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शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

फरवरी १४, त्रिभंगी, हरिगीतिका, बसंत, वैलेंटाइन, सॉनेट, हाइकु, लघुकथा, मुक्तक, दोहा,

सलिल सृजन फरवरी १४
*
पूर्णिका
अलख निरंजन
द्वार-द्वार जा अलख निरंजन
रहे गुँजाते, अब न पड़े सुन

जो उधेड़ते बखिया सबकी
वे ही कहते नित सपने बुन

बने जहाँ घर वहीं स्वर्ग है
नर्क बने घर जहाँ रही ठन

दोस्त एक मिलता मुश्किल से
दुश्मन बन जाते हैं अनगिन

ओ मेरे मन! मत हो उन्मन
झटपट करले प्रिय का सुमिरन

मेज पीट मत तोड़ें सांसद
सीख बजाना तबला ता-धिन

वेलेंटाइन सात दिनों का
बेलन टाइम है आजीवन

खेलें पवन कली न भ्रमर यदि
हो कैसे संजीवित मधुबन

सज्जन कहे सियासत खुद को
बचिए! बिना सिया-सत दुर्जन
१४.२.२०२५
०००
सॉनेट
प्रेम
प्रेम फूल से सब करते हैं
काश! धूल से भी कर पाएँ
रंग-रूप पर जो मरते हैं
गीत सद्गुणों के गुंजाएँ
मन से मन के तार जुड़ें तो
तन-वीणा से सरगम निकले
थाम हाथ में हाथ उड़ें तो
कदम न बहके, कभी न फिसले
प्रेम पर्व पल-पल मनाइए
कुंभ नहाएँ सुमिर-सुमिरकर 
अश्रु बहा दिल मत दुखाइए
प्रेम न मरता है अजरामर
प्रेम जिंदगी हँसकर जीना
क्षेम सृजनरत रह लब सीना
१४-२-२०२५
०००
सॉनेट
सदा सुहागिन
खिलती-हँसती सदा सुहागिन।
प्रिय-बाहों में रहे चहकती।
वर्षा-गर्मी हँसकर सहती।।
करे मकां-घर सदा सुहागिन।।
गमला; क्यारी या वन-उपवन।
जड़ें जमा ले, नहीं भटकती।
बाधाओं से नहीं अटकती।।
कहीं न होती किंचित उन्मन।।
दूर व्याधियाँ अगिन भगाती।
अपनों को संबल दे-पाती।
जीवट की जय जय गुंजाती।।
है अविनाशी सदा सुहागिन।
प्रिय-मन-वासी सदा सुहागिन।
बारहमासी सदा सुहागिन
•••
सॉनेट
रामजी
मन की बातें करें रामजी।
वादे कर जुमला बतला दें।
जन से घातें करें रामजी।।
गले मिलें, ठेंगा दिखला दे।।
अपनी छवि पर आप रीझते।
बात-बात में आग उगलते।
सत्य देख-सुन रूठ-खीजते।।
कड़वा थूकें, मधुर निगलते।।
टैक्स बढ़ाएँ, रोजी छीने।
चीन्ह-चीन्ह रेवड़ियाँ बाँटें।
ख्वाब दिखाते कहें नगीने।।
काम कराकर मारें चाँटे।।
सिय जंगल में पठा रामजी।
सत्ता सुख लें ठठा रामजी।।
१४-२-२०२२
•••
सॉनेट
वसुधा
वसुधा धीरजवान गगन सी।
सखी पीर को गले लगाती।
चुप सह लेती, फिर मुसकाती।।
रही गुनगुना आप मगन सी।।
करें कनुप्रिया का हरि वंदन।
साथ रहें गोवर्धन पूजें।
दूर रहें सुधियों में डूबें।।
विरह व्यथा हो शीतल चंदन।
सुख मेहमां, दुख रहवासी हम।
विपिन विहारी, वनवासी हम।
भोग-योगकर सन्यासी हम।।
वसुधा पर्वत-सागर जंगल।
वसुधा खातिर होते दंगल।
वसुधा करती सबका मंगल।।
१४-२-२०२२
•••
मुक्तिका
*
बात करिए तो बात बनती है
बात बेबात हो तो खलती है
बात कह मत कहें उसे जुमला-
बात भूलें तो नाक कटती है
बात सच्ची तो मूँछ ऊँची हो
बात कच्ची न तुझ पे फबती है
बात की बात में जो बात बने
बात सौगात होती रचती है
बात का जो धनी भला मानुस
बात से जात पता चलती है
बात सदानंद दे मिटाए गम
बात दुनिया में तभी पुजती है
बात करता 'सलिल' कवीश्वर से
होती करताल जिह्वा भजती है
१४-२-२०२१
***
कार्यशाला
दोहा+रोला=कुंडलिया
*
"बाधाओं से भागना, हिम्मत का अपमान।
बाधाओं का सामना, वीरों की पहचान।" -पुष्पा जोशी
वीरों की पहचान, रखें पुष्पा मन अपना
जोशीली मन-वृत्ति, करें पूरा हर सपना
बने जीव संजीव, जीतकर विपदाओं से
सलिल मिटा जग तृषा, जूझकर बाधाओं से।।' - सलिल
***
हास्य रचना
मिली रूपसी मर मिटा, मैं न करी फिर देर।
आँख मिला झट से कहा, ''है किस्मत का फेर।।
एक दूसरे के लिए, हैं हम मेरी जान।
अधिक जान से 'आप' को, मैं चाहूँ लें मान।।"
"माना लेकिन 'भाजपा', मुझको भाती खूब।
'आप' छोड़ विश्वास को, हो न सके महबूब।।"
जीभ चिढ़ा ठेंगा दिखा, दूर हुई हो लाल।
कमलमुखी मैं पीटता, हाय! 'आप' कह भाल।।
१४-२-२०१८
***
दोहा सलिला
*
[भ्रमर दोहा- २६ वर्ण, ४ लघु, २२ गुरु]
मात्राएँ हों दीर्घ ही, दोहा में बाईस
भौंरे की गुंजार से, हो भौंरी को टीस
*
फैलुं फैलुं फायलुं, फैलुं फैलुं फाय
चोखा दोहा भ्रामरी, गुं-गुं-गुं गुंजाय
*
श्वासें श्वासों में समा, दो हो पूरा काज,
मेरी ही तो हो सखे, क्यों आती है लाज?
*
जीते-हारे क्यों कहो?, पूछें कृष्णा नैन
पाँचों बैठे मौन हो, क्या बोलें बेचैन?
*
तोलो-बोलो ही सही, सीधी सच्ची रीत
पाया-खोने से नहीं, होते हीरो भीत
*
नेता देता है सदा, वादों की सौगात
भूले से माने नहीं, जो बोली थी बात
*
शीशा देखे सुंदरी, रीझे-खीझे मुग्ध
सैंया हेरे दूर से, अंगारे सा दग्ध
*
बोले कैसे बींदड़ी, पाती पाई आज
सिंदूरी हो गाल ने, खोला सारा राज
*
चच्चा को गच्चा दिया, बच्चा ऐंठा खूब
सच्ची लुच्चा हो गया, बप्पा बैठा डूब
*
बुन्देली आल्हा सुनो, फागें भी विख्यात
राई का सानी नहीं, गाओ जी सें तात
***
दोहा सलिला:
वैलेंटाइन
संजीव
*
उषा न संध्या-वंदना, करें खाप-चौपाल
मौसम का विक्षेप ही, बजा रहा करताल
*
लेन-देन ही प्रेम का मानक मानें आप
किसको कितना प्रेम है?, रहे गिफ्ट से नाप
*
बेलन टाइम आगया, हेलमेट धर शीश
घर में घुसिए मित्रवर, रहें सहायक ईश
*
पर्व स्वदेशी बिसरकर, मना विदेशी पर्व
नकद संस्कृति त्याग दी, है उधार पर गर्व
*
उषा गुलाबी गाल पर, लेकर आई गुलाब
प्रेमी सूरज कह रहा, प्रोमिस कर तत्काल
*
धूप गिफ्ट दे धरा को, दिनकर करे प्रपोज
देख रहा नभ मन रहा, वैलेंटाइन रोज
*
रवि-शशि से उपहार ले, संध्या दोनों हाथ
मिले गगन से चाहती, बादल का भी साथ
*
चंदा रजनी-चाँदनी, को भेजे पैगाम
मैंने दिल कर दिया है, दिलवर तेरे नाम
*
पुरवैया-पछुआ कहें, चखो प्रेम का डोज
मौसम करवट बदलता, जब-जब करे प्रपोज
***
लघु कथा
वैलेंटाइन
*
'तुझे कितना समझाती हूँ, सुनता ही नहीं। उस छोरी को किसी न किसी बहाने कुछ न कुछ देता रहता है। इतने दिनों में तो बात आगे बढ़ी नहीं।  अब तो उसका पीछा छोड़ दे।'
"क्यों छोड़ दूँ? तेरे कहने से रोज सूर्य को जल देता हूँ न? फिर उसे कैसे छोड़ दूँ?"
'सूर्य को जल देने से इसका क्या संबंध?'
