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शनिवार, 22 नवंबर 2025

नव चित्रगुप्त चालीसा,कायस्थ, गोत्र, वर्ण, जाति, अल्ल, कुलनाम, सरनेम

।। ॐ परात्पर परब्रह्म श्री चित्रगुप्त चालीसा ।। 

दोहा
सुमिर परात्पर ब्रह्म को, विधि-हरि-हर के संग
मातृ त्रयी करिए कृपा, वश में रहे अनंग।०१।
ॐ अनाहद नाद को, श्वास-श्वास उच्चार।
आजीवन सुन सकें हम, मधुकर ध्वनि गुंजार।०२।
सदय वाग्देवी रहें, करें कृपा विघ्नेश। 
ऋद्धि-सिद्धि वरदान दें, हों प्रसन्न कर्मेश।०३।
हों कृपालु अवतार सब, गृह-नक्षत्र सुसंत। 
भू-गौ-भाषा-नर्मदा, छंद-व्याकरण-कंत।०४।
मानव के कल्याण हित, करें काम निष्काम। 
वेद-उपनिषद हृदय रख, पहुँचें प्रभु के धाम।०५।
चौपाई  
जयति-जय निराकार-साकार। तुम्हारी महिमा अपरंपार।०१।
हो अनंत अविनाशी भगवन। संत ॐ कह करते सुमिरन।०२।    
श्यामल अंतरिक्ष में व्याप्त। थे एकाकी ईश्वर आप्त।०३। 
सत न असत, नहिं जन्म-मरण था। तम ने तम का किया वरण था ।०४। 
की इच्छा तब प्रभु ने मन में। गुप्त प्रगट हों मरें न जनमें।०५। 
एक रहा, होना अनेक है। अनहद नादित मात्र एक है ।०६। 
कण-कण चित्रगुप्त अनुप्राणित। निराकार साकार सुभावित ।०७। 
चित्रगुप्त की आदि शक्तियाँ। परा व अपरा दिव्य पत्नियाँ।०८।  
इरावती-नंदिनी कहे जग। जन्म-मरण पथ पर रखकर पग।०९।     
ग्रह-उपग्रह, ब्रह्मांड बनाए। जड़-चेतन प्रभु ने उपजाए।१०।
तीन अंश तब निज प्रगटाए। विधि-हरि-हर त्रय देव कहाए।११।
शारद-उमा-रमा जब पाएँ। जनमें-पालें-नाश कराएँ। १२। 
देव त्रयी के कर्म सुनिश्चित। भूल-चूक हो तो हों शापित।१३।             
लें अवतार धर्म-पालन कर। जाते हैं निज लोक समय पर।१४।
नाद तरंगें अनगिन घूमें। मिलें-अलग हो टकरा झूमें।१५। 
बनतीं कण निर्भार न दिखतीं। मिले भार तब आप विकसतीं।१६।
कण-से कण जुड़ पंचतत्व हों, अंतर्निहित अनंत सत्व हों।१७। 
ऊर्जस्वित मायापति पल-पल। माया-मोह सुमन में परिमल।१८।   
अक्षय अजर अमर अविनाशी। ईश घोर तम दैव प्रकाशी।१९।  
चित्त-वृत्ति सुख-दुख की कारक। निराकार-साकार निवारक।२०। 
लय-गति-नाद तरंग-लहर-रस। कर निर्जीव सजीव रहें बस।२१।
सुप्त चेतना जाग्रत करते। गुप्त चित्त में 'चित्र' विचरते।२२।
अनिल अनल भू गगन सलिल मिल। लोक बनाए सृष्टि सके खिल।२३।
सूक्ष्म जीव फिर 'मत्स्य' हुए प्रभु। 'कच्छप' अरु 'वाराह' हुए विभु।२४।    
पाँच खंड में बाँटी धरती। बीच समुद में लगे तैरती।२५। 
ले 'नरसिंह'-'वामन' अवतार। हरा 'परशु' ने भू का भार।२६।
हुआ सृष्टि विस्तार अनवरत। ब्रह्म नहीं कर सके व्यवस्थित।२७।  
अंकपात तप कर फल पाया। असि-मसि, अक्षर-अंक सुहाया।२८।
बारह मास सदृश बारह सुत। बारह सुतवधु राशि धर्म युत।२९।     
सतयुग में सुखमय संसार। अपना कर वैदिक आचार।३०।
त्रेता सुर-नर्-असुर बढ़े जब। मनमानी की ओर बढ़े तब।३१। 
कर्म-दंड की नीति बनाई। जो बोए सो काटे भाई।३२।
लोभी नृप सौदास कुचाली। चरण-शरण आ शुभ गति पा ली।३३।
पूजन कर श्री राम अवध में। पूर्णकाम हो थके न मग में।३४। 
कान्हा अंकपात में आए। कायथ-धर्म सुशिक्षा पाए।३५।      
काम अकाम करे प्रभु अर्पण। मिले न फल, फिर हो नहिं तर्पण।३६।
काम सकाम भोगती काया। मर जनमे भोगे फल पाया।३७।
कर्म कुशलता योग प्रणेता। गुण-कर्मों से वर्ण विजेता।३८।
हो परमात्म आत्म काया बस। हो 'कायस्थ' जगत गाए जस।३९।    
कर पितु-माँ द्वय कृपा तारिए। भक्ति-मुक्ति दे भ्रम निवारिए।४०।
दोहा 
चित्रगुप्त जी की कृपा, सुर-नर-किन्नर चाह। 
कर्म कुशल हों जगत में, मिले सफलता वाह।०६। 
श्यामल-मनहर छवि-छटा, जहाँ वहीं हैं आप। 
गौर दिव्य ममतामयी, माँ हरतीं संताप।०७।
विष अणु को अमृत करें, हरि-शिव होकर नित्य।
अनल अनिल नभ भू 'सलिल', बसते इष्ट अनित्य।०८। 
चित्रगुप्त प्रभु हों सदय, दें निश-दिन आशीष। 
शीश उठा हम जी सकें, हो मतिमान मनीष।०९।
कर्म-धर्म को जानकर, करें सत्य स्वीकार। 
न्याय-नीति पथ पर चलें, पा-दें ममता-प्यार।१०।
कायथ कुल गौरव कथा, कहे सकल संसार। 
ज्ञान-परिश्रम-त्याग वर, हो भव से उद्धार।।  
।। इति श्री आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' रचित चित्रगुप्त चालीसा संपूर्ण ।।  
००० 


मानवता के काम आ, कर बुराई का अंत। 
श्री वास्तव में पा सकें, दें प्रभु भक्ति अनंत।७।
चित्रगुप्त     
    
  

