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गुरुवार, 25 अक्टूबर 2012

बमबुलियाँ: गिरीश बिल्लोरे मुकुल

लोकगीत :

बमबुलियाँ:गाते हैं नर्मदा परिक्रमा करने वाले

गिरीश बिल्लोरे मुकुल 

ऊपर की फोटो गूगल से साभार नीचे धुंआधार सेल फोन फोटो


नर्मदा के दर्शन को जाने वाले /नर्मदा परिक्रमा करने वाले,बुन्देल खंड के नर्मदा भक्त यात्री बमबुलियाँ गा के अपनें सफर की शुरुआत करतें हैं । ये आवाजें उन दिनों खूब लुभातीं थीं अल्ल सुबह जब "परकम्मा-वासी "[नर्मदा की प्रदक्षिणा करने वाले ] रेल से उतर कर सीधे नर्मदा की और रुख करते और कोरस में उनके स्वर बिखरते हौले-हौले स्वर मध्धम होते जाते । जी हाँ माँ नरमदा के सेवकों का जत्था भेड़ाघाट रेलवे स्टेशन से सीधे भेडाघाट की संगमरमरी चट्टानों को धवल करती अपनी माँ के दर्शन को जाता । पक्के रंगों की साडियों में लिपटीं देवियाँ ,युवा अधेड़ बुजुर्ग सभी दल के सदस्य सब के सब एक सधी सजी संवरी आवाज़ गाते मुझे आज भी याद हैं । सच जिस नर्मदा की भक्ति इनको एक लय एक सूत्र में पिरो देती है तो उसकी अपनी धारा कैसी होगी ? जी बिलकुल एक सधी किंतु बाधित होते ही बिफरी भी चिर कुंवरी माँ नर्मदा ने कितने पहाडों के अभिमान को तोडा है.
बमबुलियाँ:पढ़ें लिखों को है राज
बिटिया....$......हो बाँच रे
पुस्तक बाँच रे.......
बिन पढ़े आवै लाज बिटिया बाँच रे
हो.....पुस्तक बाँच रे.......!!
[01]
दुर्गावती के देस की बिटियाँ....
पांछू रहे काय आज
बिटिया........बाँच ......रे......पुस्तक बाँच ........!
[02]
जग उजियारो भयो.... सकारे
मन खौं घेरत जे अंधियारे
का करे अनपढ़ आज रे
बाँच ......रे....बिटिया ..पुस्तक बाँच ........!
[03]
बेटा पढ़ खैं बन है राजा
बिटियन को घर काज रे.....
कैसे आगे देस जो जै है
पान्छू भओ समाज रे.....
कक्का सच्ची बात करत हैं
दोउ पढ़ हैं अब साथ रे .............!!

*
969/ए-2,गेट नंबर-04 जबलपुर म.प्र.
MAIL : girishbillore@gmail.com
Phone’s: 09926471072

शनिवार, 3 सितंबर 2011

श्री गणेश वंदना संजीव 'सलिल'


















श्री गणेश वंदना
संजीव 'सलिल'
*
कजरी गीत:१
भोला-भोला गणपति बिसरत नहीं, गौरा के लाला रे भोला.
भोला-भोला सुमिरत टेर रहे हम, दरसन दे दो रे भोला.
भोला-भोला नन्दी सेर मूस पर चढ़कर आओ रे भोला.
भोला-भोला कहाँ गजानन बिलमे, कहाँ षडानन रे भोला.
भोला-भोला ऋद्धि-सिद्धि-स्वामी संग, आके न जाओ रे भोला.
भोला-भोला भ्रस्ट असुर नेतागण, गणपति मारें रे भोला.
भोला-भोला मोदक थाल धरे, कर ग्रहण विराजो रे भोला.
*
कजरी गीत:२
हरि-हरि जय गनेस के चरना, दीन के दानी रे हरि.
हरि-हरि मंगलमूर्ति गजानन, महिमा बखानी रे हरि.
हरि-हरि विद्या-बुद्धि प्रदाता, युक्ति के ज्ञानी रे हरि.
हरि-हरि ध्यान धरूँ नित तुमरो, कथा सुहानी रे हरि.
हरि-हरि मार रही मँहगाई, कठिन निभानी रे हरि.
हरि-हरि चरण पखार तरे, यह 'सलिल' सा प्राणी रे हरि.
*