"है न, देख सूर्य धरती को धूप की गिफ्ट देकर प्रोपोज करता हैं न? धरती माने या न माने सूराज धूप देना बंद तो नहीं करता। मैं सूरज की रोज पूजा करूँ और उससे इतनी सी सीख भी न लूँ कि किसी को चाहो तो बदले में कुछ न चाहो, तो रोज जल चढ़ाना व्यर्थ हो जायेगा न? सूरज और धरती की तरह मुझे भी मनाते रहना है वैलेंटाइन।"
***
कार्यशाला
कुंडलिया
साजन हैं मन में बसे, भले नजर से दूर
सजनी प्रिय के नाम से, हुई जगत मशहूर -मिथलेश
हुई जगत मशहूर, तड़पती रहे रात दिन
अमन चैन है दूर, सजनि का साजन के बिन
निकट रहे या दूर, नहीं प्रिय है दूजा जन
सजनी के मन बसे, हमेशा से ही साजन - संजीव
***
मुक्तक
महिमा है हिंदी की, गरिमा है हिंदी की, हिंदी बोलिए तो, पूजा हो जाती है
जो न हिंदी बोलते हैं, अंतर्मन न खोलते हैं, अनजाने उनसे ही, भूल हो जाती है
भारती की आरती, उतारते हैं पुण्यवान, नेह नर्मदा आप, उनके घर आती है
रात हो प्रभात, सूर्य कीर्ति का चमकता है, लेखनी आप ही, गंगा में नहाती है
१४-२-२०१७
***
लघुकथा
गद्दार कौन
*
कुछ युवा साथियों के बहकावे में चंद लोगों के बीच एक झंडा दिखाने और कुछ नारों को लगाने का प्रतिफल, पुलिस की लाठी, कैद और गद्दार का कलंक किन्तु उसी घटना को हजारों बार,लाखों दर्शकों और पाठकों तक पहुँचाने का प्रतिफल देशभक्त होने का तमगा क्यों?
यदि ऐसी दुर्घटना प्रचार न किया जाए तो वह चंद क्षणों में चंद लोगों के बीच अपनी मौत आप न मर जाए? हम देश विरोधियों पर कठोर कार्यवाही न कर उन्हें प्रचारित-प्रसारित कर उनके प्रति आकर्षण बढ़ाने में मदद क्यों करते हैं? गद्दार कौन है नासमझी या बहकावे में एक बार गलती करने वाले या उस गलती का करोड़ गुना प्रसार कर उसकी वृद्धि में सहायक होने वाले?
***
रसानंद दे छंद नर्मदा १५ : हरिगीतिका
दोहा, आल्हा, सार ताटंक,रूपमाला (मदन),चौपाई, छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिए हरिगीतिका से.
हरिगीतिका मात्रिक सम छंद हैं जिसके प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं । यति १६ और १२ मात्राओं पर होती है। पंक्ति के अंत में लघु और गुरु का प्रयोग होता है। भिखारीदास ने छन्दार्णव में गीतिका नाम से 'चार सगुण धुज गीतिका' कहकर हरिगीतिका का वर्णन किया है। हरिगीतिका के पारम्परिक उदाहरणों के साथ कुछ अभिनव प्रयोग, मुक्तक, नवगीत, समस्यापूर्ति (शीर्षक पर रचना) आदि नीचे प्रस्तुत हैं।
छंद विधान: हरिगीतिका X 4 = 11212 की चार बार आवृत्ति
०१. हरिगीतिका २८ मात्रा का ४ समपाद मात्रिक छंद है।
०२. हरिगीतिका में हर पद के अंत में लघु-गुरु ( छब्बीसवी लघु, सत्ताइसवी-अट्ठाइसवी गुरु ) अनिवार्य है।
०३. हरिगीतिका में १६-१२ या १४-१४ पर यति का प्रावधान है।
०४. सामान्यतः दो-दो पदों में समान तुक होती है किन्तु चारों पदों में समान तुक, प्रथम-तृतीय-चतुर्थ पद में समान तुक भी हरिगीतिका में देखी गयी है।
०५. काव्य प्रभाकरकार जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' के अनुसार हर सतकल अर्थात चरण में (11212) पाँचवी, बारहवीं, उन्नीसवीं तथा छब्बीसवीं मात्रा लघु होना चाहिए। कविगण लघु को आगे-पीछे के अक्षर से मिलकर दीर्घ करने की तथा हर सातवीं मात्रा के पश्चात् चरण पूर्ण होने के स्थान पर पूर्व के चरण काअंतिम दीर्घ अक्षर अगले चरण के पहले अक्षर या अधिक अक्षरों से संयुक्त होकर शब्द में प्रयोग करने की छूट लेते रहे हैं किन्तु चतुर्थ चरण की पाँचवी मात्रा का लघु होना आवश्यक है।
मात्रा बाँट: I I S IS S SI S S S IS S I I IS या ।। ऽ। ऽ ऽ ऽ।ऽ।।ऽ। ऽ ऽ ऽ। ऽ
कहते हुए यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गए ।
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गए पंकज नए ॥
उदाहरण :
०१. मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा।
नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः।
स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,
अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः ॥
०२. निज गिरा पावन करन कारन, राम जस तुलसी कह्यो. (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०३. दुन्दुभी जय धुनि वेद धुनि, नभ नगर कौतूहल भले. (रामचरित मानस)
(यति १४-१४ पर, ५वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०४. अति किधौं सरित सुदेस मेरी, करी दिवि खेलति भली। (रामचंद्रिका)
(यति १६-१२ पर, ५वी-१९ वी मात्रा दीर्घ, १२ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०५. जननिहि बहुरि मिलि चलीं उचित असीस सब काहू दई। (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, १२ वी, २६ वी मात्राएँ दीर्घ, ५ वी, १९ वी मात्राएँ लघु)
०६. करुना निधान सुजान सील सनेह जानत रावरो। (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
०७. इहि के ह्रदय बस जानकी जानकी उर मम बास है। (रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १९ वी मात्रा दीर्घ)
०८. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचरित मानस)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी, १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
०९. तब तासु छबि मद छक्यो अर्जुन हत्यो ऋषि जमदग्नि जू।(रामचंद्रिका)
(यति १६-१२ पर, ५ वी, २६ वी मात्राएँ लघु, १२ वी, १९ वी मात्राएँ दीर्घ)
१०. जिसको न निज / गौरव तथा / निज देश का / अभिमान है।
वह नर नहीं / नर-पशु निरा / है और मृतक समान है। (मैथिलीशरण गुप्त )
(यति १६-१२ पर, ५ वी, १२ वी, १९ वी, २६ वी मात्राएँ लघु)
११. जब ज्ञान दें / गुरु तभी नर/ निज स्वार्थ से/ मुँह मोड़ता।
तब आत्म को / परमात्म से / आध्यात्म भी / है जोड़ता।।(संजीव 'सलिल')
अभिनव प्रयोग:
हरिगीतिका मुक्तक:
पथ कर वरण, धर कर चरण, थक मत चला, चल सफल हो.
श्रम-स्वेद अपना नित बहा कर, नव सृजन की फसल बो..
संचय न तेरा साध्य, कर संचय न मन की शांति खो-
निर्मल रहे चादर, मलिन हो तो 'सलिल' चुपचाप धो..
*
करता नहीं, यदि देश-भाषा-धर्म का, सम्मान तू.
धन-सम्पदा, पर कर रहा, नाहक अगर, अभिमान तू..
अभिशाप जीवन बने तेरा, खो रहा वरदान तू-