चित्रगुप्त और कायस्थ कौन हैं?? 
*
            परात्पर परब्रह्म निराकार हैं। जो निराकार हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता अर्थात उसका चित्र प्रगट न होकर गुप्त रहता है। कायस्थों के इष्ट यही चित्रगुप्त (परब्रह्म) हैं जो सृष्टि के निर्माता और समस्त जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का फल देते हैं। पुराणों में सृष्टि का वर्णन करते समय कोटि-कोटि ब्रह्मांड बताए गए हैं उनमें से हर एक का ब्रह्मा-विष्णु-महेश उसका निर्माण-पालन और नाश करता है अर्थात कर्म करता है। पुराणों में इन तीनों देवों को समय-समय पर शाप मिलने, भोगने और मुक्त होने की अवतार कथाएँ भी हैं। इन तीनों के कार्यों का विवेचन कर फल देनेवाला इनसे उच्चतर ही हो सकता है। इन तीनों के आकार वर्णित हैं, उच्चतर शक्ति ही निराकार हो सकती है। इसका अर्थ यह है कि देवाधिदेव चित्रगुप्त निराकार है त्रिदेवों सहित सृष्टि के सभी जीवों-जातकों के कर्म फल दाता हैं। बौद्ध और जैन धर्मों में गौतम बुद्ध और महावीर स्वामी की जातक कथाएँ विविध योनियों में उनके जन्म और कर्म पर केंद्रित हैं। इससे यह स्पष्ट है कि कोई उच्चतर शक्ति उन्हें इन  योनियों में भेजती है।  

             कायस्थ की परिभाषा 'काया स्थित: स: कायस्थ' अर्थात 'जो काया में रहता है, वह कायस्थ है। इसके अनुसार सृष्टि के सभी अमूर्त-मूर्त, सूक्ष्म-विराट जीव/जातक कायस्थ हैं। 

            काया (शरीर) में कौन रहता है जिसके न रहने पर काया को मिट्टी कहा जाता है? उत्तर है आत्मा, शरीर में आत्मा न रहे तो उसे 'मिट्टी' कहा जाता है। आध्यात्म में सारी सृष्टि को भी मिट्टी कहा गया है। 

            आत्मा क्या है? आत्मा सो परमात्मा अर्थात आत्मा ही परमात्मा है। सार यह कि जब परमात्मा का अंश किसी काया का निर्माण कर आत्मा रूप में उसमें रहता है तब उसे 'कायस्थ' कहा जाता है। जैसे ही आत्मा शरीर छोड़ता है शरीर मिट्टी (नाशवान) हो जाता है, आत्मा अमर है। इस अर्थ में सकल सृष्टि और उसके सब जीव/जातक कण-कण, तृण-तृण, जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, चर-अचर, स्थूल-सूक्ष्म, पशु-पक्षी, सुर-नर-असुर, ऋक्ष, गंधर्व, किन्नर, वानर आदि कायस्थ हैं। 

कायस्थ और वर्ण 

            मानव कायस्थों का उनकी योग्यता और कर्म के आधार चार वर्णों में विभाजन किया गया है। गीता में श्री कृष्ण कहते हैं- ''चातुर्वण्य मया सृष्टम् गुण-कर्म विभागश: अर्थात चारों वर्ण गुण-और कर्म के अनुसार मेरे द्वारा बनाए गए हैं। इसका अर्थ यह है कि कायस्थ ही अपनी बुद्धि, पराक्रम, व्यवहार बुद्धि और समर्पण के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण में  विभाजित किए गए हैं। इसलिए वे चारों वर्णों में विवाह संबंध स्थापित करते रहे हैं। पुराणों के अनुसार चित्रगुप्त जी के दो विवाह देव कन्या नंदिनी और नाग कन्या इरावती से होना भी यही दर्शाता है कि वे और उनके वंशज वर्ण व्यवस्था से परे, वर्ण व्यवस्था के नियामक हैं। एक बुंदेली कहावत है 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' इसका अर्थ यही है कि कायस्थ के घर भोजन करने का सौभाग्य मिलने का अर्थ है समस्त जातियों के घर भोजन करने का सम्मान मिल गया। जैसे देव नदी गंगा में नहाने से सब नदियों में नहाने का पुण्य मिलने की जनश्रुति गंगा को सब नदियों से श्रेष्ठ बताती है, वैसे ही यह कहावत 'कायस्थ' को सब वर्णों और जातियों से श्रेष्ठ बताती है। 

जाति 

            बुंदेली कहावत 'जात बता गया' का अर्थ है कि संबंधित व्यक्ति स्वांग अच्छाई का कर था था किंतु उसके किसी कार्य से उसकी असलियत सामने आ गई। यहाँ 'जात' का अर्थ व्यक्ति का असली गुण या चरित्र है। एक जैसे गुण या कर्म करने वाले व्यक्तियों का समूह 'जाति' कहलाता है। कायस्थ चारों वर्णों के नियत कार्य निपुणता से करने की सामर्थ्य रखने के कारण सभी जातियों में होते हैं। इसीलिए कायस्थों के गोत्र, अल्ल, कुलनाम, वंश नाम चारों वर्णों में मिलते हैं। संस्कृत की धातु 'जा' का अर्थ जन्म देना है। 'जा' से जाया (जग जननी का एक नाम, जन्म दिया), जच्चा (जन्म देनेवाली), जात (एक समान गुण वाले), जाति (एक समान कर्म करनेवाले) आदि शब्द बने हैं। स्पष्ट है कि जाति या वर्ण 'जन्मना' नहीं 'कर्मणा' निर्धारित होती हैं। सांस्कृतिक पराभव काल में विदेशी शक्तियों के अधीन हो जाने पर शिक्षा और ज्ञान की रह अवरुद्ध हो जाने के कारण जाति और वर्ण को जन्म आधारित माँ लिया गया। 

कुलनाम और अल्ल 

            प्रभु चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र बताए गए हैं। उनके वंशजों ने अपनी अलग पहचान के लिए अपने-अपने मूल पुरुष के नाम को कुलनाम की तरह अपने नाम के साथ संयुक्त किया। तदनुसार कायस्थों के १२ कुल चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान हुए। ये कुलनाम संबंधित जातक की विशेषताएँ बताते हैं। नाम चारु = सुंदर, सुचारु = सुदर्शन, चित्र = मनोहर, मतिमान = बुद्धिमान, हिमवान = समृद्ध, चित्रचारु = दर्शनीय, अरुण = प्रतापी, अतीन्द्रिय = ध्यानी, भानु = तेजस्वी, विभानु = यश का प्रकाश फैलानेवाले, विश्वभानु = विश्व में सूर्य की तरह जगमगानेवाले तथा वीर्यवान = सबल, पराक्रमी, बहु संततिवान।

