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मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

अक्टूबर १४, गेंदा, स्मरण अलंकार, सॉनेट, मी टू, सरस्वती, प्रभाती, राजीव छंद, भवानी छंद, बधाई,

सलिल सृजन अक्टूबर १४
*
मुक्तिका
है अभियान मनाएँ  दिवाली
रचना-व्यंजन सज्जित थाली
.
लछमी-ताले की शारद माँ
दें दो हम कवियों को ताली
.
मोदी इक्का लिए ट्रंप का
करें ट्रंप की झोली खाली
.
रसानंद का हाला-प्याला
सबको दे उनकी घरवाली
.
डॉलर सस्ता, रुपया मँहगा
हो तो मारें हम सब ताली
.
सोना बरसे जन-गण हरषे
दुनिया भर में हो खुशहाली
जीव सभी संजीव हो सकें
मँहगाई हर लो माँ काली!
०००
ग़ज़ल 
दर्द को मेरा पता यार बताने आए 
मार पत्थर वो दिली प्यार जताने आए 
आँख में धूल न झोंकें तो उन्हें चैन नहीं 
फूल चुन राह में वो शूल बिछाने आए
बाल ज्यों ही दिया तम चीरने दिया कोई 
हाए! तूफान लिए झट से बुझाने आए 
तीर तूने जो चलाया निगाह तरकश से 
सामने खुद-ब-खुद दिल के निशाने आए 
हुस्न को इश्क की सौगात मिली जैसे ही 
आप ही आप लिए आप बहाने आए 
१४.१०.२०२५ 
०००
गेंदा
गेंदा उत्तम पुष्प है, रंगाकार अनेक।
हार, करधनी, पैंजनी, पहनें सहित विवेक।।
गेंद सदृश गेंदा कुसुम, गोल न लेकिन पोल।
सज्जा-औषधि-सुलभता, गुणी न पीटे ढोल।।
गमले बगिया खेत में, ऊगे मोहक फूल।
उत्पादकता अधिकतम, किंतु न चुभता शूल।।
अतिशय नाजुक यह नहीं, और न बहुत कठोर।
खिलता मिलता हमेशा, सुबह दोपहर भोर।।
गलगोटा गुजरात में, झेंडु मराठी नाम।
हंजारी गजरा कहे, मारवाड़ अभिराम।।
चेंदुमली कहते इसे, टेगेटस भी लोग।
मेरिगोल्ड भी पुकारें, दूर भगाए रोग।।
परछी आँगन छतों पर, खिलकर दे आनंद।
बालकनी टेरेस में, झूम सुनाए छंद।।
फूल सुखा बीजे बना, नम माटी में डाल।
पर्त एक इंची चढ़ा, सींचें रह खुशहाल।।
गीली मिट्टी में कलम, मोटी करे विकास।
पानी जड़ में सींचिए, नित्य मिटे तब प्यास।।
गेंदा है नेपाल का, सांस्कृतिक शुभ फूल।
सदा बहार सुमन खिले, हर मौसम बिन भूल।।
पीला नारंगी बड़ा, होता मेरीगोल्ड।
है अफ्रीकी पुष्प यह, नव पीढ़ी सम बोल्ड।।
मिश्रित रंगी बहुदली, अरु मध्यम आकार।
गेंदी मेरीगोल्ड है, फ्रेंच लुटाए प्यार।।
सिग्नेट मेरीगोल्ड के, छोटे नाजुक फूल।
एकल पीली पंखुरी, करे शोक निर्मूल।।
मिंटी मेरीगोल्ड की, छोटी पत्ती-फूल।
दवा-मसाला लोकप्रिय, व्यर्थ न फेंकें भूल।।
नींबू जैसा गंधमय, लैमन मेरी गोल्ड।
पीत पुष्प औषधि सहज, दवा न होती ओल्ड।।
•••
बधाई गीत
समधन-समधी जन्मदिवस पर शत शत बार बधाई।
कोयल झूला गीत सुनाए, लोरी शुक ने गाई।।
नज़र उतारे फूल मोगरा, रानू लिए मिठाई।
शानू लाई गुलगुले, टीना लिए हरीरा आई।।
नाच रहे अनुराग विपिन मन्वन्तर धूम मचाई।
गले मिलें संजीव-साधना, बाज रही शहनाई।।
केक कटा गीतेश झूमकर, कहे सदय हो माई।
घोड़ी चढ़ा मुझे तू झट से, कर भी दे कुड़माई।।
नव प्रभात पुष्पा गृह बगिया, स्नेह सुरभि बिखराई।
समधन-समधी जन्म दिवस पर शत-शत बार बधाई।।
१४.१०.२०२३
•••
सॉनेट
नयन
नयन अबोले सत्य बोलते
नयन असत्य देख मुँद जाते
नयन मीत पा प्रीत घोलते
नयन निकट प्रिय पा खुल जाते
नयन नयन में रच-बस जाते
नयन नयन में आग लगाते
नयन नयन में धँस-फँस जाते
नयन नयन को नहीं सुहाते
नयन नयन-छवि हृदय बसाते
नयन फेरकर नयन भुलाते
नयन नयन से नयन चुराते
नयन नयन को नयन दिखाते
नयन नयन को जगत दिखाते
नयन नयन सँग रास रचाते
१४-१०-२०२२
●●●
शे'र
ऐ परिंदे! चुग न दाना, भूख से मरना भला।
अगर दाना रोकता हो गगन में तेरी उड़ान।।
*
*सरस्वती वंदना*
*मुक्तिका*
*
विधि-शक्ति हे!
तव भक्ति दे।
लय-छंद प्रति-
अनुरक्ति दे।।
लय-दोष से
माँ! मुक्ति दे।।
बाधा मिटे
वह युक्ति दे।।
जो हो अचल
वह भक्ति दे।
*
*मुक्तक*
*
शारदे माँ!
तार दे माँ।।
छंद को नव
धार दे माँ।।
*
हे भारती! शत वंदना।
हम मिल करें नित अर्चना।।
स्वीकार लो माँ प्रार्थना-
कर सफल छांदस साधना।।
*
माता सरस्वती हो सदय।
संतान को कर दो अभय।।
हम शब्द की कर साधना-
हों अंत में तुझमें विलय।।
*
शत-शत नमन माँ शारदे!, संतान को रस-धार दे।
बन नर्मदा शुचि स्नेह की, वात्सल्य अपरंपार दे।।
आशीष दे, हम गरल का कर पान अमृत दे सकें-
हो विश्वभाषा भारती, माँ! मात्र यह उपहार दे।।
*
हे शारदे माँ! बुद्धि दे जो सत्य-शिव को वर सके।
तम पर विजय पा, वर उजाला सृष्टि सुंदर कर सके।।
सत्पथ वरें सत्कर्म कर आनंद चित् में पा सकें-
रस भाव लय भर अक्षरों में, छंद- सुमधुर गा सकें।।
***
प्रभाती
*
टेरे गौरैया जग जा रे!
मूँद न नैना, जाग शारदा
भुवन भास्कर लेत बलैंया
झट से मोरी कैंया आ रे!
ऊषा गुइयाँ रूठ न जाए
मैना गाकर तोय मनाए
ओढ़ रजैया मत सो जा रे!
टिट-टिट करे गिलहरी प्यारी
धौरी बछिया गैया न्यारी
भूखा चारा तो दे आ रे!
पायल बाजे बेद-रिचा सी
चूड़ी खनके बने छंद भी
मूँ धो सपर भजन तो गा रे!
बिटिया रानी! बन जा अम्मा
उठ गुड़िया का ले ले चुम्मा
