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गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

लाँगुरिया, चंद्रयान, सॉनेट, श्यामलाल उपाध्याय, गीत, दोहा, हाइकु गीत-मुक्तक

सलिल सृजन २१ दिसंबर 
*
|| लाँगुरिया लोकगीत ||
इसरो बारौ धरा छोड़ चंदा पै लैग्यो लाँगुरिया!

ध्वजा तिरंगी एल वी एम पे जिसको ऊजर रंग,
ए टी एल-केल्ट्रॉन-कार्टस खूब निभाओ संग,
धू-धू इंजन जलो, भगो रे रॉकेट राम-बान सम लाँगुरिया!
प्रोपल्शन-इंटर-लैंडर मॉड्यूल ने करो कमाल, 
भू कक्षा में परकम्मा कर सबने कियो धमाल,
इलिप्टिकल पार्किंग ऑर्बिट में घूमो लाँगुरिया!
विक्रम राजा काँध चढ़ो प्रज्ञान बनो बैताल,
मजनू लैला चंदा-द्वारे पहुँचो लै जैमाल,
सॉफ्ट लैंडिंग भई बजाऊत ताली लाँगुरिया!
उतर चाँद पै भारत-ईसरो की दै दई निसानी,
इत-उत घूमे छैल-छबीलो बता रओ है पानी,
गड्ढा देख फलाँगे झट ज्यों वानर लाँगुरिया!
सोलर पैनल च्यवनप्रास घाईं दै ऊर्जा-ताकत,
एन ए वी कैमरा दनादन फोटू लै जग ताकत,
सूर्य छाँव में आओ; थम कें सो गओ लाँगुरिया!
सब दुनिया नें भारत मैया का लोहा लौ मान,
इसरो अभियंता-वैज्ञानिक ठाँड़े सीना तान,
मंगल-सूरज जाबे की जिद ठाने लाँगुरिया!
२१.१२.२०२३
***
सॉनेट
हार
हार का कर हार धारण
जीत तब ही तो वरेगी
तिलक तेरा तब करेगी
हारकर मत बैठ, कर रण
हार को गुपचुप निहारो
कर्म की कर साधना नित
तभी होगा आत्म-परहित
भूल मत भूलो, सुधारो
हार को त्यौहार मानो
बंधु बाँधव मीत जानो
सबक सीखो समर ठानो
हार ही तब हार जाए
जीत तब ही निकट आए
हार से तू जीत पाए
संजीव
२१-१२-२०२२
९४२५१८३२४४
७•५८,जबलपुर
●●●
दोहा
सलिल हुआ संजीव पा,शशि-किरणों का साथ.
खिल-खिल खिला पलाश भी, उठा-उठाकर हाथ.
***
आचार्य श्याम लाल उपाध्याय के प्रति दोहांजलि
*
निर्मल निश्छल नर्मदा, वाक् अबाध प्रवाह
पाई शारद की कृपा, अग्रज! अगम-अथाह
*
शब्द-शब्द सार्थक कहें, संशय हरें तुरंत
छाया दें वट-वृक्ष सम, नहीं कृपा का अंत
*
आभा-किरण अनंत की, हरे सकल अज्ञान
शारद-सुत प्रतिभा अमित, कैसे सकूँ बखान?
*
तुम विराट के पग कमल, प्रक्षालित कर धन्य
'सलिल' कर रहा शत नमन, करिये कृपा अनन्य
*
'नियति निसर्ग' पढ़े-बढ़े, पाठक करे प्रणाम
धन्य भाग्य साहित्य पा, सार्थक ललित ललाम
*
बाल ह्रदय की सरलता, युवकोचित उत्साह
प्रौढ़ों सा गाम्भीर्य मिल, पाता जग से वाह
*
नियति भेद-निक्षेपते, आपद-विपद तमाम
वैदिक चिंतन सनातन, बाँटें नित्य अकाम
*
गद्य-पद्य के हिमालय, शब्द-पुरुष संजीव
ममता की मूरत मृदुल, वंदन करुणासींव!
*
श्याम-लाल का विलय या, लाल श्याम का मेल?
विद्यासागर! बताओ, करो न हमसे खेल
*
विद्यावारिधि! प्रणत युग, चाह रहा आशीष
करो कृपा अज्ञान हर, बाँटो ज्ञान मनीष
*
गद्य माल है गले में, तिलक समीक्षा भाल
पद्य विराजित ह्रदय में, दूजी कहाँ मिसाल?
*
राष्ट्र चिंतना ही रही, आजीवन तव ध्येय
धूप-छाँव दो पक्ष हों, पूरक और विधेय
*
देश सुखी-सानंद हो, दुश्मन हों संत्रस्त
श्रमी युवा निर्माण नव, करें न हों भयग्रस्त
*
धर्म कर्म का मर्म है, देश-प्रेम ही मात्र
सबल निबल-रक्षक बने, तभी न्याय का पात्र
*
दोहा-दोहा दे रहा, सार्थक-शुभ संदेश
'सलिल' ग्रहण कर तर सके, पाकर दिशा विशेष
*
गति-यति, मात्रा-भार है, सही-संतुलित खूब
पाठक पढ़कर गह सकें, अर्थ पाठ में डूब
*
दोहा-दोहा दुह रहा, गौ भाषा कर प्रीत
ग्रहण करे सन्देश जो, बना सके नव रीत
*
आस्था के अंकुर उगा, बना दिए वट-वृक्ष
सौरभ के स्वर मनोहर, सृजनकार है दक्ष
*
कविता-कानन में उगे, हाइकु संग्रह मौन
कम में कहते हैं अधिक, ज्यों होजान में नौन
*
बहे काव्य मन्दाकिनी, 'सलिल' नित्य अवगाह
गद्य सेतु से हो सके, भू दर्शन की चाह
*
'लोकनाथ' के 'कुञ्ज' में, 'ज्योतिष राय' सुपंथ
निरख 'पर्ण श्री' रच रहे, नित्य सार्थक ग्रंथ
२१-१२-२०१६
***
गीत -
एक दिन ही नया
*
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
मन सनातन सत्य
निश-दिन गुनगुनाना।
*
समय कब रुकता?
निरंतर चला करता।
स्वर्ण मृग
संयम सिया को
छला करता।
लक्ष्मण-रेखा कहे
मत पार जाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
निठुर है बाज़ार
क्रय-विक्रय न भूले।
गाल पिचका
आम के
हैं ख़ास फूले।
रोकड़़ा पाए अधिक जो
वह सयाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
सबल की मनमानियाँ
वैश्वीकरण है।
विवश जन को
दे नहीं
सत्ता शरण है।
तंत्र शोषक साधता
जन पर निशाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
२०. १२.२०१५
***
कविता क्या???
लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार कविता ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों१। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय२ चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ३, रसमय वाक्य४, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार५, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा६, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन७, ध्वनि को काव्य की आत्मा८, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय९, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।
सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
***
हाइकु गीत:
आँख का पानी
संजीव 'सलिल'
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...
***
हाइकु मुक्तक :
जापानी छंद / पाँच सात औ' पाँच / देता आनंद
तजिए द्वंद / सदा कहिए साँच / तजिए गंद
तोड़िए फंद / साँच को नहीं आँच / सूर्य अमंद
आनंदकंद / मन दर्पण काँच / परमानंद
२१-१२-२०१४
***

