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शनिवार, 6 सितंबर 2025

सितंबर ५, फुलबगिया, शिक्षक, दोहा, सॉनेट, पुनरुक्ति अलंकार, प्रातस्मरण स्तोत्र, नवगीत

ॐ  
* विश्ववाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर *
* समन्वय प्रकाशन जबलपुर *
कृति चर्चा : 'फुलबगिया' साझा संकलन
पर्यटन चर्चा : श्रीलंका यात्रा में साहित्यकार
दिनाँक- १६.९.२०२५ मंगलवार, समय- शाम ५ बजे
स्थान जानकी रमण महाविद्यालय, आगा चौक, जबलपुर
हिंदी साहित्य में पहली बार १२१ फूलों पर ७७ रचनाकारों की २७० रचनाओं के साझा संकलन फुलबगिया तथा संस्कारधानी के साहित्यकारों द्वारा श्रीलंका पर्यटन संबंधी विमर्श वार्ता में सभी सुहृद जन सादर आमंत्रित हैं।

अध्यक्ष- डॉ. मुकुल तिवारी।
मुख्य अतिथि- डॉ. रोहित मिश्रा।

वक्ता एवं कवि :

इं. दुर्गेश ब्योहार 'दर्शन', श्रीमती साधना साहू, डॉ. सुरेंद्र साहू।
डॉ. अनामिका तिवारी, अनुराधा गर्ग 'दीप्ति', अल्पना श्रीवास्तव, अविनाश ब्योहार, अश्विनी पाठक, अस्मिता शैली, उमेश साहू 'ओज', काली दास ताम्रकार, छाया सक्सेना 'प्रभु', प्रकाश चंद्र अग्रवाल, मदन श्रीवास्तव, मनोहर चौबे 'आकाश', मीना भट्ट, यतिश जैन, क्षिप्रा सेन, डॉ. शोभा सिंह।
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* उमेश साहू 'ओज' संचालक==मनोहर चौबे 'आकाश' संयोजक == बसंत शर्मा अध्यक्ष == आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' सभापति * 

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फुलबगिया विमोचित

रामबोड़ा श्रीलंका, ३० अगस्त २०२५। संस्कारधानी की भजनीक स्व. शांति देवी वर्मा की कृति राम नाम सुखदाई', भजन गायक दुर्गेश ब्यौहार लिखित 'रामायण भजनावली' तथा आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' द्वारा संपादित १२१ फूलों पर ७७ ओं की २७० रचनाओं का साझा संकलन 'फुलबगिया' का लोकार्पण, 'अशोक वाटिका' में, हनुमान जी के पवित्र पगचिन्ह के निकट, सीता नदी के पवित्र सलिल प्रवाह के मध्य हिंदीविद प्रोफेसर अर्जुन चव्हाण की अध्यक्षता, मुख्य अतिथि प्रो. प्रदीप सिंह के मुख्यातिथ्य, आचार्य इं. संजीव वर्मा 'सलिल', इं. दुर्गेश ब्योहार 'दर्शन', प्रो. वीणा सिंह, प्रो. सतीश कनौजिया की विशेष उपस्थिति में संपन्न हुआ। सांस्कृतिक शोध संस्थान मुंबई तथा विश्व वाणी हिंदी संस्थान अभियान जबलपुर के संयुक्त तत्वावधान में संपन्न इस अंतर्राष्ट्रीय सारस्वत अनुष्ठान में मारिशस से पधारे दंपत्ति डॉ. ज्ञान धनुक चंद-डॉ. मिला धनुकचंद, डॉ. शीरीन कुरेशी इंदौर, हुस्न तबस्सुम 'निहां' मुंबई, प्रो. ऊषा शाह कोलकाता, ललित सिंह ठाकुर भाटापारा, डॉ. सुरेन्द्र साहू-श्रीमती साधना साहू जबलपुर, आनंद श्रीवास्तव-श्रीमती पूनम श्रीवास्तव प्रयागराज, प्रो. गोविंद 'निर्मल' मुंबई, श्री कालिका प्रसाद सेमवाल-श्रीमती बसंती सेमवाल गढ़वाल की सहभागिता उल्लेखनीय रही।