रुला न आते लपक उठा रे!
अच्छर गिनती सखा-सहेली
महक मोगरा चहक चमेली
श्यामल काजल नजर उतारे
सुर-सरगम सँग खेल-खेल ले
कठिनाई कह सरल झेल ले
बाल भारती पढ़ बढ़ जा रे!
१४-१०-२०१९
***
हिंदी में नए छंद : २.
पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय राजीव छंद
*
प्रात: स्मरणीय जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छंद प्रभाकर के पश्चात हिंदी में नए छंदों का आविष्कार लगभग नहीं हुआ। पश्चातवर्ती रचनाकार भानु जी के ग्रन्थ को भी आद्योपांत कम ही कवि पढ़-समझ सके। २-३ प्रयास भानु रचित उदाहरणों को अपने उदाहरणों से बदलने तक सीमित रह गए। कुछ कवियों ने पूर्व प्रचलित छंदों के चरणों में यत्किंचित परिवर्तन कर कालजयी होने की तुष्टि कर ली। संभवत: पहली बार हिंदी पिंगल की आधार शिला गणों को पदांत में रखकर छंद निर्माण का प्रयास किया गया है। माँ सरस्वती की कृपा से अब तक ३ मात्रा से दस मात्रा तक में २०० से अधिक नए छंद अस्तित्व में आ चुके हैं। इन्हें सारस्वत सदन में प्रस्तुत किया जा रहा है। आप भी इन छंदों के आधार पर रचना करें तो स्वागत है। शीघ्र ही हिंदी छंद कोष प्रकाशित करने का प्रयास है जिसमें सभी पूर्व प्रचलित छंद और नए छंद एक साथ रचनाविधान सहित उपलब्ध होंगे।
छंद रचना सीखने के इच्छुक रचनाकार इन्हें रचते चलें तो सहज ही कठिन छंदों को रचने की सामर्थ्य पा सकेंगे।
राजीव छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदांत: तगण।
सूत्र: त, तगण, ताराज, २२१।
उदाहरण:
गीत-
दो बोल
दो बोल.
जो गाँठ
दो खोल.
.
हो भोर
या शाम.
लो प्यार
से थाम .
हो बात
तो तोल
दो बोल
दो बोल
.
हो हाथ
में हाथ.
नीचा न
हो माथ.
आ स्नेह
लें घोल
दो बोल
दो बोल
.
शंकालु
होना न.
विश्वास
खोना न.
बाकी न
हो झोल.
दो बोल
दो बोल
***
हिंदी में नए छंद : १.
पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय भवानी छंद
*
प्रात: स्मरणीय जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छंद प्रभाकर के पश्चात हिंदी में नए छंदों का आविष्कार लगभग नहीं हुआ। पश्चातवर्ती रचनाकार भानु जी के ग्रन्थ को भी आद्योपांत कम ही कवि पढ़-समझ सके। २-३ प्रयास भानु रचित उदाहरणों को अपने उदाहरणों से बदलने तक सीमित रह गए। कुछ कवियों ने पूर्व प्रचलित छंदों के चरणों में यत्किंचित परिवर्तन कर कालजयी होने की तुष्टि कर ली। संभवत: पहली बार हिंदी पिंगल की आधार शिला गणों को पदांत में रखकर छंद निर्माण का प्रयास किया गया है। माँ सरस्वती की कृपा से अब तक ३ मात्रा से दस मात्रा तक में २०० से अधिक नए छंद अस्तित्व में आ चुके हैं। इन्हें सारस्वत सभा में प्रस्तुत किया जा रहा है। आप भी इन छंदों के आधार पर रचना करें तो स्वागत है। शीघ्र ही हिंदी छंद कोष प्रकाशित करने का प्रयास है जिसमें सभी पूर्व प्रचलित छंद और नए छंद एक साथ रचनाविधान सहित उपलब्ध होंगे।
भवानी छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदादि या पदांत: यगण।
सूत्र: य, यगण, यमाता, १२२।
उदाहरण:
सुनो माँ!
गुहारा।
निहारा,
पुकारा।
*
न देखा
न लेखा
कहीं है
न रेखा
कहाँ हो
तुम्हीं ने
किया है
इशारा
*
न पाया
न खोया
न फेंका
सँजोया
तुम्हीं ने
दिया है
हमेशा
सहारा
*
न भोगा
न भागा
न जोड़ा
न त्यागा
तुम्हीं से
मिला है
सदा ही
किनारा
***
नवगीत
मी टू
*
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
दीप-ज्योति गुमसुम हुई
कोयल रही न कूक.
*
मैं माटी
रौंदा मुझे क्यों कुम्हार ने बोल?
देख तमाशा कुम्हारिन; चुप
थी क्यों; क्या झोल?
सीकर जो टपका; दिया
किसने इसका मोल
तेल-ज्योत
जल-बुझ गए
भोर हुए बिन चूक
कूकुर दौड़ें गली में
काट रहे बिन भूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
*
मैं जनता
ठगता मुझे क्यों हर नेता खोज?
मिटा जीविका; भीख दे
सेठों सँग खा भोज.
आरक्षण लड़वा रहा
जन को; जन से रोज
कोयल
क्रन्दन कर रही
काग रहे हैं कूक
रूपए की दम निकलती
डॉलर तरफ न झूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
*
मैं आईना
दिख रही है तुझको क्या गंद?
लील न ले तुझको सम्हल
कर न किरण को बंद.
'बहु' को पग-तल कुचलते
अवसरवादी 'चंद'
सीता का सत लूटती
राघव की बंदूक
लछमन-सूपनखा रहे
एक साथ मिल हूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
***
कविता दीप
*
पहला कविता-दीप है छाया तेरे नाम
हर काया के साथ तू पाकर माया नाम
पाकर माया नाम न कोई विलग रह सका
गैर न तुझको कोई किंचित कभी कह सका
दूर न कर पाया कोई भी तुझको बहला
जन्म-जन्म का बंधन यही जीव का पहला
दीप-छाया
*
छाया ले आयी दिया, शुक्ला हुआ प्रकाश
पूँछ दबा भागा तिमिर, जगह न दे आकाश
जगह न दे आकाश, धरा के हाथ जोड़ता
'मैया! जो देखे मुखड़ा क्यों कहो मोड़ता?
कहाँ बसूँ? क्या तूने भी तज दी है माया?'
मैया बोली 'दीप तले बस ले निज छाया
१४-१०-२०१७
***
दोहा