बुधवार, 21 दिसंबर 2022

सॉनेट, दोहा, गीत, श्यामलाल उपाध्याय, कविता क्या, हाइकु गीत, हाइकु

सॉनेट 
हार
हार का कर हार धारण
जीत तब ही तो वरेगी
तिलक तेरा तब करेगी
हारकर मत बैठ, कर रण

हार को गुपचुप निहारो
कर्म की कर साधना नित
तभी होगा आत्म-परहित
भूल मत भूलो, सुधारो

हार को त्यौहार मानो
बंधु बाँधव मीत जानो
सबक सीखो समर ठानो

हार ही तब हार जाए
जीत तब ही निकट आए
हार से तू जीत पाए
संजीव
२१-१२-२०२२
९४२५१८३२४४
७•५८,जबलपुर 
●●●
दोहा

सलिल हुआ संजीव पा,शशि-किरणों का साथ.

खिल-खिल खिला पलाश भी, उठा-उठाकर हाथ.
***
आचार्य श्याम लाल उपाध्याय के प्रति दोहांजलि
*
दोहाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
निर्मल निश्छल नर्मदा, वाक् अबाध प्रवाह
पाई शारद की कृपा, अग्रज! अगम-अथाह
*
शब्द-शब्द सार्थक कहें, संशय हरें तुरंत
छाया दें वट-वृक्ष सम, नहीं कृपा का अंत
*
आभा-किरण अनंत की, हरे सकल अज्ञान
शारद-सुत प्रतिभा अमित, कैसे सकूँ बखान?
*
तुम विराट के पग कमल, प्रक्षालित कर धन्य
'सलिल' कर रहा शत नमन, करिये कृपा अनन्य
*
'नियति निसर्ग' पढ़े-बढ़े, पाठक करे प्रणाम
धन्य भाग्य साहित्य पा, सार्थक ललित ललाम
*
बाल ह्रदय की सरलता, युवकोचित उत्साह
प्रौढ़ों सा गाम्भीर्य मिल, पाता जग से वाह
*
नियति भेद-निक्षेपते, आपद-विपद तमाम
वैदिक चिंतन सनातन, बाँटें नित्य अकाम
*
गद्य-पद्य के हिमालय, शब्द-पुरुष संजीव
ममता की मूरत मृदुल, वंदन करुणासींव!
*
श्याम-लाल का विलय या, लाल श्याम का मेल?
विद्यासागर! बताओ, करो न हमसे खेल
*
विद्यावारिधि! प्रणत युग, चाह रहा आशीष
करो कृपा अज्ञान हर, बाँटो ज्ञान मनीष
*
गद्य माल है गले में, तिलक समीक्षा भाल
पद्य विराजित ह्रदय में, दूजी कहाँ मिसाल?
*
राष्ट्र चिंतना ही रही, आजीवन तव ध्येय
धूप-छाँव दो पक्ष हों, पूरक और विधेय
*
देश सुखी-सानंद हो, दुश्मन हों संत्रस्त
श्रमी युवा निर्माण नव, करें न हों भयग्रस्त
*
धर्म कर्म का मर्म है, देश-प्रेम ही मात्र
सबल निबल-रक्षक बने, तभी न्याय का पात्र
*
दोहा-दोहा दे रहा, सार्थक-शुभ संदेश
'सलिल' ग्रहण कर तर सके, पाकर दिशा विशेष
*
गति-यति, मात्रा-भार है, सही-संतुलित खूब
पाठक पढ़कर गह सकें, अर्थ पाठ में डूब
*
दोहा-दोहा दुह रहा, गौ भाषा कर प्रीत
ग्रहण करे सन्देश जो, बना सके नव रीत
*
आस्था के अंकुर उगा, बना दिए वट-वृक्ष
सौरभ के स्वर मनोहर, सृजनकार है दक्ष
*
कविता-कानन में उगे, हाइकु संग्रह मौन
कम में कहते हैं अधिक, ज्यों होजान में नौन
*
बहे काव्य मन्दाकिनी, 'सलिल' नित्य अवगाह
गद्य सेतु से हो सके, भू दर्शन की चाह
*
'लोकनाथ' के 'कुञ्ज' में, 'ज्योतिष राय' सुपंथ
निरख 'पर्ण श्री' रच रहे, नित्य सार्थक ग्रंथ
२१-१२-२०१६
***
गीत -
एक दिन ही नया
*
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
मन सनातन सत्य
निश-दिन गुनगुनाना।
*
समय कब रुकता?
निरंतर चला करता।
स्वर्ण मृग
संयम सिया को
छला करता।
लक्ष्मण-रेखा कहे
मत पार जाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
निठुर है बाज़ार
क्रय-विक्रय न भूले।
गाल पिचका
आम के
हैं ख़ास फूले।
रोकड़़ा पाए अधिक जो
वह सयाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
सबल की मनमानियाँ
वैश्वीकरण है।
विवश जन को
दे नहीं
सत्ता शरण है।
तंत्र शोषक साधता
जन पर निशाना।
एक दिन ही नया
बाकी दिन पुराना।
*
२०. १२.२०१५