मन से असुर, है तू भले, ही जन्म से इंसान तू..
*
करनी रही, जैसी मिले, परिणाम वैसा ही सदा.
कर लोभ तूने ही बुलाई शीश अपने आपदा..
संयम-नियम, सुविचार से ही शांति मिलती है 'सलिल'-
निस्वार्थ करते प्रेम जो, पाते वही श्री-संपदा..
*
धन तो नहीं, आराध्य साधन मात्र है, सुख-शांति का.
अति भोग सत्ता लोभ से, हो नाश पथ तज भ्रान्ति का..
संयम-नियम, श्रम-त्याग वर, संतोष कर, चलते रहो-
तन तो नहीं, है परम सत्ता उपकरण, शुचि क्रांति का..
*
करवट बदल ऋतुराज जागा विहँस अगवानी करो.
मत वृक्ष काटो, खोद पर्वत, नहीं मनमानी करो..
ओजोन है क्षतिग्रस्त पौधे लगा हरियाली करो.
पर्यावरण दूषित सुधारो अब न नादानी करो..
*
उत्सव मनोहर द्वार पर हैं, प्यार से मनुहारिए.
पथ भोर-भूला गहे संध्या, विहँसकर अनुरागिए ..
सबसे गले मिल स्नेहमय, जग सुखद-सुगढ़ बनाइए.
नेकी विहँसकर कीजिए, फिर स्वर्ग भू पर लाइए..
*
हिल-मिल मनायें पर्व सारे, बाँटकर सुख-दुःख सभी.
जलसा लगे उतरे धरा पर, स्वर्ग लेकर सुर अभी.
सुर स्नेह के छेड़ें अनवरत, लय सधे सद्भाव की.
रच भावमय हरिगीतिका, कर बात नहीं अभाव की..
*
त्यौहार पर दिल मिल खिलें तो, बज उठें शहनाइयाँ.
मड़ई मेले फेसटिवल या हाट की पहुनाइयाँ..
सरहज मिले, साली मिले या संग हों भौजाइयाँ.
संयम-नियम से हँसें-बोलें, हो नहीं रुस्वाइयाँ..
*
कस ले कसौटी पर 'सलिल', खुद आप निज प्रतिमान को.
देखे परीक्षाकर, परखकर, गलतियाँ अनुमान को..
एक्जामिनेशन, टेस्टिंग या जाँच भी कर ले कभी.
कविता रहे कविता, यही है, इम्तिहां लेना अभी..
*
अनुरोध विनती निवेदन है व्यर्थ मत टकराइए.
हर इल्तिजा इसरार सुनिए, अर्ज मत ठुकराइए..
कर वंदना या प्रार्थना हों अजित उत्तम युक्ति है.
रिक्वेस्ट है इतनी कि भारत-भक्ति में ही मुक्ति है..
*
समस्यापूर्ति
बाँस (हरिगीतिका)
*
रहते सदा झुककर जगत में सबल जन श्री राम से
भयभीत रहते दनुज सारे त्रस्त प्रभु के नाम से
कोदंड बनता बाँस प्रभु का तीर भी पैना बने
पतवार बन नौका लगाता पार जब अवसर पड़े
*
बँधना सदा हँस प्रीत में, हँसना सदा तकलीफ में
रखना सदा पग सीध में, चलना सदा पग लीक में
प्रभु! बाँस सा मन हो हरा, हो तीर तो अरि हो डरा
नित रीत कर भी हो भरा, कस लें कसौटी हो खरा
*
नवगीत:
*
पहले गुना
तब ही चुना
जिसको ताजा
वह था घुना
*
सपना वही
सबने बना
जिसके लिए
सिर था धुना
*
अरि जो बना
जल वो भुना
वह था कहा
सच जो सुना
.
(प्रयुक्त छंद: हरिगीतिका)
नवगीत:
*
करना सदा
वह जो सही
*
तक़दीर से मत हों गिले
तदबीर से जय हों किले
मरुभूमि से जल भी मिले
तन ही नहीं मन भी खिले
वरना सदा
वह जो सही
भरना सदा
वह जो सही
*
गिरता रहा, उठता रहा
मिलता रहा, छिनता रहा
सुनता रहा, कहता रहा
तरता रहा, मरता रहा
लिखना सदा
वह जो सही
दिखना सदा
वह जो सही
*
हर शूल ले, हँस फूल दे
यदि भूल हो, मत तूल दे
नद-कूल को पग-धूल दे
कस चूल दे, मत मूल दे
सहना सदा
वह जो सही
तहना सदा
वह जो सही
*
(प्रयुक्त छंद: हरिगीतिका)
१४.२.२०१६
एक रचना-
*
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
हमरो स्याह सुफेद सरीखो
तुमरो धौला कारो दीखो
पंडज्जी ने नोंचो-खाओ
हेर सनिस्चर भी सरमाओ
घना बाज रओ थोथा दाना
ठोस पका
हिल-मिल खा जाओ
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
*
हमरो पाप पुन्न सें बेहतर
तुमरो पुन्न पाप सें बदतर
होते दिख रओ जा जादातर
ऊपर जा रो जो बो कमतर
रोन न दे मारे भी जबरा
खूं कहें आँसू
चुप पी जाओ
हम का कर रए?
जे मत पूछो,
तुम का कर रए
जे बतलाओ?
८.२.२०१६
***
नवगीत-
महाकुम्भ
*
मन प्राणों के
सेतुबन्ध का
महाकुंभ है।
*
आशाओं की
वल्लरियों पर
सुमन खिले हैं।
बिन श्रम, सीकर
बिंदु, वदन पर
आप सजे हैं।
पलक उठाने में
भारी श्रम
किया न जाए-
रूपगर्विता
सम्मुख अवनत
प्रणय-दंभ है।
मन प्राणों के
सेतुबन्ध का
महाकुंभ है।
*
रति से रति कर
बौराई हैं
केश लताएँ।
अलक-पलक पर
अंकित मादक
मिलन घटाएँ।
आती-जाती
श्वास और प्रश्वास
कहें चुप-
अनहोनी होनी
होते लख
जग अचंभ है।
मन प्राणों के
सेतुबन्ध का
महाकुंभ है।
*
एच ए ७ अमरकंटक एक्सप्रेस
३. ४२, ६-२-२०१६
***
नवगीत:
.
जन चाहता
बदले मिज़ाज
राजनीति का
.
भागे न
शावकों सा
लड़े आम आदमी
इन्साफ मिले
हो ना अब
गुलाम आदमी
तन माँगता
शुभ रहे काज
न्याय नीति का
.
नेता न
नायकों सा
रहे आक आदमी
तकलीफ
अपनी कह सके
तमाम आदमी
मन चाहता
फिसले न ताज
लोकनीति का
(रौद्राक छंद)
****
द्विपदी / शे'र
लब तरसते रहे आयीं न, चाय भिजवा दी
आह दिल ने करी, लब दिलजले का जला.
***
हाइकु
.
दर्द की धूप
जो सहे बिना झुलसे
वही है भूप
.
चाँदनी रात
चाँद को सुनाते हैं
तारे नग्मात
.
शोर करता
बहुत जो दरिया
काम न आता
.
गरजते हैं
जो बादल वे नहीं
बरसते हैं
.
बैर भुलाओ
वैलेंटाइन मना
हाथ मिलाओ
.
मौन तपस्वी
मलिनता मिटाये
नदी का पानी
.
नहीं बिगड़ा
नदी का कुछ कभी
घाट के कोसे
.
गाँव-गली के
दिल हैं पत्थर से
पर हैं मेरे
.
गले लगाते
हँस-मुस्काते पेड़
धूप को भाते
१४-२-२०१५
***
मुक्तक
वैलेंटाइन पर्व:
*
भेंट पुष्प टॉफी वादा आलिंगन भालू फिर प्रस्ताव
लला-लली को हुआ पालना घर से 'प्रेम करें' शुभ चाव
कोई बाँह में, कोई चाह में और राह में कोई और
वे लें टाई न, ये लें फ्राईम, सुबह-शाम बदलें का दौर
***
त्रिभंगी सलिला:
ऋतुराज मनोहर...
*
ऋतुराज मनोहर, प्रीत धरोहर, प्रकृति हँसी, बहु पुष्प खिले.
पंछी मिल झूमे, नभ को चूमे, कलरव कर भुज भेंट मिले..
लहरों से लहरें, मिलकर सिहरें, बिसरा शिकवे भुला गिले.
पंकज लख भँवरे, सजकर सँवरे, संयम के दृढ़ किले हिले..
*
ऋतुराज मनोहर, स्नेह सरोवर, कुसुम कली मकरंदमयी.
बौराये बौरा, निरखें गौरा, सर्प-सर्पिणी, प्रीत नयी..
सुरसरि सम पावन, जन मन भावन, बासंती नव कथा जयी.
दस दिशा तरंगित, भू-नभ कंपित, प्रणय प्रतीति न 'सलिल' गयी..
*
ऋतुराज मनोहर, सुनकर सोहर, झूम-झूम हँस नाच रहा.
बौराया अमुआ, आया महुआ, राई-कबीरा बाँच रहा..
पनघट-अमराई, नैन मिलाई के मंचन के मंच बने.
कजरी-बम्बुलिया आरोही-अवरोही स्वर हृद-सेतु तने..
१४-२-२०१३
***