पहले खुद को परख लूँ, तब देखूँ अन्यत्र
अपना खत खोला नहीं, पा औरों का पत्र
*
मिले प्रेरणा-कल्पना, तब बन पाए बात।
शेष सभी तुकबन्दियाँ, कवि-कौशल की मात।।
*
दो कवि कुंडलिया एक
मास दिवस ऐसे कटे, ज्यों पंछी पर-हीन ।
मैं तड़पत ऐसे रही, जैसे जल बिन मीन।। -मिथलेश
जैसे जल बिन मीन, पटकती सर पत्थर पर
भारत शांति प्रयास, करे पाकी धरती पर।।
एक बार लें निबट, सब जन मिल करें प्रयास
जनगण चाहे 'सलिल', अरिदल को हो संत्रास।।- संजीव
१४-१०-२०१६
***
अलंकार सलिला
: २१ : स्मरण अलंकार
एक वस्तु को देख जब दूजी आये याद
अलंकार 'स्मरण' दे, इसमें उसका स्वाद
करें किसी की याद जब, देख किसी को आप.
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप..
*
कवि को किसी वस्तु या व्यक्ति को देखने पर दूसरी वस्तु या व्यक्ति याद आये तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है.
जब पहले देखे-सुने किसी व्यक्ति या वस्तु के समान किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु को देखने पर उसकी याद हो आये तो स्मरण अलंकार होता है.
स्मरण अलंकार समानता या सादृश्य से उत्पन्न स्मृति या याद होने पर ही होता है. किसी से संबंधित अन्य व्यक्ति या वस्तु की याद आना स्मरण अलंकार नहीं है.
'स्मृति' नाम का एक संचारी भाव भी होता है. वह सादृश्य-जनित स्मृति (समानता से उत्पन्न याद) होने पर भी होता है और और सम्बद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी. स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों एक साथ हो भी सकते हैं और नहीं भी.
स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है.
उदाहरण:
१. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा
सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा
यहाँ पश्चिम दिशा में उदित हो रहे सुहावने चंद्र को सीता के सुहावने मुख के समान देखकर राम को सीता याद आ रही है. अत:, स्मरण अलंकार है.
२. बीच बास कर जमुनहि आये
निरखि नीर लोचन जल छाये
यहाँ राम के समान श्याम वर्ण युक्त यमुना के जल को देखकर भरत को राम की याद आ रही है. यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.
३. सघन कुञ्ज छाया सुखद, शीतल मंद समीर
मन व्है जात वहै वा जमुना के तीर
कवि को घनी लताओं, सुख देने वाली छाँव तथा धीमी बाह रही ठंडी हवा से यमुना के तट की याद आ रही है. अत; यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.
४. देखता हूँ
जब पतला इंद्रधनुषी हलका
रेशमी घूँघट बादल का
खोलती है कुमुद कला
तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान
तब करता अंतर्ध्यान।
यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.
५. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरुख विमुख लोग
त्यौं-त्यौं ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है
सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि
कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है
जैसी अब बीतत सो कहतै ना बने बैन
नागर ना चैन परै प्रान अकुलावै है
थूहर पलास देखि देखि के बबूर बुरे
हाथ हरे हरे तमाल सुधि आवै है
६. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी.
पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
दिव्य छटा अनुपम छवि बाँकी प्यारी-प्यारी.
७ . जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके
प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता
८. छू देता है मृदु पवन जो, पास आ गात मेरा
तो हो आती परम सुधि है, श्याम-प्यारे-करों की
९. सजी सबकी कलाई
पर मेरा ही हाथ सूना है.
बहिन तू दूर है मुझसे
हुआ यह दर्द दूना है.
१०. धेनु वत्स को जब दुलारती
माँ! मम आँख तरल हो जाती.
जब-जब ठोकर लगती मग पर
तब-तब याद पिता की आती.
११. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराये
मुझे तुम याद आये.
स्मरण अलंकार का एक रूप ऐसा मिलता है जिसमें उपमेय के सदृश्य उपमान को देखकर उपमेय का प्रत्यक्ष दर्शन करने की लालसा तृप्त हो जाती है.
१२. नैन अनुहारि नील नीरज निहारै बैठे बैन अनुहारि बानी बीन की सुन्यौ करैं
चरण करण रदच्छन की लाली देखि ताके देखिवे का फॉल जपा के लुन्यौं करैं
रघुनाथ चाल हेत गेह बीच पालि राखे सुथरे मराल आगे मुकता चुन्यो करैं
बाल तेरे गात की गाराई सौरि ऐसी हाल प्यारे नंदलाल माल चंपै की बुन्या करैं
===
एक लोकरंगी प्रयास-
देवी को अर्पण.
*
मैया पधारी दुआरे
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
घर-घर बिराजी मतारी हैं मैंया!
माँ, भू, गौ, भाषा हमारी है मैया!
अब लौं न पैयाँ पखारे रे हमने
काहे रहा मन भुलाना
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
आसा है, श्वासा भतारी है मैया!
अँगना-रसोई, किवारी है मैया!
बिरथा पड़ोसन खों ताकत रहत ते,