सलिल सृजन सितंबर ५
*
अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानांजन शलाकया.
चक्षुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरूवे नम:
.
अज्ञान के तिमिर में ले ज्ञान की शलाका
जो आँख खोल देता उस गुरु को नमन है
*
सलिल दोहावली
शिक्षक
शिक्षक का वंदन करें, श्रद्धा सहित हमेश।
सीख सीख आगे बढ़ें, नर से बनें नरेश।।
शिक्षक ने शिक्षित किया, सबको एक समान।
हंस-काग दोनों पढ़े, किंतु रहे असमान।।
शिक्षक को सम्मान दे, सम्मानित हो छात्र।
वह गुड़ यह शक्कर बने, रहे न छाया मात्र।।
शिक्षक जो सिखला रहा, सीख सका क्या आप?
खुद से खुद ही प्रश्न कर, ले गहराई नाप।।
शिक्षक गुरु हो सके तो, शिष्य बनें भगवान।
गहते चरण सुरेश भी, भू पर बन इंसान।।
शिक्षक टीचर है नहीं, करता सिर्फ न टीच।
प्रीचर मत कहिए उसे, करे न केवल प्रीच।।
शिक्षक देता शिष्य को, सत्य सनातन सीख।
सबके जैसा है मगर, सबसे बेहतर दीख।।
शिक्षक भी इंसान हैं, यह सच कभी न भूल।
शोषित हो तो शिष्य का, कर भविष्य दे धूल।।
अति उत्तम आचार कर, शिक्षक हो आचार्य।
चीरे तम प्राचीर बन, रवि तो हो प्राचार्य।।
करे अध्ययन आप फिर, अध्यापन में लीन।
जो हो अध्यापक वही, दे दे हो नहिं दीन।।
शिक्षक से जो सीख ली, सिखलाएँ भी आप।
साथ न लेकर जाइए, ज्ञान सके जग व्याप।।
५.९.२०२४
•••
मुक्तक
तिमिर हरकर भोर करती है अरुणिमा।
शांत रहती, शोर नहिं करती अरुणिमा।।
जागरण संदेश देकर नित जगाती-
सकल जग को मुदित करती है अरुणिमा।।
•••
कुंडलिया
शक-सेना का अंत कर, वर श्रद्धा-विश्वास।
सक्सेस सक्सेना वरें, तम हर करें उजास।।
तम हर करें उजास, सुसंतति चित्रगुप्त की।
करते कठिन प्रयास, साधना ज्ञान लुप्त की।।
कहें सलिल कविराय, नियति से कभी डरे ना।
सक्सेना थे वीर, पराजित की शक सेना।।
५.९.२०२४
सॉनेट
नेता
*
मन की बात करे हर नेता,
जन की बात न उसको भाती,
वादे कर जुमला कह देता,
अच्छी लगती ठकुरसुहाती।
खुद विपक्ष से नफरत करता,
कहता 'वे नफरत करते हैं',
मिलने आएँ गले; न मिलता,
कहता ठठा 'गले पड़ते हैं'।
अंधभक्त जयकार गुँजाते,
चमचे चारण विरुद सुनाते,
'हुआ; न होगा' कह उकसाते,
अपनी छवि पर आप लुभाते।
खोई सत्ता क्रय कर लेता।
हारे तो भी बने विजेता।।
५-९-२०२३
***
सॉनेट
शिक्षक दिवस
नित्य नया सीखिए,
नित्य नव सिखाइए,
अग्रगण्य दीखिए,
राह नव दिखाइए।
अंधकार को गले,
दीप बन लगाइए,
दें प्रकाश गर ढले,
भोर रवि उगाइए।
बने क्षर अक्षर सभी,
शब्द नित सिखाइए,
भाव बिंब रस नदी,
नर्मदा बहाइए।
जीवन को जिताइए।
सजीवित बनाइए।।
५-९-२०२३
शिक्षक दिवस
•••
सॉनेट
शिक्षक
शिक्षक सब कुछ रहे सिखाते
हम ही सीख नहीं कुछ पाए
खोटे सिक्के रहे भुनाते
धन दे निज वंदन करवाए
मितभाषी गुरु स्वेद बहाते
कंकर से शंकर गढ़ पाए
हम ढपोरशंखी पछताते
आपन मुख आपन जस गाए
गुरु नेकी कर रहे भुलाते
हमने कर अहसान जताए
गुरु बन दीपक तिमिर मिटाते
हमने नाते-नेह भुनाए
गुरु पग-रज यदि शीश चढ़ाते
आदम हैं इंसान कहाते
५-९-२०२२
***
अलंकार सलिला
पुनरुक्ति अलंकार
*
पुनरुक्ति अथवा वीप्सा अलङ्कार में काव्य अथवा वाक्य में एक ही शब्द किसी भाव को पुष्ट करने के लिए उसी अर्थ में बार-बार प्रयोग किया जाता है। यथा इस अलङ्कार को परिभाषित करते हुए मेरा 'बार-बार' का उसी अर्थ में प्रयोग पुनरुक्ति है।
यह संस्कृत श्लोक वीप्सा अलङ्कार का सुन्दर उदाहरण है :
शैले-शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे-गजे।
साधवो न हि सर्वत्रं, चन्दनं न वने-वने ॥
इस अलङ्कार के तीन भेद हैं, और उन भेदों में भी सूक्ष्म विभेद हैं।
१. पूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार - पूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार में एक ही शब्द उसी रूप में दोबारा प्रयोग किया जाता है। इसके ७ भेद हैं :
१.१ सञ्ज्ञा पूर्ण पुनरुक्ति - जिसमें सञ्ज्ञा शब्दों की पुनरावृत्ति होती है। साहिर लुधियानवी का लिखा, रवि का संगीतबद्ध किया और आशा भोंसले का गाया नीलकमल का यह गीत जिसमें रोम शब्द की पुनरुक्ति हुई है :
हे रोम रोम में बसने वाले राम
हे रोम रोम में बसने वाले राम
जगत के स्वामी हे अंतर्यामी
मै तुझसे क्या माँगू?
१.२ सर्वनाम पूर्ण पुनरुक्ति — जिसमें सर्वनाम शब्दों की पुनरावृत्ति होती है। जैसे, जी एम दुर्रानी के गाए कमर जलालाबादी के लिखे पण्डित अमरनाथ तथा हुस्नलाल-भगतराम के संगीत निर्देशन में मिर्जा-साहिबान (१९४७) का यह गीत जिसमें सर्वनाम शब्द 'कहाँ-कहाँ' पूर्ण पुनरुक्ति हुई है।
खायेगी ठोकरें ये जवानी कहाँ-कहाँ -२
बदनाम होगी मेरी कहानी कहाँ-कहाँ -२
ओ रोने वाले अब तेरा दामन भी फट गया -२
पहुँचेगी आँसुओँ की रवानी कहाँ-कहाँ -२
खायेगी ठोकरें ये जवानी कहाँ-कहाँ
जिस बाग़ पर निगाह पड़ी वो उजड़ गया -२
बरसाऊँ अपनी आँख का पानी कहाँ-कहाँ -२
खायेगी ठोकरें ये जवानी कहाँ-कहाँ
१.३ विशेषण पूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार का प्रयोग 'जाने-अनजाने' (१९७१) के लता मंगेशकर और मुहम्मद रफी के गाए, शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में हसरत जयपुरी के लिखे इस गीत में 'नीली नीली' शब्द का आँखों के विशेषण के रूप में प्रयोग
तेरी नीली नीली आँखों के
दिल पे तीर चल गए
चल गए चल गए चल गए
ये देख के दुनियावालों के
दिल जल गए
जल गए जल गए जल गए
१.४ क्रिया-विशेषण पुनरुक्ति अलङ्कार - क्रिया-विशेषण पुनरुक्ति प्रयोग 'झूम झूम' के रूप में 'अंदाज़' में नौशाद के संगीत निर्देशन में मुकेश के गाए इस गीत में देखा जा सकता है। इस गीत में सञ्ज्ञा 'आज' तथा क्रिया 'नाचो' की भी पुनरुक्ति है। यह गीत मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखा है।
झूम झूम के नाचो आज नाचो आज
गाओ खुशी के गीत हो
गाओ खुशी के गीत
आज किसी की हार हुई है,
आज किसी की जीत हो
गाओ खुशी के गीत हो
१.५ विस्मयादिबोधक पुनरुक्ति अलङ्कार का प्रयोग 'रामा रामा' के अनूठे प्रयोग से 'नया जमाना' (१९७१) लता मंगेशकर के गाए इस गीत में देखा जा सकता है। संगीतकार सचिन देव बर्मन तथा गीतकार आनन्द बख्शी हैं।
हाय राम
रामा रामा गजब हुई गवा रे
रामा रामा गजब हुई गवा रे
हाल हमारा अजब हुई गवा रे
रामा रामा गजब हुई गवा रे
१.६ विभक्ति सहित पुनरुक्ति, इसमें पुनरुक्त शब्दों के मध्य में विभक्ति शब्द होता है। जैसे कि 'सन्त ज्ञानेश्वर' (१९६४) फिल्म के लिए मुकेश तथा लता मंगेशकर के गाए इस गीत में शब्दों की पुनरावृत्ति के बीच विभक्ति सूचक शब्द 'से' का प्रयोग हुआ है। गीतकार भरत व्यास हैं तथा संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का है।
ज्योत से ज्योत जगाते चलो,
ज्योत से ज्योत जगाते चलो
प्रेम की गंगा बहाते चलो,
प्रेम की गंगा बहाते चलो
राह में आये जो दीन दुखी,
राह में आये जो दीन दुखी
सब को गले से लगते चलो,
प्रेम की गंगा बहाते चलो
१.७ क्रिया पुनरुक्ति का प्रयोग भी कुछ गीतों में देखा जा सकता है। जैसे कि हेमन्त कुमार तथा लता मंगेशकर के गाए इस गीत में क्रिया और क्रिया-विशेषण दोनों ही की पुनरावृत्ति होती है। पायल(१९५७) के इस गीत के गीतकार राजेन्द्र कृष्ण तथा संगीतकार हेमन्त कुमार स्वयं ही हैं
चलो चले रे सजन धीरे धीरे
बलम धीरे धीरे सफर है प्यार का
खोई खोई है यह रात रंगीली
नजर है नशीली समां इकरार का
२. अपूर्ण पुनरुक्ति - इसके ३ प्रकार हैं।
२.१ दो सार्थक सानुप्रास शब्दों का मेल, यह शब्द सञ्ज्ञा, क्रिया, विशेषण, क्रिया-विशेषण कुछ भी हो सकते हैं। 'मिस इण्डिया' फिल्म के इस गीत में विभक्ति सहित सानुप्रास सञ्ज्ञा तथा सर्वनाम शब्दों का प्रयोग देखा जा सकता है। राजेन्द्र कृष्ण के गीत को सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में शमशाद बेगम ने यह गीत गाया है।
है जैसे को तैसा
नहले पे दहला
दुनिया का प्यारे
असूल है ये पहला
जैसे को तैसा
नहले पे दहला
