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शनिवार, 26 जून 2021

समीक्षा, क्षणिका, अविनाश ब्योहार

पुस्तक सलिला:
'अंधी पीले कुत्ते खाएँ' खोट दिखाती हैं क्षणिकाएँ
समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
(पुस्तक विवरण: 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' क्षणिका संग्रह, अविनाश ब्यौहार, प्रथम संस्करण २०१७, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३७, मूल्य १००/-, प्रज्ञा प्रकाशन २४ जगदीशपुरम्, रायबरेली, कवि संपर्क: ८६,रॉयल एस्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, जबलपुर, चलभाष: ९८२६७९५३७२, ९५८४०५२३४१।)
*
सुरवाणी संस्कृत से विरासत में काव्य-परंपरा ग्रहण कर विश्ववाणी हिंदी उसे सतत समृद्ध कर रही है। हिंदी व्यंग्य काव्य विधा की जड़ें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोक-भाषाओं के लोक-काव्य में हैं। व्यंग्य चुटकी काटने से लेकर तिलमिला देने तक का कार्य कुछ शब्दों में कर देता है। गागर में सागर भरने की तरह दुष्कर क्षणिका विधा में पाठक-मन को बाँध लेने की सामर्थ्य है। नवोदित कवि अविनाश ब्यौहार की यह कृति 'पूत के पाँव पालने में दिखते हैं' कहावत को चरितार्थ करती है। कृति का शीर्षक उन सामाजिक कुरीतियों को लक्ष्य करता है जो नेत्रहीना द्वारा पीसे गए को कुत्ते द्वारा खाए जाने की तरह निष्फल और व्यर्थ हैं।
बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार में जन्मे और उच्च न्यायालय में कार्यरत कवि में औचित्य-विचार सामर्थ्य होना स्वाभाविक है। अविनाश पारिस्थितिक वैषम्य को 'सर्वजनहिताय' के निकष पर कसते हैं, भले ही 'सर्वजनसुखाय' से उन्हें परहेज नहीं है किंतु निज-हित या वर्ग-हित उनका इष्ट नहीं है। उनकी क्षणिकाएँ व्यवस्था के नाराज होने का खतरा उठाकर भी; अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं। भ्रष्टाचार, आरक्षण, मँहगाई, राजनीति, अंग प्रदर्शन, दहेज, सामाजिक कुरीतियाँ, चुनाव, न्याय प्रणाली, चिकित्सा, पत्रकारिता, बिजली, आदि का आम आदमी के दैनंदिन जीवन पर पड़ता दुष्प्रभाव अविनाश की चिंता का कारण है। उनके अनुसार 'आजकल/लोगों की / दिमागी हालत / कमजोर पड़ / गई है / शायद इसीलिए / क्षणिकाओं की / माँग बढ़ / गई है।' विनम्र असहमति व्यक्त करना है कि क्षणिका रचना, पढ़ना और समझना कमजोर नहीं सजग दिमाग से संभव होता है। क्षणिका, दोहा, हाइकु, माहिया, लघुकथा जैसी लघ्वाकारी लेखन-विधाओं की लोकप्रियता का कारण पाठक का समयाभाव हो सकता है।अविनाश की क्षणिकाएँ सामयिक, सटीक, प्रभावी तथा पठनीय-मननीय हैं। उनकी भाषा प्रवाहपूर्ण, प्रसाद गुण संपन्न, सहज तथा सटीक है किंतु अनुर्वर और अनुनासिक की गल्तियाँ खीर में कंकर की तरह खटकती हैं। 'हँस' क्रिया और 'हंस' पक्षी में उच्चारण भेद और एक के स्थान पर दूसरे के प्रयोग से अर्थ का अनर्थ होने के प्रति सजगता आवश्यक है चूँकि पुस्तक में प्रकाशित को पाठक सही मानकर प्रयोग करता है।
इन क्षणिकाओं का वैशिष्ट्य मुहावरे का सटीक प्रयोग है। इससे भाषा जीवंत, प्रवाहपूर्ण, सहज ग्राह्य तथा 'कम में अधिक' कह सकी है। 'पक्ष हो /या विपक्ष / दोनों एक / थैली के / चट्टे-बट्टे हैं। / जीते तो / आँधी के आम / हारे तो / अंगूर खट्टे हैं।' यहाँ कवि दो प्रचलित मुहावरे का प्रयोग करने के साथ 'आँधी के आम' एक नए मुहावरे की रचना करता है। इस कृति में कुछ और नए मुहावरे रच-प्रयोगकर कवि ने भाषा की श्रीवृद्धि की है। यह प्रवृत्ति स्वागतेय है।
'चित्रगुप्त ने यम-सभा से / दे दिया स्तीफा / क्योंकि उन्हें मुँह / चिढ़ा रहा था / आतंक का खलीफा।' पंगु सिद्ध हो रही व्यवस्था पर कटाक्ष है। 'मैं अदालत / गया तो / मैंने ऐसा / किया फील / कि / झूठे मुकदमों / की पैरवी / बड़ी ईमानदारी / से करते / हैं वकील।' यहाँ तीखा व्यंग्य दृष्टव्य है। अंग्रेजी शब्द 'फील' का प्रयोग सहज है, खटकता नहीं किंतु 'ईमानदारी' के साथ 'बड़ी' विशेषण खटकता है। ईमानदारी कम-अधिक तो हो सकती है, छोटी-बड़ी नहीं।
अविनाश ने अपनी पहली कृति से अपनी पैठ की अनुभूति कराई है, इसलिए उनसे 'और अच्छे' की आशा है।
*
समीक्षक संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 401 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001,
चलभाष: 7999559618/ 9425183244, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