भटका हुआ लौट आवा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
राखी है, बहिना दुलारी रे मैया!
ममता बिखरे गुहारी रे भैया!
कूटे ला-ला भटकटाई -
सवनवा बहुतै सुहावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
बहुतै लड़ैती पिआरी रे मैया!
बिटिया हो दुनिया उजारी रे मैया!
'बज्जी चलो' बैठ काँधे कहत रे!
चिज्जी ले ठेंगा दिखावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
तोहरे लिये भए भिखारी रे मैया!
सूनी थी बखरी, उजारी रे मैया!
तार दये दो-दो कुल तैंने
घर भर खों सुरग बनावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
१४-१०-२०१५
***
गीत
नील नभ नित धरा पर बिखेरे सतत, पूर्णिमा रात में शुभ धवल चाँदनी.
अनगिनत रश्मियाँ बन कलम रच रहीं, देख इंगित नचे काव्य की कामिनी..
चुप निशानाथ राकेश तारापति, धड़कनों की तरह रश्मियों में बसा.
भाव, रस, बिम्ब, लय, कथ्य पंचामृतों का किरण-पुंज ले कवि हृदय है हँसा..
नव चमक, नव दमक देख दुनिया कहे, नीरजा-छवि अनूठी दिखा आरसी.
बिम्ब बिम्बित सलिल-धार में हँस रहा, दीप्ति -रेखा अचल शुभ महीपाल की..
श्री, कमल, शुक्ल सँग अंजुरी में सुमन, शार्दूला विजय मानोशी ने लिये.
घूँट संतोष के पी खलिश मौन हैं, साथ सज्जन के लाये हैं आतिश दिये..
शब्द आराधना पंथ पर भुज भरे, कंठ मिलते रहे हैं अलंकार नत.
गूँजती है सृजन की अनूपा ध्वनि, सुन प्रतापी का होता है जयकार शत..
अक्षरा दीप की मालिका शाश्वती, शक्ति श्री शारदा की त्रिवेणी बने.
साथ तम के समर घोर कर भोर में, उत्सवी शामियाना उषा का तने..
चहचहा-गुनगुना नर्मदा नेह की, नाद कलकल करे तीर हों फिर हरे.
खोटे सिक्के हटें काव्य बाज़ार से, दस दिशा में चलें छंद-सिक्के खरे..
वर्मदा शर्मदा कर्मदा धर्मदा, काव्य कह लेखनी धन्यता पा सके.
श्याम घन में झलक देख घनश्याम की, रासलीला-कथा साधिका गा सके..
१८-१०-२०११
***
खबरदार कविता:
सत्ता का संकट
(एक अकल्पित राजनीतिक ड्रामा)
*
एक यथार्थ की बात
बंधुओं! तुम्हें सुनाता हूँ.
भूल-चूक के लिए न दोषी,
प्रथम बताता हूँ..
नेताओं की समझ में
आ गई है यह बात
करना है कैसे
सत्ता सुंदरी से साक्षात्?
बड़ी आसान है यह बात-
सेवा का भ्रम को छोड़ दो
स्वार्थ से नाता जोड़ लो
रिश्वत लेने में होड़ लो.
एक बार हो सत्ता-से भेंट
येन-केन-प्रकारेण बाँहों में लो समेट.
चीन्ह-चीन्हकर भीख में बाँटो विज्ञापन.
अख़बारों में छपाओ: 'आ गया सुशासन..
लक्ष्मी को छोड़ कर
व्यर्थ हैं सारे पुरुषार्थ.
सत्ताहीनों को ही
शोभा देता है परमार्थ.
धर्म और मोक्ष का
विरोधी करते रहें जाप.
अर्थ और काम से
मतलब रखें आप.
विरोधियों की हालत खस्ता हो जाए.
आपकी खरीद-फरोख्त उनमें फूट बो जाए.
मुख्यमंत्री और मंत्री हों न अब बोर.
सचिवों / विभागाध्यक्षों की किस्मत मारे जोर.
बैंक-खाते, शानदार बंगले, करोड़ों के शेयर.
जमीनें, गड्डियाँ और जेवर.
सेक्स और वहशत की कोई कमी नहीं.
लोकायुक्त की दहशत जमी नहीं.
मुख्यमंत्री ने सोचा
अगले चुनाव में क्या होगा?
छीन तो न जाएगा
सत्ता-सुख जो अब तक भोगा.
विभागाध्यक्ष का सेवा-विस्तार,
कलेक्टरों बिन कौन चलाये सत्ता -संसार?
सत्ता यों ही समाप्त कैसे हो जाएगी?
खरीदो-बेचो की नीति व्यर्थ नहीं जाएगी.
विपक्ष में बैठे दानव और असुर.
पहुँचे केंद्र में शक्तिमान और शक्ति के घर.
कुटिल दूतों को बनाया गया राज्यपाल.
मचाकर बवाल, देते रहें हाल-चाल.
प्रभु मनमोहन हैं अन्तर्यामी
चमकदार समारोह से छिपाई खामी.
कौड़ी का सामान करोड़ों के दाम.
खिलाड़ी की मेहनत, नेता का नाम.
'मन' से 'लाल' के मिलन की 'सुषमा'.
नकली मुस्कान... सूझे न उपमा.
दोनों एक-दूजे पर सदय-
यहाँ हमारी, वहाँ तुम्हारी जय-जय.
विधायकों की मनमानी बोली.
खाली न रहे किसी की झोली.
विधानसभा में दोबारा मतदान.
काटो सत्ता का खेत, भरो खलिहान.
मनाते मनौती मौन येदुरप्पा.
अचल रहे सत्ता, गाऊँ ला-रा-लप्पा.
भारत की सारी ज़मीन...
नेता रहे जनता से छीन.
जल रहा रोम, नीरो बजाता बीन.
कौन पूछे?, कौन बताये? हालत संगीन.
सनातन संस्कृति को, बनाकर बाज़ार.
कर रहे हैं रातें रंगीन.
१४-१०-२०१०
***
नवगीत
बाँटें-खायें...
*
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
करो-मरो का
चला गया युग.
समय आज
सहकार का.
महजनी के
बीत गये दिन.
आज राज
बटमार का.
इज्जत से
जीना है यदि तो,
सज्जन घर-घुस
शीश बचायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
*
आपा-धापी,
गुंडागर्दी.
हुई सभ्यता
अभिनव नंगी.
यही गनीमत
पहने चिथड़े.
ओढे है
आदर्श फिरंगी.
निज माटी में
नहीं जमीन जड़,
आसमान में
पतंग उडाएं.
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
लेना-देना
सदाचार है.
मोल-भाव
जीवनाधार है.
क्रय-विक्रय है
विश्व-संस्कृति.
लूट-लुटाये
जो-उदार है.
निज हित हित
तज नियम कायदे.
स्वार्थ-पताका
मिल फहरायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
१४-१०-२००९
***

सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

स्मरण अमृतलाल वेगड़

स्मरण
अमृतलाल वेगड़
*
नर्मदा संरक्षण के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले अमृतलाल वेगड़ का जन्म ३ अक्टूबर १९२८ को जबलपुर में हुआ। १९४८ से १९५३ तक शांतिनिकेतन में उन्होंने कला का अध्ययन किया। वेगड़ जी ने नर्मदा की पूरी परिक्रमा कर  नर्मदा पदयात्रा वृत्तांत पर चार किताबें लिखीं हैं। 'सौंदर्य की नदी नर्मदा', 'अमृतस्य नर्मदा' और 'तीरे-तीरे नर्मदा' के बाद चौथी किताब 'नर्मदा तुम कितनी सुंदर हो' २०१५ में प्रकाशित हुई ।ये हिंदी, गुजराती, मराठी, बंगला अंग्रेजी और संस्कृत में भी प्रकाशित हुई हैं। 

वेगड़ गुजराती और हिंदी में साहित्य अकादमी पुरस्कार एवं महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार जैसे अनेक राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित हुए थे। वे उन चित्रकारों और साहित्यकारों में से थे, जिन्होंने नर्मदा की चार हज़ार किमी की पदयात्रा की और नर्मदा अंचल में फैली बेशुमार जैव विविधता से दुनिया को वाक़िफ कराया। उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के लिए उल्लेखनीय काम किया। अमृतलाल वेगड़ चित्रकार, शिक्षक, समाजसेवी साहित्यकार, पर्यावरणविद् सहित कई प्रतिभाओं के धनी रहे। साधारण पथिक के रूप में नर्मदा परिक्रमा शुरू की और धीरे-धीरे ‘नर्मदा पुत्र’ बन गए। वे कहते थे- ‘कोई वादक बजाने से पहले देर तक अपने साज के सुर मिलाता है, उसी प्रकार हम इस जनम में नर्मदा मैया के सुर मिलाते रहे, परिक्रमा तो अगले जनम में करेंगे’। उन्होंने नर्मदा परिक्रमा दो बार पूरी की। पहली बार १९७७ में, जब वे ५० वर्ष के हुए थे और दूसरी बार २००२ में जब उन्होंने ७५ साल पूरे किए थे। ९० वर्ष की उम्र में ६ जुलाई २०१८ को वेगड़ जी का देहावसान हुआ।
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मंगलवार, 18 जुलाई 2017

smaran

स्मरणांजलि:
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक'
संजीव
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महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक' साधु प्रवृत्ति के ऐसे शब्दब्रम्होपासक हैं जिनकी पहचान समय नहीं कर सका। उनका सरल स्वभाव, सनातन मूल्यों के प्रति लगाव, मौन एकाकी सारस्वत साधना, अछूते और अनूठे आयामों का चिंतन, शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता सृजन, मौलिक उद्भावनाएँ, छांदस प्रतिबद्धता, सादा रहन-सहन, खांटी राजस्थानी बोली, छरफरी-गौर काया, मन को सहलाती सी प्रेमिल दृष्टि और 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देती आत्मगोपन की प्रवृत्ति उन्हें चिरस्मरणीय बनाती है। मणिकांचनी सद्गुणों का ऐसा समुच्चय देह में बस कर देहवासी होते हुए भी देह समाप्त होने पर विदेही होकर लुप्त नहीं होता अपितु देहातीत होकर भी स्मृतियों में प्रेरणापुंज बनकर चिरजीवित रहता है. वह एक से अनेक में चर्चित होकर नव कायाओं में अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है।

लीलाविहारी आनंदकंद गोबर्धनधारी श्रीकृष्ण की भक्ति विरासत में प्राप्त कर चंचरीक ने शैशव से ही सन १८९८ में पूर्वजों द्वारा स्थापित उत्तरमुखी श्री मथुरेश राधा-कृष्ण मंदिर में कृष्ण-भक्ति का अमृत पिया। साँझ-सकारे आरती-पूजन, ज्येष्ठ शिकल २ को पाटोत्सव, भाद्र कृष्ण १३ को श्रीकृष्ण छठी तथा भाद्र शुक्ल १३ को श्री राधा छठी आदि पर्वों ने शिशु जगमोहन को भगवत-भक्ति के रंग में रंग दिया। सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति श्रीमती वासुदेवी तथा श्री सूर्यनारायण ने कार्तिक कृष्ण १४ संवत् १९८० विक्रम (७ नवंबर १९२३ ई.) की पुनीत तिथि में मनमोहन की कृपा से प्राप्त पुत्र का नामकरण जगमोहन कर प्रभु को नित्य पुकारने का साधन उत्पन्न कर लिया। जन्म चक्र के चतुर्थ भाव में विराजित सूर्य-चन्द्र-बुध-शनि की युति नवजात को असाधारण भागवत्भक्ति और अखंड सारस्वत साधना का वर दे रहे थे जो २८ दिसंबर २०१३ ई. को देहपात तक चंचरीक को निरंतर मिलता रहा।
बालक जगमोहन को शिक्षागुरु स्व. मथुराप्रसाद सक्सेना 'मथुरेश', विद्यागुरु स्व. भवदत्त ओझा तथा दीक्षागुरु सोहनलाल पाठक ने सांसारिकता के पंक में शतदल कमल की तरह निर्लिप्त रहकर न केवल कहलाना अपितु सुरभि बिखराना भी सिखाया। १९४१ में हाईस्कूल, १९४३ में इंटर, १९४५ में बी.ए. तथा १९५२ में एलएल. बी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर इष्ट श्रीकृष्ण के पथ पर चलकर अन्याय से लड़कर न्याय की प्रतिष्ठा पर चल पड़े जगमोहन। जीवनसंगिनी शकुंतला देवी के साहचर्य ने उनमें अदालती दाँव-पेंचों के प्रति वितृष्णा तथा भागवत ग्रंथों और मनन-चिंतन की प्रवृत्ति को गहरा कर निवृत्ति मार्ग पर चलाने के लिये सृजन-पथ का ऐसा पथिक बना दिया जिसके कदमों ने रुकना नहीं सीखा। पतिपरायणा पत्नी और प्रभु परायण पति की गोद में आकर गायत्री स्वयं विराजमान हो गयीं और सुता की किलकारियाँ देखते-सुनते जगमोहन की कलम ने उन्हें 'चंचरीक' बना दिया, वे अपने इष्ट पद्मों के 'चंचरीक' (भ्रमर) हो गये।
महाकाव्य त्रयी का सृजन:
चंचरीककृत प्रथम महाकाव्य 'ॐ श्री कृष्णलीला चरित' में २१५२ दोहों में कृष्णजन्म से लेकर रुक्मिणी मंगल तक सभी प्रसंग सरसता, सरलता तथा रोचकता से वर्णित हैं। ओम श्री पुरुषोत्तम श्रीरामचरित वाल्मीकि रामायण के आधार पर १०५३ दोहों में रामकथा का गायन है। तृतीय तथा अंतिम महाकाव्य 'ओम पुरुषोत्तम श्री विष्णुकलकीचरित' में अल्पज्ञात तथा प्रायः अविदित कल्कि अवतार की दिव्य कथा का उद्घाटन ५ भागों में प्रकाशित १०६७ दोहों में किया गया है। प्रथम कृति में कथा विकास सहायक पदों तृतीय कृति में तनया डॉ. सावित्री रायजादा कृत दोहों की टीका को सम्मिलित कर चंचरीक जी ने शोधछात्रों का कार्य आसान कर दिया है। राजस्थान की मरुभूमि में चराचर के कर्मदेवता परात्पर परब्रम्ह चित्रगुप्त (ॐ) के आराधक कायस्थ कुल में जन्में चंचरीक का शब्दाक्षरों से अभिन्न नाता होना और हर कृति का आरम्भ 'ॐ' से करना सहज स्वाभाविक है। कायस्थ [कायास्थितः सः कायस्थः अर्थात वह (परमात्मा) में स्थित (अंश रूप आत्मा) होता है तो कायस्थ कहा जाता है] चंचरीक ने कायस्थ राम-कृष्ण पर महाकाव्य साथ-साथ अकायस्थ कल्कि (अभी क्लक्की अवतार हुआ नहीं है) से मानस मिलन कर उनपर भी महाकाव्य रच दिया, यह उनके सामर्थ्य का शिखर है।
देश के विविध प्रांतों की अनेक संस्थाएं चंचरीक सम्मानित कर गौरवान्वित हुई हैं। सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर में साहित्यिक संस्था अभियान के तत्वावधान में समपन्न अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण में अध्यक्ष होने के नाते मुझे श्री चंचरीक की द्वितीय कृति 'ॐ पुरुषोत्तम श्रीरामचरित' को नागपुर महाराष्ट्र निवासी जगन्नाथप्रसाद वर्मा-लीलादेवी वर्मा स्मृति जगलीला अलंकरण' से तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा व चित्राशीष के संयुक्त तत्वावधान में शांतिदेवी-राजबहादुर वर्मा स्मृति 'शान्तिराज हिंदी रत्न' अलंकरण से समादृत करने का सौभाग्य मिला। राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद के जयपुर सम्मेलन में चंचरीक जी से भेंट, अंतरंग चर्चा तथा शकुंतला जी व् डॉ. सावित्री रायजादा से नैकट्य सौभाग्य मिला।
चंचरीक जी के महत्वपूर्ण अवदान क देखते हुए राजस्थान साहित्य अकादमी को ऊपर समग्र ग्रन्थ का प्रकाशन कर, उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित करना चाहिए। को उन पर डाक टिकिट निकालना चाहिए। जयपुर स्थित विश्व विद्यालय में उन पर पीठ स्थापित की जाना चाहिए। वैष्णव मंदिरों में संतों को चंचरीक साहित्य क्रय कर पठन-पाठन तथा शोध हेतु मार्ग दर्शन की व्यवस्था बनानी चाहिए।
दोहांजलि:
ॐ परात्पर ब्रम्ह ही, रचते हैं सब सृष्टि 
हर काया में व्याप्त हों, कायथ सम्यक दृष्टि