२.२ दो निरर्थक शब्दों की पुनरुक्ति से, जैसे खटा खट, झटा झट, फटाफट, फट फट, लाटू बाकू आदि इसका उदाहरण नीचे दिया गया है। जैसे किशोर कुमार और शमशाद बेगम के गाए इस गीत में अपूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार का बहुतायत से प्रयोग हुआ है, और अनेक स्थानों पर सार्थक अथवा निरर्थक शब्दों का मेल दिखता है। प्रेम धवन के लिखे गीत को मदनमोहन ने संगीत दिया है फिल्म है 'अदा' (१९५१)।
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
मैं उँचे सुरों में गाऊँ
मैं तुमसे भी उँचा जाऊँ
होय मैं उँचे सुरों में गाऊँ
अजि मैं तुमसे भी उँचा जाऊँ
सा रे गा
रे गा मा
गा मा पा
मा पा धा
पा धा नि
धा नि पा
नि सा रे ए ए ए
सा रे गा रे गा मा गा मा पा
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
मैं झट पट झटा पट बोलूं
मैं फट फट फटा फट बोलूं
मैं झट पट झटा पट बोलूं
मैं फट फट फटा फट बोलूं
झट पट झट पट
फट फट फट फट
झट पट झट पट
फट फट फट फट
झट पट झट पट
फट फट फट फट
झट पट झट पट
फट फट फट फट
झट फट झट फट
फट फट फट फट ट्र्र्रर्र्र
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
जो तुम करो मैं कर सकता हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकती हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
मैं धीरे धीरे बोलूँ
मैं तुमसे भी धीरे बोलूँ
मैं धीरे धीरे बोलूँ
मैं तुमसे भी धीरे बोलूँ
आओ दिल की बात करें
आप हमसे दूर रहें
हम तुम पे मरते हैं
हम तुमसे डरते हैं
हम जान लुटाते हैं
हम जान छुडाते हैं
हम दिल के
तुम दिल के खोटे हो
बेपेंदी के लोटे हो
डबल रोटे हो
तुम बहुत ही मोटे हो
ओएँऽऽऽऽ
आँऽऽऽऽ
जो तुम करो मैं कर सकती हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकता हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
जो तुम करो मैं कर सकती हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
मैं कर सकता हूँ तुमसे भी बढ़ चढ़ के बढ़ चढ़ के
मैं मीठा मीठा गाऊँ
मैं तुमसे भी मीठा गाऊँ
मैं मीठा मीठा गाऊँ
मैं तुमसे भी मीठा गाऊँ
जिया बेक़रार है
छाई बहार है
आजा मोरे बालमा
तेरा इंतेज़ार है
जिया बेक़रार है
छाई बहार है
आजा मोरे बालमा
बालम आए बसो मोरे मन मै बा आ आ आऽऽऽऽ
जो तुम करो मैं कर सकती हूँ बढ़ के अजी बढ़ के
तुम कर सकती हो मुझसे भी बढ चढ के बढ चढ के
जो तुम करो मैं कर सकती हूँ बढ़ के बढ चढ के
तुम कर सकती हो मुझसे भी बढ चढ के बढ चढ के
बढ चढ के बढ चढ के
२.३ एक सार्थक और एक निरर्थक शब्द की पुनरुक्ति से, उदाहरणार्थ गोल-माल, गोल-मोल-झोल आदि। 'हाफ-टिकट' में किशोर कुमार के गाए, सलिल चौधरी के संगीत में सजे इस गीत में अपूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार के सभी रूपों का आनन्द लिया जा सकता है।
या या या ब ग या युं या ब ग उन
आ रहे थे इस्कूल से रास्ते में हमने देखा
एक खेल सस्ते में
क्या बेटा क्या आन मान
चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह अरे वाह वाह वाह
चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह अरे वाह वाह वाह वाह
होय लाटू बाकू ओ बाकू
होय लाटू बाकू ओ बाकू
छुक-छुक-छुक चली जाती है रेल
छुक-छुक-छुक चली जाती है रेल
छुप-छुप-छुप तोता-मैना का मेल
प्यार की पकौड़ी, मीठी बातों की भेल
प्यार की पकौड़ी, मीठी बातों की भेल
थोड़ा नून, थोड़ी मिर्च, थोड़ी सूँठ, थोड़ा तेल
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह बोल
चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए अरे वाह रे बेटा
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
गोल-मोल-झोल मोटे लाला शौकीन
गोल-मोल-झोल मोटे लाला शौकीन
तोंद में छुपाए हैं चिराग़-ए-अलादीन
तीन को हमेशा करते आए साढ़े-तीन
तीन को हमेशा करते आए साढ़े-तीन
ज़रा नाप, ज़रा तोल, इसे लूट, उससे छीन
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह
चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
होय लाटू बाकू ओ बाकू
होय लाटू बाकू ओ बाकू
होय लाटू बाकू ओ बाकू
कोई मुझे चोर कहे कोई कोतवाल
कोई मुझे चोर कहे कोई कोतवाल
किसपे यक़ीन करूँ मुश्किल सवाल
दुनिया में यारो है बड़ा-ही गोलमाल
दुनिया में यारो है बड़ा-ही गोलमाल
कहीं ढोल, कहीं पोल, सीधी बात टेढ़ी चाल
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह
अरे चील चिल चिल्लाके कजरी सुनाए
झूम-झूम कौवा भी ढोलक बजाए
अरे वाह वाह वाह, अरे वाह वाह वाह
अरे वाह वाह वाह वाह अरे वाह वाह वाह वाह
उन बाबा मन की आँखें खोल
३. अनुकरणात्मक पुनरुक्ति अलङ्कार, इसमें किसी वस्तु की कल्पित ध्वनि को आधारित कर बने शब्दों का प्रयोग करते हैं। जैसे, रेल के लिए 'छुक छुक' (पिछले गीत में), बरसात के लिए 'रिमझिम', 'झमाझम', मेंढक की 'टर्र-टर्र', घोड़े की 'हिनहिन' आदि। इसमें सार्थक-निरर्थक किसी भी प्रकार के शब्द हो सकते हैं। जैसे मनोज कुमार की फिल्म 'यादगार' (१९७०) के इस गीत का मुखड़ा, वर्मा मलिक के इस गीत को कल्याणजी-आनंदजी ने सुरों में सजाया है और महेन्द्र कपूर ने गाया है।
एक तारा बोले तुन तुन
क्या कहे ये तुमसे सुन सुन
एक तारा बोले तुन तुन
क्या कहे ये तुमसे सुन सुन
बात है लम्बी मतलब गोल
खोल न दे ये सबकी पोल
तो फिर उसके बाद
एक तारा बोले
तुन तुन सुन सुन सुन
एक तारा बोले तुन तुन
क्या कहे ये तुमसे सुन सुन
एक तारा बोले
तुन तुन तुन तुन तुन
और अन्त में इस गीत में भी अपूर्ण पुनरुक्ति अलङ्कार का पूर्ण आनन्द लें
ईना मीना डीका, डाइ, डामोनिका
माका नाका नाका, चीका पीका रीका
ईना मीना डीका डीका डे डाइ डामोनिका
माकानाका माकानाका चीका पीका रोला रीका
रम्पम्पोश रम्पम्पोश
विशेष टिप्पणी - वीप्सा अलङ्कार के समान ही यमक अलङ्कार में शब्दों की पुनरावृत्ति होती है, किन्तु इनमें अन्तर यह है कि वीप्सा / पुनरुक्ति अलङ्कार में शब्द का अर्थ एक ही होता है, किन्तु यमक अलङ्कार में स्थान के अनुसार शब्द का अर्थ परिवर्तित हो जाता है। जैसे आशा भोंसले के गाए 'सौदागर' (१९७३) के इस गीत में सजना दो अर्थों में प्रयोग किया गया है, यह यमक अलङ्कार का उत्तम उदाहरण है। गीत और संगीत दोनों रवीन्द्र जैन के हैं।
सजना है मुझे सजना के लिए
सजना है मुझे सजना के लिए
ज़रा उलझी लटें सँवार लूँ
हर अंग का रंग निखार लूँ
के सजना है मुझे सजना के लिए
सजना है मुझे सजना के लिए
*
***
सरस्वती वंदना
लेखनी ही साध मेरी,लेखनी ही साधना हो।
तार झंकृत हो हृदय के,मात! तेरी वंदना हो।
शक्ति ऐसी दो हमें माँ,सत्य लिख संसार का दूँ।
सार समझा दूँ जगत का,ज्ञान बस परिहार का दूँ।
आन बैठो नित्य जिह्वा,कंठ में मृदु राग भर दो-
नाद अनहद बज उठे उर,प्राण निर्मल भावना हो।
काव्य हो अभिमान मेरा,तूलिका पहचान मेरी।
छंद रंगित पृष्ठ शोभित,वंद्य कूची शान मेरी।
छिन भले लो साज सारे,पर कलम को धार दो माँ-
मसि धवल शुचि नीर लेकर,अम्ब!तेरी अर्चना हो।
लिख सकूँ अरमान सारे,रच सकूँ इतिहास स्वर्णिम।
ठूँठ पतझर के हृदय पर,रख सकूँ मधुमास स्वर्णिम।
शब्द अभिधा अर्थ अभिनव,रक्त कणिका में घुला दो-
शारदे! निज कर बढ़ा दो,शुभ चरण आराधना हो।
लेखनी ही साध मेरी,लेखनी ही साधना हो।
तार झंकृत हो हृदय के,मात! तेरी वंदना हो।
५-९-२०१९
***
नव गीत
*
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
नियम व्यवस्था का
पालन हम नहीं करें,
दोष गैर पर-
निज, दोषों का नहीं धरें।
खुद क्या बेहतर
कर सकते हैं, वही करें।
सोचें त्रुटियाँ कितनी
कहाँ सुधारी हैं?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
भाँग कुएँ में
घोल, हुए मदहोश सभी,
किसके मन में
किसके प्रति आक्रोश नहीं?
खोज-थके, हारे
पाया सन्तोष नहीं।
फ़र्ज़ भुला, हक़ चाहें
मति गई मारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
एक अँगुली जब
तुम को मैंने दिखलाई।
तीन अंगुलियाँ उठीं
आप पर, शरमाईं
मति न दोष खुद के देखे
थी भरमाई।
सोचें क्या-कब
हमने दशा सुधारी है?
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
जैसा भी है
तन्त्र, हमारा अपना है।
यह भी सच है
बेमानी हर नपना है।
अँधा न्याय-प्रशासन,
सत्य न तकना है।
कद्र न उसकी
जिसमें कुछ खुद्दारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