गोत्र 

            चित्रगुप्त जी के १२ पुत्र १२ महाविद्याओं का अध्ययन करने के लिए १२ गुरुओं के शिष्य हुए। गुरु का नाम शिष्यों का गोत्र तथा गुरु की इष्ट शक्ति (देव-देवी) शिष्यों की आराध्या शक्ति हुई। आरंभ में एक गोत्र के जातकों में विवाह संबंध वर्जित था। यह नियम पूरी तरह विज्ञान और तर्क सम्मत था। वर और वधु दो भिन्न कुल गुरुओं से दो भिन्न विषयों-विधाओं की शिक्षा प्राप्त कर विवाह करते तो उनके बच्चों को माता-पिता दोनों से उन विषयों का ज्ञान मिलता। बच्चे एक अन्य गुरु से अन्य विषय का ज्ञान पाते और उनका जीवन साथी नए विषय को सीखकर अगली पीढ़ी को अधिक ज्ञानवान बनाता। इस तरह हर पीढ़ी अपने से पूर्वजों से अधिक ज्ञानवान होती।    

            कालांतर में विदेश आक्रांताओं से पराजित होने पर सत्ता-सूत्र सम्हाले कायस्थों को स्थान परिवर्तन करना पड़ा। अपने योग्यता के बल पर नए स्थान पर उन्हें आजीविका तो मिल गई किंतु स्थानीय समाज की वर-कन्या न मिलने पर कायस्थों को विवशता वश एक गोत्र में अथवा अहिन्दुओं से विवाह करना पड़ा।   

आधा मुसलमान/आधा अंग्रेज

            फारसी/उर्दू सीखकर शासन सूत्र सम्हालने के लिए कायस्थों को क्रमश: मुगल / अंग्रेज शासकों की भाषा, रहन-सहन और खान-पान अपनाना पड़ा। जिन्हें यह अवसर नहीं मिल सका वे कायस्थों के निंदक हो गए और उन्होंने कायस्थों को 'आधा मुसलमान' कहा। बाद अंग्रेज शासन होने पर कायस्थों ने अंग्रेजी सीखकर शासन-प्रशासन में स्थान बनाया तो उन्हें 'आधा अंग्रेज' कहा गया। स्पष्ट है कि कायस्थों ने देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार खुद को ढाला आउए 'जैसा देश, वैसा वेश' के सिद्धांत को अपनाकर सफलता पाई।   

अल्ल 

               एक गोत्र में विवाह की मजबूरी होने पर कायस्थों ने आनुवंशिक शुद्धता के लिए एक नई राह अपनाई। कायस्थों ने एक 'अल्ल' में विवाह न करने की परंपरा को जन्म दिया। कुल के पराक्रमी व्यक्ति, मूल निवास स्थान, गुरु अथवा आराध्य देव के नाम अथवा उनसे संबंधित गुप्त शब्द को अपनाने वाले समूह के सदस्य उसे अपनी 'अल्ल' (पहचान चिन्ह) मानते हैं। यह एक महापरिवार के सदस्यों का कूट शब्द (कोड वर्ड) है जिससे वे एक दूसरे को पहचान सकें। एक अल्ल के दो जातकों का आपस में विवाह वर्जित है। ऐसी ही परिस्थितियों में गहोई वैश्यों ने अल्ल-प्रथा को 'आँकने' नाम देकर अपनाया और समान आँकने वाले जातकों में विवाह निषिद्ध किया।  

वर्तमान में नई पीढ़ी अपने इतिहास, गोत्र, अल्ल आदि से अनभिज्ञ होने के कारण वर्जनाओं का पालन नहीं कर पा रही। एक अल्ल या गोत्र में विवाह वैज्ञानिक दृष्टि से भावी पीढ़ी में आनुवंशिक रोगों की संभावना बढ़ाता है। इससे बचने का उपाय अन्य जाति, धर्म या देश में विवाह करना भी है। कायस्थों में भिन्न मत, वाद, धर्म, पंथ के जातकों के साथ विवाह करने की परंपरा चिरकाल से रही है। इष्टदेव चित्रगुप्त जी के दो विवाह दो भिन्न संस्कृतियों की कन्याओं से होना विश्व मानवता की एकता की द्रक्षति से महत्वपूर्ण विरासत है।         
    
कायस्थों के कुलनाम (सरनेम), अल्ल (वंश नाम)  और उनके अर्थ 

            कायस्थों को बुद्धिजीवी, मसिजीवी, कलम का सिपाही आदि विशेषण दिए जाते रहे हैं। भारत के धर्म-अध्यात्म, शासन-प्रशासन, शिक्षा-समाज हर क्षेत्र में कायस्थों का योगदान सर्वोच्च और अविस्मरणीय है। कायस्थों के कुलनाम व उपनाम उनके कार्य से जुड़े रहे हैं। पुराण कथाओं में भगवान चित्रगुप्त के १२ पुत्र चारु, सुचारु, चित्र, मतिमान, हिमवान, चित्रचारु अरुण,अतीन्द्रिय,भानु, विभानु, विश्वभानु और वीर्यवान कहे गए हैं। ये सब  

            गुणाधारित उपनाम विविध विविध जातियों के गुणवानों द्वारा प्रयोग किए जाने के कारण अग्निहोत्री व फड़नवीस ब्राह्मणों, वर्मा जाटों, माथुर वैश्यों, सिंह बहादुर आदि राजपूतों में भी प्रयोग किए जाते हैं। कायस्थ यह सत्य जानने के कारण अन्तर्जातीय विवाह से परहेज नहीं करते। समय के साथ चलते हुए ज्ञान-विज्ञान, शासन-प्रशासन के यंग होते हैं। इसीलिए वे आधे मुसलमान और आधे अंग्रेज भी कहे गए। लोकोक्ति 'कायथ घर भोजन करे बचे न एकहु जात' का भावार्थ यही है कि कायस्थ के संबंधी हर जाति में होते हैं, कायस्थ के घर खाया तो उसके सब संबंधियों के घर भी खा लिया। 

            कायस्थों के अवदान को देखते हुए उन्हें समय-समय पर उपनाम या उपाधियाँ दी गईं। कुछ कुलनाम और उनके अर्थ निम्न हैं-