सोमवार, 2 नवंबर 2020

समीक्षा मौसम अंगार है

समीक्षा 
मौसम अंगार है, नवगीत संग्रह 
*
नवगीत सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की खबर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष व संकल्प को अपनी विषय वस्तु बनाता है। 
नवगीत की शक्ति को पहचानते हुए अविनाश ब्यौहार ने अपने आस-पास घटते अघट को कभी समेटा है, कभी बिखेर कर दर्द को भी हँसना सिखाया है। अविनाश ब्यौहार के नवगीत रुदाली मात्र नहीं, सोहर भी हैं। इन नवगीतों में अंधानुकरण नहीं, अपनी राह आप बनाने की कसक है। युगीन विसंगतियों को शब्द का आवरण पहनाकर नवगीत मरती हुई नदी में सदी को धूसरित होते देखता है।
मृतप्राय पड़ी हुई / रेत की नदी 
धूसरित होती / इक्कीसवीं सदी 
पंछी कास कलरव / अहेरी का जाल
सूरज ने ताना / धूप का तिरपाल
यहाँ विसंगति में विसंगति यह कि तिरपाल सिर के ऊपर ताना जाता है, जबकि धूप सूरज के नीचे होती है। 
अविनाश के गीत गगन विहारी ही नहीं, धरती के लाल भी हैं। वे गोबर से लिपे आँगन में उजालों के छौनों को लाते हैं।
उजियारे के / छौने लाए / पर्व दिवाली
आँगन लिपे / हुए हैं / गोबर से
पुरसा करे / दिवाली / पोखर से
खुलते में हैं / गौएँ बैठे / करें जुगाली
इन नवगीतों को नवाशा से घुटन नहीं होती। वे दिन तो दिन, रात के लिए भी सूरज उगाना चाहते हैं-
रात्रि के लिए / एक नया सा / सूर्य उगायें
जो अँधियारा / धो डालेगा 
उजला किरनें / बो डालेगा
दुर्गम राहों / की भी कटी / सभी बाधाएँ
कविता का आनंद तब ही है, जब कवि का कहने का तरीका किसी और से सादृश्य न रखता हो। इसीलिए ग़ालिब के बारे में कहा जाता है 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और'। इन नवगीतों की कहन बोलचाल के साधारण शब्दों में असाधारण अर्थ भर देती है।
मौसम अंगार है / सुआ कुतरे आम
कुत्ते सा हाँफ रहे / हैं आठों याम 
रातों का / सुरमा है / आँजती हवाएँ
अविनाश कल्पना के कपोल कल्पना न होने देकर उसे यथार्थ जोड़े रखते हैं-
सुख दुख / दूर खड़े 
सब कुछ / मोबाइल है 
कब किस पर / क्या गाज गिरी है
बहरों से आवाज / गिरी है
अविनाश के लिए शब्द अर्थ की अभिव्यक्ति की साधन मात्र है, वह किसी भी भाषा-नदिया बोली का हो। वे पचेली, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी के शब्दों की तरह बिना किसी भेदभाव के वापरते हैं। मोबाइल, फर्टाइल, फाइल, नेचर, फ्लर्ट, पैट्रोलिंग, रोलिंग जैसे अंग्रेज़ी शब्द, एहतियात, फ़ितरत, बदहवास, दहशत, महसूल जैसे उर्दू लफ्ज, लबरी, घिनौची, बिरवा, अमुआ, लुनाई जैसे देशज शब्द गले मिलकर इन नवगीतों में चार चाँद लगाते हैं पर पाठ्य-त्रुटियाँ केसर की खीर में कंकर की तरह है। बिंदी और चंद्र बिंदी का अंतर न समझा जाए तो रंग में भंग हो जाता है।
नवगीत का वैशिष्ट्य लाक्षणिकता है। इन नवगीतों में बिंब, प्रतीक अनूठे और मौलिक हैं। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कह सकने का माद्दा नवगीतकार को असीम संभावनाओं का पथ दिखाता है। 
***
संजीव