शनिवार, 16 मार्च 2024

मार्च १६, दोहा, यमक, जनक छंद, श्रृंगार गीत, तुम, मुक्तिका, बाँसुरी, बसंत

सलिल सृजन १६ मार्च 
स्मरण युगतुलसी
मीमांसा अद्भुत नई,
शब्द-शब्द में अर्थ नव,
युग तुलसी ने बताए।
गूढ़ तत्व अतिशय सरल,
परस भक्ति का पा हुए,
हुईं सहायक शारदा।
मानस मानस में बसी,
जन मानस में पैठकर,
मानुस को मानुस करे।
भाव-भक्ति-रस नर्मदा,
दसों दिशा में बहाकर,
धन्य रामकिंकर हुए।
जबलपुर से अवधपुरी,
राम भक्ति की पताका,
युगतुलसी फहरा गए।
हनुमत कृपा अपार पा,
राम नाम जप साधना,
कर किंकर प्रभु प्रिय हुए।
राम भक्ति मंदाकिनी,
संस्कारधानी नहा,
युग तुलसी मय हो गई।
मिली मैथिली शरण जब,
हनुमत-किंकर धन्य हो,
रमारमण में रम गए।
जनकनंदिनी जानकी,
सदय रहीं सुत पर सदा,
राम कृपा अमृत पिला।
(जनक छंद) 
१६.३.२०२४
•••
गले मिलें दोहा यमक
*
चिंता तज चिंतन करें, दोहे मोहें चित्त
बिना लड़े पल में करें, हर संकट को चित्त
*
दोहा भाषा गाय को, गहा दूध सम अर्थ
दोहा हो पाया तभी, सचमुच छंद समर्थ
*
सरिता-सविता जब मिले, दिल की दूरी पाट
पानी में आगी लगी, झुलसा सारा पाट
*
राज नीति ने जब किया, राजनीति थी साफ़
राज नीति को जब तजे, जनगण करे न माफ़
*
इह हो या पर लोक हो, करके सिर्फ न फ़िक्र
लोक नेक नीयत रखे, तब ही हो बेफ़िक्र
*
धज्जी उड़ा विधान की, सभा कर रहे व्यर्थ
भंग विधान सभा करो, करो न अर्थ-अनर्थ
*
सत्ता का सौदा करें, सौदागर मिल बाँट
तौल रहे हैं गड्डियाँ, बिना तराजू बाँट
*
किसका कितना मोल है, किसका कितना भाव
मोलभाव का दौर है, नैतिकता बेभाव
*
योगी भूले योग को, करें ठाठ से राज
हर संयोग-वियोग का, योग करें किस व्याज?
*
जनप्रतिनिधि जन के नहीं, प्रतिनिधि दल के दास
राजनीति दलदल हुई, जनता मौन-उदास
*
कब तक किसके साथ है, कौन बताये कौन?
प्रश्न न ऐसे पूछिए, जिनका उत्तर मौन
१६-३-२०२०
***
दोहा दुनिया
*
भाई-भतीजावाद के, हारे ठेकेदार
चचा-भतीजे ने किया, घर का बंटाढार
*
दुर्योधन-धृतराष्ट्र का, हुआ नया अवतार
नाव डुबाकर रो रहे, तोड़-फेंक पतवार
*
माया महाठगिनी पर, ठगी गयी इस बार
जातिवाद के दनुज सँग, मिली पटकनी यार
*
लग्न-परिश्रम की विजय, स्वार्थ-मोह की हार
अवसरवादी सियासत, डूब मरे मक्कार
*
बादल गरजे पर नहीं, बरस सके धिक्कार
जो बोया काटा वही, कौन बचावनहार?
*
नर-नरेंद्र मिल हो सके, जन से एकाकार
सर-आँखों बैठा किया, जन-जन ने सत्कार
*
जन-गण को समझें नहीं, नेतागण लाचार
सौ सुनार पर पड़ गया,भारी एक लुहार
*
गलती से सीखें सबक, बाँटें-पाएँ प्यार
देश-दीन का द्वेष तज, करें तनिक उपकार
*
दल का दलदल भुलाकर, असरदार सरदार
जनसेवा का लक्ष्य ले, बढ़े बना सरकार
१६-३-२०१८
***
श्रृंगार गीत
तुम बिन
*
तुम बिन नेह, न नाता पगता
तुम बिन जीवन सूना लगता
*
ही जाती तब दूर निकटता
जब न बाँह में हृदय धड़कता
दिपे नहीं माथे का सूरज
कंगन चुभे, न अगर खनकता
तन हो तन के भले निकट पर
मन-गोले से मन ही दगता
*
फीकी होली, ईद, दिवाली
हों न निगाहें 'सलिल' सवाली
मैं-तुम हम बनकर हर पल को
बाँटें आजीवन खुशहाली
'मावस हो या पूनम लेकिन
आँख मूँद, मन रहे न जगता
*
अपना नाता नेह-खज़ाना
कभी खिजाना, कभी लुभाना
रूठो तो लगतीं लुभावनी
मानो तो हो दिल दीवाना
अब न बनाना कोई बहाना
दिल न कहे दिलवर ही ठगता
***
मुक्तिका :
मापनी- २१२२ २१२२ २१२
*
तू न देगा, तो न क्या देगा खुदा?
है भरोसा न्याय ही देगा खुदा।
*
एक ही है अब गुज़ारिश वक़्त से
एक-दूजे से न बिछुड़ें हम खुदा।
*
मुल्क की लुटिया लुटा दें लूटकर
चाहिए ऐसे न नेता ऐ खुदा!
*
तब तिरंगे के लिये हँस मर मिटे
हाय! भारत माँ न भाती अब खुदा।
*
नौजवां चाहें न टोंके बाप-माँ
जोश में खो होश, रोएँगे खुदा।
*
औरतों को समझ-ताकत कर अता
मर्द की रहबर बनें औरत खुदा।
*
लौ दिए की काँपती चाहे रहे
आँधियों से बुझ न जाए ऐ खुदा!
***
(टीप- 'हम वफ़ा करके भी तन्हा रह गए' गीत इसी मापनी पर है.)
१६-३-२०१६
***
मुक्तक
नव संवत्सर मंगलमय हो.
हर दिन सूरज नया उदय हो.
सदा आप पर ईश सदय हों-
जग-जीवन में 'सलिल' विजय हो..
***
गीत
बजा बाँसुरी
झूम-झूम मन...
*
जंगल-जंगल
गमक रहा है.
महुआ फूला
महक रहा है.
बौराया है
आम दशहरी-
पिक कूकी, चित
चहक रहा है.
डगर-डगर पर
छाया फागुन...
*
पियराई सरसों
जवान है.
मनसिज ताने
शर-कमान है.
दिनकर छेड़े
उषा लजाई-
प्रेम-साक्षी
चुप मचान है.
बैरन पायल
करती गायन...
*
रतिपति बिन रति
कैसी दुर्गति?
कौन फ़िराये
बौरा की मति?
दूर करें विघ्नेश
विघ्न सब-
ऋतुपति की हो
हे हर! सद्गति.
गौरा माँगें वर
मन भावन...
१६-३-२०१०
***