कौन सुधारे किसको?
आप सुधर जाएँ।
देखें अपनी कमी,
न केवल दिखलायें।
स्वार्थ भुला,
सर्वार्थों की जय-जय गायें।
अपनी माटी
सारे जग से न्यारी है।
देश हमारा है
सरकार हमारी है,
क्यों न निभायी
हमने जिम्मेदारी है?
*
११-८-२०१६
***
आदरणीय श्री संजीव सलिल जी के सम्मान में सादर समीक्षाधीन एक मुक्तक ।
= = = = = = = = = = = = = = = = = = = = = = = = =
कभी उसके मुकदमों में, वकालत हो नहीें सकती ।
कहे कोई भले उसकी, खिलाफत हो नहीें सकती ।
भले हो देर ही लेकिन, सदा वह न्याय करता है,
बड़ी उससे जमाने में, अदालत हो नहीें सकती ।
४-९-२०१६
गीतकार राजवीर सिंह
सबलगढ़ ( मुरैना ) म.प्र
फोन - 9827856799
***
प्रातस्मरण स्तोत्र (दोहानुवाद सहित) -संजीव 'सलिल'
II ॐ श्री गणधिपतये नमः II
*
प्रात:स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिंदूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मं
उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्दवन्द्यं
*
प्रात सुमिर गणनाथ नित, दीनस्वामि नत माथ.
शोभित गात सिंदूर से, रखिये सिर पर हाथ..
विघ्न-निवारण हेतु हों, देव दयालु प्रचण्ड.
सुर-सुरेश वन्दित प्रभो!, दें पापी को दण्ड..
*
प्रातर्नमामि चतुराननवन्द्यमान मिच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानं.
तं तुन्दिलंद्विरसनाधिप यज्ञसूत्रं पुत्रं विलासचतुरं शिवयो:शिवाय.
*
ब्रम्ह चतुर्मुखप्रात ही, करें वन्दना नित्य.
मनचाहा वर दास को, देवें देव अनित्य..
उदर विशाल- जनेऊ है, सर्प महाविकराल.
क्रीड़ाप्रिय शिव-शिवासुत, नमन करूँ हर काल..
*
प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोक दावानलं गणविभुंवर कुंजरास्यम.
अज्ञानकाननविनाशनहव्यवाह मुत्साहवर्धनमहं सुतमीश्वरस्यं..
*
जला शोक-दावाग्नि मम, अभय प्रदायक दैव.
गणनायक गजवदन प्रभु!, रहिए सदय सदैव..
*
जड़-जंगल अज्ञान का, करें अग्नि बन नष्ट.
शंकर-सुत वंदन नमन, दें उत्साह विशिष्ट..
*
श्लोकत्रयमिदं पुण्यं, सदा साम्राज्यदायकं.
प्रातरुत्थाय सततं यः, पठेत प्रयाते पुमान..
*
नित्य प्रात उठकर पढ़े, त्रय पवित्र श्लोक.
सुख-समृद्धि पायें 'सलिल', वसुधा हो सुरलोक..
***
***
नवगीत:
*
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
*
गड्ढों की
गिनती मत कर
मत खोज सड़क.
रुपया माँगे
अगर सिपाही
नहीं भड़क.
पैडल घुमा
न थकना-रुकना
बढ़ना है.
खड़ी चढ़ैया
दम-ख़म साधे
चढ़ना है.
बहा पसीना
गमछा लेकर
पोंछ, न रुक.
रामभरोसे!
बढ़ता चल
सुन सूरज की
बात: 'कीमती
है हर पल.'
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
*
बचुवा की
लेना किताब,
पैसे हैं कम.
खाँस-खाँस
अम्मा की आँखें
होतीं नम.
चाब न पाते
रोटी, डुकर
दाँत टूटे.
धुतिया फ़टी
पहन घरनी
चुप, सुख लूटे.
टायर-ट्यूब
बदल, खालिस
सपने मत बुन.
चाय-समोसे
गटक,
सवारी बैठा,
खाली हाथ
न मल.
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
*
डिजिटल-फिजिटल
काम न कुछ भी
आना है.
बिटिया को
लोटा लेकर ही
जाना है.
मुई सियासत
अपनेपन में
आग लगा.
दगा दे गयी
नहीं किसी का
कोई सगा.
खाली खाता
ठेंगा दिखा
चिढ़ाता है.
अच्छा मन
कब काम
कभी कुछ
आता है?
अच्छे दिन,
खा खैनी,
रिक्सा खींच
सम्हाल रे!
नहीं फिसल।
राम भरोसे
चलता चल
कह सूरज से:
'काम शेष है
अभी न ढल.'
***
शुभकामनायें
रचना-रचनाकार को, नित कर नम्र प्रणाम
'सलिल' काम निष्काम कर, भला करेंगे राम
ईश्वर तथा प्रकृति को नमन कर निस्वार्थ भाव से कार्य करने से प्रभु कृपा करते हैं.
परमात्मा धारण करे, काया होकर आत्म
कहलाये कायस्थ तब, तजे मिले परमात्म
निराकार परब्रम्ह अंश रूप में काया में रहता है तो कायस्थ कहलाता है. जब वह काया का त्याग करता है तो पुन: परमात्मा में मिल जाता है.
श्री वास्तव में मिले जब, खरे रहें व्यवहार
शक-सेना हँस जय करें, भट-नागर आचार
वास्तव में समृद्धि तब ही मिलती है जब जुझारू सज्जन अपने आचरण से संदेहों को ख़ुशी-ख़ुशी जीत लेते हैं।
संजय दृष्टि तटस्थ रख, देखे विधि का लेख
वर्मा रक्षक सत्य का, देख सके तो देख
महाभारत युद्ध में संजय निष्पक्ष रहकर होनी को घटते हुए देखते रहे. अपनी देश और प्रजा के रक्षक नरेश (वर्मा = अन्यों की रक्षा करनेवाला) परिणाम की चिंता किये बिना अपनी प्रतिबद्धता के अनुसार युद्ध कर शहीद हुए।
शांत रखे तन-मन सदा, शांतनु तजे न धैर्य
हो न यादवी युद्ध अब, जीवन हो निर्वैर्य
देश के शासक हर स्थिति में तन-मन शांत रखें, धीरज न तजें. आपसी टकराव (कृष्ण के अवसान के तुरंत बाद यदुवंश आपस में लड़कर समाप्त हुआ) कभी न हो. हम बिना शत्रुता के जीवन जी सकें।
सिंह सदृश कर गर्जना, मेघ बरस हर ताप
जगती को शीतल करे, भले शेष हो आप
परोपकारी बदल शेर की तरह गरजता है किन्तु धरती की गर्मी मिटाने के लिये खुद मिट जाने तक बरसता है।
***
पर्व नव सद्भाव के
*
हैं आ गये राखी कजलियाँ, पर्व नव सद्भाव के.
सन्देश देते हैं न पकड़ें, पंथ हम अलगाव के..
भाई-बहिन सा नेह-निर्मल, पालकर आगे बढ़ें.
सत-शिव करें मांगल्य सुंदर, लक्ष्य सीढ़ी पर चढ़ें..
शुभ सनातन थाती पुरातन, हमें इस पर गर्व है.
हैं जानते वह व्याप्त सबमें, प्रिय उसे जग सर्व है..
शुभ वृष्टि जल की, मेघ, बिजली, रीझ नाचे मोर-मन.
कब बंधु आये? सोच प्रमुदित, हो रही बहिना मगन..
धारे वसन हरितिमा के भू, लग रही है षोडशी.
सलिला नवोढ़ा नारियों सी, कथा है नव मोद की..
शालीनता तट में रहें सब, भंग ना मर्याद हो.
स्वातंत्र्य उच्छ्रंखल न हो यह, मर्म सबको याद हो..
बंधन रहे कुछ तभी तो हम, गति-दिशा गह पायेंगे.
निर्बंध होकर गति-दिशा बिन, शून्य में खो जायेंगे..
बंधन अप्रिय लगता हमेशा, अशुभ हो हरदम नहीं.
रक्षा करे बंधन 'सलिल' तो, त्याज्य होगा क्यों कहीं?
यह दृष्टि भारत पा सका तब, जगद्गुरु कहला सका.
रिपुओं का दिल संयम-नियम से, विजय कर दहला सका..
इतिहास से ले सबक बंधन, में बंधें हम एक हों.
संकल्पकर इतिहास रच दें, कोशिशें शुभ नेक हों..
***
कविता:
आत्मालाप:
*
क्यों खोते?, क्या खोते?,औ' कब?
कौन किसे बतलाए?
मन की मात्र यही जिज्ञासा
हम क्या थे संग लाए?
आए खाली हाथ
गँवाने को कुछ कभी नहीं था.
पाने को थी सकल सृष्टि
हम ही कुछ पचा न पाए .
ऋषि-मुनि, वेद-पुराण,
हमें सच बता-बताकर हारे
कोई न अपना, नहीं पराया
हम ही समझ न पाए.
माया में भरमाये हैं हम
वहम अहम् का पाले.
इसीलिए तो होते हैं
सारे गड़बड़ घोटाले.
जाना खाली हाथ सभी को
सभी जानते हैं सच.
धन, भू, पद, यश चाहें नित नव
कौन सका इनसे बच?
जब, जो, जैसा जहाँ घटे
हम साक्ष्य भाव से देखें.
कर्ता कभी न खुद को मानें
प्रभु को कर्ता लेखें.
हम हैं मात्र निमित्त,
वही है रचने-करनेवाला.
जिससे जो चाहे करवा ले
कोई न बचनेवाला.
ठकुरसुहाती उसे न भाती
लोभ, न लालच घेरे.
भोग लगा खाते हम खुद ही
मन से उसे न टेरें.
कंकर-कंकर में वह है तो
हम किससे टकराते?
किसके दोष दिखाते हरदम?
किससे हैं भय खाते?
द्वैत मिटा, अद्वैत वर सकें
तभी मिल सके दृष्टि.
तिनका-तिनका अपना लागे
अपनी ही सब सृष्टि.
कर अमान्य मान्यता अन्य की
उसका हृदय दुखाएँ.
कहें संकुचित सदा अन्य को
फिर हम हँसी उड़ाएँ..
कितना है यह उचित?,
स्वयं सोचें, विचार कर देखें.
अपने लक्ष्य-प्रयास विवेचें,
व्यर्थ अन्य को लेखें..
जिनके जैसे पंख,
वहीं तक वे पंछी उड़ पाएँ.
ऊँचा उड़ें,न नीचा
उड़नेवाले को ठुकराएँ..
जैसा चाहें रचें,
करे तारीफ जिसे भाएगा..
क्या कटाक्ष-आक्षेप तनिक भी
नेह-प्रीत लाएगा??..
सृजन नहीं मसखरी,न लेखन
द्वेष-भाव का जरिया.
सद्भावों की सतत साधना
रचनाओं की बगिया..
शत-शत पुष्प विकसते देखे
सबकी अलग सुगंध.
कभी न भँवरा कहे: 'मिटे यह,
उस पर हो प्रतिबन्ध.'
कभी न एक पुष्प को देखा
दे दूजे को टीस,
व्यंग्य-भाव से खीस निपोरे
जो वह दिखे कपीश..
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित
चार दिनों का साथ.
जीते-जी दें कष्ट
बिछुड़ने पर करते नत माथ?
माया है यह, वहम अहम् का
इससे यदि बच पाये.
शब्द-सुतों का पग-प्रक्षालन
करे 'सलिल' तर जाये.
५-९-२०१०
***