***
कविता क्या???
लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार कविता ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों१। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय२ चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ३, रसमय वाक्य४, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार५, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा६, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन७, ध्वनि को काव्य की आत्मा८, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय९, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।
सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
***
हाइकु गीत:
आँख का पानी
संजीव 'सलिल'
*
आँख का पानी,
मर गया तो कैसे
धरा हो धानी?...
*
तोड़ बंधन
आँख का पानी बहा.
रोके न रुका.
आसमान भी
हौसलों की ऊँचाई
के आगे झुका.
कहती नानी
सूखने मत देना
आँख का पानी....
*
रोक न पाये
जनक जैसे ज्ञानी
आँसू अपने.
मिट्टी में मिला
रावण जैसा ध्यानी
टूटे सपने.
आँख से पानी
न बहे, पर रहे
आँख का पानी...
*
पल में मरे
हजारों बेनुगाह
गैस में घिरे.
गुनहगार
हैं नेता-अधिकारी
झूठे-मक्कार.
आँख में पानी
देखकर रो पड़ा
आँख का पानी...

*
***
हाइकु मुक्तक :
जापानी छंद / पाँच सात औ' पाँच / देता आनंद
तजिए द्वंद / सदा कहिए साँच / तजिए गंद
तोड़िए फंद / साँच को नहीं आँच / सूर्य अमंद
आनंदकंद / मन दर्पण काँच / परमानंद
२१-१२-२०१४
***

शनिवार, 20 फ़रवरी 2021

समीक्षा निसर्ग श्यामलाल उपाध्याय

पुस्तक चर्चा -
नियति निसर्ग : दोहा दुनिया का नया रत्न
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
[पुस्तक परिचय- नियति निसर्ग, दोहा संग्रह, प्रो. श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१५, आकार २२.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण सजिल्द, जैकेट सहित, पृष्ठ १२६, मूल्य १३०/-, प्रकाशक भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/८ ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर कोलकाता ७०००५३]
*