अंबष्ट/हिमवान- अंबा (दुर्गा) को इष्ट (आराध्य) माननेवाले, हिम/बर्फ वाले हिमालय (पार्वती का जन्मस्थल) में जन्मे पार्वती भक्त । 
अग्निहोत्री- नित्य अग्निहोत्र करनेवाले। 
अष्ठाना/अस्थाना- बाहुबल से स्थान (क्षेत्र) जीतकर राज्य स्थापित करनेवाले। 
आडवाणी- सिन्धी कायस्थ। 
करंजीकर- करंज क्षेत्र निवासी, जिनके हाथ में उच्च अधिकार होता था।  कायस्थ/ब्राह्मण  उच्च शिक्षित थे, वे कर (हाथ) की कलम से फैसले करते थे। वे उपनाम के अंत में 'कर' लगाते थे।  
कर्ण/चारुण- महाभारत काल में राजा कर्ण के विश्वासपात्र तथा उनके प्रतिनिधि के नाते शासन करनेवाले।
कानूनगो- कानूनों का ज्ञान रखनेवाले, कानून बनानेवाले।
कुलश्रेष्ठ/अतीन्द्रिय- इंद्रियों पर विजय पाकर उच्च/कुलीन वंशवाले।
कुलीन- बंगाल-उड़ीसा निवासी उच्च कुल के कायस्थ।  
खरे- खरा (शुद्ध) आचार-व्यवहार रखनेवाले।
गौर- हर काम पर गौर (ध्यान) पूर्वक करनेवाले। 
घोष- श्रेष्ठ कार्यों हेतु जिनका  जयघोष किया जाता रहा।
चंद्रसेनी- महाराष्ट्र-गुजरात निवासी चंद्रवंशी कायस्थ।  
चिटनवीस- उच्च अधिकार प्राप्त जन जिनकी लिखी चिट (कागज की पर्ची) का पालन राजाज्ञा के तरह होता था। ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे। 
ठाकरे/ठक्कर/ठाकुर/ठकराल- ठाकुर जी (साकार ईश्वर) को इष्ट माननेवाले, उदड़हों के करण देश के अलग-अलग हिस्सों में बस गए और नाम भेद हो गया। 
दत्त- ईश्वर द्वारा दिया गया, प्रभु कृपया से प्राप्त।    
दयाल- दूसरों के प्रति दया भाव से युक्त।
दास- ईश्वर भक्त, सेवा वृत्ति (नौकरी) करनेवाले।
नारायण- विष्णु भक्त। 
निगम/चित्रचारु- आगम-निगम ग्रंथों के जानकार, उच्च आध्यात्मिक वृत्ति के करण गम (दुख) न करनेवाले। सुंदर काया वाले।  
प्रसाद- ईश्वरीय कृपया से प्राप्त, पवित्र, श्रेष्ठ।। 
फड़नवीस- फड़ = सपाट सतह, नवीस = बनानेवाला, राज्य की समस्याएँ हल कार राजा का काम आसान बनाते थे । ये अधिकतर कायस्थ व ब्राह्मण होते थे। 
बख्शी- जिन्हें बहुमूल्य योगदान के फलस्वरूप शासकों द्वारा जागीरें बख्शीश (ईनाम) के रूप में दी गईं।
ब्योहार- सद व्यवहार वृत्ति से युक्त।
बसु/बोस- बसु की उत्पत्ति वसु अर्थात समृद्ध व तेजस्वी होने से है। 
बहादुर- पराक्रमी।
बिसारिया- यह सक्सेना (शक/संदेहों की सेना/समूह का नाश करनेवाले) मूल नाम (मतिमान = बुद्धिमान) कायस्थों की एक अल्ल (वंशनाम) है। एक बुंदेली कहावत है 'बीती ताहि बिसार दे' अर्थात अतीत के सुख-दुख पर गर्वीय शोक न कर पर्यटन कार आगे बढ़ना चाहिए। जिन्होंने इस नीति वाक्य पर अमल किया उन्हें 'बिसारिया' कहा गया।  
भटनागर/चित्र- सभ्य सुंदर जुझारु योद्धा, देश-समाज के लिए युद्ध करनेवाले। 
महालनोबीस- महाल = महल, नौविस/नौबिस = लेखा-जोखा खने वाला, राजमहल के नियंत्रक लेखाधिकारी। 
माथुर/चारु- मथुरा निवासी, गौरवर्णी सुंदर।
मित्र- विश्वामित्र गोत्रीय कायस्थ जो निष्ठावान मित्र होते हैं। 
मौलिक- बंगाल/उड़ीसावासी कायस्थ जो अपनी मिसाल आप (श्रेष्ठ) थे। 
रंजन - कला निष्णात।
राय- शासकों को राय-मशविरा देनेवाले।
राढ़ी- राढ़ी नदी पार कर बंगाल-उड़ीसा आदि में शासन व्यवस्था स्थापित करनेवाले।
रायजादा- शासकों को बुद्धिमत्तापूर्णराय देनेवाले।
वर्मा- अपने देश-समाज की रक्षा करनेवाले।
वाल्मीकि- महर्षि वाल्मीकि के शिष्य। वाल्मीकि (वल्मीकि, वाल्मीकि) = चींटी/दीमक की बाँबी भावार्थ दीमक की तरह शत्रु का नाश तथा चीटी की तरह एक साथ मिलकर सफल होनेवाले। 
श्रीवास्तव/भानु- वास्तव में श्री (लक्ष्मी) सम्पन्न, सूर्य की तरह ऐश्वर्यवान।
सक्सेना (मतिमान = बुद्धिमान)- शक आक्रमणकारियों की सेनाओं को परास्त करनेवाले पराक्रमी, शक (संदेहों) क सेना/समूह का समाधान कर नाश करने वाले बुद्धिमान।
सहाय- सबकी सहायता हेतु तत्पर रहने वाले।
सारंग- समर्पित प्रेमी, सारंग पक्षी अपने साथी का निधन होने पर खुद भी जान दे देता है।
सूर्यध्वज/विभानु- सूर्यभक्त राजा जिनके ध्वज पर सूर्य अंकित होता था। सूर्य की तरह अँधेरा दूर करनेवाले।  
सेन/सैन- संत अर्थात आध्यात्मिक तथा सैन्य अर्थात शौर्य की पृष्ठभूमिवाले। आन-बयान-शान की तरह नैन-बैन-सैन का प्रयोग होता है।  
शाह/साहा- राजसत्ता युक्त।
***
महासरस्वती ब्रह्मा पाएँ। विष्णु महालक्ष्मी अपनाएँ।१३।
शक्ति वरें शिव, महाकाल हों। यम पूजन करते निहाल हों।१४।