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

कजगांव (टेढ़वां बाजार) का ऐतिहासिक कजरी मेला

कजगांव (टेढ़वां बाजार) का ऐतिहासिक कजरी मेला

kajgaon1
जफराबाद क्षेत्र के कजगांव (टेढ़वां बाजार) की ऐतिहासिक कजरी जो क्षेत्रीय बुजुर्गां के अनुसार लगभग 85 वर्षों से लगती चली आ रही है जिसमें टेढ़वां के लोग राजेपुर गांव में शादी करने का दावा पेश करते हैं और राजेपुर गांव के लोग टेढ़वां में शादी करने का सपना संजोकर बारात लेकर आते हैं। बाजार के अन्त में दोनों गांव के बीच स्थित पोखरे पर राजेपुर की बारात पूर्वी छोर और कजगांव की बारात पश्चिमी छोर पर बाराती, हाथी, घोड़ा, ऊंट तथा दूल्हे के साथ द्वार पूजा के लिये खड़ी हो जाती है। एक-दूसरे पर दोनों तरफ से मनोविनोदी आवाज में जोर-जोर बाराती और कभी-कभी दूल्हा भी चिल्लाने लगता है कि दूल्हन दे दो, हम लेकर जायेंगे। यह क्रम घण्टों चलता है। यदि बीच में पोखरा न हो तो शायद आपस में भिड़ंत भी हो सकती है लेकिन 85 वर्षों में कभी भी ऐसी कोई बात नहीं हुई।
महीनों पहले से जहां एक गांव के नागरिक दूसरे गांव के लोगां से मजाक शुरू कर देते हैं, वहीं कजरी मेला समाप्त होने के बाद मजाक एक वर्ष के लिये बंद होकर अगले वर्ष तक के लिये समाप्त सा रहता है। मेला में जहां एक ओर दोनों गांव के बाराती एक-दूसरे से मजकिया लहजे में जोर-जोर से वार्ता करते हैं, वहीं दूसरी ओर गांव ही नहीं, जिले के विभिन्न क्षेत्रों से आये लोग इस काल्पनिक बारात में शामिल होकर मेला का आनन्द लेते हैं जहां खाद्य पदार्थों के अलावा घरेलू सामानों की जमकर खरीददारी भी की जाती है।
    मेले में सुरक्षा की दृष्टि से भारी संख्या में पीएसी व पुलिस के जवानों के अलावा तमाम थानाध्यक्ष भी डटे रहे तथा सिविल डेªस में भी पुलिसकर्मी चक्रमण करते नजर आये। कुल मिलाकर यह मेला पूरी तरह आपसी सौहार्द एवं परम्परागत ढंग से सम्पन्न हो गया और दोनों तरफ के दूल्हे इस वर्ष भी शादी न करने में असफल रहने का मलाल लेकर बगैर दूल्हन अगले वर्ष की आस लिये लौट गये।

kajri melaलगभग 85 वर्षों का इतिहास संजोये जफराबाद क्षेत्र के कजगांव (टेढ़वां बाजार) स्थित पोखरे पर राजेपुर और कजगांव की ऐतिहासिक बारातें आयीं जिसमें हाथी, घोड़े, ऊंट पर सवार बैण्ड-बाजे की धुन पर बाराती घण्टों जमकर थिरके लेकिन इस वर्ष 18 अगस्त २०११ को भी दोनों गांव से आये दूल्हों की इच्छा पूरी नहीं हो सकी और बारात बगैर शादी एवं दूल्हन के बैरंग वापस चली गयी।




आभार : हमारा जौनपुर.

रविवार, 14 अगस्त 2011

बुंदेली लोकमानस में प्रतिष्ठित छंद आल्हा : बुंदेली के नीके बोल... संजीव 'सलिल'

बुंदेली लोकमानस में प्रतिष्ठित छंद आल्हा :

सोलह-पंद्रह यति रखे, आल्हा मात्रिक छंद
ओज-शौर्य युत सवैया, दे असीम आनंद
गुरु-गुरु लघु हो विषम-सम, चरण-अंत दें ध्यान
जगनिक आल्हा छंद के, रचनाकार महान 

बुंदेली के नीके बोल...
संजीव 'सलिल'
*

तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..

अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..

फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

विशेष लेख- भारत में उर्दू : संजीव 'सलिल'

विशेष लेख-

भारत में उर्दू : 


संजीव 'सलिल'
*
भारत विभिन्न भाषाओँ का देश है जिनमें से एक उर्दू भी है. मुग़ल फौजों द्वारा आक्रमण में विजय पाने के बाद स्थानीय लोगों के कुचलने के लिये उनके संस्कार, आचार, विचार, भाषा तथा धर्म को नष्ट कर प्रचलित के सर्वथा विपरीत बलात लादा गया तथा अस्वीकारने पर सीधे मौत के घाट उतारा गया ताकि भारतवासियों का मनोबल समाप्त हो जाए और वे आक्रान्ताओं का प्रतिरोध न करें. यह एक ऐतिहासिक सत्य है जिसे कोई झुठला नहीं सकता. पराजित हतभाग्य जनों को मुगल सिपाहियों ने अरबी-फ़ारसी के दोषपूर्ण रूप (सिपाही शुद्ध भाषा नहीं जानते थे) को स्थानीय भाषा के साथ मिलावट कर बोला. उनके गुलामों को भी वही भाषा बोलने के लिये विवश होना पड़ा.   

भारतीयों को भ्रान्ति है कि उर्दू पाकिस्तान की राष्ट्र या राजकीय भाषा है जबकि यह पूरी तरह गलत है. न्यूज़ इंटरनॅशनल के अनुसार  लाहौर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ख्वाजा मुहम्मद शरीफ ने १३ अक्टूबर २०१० को एक परमादेश याचिका को इसलिए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ता सना उल्लाह और उसके वकील यह प्रमाणित करने में असफल हुए कि उर्दू पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा है. याचिकाकर्ता ने दवा किया था कि  १९४८ में पाकिस्तान के राष्ट्रपिता कायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्ना ने  ढाका में विद्यार्थियों को सम्बोधत करते हुए उर्दू को पाकिस्तान की सरकारी काम-काज की भाषा बताया था तथा संविधान में भी एक निर्धारित समयावधि में ऐसा किये जाने को कहा गया है लेकिन पाकिस्तान की आज़ादी के ६२ साल बाद तक ऐसा नहीं किया गया. 

हरकादास वासन, लीड्स अमेरिका के अनुसार-- ''उर्दू संसार की सर्वाधिक खूबसूरत भाषा है जिसे बोलते समय आप खुद को दुनिया से ऊँचा अनुभव करते है तथा इसे भारत की सरकारी काम-काज की भाषा बनाया जाना चाहिए.वासन के अनुसार उर्दू अरबी-फारसी प्रभाव से हिन्दी का उन्नत रूप है. तुर्की मूल के शब्द 'उर्दू' का अर्थ सेना या तंबू है. उर्दू ने व्यावहारिक रूप से हिन्दी की शब्दवाली को उसी तरह दोगुना किया है जैसे फ्रेंच ने अंग्रेजी को. उर्दू ने भारतीय कविता विशेषकर श्रंगारिक कविता में बहुत कुछ जोड़ा है. मेहरबानी तथा तशरीफ़ रखिए जैसे शब्द उर्दू के हैं.'' उर्दू की एक खास नजरिये से की जा रही इस पैरवी के पीछे छिपी भावना छिपाए नहीं छिपती. हिन्दी को कमतर और उर्दू को बेहतर बताने का ऐसा दुष्प्रयास उर्दूदां अक्सर करते रहे हैं औए इसी कारण हिन्दी व्याकरण और पिंगल के आधार पार रची गयी गजलों को खारिज करते रहे हैं जबकि खुद हर्फ़ गिराकर लिखे गये दोषपूर्ण दोहे थोपते आये हैं.
 
वस्तुतः उर्दू एक गड्ड-मड्ड भाषा या यूँ कहें कि हिन्दी भाषा ही एक रूप है जो अरबी अक्षरों से लिखी जाती है. भाषा विज्ञान के अनुसार उर्दू वास्तव में एक भाषा है ही नहीं. फारस, अरब तथा तुर्की आदि देशों के सिपाहियों की मिश्रित बोली ही उर्दू है. किसी पराजित देश में विजेताओं की भाषा का प्रयोग करने की प्रवृत्ति होती है. इसी कारण भारत में पहले उर्दू तथा बाद में अंग्रेजी बोली गयी. उर्दू तथा अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार तथा हिन्दी की उपेक्षा के पीछे अखबारी समाचार माध्यम तथा प्रशासनिक अधिकारियों की महती भूमिका है.व्यक्ति चाहें भी तो भाषा को प्रचलन में नहीं ला सकते जब तक कि अख़बार तथा प्रशासन न चाहें.