रविवार, 25 फ़रवरी 2024

२५ फरवरी,राम किंकर,गीत,बसंत,होली,दोहा,फाग,ईसुर,ममता,शामियाना,शिव,सोरठे,

सलिल सृजन २५ फरवरी
*
स्मरण युग तुलसी राम किंकर उपाध्याय*
२५.२.२०२४
संचालक- सरला वर्मा, भोपाल, शुभाशीष- पूज्य मंदाकिनी दीदी अयोध्या
वक्ता - डॉ. शिप्रा सेन, डॉ. दीपमाला, डॉ. मोनिका वर्मा, पवन सेठी
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
जहाँ विनय विवेक रहे, रहें सदय हनुमान
राम-राम किंकर तहाँ, वर दें; कर गुणगान
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
प्रगटे तुलसी दास ही, करने भक्ति प्रसार
कहे राम किंकर जगत, राम नाम ही सार
*
राम भक्ति मंदाकिनी, जो करता जल-पान
भव सागर से पार हो, महामूढ़ मतिवान
*
शिप्रा भक्ति प्रवाह में, जो सकता अवगाह
भव बाधा से मुक्त हो, मिलता पुण्य अथाह
*
सिया-राम जप नित्य प्रति, दें दर्शन हनुमान
पाप विमोचन हो तुरत, राम नाम विज्ञान
*
भक्ति दीप माला करे, मोह तिमिर का अंत
भजे राम-हनुमान नित, माँ हो जा रे संत
*
मौन मोनिका ध्यान में, प्रभु छवि देखे मग्न
सिया-राम गुणगान में, मन रह सदा निमग्न
*
अग्नि राम का नाम है, लखन गगन -विस्तार
भरत धरा शत्रुघ्न नभ, हनुमत सलिल अपार
*
'शिव नायक' श्रद्धा अडिग, 'धनेसरा' विश्वास
भक्ति 'राम किंकर' हरें, मानव मन का त्रास
*
मिले अखंडानंद भज, सत्-चित्-आनंद नित्य
पा-दे परमानंद हँस, सिया-राम ही सत्य
२५.२.२०२४
***
सोरठे
रचता माया जाल, सोम व्योम से आ धरा आ।
प्रगटे करे निहाल, प्रकृति स्मृति में बसी।।
नितिन निरंतर साथ, सीमा कहाँ असीम की।
स्वाति उठाए माथ, बन अरुणा करुणा करे।।
पाते रहे अबोध, साची सारा स्नेह ही।
जीवन बने सुबोध, अक्षत पा संजीव हो।।
मनवन्तर तक नित्य, करें साधना निरंतर।
खुशियाँ अमित अनित्य, तुहिना सम साफल्य दे।।
२५-२-२०२३
***
शिव भजन
*
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
मन की शंका हरते शंकर,
दूषण मारें झट प्रलयंकर।
भक्तों की भव बाधा हरते
पल में महाकाल अभ्यंकर।।
द्वेष-क्रोध विष रखो कंठ में
प्रेम बाँट सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
नेह नरमदा तीर विराजे,
भोले बाबा मन भाए।
उज्जैन क्षिप्रा तट बैठे,
धूनि रमाए मुस्काए।।
डमडम डिमडिम बजता डमरू
जनहित कर सुख पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
*
काहे को रोना कोरोना,
दानव को मिल मारो अब।
बाँध मुखौटा, दूरी रखकर
रहो सुरक्षित प्यारो!अब।।
दो टीके लगवा लो हँसकर,
संकट पर जय पाओ रे!
महाकाल की जय जय बोलो भवसागर तर जाओ रे!
बम भोले, जय जय शिवशंकर
झूम झूमकर गाओ रे!!
२५-२-२०२१
***
दोहा
ममता
*
माँ गुरुवर ममता नहीं, भिन्न मानिए एक।
गौ भाषा माटी नदी, पूजें सहित विवेक।।
*
ममता की समता नहीं, जिसे मिले वह धन्य।
जो दे वह जगपूज्य है, गुरु की कृपा अनन्य।।
*
ममता में आश्वस्ति है, निहित सुरक्षा भाव।
पीर घटा; संतोष दे, मेटे सकल अभाव।।
*
ममता में कर्तव्य का, सदा समाहित बोध।
अंधा लाड़ न मानिए, बिगड़े नहीं अबोध।।
*
प्यार गंग के साथ में, दंड जमुन की धार।
रीति-नीति सुरसति अदृश, ममता अपरंपार।।
*
दीन हीन असहाय क्यों, सहें उपेक्षा मात्र।
मूक अपंग निबल सदा, चाहें ममता मात्र।।
२५-२-२०२०
***
पुस्तक सलिला:
सारस्वत सम्पदा का दीवाना ''शामियाना ३''
*
[पुस्तक विवरण: शामियाना ३,सामूहिक काव्य संग्रह, संपादक अशोक खुराना, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी जैकेट सहित, पृष्ठ २४०, मूल्य २००/-, मूल्य २००/-, संपर्क- विजय नगर कॉलोनी, गेटवाली गली क्रमांक २, बदायूँ २४३६०१, चलभाष ९८३७० ३०३६९, दूरभाष ०५८३२ २२४४४९, shamiyanaashokkhurana@gmail.com]
*
साहित्य और समाज का संबंध अन्योन्याश्रित है. समाज साहित्य के सृजन का आधार होता है. साहित्य से समाज प्रभावित और परिवर्तित होता है. जिन्हें साहित्य के प्रभाव अथवा साहित्य से लाभ के विषय में शंका हो वे उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले के शामियाना व्यवसायी श्री अशोक खुराना से मिलें। अशोक जी मेरठ विश्व विद्यालय से वोग्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर शामियाना व्यवसाय से जुड़े और यही उनकी आजीविक का साधन है. व्यवसाय को आजीविका तो सभी बनाते हैं किंतु कुछ विरले संस्कारी जन व्यवसाय के माध्यम से समाज सेवा और संस्कार संवर्धन का कार्य भी करते हैं. अशोक जी ऐसे ही विरले व्यक्तित्वों में से एक हैं. वर्ष २०११ से प्रति वर्ष वे एक स्तरीय सामूहिक काव्य संकलन अपने व्यय से प्रकाशित और वितरित करते हैं. विवेच्य 'शामियाना ३' इस कड़ी का तीसरा संकलन है. इस संग्रह में लगभग ८० कवियों की पद्य रचनाएँ संकलित हैं.
निरंकारी बाबा हरदेव सिंह, बाबा फुलसन्दे वाले, बालकवि बैरागी, कुंवर बेचैन, डॉ. किशोर काबरा, आचार्य भगवत दुबे, डॉ. गार्गीशरण मिश्र 'मराल', आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ. रसूल अहमद 'सागर', भगवान दास जैन, डॉ. दरवेश भारती, डॉ. फरीद अहमद 'फरीद', जावेद गोंडवी, कैलाश निगम, कुंवर कुसुमेश, खुमार देहलवी, मधुकर शैदाई, मनोज अबोध, डॉ. 'माया सिंह माया', डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली', ओमप्रकाश यति, शिव ओम अम्बर, डॉ. उदयभानु तिवारी 'मधुकर' आदि प्रतिष्ठित हस्ताक्षरों की रचनाएँ संग्रह की गरिमा वृद्धि कर रही हैं. संग्रह का वैशिष्ट्य 'शामियाना विषय पर केंद्रित होना है. सभी रचनाएँ शामियाना को लक्ष्य कर रची गयी हैं. ग्रन्थारंभ में गणेश-सरस्वती तथा मातृ वंदना कर पारंपरिक विधान का पालन किया गया है. अशोक खुराना, दीपक दानिश, बाबा हरदेव सिंह, बालकवि बैरागी, डॉ. कुँवर बेचैन के आलेख ग्रन्थ ओ महत्वपूर्ण बनाते हैं. ग्रन्थ के टंकण में पाठ्य शुद्धि पर पूरा ध्यान दिया गया है. कागज़, मुद्रण तथा बंधाई स्तरीय है.
कुछ रचनाओं की बानगी देखें-
जब मेरे सर पर आ गया मट्टी का शामियाना
उस वक़्त य रब मैंने तेरे हुस्न को पहचाना -बाबा फुलसंदेवाले
खुद की जो नहीं होती इनायत शामियाने को
तो हरगिज़ ही नहीं मिलती ये इज्जत शामियाने को -अशोक खुराना
धरा की शैया सुखद है
अमित नभ का शामियाना
संग लेकिन मनुज तेरे
कभी भी कुछ भी न जाना -आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
मित्रगण क्या मिले राह में
स्वस्तिप्रद शामियाने मिले -शिव ओम अम्बर
काटकर जंगल बसे जब से ठिकाने धूप के
हो गए तब से हरे ये शामियाने धूप के - सुरेश 'सपन'
शामियाने के तले सबको बिठा
समस्या का हल निकला आपने - आचार्य भगवत दुबे
करे प्रतीक्षा / शामियाने में / बैठी दुल्हन - नमिता रस्तोगी
चिरंतन स्वयं भव्य है शामियाना
कृपा से मिलेगा वरद आशियाना -डॉ. महाश्वेता चतुर्वेदी
उसकी रहमत का शामियाना है
जो मेरा कीमती खज़ाना है - डॉ. नलिनी विभा 'नाज़ली'
अशोक कुरान ने इस सारस्वत अनुष्ठान के माध्यम से अपनी मातृश्री के साथ, सरस्वती मैया और हिंदी मैया को भी खिराजे अक़ीदत पेश की है. उनका यह प्रयास आजीविकादाता शामियाने के पारी उनकी भावना को व्यक्त करने के साथ देश के ९ राज्यों के रचनाकारों को जोड़ने का सेतु भी बन सका है. वे साधुवाद के पात्र हैं. इस अंक में अधिकांश ग़ज़लें तथा कुछ गीत व् हाइकू का समावेश है. अगले अंक को विषय परिवर्तन के साथ विधा विशेष जैसे नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि पर केंद्रित रखा जा सके तो इनका साहित्यिक महत्व भी बढ़ेगा।
२५-२-२०१६
***
लेख:
भारत की लोक सम्पदा: फागुन की फागें
.
