे हिंदी-उर्दू के मुख्य अंतर वर्णमाला और विरासत या अतीत को भुला देते हैं। दुर्भाग्य से देवनागरी लिपि में हिंदी भाषियों द्वारा स्वीकारे जाने के बाद भी, अरबी-फ़ारसी से जुड़े रहने का अंधमोह उर्दू ग़ज़ल में भारतीय बिम्ब-प्रतीकों को दोयम दर्जा देता रहा है। खुद को अलग दिखाने की चाह सिर्फ ग़ज़ल में नहीं मुस्लिम संस्थाओं और लोगों के नामों में भी देखी जा सकती है।
हिंदी ग़ज़ल में तुकांत-पदांत का पालन किया जाता है किन्तु अंग्रेजी ग़ज़ल में ऐसा संभव नहीं हो पाता। अंग्रेजी ग़ज़ल में 'पेंशन' और 'अटेंशन' का पदांत स्वीकार्य है, जबकि हिंदी ग़ज़ल में 'होश' और 'कोष' का पदांत दोषपूर्ण कहा जाता है।
ग़ज़ल और संगीत
संगीत के क्षेत्र में ग़ज़ल गाने के लिए इरानी और भारतीय संगीत के मिश्रण से एक अलग शैली निर्मित हुई। भारतीय शास्त्रीय संगीत की ख्याल और ठुमरी शैली से शुरुआत कर अब ग़ज़ल को विविध सरल और मधुर रागों पर लिखा और गाया जाता है।
फ़ुरक़त की गज़लें
इस पृष्ठभूमि में फ़ुरक़त की ग़ज़लों में हिंदी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल की विरासत का सम्मिश्रण है। ग़ज़लों की गंगो-जमनी भाषा आँखों से दिमाग में नहीं, दिल में उतरती है। यह ख़ासियत इस ग़ज़लों को खास बनाती है। इन ग़ज़लों में 'कसीदे' से पैदा बताई जाती ग़ज़ल की तरह हुस्नों-इश्क़ के चर्चे नहीं हैं, न ही आशिको-माशूक की चिमगोइयाँ हैं। ये गज़लें वक़्त की आँखों में आँखें डालकर सवाल करती हैं -
मुझको आज़ादी से लेकर आज तक बतलाइए
आस क्या थी और क्या सरकार से हासिल हुआ?
आज़ादी के बाद से 'ब्रेन ड्रेन' (काबिल लोगों का विदेश जा बसना) की समस्या के शिकार इस मुल्क की तरफ से ऐसे खुदगर्ज़ लोगों को आईना दिखाती हैं विभा -
बहुत सोचा कि मैं जीवन गुजारूँ मुल्क के बाहर
मगर ग़ैरों के दर पर मौत भी अच्छी नहीं होती।।
विभा हिदायत देते समय मुल्क के बाशिंदों को भी नहीं बख्शतीं। वे हर उस जगह चोट करती हैं जहाँ बदलाव और सुधार की गुंजाइश देखती हैं।
गली हो या मोहल्ला हो 'विभा' ये ज़ह्न हो दिल हो
कहीं पे भी हो फ़ैली गंदगी अच्छी नहीं लगती।
ज़िन्दगी के मौजूदा हालात पर निगाह डालते हुए विभा देख पाती हैं कि घरों में जैसे-जैसे सहूलियात के सामन आते हैं, आपस में दूरियाँ बढ़ती जाती हैं। इस हक़ीक़त की तनक़ीद करती हुई वे कहती हैं -
फिर तमन्नाओं ने रक्खा है मेरे दिल में क़दम
चाँद मिट्टी के खिलौने मेरे घर में आ गए।।
बेसबब फिर बढ़ गयी हैं घर से अपनी दूरियाँ
हम भले बैठे-बिठाये क्यों सफर में आ गए।।
शहर जाकर गाँव को भूल जाने, शहर से आकर गाँव की फिज़ा बिगाड़ने, माँ की ममता को भूल जाने और अत्यधिक आधुनिकता के लिबास में इतराने की कुप्रवृत्ति पर शब्दाघात करते हुई विभा लिखती हैं -
फ़िज़ाएँ इस गाँव की कहती हैं उससे दूर रह
शह्र से लौटा है कितने पल्लुओं से खेलकर।।
मेरा भाई अब उसी माँ की कभी सुनाता नहीं
बन गया पापा वो जिसके पहलुओं में खेलकर।।
किस कदर लैलाएँ इतराने लगी हैं ऐ 'विभा'
आजकल के मनचले कुछ मजनूओं से खेलकर।।
सदियों पहले आदमी की आंख का पानी मरने की फ़िक्र करते हुए रहीं ने लिखा था 'बिन पानी सब सून', यह फ़िक्र तब से अब तक बरकरार है-
इस ज़माने में अब नहीं ग़ैरत
शर्म आँखों में मर गई साहिब।।
विभा का अंदाज़े-बयां, आम आदमी की जुबान में, उसी के हालात पर इस अंदाज़ में तब्सिरा करना है कि वह खुद ठिठककर सोचने लगे। शर्म ही नहीं साथ में ख़ुशी भी गायब हो गई-