बुधवार, 6 नवंबर 2019

पोखर ठोंके दावा : अविनाश ब्योहार

कृति चर्चा 
'पोखर ठोंके दावा' : जल उफने ज्यों लावा 
चर्चाकार : आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : पोखर ठोंके दावा, नवगीत संग्रह, अविनाश ब्योहार, प्रथम संस्करण २०१९, आकार  २० से. x १३ से., आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १२०, प्रकाशन काव्य प्रकाशन, नवगीतकार संपर्क - रॉयल स्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, कटंगी मार्ग, जबलपुर ४८२००२, चलभाष ९८२६७९५३७२]
*
                     साहित्य सामायिक परिस्थितियों का साक्षी बनकर ही संतुष्ट नहीं होता, वह समय को दिशा देने या राह दिखाने की भूमिका का भी निर्वहन करता है। विविध विधाएँ और विविध रचनाकार 'हरि अनंत हरि अनंता' के सनातन सत्य को जानते हुए भी देश-काल-परिस्थितियों के संदर्भ में अपनी अनुभूतियों को ही अंतिम सत्य मानकर अभिव्यक्त करते हैं। ईर्षालु व्यक्तियों के संदर्भ में कहा गया है 'देख न सकहिं पराई विभूति' साहित्यकारों के संदर्भ में कहा जा सकता है 'देख न सकहिं पराई प्रतीति'। इस काल में सुख भोगते हुए दुःख के गीत गाना फैशन हो गया है। राजनैतिक प्रतिबद्धताओं को साहित्य पर लादना सर्वथा अनुचित है। हिंदी साहित्य को संस्कृत और लोक भाषाओँ से सनातनता की कालजयी समृद्ध विरासत प्राप्त होने के बाद भी समसामयिक साहित्य अवास्तविक वाग्विलास का ढेर बनता जा रहा है। नवगीत, लघुकथा व्यंग्य लेख, क्षणिका आदि केवल हुए केवल अतिरेकी  विसंगति वर्णन तक सीमित होकर रह गए हैं। नित्य पाचक चूर्ण फाँकनेवाले भुखमरी को केंद्र में रखकर गीत रचे, वातानुकूलित भवन में रह रही कलम जेठ की तपिश की व्यथा-कथा कहे, विलासी जीवन जी रहा त्याग -वैराग का पाठ पढ़ाये तो यह ढोंग और पाखंड ही है। 

                     साहित्यिक मठाधीशों द्वारा नकारे जाने का खतरा उठाकर भी  जिन युवा कलमों ने अपनी राह आप बनाने का प्रयास करना ठीक समझा है, उनमें एक हैं अविनाश ब्योहार। ग्रामवासी, खेतिहर किन्तु सुशिक्षा की विरासत से संपन्न और नगरीय जीवन जी रहे अविनाश शहर-गाँव की खाई से परिचित ही नाहने हैं, उसे लाँघकर आगे बढ़े हैं। इसलिए उनकी क्षणिकाओं और नवगीतों में न सुख और न दुःख का अतिरेकी शब्दांकन होता है। वे कम शब्दों में अधिक अभिव्यक्त करने के अभ्यासी हैं। कंजूसी की हद तक शब्दों की मितव्ययिता उनकी प्रतिबद्धता है। लघ्वाकारी नवगीत रचकर वे अपनी लीक बनाने का प्रयास कर रहे हैं। 'पोखर ठोंके दावा' के पूर्व उनका एक अन्य लघुगीत संकलन 'मौसम अंगार है' तथा क्षणिका संग्रह 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' प्रकाशित हैं। अविनाश के नवगीत उनकी क्षणिकाओं का विस्तार प्रतीत होते हैं। 

                      चोर-पुलिस की मिली-भगत एक अप्रिय सच्चाई है। अविनाश के अनुसार -
क्रिमिनल के लिए
सैरगाह है थाना।
रपट करने में
दाँतों पसीना आया।

                  शहरों का यांत्रिक जीवन और समयाभाव उत्सवधर्मी भारतीय मन को दुखी करे, यह स्वाभाविक है। 'कोढ़ में खाज' यह कि कृत्रिमता का आवरण ओढ़कर हम जीवन को और अधिक नीरस बना रहे हैं- 
रंगों में डूब
गई होली।
हवाओं में
उड़ रहा गुलाल।
रंगोत्सव में
घुलता मलाल।।
नकली-नकली
है बोली। 

                        नवधनाढ्यों द्वारा खुद श्रम न करना और श्रमजीवी को समुचित पारिश्रमिक न देना, सामाजिक रोग बन गया है। अविनाश इससे क्षुब्ध होकर लिखते हैं- 
चेहरा ग्लो करता।
हुआ फेशियल
औ' मसाज।
विचार हैं संकीर्ण,
बहुत सकरे।
आटो के पैसे
बहुत अखरे।।
आया-महरी
करतीं हैं
इनके सारे काज। 