कर्मयोग की साधना, उपदेशें कर्मेश 
कर्म-धर्म ही वर्ण है, बतलाएं मथुरेश

सूर्य-वासुदेवी हँसे, लख जगमोहन रूप 
शाकुन्तल-सौभाग्य से, मिला भक्ति का भूप

चंचरीक प्रभु-कृपा से, रचें नित्य नव काव्य 
न्यायदेव से सत्य की, जय पायें संभाव्य

राम-कृष्ण-श्रीकल्कि पर, महाकाव्य रच तीन 
दोहा दुनिया में हुए, भक्ति-भाव तल्लीन

सावित्री ही सुता बन, प्रगटीं, ले आशीष 
जयपुर में जय-जय हुई, वंदन करें मनीष

कायथ कुल गौरव! हुए, हिंदी गौरव-नाज़ 
गर्वित सकल समाज है, तुमको पाकर आज

सतत सृजन अभियान यह, चले कीर्ति दे खूब 
चित्रगुप्त आशीष दें, हर्ष मिलेगा खूब

चंचरीक से प्रेरणा, लें हिंदी के पूत 
बना विश्ववाणी इसे, घूमें बनकर दूत

दोहा के दरबार में, सबसे ऊंचा नाम
चंचरीक ने कर लिया, करता 'सलिल' प्रणाम

चित्रगुप्त के धाम में, महाकाव्य रच नव्य 
चंचरीक नवकीर्ति पा, गीत गुँजाएँ दिव्य

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salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा 
हिंदी_ब्लॉगर
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शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

SHRIMATI INDIRA SHRIVASTAV

श्रद्धांजलि लेख:

मौन हो गयी बुन्देली कोकिला


जबलपुर, १३-२-२०१५। बसंत पंचमी माता सरस्वती के पूजन-उपासना का दिन है। एक सरस्वती पुत्री के लिये इहलोक को छोड़कर माँ सरस्वती के लोक में जाने का इससे उत्तम दिवस अन्य नहीं हो सकता। बुंदेली लोकगीतों को अपने स्वरमाधुर्य से अमर कर देनेवाली श्रीमती इंदिरा श्रीवास्तव नश्वर काया तजकर माँ सरस्वती के लोक को प्रस्थान कर गयीं। अब कलकल निनादिनी नर्मदा के लहरियों की तरह गुनगुना-गाकर आत्मानंद देने वाल वह स्वर साक्षात सुन पाना, वार्धक्य जर्जर कंपित करों से आशीषित हो पाना संभव न होगा।

श्रीमती इंदिरा श्रीवास्तव एक नाम मात्र नहीं है, जिन्होंने उन्हें सुना और देखा है उनके लिये यह नाम बुन्देली अंचल की समृद्ध और ममतामयी नारी का पर्याय है। छरहरी काया, गेहुँआ रंग, नाक में लौंग, माथे पर बड़ी सी बिंदी, माँग में चौड़ी सिंदूर रेखा, अधरों पर मोहक मुस्कान, वाणी में कायल की कूक सी मिठास, हमेशा रंगीन साड़ी या धोती में पान की पीक सज्जित अधरों से रसामृत वर्षण करती इंदिरा जी को देखकर हाथ अपने आप प्रणाम की मुद्रा में जुड़ जाते,सिर सम्मान में नत हो जाता। उपलब्धियों को सहजता से पचाने में उनका सानी नहीं था। १९७० से १९८५ तक के समय में आकाशवाणी के जबलपुर, सागर, छतरपुर, भोपाल केन्द्रों से उनके बुंदेली लोकगीत सर्वाधिक सुने - सराहे जाते रहे। उन्होंने सफलता पर किंचितमात्र भी घमंड नहीं किया। कला और विनम्रता उनके आभूषण थे।

१९३० के आसपास जबलपुर में उच्च शालेय शिक्षा के एकमात्र केंद्र हितकारिणी स्कूल में सर्वाधिक लोकप्रिय अध्यापक वर्मा जी की सबसे बड़ी संतान इंदिरा जी ने समर्पण और साधना के पथ पर कदम रखकर साधनों के अभाव में भी गायन कला को जिया। उनके जीवन साथी स्व. गोवर्धन लाल श्रीवास्तव का सहयोग उन्हें मिला। सदा जीवन उच्च विचार का धनी यह युगल प्रदर्शन और आडम्बर से सदा दूर ही रहा। जीवन में असंघर्ष और उतार-चढ़ाव इंदिरा जी की स्वर साधना को खंडित नहीं कर सके। बुजुर्गों, संतानों और सम्बन्धियों से परिपूर्ण परिवार में निश-दिन कोई न कोई बाधा उपस्थित होना स्वाभाविक है, किन्तु इंदिरा जी ने कुलवधु या गृह लक्ष्मी की तरह ही नहीं अन्नपूर्णा की तरह भी समस्त परिस्थितियों का सामना कर अपनी प्रतिभा को निखारा।