जय-जय चित्रगुप्त परमेश । परमब्रह्म ।।अज सहाय अवतरेउ गुसांई । कीन्हेउ काज ब्रम्ह कीनाई ।।श्रृष्टि सृजनहित अजमन जांचा। भांति-भांति के जीवन राचा ।।अज की रचना मानव संदर । मानव मति अज होइ निरूत्तर ।।भए प्रकट चित्रगुप्त सहाई । धर्माधर्म गुण ज्ञान कराई ।।राचेउ धरम धरम जग मांही । धर्म अवतार लेत तुम पांही ।।अहम विवेकइ तुमहि विधाता । निज सत्ता पा करहिं कुघाता।।श्रष्टि संतुलन के तुम स्वामी । त्रय देवन कर शक्ति समानी ।।पाप मृत्यु जग में तुम लाए। भयका भूत सकल जग छाए ।।महाकाल के तुम हो साक्षी । ब्रम्हउ मरन न जान मीनाक्षी ।।धर्म कृष्ण तुम जग उपजायो । कर्म क्षेत्र गुण ज्ञान करायो ।।राम धर्म हित जग पगु धारे । मानवगुण सदगुण अति प्यारे ।।विष्णु चक्र पर तुमहि विराजें । पालन धर्म करम शुचि साजे ।।महादेव के तुम त्रय लोचन । प्रेरकशिव अस ताण्डव नर्तन ।।सावित्री पर कृपा निराली । विद्यानिधि माँ सब जग आली।।रमा भाल पर कर अति दाया। श्रीनिधि अगम अकूत अगाया ।।ऊमा विच शक्ति शुचि राच्यो। जाकेबिन शिव शव जग बाच्यो ।।गुरू बृहस्पति सुर पति नाथा। जाके कर्म गहइ तव हाथा ।।रावण कंस सकल मतवारे । तव प्रताप सब सरग सिधारे ।।प्रथम् पूज्य गणपति महदेवा । सोउ करत तुम्हारी सेवा ।।रिद्धि सिद्धि पाय द्वैनारी । विघ्न हरण शुभ काज संवारी ।।व्यास चहइ रच वेद पुराना। गणपति लिपिबध हितमन ठाना।।पोथी मसि शुचि लेखनी दीन्हा। असवर देय जगत कृत कीन्हा।।लेखनि मसि सह कागद कोरा। तव प्रताप अजु जगत मझोरा।।विद्या विनय पराक्रम भारी। तुम आधार जगत आभारी।।द्वादस पूत जगत अस लाए। राशी चक्र आधार सुहाए ।।जस पूता तस राशि रचाना । ज्योतिष केतुम जनक महाना ।।तिथी लगन होरा दिग्दर्शन । चारि अष्ट चित्रांश सुदर्शन ।।राशी नखत जो जातक धारे । धरम करम फल तुमहि अधारे।।राम कृष्ण गुरूवर गृह जाई । प्रथम गुरू महिमा गुण गाई ।।श्री गणेश तव बंदन कीना । कर्म अकर्म तुमहि आधीना।।देववृत जप तप वृत कीन्हा । इच्छा मृत्यु परम वर दीन्हा ।।धर्महीन सौदास कुराजा । तप तुम्हार बैकुण्ठ विराजा ।।हरि पद दीन्ह धर्म हरि नामा । कायथ परिजन परम पितामा।।शुर शुयशमा बन जामाता । क्षत्रिय विप्र सकल आदाता ।।जय जय चित्रगुप्त गुसांई। गुरूवर गुरू पद पाय सहाई ।।जो शत पाठ करइ चालीसा। जन्ममरण दुःख कटइ कलेसा।।विनय करैं कुलदीप शुवेशा। राख पिता सम नेह हमेशा ।।दोहाज्ञान कलम, मसि सरस्वती, अंबर है मसिपात्र।कालचक्र की पुस्तिका, सदा रखे दंडास्त्र।।
पाप पुन्य लेखा करन, धार्यो चित्र स्वरूप।श्रृष्टिसंतुलन स्वामीसदा, सरग नरक कर भूप।।

गुरुवार, 15 मई 2025

मई १५, लघुकथा, वस्तुवदनक छंद, सारस छंद, चित्रगुप्त, गोत्र, अल्ल, तितली, आँसू, ओस

सलिल सृजन मई १५
*
दोहा सलिला
संसार
*
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व मय सृष्टि।
ब्रह्म अनाहद नाद है, मूल करे शुभ वृष्टि।।
निराकार, साकार हम, मान पूजते मौन।
चित्र गुप्त हम जानते, नहीं पूछते कौन?
ध्वनि तरंग हो संघनित, बनती कण बिन भार।
भार गहें बोसान कण, मिल रचते संसार।।
कण से बने पदार्थ फिर, होते वे चैतन्य।
जाग्रत होती चेतना, उपजेन जीव अनन्य।।
बिना कोश फिर एक दो, बहुकोशी हों जीव।
जलचर थलचर गगनचर, विकसें सँग अजीव।।
जान न जानें सत्य हम, मान न मानें सत्य।
करते भरते भोगते, तजते नहीं असत्य।।
आ-रह-जा यह चक्र ही, परमेश्वर का खेल।
करें मुक्ति की चाह हम, अपनी गाड़ी ठेल।।
***
लघुकथा:
प्यार ही प्यार
*
'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।'
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
१५-५-२०१६
***
गीत:
आँसू और ओस
*
हम आँसू हैं,
ओस बूँद मत कहिये हमको...
*
वे पल भर में उड़ जाते हैं,
हम जीवन भर साथ रहेंगे,
हाथ न आते कभी-कहीं वे,
हम सुख-दुःख की कथा कहेंगे.
छिपा न पोछें हमको नाहक
श्वास-आस सम सहिये हमको ...
*
वे उगते सूरज के साथी,
हम हैं यादों के बाराती,
अमल विमल निस्पृह वे लेकिन
दर्द-पीर के हमीं संगाती.
अपनेपन को अब न छिपायें,
कभी कहें: 'अब बहिये' हमको...
*
ऊँच-नीच में, धूप-छाँव में,
हमने हरदम साथ निभाया.
वे निर्मोही-वीतराग हैं,
सृजन-ध्वंस कुछ उन्हें न भाया.
हारे का हरिनाम हमीं हैं,
'सलिल' संग नित गहिये हमको...
*
***
दोहा सलिला:
भोजपुरी का रंग - दोहा का संग
.
घाटा के सौदा बनल, खेत किसानी आज
गाँव-गली में सुबह बर, दारू पियल न लाज
.
जल जमीन वन-संपदा, लूटि लेल सरकार
कहाँ लोहिया जी गयल, आज बड़ी दरकार
..
खेती का घाटा बढ़ल, भूखा मरब किसान
के को के की फिकर बा, प्रतिनिधि बा धनवान
.
विपदा भी बिजनेस भयल, आफर औसर जान
रिश्वत-भ्रष्टाचार बा, अफसर बर पहचान
.
घोटाला अपराध बा, धंधा- सेवा नाम
चोर-चोर भाई भयल, मालिक भयल गुलाम
.
दंगा लूट फसाद बर, भेंट चढ़ल इंसान
नेता स्वारथ-मगन बा, सेठ भयल हैवान
.
आपन बल पहचान ले, छोड़ न आपन ठौर
भाई-भाई मिलकर रहल, जी ले आपन तौर
१५-५-२०१५
***
छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि
उदाहरण:
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर
पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में
आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?
सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर
***
सारस  छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति १२-१२, चरणादि विषमक़ल तथा गुरु, चरणांत लघु लघु गुरु (सगण) सूत्र- 'शांति रखो शांति रखो शांति रखो शांति रखो'
विशेष: साम्य- उर्दू बहर 'मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन'
लक्षण छंद:
सारस मात्रा गुरु हो, आदि विषम ध्यान रखें
बारह-बारह यति गति, अन्त सगण जान रखें
उदाहरण:
१. सूर्य कहे शीघ्र उठें, भोर हुई सेज तजें
दीप जला दान करें, राम-सिया नित्य भजें
शीश झुका आन बचा, मौन रहें राह चलें
साँझ हुई काल कहे, शोक भुला आओ ढलें
२. पाँव उठा गाँव चलें, छाँव मिले ठाँव करें
आँख मुँदे स्वप्न पलें, बैर भुला मेल करें
धूप कड़ी झेल सकें, मेह मिले खेल करें
ढोल बजा नाच सकें, बाँध भुजा पीर हरें
३. क्रोध न हो द्वेष न हो, बैर न हो भ्रान्ति तजें
चाह करें वाह करें, आह भरें शांति भजें
नेह रखें प्रेम करें, भीत न हो कांति वरें
आन रखें मान रखें, शोर न हो क्रांति करें
१५-५-२०१४
***
एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म/मृत्यु प्रमाण पत्र बनाया।
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है।
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।
***
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं।
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था। इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है। ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए। आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं।
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा। नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है।
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे।
१५-५-२०११
***
अंतिम गीत
लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है-
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
***
तितलियाँ : कुछ अश'आर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?
कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियों से बाग की रौनक बढ़ी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
१५-५-२०१०
***