                         सरकार की पूंजीपति समर्थक नीति मध्यम वर्ग का जीवन दूभर कर रही है। कवि स्वयं इस वर्ग  की पीड़ा का भुक्तभोगी है। वह इस नीति पर शब्द-प्रहार करते हुए लक्षणा में अपनी व्यथा-कथा का संकेत करता है- 
डेबिट कार्ड के आगे
बटुआ है लाचार।

                         सामाजिक विसंगतियों के फलस्वरूप शासन-प्रशासन ही नहीं न्याय व्यवस्था भी दम तोड़ रही है। अविनाश इस कटु सत्य के चश्मदीद साक्षी हैं। दिल्ली में वकील-पुलिस टकराव ने इसे सामने ला दिया है। अविनाश इसका कारण मुवक्किलों द्वारा तिल को ताड़ बना देने तथा वकीलों द्वारा झूठ  बोलने की मानसिकता को मानते हैं - 
लग जाती है
तुच्छ-तुच्छ

बातों की रिट ....
....मनगढ़ंत कहानी
कूट रचना है।
झूठी मिसिल-
गवाही से
बचना है।।

                   मेघ करे / धूप की चोरी, सपनों ने / सन्यास ओढ़ा, उम्मीद पर करने लगी / संवेदना हस्ताक्षर, अफसर-बाबू / में साँठ -गाँठ,  थाना कोर्ट कचहरी है / अंधी गूँगी बहरी है जैसी अभिव्यक्तियाँ हिंदी को नए मुहावरे देती हैं। 

                   लीक से हटकर अविनाश ने नवगीतों में कुछ नए रंग घोले हैं- 
सूरज ने
धूप से कहा
मौसम रंगीन
हो गया।
अब चलने लगी हैं
चुलबुली हवाऐं।
आपस में पेड़
जाने क्या बतियायें।।

                   ऋतु परिवर्तन का आनंद भूल रहे समाज को कवि मौसम का मजा लेने की सीख देता है। जाड़े का रंग देखें -
सबको बहुत
लुभाता है
जाड़े का मौसम।
महल, झोपड़ी,
गाँव-शहर हो।
या फिर दिन के
आठ पहर हो।।
कभी-कभी
तो लगता है

भाड़े का मौसम।

                            वर्षा के लोक गीत जान जीवन को संप्राणित करते हैं- 
वसुधा ने
कजरी गाई।
हरियाली को
बधाई।।
फुनगी से बोली

चश्मे-बद्दूर।

                             शहरी संबंधों की अजनबियत पर सटीक टिप्पणी - 
उखड़े-उखड़े से
मिलते है ं
कालोनी क े लोग।
है औपचारिक
सी बातें।
हमदर्दी पर
निष्ठुर घातें।।
उनका मिलना
अक्सर लगता

महज एक संयोग।

                           अविनाश के नवगीतों का वैशिष्ट्य जमीनी सच से जुड़ाव, सम्यक शब्द-चयन और वैचारिक स्पष्टता है। क्रमश: परिपक्व होती यह कलम नवगीतों को एक नए आयाम से समृद्ध करने का माद्दा रखती है। 
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संपर्क - आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, 
ईमेल - salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष ९४२५१८३२४४   
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बुधवार, 26 जून 2019

समीक्षा 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ'