विश्व वाणी हिंदी के छंद कोष के सर्वाधिक प्रखर और मूल्यवान दोहा कक्ष को अलंकृत करते हुए श्रेष्ठ-ज्येष्ठ शारदा-सुत प्रो. श्यामलाल उपाध्याय ने अपने दोहा संकलन रूपी रत्न 'नियति निसर्ग' प्रदान किया है. नियति निसर्ग एक सामान्य दोहा संग्रह नहीं है, यह सोद्देश्य, सारगर्भित,सरस, लाक्षणिक अभिव्यन्जनात्मकता से सम्पन्न दोहों की ऐसी रसधार प्रवाहित का रहा है जिसका अपनी सामर्थ्य के अनुसार पान करने पर प्रगाढ़ रसानंद की अनुभूति होती है.
प्रो. उपाध्याय विश्ववाणी हिंदी के साहित्योद्यान में ऐसे वट-वृक्ष हैं जिनकी छाँव में गणित जिज्ञासु रचनाशील अपनी शंकाओं का संधान और सृजन हेतु मार्गदर्शन पाते हैं. वे ऐसी संजीवनी हैं जिनके दर्शन मात्र से माँ भारती के प्रति प्रगाढ़ अनुराग और समर्पण का भाव उत्पन्न होता है. वे ऐसे साहित्य-ऋषि हैं जिनके दर्शन मात्र से श्नाकों का संधान होने लगता है. उनकी ओजस्वी वाणी अज्ञान-तिमिर का भेदन कर ज्ञान सूर्य की रश्मियों से साक्षात् कराती है.
नियति निसर्ग का श्री गणेश माँ शारदा की सारस्वत वन्दना से होना स्वाभाविक है. इस वन्दना में सरस्वती जी के जिस उदात्त रूप की अवधारणा ही, वह अन्यत्र दुर्लभ है. यहाँ सरस्वती मानवीय ज्ञान की अधिष्ठात्री या कला-संगीत की आदि शक्ति इला ही नहीं हैं अपितु वे सकल विश्व, अंतरिक्ष, स्वर्ग और ब्रम्ह-लोक में भी व्याप्त ब्रम्हाणी हैं. कवि उन्हें अभिव्यक्ति की देवी कहकर नमन करता है.
'विश्वपटल पर है इला, अन्तरिक्ष में वाणि
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रम्ह-लोक ब्रम्हाणि'
'घर की शोभा' धन से नहीं कर्म से होती है. 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' की विरासत नयी पीढ़ी के लिए श्लाघ्य है-
'लक्ष्मी बसती कर्म में, कर्म बनता भाग्य
भाग्य-कर्म संयोग से, बन जाता सौभाग्य'
माता-पिता के प्रति, शिशु के प्रति, बाल विकास, अवसर की खोज, पाठ के गुण विशेष, शिक्षक के गुण, नेता के गुण, व्यक्तित्व की परख जैसे शीर्षकों के अंतर्गत वर्णित दोहे आम आदमी विशेषकर युवा, तरुण, किशोर तथा बाल पाठकों को उनकी विशिष्टता और महत्त्व का भान कराने के साथ-साथ कर्तव्य और अधिकारों की प्रतीति भी कराते हैं. दोहाकार केवल मनोरंजन को साहित्य सृजन का लक्ष्य नहीं मानता अपितु कर्तव्य बोध और कर्म प्रेरणा देते साहित्य को सार्थक मानता है.
राष्ट्रीयता को साम्प्रदायिकता मानने के वर्तमान दौर में कवि-ऋषि राष्ट्र-चिंतन, राष्ट्र-धर्म, राष्ट्र की नियति, राष्ट्र देवो भव, राष्ट्रयता अखंडता, राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व, देवनागरी लिपि आदि शीर्षकों से राष्ट्रीय की ओजस्वी भावधारा प्रवाहित कर पाठकों को अवगाहन करने का सुअवसर उपलब्ध कराते हैं. वे सकल संतापों का निवारण का एकमात्र मार्ग राष्ट्र की सुरक्षा में देखते हैं.
आदि-व्याधि विपदा बचें, रखें सुरक्षित आप
सदा सुरक्षा देश की, हरे सकल संताप
हिंदी की विशेषता को लक्षित करते हुए कवि-ऋषि कहते हैं-
हिंदी जैसे बोलते, वैसे लिखते आप
सहज रूप में जानते, मिटते मन के ताप
हिंदी के जो शब्द हैं, रखते अपने अर्थ
सहज अर्थ वे दे चलें, जिनसे हो न अनर्थ
बस हिंदी माध्यम बने, हिंदी का हो राज
हिंदी पथ-दर्शन करे, हिंदी हो अधिराज
हिंदी वैज्ञानिक सहज, लिपि वैज्ञानिक रूप
इसको सदा सहेजिए, सुंदर स्निग्ध स्वरूप
तकनीकी सम्पन्न हों, माध्यम हिंदी रंग
हिंदी पाठी कुशल हों, रंग न होए भंग
देवनागरी लिपि शीर्षक से दिए दोहे भारत के इतिहास में हिंदी के विकास को शब्दित करते हैं. इस अध्याय में हिंसी सेवियों के अवदान का स्मरण करते हुए ऐसे दोहे रचे गए हैं जो नयी पीढ़ी का विगत से साक्षात् कराते हैं.
संत कबीर, महाबली कर्ण, कविवर रहीम, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मौनी बाबा तथा श्रीकृष्ण पर केन्द्रित दोहे इन महान विभूतियों को स्मरण मात्र नहीं करते अपितु उनके अवदान का उल्लेख कर प्रेरणा जगाने का काम भी करते हैं.
कबीर का गुरु एक है, राम नाम से ख्यात
निराकार निर्गुण रहा, साई से प्रख्यात
जब तक स्थापित रश्मि है, गंगा जल है शांत
रश्मिरथी का यश रहे, जग में सदा प्रशांत
ऐसा कवि पायें विभो, हो रहीम सा धीर
ज्ञानी दानी वुगी हो, युद्ध क्षेत्र का वीर
महावीर आचार्य हैं, क्या द्विवेद प्रसाद
शेरश जागरण काल के, विषय रहा आल्हाद
मौनी बाबा धन्य हैं, धन्य आप वरदान
जनमानस सुख से रहे, यही बड़ा अवदान
भारत कर्म प्रधान देश है. यहाँ शक्ति की भक्ति का विधान सनातन काल से है. गीता का कर्मयोग भारत ही नहीं, सकल विश्व में हर काल में चर्चित और अर्चित रहा है. सकल कर्म प्रभु को अर्पित कर निष्काम भाव से संपादित करना ही श्लाघ्य है-
सौंपे सरे काज प्रभु, सहज हुए बस जान
सारे संकट हर लिए, रख मान तो मान
कर्म कराता धर्म है, धर्म दिलाता अर्थ
अर्थ चले बहु काम ले, यह जीवन का मर्म
जातीय छुआछूत ने देश की बहुत हानि की है. कविगुरु कर्माधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक हैं जिसका उद्घोष गीत में श्रीकृष्ण 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर करते हैं.
वर्ण व्यवस्था थी बनी, गुणवत्ता के काज
कुलीनता के अहं ने, अपना किया अकाज
घृणा जन्म देती घृणा, प्रेम बढ़ाता प्रेम
इसीलिए तुम प्रेम से, करो प्रेम का नेम
सर्वधर्म समभाव के विचार की विवेचना करते हुए काव्य-ऋषि धर्म और संप्रदाय को सटीकता से परिभाषित करते हैं-
होता धर्म उदार है, संप्रदाय संकीर्ण
धर्म सदा अमृत सदृश, संप्रदाय विष-जीर्ण
कृषि प्रधान देश भारत में उद्योग्व्र्धक और कृषि विरोधी प्रशासनिक नीतियों का दुष्परिणाम किसानों को फसल का समुचित मूल्य न मिलने और किसानों द्वारा आत्म हत्या के रूप में सामने आ रहा है. कवी गुरु ने कृषकों की समस्या का जिम्मेदार शासन-प्रशासन को ही माना है-
नेता खेलें भूमि से, भूमिग्रहण व्यापार
रोके इसको संहिता, चाँद लगाये चार
रोटी के लाले पड़े, कृषक भूमि से हीन
तडपे रक्षा प्राण को, जल अभाव में मीन
दोहे गोशाला के भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था और किसान की दुर्दशा को बताते हैं. कवी गौ और गोशाला की महत्ता प्रतिपादित करते हैं-
गो में बसते प्राण हैं, आशा औ' विश्वास
जहाँ कृष्ण गोपाल हैं, करनी किसकी आस
गोवध अनुचित सर्वथा, औ संस्कृति से दूर
कर्म त्याज्य अग्राह्य है, दुर्मत कुत्सित क्रूर
राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, स्वाधीनता की नियति, मादक द्रव्यों के दुष्प्रभाव, चिंता, दुःख की निरंतरता, आत्मबोध तत्व, परमतत्व बोध, आशीर्वचन, संस्कार, रक्षाबंधन, शिवरात्रि, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी आदि शीर्षकों के अंतर्गत दिए गए दोहे पाठकों का पाठ प्रदर्शन करने क साथ शासन-प्रशासन को भी दिशा दिखाते हैं. पुस्तकांत में 'प्रबुद्ध भारत का प्रारूप' शीर्षक से कविगुरु ने अपने चिंतन का सार तत्व तथा भविष्य के प्रति चिंतन-मंथन क नवनीत प्रस्तुत किया है-
सत्य सदा विजयी रहा, सदा सत्य की जीत
नहीं सत्य सम कुछ जगत, सत्य देश का गीत
सभी पन्थ हैं एक सम, आत्म सन्निकट जान
आत्म सुगंध पसरते, ईश्वर अंश समान
बड़ी सोच औ काम से, बनता व्यक्ति महान
चिंतन औ आचार हैं, बस उनके मन जान
किसी कृति का मूल्याङ्कन विविध आधारों पर किया जाता है. काव्यकृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उसका कथ्य होता है. विवेच्य ८६ वर्षीय कवि-चिन्तक के जीवनानुभवों का निचोड़ है. रचनाकार आरंभ में कटी के शिल्प के प्रति अत्यधिक सजग होता है क्योंकि शिल्पगत त्रुटियाँ उसे कमजोर रचनाकार सिद्ध करती हैं. जैसे-जैसे परिपक्वता आती है, भाषिक अलंकरण के प्रति मोह क्रमश: कम होता जाता है. अंतत: 'सहज पके सो मीठा होय' की उक्ति के अनुसार कवि कथ्य को सरलतम रूप में प्रस्तुत करने लगता है. शिल्प के प्रति असावधानता यत्र-तत्र दिखने पर भी कथ्य का महत्व, विचारों की मौलिकता और भाषिक प्रवाह की सरलता कविगुरु के संदेश को सीधे पाठक के मन-मस्तिष्क तक पहुँचाती है. यह कृति सामान्य पाठक, विद्वज्जनों, प्रशासकों, शासकों, नीति निर्धारकों तथा बच्चों के लिए समान रूप से उपयोगी है. यही इसका वैशिष्ट्य है.
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रविवार, 1 दिसंबर 2019