भारत विविधवर्णी लोक संस्कृति से संपन्न- समृद्ध परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं में से एक लोकगीतों की है। ऋतु परिवर्तन पर उत्सवधर्मी भारतीय जन गायन-वादन और नर्तन की त्रिवेणी प्रवाहित कर आनंदित होते हैं। फागुन वर्षांत तथा चैत्र वर्षारम्भ के साथ-साथ फसलों के पकने के समय के सूचक भी हैं। दक्षिणायनी सूर्य जैसे ही मकर राशि में प्रवेश कर उत्तरायणी होते हैं इस महाद्वीप में दिन की लम्बाई और तापमान दोनों की वृद्धि होने की लोकमान्यता है। सूर्य पूजन, गुड़-तिल से निर्मित पक्वान्नों का सेवन और पतंगबाजी के माध्यम से गगनचुम्बी लोकांनंद की अभिव्यक्ति सर्वत्र देख जा सकती है।मकर संक्रांति, खिचड़ी, बैसाखी, पोंगल आदि विविध नामों से यह लोकपर्व सकल देश में मनाया जाता है।
पर्वराज होली से ही मध्योत्तर भारत में फागों की बयार बहने लगती है। बुंदेलखंड में फागें, बृजभूमि में नटनागर की लीलाएँ चित्रित करते रसिया और बधाई गीत, अवध में राम-सिया की जुगल जोड़ी की होली-क्रीड़ा जन सामान्य से लेकर विशिष्ट जनों तक को रसानंद में आपादमस्तक डुबा देते हैं। राम अवध से निकाकर बुंदेली माटी पर अपनी लीलाओं को विस्तार देते हुए लम्बे समय तक विचरते रहे इसलिए बुंदेली मानस उनसे एकाकार होकर हर पर्व-त्यौहार पर ही नहीं हर दिन उन्हें याद कर 'जय राम जी की' कहता है। कृष्ण का नागों से संघर्ष और पांडवों का अज्ञातवास नर्मदांचली बुन्देल भूमि पर हुआ। गौरा-बौरा तो बुंदेलखंड के अपने हैं, शिवजा, शिवात्मजा, शिवसुता, शिवप्रिया, शिव स्वेदोभवा आदि संज्ञाओं से सम्बोधित आनन्ददायिनी नर्मदा तट पर बम्बुलियों के साथ-साथ शिव-शिवा की लीलाओं से युक्त फागें गयी जाना स्वाभाविक है।
बुंदेली फागों के एकछत्र सम्राट हैं लोककवि ईसुरी। ईसुरी ने अपनी प्रेमिका 'रजउ' को अपने कृतित्व में अमर कर दिया। ईसुरी ने फागों की एक विशिष्ट शैली 'चौघड़िया फाग' को जन्म दिया। हम अपनी फाग चर्चा चौघड़िया फागों से ही आरम्भ करते हैं। ईसुरी ने अपनी प्राकृत प्रतिभा से ग्रामीण मानव मन के उच्छ्वासों को सुर-ताल के साथ समन्वित कर उपेक्षित और अनचीन्ही लोक भावनाओं को इन फागों में पिरोया है। रसराज श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्ष इन फागों में अद्भुत माधुर्य के साथ वर्णित हैं। सद्यस्नाता युवती की केशराशि पर मुग्ध ईसुरी गा उठते हैं:
ईसुरी राधा जी के कानों में झूल रहे तरकुला को उन दो तारों की तरह बताते हैं जो राधा जी के मुख चन्द्र के सौंदर्य के आगे फीके फड़ गए हैं:
कानन डुलें राधिका जी के, लगें तरकुला नीके
आनंदकंद चंद के ऊपर, तो तारागण फीके
ईसुरी की आराध्या राधिका जी सुंदरी होने के साथ-साथ दीनों-दुखियों के दुखहर्ता भी हैं:
मुय बल रात राधिका जी को, करें आसरा की कौ
दीनदयाल दीन दुःख देखन, जिनको मुख है नीकौ
पटियाँ कौन सुगर ने पारी, लगी देहतन प्यारी
रंचक घटी-बड़ी है नैयाँ, साँसे कैसी ढारी
तन रईं आन सीस के ऊपर, श्याम घटा सी कारी
'ईसुर' प्राण खान जे पटियाँ, जब सें तकी उघारी
कवि पूछता है कि नायिका की मोहक चोटियाँ किस सुघड़ ने बनायी हैं? चोटियाँ जरा भी छोटी-बड़ी नहीं हैं और आती-जाती साँसों की तरह हिल-डुल रहीं हैं। वे नायिका के शीश के ऊपर श्यामल मेघों की तरह छाईं हैं। ईसुरी ने जब से इस अनावृत्त केशराशि की सुनदरता को देखा है उनकी जान निकली जा रही है।
ईसुर की नायिका नैनों से तलवार चलाती है:
दोई नैनन की तरवारें, प्यारी फिरें उबारें
अलेपान गुजरान सिरोही, सुलेमान झख मारें
ऐंच बाण म्यान घूंघट की, दे काजर की धारें
'ईसुर' श्याम बरकते रहियो, अँधियारे उजियारे
तलवार का वार तो निकट से ही किया जा सकता है नायक दूर हो तो क्या किया जाए? क्या नायिका उसे यूँ ही जाने देगी? यह तो हो ही नहीं सकता। नायिका निगाहों को बरछी से भी अधिक पैने तीर बनाकर नायक का ह्रदय भेदती है:
छूटे नैन-बाण इन खोरन, तिरछी भौंह मरोरन
नोंकदार बरछी से पैंने, चलत करेजे फोरन
नायक बेचारा बचता फिर रहा है पर नायिका उसे जाने देने के मूड में नहीं है। तलवार और तीर के बाद वह अपनी कातिल निगाहों को पिस्तौल बना लेती है:
अँखियाँ पिस्तौलें सी करके, मारन चात समर के
गोली बाज दरद की दारू, गज कर देत नज़र के
इतने पर भी ईसुरी जान हथेली पर लेकर नवयौवना नायिका का गुबखान करते नहीं अघाते:
जुबना कड़ आये कर गलियाँ, बेला कैसी कलियाँ
ना हम देखें जमत जमीं में, ना माली की बगियाँ
सोने कैसे तबक चढ़े हैं, बरछी कैसी भलियाँ
'ईसुर' हाथ सँभारे धरियो फुट न जावें गदियाँ
लोक ईसुरी की फाग-रचना के मूल में उनकी प्रेमिका रजऊ को मानती है। रजऊ ने जिस दिन गारो के साथ गले में काली काँच की गुरियों की लड़ियों से बने ४ छूँटा और बिचौली काँच के मोतियों का तिदाने जैसा आभूषण और चोली पहिनी, उसके रूप को देखकर दीवाना होकर हार झूलने लगा। ईसुरी कहते हैं कि रजऊ के सौंदर्य पर मुग्ध हुए बिना कोई नहीं रह सकता।
जियना रजऊ ने पैनो गारो, हरनी जिया बिरानो
छूँटा चार बिचौली पैंरे, भरे फिरे गरदानो
जुबनन ऊपर चोली पैरें, लटके हार दिवानो
'ईसुर' कान बटकने नइयाँ, देख लेव चह ज्वानो
ईसुरी को रजऊ की हेरन (चितवन) और हँसन (हँसी) नहीं भूलती। विशाल यौवन, मतवाली चाल, इकहरी पतली कमर, बाण की तरह तानी भौंह, तिरछी नज़र भुलाये नहीं भूलती। वे नज़र के बाण से मरने तक को तैयार हैं, इसी बहाने रजऊ एक बार उनकी ओर देख तो ले। ऐसा समर्पण ईसुरी के अलावा और कौन कर सकता है?
हमख़ाँ बिसरत नहीं बिसारी, हेरन-हँसन तुमारी
जुबन विशाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी
भौंह कमान बान से तानें, नज़र तिरीछी मारी
'ईसुर' कान हमारी कोदी, तनक हरे लो प्यारी
ईसुरी के लिये रजऊ ही सर्वस्व है। उनका जीवन-मरण सब कुछ रजऊ ही है। वे प्रभु-स्मरण की ही तरह रजऊ का नाम जपते हुए मरने की कामना करते हैं, इसलिए कुछ विद्वान रजऊ की सांसारिक प्रेमिका नहीं, आद्या मातृ शक्ति को उनके द्वारा दिया गया सम्बोधन मानते हैं:
जौ जी रजऊ रजऊ के लाने, का काऊ से कानें
जौलों रहने रहत जिंदगी, रजऊ के हेत कमाने
पैलां भोजन करैं रजौआ, पाछूं के मोय खाने
रजऊ रजऊ कौ नाम ईसुरी, लेत-लेत मर जाने
ईसुरी रचित सहस्त्रों फागें चार कड़ियों (पंक्तियों) में बँधी होने के कारन चौकड़िया फागें कही जाती हैं। इनमें सौंदर्य को पाने के साथ-साथ पूजने और उसके प्रति मन-प्राण से समर्पित होने के आध्यात्मजनित भावों की सलिला प्रवाहित है।
रचना विधान:
ये फागें ४ पंक्तियों में निबद्ध हैं। हर पंक्ति में २ चरण हैं। विषम चरण (१, ३, ५, ७ ) में १६ तथा सम चरण (२, ४, ६, ८) में १२ मात्राएँ हैं। चरणांत में प्रायः गुरु मात्राएँ हैं किन्तु कहीं-कहीं २ लघु मात्राएँ भी मिलती हैं। ये फागें छंद प्रभाकर के अनुसार महाभागवत जातीय नरेंद्र छंद में निबद्ध हैं। इस छंद में खड़ी हिंदी में रचनाएँ मेरे पढ़ने में अब तक नहीं आयी हैं। ईसुरी की एक फाग का खड़ी हिंदी में रूपांतरण देखिए:
किस चतुरा ने छोटी गूँथी, लगतीं बेहद प्यारी
किंचित छोटी-बड़ी न उठ-गिर, रहीं सांस सम न्यारी
मुकुट समान शीश पर शोभित, कृष्ण मेघ सी कारी
लिये ले रही जान केश-छवि, जब से दिखी उघारी
नरेंद्र छंद में एक चतुष्पदी देखिए:
बात बनाई किसने कैसी, कौन निभाये वादे?
सब सच समझ रही है जनता, कहाँ फुदकते प्यादे?
राजा कौन? वज़ीर कौन?, किसके बद-नेक इरादे?
जिसको चाहे 'सलिल' जिता, मत चाहे उसे हरा दे
२५-२-२०१५
***
नवगीत:
.
उम्र भर
अक्सर रुलातीं
हसरतें.
.
इल्म की
लाठी सहारा
हो अगर
राह से
भटका न पातीं
गफलतें.
.
कम नहीं
होतीं कभी
दुश्वारियाँ.
हौसलों
की कम न होतीं
हरकतें.
नेकनियती
हो सुबह से
सुबह तक.
अता करता
है तभी वह
बरकतें
२५.२.२०१५
***
दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):
दोहा का रंग होली के संग :
*
होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार.
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार.
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
*
तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मनता रहे, होली का त्यौहार..
२५-२-२०११
***
रंगों का नव पर्व बसंती
*
गीत 
रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया
२४-२-२०१०
***