रविवार, 24 अगस्त 2025

अगस्त २४, संजा, व्यंग्य लेख, मुहावरा, कौआ स्नान, शिक्षक, चित्र अलंकार, मंदिर,

 सलिल सृजन अगस्त २४

*
गीत
जन्म दिवस हर सुबह मनाएँ, आँख मूँद लें रजनी में हम
सपने हों साकार यत्न कर, निराकार हों तो न करें गम
मनोरमा हो रश्मि विभा की, पाखी शोभित नीलाम्बर में
विजय-स्मृति हो पद्म गुच्छ सी, ज्योति अमर हो निविड़ तिमिर में
हो संदीप प्रदीप पथिक मैं, संग देवकीनंदन पाऊँ
हर हिंदुस्तानी मनोज हो, सदा भारती की जय गाऊँ
अंजु लता सम नीलोफ़र हँस, साथ चले जय हिंद गुँजाए
त्यागी राज करे पूनम सह, शरतचंद्र अमृत बरसाए
सूरज दीप्त दिनेश दिवाकर, ओमप्रकाश बिखेरे भू पर
ता ता धिन्ना नाचे मिन्नी, परी तनूजा उपमा मिलकर
योगी दुर्गा-राधा की जय, कहे मुरारि राजमणि पाए
जनसेवक राजेंद्र बन सके, करुणा हरदम हृदय बसाए
नमन अन्नपूर्णा सरस्वती, वेदप्रकाश महेश बिखेरे
सरला मनी हंस देवांशी, हों संजीव लगाएँ फेरे
सृजन कुंज पुष्पित मुकुलित हो, कथ्य भाव रस लय आनंदी
स्नेह सलिल सिंचन कर, मधुकर, छंद गुँजाए परमानंदी
२४-८-२०२२
***
निमाड़ी पर्व : संजा (छाबड़ी)
गीतात्मक लोक पर्व संजा बाई (छाबड़ी)
निमाड़ की किशोरी बालिकाओ द्वारा भाद्र माह की पूर्णिमा से अश्विन माह की सर्वपितृ अमावस्या तक मनाया जाता है । इन 16 दिनों तक चलने वाले गीतात्मक मांडना पर्व को गीतों के माध्यम मनाया जाता है मांडना बनाए में 16 दिन पूनम का पाटला और चाँद ,तारे ,सूरज , पाँच कुँआरा, बंदनवार डोकरा डोकरी ,निसरणी, छाबड़ी, रुनझुन की गाड़ी, कोट किल्ला ,वान्या की हाटडी,मोर,बिजौरा, पंखा, कौवा,कुआ,बावड़ी,आदि बनाये जाते है। गीत गाये जाते है और आरती प्रसाद बांटा जाता है... संजा कौंन ?उनका सामाजिक आत्मिक और आद्यात्मिक स्वरूप क्या है संजा के गीतों में कहा जाता है-
"संजा सहेलड़ि बाज़ार में खेले
बजार में रमे
वा कोणा जी नी बेटी
वा खाय खाजा रोटी
पठानी चाल चाले
रजवाड़ी बोली बोले
संजा एडो संजा का माथा बेड़ो "........
गीत का भाव है कि संजा निडर,साहसी, राजसी वैभव को जीने वाली हमारी सखी है जो कोना जी की बेटी है खाजा खाती है पठानी चाल से चलती है परन्तु वो जल के प्रतीक जीवन में स्वभिमानी पनिहारिन की तरह कर्मशील है।
दोस्तों निमाड़ की किशोरीय अंतरिक्षीय कल्पना पटल पर प्रारम्भ में चाँद और सूरज का प्रादुर्भाव होता है रात और दिन की तरह ,सुख और दुःख की तरह, संघर्ष की तपिश और सफलता की चांदनी की तरह वो जीवन के कर्मशीलता की साधना में सोलह संस्कारों से अभिसिंचित सोलह दिवसीय लोक महोत्सव में रूपांतरित हो जीवन को गीतात्मक से परिलक्षित और परिभाषित कर फिर जीवन की अनन्तता में विसर्जित हो जाता है।
***
श्रद्धांजलि
सुषमा गईं, डूबा अरुण भी, शोक का है यह समय।
गौरव बढ़ाया देश का, देगा गवाही खुद समय।।
जन से सदा रिश्ते निगाहे, थे प्रभावी दक्ष भी-
वाक्पटुता-विद्वता अद्भुत रही कहता समय।।
*
धूमिल न होंगी याद, छवियाँ, कार्यपटुता भी कभी।
दल से उठे ऊपर, कमाया जन-समर्थन नाम भी।।
दृढ़ता-प्रखरता-अभयता का त्रिवेणी दोनों रहे-
इतिहास लेगा नाम दोनों ने किए सत्कार्य भी।।
***
छंद सलिला
नवाविष्कृत मात्रिक दंडक
*
विधान-
प्रति पद ५६ मात्रा।
यति- १४-१४-१४-१४।
पदांत-भगण।
*
अवस्था का बहाना मत करें, जब जो बने करिए, समय के साथ भी चलिए, तभी होगा सफल जीवन।
गिरें, उठकर बढ़ें मंजिल मिले तब ही तनिक रुकिए, न चुकिए और मत भगिए, तभी फागुन बने सावन।
न सँकुचें लें मदद-दें भी, न कोई गैर है जग में, सभी अपने न सच तजिए, कहें सच मन न हो उन्मन-
विरागी हों या अनुरागी, करें श्रम नित्य तज आलस, न केवल मात्र जप करिए, स्वेद-सलिला करे पावन।।
*
टीप-छंद लक्षणानुसार नाम सुझाएँ।
संजीव
२४-८-२०१९
***
व्यंग्य लेख
अफसर, नेता और ओलंपिक
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
ओलंपिक दुनिया का सबसे बड़ा खेल कुंभ होता है। सामान्यत:, अफसरों और नेताओं की भूमिका गौड़ और खिलाडियों और कोचों की भूमिका प्रधान होना चाहिए। अन्य देशों में ऐसा होता भी है पर इंडिया में बात कुछ और है। यहाँ अफसरों और नेताओं के बिना कौआ भी पर नहीं मार सकता। अधिक से अधिक अफसर सरकारी अर्थात जनगण के पैसों पाए विदेश यात्रा कर सैर-सपाट और मौज-मस्ती कर सकें इसलिए ज्यादा से ज्यादा खिलाडी और कोच चुने जाने चाहिए। खिलाडी ऑलंपिक स्तर के न भी हों तो कोच और अफसर फर्जी आँकड़ों से उन्हें ओलंपिक स्तर का बता देंगे। फर्जीवाड़ा की प्रतियोगिता हो तो स्वर्ण, रजत और कांस्य तीनों पदक भारत की झोली में आना सुनिश्चित है। यदि आपको मेरी बात पर शंका हो तो आप ही बताएं की इन सुयोग्य अफसरों और कोचों के मार्गदर्शन में जिला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर श्रेष्ठ प्रदर्शन और ओलंपिक मानकों से बेहतर प्रदर्शन कर चुके खेलवीर वह भी एक-गो नहीं सैंकड़ों अपना प्रदर्शन दुहरा क्यों नहीं पाते?
कोई खिलाडी ओलंपिक तक जाकर सर्वश्रेष्ठ न दे यह नहीं माना जा सकता। इसका एक ही अर्थ है कि अफसर अपनी विदेश यात्रा की योजना बनाकर खिलाडियों के फर्जी आँकड़े तैयार करते हैं जिसमें इन्डियन अफसरशाही को महारत हासिल है। ऐसा करने से सबका लाभ है, अफसर, नेता, कोच और खिलाडी सबका कद बढ़ जाता है, घटता है केवल देश का कद। बिके हुई खबरिया चैनल किसी बात को बारह-चढ़ा कर दिखाते हैं ताकि उनकी टी आर पी बढ़े, विज्ञापन अधिक मिलें और कमाई हो। इस सारे उपक्रम में आहत होती हैं जनभावनाएँ, जिससे किसी को कोई मतलब नहीं है।
रियो से लौटकर रिले रेस खिलाडी लाख कहें कि उन्हें पूरी दौड़ के दौरान कोई पेय नहीं दिया गया, वे किसी तरह दौड़ पूरी कर अचेत हो गईं। यह सच सारी दुनिया ने देखा लेकिन बेशर्म अफसरशाही आँखों देखे को भी झुठला रही है। यह तय है कि सच सामने लानेवाली खिलाड़ी अगली बार नहीं चुनी जाएगी। कोच अपना मुँह बंद रखेगा ताकि अगली बार भी उसे ही रखा जाए। केर-बेर के संग का इससे बेहतर उदाहरण और कहाँ मिलेगा? अफसरों को भेज इसलिए जाता है की वे नियम-कायदे जानकार खिलाडियों को बता दें, आवश्यक व्यवस्थाएं कर दें ताकि कोच और खिलाडी सर्वश्रेष्ठ दे सकें पर इण्डिया की अफसरशाही आज भी खुद को खुदमुख्तार और बाकि सब को गुलाम समझती है। खिलाडियों के सहायक हों तो उनकी बिरादरी में हेठी हो जाएगी। इसलिए, जाओ, खाओ, घूमो, फिरो, खरीदी करो और घरवाली को खुश रखो ताकि वह अन्य अफसरों की बीबीयों पर रौब गांठ सके।
रियो ओलंपिक में 'कोढ़ में खाज' खेल मंत्री जी ने कर दिया। एक राजनेता को ओलंपिक में क्यों जाना चाहिए? क्या अन्य देशों के मंत्री आते है? यदि नहीं, तो इंडियन मंत्री का वहाँ जाना, नियम तोडना, चेतावनी मिलना और बेशर्मी से खुद को सही बताना किसी और देश में नहीं हो सकता। व्यवस्था भंग कर खुद को गौरवान्वित अनुभव करने की दयनीय मानसिकता देश और खिलाडियों को नीच दिखती है पर मोटी चमड़ी के मंत्री को इस सबसे क्या मतलब?
रियो ओलंपिक के मामले में प्रधानमंत्री को भी दिखे में रख गया। पहली बार किसी प्रधानमंत्री ने खिलाडियों का हौसला बढ़ाने के लिए उनसे खुद पहल कर भेंट की। यदि उन्हें बताया जाता कि इनमें से किसी के पदक जीतने की संभावना नहीं है तो शायद वे ऐसा नहीं करते किन्तु अफसरों और पत्रकारों ने ऐसा माहौल बनाया मानो भारत के खलाड़ी अब तक के सबसे अधिक पदक जीतनेवाले हैं। झूठ का महल कब तक टिकता? सारे इक्के एक-एक कर धराशायी होते रहे।
अफसरों और कर्मचारियों की कारगुजारी सामने आई मल्ल नरसिह यादव के मामले में। दो हो बाते हो सकती हैं। या तो नरसिंह ने खुद प्रतिबंधित दवाई ली या वह षड्यन्त्र का शिकार हुआ। दोनों स्थितियों में व्यवस्थापकों की जिम्मेदारी कम नहीं होती किन्तु 'ढाक के तीन पात' किसी के विरुद्ध कोइ कदम नहीं उठाया गया और देश शर्मसार हुआ।
असाधारण लगन, परिश्रम और समर्पण का परिचय देते हुए सिंधु, साक्षी और दीपा ने देश की लाज बचाई। उनकी तैयारी में कोई योगदान न करने वाले नेताओं में होड़ लग गयी है पुरस्कार देने की। पुरस्कार दें है तो पाने निजी धन से दें, जनता के धन से क्यों? पिछले ओलंपिक के बाद भी यही नुमाइश लगायी गयी थी। बाद में पता चला कई घोषणावीरों ने खिलाडियों को घोषित पुरस्कार दिए ही नहीं। अत्यधिक धनवर्षा, विज्ञापन और प्रचार के चक्कर में गत ओलंपिक के सफल खिलाडी अपना पूर्व स्तर भी बनाये नहीं रख सके और चारों खाने चित हो गए। बैडमिंटन खिलाडी का घुटना चोटिल था तो उन्हें भेजा ही क्यों गया? वे अच्छा प्रदर्शन तो नहीं ही कर सकीं लंबी शल्यक्रिया के लिए विवश भी हो गयीं।
होना यह चाइये की अच्छा प्रदर्शन कर्नेवले खिलाडी अगली बार और अच्छा प्रदर्शन कर सकें इसके लिए उन्हें खेल सुविधाएँ अधिक दी जानी चाहिए। भुकमद, धनराशि और फ़्लैट देने नहीं सुधरता। हमारा शासन-प्रशासन परिणामोन्मुखी नहीं है। उसे आत्मप्रचार, आत्मश्लाघा और व्यक्तिगत हित खेल से अधिक प्यारे हैं। आशा तो नहीं है किन्तु यदि पूर्ण स्थिति पर विचार कर राष्ट्रीय खेल-नीति बनाई जाए जिसमें अफसरों और नेताओं की भूमिका शून्य हो। हर खेल के श्रेष्ठ कोच और खिलाडी चार सैलून तक प्रचार से दूर रहकर सिर्फ और सिर्फ अभ्यास करें तो अगले ओलंपिक में तस्वीर भिन्न नज़र आएगी। हमारे खिलाडियों में प्रतिभा और कोचों में योग्यता है पर गुड़-गोबर एक करने में निपुण अफसरशाही और नेता को जब तक खेओं से बाहर नहीं किया जायेगा तब तक खेलों में कुछ बेहतर होने की उम्मीद आकाश कुसुम ही है।
===
हिंदी दिवस पर विशेष
मुहावरा कौआ स्नान
*
कौआ पहुँचा नदी किनारे, शीतल जल से काँप-डरा रे!
कौवी ने ला कहाँ फँसाया, राम बचाओ फँसा बुरा रे!!
*
पानी में जाकर फिर सोचे, व्यर्थ नहाकर ही क्या होगा?
रहना काले का काला है, मेकप से मुँह गोरा होगा। .
*
पूछा पत्नी से 'न नहाऊँ, क्यों कहती हो बहुत जरूरी?'
पत्नी बोली आँख दिखाकर 'नहीं चलेगी अब मगरूरी।।'
*
नहा रहे या बेलन, चिमटा, झाड़ू लाऊँ सबक सिखाने
कौआ कहे 'न रूठो रानी! मैं बेबस हो चला नहाने'
*
निकट नदी के जाकर देखा पानी लगा जान का दुश्मन
शीतल जल है, करूँ किस तरह बम भोले! मैं कहो आचमन?
*
घूर रही कौवी को देखा पैर भिगाये साहस करके
जान न ले ले जान!, मुझे जीना ही होगा अब मर-मर के
*
जा पानी के निकट फड़फड़ा पंख दूर पल भर में भागा
'नहा लिया मैं, नहा लिया' चिल्लाया बहुत जोर से कागा
*
पानी में परछाईं दिखाकर बोला 'डुबकी देखो आज लगाई
अब तो मेरा पीछा छोडो, ओ मेरे बच्चों की माई!'
*
रोनी सूरत देख दयाकर कौवी बोली 'धूप ताप लो
कहो नर्मदा मैया की जय, नाहक मुझको नहीं शाप दो'
*
गाय नर्मदा हिंदी भारत भू पाँचों माताओं की जय
भागवान! अब दया करो चैया दो तो हो पाऊँ निर्भय
*
उसे चिढ़ाने कौवी बोली' आओ! संग नहा लो-तैर'
कर ''कौआ स्नान'' उड़ा फुर, अब न निभाओ मुझसे बैर
*
बच्चों! नित्य नहाओ लेकिन मत करना कौआ स्नान
रहो स्वच्छ, मिल खेलो-कूदो, पढ़ो-बढ़ो बनकर मतिमान
---
***
दोहा सलिला:
शिक्षक पारसमणि सदृश...
*
शिक्षक पारसमणि सदृश, करे लौह को स्वर्ण.
दूर करे अज्ञानता, उगा बीज से पर्ण..
*
सत-शिव-सुंदर साध्य है, साधन शिक्षा-ज्ञान.
सत-चित-आनंद दे हमें, शिक्षक गुण-रस-खान..
*
शिक्षक शिक्षा दे सदा, सकता शिष्य निखार.
कंकर को शंकर बना, जीवन सके सँवार..
*
शिक्षक वह जो सिखा दे, भाषा गुण विज्ञान.
नेह निनादित नर्मदा, बहे बना गुणवान..
*
प्रतिभा को पहचानकर, जो दिखलाता राह.
शिक्षक उसको जानिए, जिसमें धैर्य अथाह..
*
जान-समझ जो विषय को, रखे पूर्ण अधिकार.
उस शिक्षक का प्राप्य है, शत शिष्यों का प्यार..
*
शिक्षक हो संदीपनी, शिष्य सुदामा-श्याम.
बना सकें जो धरा को, तीरथ वसुधा धाम..
*
विश्वामित्र-वशिष्ठ हों, शिक्षक ज्ञान-निधान.
राम-लखन से शिष्य हों, तब ही महिमावान..
*
द्रोण न हों शिक्षक कभी, ले शिक्षा का दाम.
एकलव्य से शिष्य से, माँग अँगूठा वाम..
*
शिक्षक दुर्वासा न हो, पल-पल दे अभिशाप.
असफल हो यदि शिष्य तो, गुरु को लगता पाप..
*
राधाकृष्णन को कभी, भुला न सकते छात्र.
जानकार थे विश्व में, वे दर्शन के मात्र..
*
महीयसी शिक्षक मिलीं, शिष्याओं का भाग्य.
करें जन्म भर याद वे, जिन्हें मिला सौभाग्य..
*
शिक्षक मिले रवीन्द्र सम, शिष्य शिवानी नाम.
मणि-कांचन संयोग को, करिए विनत प्रणाम..
*
ओशो सा शिक्षक मिले, बने सरल-हर गूढ़.
विद्वानों को मात दे, शिष्य रहा हो मूढ़..
*
हो कलाम शिक्षक- 'सलिल', झट बन जा तू छात्र.
गत-आगत का सेतु सा, ज्ञान मिले बन पात्र..
*
ज्यों गुलाब के पुष्प में, रूप गंध गुलकंद.
त्यों शिक्षक में समाहित, ज्ञान-भाव-आनंद..
२४-८-२०१६
===
मंदिर अलंकार
हिंदी पिंगल ग्रंथों में चित्र अलंकार की चर्चा है. जिसमें ध्वज, धनुष, पिरामिड आदि के शब्द चित्र की चर्चा है. वर्तमान में इस अलंकार में लिखनेवाले अत्यल्प हैं. मेरा प्रयास मंदिर अलंकार
हिंदी
जन-मन
में बसी जन
प्रतिनिधि हैं दूर.
परदेशी भाषा रुचे
जिनको वे जन सूर.
जनवाणी पर सुहाता कैसा अद्भुत नूर
जन आकांक्षा गीत है, जनगण-हित संतूर
२४-८-२०१५
***
नवगीत:
मस्तक की रेखाएँ …
*
मस्तक की रेखाएँ
कहें कौन बाँचेगा?
*
आँखें करतीं सवाल
शत-शत करतीं बवाल।
समाधान बच्चों से
रूठे, इतना मलाल।
शंका को आस्था की
लाठी से दें हकाल।
उत्तर न सूझे तो
बहाने बनायें टाल।
सियासती मन मुआ
मनमानी ठाँसेगा …
*
अधरों पर मुस्काहट
समाधान की आहट।
माथे बिंदिया सूरज
तम हरे लिये चाहत।
काल-कर लिये पोथी
खोजे क्यों मनु सायत?
कल का कर आज अभी
काम, तभी सुधरे गत।
जाल लिये आलस
कोशिश पंछी फाँसेगा…
२४.८.२०१४
***

शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

सितंबर ६, सॉनेट, शिक्षक, नवगीत, सीमा, वाग्देवी, लघुकथा, गुरु, दोहा, कौन हूँ मैं?, यायावर,

सलिल सृजन सितंबर ६ 
*
सॉनेट
छापा
*
इस पर छापा; उस पर छापा
बोल न है किस-किस पर छापा
रंग-बिरंगा रूपया छापा
समाचार मनमाना छापा
साथ न जो दे उस पर छापा
साथ न जो ले उस पर छापा
छोड़े हाथ अगर तो छापा
मोड़े लात अगर तो छापा
मन की बात न मानी? छापा
धन की बात न जानी छापा
कुछ करने की ठानी छापा
मुँह से निकली बानी छापा
सत्ता का स्वभाव है छापा
नेता का प्रभाव है छापा
६-९-२०२२
***
वंदन
वाग्देवी! कृपा करिए
हाथ सिर पर विहँस धरिए
वास कर मस्तिष्क में माँ
नयन में जाएँ समा
हृदय में रहिए विराजित
कंठ में रह गुनगुना
श्वास बनकर साथ रहिए
वाग्देवी कृपा करिए
अधर यश गा पुण्य पाए
कीर्ति कानों में समाए
कर तुम्हारे उपकरण हों
कलम कवितांजलि चढ़ाए
दूर पल भर भी न करिए
वाग्देवी कृपा करिए
अक्षरों के सुमन लाया
शब्द का चंदन लगाया
छंद का गलहार सुरभित
पुस्तकी उपहार भाया
सलिल को संजीव करिए
वाग्देवी कृपा करिए
६-९-२०२२
•••
विमर्श : आय और क्रय सामर्थ्य
पचास वर्ष पूर्व - एक पैसे में पाँच गोलगप्पे,
चालीस साल पूर्व - एक पैसे में दो गोलगप्पे
तीस वर्ष पूर्व - पाँच पैसे में दो गोलगप्पे
बीस वर्ष पूर्व - २५ पैसे में एक गोलगप्पा
दस वर्ष पूर्व - ५० पैसे में एक गोलगप्पा
अब - दो रूपए में एक गोलगप्पा
नौकरी आरंभ करने से अब तक गोलगप्पा का कीमत पचास साल में हजार गुणा बढ़ी।
जमीन २५ पैसे वर्ग फुट से १०००/- वर्ग फुट अर्थात ४००० गुना बढ़ी।
वेतन ४००/- से २००००/- अर्थात ५० गुना बढ़ा।
सोना २००/- से ५२,०००/- अर्थात २६० गुना बढ़ा।
क्रय क्षमता २ तोले से ०.४ तोला अर्थात एक चौथाई से भी कम।
सचाई
वस्तुओं की तुलना में क्रय सामर्थ्य में निरंतर ह्रास। अचल संपदा में बेतहाशा वृद्धि, अमीर और अमीर, गरीब और गरीब
निष्कर्ष
मुद्रा का द्रुत और त्वरित अवमूल्यन,
श्रमिक, किसान और कर्मचारी की क्रय सामर्थ्य चिन्तनीय कम, पूँजीपतियों, प्रशासनिक-न्यायिक अफसरों, नेताओं के आय और सम्पदा में अकूत वृद्धि।
५ % भारतीयों के पास ८०% संपदा।
किसी राजनैतिक दल को जान सामान्य की कोइ चिंता नहीं। चोर-चोर मौसेरे भाई
६-९-२०२०
***
विमर्श
यायावर हैं शब्द
*
यायावर वह पथिक है जो अथक यात्रा करता है।
यायावरी कर राहुल सांकृत्यायन अक्षय कीर्तिवान हुए।
यायावरी कर नेता जी आजादी के अग्रदूत बने।
यायावरी सोद्देश्य हो तो वरेण्य है, निरुद्देश्य हो तो लोक उसे आवारगी कहता है।
आवारा के लिए अंग्रेजी में लोफर शब्द है।
लोफर का प्रयोग जनसामान्य हिंदी या उर्दू का शब्द मानकर करता है पर लोफर बनता है अंग्रेजी शब्द लोफ से।
लोफ का अर्थ है रोटी का टुकड़ा। रोटी के टुकड़े के लिए भटकनेवाला लोफर भावार्थ दाने-दाने के लिए मोहताज।
क्या हम लोफर शब्द का उपयोग वास्तविक अर्थ में करते हैं?
लोफर यायावरी करते हुए अंग्रेजी से हिंदी में आ गया पर उसका मूल लोफ नहीं आ सका।
भोजपुरी में निअरै है का अर्थ निकट या समीप है।
तुलसी ने मानस में लिखा है 'ऋष्यमूक पर्वत निअराई'
ये निअर महोदय सात समुंदर लाँघ कर अंग्रेजी में समान अर्थ में near हो गए हैं। न उच्चारण बदला न अर्थ पर शब्दकोष में रहते हुए भी डिक्शनरीवासी हो गए।
हम एक साथ एक ही समय में दो स्थानों पर भले ही न कह सकें पर शब्द रह लेते हैं, वह भी प्रेम के साथ।
शब्दों की एकता ही भाषा की शक्ति बनती है। हमारी एकता देश की शक्ति बनती है।
देश की शक्ति बढ़ाने के लिए हमें शब्दों की तरह यायावर, घुमक्कड़, पर्यटक, तीर्थयात्री होना चाहिए।
धरती का स्वर्ग बुला रहा है, धारा ३७० संशोधित हो चुकी है। आइए! यायावर बनें और कश्मीर को पर्यटन कर समृद्ध बनाने के साथ दुर्लभ प्राकृतिक सौंदर्य का नज़ारा देखें और देश को एकता-शक्ति के सूत्र में बाँधें।
***
६-९-२०१९
***
मेरा परिचय :
कौन हूँ मैं?...
*
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ.
जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..
आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमें.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.
ॐ हूँ मैं, व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला, सोम हूँ मैं.
किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.
'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो.
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वन्दित चर्चिता हूँ.
प्रार्थना हूँ, वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा चंदना हूँ.
ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.
शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.
केंद्र, त्रिज्या हूँ, परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ, सुरभि हूँ.
जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ.
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.
भाव जैसा तुम रखोगे
चित्र वैसा ही लखोगे.
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.
संकुचन-विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि का व्यापार हूँ मैं.
चाहते हो देख पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.
रागिनी जग में गुंजाओ.
द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
विश्व को अपना बनाओ.
स्नेह-सलिला में नहाओ..
***
एकाक्षरी दोहा:
एकाक्षरी दोहा संस्कृत में महाकवि भारवी ने रचे हैं. संभवत: जैन वांग्मय में भी एकाक्षरी दोहा कहा गया है. निवेदन है कि जानकार उन्हें अर्थ सहित सामने लाये. ये एकाक्षरी दोहे गूढ़ और क्लिष्ट हैं. हिंदी में एकाक्षरी दोहा मेरे देखने में नहीं आया. किसी की जानकारी में हो तो स्वागत है.
मेरा प्रयास पारंपरिक गूढ़ता से हटकर सरल एकाक्षरी दोहा प्रस्तुत करने का है जिसे सामान्य पाठक बिना किसी सहायता के समझ सके. विद्वान् अपने अनुकूल न पायें तो क्षमा करें . पितर पक्ष के प्रथम दिन अपने साहित्यिक पूर्वजों का तर्पण इस दोहे से करता हूँ.
ला, लाला! ला लाल ला, लाली-लालू-लाल.
लल्ली-लल्ला लाल लो, ले लो लल्ला! लाल.
६-९-२०१७
***
मेरे गुरु, अग्रजवत श्री सुरेश उपाध्याय जी
शत-शत वंदन
गुरु जी की कविता और गुरु वन्दना
*
व्यंग्य रचना-
बाबू और यमराज
सुरेश उपाध्याय
*
दफ्तर का एक बाबू मरा
सीधा नरक में जाकर गिरा
न तो उसे कोई दुःख हुआ
ना वो घबराया
यों ही ख़ुशी में झूम कर चिल्लाया
वाह, वाह क्या व्यवस्था है?
क्या सुविधा है?
क्या शान है?
नरक के निर्माता! तू कितना महान है?
आँखों में क्रोध लिए यमराज प्रगट हुए, बोले-
'नादान! यह दुःख और पीड़ा का दलदल भी
तुझे शानदार नज़र आ रहा है?
बाबू ने कहा -
'माफ़ करें यमराज
आप शायद नहीं जानते
कि बन्दा सीधे हिंदुस्तान से आ रहा है।
***
गुरु वन्दना
*
दोहा मुक्तिका
*
गुरु में भाषा का मिला, अविरल सलिल प्रवाह
अँजुरी भर ले पा रहा, शिष्य जगत में वाह
*
हो सुरेश सा गुरु अगर, फिर क्यों कुछ परवाह?
अगम समुद में कूद जा, गुरु से अधिक न थाह
*
गुरु की अँगुली पकड़ ले, मिल जाएगी राह
लक्ष्य आप ही आएगा, मत कर कुछ परवाह
*
गुरु समुद्र हैं ज्ञान का, ले जितनी है चाह
नेह नर्मदा विमल गुरु, ज्ञान मिले अवगाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
***
लघुकथा
पीड़ा
*
शिक्षक दिवस पर विद्यार्थी अपने 'सर' को प्रसन्न करने के लिए उपहार देकर चरण स्पर्श कर रहे थे। उपहार के मूल्य के अनुसार आशीष पाकर शिष्य गर्वित हो रहे थे। सबसे अंत में खड़ा, सहमा-सँकुचा वह हाथ में थामे था एक कागज़ और एक फूल। शिक्षक ने एक नज़र उस पर डाली उससे कागज़ फूल लेकर मेज पर रखा और इससे पहले कि वह पैर छू पाता लपककर कमरे से निकल गए। दिन भर उदास-अनमना, खुद को अपमानित अनुभव करता वह पढ़ाई करता रहा।
शाला बन्द होनेपर सब बच्चे चले गए पर वह एक कोने में सुबकता हुआ खुद से पूछ रहा था 'मुझसे क्या गलती हुई? जो गणित कई दिनों से नहीं बन रहा था, वह दोस्तों से पूछ-पूछ कर हल कर लिया, गृहकार्य भी पूरा किया, रोज नहाने भी लगा हूँ, पुराने सही पर कपड़े भी स्वच्छ पहनता हूँ, भगवान को चढ़ानेवाला फूल 'सर' के लिए ले गया पर उन्होंने देखा तक नहीं। मेज पर इस तरह फेंका कि जमीन पर गिर कर पैरों से कुचल गया। कोना हमेशा की तरह मौन था...
सिर पर हाथ का स्पर्श अनुभव करते ही उसने पलटकर देखा, सामने उसके शिक्षक थे- 'मुझसे भूल हो गई, तुमने मुझे सबसे कीमती उपहार दिया है। मैं ही उस समय नहीं देख सका था' कहते हुए शिक्षक ने उसे ह्रदय से लगा लिया, पल भर में मिट गई उसके मन की पीड़ा।
६-९-२०१६
***
कृति चर्चा:
'खुशबू सीली गलियों की' : प्राण-मन करती सुवासित
*
[कृति विवरण: खुशबू सीली गलियों की, नवगीत संग्रह, सीमा अग्रवाल, २०१५, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहबाद , गीतकार संपर्क: ७५८७२३३७९३]
*
भाषा और साहित्य समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सतत परिवर्तित होता है. गीत मनुष्य के मन और जीवन के मिलन से उपजी सरस-सार्थक अभिव्यक्ति है। रस और अर्थ न हो तो गीत नहीं हो सकता। गीतकार के मनोभाव शब्दों से रास करते हुए कलम-वेणु से गुंजरित होकर आत्म को आनंदित कर दे तो गीत स्मरणीय हो जाता है। 'खुशबू सीती गलियों की' की गीति रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर नव वसन धारण कर नवगीत की भावमुद्रा में पाठक का मन हरण करने में सक्षम हैं।
गीत और अगीत का अंतर मुखड़े और अंतरे पर कम और कथ्य की प्रस्तुति के तरीके पर अधिक निर्भर है।सीमा जी की ये रचनायें २ से ५ पंक्तियों के मुखड़े के साथ २ से ५ अंतरों का संयोजन करते हैं। अपवाद स्वरूप 'झाँझ हुए बादल' में ६ पंक्तियों के २ अंतरे मात्र हैं। केवल अंतरे का मुखड़ाहीन गीत नहीं है। शैल्पिक नवता से अधिक महत्त्वपूर्ण कथ्य और छंद की नवता होती है जो नवगीत के तन में मन बनकर निवास करती और अलंकृत होकर पाठक-श्रोता के मन को मोह लेती है।
सीमा जी की यह कृति पारम्परिकता की नींव पर नवता की भव्य इमारत बनाते हुए निजता से उसे अलंकृत करती है। ये नवगीत चकित या स्तब्ध नहीं आनंदित करते हैं. धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय पर्वों-त्यहारों की विरासत सम्हालते ये गीत आस्मां में उड़ान भरने के पहले अपने कदम जमीन पर मजबूती से जमाते हैं। यह मजबूती देते हैं छंद। अधिकाँश नवगीतकार छंद के महत्व को न आंकते हुई नवता की तलाश में छंद में जोड़-घटाव कर अपनी कमाई छिपाते हुए नवता प्रदर्शित करने का प्रयास करते हुई लड़खड़ाते हुए प्रतीत होते हैं किन्तु सीमा जी की इन नवगीतों को हिंदी छंद के मापकों से परखें या उर्दू बह्र के पैमाने पर निरखें वे पूरी तरह संतुलित मिलते हैं। पुरोवाक में श्री ओम नीरव ने ठीक ही कहा है कि सीमा जी गीत की पारम्परिक अभिलक्षणता को अक्षुण्ण रखते हुए निरंतर नवल भावों, नवल प्रतीकों, नवल बिम्ब योजनाओं और नवल शिल्प विधान की उद्भावना करती रहती हैं।