सरस्वती स्तवन श्यामलाल उपाध्याय


सरस्वती स्तवन
स्मृतिशेष प्रो. श्यामलाल उपाध्याय
जन्म - १ मार्च १९३१।
शिक्षा - एम.ए., टी.टी.सी., बी.एड.।
संप्रति - पूर्व हिंदी प्राध्यापक-विभागाध्यक्ष, मंत्री भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता।
प्रकाशन - नियति न्यास, नियति निक्षेप, नियति निसर्ग, संक्षिप्त काव्यमय हिंदी बालकोश, शोभा, सौरभ, सौरभ रे स्वर।
उपलब्धि - अनेक प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान।

*
जननी है तू वेद की, वीणा पुस्तक साथ।
सुविशाल तेरे नयन, जनमानस की माथ।।
*
सर्वव्याप्त निरवधि रही, शुभ वस्त्रा संपृक्त।
सदा निनादित नेह से, स्रोत पयस्विनी सिक्त।।
*
विश्वपटल पर है इला, अंतरिक्ष में वाणि।
कहीं भारती स्वर्ग में, ब्रह्मलोक ब्रह्माणि।।
*
जहाँ स्वर्ग में सूर्य है, वहीं मर्त्य सुविवेक।
अंतर्मन चेतन करे, यह तेरी गति नेक।।
*
ऋद्धि-सिद्धि है जगत में, ग्यान यग्य जप-जाप।
अभयदान दे जगत को, गर वो सब परिताप।।
*
तब देवी अभिव्यक्ति की, जग है तेरा दास।
सुख संपति से पूर्ण कर, हर ले सब संत्रास।।
***

गुरुवार, 1 मार्च 2018

स्व. श्यामलाल उपाध्याय जी को जन्मतिथि पर सादर श्रृद्धा-सुमन समर्पित.
*













हिंदी हित श्वास-श्वास जिए श्यामलाल जी,
याद को नमन सौ-सौ बार कीजिए.
प्रेरणा लें हम जगवाणी हिंदी को करेंगे,
हिंदी ही दीवाली होगी, हिंदी-होली भीजिए.
काव्य मंदाकिनी न रुके बहती रहे,
सलिल संजीव सँग संकल्प लीजिए.
श्याम की विरासत न बिसराइए कभी.
श्याम की संतानों ये शपथ आज लीजिए.
अभिन्न सखा
संजीव 'सलिल'
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सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

samiksha



पुस्तक चर्चा


भू दर्शन संग काव्यामृत वर्षण 
-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय- भू दर्शन, पर्यटन काव्य, आचार्य श्यामलाल उपाध्याय, प्रथम संस्करण, २०१६, आकार २२ से. मी.  x १४.५ से.मी., सजिल्द जैकेट सहित, आवरण दोरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य १२०/-, भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज, १२७/ए/२ ज्योतिष राय मार्ग, न्यू अलीपुर कोलकाता ७०००५३।]
*
                            परम पिता परमेश्वर से साक्षात का सरल पथ प्रकृति पटल से ऑंखें चार करना है. यह रहस्य   श्रेष्ठ-ज्येष्ठ हिंदीविद कविगुरु आचार्य श्यामलाल उपाध्याय से अधिक और कौन जान सकता है? शताधिक काव्यसंकलनों की अपने रचना-प्रसाद से शोभा-वृद्धि कर चुके कवि-ऋषि ८६ वर्ष की आयु में भी युवकोचित उत्साह से हिंदी मैया के रचना-कोष की श्री वृद्धि हेतु अहर्निश समर्पित रहते हैं। काव्याचार्य, विद्यावारिधि, साहित्य भास्कर, साहित्य महोपाध्याय, विद्यासागर, भारतीय भाषा रत्न, भारत गौरव, साहित्य शिरोमणि, राष्ट्रभाषा गौरव आदि विरुदों से अलंकृत किये जा चुके कविगुरु वैश्विक चेतना के पर्याय हैं।  वे कंकर-कंकर में शंकर का दर्शन करते हुए माँ भारती की सेवा में निमग्न शारदसुतों के उत्साहवर्धन का उपक्रम निरन्तर करते रहते हैं।  प्राचीन ऋषि परंपरा का अनुसरण करते हुए अवसर मिलते ही पर्यटन और देखे हुए को काव्यांकित कर अदेखे हाथों तक पहुँचाने का सारस्वत अनुष्ठान है भू-दर्शन।    