उर्दू का सौन्दर्य विष कन्या के रूप की तरह मादक किन्तु घातक है. उर्दू अपने उद्भव से आज तक मुस्लिम आक्रमणकारियों और मुस्लिम आक्रामक प्रवृत्ति की भाषा है.८० से अधिक वर्षों तक उर्दू उत्तर तथा उत्तर-पश्चिम भारत की सरकारी काम-काज की भाषा रही है किन्तु यह उत्तर तथा हैदराबाद के मुसलमानों को छोड़कर अन्य वर्गों (यहाँ तक कि मुसलमानों में भी)में अपनी जड़ नहीं जमा सकी. अंग्रेजी राज्य में उत्तर भारत में उर्दू शिक्षण अनिवार्य किये जाने के कारण पुरुष वर्ग उर्दू जान गया था किन्तु घरेलू महिलाएँ हिन्दी ही बोलती रहीं.यहाँ तक कि  केवल ५०% मुसलमान ही उर्दू को अपनी मातृभाषा कहते हैं. मुसलमानों की मातृभाषा बांगला देश में बंगाली, केरल मे मलयालम, तमिलनाडु में तमिल आदि हैं.  यह भी सत्य है कि मुसलमानों की धार्मिक भाषा उर्दू नहीं अरबी है. आरम्भ में मुस्लिम लीग ने भी उर्दू को मुसलमानों की दूसरी भाषा ही कहा था.

मुस्लिम काल में उर्दू सरकारी काम-काज की भाषा थी इसलिए सरकारी काम-काज से प्रमुखतः जुड़े कायस्थों, ब्राम्हणों और क्षत्रियों को इसका प्रयोग करने के लिये बाध्य होना पड़ा. जो गरीब हिन्दू बलात मुसलमान बनाये  गए वे किसान-सिपाही थे जिन्हें भाषिक विकास से कोई सीधा सरोकार नहीं था. उर्दू के विकास में सर्वाधिक प्रभावी भूमिका दिमाग से तेज और सरकारी बन्दोबस्त से जुड़े कायस्थों ने निभाई जिसका लाभ उन्हें राजस्व से जुड़े महकमों में मिला. उर्दू संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फ़ारसी तथा स्थानीय बोलिओं के शब्दों का सम्मिश्रण अर्थात चूँ-चूँ का मुरब्बा हो गई.

उर्दू का छंद शास्त्र यद्यपि अरबी-फारसी से उधार लिया गया किन्तु मूलतः वहाँ भी यह संस्कृत से ही गया था, इसलिए उर्दू के रुक्न और बहरें संस्कृत छंदों पर ही आधारित मिलती हैं. फारस और अरब की भौगोलिक परिस्थितियों और निवासियों को कुछ शब्दों के उच्चारण में अनुभूत कठिनाई के कारण वही प्रभाव उर्दू में आया. कवियों ने बहरों में कई जगहों पर भारतीय भाषाओँ के शब्दों के प्रयोग में  बाहर के अनुकूल नहीं पाया. फल यह हुआ कि शब्दों को तोड़-मरोड़कर या उसका कोई अक्षर अनदेखा -अन उच्चारित कर (हर्फ़ गिराकर) उपयोग करना और उसे सही साबित करने के लिये उसके अनुसार नियम बनाये गये.  और के स्थान पर औ', मंदिर के स्थान पर मंदर, जान के स्थान पर जां, माकन के स्थान पर मकां आदि ऐसे ही प्रयोग हैं. इनसे कई जगह अर्थ के अनर्थ हो गये. मंदिर को मंदर करने पर उसका अर्थ देवालय से बदल कर गुफा हो गया.

स्वतंत्रता के बाद अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिये उर्दू प्रेमियों ने उर्दू को हिन्दी से अधिक प्राचीन और बेहतर बताने की जी तोड़ कोशिश की किन्तु आम भारतवासियों को अरबी-फ़ारसी शब्दों से बोझिल भाषा स्वीकार न हुई. फलतः, उर्दू के श्रेष्ठ कहे जा रहे शायरों का वह कलाम जिसे उन्होंने श्रेष्ठ माना जनता के दिल में घर नहीं कर सका और जिसे उन्होंने चलते-फिरते लिखा गया या सतही माना था वह लोकप्रिय हुआ. मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी जिन पद्य रचनाओं को पूरी विद्वता से लिखा वे आज किसे याद हैं जबकि जिस गजल को 'तंग रास्ता' और 'कोल्हू का बैल' कहा गया था उसने उन्हें अमर कर दिया. ऐसा ही अन्यों के साथ हुआ. दाल न गलती देख मजबूरी में उर्दू लिपि के स्थान पर देवनागरी को अपनाकर हिन्दी के बाज़ार से लाभ कमाने की कोशिश की गयी जो सफल भी हुई.