पुस्तक सलिला: 
'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' खोट दिखाती हैं क्षणिकाएँ
समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
(पुस्तक विवरण: 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' क्षणिका संग्रह, अविनाश ब्यौहार, प्रथम संस्करण २०१७, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३७, मूल्य १००/-, प्रज्ञा प्रकाशन २४ जगदीशपुरम्, रायबरेली, कवि संपर्क: ८६,रॉयल एस्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, जबलपुर, चलभाष: ९८२६७९५३७२, ९५८४०५२३४१।)
*
चित्र में ये शामिल हो सकता है: एक या अधिक लोग
सुरवाणी संस्कृत से विरासत में काव्य-परंपरा ग्रहण कर विश्ववाणी हिंदी उसे सतत समृद्ध कर रही है। हिंदी व्यंग्य काव्य विधा की जड़ें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोक-भाषाओं के लोक-काव्य में हैं। व्यंग्य चुटकी काटने से लेकर तिलमिला देने तक का कार्य कुछ शब्दों में कर देता है। गागर में सागर भरने की तरह दुष्कर क्षणिका विधा में पाठक-मन को बाँध लेने की सामर्थ्य है। नवोदित कवि अविनाश ब्यौहार की यह कृति 'पूत के पाँव पालने में दिखते हैं' कहावत को चरितार्थ करती है। कृति का शीर्षक उन सामाजिक कुरीतियों को लक्ष्य करता है जो नेत्रहीना द्वारा पीसे गए को कुत्ते द्वारा खाए जाने की तरह निष्फल और व्यर्थ हैं।
बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार में जन्मे और उच्च न्यायालय में कार्यरत कवि में औचित्य-विचार सामर्थ्य होना स्वाभाविक है। अविनाश पारिस्थितिक वैषम्य को 'सर्वजनहिताय' के निकष पर कसते हैं, भले ही 'सर्वजनसुखाय' से उन्हें परहेज नहीं है किंतु निज-हित या वर्ग-हित उनका इष्ट नहीं है। उनकी क्षणिकाएँ व्यवस्था के नाराज होने का खतरा उठाकर भी; अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं। भ्रष्टाचार, आरक्षण, मँहगाई, राजनीति, अंग प्रदर्शन, दहेज, सामाजिक कुरीतियाँ, चुनाव, न्याय प्रणाली, चिकित्सा, पत्रकारिता, बिजली, आदि का आम आदमी के दैनंदिन जीवन पर पड़ता दुष्प्रभाव अविनाश की चिंता का कारण है। उनके अनुसार 'आजकल/लोगों की / दिमागी हालत / कमजोर पड़ / गई है / शायद इसीलिए / क्षणिकाओं की / माँग बढ़ / गई है।' विनम्र असहमति व्यक्त करना है कि क्षणिका रचना, पढ़ना और समझना कमजोर नहीं सजग दिमाग से संभव होता है। क्षणिका, दोहा, हाइकु, माहिया, लघुकथा जैसी लघ्वाकारी लेखन-विधाओं की लोकप्रियता का कारण पाठक का समयाभाव हो सकता है।अविनाश की क्षणिकाएँ सामयिक, सटीक, प्रभावी तथा पठनीय-मननीय हैं। उनकी भाषा प्रवाहपूर्ण, प्रसाद गुण संपन्न, सहज तथा सटीक है किंतु अनुर्वर और अनुनासिक की गल्तियाँ खीर में कंकर की तरह खटकती हैं। 'हँस' क्रिया और 'हंस' पक्षी में उच्चारण भेद और एक के स्थान पर दूसरे के प्रयोग से अर्थ का अनर्थ होने के प्रति सजगता आवश्यक है चूँकि पुस्तक में प्रकाशित को पाठक सही मानकर प्रयोग करता है।
इन क्षणिकाओं का वैशिष्ट्य मुहावरे का सटीक प्रयोग है। इससे भाषा जीवंत, प्रवाहपूर्ण, सहज ग्राह्य तथा 'कम में अधिक' कह सकी है। 'पक्ष हो /या विपक्ष / दोनों एक / थैली के / चट्टे-बट्टे हैं। / जीते तो / आँधी के आम / हारे तो / अंगूर खट्टे हैं।' यहाँ कवि दो प्रचलित मुहावरे का प्रयोग करने के साथ 'आँधी के आम' एक नए मुहावरे की रचना करता है। इस कृति में कुछ और नए मुहावरे रच-प्रयोगकर कवि ने भाषा की श्रीवृद्धि की है। यह प्रवृत्ति स्वागतेय है। 
'चित्रगुप्त ने यम-सभा से / दे दिया स्तीफा / क्योंकि उन्हें मुँह / चिढ़ा रहा था / आतंक का खलीफा।' पंगु सिद्ध हो रही व्यवस्था पर कटाक्ष है। 'मैं अदालत / गया तो / मैंने ऐसा / किया फील / कि / झूठे मुकदमों / की पैरवी / बड़ी ईमानदारी / से करते / हैं वकील।' यहाँ तीखा व्यंग्य दृष्टव्य है। अंग्रेजी शब्द 'फील' का प्रयोग सहज है, खटकता नहीं किंतु 'ईमानदारी' के साथ 'बड़ी' विशेषण खटकता है। ईमानदारी कम-अधिक तो हो सकती है, छोटी-बड़ी नहीं। 
अविनाश ने अपनी पहली कृति से अपनी पैठ की अनुभूति कराई है, इसलिए उनसे 'और अच्छे' की आशा है। 
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समीक्षक संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 401 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001, 
चलभाष: 7999559618/ 9425183244, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com