'दीप इक मैं भी जला लूँ' शीर्षक नवगीत ध्वनि खंड २१२२ (फाइलातुन) पर आधारित है । [संकेत- । = ध्वनि खंड विभाजन, / = पंक्ति परिवर्तन, रेखांकित ध्वनि लोप या गुरु का लघु उच्चारण]
तुम मुझे दो । शब्द / और मैं /। शब्द को गी। तों में ढालूँ
२ १२ २ । २ १ / २ २ /। २ १ २ २ । २ १ २२ = २८ मात्रा
बरसती रिम । झिम की / हर इक । बूँद में / घुल । कर बहे जो
२ १ २ २ । २ १ / २ २ । २ १ २ / २ । २ १२ २ = २८ मात्रा
थाम आँचल । की किनारी ।/ कान में / तुम । ने कहे जो
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ / २ । २ १२ २ = २८ मात्रा
फिर उन्हीं निश् । छल पलों को।/ तुम कहो तो ।/ आज फिर से
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ = २८ मात्रा
गुनगुना लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ = १७ मात्रा
ओस भीगी । पंखुरी सा ।/ मन सहन / निख । रा है ऐसे
२ १ २ २ । २१२ २ । / २ १ २ / २ । २ १ २ २ = २८ मात्रा
स्वस्ति श्लोकों । के मधुर स्वर । / घाट पर / बिख। रे हों जैसे
२ १ २ २ । २ १ २ २ । / २ १ २ / २ । २ १ २२ = २८ मात्रा
नेह की मं । दाकिनी में ।/ झिलमिलाता ।/ दीप इक = २६ मात्रा
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ ।/ २१ २
मैं । भी जला लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ । २ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ = १९ मात्रा
इस नवगीत पर उर्दू का प्रभाव है। 'और' को औ' पढ़ना, 'की' 'में' 'है' तथा 'हों' का लघु उच्चारण व्याकरणिक दृष्टि से विचारणीय है। ऐसे नवगीत गीत हिंदी छंद विधान के स्थान पर उर्दू बह्र के आधार पर रचे गये हैं।
इसी बह्र पर आधारित अन्य नवगीत 'उफ़! तुम्हारा / मौन कितना / बोलता है', अनछुए पल / मुट्ठियों में / घेर कर', हर घड़ी ऐ/से जियो जै/से यही बस /खास है', पंछियों ने कही / कान में बात क्या? आदि हैं।
पृष्ठ ७७ पर हिंदी पिंगल के २६ मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद पर आधारित नवगीत [प्रति पंक्ति में १४-१२ मात्राएँ तथा पंक्त्याँत में लघु-गुरु अनिवार्य] का विश्लेषण करें तो इसमें २१२२ ध्वनि खंड की ३ पूर्ण तथा चौथी अपूर्ण आवृत्ति समाहित किये है। स्पष्ट है कि उर्दू बह्रें हिंदी छंद की नीव पर ही खड़ी की गयी हैं. हिंदी में गुरु का लघु तथा लघु का गुरु उच्चारण दोष है जबकि उर्दू में यह दोष नहीं है. इससे रचनाकार को अधिक सुविधा तथा छूट मिलती है।
कौन सा पल । ज़िंदगी का ।/ शीर्षक हो । क्या पता?
२ १ २ १ । २ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ २ = १४ + १२ = २६ मात्रा
हर घड़ी ऐ।से जियो /जै।/से यही बस । खास है
२ १ २ १।२ १ २ २ ।/ २ १ २ २ । २ १ २ = १४ + १२ = २६ मात्रा
'फूलों का मकरंद चुराऊँ / या पतझड़ के पात लिखूँ' पृष्ठ ९८ में महातैथिक जातीय लावणी (१६-१४, पंक्यांत में मात्रा क्रम बंधन नहीं) का मुखड़ा तथा स्थाई हैं जबकि अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु नियम को शिथिल किया गया है।
'गीत कहाँ रुकते हैं / बस बहते हैं तो बहते हैं' - पृष्ठ १०९ में २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंदों का मिश्रित प्रयोग है। मुखड़े में १२= १६, स्थाई में १४=१४ व १२ + १६ अंतरों में १६=१२, १४=१४, १२+१६ संयोजनों का प्रयोग हुआ है। गीतकार की कुशलता है कि कथ्य के अनुरूप छंद के विधान में विविधता होने पर भी लय तथा रस प्रवाह अक्षुण्ण है।
'बहुत दिनों के बाद' शीर्षक गीत पृष्ठ ९५ में मुखड़ा 'बहुत दिनों के बाद / हवा फिर से बहकी है' में रोला (११-१३) प्रयोग हुआ है किन्तु स्थाई में 'गौरैया आँगन में / आ फिर से चहकी है, आग बुझे चूल्हे में / शायद फिर दहकी है तथा थकी-थकी अँगड़ाई / चंचल हो बहकी है' में १२-१२ = २४ मात्रिक अवतारी जातीय दिक्पाल छंद का प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु-गुरु का पालन हुआ है। तीनों अँतरेरोल छंद में हैं।
'गेह तजो या देवों जागो / बहुत हुआ निद्रा व्यापार' पृष्ठ ६३ में आल्हा छंद (१६-१५, पंक्त्यांत गुरु-लघु) का प्रयोग करने का सफल प्रयास कर उसके साथ सम्पुट लगाकर नवता उत्पन्न करने का प्रयास हुआ है। अँतरे ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय मिश्रित छंदों में हैं।
'बहुत पुराना खत हाथों में है लेकिन' में २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद में मुखड़ा, अँतरे व स्थाई हैं किन्तु यति १०, १२ तथा ८ पर ली गयी है। यह स्वागतेय है क्योंकि इससे विविधता तथा रोचकता उत्पन्न हुई है।
सीमा जी के नवगीतों का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष उनका जीवन और जमीन से जुड़ाव है। वे कपोल कल्पनाओं में नहीं विचरतीं इसलिए उनके नवगीतों में पाठक / श्रोता को अपनापन मिलता है। आत्मावलोकन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन की राह दिखाता है। 'क्या मुझे अधिकार है?' शीर्षक नवगीत इसी भाव से प्रेरित है।
'रिश्तों की खुशबु', 'कनेर', 'नीम', 'उफ़ तुम्हारा मौन', 'अनबाँची रहती भाषाएँ', 'कमला रानी', 'बहुत पुराना खत' आदि नवगीत इस संग्रह की पठनीयता में वृद्धि करते हैं। सीमा जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य प्रसाद गुण संपन्न, प्रवाहमयी, सहज भाषा है। वे शब्दों को चुनती नहीं हैं, कथ्य की आवश्यकतानुसार अपने आप हैं इससे उत्पन्न प्रात समीरण की तरह ताजगी और प्रवाह उनकी रचनाओं को रुचिकर बनाता है। लोकगीत, गीत और मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) में अभिरुचि ने अनजाने ही नवगीतों में छंदों और बह्रों समायोजन करा दिया है।
तन्हाई की नागफनी, गंध के झरोखे, रिवाज़ों का काजल, सोच में सीलन, रातरानी से मधुर उन्वान, धुप मवाली सी, जवाबों की फसल, लालसा के दाँव, सुर्ख़ियों की अलमारियाँ, चन्दन-चंदन बातें, आँचल की सिहरन, अनुबंधों की पांडुलिपियाँ आदि रूपक छूने में समर्थ हैं.
इन गीतों में सामाजिक विसंगतियाँ, वैषम्य से जूझने का संकल्प, परिवर्तन की आहट, आम जन की अपेक्षा, सपने, कोशिश का आवाहन, विरासत और नव सृजन हेतु छटपटाहट सभी कुछ है। सीमा जी के गीतों में आशा का आकाश अनंत है:
पत्थरों के बीच इक / झरना तलाशें
आओ बो दें / अब दरारों में चलो / शुभकामनाएँ
*
टूटती संभावनाओं / के असंभव / पंथ पर
आओ, खोजें राहतों की / कुछ रुचिर नूतन कलाएँ
*
उनकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ निराला है:
उफ़, तुम्हारा मौन / कितना बोलता है
वक़्त की हर शाख पर / बैठा हुआ कल
बाँह में घेरे हुए मधुमास / से पल
अहाते में आज के / मुस्कान भीगे
गंध के कितने झरोखे / खोलता है
*
तुम अधूरे स्वप्न से / होते गए
और मैं होती रही / केवल प्रतीक्षा
कब हुई ऊँची मुँडेरे / भित्तियों से / क्या पता?
दिन निहोरा गीत / रचते रह गए
रातें अनमनी / मरती रहीं / केवल समीक्षा
*
'कम लिखे से अधिक समझना' की लोकोक्ति सीमा जी के नवगीतों के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती है। नवगीत आंदोलन में आ रहे बदलावों के परिप्रेक्ष्य में कृति का महत्वपूर्ण स्थान है. अंसार क़म्बरी कहते हैं: 'जो गीतकार भाव एवं संवेदना से प्रेरित होकर गीत-सृजन करता है वे गीत चिरंजीवी एवं ह्रदय उथल-पुथल कर देने वाले होते हैं' सीमा जी के गीत ऐसे ही हैं।
सीमाजी के अपने शब्दों में: 'मेरे लिए कोई शै नहीं जिसमें संगीत नहीं, जहाँ पर कोमल शब्द नहीं उगते , जहाँ भावों की नर्म दूब नहीं पनपती।हंसी, ख़ुशी, उल्लास, सकार निसर्ग के मूल भाव तत्व है, तभी तो सहज ही प्रवाहित होते हैं हमारे मनोभावों में। मेरे शब्द इन्हें ही भजना चाहते हैं, इन्हीं का कीर्तन चाहते हैं।'
यह कीर्तन शोरोगुल से परेशान आज के पाठक के मन-प्राण को आनंदित करने समर्थ है. सीमा जी की यह कीर्तनावली नए-नए रूप लेकर पाठकों को आनंदित करती रहे.
६-९-२०१५
***
प्रसंगत विषय पर प्रतिष्ठित कवियों की और से स्वरचित रचनाएं : (भाग २)
रचनाकार--इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
प्रसंग है कि एक तरुणी अत्यंत ऊँची बिल्डिंग की छत पर इस तरह से जा बैठी है कि जैसे वह आत्महत्या करने वाली हो | विभिन्न कवियों से इस विषय पर रचना
करने को कहा जाता तो वे इस पर कैसे रचते ....
*
रामधारी सिंह 'दिनकर'
*
आक्रोशित क्यों आज रूपसी,
प्रिय तेरा अवलंबन?
मन की डोर बँधी है मन से,
सात जन्म का बंधन|
बहकाता जग छले छलावा,
उससे बचकर रहना,
विषधर सी अनुभूति अगर हो,
तन-मन कर ले चन्दन|
ले-ले तेरी जान विधाता इतना क्रूर नहीं है|
बढ़ा कदम मत विचलित हो तू मंजिल दूर नहीं है|
_______________________________
जयशंकर प्रसाद
*
प्रज्ज्वलित ज्यों अनेक, मार्तंड आज भोर,
वक्ष धौंकनी समान, घन घमंड घोर-घोर |
थरथरा रहे अधर, भामिनी बनी हुई,
दग्ध दामिनी ललाट, निज भृकुटि तनी हुई |
विश्व सुन्दरी सुरम्य. कान्ति क्यों मलीन है?
आन-बान-शान हित, सहिष्णुता विलीन है,
है क्षणिक विचार किन्तु. क्रोधयुक्त लालिमा,
आत्मघात लक्ष्य है, कठोर भाव भंगिमा |
प्रचण्ड दग्ध दारिका , पग सँभल-सँभल धरो
झुको नहीं डिगो नहीं, सदैव देश हित मरो |
____________________________
सुमित्रानंदन पन्त
*
तुम हो मर्यादित मधु बन,
प्रियतम के प्राणों का धन,
अगणित स्वप्न भरे पलकों में,
उर अंगो में सुख यौवन!
उतरो ऊपर नील गगन से,
हे चिर रमणी, चिर नूतन!
मन के इस उर्वर आँगन में
जी लो ज्योतिर्मय जीवन!
___________________
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
*
दिए हैं तूने जिसे सब फूल फल.
आज वह नीचे रहा है हाथ मल,
क्रोध में मत हो विवश ऐ कामिनी!
आ उतर आ रूपसी ऋतु भामिनी!
प्राण खोकर क्या मिलेगा यह जहां?
ठाठ जीवन का मिलेगा सब यहाँ.
_____________________
मैथिली शरण गुप्त
*
नारी न निराश करो मन को
कुछ प्रेम करो निज यौवन को
अति सुन्दर दर्पण में दुहिता
अनुभूत करो मन की शुचिता
जीवन जीना भी एक कला
सँभलो कि सुयोग्य न जाय चला
है कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
हो किस नरेश के योग्य नहीं
नीचे उतरो ढक लो तन को
नारी न निराश करो मन को |
_____________________
भीगे भीगे नयन कोर हैं.
बैठी छत पर गोरी,
एक जलन से बाँध रखी है
स्नेह प्रीति की डोरी
आत्मघात करने को उद्यत
मूक हुई है भाषा,
किस निष्ठुर की एक फूँक का
देखूं खेल-तमाशा
मेरा सुन ले गीत रूपसी.
आलोकित कर मन को
उष्ण शुष्कता से आ नीचे
स्नेह मिले उपवन को
________________________
संत कबीरदास
*
दुहिता छज्जे पर चढ़ी, बिखराये है केश.
धमकाये हर एक को, सतगुरु का आदेश..
आत्मघात पर है अड़ी, सिर मँड़राए काल.
दुविधा में माने नहीं, जी का है जंजाल..
उतरेगी ललना तभी, जब हों आँखें चार.
रसगुल्ले को देखकर, ही उतरेगी नार..
___________________________
संत गोस्वामी तुलसीदास
*
दारा दुहिता भई दुखारी, गयी कूदि के बैठि अटारी..
तीव्र क्रोध झलके उर माथा, सबै आज सुमिरौ रघुनाथा..