उदार हिन्दीभाषियों ने उर्दू को गले लगाने में कोई कसर न छोड़ी किन्तु उर्दू दां हिन्दी के व्याकरण-पिंगल को नकारने के दुष्प्रयास में जुट गये. हिन्दी गजलों को खारिज करने का कोई अधिकार न होने पर भी उर्दूदां ऐसा करते रहे जबकि उर्दू में समालोचना शास्त्र का हिन्दी की तुलना में बहुत कम विकास हो सका. उर्दू गजल को इश्क-मुश्क की कैद से आज़ाद कर आम अवाम के दुःख-दर्द से जोड़ने का काम हिन्दी ने ही किया. उर्दू को आक्रान्ता मुसलमानों की भाषा से जन सामान्य की भाषा का रूप तभी मिला जब वह हिन्दी से गले मिली किन्तु हिन्दी की पीठ में छुरा भोंकने से उर्दूदां बाज़ न आये. वे हिन्दी के सर्वमान्य दुष्यंत कुमार की सर्वाधिक लोकप्रिय ग़ज़लों को भी खारिज करार देते रहे. आज भी हिन्दी कवि सम्मेलनों में उर्दू की रचनाओं को पूरी तरह न समझने के बावजूद सराहा ही जाता है किन्तु उर्दू के मुशायरों में हिन्दी कवि या तो बुलाये ही नहीं जाते या उन्हें दाद न देकर अपमानित किया जाता है. इसमें कोई शक नहीं कि इस बेहूदा हरकत में उर्दू भाषा का कोई दोष नहीं है किन्तु उर्दूभाषियों को हिन्दी को अपमानित करने की मनोवृत्ति तो उजागर होती ही है. 

भारत में उर्दू का सीधा विरोध न होने पर भी स्वतंत्रता के वर्षों बाद मुस्लिम आतंकवाद ने एक बार फिर उर्दू को अपना औजार बनाने की कोशिश की है. भारत सरकार ने हिंदीभाषियों के धन से उर्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने में संकोच नहीं किया. भारत के हिन्दी विश्व विद्यालयों में उर्दू के पठन-पाठन की व्यवस्था है किन्तु हिन्दी भाषियों के करों से हिन्दी भाषी सरकार द्वारा स्थापित किये गाये उर्दू मदरसों और विश्व विद्यालयों में हिन्दी-शिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है.

बांग्ला देश ने उर्दू  के घातक सामाजिक दुष्प्रभाव को पहचानकर सांस्कृतिक आधार पर उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया. यहाँ तक कि पाकिस्तान में भी पंजाबियों, सिंधियों बलूचोंऔर पठानों ने भी उर्दू को अपनी सभ्यता-संस्कृति के लिये घातक पाया और अब उर्दू पाकिस्तान में भी सिर्फ मुहाजिरों (भारत से भाग कर पहुँचे मुसलमान) की भाषा है. अमेरिका, जापान, रूस, या चीन कहीं भी उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है पर भारत में उर्दू पर यह ठप्पा लगाया जाता रहा है. क्या आपने किसी मौलवी, मौलाना को हिन्दी में बोलते सुना है? राम कथा और कृष्ण कथा के प्रवचनकार या हिन्दीभाषी राजनेता पूरी उदारता से संस्कृत और हिन्दी के उद्धरण होते हुई भी उर्दू के शे'र कहने में कोई संकोच नहीं करते किन्तु मजहबी या सियासी तकरीरों में आपको संस्कृत, हिन्दी ही नहीं किसी भी भारतीय भाषा के उद्धरण नहीं मिलते. अपनी इस संकीर्णता के लिये शर्मिंदा होने और सुधारने / बदलने की बजाय उर्दूदां इसे अपनी जीत और उर्दू की ताकत बताते हैं. उर्दू के पीछे छिपी इस संकीर्ण, आक्रामक और बहुत हद तक सांप्रदायिक मनोवृत्ति ने उर्दू का बहुत नुक्सान भी किया है.