शनिवार, 16 फ़रवरी 2019

मौसम अंगार है : आदमी बेज़ार है 

[कृति विवरण : मौसम अंगार  है, नवगीत संग्रह, अविनाश ब्योहार, प्रथम संस्करण २०१९, आई एस बी एन ९७८-९३-८८२५६-४१-४, पृष्ठ ९३, मूल्य १६०/-, काव्या पब्लिकेशन, अवधपुरी, भोपाल म.प्र., गीतकार संपर्क - रॉयल स्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल, दमोह मार्ग, जबलपुर।]
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नवगीत सामयिक विसंगतियों और विद्रूपताओं की खबर लेते हुए आम आदमी की पीड़ा और उसके संघर्ष व संकल्प को अपनी विषय वस्तु बनाता है। नवगीत की शक्ति को पहचानते हुए अविनाश ब्यौहार ने अपने आस-पास घटते अघट को कभी समेटा है, कभी बिखेर कर दर्द को भी हँसना सिखाया है। अविनाश ब्यौहार के नवगीत रुदाली मात्र नहीं, सोहर भी हैं। इन नवगीतों में अंधानुकरण नहीं, अपनी राह आप बनाने की कसक है। युगीन विसंगतियों को शब्द का आवरण पहनाकर नवगीत मरती हुई नदी में सदी को धूसरित होते देखता है। विसंगतियाँ मनुज-जनित ही नहीं, प्रकृति जन्य भी हैं। तिरपाल धूप से बचने और छाया पाने के लिए ताना जाता है किन्तु यहाँ सूर्य धूप का तिरपाल तान दिया है। सूर्य को शासन, धूप को प्रशासन समझें तो रूपक स्पष्ट होता है जिसे अविनाश ने 'पंछी कस कलरव, अहेरी का जाल' कहा है -   


मृतप्राय पड़ी हुई / रेत की नदी
धूसरित होती / इक्कीसवीं सदी
पंछी कस कलरव / अहेरी का जाल
सूरज ने ताना / धूप का तिरपाल



यहाँ विसंगति में विसंगति यह भी कि तिरपाल सिर के ऊपर ताना जाता है, जबकि धूप सूरज के नीचे होती है।
अविनाश के गीत गगन विहारी ही नहीं, धरती के लाल भी हैं। वे गोबर से लिपे आँगन में उजालों के छौनों को लाते हैं।

उजियारे के / छौने लाए / पर्व दिवाली
आँगन लिपे / हुए हैं / गोबर से
पुरसा करे / दिवाली / पोखर से
खुलते में हैं / गौएँ बैठे / करें जुगाली
इन नवगीतों को नवाशा से घुटन नहीं होती। नवगीत को रुदाली या स्यापा गीत माननेवालों को अविनाश चुनौती देते हुए दिन तो दिन, रात के लिए भी सूरज उगाना चाहते हैं-
रात्रि के लिए / एक नया सा / सूर्य उगायें
जो अँधियारा / धो डालेगा
उजला किरनें / बो डालेगा
दुर्गम राहों / की भी कटी / सभी बाधाएँ
कविता का आनंद तब ही है, जब कवि का कहने का तरीका किसी और से सादृश्य न रखता हो। इसीलिए ग़ालिब के बारे में कहा जाता है 'कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और'। इन नवगीतों की कहन बोलचाल के साधारण शब्दों में असाधारण अर्थ भर देती है।

मौसम अंगार है / सुआ कुतरे आम
कुत्ते सा हाँफ रहे / हैं आठों याम
रातों का / सुरमा है / आँजती हवाएँ


अविनाश कल्पना के कपोल कल्पना न होने देकर उसे यथार्थ जोड़े रखते हैं-

सुख-दुख / दूर खड़े
सब कुछ / मोबाइल है
कब किस पर / क्या गाज गिरी है?
बहरों से आवाज / गिरी है


अविनाश के लिए शब्द अर्थ की अभिव्यक्ति की साधन मात्र है, वह किसी भी भाषा-नदिया बोली का हो। वे पचेली, बुंदेली, उर्दू, अंग्रेजी के शब्दों को हिंदी के शब्दों की तरह बिना किसी भेदभाव के वापरते हैं। मोबाइल, फर्टाइल, फाइल, नेचर, फ्लर्ट, पैट्रोलिंग, रोलिंग जैसे अंग्रेज़ी शब्द, एहतियात, फ़ितरत, बदहवास, दहशत, महसूल जैसे उर्दू लफ्ज, लबरी, घिनौची, बिरवा, अमुआ, लुनाई जैसे देशज शब्द गले मिलकर इन नवगीतों में चार चाँद लगाते हैं पर पाठ्य-त्रुटियाँ केसर की खीर में कंकर की तरह है। बिंदी और चंद्र बिंदी का अंतर न समझा जाए तो रंग में भंग हो जाता है।
नवगीत का वैशिष्ट्य लाक्षणिकता है। इन नवगीतों में बिंब, प्रतीक अनूठे और मौलिक हैं। कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक कह सकने का माद्दा नवगीतकार को असीम संभावनाओं का पथ दिखाता है।
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गुरुवार, 9 अगस्त 2018

navgeet

नवगीत:
हुआ तो क्या
अविनाश ब्योहार 
*
हुआ तो क्या

सच का ही
यशगान करेगा
घर खपरैल
हुआ तो क्या!
ऊँचे बंगलों
के कंगूरे
बेईमानी की
बातें करते!
महानगर के
हैं बाशिंदे
विश्वासों पर
घातें करते!!
कोई तवज्जो
नहीं मिली
दिल में तुफ़ैल
हुआ तो क्या!
हो गईं
मुंहजोर हैं
शहर में
चलती हवायें!
भोंडेपन के
दबाव में
आ गईं हैं
हुनर कलायें!!
हमनें उनकी
करी भलाई
मन में मैल
हुआ तो क्या!
***
अविनाश ब्यौहार
रायल एस्टेट कटंगी रोड
जबलपुर, 9826795372

शुक्रवार, 20 जुलाई 2018

क्षणिका सलिला

क्षणिका सलिला
अविनाश ब्योहार 
*
चारा

जब कोई चारा
नहीं रहा तो
देना पड़ा प्रलोभन!
नैतिकता से
कार्य करवाना
सिद्ध हुआ
अरण्य रोदन!!