बुधवार, 15 मई 2024

मई १५, चित्रगुप्त, कायस्थ, गोत्र, अल्ल, तितली, छंद वस्तुवदनक, छंद सारस, लघुकथा,शेर, गीत

सलिल सृजन मई १५
*
लघुकथा:
प्यार ही प्यार
*
'बिट्टो! उठ, सपर के कलेवा कर ले. मुझे काम पे जाना है. स्कूल समय पे चली जइयों।'
कहते हुए उसने बिटिया को जमीन पर बिछे टाट से खड़ा किया और कोयले का टुकड़ा लेकर दाँत साफ़ करने भेज दिया।
झट से अल्युमिनियम की कटोरी में चाय उड़ेली और रात की बची बासी रोटी के साथ मुँह धोकर आयी बेटी को खिलाने लगी। ठुमकती-मचलती बेटी को खिलते-खिलते उसने भी दी कौर गटके और टिक्कड़ सेंकने में जुट गयी। साथ ही साथ बोल रही थी गिनती जिसे दुहरा रही थी बिटिया।
सड़क किनारे नलके से भर लायी पानी की कसेंड़ी ढाँककर, बाल्टी के पानी से अपने साथ-साथ बेटी को नहलाकर स्कूल के कपडे पहनाये और आवाज लगाई 'मुनिया के बापू! जे पोटली ले लो, मजूरी खों जात-जात मोदी खों स्कूल छोड़ दइयो' मैं बासन माँजबे को निकर रई.' उसमे चहरे की चमक बिना कहे ही कह रही थी कि उसके चारों तरफ बिखरा है प्यार ही प्यार।
१५-५-२०१६
***
छंद सलिला:
वस्तुवदनक छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, पदांत चौकल-द्विकल
लक्षण छंद:
वस्तुवदनक कला चौबिस चुनकर रचते कवि
पदांत चौकल-द्विकल हो तो शांत हो मन-छवि
उदाहरण:
१. प्राची पर लाली झलकी, कोयल कूकी / पनघट / पर
रविदर्शन कर उड़े परिंदे, चहक-चहक/कर नभ / पर
कलकल-कलकल उतर नर्मदा, शिव-मस्तक / से भू/पर
पाप-शाप से मुक्त कर रही, हर्षित ऋषि / मुनि सुर / नर
२. मोदक लाईं मैया, पानी सुत / के मुख / में
आया- बोला: 'भूखा हूँ, मैया! सचमुच में'
''खाना खाया अभी, अभी भूखा कैसे?
मुझे ज्ञात है पेटू, राज छिपा मोदक में''
३. 'तुम रोओगे कंधे पर रखकर सिर?
सोचो सुत धृतराष्ट्र!, गिरेंगे सुत-सिर कटकर''
बात पितामह की न सुनी, खोया हर अवसर
फिर भी दोष भाग्य को दे, अंधा रो-रोकर
***
सारस / छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, प्रति चरण मात्रा २४ मात्रा, यति १२-१२, चरणादि विषमक़ल तथा गुरु, चरणांत लघु लघु गुरु (सगण) सूत्र- 'शांति रखो शांति रखो शांति रखो शांति रखो'
विशेष: साम्य- उर्दू बहर 'मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन मुफ़्तअलन'
लक्षण छंद:
सारस मात्रा गुरु हो, आदि विषम ध्यान रखें
बारह-बारह यति गति, अन्त सगण जान रखें
उदाहरण:
१. सूर्य कहे शीघ्र उठें, भोर हुई सेज तजें
दीप जला दान करें, राम-सिया नित्य भजें
शीश झुका आन बचा, मौन रहें राह चलें
साँझ हुई काल कहे, शोक भुला आओ ढलें
२. पाँव उठा गाँव चलें, छाँव मिले ठाँव करें
आँख मुँदे स्वप्न पलें, बैर भुला मेल करें
धूप कड़ी झेल सकें, मेह मिले खेल करें
ढोल बजा नाच सकें, बाँध भुजा पीर हरें
३. क्रोध न हो द्वेष न हो, बैर न हो भ्रान्ति तजें
चाह करें वाह करें, आह भरें शांति भजें
नेह रखें प्रेम करें, भीत न हो कांति वरें
आन रखें मान रखें, शोर न हो क्रांति करें
१५-५-२०१४
***
एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म प्रमाण पत्र बनाया।
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है।
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।
***
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं।
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था। इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है। ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए। आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं।
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा। नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है।
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे।
१५-५-२०११
***
अंतिम गीत
लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
ओ मेरी सर्वान्गिनी! मुझको याद वचन वह 'साथ रहेंगे'
तुम जातीं क्यों आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
दो अपूर्ण मिल पूर्ण हुए हम सुमन-सुरभि, दीपक-बाती बन.
अपने अंतर्मन को खोकर क्यों रह जाऊँ मैं केवल तन?
शिवा रहित शिव, शव बन जीना, मुझको अंगीकार नहीं है-
प्राणवर्तिका रहित दीप बन जीवन यह स्वीकार नहीं है.
तुमको खो सुधियों की समिधा संग मेरे भी प्राण जलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
नियति नटी की कठपुतली हम, उसने हमको सदा नचाया.
सच कहता हूँ साथ तुम्हारा पाने मैंने शीश झुकाया.
तुम्हीं नहीं होगी तो बोलो जीवन क्यों मैं स्वीकारूँगा?-
मौन रहो कुछ मत बोलो मैं पल में खुद को भी वारूँगा.
महाकाल के दो नयनों में तुम-मैं बनकर अश्रु पलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
*
हमने जीवन की बगिया में मिलकर मुकुलित कुसुम खिलाये.
खाया, फेंका, कुछ उधार दे, कुछ कर्जे भी विहँस चुकाये.
अब न पावना-देना बाकी, मात्र ध्येय है साथ तुम्हारा-
सिया रहित श्री राम न, श्री बिन श्रीपति को मैंने स्वीकारा.
साथ चलें हम, आगे-पीछे होकर हाथ न 'सलिल' मलेंगे.
तुम क्यों जाओ आज अकेली?, लिए हाथ में हाथ चलेंगे....
***
तितलियाँ : कुछ अश'आर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
तितलियाँ जां निसार कर देंगीं.
हम चराग-ए-रौशनी तो बन जाएँ..
*
तितलियों की चाह में दौड़ो न तुम.
फूल बन महको तो खुद आयेंगी ये..
*
तितलियों को देख भँवरे ने कहा.
भटकतीं दर-दर न क्यों एक घर किया?
कहा तितली ने मिले सब दिल जले.
कोई न ऐसा जहाँ जा दिल खिले..
*
पिता के आँगन में खेलीं तितलियाँ.
गयीं तो बगिया उजड़ सूनी हुई..
*
बागवां के गले लगकर तितलियाँ.
बिदा होते हुए खुद भी रो पडीं..
*
तितलियों से बाग की रौनक बढ़ी.
भ्रमर तो बेदाम के गुलाम हैं..
*
'आदाब' भँवरे ने कहा, तितली हँसी.
उड़ गयी 'आ दाब' कहकर वह तुरत..
१५-५-२०१०
***