कातर कन्त निकट चलि गयऊ, कूदनार्थ वह उद्यत भयऊ..
नीचे सास बजावे बाजा, चिंतित दीखै संत समाजा..
देवर सास ससुर बलिहारी. उतरि आव प्रिय विपदा भारी,.
बाजी लगती आज जान की. हनुमत रक्षा करें प्रान की..
अहंकार है अति दुखदायी, रघुपति सुमिरन शान्तिप्रदायी..
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काका हाथरसी
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गोरी टावर जा चढ़ी, चले नहीं अब जोर|
ऊपर से मत कूदियो, सिग्नल यदि कमजोर||
सिग्नल यदि कमजोर, हुई डीजल की चोरी|
उलझ नहीं नादान, डेढ़ पसली भी तोरी|
कह काका कविराय, हमेशा मस्त मजा ले|
बदल वीक नेटवर्क, पोर्ट सिम अभी करा ले||
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- लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
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गौरी तू अम्बर चढ़ी, नीचे है पाताल,
नहीं स्वर्ग में जा सके, करती क्यों जंजाल,
करती क्यों जंजाल, उतर कर नीचे आजा
तेरा ये संसार, दुखी क्यों है बतलाजा
माने तेरी बात, सुनेंगे तेरी लोरी
शेष अभी है उम्र, करे क्यों हत्या गौरी ।
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- समोद सिंह चरौरा
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आटा आटा कर रही, घर में कल्लो नार !
छज्जे ऊपर आ गयी, गिरने को तैयार !!
गिरने को तैयार, दूर से देखें प्यादे !
कहती बारम्बार, सजन से आटा लादे !!
कह समोद कविराय, कूद मत छत से माता !
दौड़ा दौड़ा जाय, सजनवा लेने आटा !!
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अंबरीश
आटा जीवन दे कहे, कुण्डलिया शुभ छंद.
गृहिणी तो स्वच्छंद हैं किन्तु कन्त मतिमंद.
किन्तु कन्त मतिमंद, भूल भारी कर जाता.
महिषी हो जब क्रुद्ध, तभी वह आटा लाता .
बचकर रहना मित्र, गाल सूजे दे चाटा.
सदा रहे यह ध्यान, नहीं है घर में आटा.
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प्रमोद तिवारी
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तू है एक बहादुर नारी मरने की क्यों ठानी
समय कहाँ अब बच पाया जो भरे आँख में पानी
है अनमोल मिला जो तुझको जीवन इसे सम्हालो
नये सिरे से फिर जुट जाओ छोड़ो बात पुरानी
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अम्बरीष
मनभावन है सुन्दर रचना, अपने मन को भाई.
कथ्य सहज संदेशपरक है, देता हृदय बधाई..
मार लिया मैदान आपने, अब है सबकी बारी.
है सौभाग्य हमारा पाया, अनुपम मित्र 'तिवारी'.
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राजेंद्र कुमार
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न राह, न मंजिल,न जाने किधर था किनारा।
किधर पग पसारे सब ओर पाए बेसहारा।।
किस्मत का लेखा समझ,जो बैठ गया।
सपना न पूरा होगा कभी,यूं जो हार गया।।
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रमेश एस. पाल रवि
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ऊबकर जिंदगी से कोई डूब जायेगा
फ़िर तराना ज़माना उसका खूब गायेगा
जाना है पगली सबको , एक दिन आयेगा
उस दिन जाना , जिस दिन महबूब बुलायेगा
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नार निडर नशीली छत पर बैठी
इनको लगा के वो आत्महत्या करेगी
गये उसको बचाने , खुद ही गिर पड़े
नार अबला बेचारी अब क्या करेगी ?
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अम्बरीष
निडर नशीली बैठी छत पर कहलाती जो नारि.
दहक रही है उसकी काया हुआ वाष्पित वारि.
वारि संहनित हुआ गगन में बरस गए हैं बादल.
जमा हुआ जल बह निकला है धुला क्लेश बन काजल.
आत्मघात को उकसाती है यही कालिमा प्यारे.
स्नेह नदी बहती है नीचे उसमें अभी नहा रे..
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अबला पर, अबला मत समझें, सबको ले डूबेगी.
हाथों में होंगीं हथकड़ियाँ, भावों से खेलेगी.
दुनिया देखे खेल तमाशा, तिल-तिल कर मरना है
इसीलिये तो बला समझ, हर अबला से डरना है..
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अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
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ना लड़का न लड़की तुम, जीना है बेकार !!
कूदना ही बेहतर है, जाओ नर्क सिधार !
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अंबरीष
जीवन रंगों से भरा, प्रकृति बाँटती प्यार.
स्वर्ग नर्क सारा यहीं. लगा स्वयं में धार
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फणीन्द्र कुमार
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बिखरे-बिखरे केश, लिए बैठी है नारी,
गहराई को नाप , संकुचित है बेचारी,
मरने की ली ठान, मगर मुश्किल है कितना,
कूदेगी क्या खाक, अगर सोचेगी इतना ||
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संजीव वर्मा 'सलिल'
नीलाम्बर पर चित्र लिखे से मेघ भटकते
सलिल धार को शांत देखते रहे ठिठकते
एक ब्रम्ह तन-मन में बँट दो हो जाता है
बैठ किनारे देख रहा जो खो जाता है
केश राशि में छिपा न मालुम नर या नारी?
चित्त अशांत-शांत चिंगारी या अग्यारी ?
पहरा देती अट्टालिका खड़ी एकाकी
अम्बरीष हो मुखर सराहे शुभ बेबाकी
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धारार्यें हों एक, सहज, हमको समझायें,
ज्ञान भक्ति दो मार्ग. मिलें, प्रभु तक पहुँचायें.
एक ब्रह्म बँट तन मन में, है अलख जगाता,
सारे नारी रूप, वही नर. उससे नाता.
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रचनाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
दुष्यंत कुमार
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दृश्य सुन्दर सामने आने लगे हैं
छा रहे थे मेघ जो जाने लगे हैं
अब न रहना इमारत में कैद मुझको
मुक्ति के स्वर टेरते भाने लगे हैं
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गोपाल प्रसाद व्यास
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प्रकृति को परमेश्वर मानो
मत रार मनुज इससे ठानो
माता, मैया, जननी बोलो
अस्का महत्त्व भी अनुमानों
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महादेवी वर्मा
ये नीर भरी जल की बदली
उमड़ी थी कल, पर आज चली
बिन बरसे ताके गगन विवश
है काल सत्य ही महाबली
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नीरज
शांत-शांत नीर के प्रवाह में
आह चाह डाह वाह राह में
छत पे बैठ भा रही है ज़िन्दगी
मौन गीत गा रही है ज़िंदगी
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शैलेन्द्र
गगन रे झूठ मत बोलो
न अब बरसात आना है
गए हैं मेघ सब वापिस
नहीं उनको बुलाना है
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नरेंद्र शर्मा
नीर कलश छलके
सुबह दुपहरी साँझ निशा भर हुए हल्के
पछुआ ने तन-मन सिहराया
बैठी छत पर पुलकित काया
निरख जगत हरषे
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प्रदीप
आओ कवियों! कलम उठाओ बारी आई गान की
पीछे मत हट जाना भाई मुहिम मान-सम्मान की
ये है अपनी नदी सुहावन मेंढक आ टर्राया था
बगुला नकली ध्यान लगाकर मछली पा इतराया था
हरियाली को देख-देखकर शहरी मन हर्षाया था
दृश्य मनोरम कहे कहानी नर-प्रकृति सहगान की
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विमर्श:
शिष्य दिवस क्यों नहीं?
संजीव
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अभी-अभी शिक्षक दिवस गया... क्या इसी तरह शिष्य दिवस भी नहीं मनाया जाना चाहिए? यदि शिष्य दिवस मनाया जाए तो किसकी स्मृति में? राम, कृष्ण को शिष्य रूप में आदर्श कहनेवाले बहुत मिलेंगे किन्तु मुझे लगता है आदर्श शिष्य के रूप में इनसे बेहतर आरुणि, कर्ण और एकलव्य हैं। आपका क्या विचार है सोचिए? किसी अन्य को पात्र मानते हों तो उसकी चर्चा करें ....
६-९-२०१४
***
जाकी रही भावना जैसी
शिक्षक दिवस पर मंगल कामनाएँ प्राप्त कर धन्यता अनुभव हुई। सभी के प्रति ह्रदय से आभार।
विशेष आभार नर्मदांचल के वरिष्ठतम साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के प्रति जिनके स्नेहादेश को स्वीकार कर नर्मदापुरम (होशंगाबाद) में शिवसंकल्प साहित्य परिषद् के शिक्षक दिवस समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी से चयनित शिक्षकों तथा साहित्यकारों को सम्मानित करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। श्रेष्ठ नवगीतकार अग्रजवत श्री विनोद निगम और अपने गुरु, हिंदी के श्रेष्ठ व्यंग्य कवि, धर्मयुग के उपसंपादक रहे श्री सुरेश उपाध्याय जी तथा भाभी श्रीमती आशा उपाध्याय जी के दर्शन, चरणस्पर्श, स्वादिष्ट भोजन और मर्मस्पर्शी कवितायेँ सुनने का सौभाग्य मिला।
मैं व्यवसाय से शिक्षक कभी नहीं रहा। हिंदी भाषा, व्याकरण, साहित्य, पिंगल, वास्तु, विधि, नागरिक अभियांत्रिकी और अन्य विषयों/विधाओं जो कुछ जानता हूँ, पूछनेवालों के साथ बाँटता रहता हूँ। हिन्दयुग्म/साहित्य शिल्पी, ब्लॉग दिव्यनर्मदा, पत्रिका मेकलसुता, ब्लॉगों, फेसबुक पृष्ठों, वॉट्सऐप समूहों, और अन्य मंचों पर लगातार चर्चा या लेख के माध्यम से सक्रिय रहा हूँ। इस वर्ष शिक्षक दिवस पर विस्मित हूँ कि रायपुर से एक साथी ने जिज्ञासा की कि मैं अपने योग्य शिष्य का नाम बताऊँ। इंदौर से अन्य साथी ने अभिवादन करते हुई बताया कि उसने समय-समय पर मुझसे बहुत कुछ सीखा है जो उसके काम आ रहा है। हिंदी के कई व्याख्याताओं और प्राध्यापकों ने छंद, अलंकार तथा व्याकरण संबंधी लेख मालाओं की छायाप्रतियां निकलकर उनसे विद्यार्थियों को पढ़ाया। युग्म और शिल्पी पर कार्यशालाओं के समय शिष्यत्व का दावा करने वालों को शायद अब नाम भी याद न हो। गूगल सर्च पर अपना नाम टंकित करने पर अंग्रेजी में ४ लाख साथ हजार और हिंदी में दो लाख उनहत्तर हजार परिणाम प्राप्त हुए। दिव्यनर्मदा.इन का पाठकांक ४० लाख २८ हजार १२३ है। ७५ पुस्तकों की भूमिकाएँ ३०० से अधिक पुस्तकों की समीक्षाएँ लिखने तथा ५०० से अधिक छंदों की रचना करने के बाद भी स्थानीय आकाशवाणी केंद्र, अखबार और साहित्यिक मठाधीश मुझे साहित्यकार ही नहीं मानते।
मानव मन की यह भिन्नता विस्मित करती है. अस्तु… मैं यह जानता हूँ कि मैं एक विद्यार्थी था, हूँ, और रहूँगा , शेष जाकी रही भावना जैसी.....
सभी कामना छोड़कर करता चल मन कर्म
यही लोक परलोक है यही धर्म का मर्म
***
नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
३०-११-२०१४
***
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
धरती बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
६-९-२०१०
***
सॉनेट
शिक्षक देते सीख नमन
सुख पाना तो कर संतोष
महकाता है अनिल चमन
पा आलोक न करना रोष
सरला बुद्धि हमेशा साथ
बचा अस्मिता करो प्रयास
गुरु छाया पा ऊँचा माथ
संगीता हो महके श्वास
देव कांत दें संरक्षण
मनोरमा मति अमल धवल
हो सुनीति को आरक्षण
विभा निरुपमा रहे नवल
शिक्षक से पा शाश्वत सीख
सत्-शिव-सुंदर जैसा दीख
५-९-२०२२
*