                            कृति के आरम्भ में राष्ट्रभाषा हिंदी का वर्चस्व शीर्षकान्तर्गत प्रकाशित दोहे विश्व वाणी हिंदी के प्रति कविगुरु के समर्पण के साक्षी हैं।  
घर-बाहर हिंदी चले, राह-हाट-बाजार। 
गाँव नगर हिंदी चले, सात समुन्दर पार।। 

                            आचार्य उपाध्याय जी सनातन रस परंपरा के वाहक हैं।  भामह, वामन, विश्वनाथ, जगन्नाथ आदि संस्कृत आचार्यों से रस ग्राहिता, खुसरो, कबीर, रैदास आदि से वैराग्य, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ, नगेन्द्र आदि से भाषिक निष्ठा तथा पंत, निराला, महादेवी आदि से छंद साधना ग्रहण कर अपने अपनी राह आप बनाने का महत और सफल प्रयास किया है।  छंद राज दोहा कवि गुरु का सर्वाधिक प्रिय छंद है। गुरुता, सरलता, सहजता, गंभीरता तथा सारपरकता के पंच तत्व कविगुरु और उनके प्रिय छंद दोनों का वैशिष्ट्य है।  'नियति निसर्ग' शीर्षक कृति में कवि गुरु ने राष्ट्रीय चेतना, सांस्कृतिक समरसता, वैश्विक समन्वय, मानवीय सामंजस्य, आध्यात्मिक उत्कर्ष, नागरिक कर्तव्य भाव, सात्विक मूल्यों के पुनरुत्थान, सनातन परंपरा के महत्व स्थापन आदि पर सहजग्राह्य अर्थवाही दोहे कहे हैं. इन दोहों में संक्षिप्तता, लाक्षणिकता, सारगर्भितता, अभिव्यंजना, तथा आनुभूतिक सघनता सहज दृष्टव्य है।

                            विवेच्य कृति भूदर्शन कवि गुरु के धीर-गंभीर व्यक्तित्व में सामान्यतः छिपे रहनेवाले प्रकृति प्रेमी से साक्षात् कराती है।  उनके व्यक्तित्व में अन्तर्निहित यायावर से भुज भेंटने का अवसर सुलभ कराती यह कृति व्यक्तित्व के अध्ययन की दृष्टि से महती आवश्यकता की पूर्ति करती है तथा शोध छात्रों के लिए महत्वपूर्ण है। भारतीय ऋषि परंपरा खुद को प्रकृति पुत्र कटी रही है, कविगुरु ने बिना घोषित किये ही इस कृति के माध्यम से प्रकृति माता को शब्द-प्रणाम निवेदित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया है।                    

                             आत्म निवेदन (पदांत बंधन मुक्त महातैथिक जातीय छंद) तथा चरण धूलि चन्दन बन जाए (यौगिक जातीय कर्णा छंद) शीर्षक रचनाओं के माध्यम से कवि ने ईश वंदना की सनातन परंपरा को नव कलेवर प्रदान किया है। कवि के प्रति (पदांत बंधन मुक्त महा तैथिक जातीय छंद) में कवि गुरु  प्रकृति और कवि के मध्य अदृश्य अंतर्बंध को शब्द दे सके हैं। पर्यावरण शीर्षक द्विपदीयों में कवि ने पर्यावरणीय प्रदूषण के प्रति चिंता व्यक्त की है। मूलत: शिक्षक होने के कारण कवि की चिंता चारित्रिक पतन और मानसिक प्रदूषण के प्रति भी है। आत्म विश्वास, नियतिचक्र, कर्तव्य बोध, कुंठा छोडो, श्रम की महिमा, दीप जलाएं दीप जैसी रचनाओं में कवि पाठकों को आत्म चेतना जाग्रति का सन्देश देता है। श्रमिक, कृषक, अध्यापक, वैज्ञानिक, रचनाकार, नेता और अभिनेता अर्थात समाज के हर वर्ग को उसके दायित्व का भान करने के पश्चात् कवि प्रभु से सर्व कल्याण की कामना करता है-
चिर आल्हाद के आँसू
धो डालें, समस्त क्लेश-विषाद
रचाएँ, एक नया इतिहास
अजेय युवक्रांति का
कुलाधिपति राष्ट्र का।

                             सप्त सोपान में भी 'भारती उतारे स्वर्ग भूमा के मन में' कहकर कवि विश्व कल्याण की कामना करता है। व्यक्ति से समष्टि की छंटन परक यात्रा में राष्ट्र से विश्व की ओर ऊर्ध्वगमन स्वाभाविक है किन्तु यह दिशा वही ग्रहण कर सकता जो आत्म से परमात्म के साक्षात् की ओर पग बढ़ा रहा हो। कविगुरु का विरुद ऐसे ही व्यक्तित्व से जुड़कर सार्थक होता है।

                                  विवेच्य कृति में अतीत से भविष्य तक की थाती को समेटने की दिशा उन रचनाओं में भी हैं जो मिथक मान लिए गए महामानवों पर केन्द्रित हैं।  ऐसी रचनाओं में कहीं देर न हो जाए, भारतेंदु हरिश्चंद्र, भवानी प्रसाद मिश्र, महाव्रत कर्ण पर), तथा बुद्ध पर केन्द्रित रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। तुम चिर पौरुष प्रहरी पूरण रचना में कवी भैरव, नृसिंह परशुराम के साथ प्रहलाद, भीष्म, पार्थ, कृष्ण, प्रताप. गाँधी पटेल आदि को जोड़ कर यह अभिव्यक्त करते हैं कि महामानवों की तहती वर्तमान भी ग्रहण कर रहा है। आवश्यकता है कि अतीत का गुणानुवाद करते समय वर्तमान के महत्व को भी रेखांकित किया जाए अन्यथा भावी पीढ़ी महानता को पहचान कर उसका अनुकरण नहीं कर सकेगी।