सोमवार, 15 मई 2023

चित्रगुप्त, कायस्थ, गोत्र, अल्ल



एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...

योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म प्रमाण पत्र बनाया।
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.
'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं।
कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है। 'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं।
वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया।
निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है।
वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।
***
'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं।
स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था। इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है। ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए। आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं।
एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा। नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है।
हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे।
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१५-५-२०११

शनिवार, 15 मई 2021

चित्रगुप्त जयंती

एक प्रश्न-एक उत्तर: चित्रगुप्त जयंती क्यों?...
योगेश श्रीवास्तव 2:45pm May 14
आपके द्वारा भेजी जानकारी पाकर अच्छा लगा . थैंक्स. अब यह बताएं कि चित्रगुप्त जयंती मनाने का क्या कारण है? इस सम्बन्ध में भी कोई प्रसंग है?. थैंक्स.
योगेश जी!
वन्दे मातरम.
चित्रगुप्त जी हमारी-आपकी तरह इस धरती पर किसी नर-नारी के सम्भोग से उत्पन्न नहीं हुए... न किसी नगर निगम ने उनका जन्म प्रमाण पत्र बनाया। 
कायस्थों से द्वेष रखनेवाले ब्राम्हणों ने एक पौराणिक कथा में उन्हें ब्रम्हा से उत्पन्न बताया... ब्रम्हा पुरुष तत्व है जिससे किसी की उत्पत्ति नहीं हो सकती। नव उत्पत्ति प्रकृति (स्त्री) तत्व से होती है.

'चित्र' का निर्माण आकार से होता है. जिसका आकार ही न हो उसका चित्र नहीं बनाया जा सकता... जैसे हवा का चित्र नहीं होता। चित्र गुप्त होना अर्थात चित्र न होना यह दर्शाता है कि यह तत्व निराकार है। हम निराकार तत्वों को प्रतीकों से दर्शाते हैं... जैसे ध्वनि को अर्ध वृत्तीय रेखाओं से या हवा का आभास देने के लिये पेड़ों की पत्तियों या अन्य वस्तुओं को हिलता हुआ या एक दिशा में झुका हुआ दिखाते हैं। 

कायस्थ परिवारों में आदि काल से चित्रगुप्त पूजन में दूज पर एक कोरा कागज़ लेकर उस पर 'ॐ' अंकितकर पूजने की परंपरा है।  'ॐ' परात्पर परम ब्रम्ह का प्रतीक है। सनातन धर्म के अनुसार परात्पर परमब्रम्ह निराकार विराट शक्तिपुंज हैं जिनकी अनुभूति सिद्ध जनों को 'अनहद नाद' (कानों में निरंतर गूंजनेवाली भ्रमर की गुंजार) के रूप में होती है और वे इसी में लीन रहे आते हैं। यही तत्व (ऊर्जा) सकल सृष्टि की रचयिता और कण-कण की भाग्य विधाता या कर्म विधान की नियामक है। सृष्टि में कोटि-कोटि ब्रम्हांड हैं। हर ब्रम्हांड का रचयिता ब्रम्हा, पालक विष्णु और नाशक शंकर हैं किन्तु चित्रगुप्त कोटि-कोटि नहीं हैं, वे एकमात्र हैं... वे ही ब्रम्हा, विष्णु, महेश के मूल हैं। आप चाहें तो 'चाइल्ड इज द फादर ऑफ़ मैन' की तर्ज़ पर उन्हें ब्रम्हा का आत्मज कह सकते हैं। 

वैदिक काल से कायस्थ जन हर देवी-देवता, हर पंथ और हर उपासना पद्धति का अनुसरण करते रहे हैं। वे जानते और मानते रहे कि सभी तत्वों में मूलतः वही परात्पर परमब्रम्ह (चित्रगुप्त) व्याप्त है.... यहाँ तक कि अल्लाह और ईसा में भी... इसलिए कायस्थों का सभी के साथ पूरा ताल-मेल रहा। कायस्थों ने कभी ब्राम्हणों की तरह इन्हें या अन्य किसी को अस्पर्श्य या विधर्मी मान कर उसका बहिष्कार नहीं किया। 

