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सोमवार, 2 नवंबर 2015

भ्रांतिमान अलंकार

अलंकार सलिला: २८ 
भ्रांतिमान अलंकार
*














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समझें जब उपमेय को, भ्रम से हम उपमान 
भ्रांतिमान होता वहीँ, लें झट से पहचान. 
जब दिखती है एक में, दूजे की छवि मीत. 
भ्रांतिमान कहते उसे, कविजन गाते गीत.. 

गुण विशेष से एक जब, लगता अन्य समान. 
भ्रांतिमान तब जानिए, अलंकार गुणवान.. 

भ्रांतिमान में भूल से, लगे असत ही सत्य. 
गुण विशेष पाकर कहें, ज्यों अनित्य को नित्य..
 

जैसे रस्सी देखकर, सर्प समझते आप. 
भ्रांतिमान तब काव्य में, भ्रम लख जाता व्याप.. 


जब रूपरंगगंधआकारकर्म आदि की समानता के कारण भूल से प्रस्तुत में अप्रस्तुत का आभास होता हैतब ''भ्रांतिमान अलंकार'' होता है

जब दो वस्तुओं में किसी गुण विशेष की समानता के कारण भ्रमवश एक वस्तु को अन्य वस्तु समझ लिया जाये तो उसे ''भ्रांतिमान अलंकार'' कहते हैं.  

उदाहरण: 

१. कपि करि ह्रदय विचार, दीन्ह मुद्रिका डारि तब. 
    जनु असोक अंगार, दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ..   
-तुलसीदास 

यहाँ अशोक वृक्ष पर छिपे हनुमान जी द्वारा सीताजी का विश्वास अर्जित करने के लिए श्री राम की अँगूठीफेंके जाने पर दीप्ति के कारण सीता जी को अंगार का भ्रम होता हैअतःभ्रांतिमान अलंकार है

२. जानि स्याम घन स्याम को, नाच उठे वन-मोर.

यहाँ श्री कृष्ण को देखकरउनके सांवलेपन के कारण वन के मोरों को काले बादल होने का भ्रम  होता है औरवे वर्षा होना जानकार नाचने लगते हैं. अतः, भ्रांतिमान है. 
३. चंद के भरम होत, मोद है कुमोदिनी को. 

कुमुदिनी को देखकर चंद्रमा का भ्रम होना, भ्रांतिमान अलंकार का लक्षण है. 

४. चाहत चकोर सूर ओर, दृग छोर करि. 
    चकवा की छाती तजि, धीर धसकति है..
 

५. हँसनि में मोती से झरत जनि हंस दौरें बार मेघ मानी बोलै केकी वंश भूल्यौ है. 
    कूजत कपोत पोत जानि कंठ रघुनाथ फूल कई हरापै मैन झूला जानि भूल्यौ है. 
    ऐसी बाल लाल चलौ तुम्हें कुञ्ज लौं देखाऊँ जाको ऐसो आनन प्रकास वास तूल्यौ है. 
    चितवे चकोर जाने चन्द्र है अमल घेरे भौंर भीर मानै या कमल चारु फूल्यौ है. 

६. नाक का मोती अधर की कांति से. 
    बीज दाडिम का समझ कर भ्रांति से. 
    देखकर सहसा हुआ शुक मौन है. 
    सोचता है अन्य शुक यह कौन है. 
-
 मैथिलीशरण गुप्त 

७. काली बल खाती चोटी को देख भरम होता नागिन का. -सलिल 

८. अरसे बाद 
    देख रोटी चाँद का 
    आभास होता.     
-सलिल 

९. जन-गण से है दूर प्रशासन 
    जनमत की होती अनदेखी 
    छद्म चुनावों से होता है 
    भ्रम सबको आजादी का.
 -सलिल 

१०. पेशी समझ माणिक्य को, वह विहग, देखो ले चला 

११. मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं 

१२. चंद अकास को वास विहाई कै 
     आजु यहाँ कहाँ आइ उग्यौ है?


भ्रांतिमान अलंकार सामयिक विसंगतियों को उद्घाटित करनेआम आदमी की पीडा को शब्द देने और युगीन विडंबनाओं पर प्रहार करने का सशक्त हथियार है किन्तु इसका प्रयोग वही कर सकता है जिसे भाषा पर अधिकार हो तथा जिसका शब्द भंडार समृद्ध हो

साहित्य की आराधना आनंद ही आनंद है. 
काव्य-रस की साधना आनंद ही आनंद है. 
'सलिल' सा बहते रहो, सच की शिला को फोड़कर. 
रहे सुन्दर भावना आनंद ही आनंद है. 

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गुरुवार, 27 अक्टूबर 2011

दोहा सलिला: दोहों की दीपावली, अलंकार के संग..... संजीव 'सलिल'

दोहा सलिला:                                                                        

दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.....

संजीव 'सलिल'
*
दोहों की दीपावली, अलंकार के संग.
बिम्ब भाव रस कथ्य के, पंचतत्व नवरंग..
*
दिया दिया लेकिन नहीं, दी बाती औ' तेल.
तोड़ न उजियारा सका, अंधकार की जेल..   -यमक
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गृहलक्ष्मी का रूप तज, हुई पटाखा नार.     -अपन्हुति
लोग पटाखा खरीदें, तो क्यों हो  बेजार?.    -यमक,
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मुस्कानों की फुलझड़ी, मदिर नयन के बाण.  -अपन्हुति
जला फुलझड़ी चलाती, प्रिय कैसे हो तरण?.   -यमक
*
दीप जले या धरा पर, तारे जुड़े अनेक.
तम की कारा काटने, जाग्रत किये विवेक..      -संदेह
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गृहलक्ष्मी का रूप लख, मैया आतीं याद.
वही करधनी चाबियाँ, परंपरा मर्याद..            -स्मरण
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मानो नभ से आ गये, तारे भू पर आज.          -भ्रांतिमान 
लगे चाँद सा प्रियामुख, दिल पर करता राज..  -उपमा
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दीप-दीप्ति दीपित द्युति, दीपशिखा दो देख. -वृत्यानुप्रास
जला पतंगा जान दी, पर न हुआ कुछ लेख.. -छेकानुप्रास
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दिननाथ ने शुचि साँझ को, फिर प्रीत का उपहार.
दीपक दिया जो झलक रवि की, ले हरे अंधियार.. -श्रुत्यानुप्रास
अन्त्यानुप्रास हर दोहे के समपदांत में स्वयमेव होता है.
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लक्ष्मी को लक्ष्मी मिली, नर-नारायण दूर.  -लाटानुप्रास
जो जन ऐसा देखते, आँखें रहते सूर..      
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घर-घर में आनंद है, द्वार-द्वार पर हर्ष.      -पुनरुक्तिप्रकाश
प्रभु दीवाली ही रहे, वर दो पूरे वर्ष..
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दीप जला ज्योतित हुए, अंतर्मन गृह-द्वार.   -श्लेष
चेहरे-चेहरे पर 'सलिल', आया नवल निखार..
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रमा उमा से पूछतीं, भिक्षुक है किस द्वार?
उमा कहें बलि-द्वार पर, पहुंचा रहा गुहार..   -श्लेष वक्रोक्ति 
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रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श.
रमा रमा में मन मगर, रमा न देतीं दर्श?  - काकु वक्रोक्ति 
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मिले सुनार सुनार से, अलंकार के साथ.
चिंता की रेखाएँ शत, हैं स्वामी के माथ..  -पुनरुक्तवदाभास  

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