मुक्तिका:
सबब क्या ?
संजीव 'सलिल'
*
सबब क्या दर्द का है?, क्यों बताओ?
छिपा सीने में कुछ नगमे सुनाओ..
न बाँटा जा सकेगा दर्द किंचित.
लुटाओ हर्ष, सब जग को बुलाओ..
हसीं अधरों पे जब तुम हँसी देखो.
बिना पल गँवाये, खुद को लुटाओ..
न दामन थामना, ना दिल थमाना.
किसी आँचल में क्यों खुद को छिपाओ?
न जाओ, जा के फिर आना अगर हो.
इस तरह जाओ कि वापिस न आओ..
खलिश का खज़ाना कोई न देखे.
'सलिल' को भी 'सलिल' ठेंगा दिखाओ..
************************
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 25 नवंबर 2010
मुक्तिका: सबब क्या ? संजीव 'सलिल'
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शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
मुक्तिका: पथ पर पग संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
पथ पर पग
संजीव 'सलिल'
*
पथ पर पग भरमाये अटके.
चले पंथ पर जो बे-खटके..
हो सराहना उनकी भी तो
सफल नहीं जो लेकिन भटके..
ऐसों का क्या करें भरोसा
जो संकट में गुप-चुप सटके..
दिल को छूती वह रचना जो
बिम्ब समेटे देशज-टटके..
हाथ न तुम फौलादी थामो.
जान न पाये कब दिल चटके..
शूलों से कलियाँ हैं घायल.
लाख़ बचाया दामन हट के..
गैरों से है नहीं शिकायत
अपने हैं कारण संकट के..
स्वर्णपदक के बने विजेता.
पाठ्य पुस्तकों को रट-रट के..
मल्ल कहाने से पहले कुछ
दाँव-पेंच भी सीखो जट के..
हों मतान्तर पर न मनांतर
काया-छाया चलतीं सट के..
चौपालों-खलिहानों से ही
पीड़ित 'सलिल' पंथ पनघट के
************************
पथ पर पग
संजीव 'सलिल'
*
पथ पर पग भरमाये अटके.
चले पंथ पर जो बे-खटके..
हो सराहना उनकी भी तो
सफल नहीं जो लेकिन भटके..
ऐसों का क्या करें भरोसा
जो संकट में गुप-चुप सटके..
दिल को छूती वह रचना जो
बिम्ब समेटे देशज-टटके..
हाथ न तुम फौलादी थामो.
जान न पाये कब दिल चटके..
शूलों से कलियाँ हैं घायल.
लाख़ बचाया दामन हट के..
गैरों से है नहीं शिकायत
अपने हैं कारण संकट के..
स्वर्णपदक के बने विजेता.
पाठ्य पुस्तकों को रट-रट के..
मल्ल कहाने से पहले कुछ
दाँव-पेंच भी सीखो जट के..
हों मतान्तर पर न मनांतर
काया-छाया चलतीं सट के..
चौपालों-खलिहानों से ही
पीड़ित 'सलिल' पंथ पनघट के
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