                                  इस कृति को सामान्य काव्य संग्रहों से अलग एक विशिष्ट श्रेणी में स्थापित करती हैं वे रचनाएँ जो मानवीय महत्त्व के स्थानों पर केन्द्रित हैं. ऐसी रचनाओं में वाराणसी के विश्वनाथ, कलकत्ता की काली, तीर्थस्थल, दक्षिण पूर्व, मानसर, तिब्बत, पूर्वी द्वीप, पश्चिमी गोलार्ध, अरावली क्षेत्र, उत्तराखंड, नर्मदा क्षेत्र, रामेश्वरम, गंगासागर, गढ़वाल, त्रिवेणी, नैनीताल, वैटिकन, मिस्र, ईराक आदि से सम्बंधित रचनाएँ हैं। इन रचनाओं में अंतर्निहित सनातनता, सामयिकता, पर्यावरणीय चेतना, वैश्विकता तथा मानवीय एकात्मकता की दृष्टि अनन्य है।

                                  संत वाणी, प्रीति घनेरी, भज गोविन्दम, ध्यान की महिमा, धर्म का आधार, गीता का मूल स्वरूप तथा आचार परक दोहे कवि गुरु की सनातन चिंतन संपन्न लेखन सामर्थ्य की परिचायक रचनाएँ हैं। 'जीव, ब्रम्ह एवं ईश्वर' आदि काल से मानवीय चिंतन का पर्याय रहा है। कवि गुरु ने इस गूढ़ विषय को जिस सरलता-सहजता तथा सटीकता से दोहों में अभिव्यक्त किया है, वह श्लाघनीय है-
घट अंतर जल जीव है, बाहर ब्रम्ह प्रसार  
घट फूटा अंतर मिटा, यही विषय का सार 

यह अविनाशी जीव है, बस ईश्वर का अंश 
निर्मल अमल सहज सदा, रूप राशि अवतंश 

देही स्थित जीव में, उपदृष्टा तू जान  
अनुमन्ता सम्मति रही, धारक भर्ता मान 

शुद्ध सच्चिदानन्दघन, अक्षर ब्रम्ह विशेष 
कारण वह अवतार का जन्मन रहित अशेष 
[अक्षर ब्रम्ह में श्लेष अलंकार दृष्टव्य]

यंत्र रूप आरुढ़ मैं, परमेश्वर का रूप 
अन्तर्यामी रह सदा, स्थित प्राणी स्वरूप 

                                         भारतीय चिंतन और सामाजिक परिवेश में नीतिपरक दोहों का विशेष स्थान है। कविगुरु ने 'आचारपरक दोहे' शीर्षक से जन सामान्य और नव पीढ़ी के मार्गदर्शन का महत प्रयास इन दोहों में किया है। श्रीकृष्ण ने गीता में 'चातुर्वर्ण्य माया सृष्टं गुण-कर्म विभागश:' कहकर चरों वर्णों के मध्य एकता और समता के जिस सिद्धांत का प्रतिपादन किया कविगुरु ने स्वयं 'ब्राम्हण' होते हुए भी उसे अनुमोदित किया है-
व्यक्ति महान न जन्म से, कर्म बनाता श्रेष्ठ 
राम कृष्ण या बुद्ध हों, गुण कर्मों से ज्येष्ठ 

लगता कोई विज्ञ है, आप स्वयं गुणवान 
गुणी बताते विज्ञ है, कहीं अन्य मतिमान 

लोक जीतकर पा लिया, कहीं नाम यश चाह 
आत्म विजेता बन गया, सबके ऊपर शाह 
         
                                        विभिन्न देशों में हिंदी विषयक दोहे हिंदी की वैश्विकता प्रमाणित करते हैं. इन दोहों में मारीशस, प्रशांत, त्रिनिदाद, सूरीनाम, रोम, खाड़ी देश, स्विट्जरलैंड, फ़्रांस, लाहौर, नेपाल, चीन, रूस, लंका, ब्रिटेन, अमेरिका आदि में हिंदी के प्रसार का उल्लेख है। आधुनिक हिंदी के मूल में रही शौरसेनी, प्राकृत, आदि के प्रति आभार व्यक्त करना भी कविगुरु नहीं भूले।  

                                        इस कृति का वैशिष्ट्य आत्म पांडित्य प्रदर्शन का लोभ संवरण कर, जन सामान्य से संबंधित प्रसंगों और विषयों को लेकर गूढ़ चिन्तन का सार तत्व सहज, सरल, सामान्य किन्तु सरस शब्दावली में अभिवयक्त किया जाना है। अतीत को स्मरण कर प्रणाम करती यह कृति वर्तमान की विसंगतियों के निराकरण के प्रति सचेत करती है किन्तु भयावहता का अतिरेकी चित्रण करने की मनोवृत्ति से मुक्त है। साथ ही भावी के प्रति सजग रहकर व्यक्तिगत, परिवारगत, समाजगत, राष्ट्र्गत और विश्वगत मानवीय आचरण के दिशा-दर्शन का महत कार्य पूर्ण करती है। इस कृति को जनसामान्य अपने दैनंदिन जीवन में आचार संहिता की तरह परायण कर प्रेरणा ग्रहण कर अपने वैयक्तिक और सामाजिक जीवन को अर्थवत्ता प्रदान कर सकता है। ऐसी चिन्तन पूर्ण कृति, उसकी जीवंत-प्राणवंत भाषा तथा वैचारिक नवनीत सुलभ करने के लिए कविगुरु साधुवाद के पात्र हैं। आयु के इस पड़ाव पर महत की साधना में कुछ अल्प महत्व के तत्वों पर ध्यान न जाना स्वाभाविक है। महान वैज्ञानिक सर आइजेक न्यूटन बड़ी बिल्ली के लिए बनाये गए छेद से उसके बच्चे की निकल जाने का सत्य प्रथमत: ग्रहण नहीं कर सके थे। इसी तरह कविगुरु की दृष्टि से कुछ मुद्रण त्रुटियाँ छूटना अथवा दो भिन्न दोनों के पंक्तियाँ जुड़ जाने से कहीं-कहीं तुकांत भिन्नता हो जाना स्वाभाविक है। इसे चंद्रमा के दाग की तरह अनदेखा किया जाकर कृति में सर्वत्र व्याप्त विचार अमृत का पान कर जीवन को धन्य करना ही उपयुक्त है। कविगुरु के इस कृपा-प्रसाद को पाकर पाठक धन्यता अन्नुभाव करे यह स्वाभाविक है।
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नवगीत: 
रंगों का नव पर्व बसंती