सोमवार, 19 फ़रवरी 2024

बसंत,दोहा,पिंकाट,ककुभ,भजन,१९ फरवरी,सॉनेट,छंद,मधुमास, शिव,गीतिका,

सलिल सृजन १९ फरवरी
*
मधुमास पर दोहे
*
पुरुषोत्तम श्री राम का, दर्शन-पल ''मधुमास''।
रघुकुल भूषण छवि निरख, मुदित सुरेश सहास।। 
*
झूम रहे ऋतुराज-रति, पूर्ण हुई है आस। 
देह विदेह हुई पुलक, अंतर्मन 'मधुमास'।।  
*
मन जिससे जाता उचट, वह लगता खग्रास। 
जिससे मन मिलता सहज, मिल लगता 'मधुमास'।। 
*
सत्ता प्रेयसि से मिले, नेता करे विलास। 
निकट चुनाव दिखे लगे, बीत गया 'मधुमास'।। 
पतझड़ ग्रहणी में दिखे, अन्यों में 'मधुमास'।
समझो निकट विनाश है, सुधरो मिले न त्रास।। 
*
श्वास-श्वास 'मधुमास' हो, जब पूरी हो आस। 
मिलें प्रिया-प्रियतम लपक, भुला विरह-संत्रास।। 
*
निधन बाद प्रिय से मिलन, कब होगा हे राम। 
विरह व्यथा 'मधुमास' बिन, असहनीय सुख-धाम।। 
१९.२.२०२४ 
***
सॉनेट
वह
हमने उसे नहीं पहचाना।
गिला न शिकवा करता है वह।
रूप; रंग; आकार न जाना।।
करे परवरिश हम सबकी वह।।
लिया हमेशा सब कुछ उससे।
दिया न कुछ भी वापिस उसको।
उसकी करें शिकायत किससे?
उसका प्रतिनिधि मानें किसको?
कब भेजे?; कब हमें बुला ले?
क्यों भेजा है हमें जगत में?
कारण कुछ तो कभी बता दे।
मिले न क्यों वह कभी प्रगट में?
करे किसी से नहीं अदावत।
नहीं किसी से करे सखावत।।
•••
सॉनेट
अधिनायक
पत्थर दिल होता अधिनायक।
आत्ममुग्ध, चमचा-शरणागत।
देख न पाता विपदा आगत।।
निज मुख निज महिमा अभिभाषक।।
जन की बात न सुनता, बहरा।
मन की बात कहे मनमानी।
भूला मिट जाता अभिमानी।।
जनमत विस्मृत किया ककहरा।।
तंत्र न जन का, दल का प्यारा।
समझ रहा है मैदां मारा।
देख न पाता, लोक न हारा।।
हो उदार, जनमत पहचाने।
सब हों साथ, नहीं क्यों ठाने।
दल न, देश के पढ़े तराने।।
१९-२-२०२२
•••
'शाम हँसी पुरवाई में' गजल संग्रह बसंत शर्मा विमोचन पर मुक्तिका
*
शाम हँसी पुरवाई में।
ऋतु 'बसंत' मनभाई में।।
झूम उठा 'विश्वास' 'सलीम'।
'विकल' 'नयन' अरुणाई में।।
'दर्शन' कर 'संतोष' 'अमित'।
'सलिल' 'राज' तरुणाई में।।
छंद-छंद 'अमरेंद्र' सरस्।
'प्यासा' तृषा बुझाई में।।
महक 'मंजरी' 'संध्या' संग।
रस 'मीना' प्रभु भाई में।।
मति 'मिथलेश' 'विनीता' हो।
गीत-ग़ज़ल मुस्काई में।।
डगर-डगर 'मक़बूल' ग़ज़ल।
अदब 'अदीब' सुहाई में।
'जयप्रकाश' की कहे कलम।
'किसलय' की पहुनाई में।।
'प्रतुल' प्रवीण' 'तमन्ना' है।
'हरिहर' सुधि सरसाई में।।
'पुरुषोत्तम' 'कुलदीप' 'मनोज'।
हो 'दुर्गेश' बधाई में।।
*
शिव भजन
भज मन महाकाल प्रभु निशदिन।।
*
मनोकामना पूर्ण करें हर, हर भव बाधा सारी।
सच्चे मन से भज महेश को, विपद हरें त्रिपुरारी।।
कल पर टाल न मूरख, कर ले
श्वाश श्वास प्रभु सुमिरन।
भज मन महाकाल प्रभु निशदिन।।
*
महाप्राण हैं महाकाल खुद पिएँ हलाहल हँसकर।
शंका हरते भोले शंकर, बंधन काटें फँसकर।।
कोशिश डमरू बजा करो रे शिव शंभू सँग नर्तन।
भज मन महाकाल प्रभु निशदिन।
*
मोह सर्प से कंठ सजा, पर मन वैराग बसाएँ।
'सलिल'-धार जग प्यास बुझाने, जग की सतत बहाएँ।।
हर हर महादेव जयकारा लगा नित्य ही अनगिन।
भज मन महाकाल प्रभु निशदिन।।
१९-२-२०२१
***
दोहा सलिला
रूप नाम लीला सुनें, पढ़ें गुनें कह नित्य।
मन को शिव में लगाकर, करिए मनन अनित्य।।
*
महादेव शिव शंभु के, नामों का कर जाप।
आप कीर्तन कीजिए, सहज मिटेंगे पाप।।
*
सुनें ईश महिमा सु-जन, हर दिन पाएं पुण्य।
श्रवण सुपावन करे मन, काम न आते पण्य।।
*
पालन संयम-नियम का, तप ईश्वर का ध्यान।
करते हैं एकांत में, निरभिमान मतिमान।।
*
निष्फल निष्कल लिंग हर, जगत पूज्य संप्राण।
निराकार साकार हो, करें कष्ट से त्राण।।
१९-२-२०१८
***
दोहा सलिला
*
मधुशाला है यह जगत, मधुबाला है श्वास
वैलेंटाइन साधना, जीवन है मधुमास
*
धूप सुयश मिथलेश का, धूप सिया का रूप
याचक रघुवर दान पा, हर्षित हो हैं भूप
१९-२-२०१७
***

नवगीत
*
नयनों ने नैनों में
दुनिया को देखा
*
कितनी गहराई
कैसे बतलायें?
कितनी अरुणाई
कैसे समझायें?
सपने ही सपने
देखें-दिखलायें
मन-महुआ महकें तो
अमुआ गदरायें
केशों में शोभित
नित सिंदूरी रेखा
नयनों ने नैनों में
दुनिया को देखा
*
सावन में फागुन या
फागुन में सावन
नयनों में सपने ही
सपने मनभावन
मन लंका में बैठा
संदेही रावन
आओ विश्वास राम
वरो सिया पावन
कर न सके धोबी अब
मुझ-तुम का लेखा
नयनों ने नैनों में
दुनिया को देखा
*
रसानंद दे छंद नर्मदा १७ : गीतिका
दोहा, आल्हा, सार, ताटंक,रूपमाला (मदन), चौपाई तथा उल्लाला छंदों से साक्षात के पश्चात् अब मिलिएगीतिका से.
लक्षण : गीतिका मात्रिक सम छंद है जिसमें २६ मात्राएँ होती हैं। १४ और १२ पर यति तथा अंत में लघु -गुरु आवश्यक है। इस छंद की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हों तथा अंत में रगण हो तो छंद निर्दोष व मधुर होता है।
अपवाद- इसमें कभी-कभी यति शब्द की पूर्णता के आधार पर १२-१४ में भी आ पडती है। यथा-
राम ही की भक्ति में, अपनी भलाई जानिए। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
लक्षण छंद:
सूर्य-धरती के मिलन की, छवि मनोहर देखिए।
गीतिका में नर्मदा सी, 'सलिल'-ध्वनि अवरेखिए।।
तीसरा-दसवाँ सदा लघु, हर चरण में वर्ण हो।
रगण रखिये अंत में सुन, झूमिये ऋतु-पर्ण हो।।
*
तीन-दो-दो बार तीनहिं, तीन-दो धुज अंत हो।
रत्न वा रवि मत्त पर यति, चंचरी लक्षण कहो।। -नारायण दास, हिंदी छन्दोलक्षण
टीप- छंद प्रभाकर में भानु जी ने छब्बीस मात्रिक वर्णवृत्त चंचरी (चर्चरी) में 'र स ज ज भ र' वर्ण (राजभा सलगा जभान जभान भानस राजभा) बताये हैं। इसमें कुल मात्राएँ २६ तथा तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं और चौबीसवीं अथवा दोनों चरणों के तीसरी-दसवीं मात्राएँ लघु हैं किंतु दूसरे जगण को तोड़े बिना चौदह मात्रा पर यति नहीं आती। डॉ. पुत्तूलाल ने दोनों छंदों को अभिन्न बताया है। भिखारीदास और केशवदास ने २८ मात्रिक हरिगीतिका को ही गीतिका तथा २६ मात्रिक वर्णवृत्त को चंचरी बताया है। डॉ. पुत्तूलाल के अनुसार के द्विकल को कम कर यह छंद बनता है। सम्भवत: इसी कारण इसे हरिगीतिका के आरम्भ के दो अक्षर हटा कर 'गीतिका' नाम दिया गया। इसकी मात्रा बाँट (३+२+२) x ३+ (३+२) बनती है।
मात्रा बाँट:
ऽ । ऽ । । ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां।
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम्।।
चञ्चलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां।
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम्।।
उदाहरण:
०१. रत्न रवि कल धारि कै लग, अंत रचिए गीतिका।
क्यों बिसारे श्याम सुंदर, यह धरी अनरीतिका।।
पायके नर जन्म प्यारे, कृष्ण के गुण गाइये।
पाद पंकज हीय में धर, जन्म को फल पाइये।। - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
०२. मातृ भू सी मातृ भू है , अन्य से तुलना नहीं।
०३. उस रुदंती विरहिणी के, रुदन रस के लेप से।
और पाकर ताप उसके, प्रिय विरह-विक्षेप से।।
वर्ण-वर्ण सदैव जिनके, हों विभूषण कर्ण के।
क्यों न बनते कवि जनों के, ताम्र पत्र सुवर्ण के।। - मैथिलीशरण गुप्त, साकेत
३, ७, १० वीं मात्रा पूर्ववर्ती शब्द के साथ जुड़कर गुरु हो किन्तु लय-भंग न हो तो मान्य की जा सकती है-
०४. कहीं औगुन किया तो पुनि वृथा ही पछताइये - जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', छंद प्रभाकर
०५. हे प्रभो! आनंददाता, ज्ञान हमको दीजिए
शीघ्र सारे दुर्गुणों से, दूर हमको कीजिए
लीजिए हमको शरण में, हम सदाचारी बनें
ब्रम्हचारी धर्मरक्षक, वीर व्रतधरी बनें -रामनरेश त्रिपाठी
०६. लोक-राशि गति-यति भू-नभ, साथ-साथ ही रहते
लघु-गुरु गहकर हाथ-अंत, गीतिका छंद कहते
०७. चौपालों में सूनापन, खेत-मेड में झगड़े
उनकी जय-जय होती जो, धन-बल में हैं तगड़े
खोट न अपनी देखें, बतला थका आइना
कोई फर्क नहीं पड़ता, अगड़े हों या पिछड़े
०८. आइए, फरमाइए भी, ह्रदय में जो बात है
क्या पता कल जीत किसकी, और किसकी मात है
झेलिये धीरज धरे रह, मौन जो हालात है
एक सा रहता समय कब?, रात लाती प्रात है
०९. सियासत ने कर दिया है , विरासत से दूर क्यों?
हिमाकत ने कर दिया है , अजाने मजबूर यों
विपक्षी परदेशियों से , अधिक लगते दूर हैं
दलों की दलदल न दल दे, आँख रहते सूर हैं
१९.२.२०१६
***

