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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

दिसंबर २०, दोहा कहे मुहावरा, यमकीय दोहा, नवगीत, संस्कार, सॉनेट, कृष्ण,

सलिल सृजन दिसंबर २०
*
सॉनेट
नमन
साँवरे कन्हाई को नमन।
शरारत सुहाई को नमन।
बाबा-मताई को नमन।।
बावरी लुनाई को नमन।।
बाँसुरी बजाई को नमन।
प्रीत उर जगाई को नमन।
कर्म की बड़ाई को नमन।।
भक्त से मिताई को नमन।।
जमुना लहराई को नमन।
रास मिल रचाई को नमन।
शक्ति टकराई को नमन।।
भक्ति मुस्कुराई को नमन।।
भयंकर लड़ाई को नमन।
क्रांति, शांति आई को नमन।।
संजीव
२०-१२-२०२२
९४२५१८३२४४
जबलपुर, ६•४०
●●●
सॉनेट
बासंती कृष्ण
पीतांबरी बसंत खिलखिल।
ब्रज-रज, गोवर्धन पर छाया।
गोप-गोपियों के मन भाया।।
छटा श्यामली से गल-भुज मिल।।
अमलतास कचनार फूलते।
फाग कहें जमुना की लहरें।
रास रचा पग तनिक न ठहरें।।
नथ-लट-बेंदे झूम झूलते।।
चंचल लहर लहर लहराई।
चपला भँवर भँवर मुस्काई।
श्यामा-श्याम छटा मन भाई।।
जन-मन मोहे बंसी की धुन।
अपने सपने नए रहे बुन।
सँग बसंत आ छाया फागुन।।
संजीव
२०-१२-२०२२
९४२५१८३२४४, ७•२७,
जबलपुर
●●●
सोलह संस्कार
सोलह संस्कारों के नाम और संक्षिप्त परिचय :-
१. गर्भाधानम्
२. पुंसवनम्
३. सीमन्तोन्नयनम्
४. जातकर्मसंस्कारः
५. नामकरणम्
६. निष्क्रमणसंस्कारः
७. अन्नप्राशनसंस्कारः
८. चूडाकर्मसंस्कारः
९. कर्णवेधसंस्कारः
१०. उपनयनसंस्कारः
११. वेदारम्भसंस्कारः
१२. समावर्त्तनसंस्कारः
१३. विवाहसंस्कारः
१४. वानप्रस्थाश्रमसंस्कारः
१५. संन्यासाश्रमसंस्कारः
१६. अन्त्येष्टिकर्मविधिः
★ १. गर्भाधानम् - गर्भाधान उसको कहते हैं कि जो " गर्भस्याऽऽधानं वीर्यस्थापनं स्थिरीकरणं यस्मिन् येन वा कर्मणा , तद् गर्भाधानम् ।" गर्भ का धारण , अर्थात् वीर्य का स्थापन गर्भाशय में स्थिर करना जिससे होता है । उसी को गर्भाधान संस्कार कहते है ।
● २. पुंसवनम् - पुंसवन उसको कहते हैं जो ऋतुदान देकर गर्भस्थिती से दूसरे वा तीसरे महीने में पुंसवन संस्कार किया जाता है ।
अर्थात् गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में जो संस्कार किया जाता है । उसे पुंसवन संस्कार कहते है ।
■ ३. सीमन्तोन्नयनम् - जिससे गर्भिणी स्त्री का मन संतुष्ट आरोग्य गर्भ स्थिर उत्कृष्ट होवे और प्रतिदिन बढ़ता जावे । उसे सीमन्तोन्नयन कहते हैं ।
◆ गर्भमास से चौथे महीने में शुक्लपक्ष में जिस दिन मूल आदि पुरुष नक्षत्रों से युक्त चन्द्रमा हो उसी दिन सीमन्तोन्नयन संस्कार करें और पुंसवन संस्कार के तुल्य छठे आठवें महीने में पूर्वोक्त पक्ष नक्षत्रयुक्त चन्द्रमा के दिन सीमन्तोन्नयन संस्कार करें ।
★ ४. जातकर्मसंस्कारः - संतान के जन्म के तुरंत बाद जो संस्कार किया जाता है । उसे जातकर्म संस्कार कहते हैं ।