रंगों का नव पर्व बसंती
सतरंगा आया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

आशा पंछी को खोजे से
ठौर नहीं मिलती.
महानगर में शिव-पूजन को
बौर नहीं मिलती.
चकित अपर्णा देख, अपर्णा
है भू की काया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

कागा-कोयल का अंतर अब
जाने कैसे कौन?
चित्र किताबों में देखें,
बोली अनुमानें मौन.
भजन भुला कर डिस्को-गाना
मंदिर में गाया.
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

है अबीर से उन्हें एलर्जी,
रंगों से है बैर
गले न लगते, हग करते हैं
मना जान की खैर
जड़ विहीन जड़-जीवन लखकर
'सलिल' मुस्कुराया
सद्भावों के जंगल गायब
पर्वत पछताया

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दोहा मुक्तिका (दोहा ग़ज़ल):                                                            

दोहा का रंग होली के संग :

संजीव वर्मा 'सलिल'
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होली हो ली हो रहा, अब तो बंटाधार. 
मँहगाई ने लील ली, होली की रस-धार..
*
अन्यायी पर न्याय की, जीत हुई हर बार..
होली यही बता रही, चेत सके सरकार..
*
आम-खास सब एक है, करें सत्य स्वीकार.
दिल के द्वारे पर करें, हँस सबका सत्कार..
*
ससुर-जेठ देवर लगें, करें विहँस सहकार.
हँसी-ठिठोली कर रही, बहू बनी हुरियार..
*
कचरा-कूड़ा दो जला, साफ़ रहे संसार.
दिल से दिल का मेल ही, साँसों का सिंगार..
*
जाति, धर्म, भाषा, वसन, सबके भिन्न विचार. 
हँसी-ठहाके एक हैं, नाचो-गाओ यार..
*
गुझिया खाते-खिलाते, गले मिलें नर-नार.
होरी-फागें गा रहे, हर मतभेद बिसार..
*
तन-मन पुलकित हुआ जब, पड़ी रंग की धार.
मूँछें रंगें गुलाल से, मेंहदी कर इसरार..
*
यह भागी, उसने पकड़, डाला रंग निहार.
उस पर यह भी हो गयी, बिन बोले बलिहार..
*
नैन लड़े, झुक, उठ, मिले, कर न सके इंकार.
गाल गुलाबी हो गए, नयन शराबी चार..
*
दिलवर को दिलरुबा ने, तरसाया इस बार.
सखियों बीच छिपी रही, पिचकारी से मार..
*
बौरा-गौरा ने किये, तन-मन-प्राण निसार.
द्वैत मिटा अद्वैत वर, जीवन लिया सँवार..
*
रतिपति की गति याद कर, किंशुक है अंगार.
दिल की आग बुझा रहा, खिल-खिल बरसा प्यार..
*
मन्मथ मन मथ थक गया, छेड़ प्रीत-झंकार.
तन ने नत होकर किया, बंद कामना-द्वार..
*
'सलिल' सकल जग का करे, स्नेह-प्रेम उद्धार.
युगों-युगों मानता रहे, होली का त्यौहार..
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बुधवार, 22 अप्रैल 2009

रचना आमंत्रण : नमामि मातु भारती

साहित्य समाचार:भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता द्बारा नमामि मातु भारती २००९ हेतु रचना आमंत्रित
संपादक श्री श्यामलाल उपाध्याय तथा अतिथि संपादक आचार्य संजीव 'सलिल' के कुशल संपादन में शीघ्र प्रकाश्य
कोलकाता. विश्ववाणी हिन्दी के में श्रेष्ठ साहित्य सृजन की पक्षधर भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता द्वारा वश २००२ से हर साल एक स्तरीय सामूहिक काव्य संकलन का प्रकाशन किया जाता है. इस अव्यावसायिक योजना में सम्मिलित होने के लिए रचनाकारों से राष्ट्रीय भावधारा की प्रतिनिधि रचना आमंत्रित है. यह संकलन सहभागिता के आधार पर प्रकाशित किया जाता है. इस स्तरीय संकलन के संयोजक-संपादक श्री श्यामलाल उपाध्याय तथा अतिथि संपादक आचार्य संजीव 'सलिल', संपादक दिव्य नर्मदा हैं.
हर सहभागी से संक्षिप्त परिचय (नाम, जन्मतिथि, जन्मस्थान, आजीविका, संपर्क सूत्र, दूरभाष/चलभाष, ईमेल/चिटठा (ब्लोग) का पता, श्वेत-श्याम चित्र, नाम-पता लिखे २ पोस्ट कार्ड तथा अधिकतम २० पंक्तियों की राष्ट्रीय भावधारा प्रधान रचना २५०/- सहभागिता निधि सहित आमंत्रित है.
हर सहभागी को संकलन की २ प्रतियाँ निशुल्क भेंट की जायेंगी जिनका डाकव्यय पीठ वहन करेगी. हर सहभागी की प्रतिष्ठा में 'सारस्वत सम्मान पत्र' प्रेषित किया जायेगा. समस्त सामग्री दिव्य नर्मदा कार्यालय २०४ विजय अपार्टमेन्ट, नेपिअर टाऊन, जबलपुर ४८२००१ या भारतीय वांग्मय पीठ, लोकनाथ कुञ्ज १२७/ए/ ८ ज्योतिष राय मार्ग, नया अलीपुर, कोलकाता ७०००५३ के पते पर ३० मई तक प्रेषित करें.
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