आरज़ू दिल से हो गई रुख़सत
और ख़ुशी रूठकर गई साहिब।।
दुनिया-ए-फ़ानी में आना-जाना, एक दस्तूर की तरह है। विभा सूफियाना अंदाज़ में कहती हैं-
तेरी दुनिया सराय जैसी है
कोई आया अगर गया कोई।।
विभा बेहद सादगी से बात कहती हैं, वे पाठक को चौंकाती या डराती नहीं हैं। पूरी सादगी के बाद भी बात पुरअसर रहती हैं। 'इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ खुदा' -
यूँ तो सच्चाई की चिड़िया छटपटाई थी बहुत
आख़िरश फँस ही गई मक्कारियों के बीच में।।
एक माँ कई औलादों को पाल-पोसकर बड़ा और खड़ा कर देती है पर वे औलादें मिलकर भी माँ को नहीं सम्हाल पातीं। इस कड़वी सचाई को विभा एक शे'र में सामने रखती हैं -
बाँट के खाना ही जिस माँ ने सिखाया था कभी
आज वो खुद बँट गई दो भाइयों के बीच में।।
आज की भौतिकतावादी सोच और स्वार्थकेंद्रित जीवनदृष्टि बच्चों को बदजुबानी और बदगुमानी सिखा रही है -
निगल गई है शराफ़त को आज की तहज़ीब
है बदज़ुबान हुए बेज़ुबान से लड़के।।
कहते हैं 'मनुज बली नहीं होत है, समय होत बलवान'। विभा कहती हैं -
अपनी मर्जी से कोई कब काम होता है यहाँ
वक़्त के हाथों की कठपुतली रहा है आदमी।।
जीवन को समग्रता में देखती इन हिंदी ग़ज़लों में प्रेम भी है, पूरी शिद्दत के साथ है लेकिन वह खाम-ख़याली (कपोल कल्पना) नहीं जमीनी हक़ीक़त की तरह है।
इश्क़ में सोचना क्या है।
सोचने के लिए बचा क्या है?
लड़ गयी आँख हो गया जादू
गर नहीं ये तो हादसा क्या है?
बह्र छोटी हो या बड़ी विभा अपनी बैठत बहुत सफ़ाई और खूबसूरती से कहती हैं -
रात भर मुंतज़िर रहा कोई
छत पे आने से डर गया कोई।।
दिल था बेकार उसको तोड़ गया
ये भला काम कर गया कोई
इन ग़ज़लों में अनुपास अलंकार तो सर्वत्र है ही। यमक की छटा देखिए -
मेरी आँखों से तारे टपकते रहे
रात रोती रही रात भर देखिए।।
'व्यंजना' में बात कहने का सलीका और वक्रोक्ति अलंकार की झलक देखिए -
यह हुनर भी तुम्हीं से सीखा है
चार में दो मिलाके सात करूँ।।
सारत:, फ़ुरक़त की गज़लें वक़्त की नब्ज़ टटोलने की कामयाब कोशिश है। गज़लसरा का यह पहला दीवान पाठकों को पसंद आएगा, यह भरोसा है। विभा हालात की हालत पर नज़र रखते हुए ग़ज़ल कहने का सिलसिला न केवल जरी रखें अपना अगला दीवान जल्द से जल्द लाएँ 'अल्लाह करे जोरे कलम और जियादा'।
संदर्भ १, भाषा और समाज पृष्ठ ३५७।
१३.११.२०२१
संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विशववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१
ईमेल salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४
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हाइकु गीत
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ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।
*
हमेशा रहे / गतिमान जो वह / है मतिमान।
सही हो दिशा / साथ हो मति-गति / चाहें सुजान।।
पास या दूर
न भूलता मंजिल
तभी वरता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
*
रजनी संग सो / उषा के साथ जागे / रंगे प्राची को।
सखी किरणें / गुइंया दोपहरी / वरे संध्या को।।
ताके धरा को
करता रंगरेली
छैला सजता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
*
आँखें दिखाता / कभी नहीं झुकाता / नैना लड़ाता।
तम हरता / किसी से न डरता / प्रकाशदाता।।
है खाली हाथ
जग झुकाए माथ
धैर्य धरता।
ऊगे या डूबे
सूर्य कब थकता?