★ ५. नामकरणम् - जन्मे हुए बालक का सुन्दर नाम धरे । ( सार्थक नाम रखना )
नामकरण का काल - जिस दिन जन्म हो उस दिन से लेके १० दिन छोड़ ग्यारहवें , वा एक सौ एकवें अथवा
दूसरे वर्ष के आरंभ में जिस दिन जन्म हुआ हो , नाम धरे ।
◆ ६. निष्क्रमणसंस्कारः - निष्क्रमणसंस्कार उसको कहते हैं कि जो बालक को घर से जहाँ का वायुस्थान शुद्ध हो वहाँ भ्रमण कराना होता है । उसका समय जब अच्छा देखें तभी बालक को बाहर घुमावें अथवा चौथे मास में तो अवश्य भ्रमण करावें ।
निष्क्रमण संस्कार के काल के दो भेद हैं - एक बालक के जन्म के पश्चात् तीसरे शुक्लपक्ष की तृतीया , और दूसरा चौथे महीने में जिस तिथि में बालक का जन्म हुआ हो । उस तिथि में यह संस्कार करे ।
★ ७. अन्नप्राशनसंस्कारः - अन्नप्राशन संस्कार तभी करे जब बालक की शक्ति अन्न पचाने योग्य होवे ।
छठे महीने बालक को अन्नप्राशन करावे । जिसको तेजस्वी बालक करना हो , वह घृतयुक्त भात ( चावल ) अथवा दही , शहद और घृत तीनों भात के साथ मिलाके विधि अनुसार संस्कार करें ।
★ ८. चूडाकर्मसंस्कारः ( मुण्डन संस्कार ) - चूडाकर्म को केशछेदन संस्कार भी कहते है । ( सिर को केश व बाल रहित करना )
यह चूडाकर्म अथवा मुण्डन बालक के जन्म के तीसरे वर्ष वा एक वर्ष में करना ।उत्तरायणकाल शुक्लपक्ष में जिस दिन आनन्दमङ्गल हो , उस दिन यह संस्कार करे ।
★ ९. कर्णवेधसंस्कारः - बालक के कर्ण वा नासिका का छेदन करना कर्णवेधसंस्कार है ।
बालक के कर्ण वा नासिका के वेध का समय जन्म से तीसरे वा पांचवें वर्ष का उचित है ।
■ १०. उपनयनसंस्कारः ( यज्ञोपवीत , जनेऊ ) -
जिस दिन जन्म हुआ हो अथवा जिस दिन गर्भ रहा हो । उससे आठवें वर्ष में ब्राह्मण के ,जन्म वा गर्भ से ग्यारहवें वर्ष में क्षत्रिय के और जन्म वा गर्भ से बारहवें वर्ष में वैश्य के बालक का यज्ञोपवीत करें तथा ब्राह्मण के १६ सोलह , क्षत्रिय के २२ बाईस और वैश्य का बालक का २४ चौबीसवें वर्ष से पूर्व - पूर्व यज्ञोपवीत होना चाहिये । यदि पूर्वोक्त काल में यज्ञोपवीत व जनेऊ न हो वे पतित माने जावें ।
● जिसको शीघ्र विद्या , बल और व्यवहार करने की इच्छा हो और बालक भी पढ़ने समर्थ हो तो ब्राह्मण के लड़के का जन्म वा गर्भ से पांचवें , क्षत्रिय के लड़के का जन्म वा गर्भ से छठे और वैश्य के लड़के का जन्म वा गर्भ से आठवें वर्ष में यज्ञोपवीत करें ।
★ ११. वेदारम्भसंस्कारः - वेदारम्भ उसको कहते हैं जो गायत्री मन्त्र से लेके साङ्गोपाङ्ग ( अङ्ग - शिक्षा , कल्प , व्याकरण , निरुक्त , छन्द , ज्योतिष । उपाङ्ग - पूर्वमीमांसा , वैशेषिक , न्याय , योग , सांख्य और वेदांत । उपवेद - आयुर्वेद , धनुर्वेद , गान्धर्ववेद और अर्थवेद अर्थात् शिल्पशास्त्र । ब्राह्मण - ऐतरेय , शतपथ , साम और गोपथ । वेद - ऋक् , यजुः , साम और अथर्व इन सबको क्रम से पढ़े । ) चारों वेदों के अध्ययन करने के लिये नियम धारण करना ।