निराकार चित्रगुप्त जी संबंधी कोई मंदिर, कोई चित्र, कोई प्रतिमा, कोई मूर्ति, कोई प्रतीक, कोई पर्व, कोई जयंती, कोई उपवास, कोई व्रत, कोई चालीसा, कोई स्तुति, कोई आरती, कोई पुराण, कोई वेद हमारे मूल पूर्वजों ने नहीं बनाया चूँकि उनका दृढ़ मत था कि जिस भी रूप में जिस भी देवता की पूजा, आरती, व्रत या अन्य अनुष्ठान होते हैं, सब चित्रगुप्त जी के ही एक विशिष्ट रूप के लिए हैं। उदाहरण खाने में आप हर पदार्थ का स्वाद बताते हैं पर सबमें व्याप्त जल (जिसके बिना कोई व्यंजन नहीं बनता) का स्वाद अलग से नहीं बताते, यही भाव था... कालांतर में मूर्ति पूजा का प्रचलन बढ़ने और विविध पूजा-पाठों, यज्ञों, व्रतों से सामाजिक शक्ति प्रदर्शित की जाने लगी तो कायस्थों ने भी चित्रगुप्त जी का चित्र व मूर्ति गढ़कर जयंती मानना शुरू कर दिया। यह सब विगत ३०० वर्षों के बीच हुआ जबकि कायस्थों का अस्तित्व वेद पूर्व आदि काल से है। 

वर्तमान में ब्रम्हा की काया से चित्रगुप्त के प्रगट होने की अवैज्ञानिक, काल्पनिक और भ्रामक कथा के आधार पर यह जयंती मनाई जाती है जबकि चित्रगुप्त जी अनादि, अनंत, अजन्मा, अमरणा, अवर्णनीय हैं। आंशिक सत्य के कई रूप होते हैं। इनमें सामाजिक सत्य भी है। वर्तमान में चित्रगुप्त संबंधी प्रगति कथा, मंदिर, मूर्ति, व्रत, चालीसा, आरती तथा जयंती को सामाजिक या पौराणिक सत्य कहा जा सकता है किन्तु यह आध्यात्मिक या वैज्ञानिक सत्य नहीं है।   
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'गोत्र' तथा 'अल्ल'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न अखिल भारतीय कायस्थ महासभा तथा राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते रहे हैं। 

स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था।  इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ। ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए।इसी कारण एक गोत्र वर्तमान में विभिन्न जातियों (जन्मना) में गोत्र मिलता है।  ऋषि के पास विविध जातियों (वर्णानुसार) के शिष्य अध्ययन करने पहुँचते थे। महाभारत काल में ड्रोन, परशुराम आदि के शिष्य विविध जातियों, व्यवसायों, पदों के रहे। आजकल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रॉबर्टसन कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए।  आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं।शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे। अतः, सामान्यत: उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था। कुछ अपवाद भी रहे हैं। 

एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं। 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से संबंधित होता है। कायस्थों को राजनैतिक कारणों से निरंतर पलायन करना पड़ा।  नए स्थानों पर उन्हें उनकी योग्यता के कारण आजीविका साधन तो मिल गए किन्तु स्थानीय समाज ने इन नवागंतुकों के साथ विवाह संब्न्धिओं में रूचि नाहने ली, फलत: कायस्थों को पूर्व परिचित परिवारों (दूर के संबंधियों) में विवाह करने पड़े। इस करम एक गोत्र में विवाह न करने का नियम प्रचलन में न रह सका, तब एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित माना जाने लगा। आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते। सामाजिक ढाँचा नष्ट हो जाने के कारण अंतर्जातीय विवाहों का प्रचलन बढ़ रहा है। 

हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं। हमारी अल्ल 'उमरे' है। मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति (श्री रामकुमार वर्मा आत्मज स्व. जंगबहादुर वर्मा, छिंदवाड़ा) मिला है। मेरे फूफा जी स्व, जगन्नाथ प्रसाद वर्मा की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है। उनके पूर्वजों में से कोई बैरकपुर (बंगाल) के भद्र परिवार से होंगे जो किसी कारण से नागपुर जा बसे थे। 
***
१५-५-२०११ 

रविवार, 21 फ़रवरी 2010

सामाजिक प्रश्न: एक चिंतन ---आचार्य संजीव 'सलिल'

'गोत्र' तथा 'अल्ल' 


'गोत्र' तथा 'अल्ल' के अर्थ तथा महत्व संबंधी प्रश्न राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद् का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के नाते मुझसे पूछे जाते हैं.

स्कन्दपुराण में वर्णित श्री चित्रगुप्त प्रसंग के अनुसार उनके बारह पुत्रों
को बारह ऋषियों के पास विविध विषयों की शिक्षा हेतु भेजा गया था. इन से ही कायस्थों की बारह उपजातियों का श्री गणेश हुआ. ऋषियों के नाम ही उनके शिष्यों के गोत्र हुए. इसी कारण विभिन्न जातियों में एक ही गोत्र मिलता है चूंकि ऋषि के पास विविध जाती के शिष्य अध्ययन करते थे. आज कल जिस तरह मॉडल स्कूल में पढ़े विद्यार्थी 'मोडेलियन' रोबेर्त्सों कोलेज में पढ़े विद्यार्थी 'रोबर्टसोनियन' आदि कहलाते हैं, वैसे ही ऋषियों के शिष्यों के गोत्र गुरु के नाम पर हुए. आश्रमों में शुचिता बनाये रखने के लिए सभी शिष्य आपस में गुरु भाई तथा गुरु बहिनें मानी जाती थीं. शिष्य गुरु के आत्मज (संततिवत) मान्य थे. अतः, उनमें आपस में विवाह वर्जित होना उचित ही था.

एक 'गोत्र' के अंतर्गत कई 'अल्ल' होती हैं. 'अल्ल' कूट शब्द (कोड) या पहचान चिन्ह है जो कुल के किसी प्रतापी पुरुष, मूल स्थान, आजीविका, विशेष योग्यता, मानद उपाधि या अन्य से सम्बंधित होता है. एक 'अल्ल' में विवाह सम्बन्ध सामान्यतया वर्जित मन जाता है किन्तु आजकल अधिकांश लोग अपने 'अल्ल' की जानकारी नहीं रखते. 


हमारा गोत्र 'कश्यप' है जो अधिकांश कायस्थों का है तथा उनमें आपस में विवाह सम्बन्ध होते हैं. हमारी अल्ल 'उमरे' है. मुझे इस अल्ल का अब तक केवल एक अन्य व्यक्ति मिला है. मेरे फूफा जी की अल्ल 'बैरकपुर के भले' है. उनके पूर्वज बैरकपुर से नागपुर जा बसे थे .
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