नर्मदा तट पर ग्वारीघाट (गौरीघाट) में इंदिरा जी की नश्वर काया की अंत्येष्टि शताधिक सम्बन्धियों और स्नेहियों की उपस्थिति में संपन्न हुई किन्तु आकाशवाणी, कायस्थ समाज, बुंदेली संस्थाओं और उनके करतल ध्वनिकर देर रात तक उनके मधुर स्वर में बुंदेली लोकगीत सुनते रहने वाले प्रशंसकों की अनुपस्थिति समय का फेर दर्शा रही थी जहाँ कला और कलाकार दोनों उपेक्षित हैं। प्रस्तुत है त्रैमासिकी चित्रशीष जुलाई-सितंबर १९८३ के अंक हेतु इंदिरा जी से लिया गया साक्षात्कार और उनकी अंतिम यात्रा के चित्र। उन्हें शत-शत नमन।

शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

smaran alankar

अलंकार सलिला: २७ 

स्मरण अलंकार
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बीती बातों को करें, देख आज जब याद 
गूंगे के गुण सा 'सलिल', स्मृति का हो स्वाद।।

स्मरण करें जब किसी का, किसी और को देख
स्मित अधरों पर सजे, नयन अश्रु की रेख
करें किसी की याद जब, देख किसी को आप
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप

जब काव्य पंक्तियों को पढ़ने या सुनने पहले देखी-सुनी वस्तु, घटना अथवा व्यक्ति की, उसके समान वस्तु, घटना अथवा व्यक्ति को देखकर याद ताजा हो तो स्मरण अलंकार होता है
जब किसी सदृश वस्तु / व्यक्ति को देखकर किसी पूर्व परिचित वस्तु / व्यक्ति की याद आती है तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है स्मरण स्वत: प्रयुक्त होने वाला अलंकार है कविता में जाने-अनजाने कवि इसका प्रयोग कर ही लेता है।
स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है

स्मरण अलंकार सादृश्य (समानता) से उत्पन्न स्मृति होने पर ही होता है। किसी से संबंध रखनेवाली वस्तु को देखने पर स्मृति होने पर स्मरण अलंकार नहीं होता। 

स्मृति नामक संचारी भाव सादृश्यजनित स्मृति में भी होता है और संबद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी। पहली स्थिति में स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों हो सकते हैं। देखें निम्न उदाहरण ६, ११, १२ 

उदाहरण:

१. देख चन्द्रमा
    चंद्रमुखी को याद 
    सजन आये      - हाइकु 

२. श्याम घटायें
    नील गगन पर 
    चाँद छिपायें।
    घूँघट में प्रेमिका
    जैसे आ ललचाये।  -ताँका      

३. सजी सबकी कलाई
    पर मेरा ही हाथ सूना है

    बहिन तू दूर है मुझसे
    हुआ यह दर्द दूना है

४. धेनु वत्स को जब दुलारती
    माँ! मम आँख तरल हो जाती
    जब-जब ठोकर लगती मग पर
    तब-तब याद पिता की आती

५. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा 
    सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा 

६. बीच बास कर जमुनहिं आये
    निरखिनीर लोचन जल छाये 

७. देखता हूँ जब पतला इन्द्र धनुषी हल्का,
    रेशमी घूँघट बादल का खोलती है कुमुद कला
   तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान
   मुझे तब करता अंतर्ध्यान

८. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरख विमुख लोग
    त्यों-त्यों ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है

    सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि,
    कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है

    जैसी अब बीतत सो कहतै ना बैन
    नागर ना चैन परै प्राण अकुलावै है

    थूहर पलास देखि देखि कै बबूर बुरे,
    हाय हरे हरे तमाल सुधि आवै है


९. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
    याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी
    पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
    दिव्य छटा अनुपम छवि बांकी प्यारी-प्यारी


१०. सघन कुञ्ज छाया सुखद, सीतल मंद समीर
     मन व्है जात अजौं वहै, वा जमुना के तीर   

११. जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके
     प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता

१२. छू देती है मृदु पवन जो पास आ गाल मेरा 
     तो हो आती परम सुधि है श्याम-प्यारे-करों की 

१३. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराए
     मुझे तुम याद आये

     जब-जब ये चाँद निकला और तारे जगमगाए 
     मुझे तुम याद आये
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रविवार, 13 सितंबर 2015

smaran shrikant mishra

भावांजलि-

मनोवेदना:

(जे. पी. की संपूर्ण क्रांति के एक सिपाही, नवगीतकार भाई श्रीकांत का कर्क रोग से असमय निधन हो गया. लगभग एक वर्ष से उनकी चिकित्सा चल रही थी. हिन्द युग्म पर २००९ में हिंदी छंद लेखन सम्बन्धी कक्षाओं में उनसे परिचय हुआ था. गत वर्ष नवगीत उत्सव लखनऊ में उच्च ज्वर तथा कंठ पीड़ा के बावजूद में समर्पित भावना से अतिथियों को अपने वाहन से लाने-छोड़ने का कार्य करते रहे. न वरिष्ठता का भान, न कष्ट का बखान। मेरे बहुत जोर देने पर कुछ औषधि ली और फिर काम पर. तुरंत बाद वे स्थांनांतरित होकर बड़ोदरा गये , जहाँ  जांच होने पर कर्क रोग की पुष्टि हुई. टाटा मेमोरियल अस्पताल मुम्बई में चिकित्सा पश्चात निर्धारित थिरैपी पूर्ण होने के पूर्व ही वे बिदा हो गये. बीमारी और उपचार के बीच में भी वे लगातार सामाजिक-साहित्यिक कार्य में संलग्न रहे. इस स्थिति में भी उन्होंने अपनी जमीन और धन का दान कर हिंदी के उन्नयन हेतु एक न्यास (ट्रस्ट) की स्थापना की. स्वस्थ होकर वे हिंदी के लिये समर्पित होकर कार्य करना चाहते थे किन्तु??? उनकी जिजीविषा को शत-शत प्रणाम)


ओ ऊपरवाले! नीचे आ
क्या-क्यों करता है तनिक बता?
असमय ले जाता उम्मीदें
क्यों करता है अक्षम्य खता?

कितने ही सपने टूट गये
तुम माली बगिया लूट गये.
क्यों करूँ तुम्हारा आराधन
जब नव आशा घट फूट गये?

मुस्कान मृदुल, मीठी बोली
रससिक्त हृदय की थी खोली
कर ट्रस्ट बनाया ट्रस्ट मगर
संत्रस्त किया, खाली ओली.

मैं जाऊँ कहाँ? निष्ठुर! बोलो,
तज धरा न अंबर में डोलो.
क्या छिपा तुम्हारी करनी में
कुछ तो रहस्य हम पर खोलो.

उल्लास-आसमय युवा रक्त
हिंदी का सुत, नवगीत-भक्त
खो गया कहाँ?, कैसे पायें
वापिस?, क्यों इतने हम अशक्त?