भारत में जन्म लेने ओर पोसी जाने के बाद भी उर्दू अबाधी, भोजपुरी, बृज, बुन्देली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, मेवाड़ी, मारवाड़ी और ऐसी ही अन्य भाषाओँ की तरह आम आदमी की भाषा नहीं बन सक़ी और आज भी यह अधिकांश लोगों के लिये पराई भाषा है बावजूद इसके कि इसके कुछ शब्द प्रेस द्वारा लगातार उपयोग में लाये जाते हैं तथा इसे देवनागरी में लिखा जाता है जिससे इसके हिन्दी होने का भ्रम होता है. वस्तुतः उर्दू के पीछे सांप्रदायिक हिन्दी द्रोही मानसिकता को देखते हुए इसे हिन्दी से इतर पहचान दिया जाना बंद कर हिन्दी में ही समाहित होने दिया जाना चाहिए अन्यथा व्यावसायिक तथा तकनीकी बाध्यताओं के तहत अंग्रेजीभाषी बनती जा रही नई पीढ़ी इससे पूरी तरह दूर हो जाएगी. आज मैं अपने पूर्वजों के पुराने कागज़ नहीं पढ़ पाता चुकी वे उर्दू लिपि में लिखे गये हैं. उर्दू जाननेवालों से पढवाए तो उनमें इस्तेमाल किये गये शब्द ही समझ में नहीं आये. 

तकनीकी कामों में रोजगार पाये नवयुवक गैर अंग्रेजी बहुत कम और सिर्फ मनोरंजन के लिये पढ़ते हैं... उनके बच्चों और परिवारजनों की भी यही स्थिति है. दिन-ब-दिन इनकी तादाद बढ़ती जा रही है. इन्हें भारतीयता से जोड़े रखने में सिर्फ हिन्दी ही समर्थ है. इस वर्ग में विविध प्रान्तों के रहवासियों जिनकी मूल भाषाएँ अलग-अलग हैं विवाह कर रहे हैं... इनकी भाषा क्यों हो? एक प्रान्त की भाषा दूसरे को नहीं आती... विकल्प मात्र यह कि वे अंग्रेजी बोलें या हिन्दी. वे बच्चों को भारतीयत से जोड़े रखना चाहते हैं. भोजपुरी पति की तमिल पत्नि भोजपुरी बोल सकेगी क्या? बंगाली पति अपनी अवधी पत्नि की भाषा समझ सकेगा क्या? पश्तो, डोगरी, मेवाड़ी, मारवाड़ी, बुन्देली, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, मालवी, निमाड़ी, हल्बी, गोंडी, कैथी, कोरकू, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि हर भाषा पूज्य है किन्तु अपने मूल रूप में सभी उसे अपना नहीं सकते. एक सीमा तक अंग्रेजी या हिन्दी ने अन्य भाषाओँ से अधिक अपनी पहुँच बनाई है. अंग्रेजी के विदेशी मूल तथा भारतीय सामान्य जनों से दूरी के कारण हिन्दी एकमात्र भाषा है जो आम भारतीयों, अनिवासी भारतीयों, आप्रवासी भारतीयों तथा विदेशियों को एक सूत्र में जोड़कर संवाद का माध्यम बन सकती है.

हमें सत्य से साक्षात करन ही होगा अन्यथा हम अपने ही वंशजों से दूर हो जायेंगे या वे ही हमें समझ नहीं सकेंगे. उर्दूभाषियों तथा उर्दूप्रेमियों को भी इस परिदृश्य में  अपनी संकीर्ण भावना छोड़कर हिन्दी के साथ गंगा-यमुना की तरह मिलना होगा अन्यथा हिन्दीभाषी भले ही मौन रहें समय हिन्दी से गैरियत और दूरी रखने की मानसिकता को उसके अंजाम तक पहुँचा ही देगा.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

बुधवार, 29 सितंबर 2010

लोकगीत: हाँको न हमरी कार..... संजीव 'सलिल'

* लोकगीत:   

हाँको न हमरी कार.....

संजीव 'सलिल'
*
पोंछो न हमरी कार
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
हाँको न हमरी कार,
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई. 
तुम कागा से सुघड़, कहे जग-
'बिजुरी-मेघ' पुकार..  
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.  
पोछो न हमरी कार, 
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार, 
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....
*
बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे 'बलम अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, न करियो रार..
ओ सैयां! पोछो न हमरी कार.
पोछो न हमरी कार, 
ओ बलमा! हाँको न हमरी कार.....

*
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com