सदा चलता।।
१३.११.२०२१
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कुण्डलिया
राजनीति आध्यात्म की, चेरी करें न दूर
हुई दूर तो देश पर राज करेंगे सूर
राज करेंगे सूर, लड़ेंगे हम आपस में
सृजन छोड़ आनंद गहेँगे, निंदा रस में
देरी करें न और, वरें राह परमात्म की
चेरी करें न दूर, राजनीति आध्यात्म की
संजीव, १३.११.२०१८
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मुक्तक : गहोई
कहो पर उपकार की क्या फसल बोई?
मलिनता क्या ज़िंदगी से तनिक धोई?
सत्य-शिव-सुन्दर 'सलिल' क्या तनिक पाया-
गहो ईश्वर की कृपा तब हो गहोई।।
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कहो किसका कब सदा होता है कोई?
कहो किसने कमाई अपनी न खोई?
कर्म का औचित्य सोचो फिर करो तुम-
कर गहो ईमान तब होगे गहोई।।
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सफलता कब कहो किसकी हुई गोई?
श्रम करो तो रहेगी किस्मत न सोई.
रास होगी श्वास की जब आस के संग-
गहो ईक्षा संतुलित तब हो गहोई।।
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कर्म माला जतन से क्या कभी पोई?
आस जाग्रत रख हताशा रखी सोई?
आपदा में धैर्य-संयम नहीं खोना-
गहो ईप्सा नियंत्रित तब हो गहोई।।
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सफलता अभिमान कर कर सदा रोई.
विफलता की नष्ट की क्या कभी चोई..
प्रयासों को हुलासों की भेंट दी क्या?
गहो ईर्ष्या 'सलिल' मत तब हो गहोई।
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(गोई = सखी, ईक्षा = दृष्टि, पोई = पिरोई / गूँथी,
ईप्सा = इच्छा,
१३.११.२०१७
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गीत
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पूछ रही पीपल से तुलसी
बोलो ऊँचा कौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया
तब उत्तर पाया मौन
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मीठा कोई कितना खाये
तृप्तिं न होती
मिले अलोना तो जिव्हा
चखने में रोती
अदा करो या नहीं किन्तु क्या
नहीं जरूरी नौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
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भुला स्वदेशी खुद को ठगते
फिर पछताते
अश्रु छिपाते नैन पर अधर
गाना गाते
टूथपेस्ट ने ठगा न लेकिन
क्यों चाहा दातौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
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हाय-बाय लगती बलाय
पर नमन न करते
इसकी टोपी उसके सर पर
क्यों तुम धरते?
क्यों न सुहाता संयम मन को
क्यों रुचता है यौन?
जब भी मैंने प्रश्न किया है
तब उत्तर पाया मौन
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षट्पदी
*
करे न नर पाणिग्रहण, यदि फैला निज हाथ
नारी-माँग न पा सके, प्रिय सिंदूरी साज?
प्रिय सिंदूरी साज, न सबला त्याग सकेगी
'अबला' 'बला' बने क्या यह वर-दान मँगेंगी ?
करता नर स्वीकार, फजीहत से न डरे
नारी कन्यादान, न दे- वरदान नर करे
१३.११.२०१६
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