ऐ निर्मम! ह्रदय नहीं काँपा?
क्यों शोक नहीं तुमने भाँपा.
हम सब रोयेंगे सिसक-सिसक
दस दिश में व्यापेगा स्यापा.

संपूर्ण क्रांति का सेनानी,
वह जनगणमन का अभिमानी.
माटी का बेटा पतझड़ बिन
झड़ गया मौन ही बलिदानी.

कितने निर्दय हो जगत्पिता?
क्या पाते हो तुम हमें सता?
असमय अवसान हुआ है क्यों?
क्यों सके नहीं तुम हमें जता?

क्यों कर्क रोग दे बुला लिया?
नव आशा दीपक बुझा दिया.
चीत्कार कर रहे मन लेकिन
गीतों ने बेबस अधर सिया.
 
बोले थे: 'आनेवाले हो',
कब जाना, जानेवाले हो?
मन कलप रहा तुमको खोकर
यादों में रहनेवाले हो.

श्रीकांत! हुआ श्रीहीन गीत
तुम बिन व्याकुल हम हुए मीत.
जीवन तो जीना ही होगा-
पर रह न सकेंगे हम अभीत।
***

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

शोक समाचार

पुण्य स्मरण: स्व. प्रो. नरेंद्र कुमार वर्मा

संजीव वर्मा सलिल sanjiv verma salil की फ़ोटो.संजीव वर्मा सलिल sanjiv verma salil की फ़ोटो.

सिएटल अमेरिका में भारी हृदयाघात तथा शल्य क्रिया पश्चात ६ सितंबर २०१५ (कृष्ण जन्माष्टमी) को आदरणीय नरेंद्र भैया के निधन के समाचार से शोकाकुल हूँ। वे बहुत मिलनसार थे। हमारे कुनबे को एक दूसरे के समाचार देने में सूत्रधार होते थे वे। प्रभु उनकी आत्मा को शांति और बच्चों को धैर्य प्रदान करें। भाभी जी आपके शोक में हम सब सहभागी हैं।

बचपन में नरेंद्र भैया की मधुर वाणी में स्व. महेश प्रसाद सक्सेना 'नादां' की गज़लें सुनकर साहित्य से लगाव बढ़ा। वे अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। १९६०-७० के दौर में भारतीय इंटेलिजेंस सर्विस में चीन सीमा पर भी रहे थे।

उनकी जीवन संगिनी श्रीमती रजनी वर्मा नरसिंहपुर के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सत्याग्रही परिवार से थी जो तेलवाले वर्मा जी के नाम से अब तक याद किया जाता है। उनके बच्चे योगी, कपिल तथा बिटिया प्रगति (निक्की) उनकी विरासत को आगे बढ़ाएंगे।

नरेंद्र भैया रूघ रहते हुए भी कुछ दिनों पूर्व ही वे डॉ. हेडगेवार तथा स्वातंत्र्यवीर सावरकर के वंशजों से पुणे में मिले थे तथा अल्प प्रवास में जबलपुर आकर सबसे मिलकर गए थे। बचपन में जबलपुर में बिठाये दिनों की यादें उनके लिये जीवन-पाथेय थीं

भैया के पिताजी स्व. जगन्नाथप्रसाद वर्मा १९३०-४० के दौर में डॉ. हेडगेवार, कैप्टेन मुंजे आदि के अभिन्न साथी थे तथा माताजी स्व. लीलादेवी वर्मा (१९१२ - २८-८-१९८४) जबलपुर के प्रसिद्ध सुंदरलाल तहसीलदार परिवार से थीं। महीयसी महादेवी वर्मा जी की माताजी स्व. हेमावती देवी भी इसी परिवार से थीं। स्व. जगन्नाथप्रसाद वर्मा अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के संगठन सचिव भी थे। वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक दल के समर्पित कार्यकर्ता थे । उन्होंने राम सेना तथा शिव सेना नामक दो सशस्त्र दल बनाये थे जो मुसलमानों द्वारा अपहृत हिंदू स्त्रियों को संघर्ष कर वापिस लाकर यज्ञ द्वारा शुद्ध कर हिन्दू युवकों से पुनर्विवाह कराते थे। वे सबल शरीर के स्वामी, ओजस्वी वक्ता तथा निर्भीक स्वभाव के धनी थे।  उन्होंने १९३४ में नागपुर में अखिल भारतीय कायस्थ महासभा का राष्ट्रीय सम्मलेन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। कांग्रेस की अंतरिम सरकार के समय में उन्हें कारावास में विषाक्त भोजन दिया गया जिससे वे गंभीर बीमार और अंतत: दिवंगत हो गये थे। विश्व हिन्दू परिषद के आचार्य धर्मेन्द्र के पिताश्री स्वामीरामचन्द्र शर्मा 'वीर' ने अपनी पुस्तक में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए यह विवरण दिया है। कठिन आर्थिक स्थिति को देखते हुए उनके बड़े पुत्र स्व. कृष्ण कुमार वर्मा (सुरेश भैया दिवंगत २१-५-२०१४) को सावरकर जी ने विशेष छात्रवृत्ति प्रदान कर अध्ययन में सहायता दी थी।

नरेंद्र भैया अमेरिका जाने के पहले और बाद अपनी वार्ताओं में नागपुर में अपनी पैतृक भूमि के प्राप्त अंश पर हिंदी भाषा-शिक्षा-साहित्य से जुडी कोई संस्था खड़ी करने के इच्छुक थे, इसके रूपाकार पर विमर्श कर रहे थे पर नियति ने समय ही नहीं दिया।

बुधवार, 10 जुलाई 2013

muktika: smaran sanjiv

Sanjiv Verma Salil
मुक्तिका:
स्मरण
संजीव 'सलिल"
*
मोटा कांच सुनहरा चश्मा, मानस-पोथी माता जी।
पीत शिखा सी रहीं दमकती, जगती-सोतीं माताजी।।
*
पापा जी की याद दिलाता, है अखबार बिना नागा।
चश्मा लेकर रोज बाँचना, ख़बरें सुनतीं माताजी।।
*
बूढ़ा तन लेकिन जवान मन, नयी उमंगें ले हँसना।
नाती-पोतों संग हुलसते, थम-चल पापा-माताजी।।
*
इनकी दम से उनमें दम थी, उनकी दम से इनमें दम।
काया-छाया एक-दूजे की, थे-पापाजी-माताजी।।
*
माँ का जाना- मूक देखते, टूट गए थे पापाजी।
कहते: 'मुझे न ले जाती क्यों, संग तुम्हारी माताजी।।'
*
चित्र देखते रोज एकटक, बिना कहे क्या-क्या कहते।
रहकर साथ न संग थे पापा, बिछुड़ साथ थीं माताजी।।
*
यादों की दे गए धरोहर, सांस-सांस में है जिंदा।
हम भाई-बहनों में जिंदा, हैं पापाजी-माताजी।।
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com/
salil.sanjiv@gmail.com