रस्म

पैसा खाना
दफ्तर की
हो गई
है रस्म!
लोग हो
गये हैं
चार चश्म!!

पस्त

लगता है
सूर्य हो गया
है अस्त!
प्रजातंत्र की
हालत पस्त!!

***
रायल एस्टेट
कटंगी रोड जबलपुर।

बुधवार, 11 जुलाई 2018

geet

गीत:
अविनाश ब्योहार 
*
सौंधी सौंधी
गंध उठ रही
माह जुलाई है!

आ गया 
मौसम काली
घटाओं का!
बाग में 
बिखरी मोहक
छटाओं का!!

शिखरों के
मुखड़ पे चिपकी
हुई लुनाई है!

डैने फैलाये
अब्र उड़
रहे हैं!
फुहार लगे
गूंगे का
गुड़ रहे हैं!!

वर्षा के पानी
की सरिता करे
ढुलाई है!
*
रायल एस्टेट, माढ़ोताल, कटंगी रोड
जबलपुर  ९८२६७९५३७२  

बुधवार, 4 जुलाई 2018

वर्षा गीत

गीत:
चुभती बूँदें
अविनाश ब्योहार
*
बुरे हुए दिन
चुभती बूँदें
शूल सी!

दामिनी सा
दुःख तड़का
जेहन में!
ख्वाबों की
जागीर है
रेहन में!!

अल्पवृष्टि लगती
मौसम की
भूल सी!

कैसा मौसम
आया कि
मेह न बरसे!
नदी, ताल, विटप
सहमें हैं
डर से!!

खेतिहर की
सूरत है
मुरझाये फूल सी!
*
रायल एस्टेट, कटंगी मार्ग 
माढ़ोताल, जबलपुर, ९८२६७९५३७२ 

सोमवार, 2 जुलाई 2018

गीत:

गीत:
अविनाश ब्योहार
*
सौंधी सौंधी
गंध उठ रही
माह जुलाई है!

आ गया 
मौसम काली
घटाओं का!
बाग में 
बिखरी मोहक
छटाओं का!!

शिखरों के
मुखड़े पे चिपकी
हुई लुनाई है!

डैने फैलाये
अब्र उड़
रहे हैं!
फुहार लगे
गूंगे का
गुड़ रहे हैं!!

वर्षा के पानी
की सरिता करे
ढुलाई है!
*
रायल एस्टेट, माढ़ोताल, 
कटंगी रोड, जबलपुर,९८२६७९५३७२। 

गुरुवार, 28 जून 2018

बरसाती गीत

गीत:
कजरारे बादल
अविनाश ब्योहार 
*
अंबर पर
छा रहे हैं
कजरारे बादल। 

नाच रहे हैं
मोर बागन में,
छम-छम बरसीं
बूँदें आँगन में। 
पत्र मेह के
बाँट रहे हैं
हरकारे बादल 

मौसम में हरियाली ने
है रंग भरा,
दुबली-पतली नदिया
का है अंग भरा। 
फटी धरा की
प्यास बुझाये
मतवारे बादल 
*
रायल एस्टेट, माढ़ोताल,
कटंगी रोड, जबलपुर।

मंगलवार, 26 जून 2018

पुस्तक सलिला: 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' खोट दिखाती हैं क्षणिकाएँ