अंग्रेज दोहाकार फ्रेडरिक पिंकाट
हिंदी छंदों को कठिन और अप्रासंगिक कहनेवाले यह जानकर चकित होंगे कि स्वतंत्रता के पूर्व से कई विदेशी हिंदी भाषा और छंदों पर कार्य करते रहे हैं. एक अंग्रेज के लिये हिन्दी सीखना और उसमें छंद रचना सहज नहीं. श्री फ्रेडरिक पिंकाट ने द्वारा अपने मित्र भारतेंदु हरिश्चंद्र पर रचित निम्न सोरठा एवं दोहा यह भी तो कहता है कि जब एक विदेशी और हिन्दी न जाननेवाला इन छंदों को अपना सकता है तो हम भारतीय इन्हें सिद्ध क्यों नहीं कर सकते? सवाल इच्छाशक्ति का है, छंद तो सभी को गले लगाने के लिए उत्सुक है.
बैस वंस अवतंस, श्री बाबू हरिचंद जू.
छीर-नीर कलहंस, टुक उत्तर लिख दे मोहि.
शब्दार्थ: बैस=वैश्य, वंस= वंश, अवतंस=अवतंश, जू=जी, छीर=क्षीर=दूध, नीर=पानी, कलहंस=राजहंस, तुक=तनिक, मोहि=मुझे.
भावार्थ: हे वैश्य कुल में अवतरित बाबू हरिश्चंद्र जी! आप राजहंस की तरह दूध-पानी के मिश्रण में से दूध को अलग कर पीने में समर्थ हैं. मुझे उत्तर देने की कृपा कीजिये.
श्रीयुत सकल कविंद, कुलनुत बाबू हरिचंद.
भारत हृदय सतार नभ, उदय रहो जनु चंद.
भावार्थ: हे सभी कवियों में सर्वाधिक श्री संपन्न, कवियों के कुल भूषण! आप भारत के हृदयरूपी आकाश में चंद्रमा की तरह उदित हुए हैं.
फ्रेडरिक पिन्काट (१८३६ - ७ फ़रवरी १८९६) इंग्लैण्ड के निवासी एवं किन्तु हिन्दी के परम् हितैषी थे। स्वयं हिन्दी में लेख लिखने तथा हिन्दी पत्रिकाएँ सम्पादित करने के अलावा उन्होने तत्कालीन् हिन्दी लेखकों को भी प्रोत्साहित किया। इंग्लैण्ड में बैठे-बैठे ही उन्होने हिन्दी पर अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया था। भारतीय सिविल सेवा में हिन्दी के प्रतिष्ठापन का श्रेय भी इनको ही है। उन्होंने प्रेस के कामों का बहुत अच्छा अनुभव प्राप्त किया और अंत में लंदन की प्रसिद्ध ऐलन ऐंड कंपनी के विशाल छापेखाने के मैनेजर हुए। वहीं वे अपने जीवन के अंतिम दिनों के कुछ पहले तक शांतिपूर्वक रहकर भारतीय साहित्य और भारतीय जनहित के लिए बराबर उद्योग करते रहे।

संस्कृत की चर्चा पिंकाट साहब लड़कपन से ही सुनते आते थे, इससे उन्होंने बहुत परिश्रम के साथ उसका अध्ययन किया। इसके उपरांत उन्होंने हिन्दी और उर्दू का अभ्यास किया। इंगलैंड में बैठे ही बैठे उन्होंने इन दोनों भाषाओं पर ऐसा अधिकार प्राप्त कर लिया कि इनमें लेख और पुस्तकें लिखने और अपने प्रेस में छपाने लगे। यद्यपि उन्होंने उर्दू का भी अच्छा अभ्यास किया था, पर उन्हें इस बात का अच्छी तरह निश्चय हो गया था कि यहाँ की परंपरागत प्रकृत भाषा हिन्दी है, अत: जीवन भर ये उसी की सेवा और हितसाधना में तत्पर रहे। उनके हिन्दी लेखों, कविताओं और पुस्तकों की चर्चा आगे चलकर भारतेंदुकाल के भीतर की जाएगी।

संवत् १९४७ में उन्होंने उपर्युक्त ऐलन कंपनी से संबंध तोड़ा और 'गिलवर्ट ऐंड रिविंगटन' नामक विख्यात व्यवसाय कार्यालय में पूर्वीय मंत्री नियुक्त हुए। उक्त कंपनी की ओर से एक व्यापार पत्र 'आईन सौदागरी' उर्दू में निकलता था जिसका संपादन पिंकाट साहब करते थे। उन्होंने उसमें कुछ पृष्ठ हिन्दी के लिए भी रखे। कहने की आवश्यकता नहीं कि हिन्दी के लेख वे ही लिखते थे। लेखों के अतिरिक्त हिंदुस्तान में प्रकाशित होनेवाले हिन्दी समाचार पत्रों (जैसे हिंदोस्तान, आर्यदर्पण, भारतमित्र) से उद्धरण भी उस पत्र के हिन्दी विभाग में रहते थे।

भारत का हित वे सच्चे हृदय से चाहते थे। राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र, कार्तिकप्रसाद खत्री इत्यादि हिन्दी लेखकों से उनका बराबर हिन्दी में पत्रव्यवहार रहता था। उस समय के प्रत्येक हिन्दी लेखक के घर में पिंकाट साहब के दो-चार पत्र मिलेंगे। हिन्दी के लेखकों और ग्रंथकारों का परिचय इंगलैंडवालों को वहाँ के पत्रों में लेख लिखकर वे बराबर दिया करते थे। संवत् १९५२ में (नवंबर सन् १८९५) में वे रीआ घास (जिसके रेशों से अच्छे कपड़े बनते थे) की खेती का प्रचार करने हिंदुस्तान में आए, पर साल भर से कुछ ऊपर ही यहाँ रह पाए थे कि लखनऊ में उनका देहांत हो गया। उनका शरीर भारत की मिट्टी में ही मिला।

संवत् १९१९ में जब राजा लक्ष्मणसिंह ने 'शकुंतला नाटक' लिखा तब उसकी भाषा देख वे बहुत ही प्रसन्न हुए और उसका एक बहुत सुंदर परिचय उन्होंने लिखा। बात यह थी कि यहाँ के निवासियों पर विदेशी प्रकृति और रूप-रंग की भाषा का लादा जाना वे बहुत अनुचित समझते थे। अपना यह विचार उन्होंने अपने उस अंग्रेजी लेख में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है जो उन्होंने बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री के 'खड़ी बोली का पद्य' की भूमिका के रूप में लिखा था। देखिए, उसमें वे क्या कहते हैं,"फारसी मिश्रित हिन्दी (अर्थात् उर्दू या हिंदुस्तानी) के अदालती भाषा बनाए जाने के कारण उसकी बड़ी उन्नति हुई। इससे साहित्य की एक नई भाषा ही खड़ी हो गई। पश्चिमोत्तार प्रदेश के निवासी, जिनकी यह भाषा कही जाती है, इसे एक विदेशी भाषा की तरह स्कूलों में सीखने के लिए विवश किये जाते हैं।"
***
ककुभ / कुकुभ
*
(छंद विधान: १६ - १४, पदांत में २ गुरु)
*
यति रख सोलह-चौदह पर कवि, दो गुरु आखिर में भाया
ककुभ छंद मात्रात्मक द्विपदिक, नाम छंद ने शुभ पाया
*
देश-भक्ति की दिव्य विरासत, भूले मौज करें नेता
बीच धार मल्लाह छेदकर, नौका खुदी डुबा देता
*
आशिको-माशूक के किस्से, सुन-सुनाते उमर बीती.
श्वास मटकी गह नहीं पायी, गिरी चटकी सिसक रीती.
*
जीवन पथ पर चलते जाना, तब ही मंज़िल मिल पाये
फूलों जैसे खिलते जाना, तब ही तितली मँडराये
हो संजीव सलिल निर्मल बह, जग की तृष्णा हर पाये
शत-शत दीप जलें जब मिलकर, तब दीवाली मन पाये
*
(ककुभ = वीणा का मुड़ा हुआ भाग, अर्जुन का वृक्ष)
***
सामयिक दोहे
*
जो रणछोड़ हुए उन्हें, दिया न हमने त्याग
किया श्रेष्ठता से सदा, युग-युग तक अनुराग।
*
मैडम को अवसर मिला, नहीं गयीं क्या भाग?
त्यागा था पद अटल ने, किया नहीं अनुराग।
*
शास्त्री जी ने भी किया, पद से तनिक न मोह
लक्ष्य हेतु पद छोड़ना, नहिं अपराध न द्रोह।
*
केर-बेर ने मिलाये, स्वार्थ हेतु जब हाथ
छोड़ा जिसने पद विहँस, क्यों न उठाये माथ?
*
करते हैं बदलाव की, जब-जब भी हम बात
पूर्व मानकों से करें, मूल्यांकन क्यों तात?
*
विष को विष ही मारता, शूल निकाले शूल
समय न वह जब शूल ले, आप दीजिये फूल
*
सहन असहमति को नहीं, करते जब हम-आप
तज सहिष्णुता को 'सलिल', करें व्यर्थ संताप
१९-२-२०१४
***