पुस्तक सलिला: 
'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' खोट दिखाती हैं  क्षणिकाएँ
समीक्षक: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
(पुस्तक विवरण: 'अंधी पीसे कुत्ते खाएँ' क्षणिका संग्रह, अविनाश ब्यौहार, प्रथम संस्करण २०१७, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १३७, मूल्य १००/-, प्रज्ञा प्रकाशन २४ जगदीशपुरम्,  रायबरेली, कवि संपर्क: ८६,रॉयल एस्टेट कॉलोनी, माढ़ोताल,  जबलपुर, चलभाष: ९८२६७९५३७२, ९५८४०५२३४१।)
*
सुरवाणी संस्कृत से विरासत में काव्य-परंपरा ग्रहण कर विश्ववाणी हिंदी उसे सतत समृद्ध कर रही है। हिंदी व्यंग्य काव्य विधा की जड़ें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तथा लोक-भाषाओं के लोक-काव्य में हैं। व्यंग्य चुटकी काटने से लेकर तिलमिला देने तक का कार्य कुछ शब्दों में कर देता है। गागर में सागर भरने की तरह दुष्कर क्षणिका विधा में पाठक-मन को बाँध लेने की सामर्थ्य है। नवोदित कवि अविनाश ब्यौहार की यह कृति 'पूत के पाँव पालने में दिखते हैं' कहावत को चरितार्थ करती है। कृति का शीर्षक उन सामाजिक कुरीतियों को लक्ष्य करता है जो नेत्रहीना द्वारा पीसे गए को कुत्ते द्वारा खाए जाने की तरह निष्फल और व्यर्थ हैं।
बुद्धिजीवी कायस्थ परिवार में जन्मे और उच्च न्यायालय में  कार्यरत कवि में औचित्य-विचार सामर्थ्य होना स्वाभाविक है। अविनाश पारिस्थितिक वैषम्य को 'सर्वजनहिताय' के निकष पर कसते हैं, भले ही 'सर्वजनसुखाय' से उन्हें परहेज नहीं है किंतु निज-हित या वर्ग-हित उनका इष्ट नहीं है। उनकी क्षणिकाएँ व्यवस्था के नाराज होने का खतरा उठाकर भी; अनुभूति को अभिव्यक्त करती हैं। भ्रष्टाचार, आरक्षण, मँहगाई, राजनीति, अंग प्रदर्शन, दहेज, सामाजिक कुरीतियाँ, चुनाव,  न्याय प्रणाली, चिकित्सा, पत्रकारिता, बिजली, आदि का आम आदमी के दैनंदिन जीवन पर पड़ता दुष्प्रभाव अविनाश की चिंता का कारण है। उनके अनुसार 'आजकल/लोगों की / दिमागी हालत / कमजोर पड़ / गई है / शायद इसीलिए / क्षणिकाओं की / माँग बढ़ / गई है।' विनम्र असहमति व्यक्त करना है कि क्षणिका रचना,  पढ़ना और समझना कमजोर नहीं सजग दिमाग से संभव होता है। क्षणिका, दोहा,  हाइकु,  माहिया, लघुकथा जैसी लघ्वाकारी लेखन-विधाओं की लोकप्रियता का कारण पाठक का समयाभाव हो सकता है।अविनाश की क्षणिकाएँ सामयिक, सटीक,  प्रभावी तथा पठनीय-मननीय हैं। उनकी भाषा प्रवाहपूर्ण, प्रसाद गुण संपन्न, सहज तथा सटीक है किंतु अनुर्वर और अनुनासिक की गल्तियाँ खीर में कंकर की तरह खटकती हैं। 'हँस' क्रिया और 'हंस' पक्षी में उच्चारण भेद और एक के स्थान पर दूसरे के प्रयोग से अर्थ का अनर्थ होने के प्रति सजगता आवश्यक है चूँकि पुस्तक में प्रकाशित को पाठक सही मानकर प्रयोग करता है।
इन क्षणिकाओं का वैशिष्ट्य मुहावरे का सटीक प्रयोग है। इससे भाषा जीवंत, प्रवाहपूर्ण, सहज ग्राह्य तथा 'कम में अधिक' कह सकी है। 'पक्ष हो /या विपक्ष / दोनों एक / थैली के / चट्टे-बट्टे हैं। / जीते तो / आँधी के आम / हारे तो / अंगूर खट्टे हैं।' यहाँ कवि दो प्रचलित मुहावरे का प्रयोग  करने के साथ 'आँधी के आम' एक नए मुहावरे की रचना करता है। इस कृति में कुछ और नए मुहावरे रच-प्रयोगकर कवि ने भाषा की श्रीवृद्धि की है। यह प्रवृत्ति स्वागतेय है। 
'चित्रगुप्त ने यम-सभा से / दे दिया स्तीफा / क्योंकि उन्हें मुँह / चिढ़ा रहा था / आतंक का खलीफा।' पंगु सिद्ध हो रही व्यवस्था पर कटाक्ष है। 'मैं अदालत / गया तो / मैंने ऐसा / किया फील / कि / झूठे मुकदमों / की पैरवी / बड़ी ईमानदारी / से करते / हैं वकील।' यहाँ तीखा व्यंग्य दृष्टव्य है। अंग्रेजी शब्द 'फील' का प्रयोग सहज है, खटकता नहीं किंतु 'ईमानदारी' के साथ 'बड़ी' विशेषण खटकता है। ईमानदारी कम-अधिक तो हो सकती है,  छोटी-बड़ी नहीं। 
अविनाश ने अपनी पहली कृति से अपनी पैठ की अनुभूति कराई है, इसलिए उनसे 'और अच्छे' की आशा है। 
*
समीक्षक संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, 401 विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर 482001, 
चलभाष: 7999559618/ 9425183244, ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com