समय - जो दिन उपनयनसंस्कार का है , वही वेदारम्भ का है । यदि उस दिवस में न हो सके , अथवा करने की इच्छा न हो तो दूसरे दिन करे । यदि दूसरा दिन भी अनुकूल न हो तो एक वर्ष के भीतर किसी दिन करे ।
★ १२. समावर्त्तनसंस्कारः - समावर्त्तनसंस्कार उसको कहते हैं जिसमें ब्रह्मचर्यव्रत साङ्गोपाङ्ग वेदविद्या , उत्तमशिक्षा और पदार्थविज्ञान को पूर्ण रीति से प्राप्त होके विवाह विधानपूर्वक गृहाश्रम को ग्रहण करने के लिए घर की ओर आना ।
तीन प्रकार के स्नातक होते है ।
१. विद्यास्नातक - जो केवल विद्या को समाप्त तथा ब्रह्मचर्य व्रत को न समाप्त करके स्नान करता है वह विद्यास्नातक है ।
२. व्रतस्नातक - जो ब्रह्मचर्य व्रत को समाप्त तथा विद्या को न समाप्त करके स्नान करता है वह व्रतस्नातक है ।
३. विद्याव्रतस्नातक - जो विद्या और ब्रह्मचर्य व्रत दोनों को समाप्त करके स्नान करता है वह विद्यव्रतस्नातक कहाता है ।
इस कारण ४८ अड़तालीस वर्ष का ब्रह्मचर्य समाप्त करके ब्रह्मचारी विद्या व्रत स्नान करे ।
★ १३. विवाहसंस्कारः - विवाह उसको कहते हैं कि जो पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत से विद्या बल को प्राप्त तथा सब प्रकार से शुभ गुण , कर्म , स्वभावों और अपने - अपने वर्णाश्रम के अनुकूल उत्तम कर्म करने के लिये स्त्री और पुरुष का जो संबंध होता है ।
* उत्तरायण शुक्लपक्ष अच्छे दिन अर्थात् जिस दिन प्रसन्नता हो उस दिन विवाह करना चाहिये ।
* कितने आचार्यों का मत है कि सब काल में विवाह करना चाहिए ।
* जिस अग्नि का स्थापन विवाह में होता है , उस को आवसथ्य नाम है ।
* प्रसन्नता के दिन स्त्री का पाणिग्रहण , जो कि स्त्री सर्वथा शुभ गुणादि से उत्तम हो , करना चाहिए ।
■ विवाह - जब दो प्राणी प्रेमपूर्वक आकर्षित होकर अपने आत्मा , हृदय और शरीर को एक - दूसरे को अर्पित कर देते हैं , तब हम सांसारिक भाषा में उसे विवाह कहते है ।
★ १४. वानप्रस्थाश्रमसंस्कारः - वानप्रस्थसंस्कार उसको कहते हैं , जो विवाह से सन्तानोत्पत्ति करके पूर्ण ब्रह्मचर्य से पुत्र का भी विवाह करे , और पुत्र का भी एक संतान हो जाए । अर्थात् जब पुत्र का भी पुत्र हो जाए तब पुरुष वानप्रस्थाश्रम अर्थात् वन में जाकर वानप्रस्थाश्रम के कर्तव्य का निर्वहन करें।
★ १५.संन्यासाश्रमसंस्कारः - संन्यास संस्कार उसको कहते हैं कि जो मोहादि आवरण पक्षपात छोड़के विरक्त होकर सब पृथिवी में परोपकार्थ विचरे ।
★ १६ . अन्त्येष्टिकर्म - अन्त्येष्टि कर्म उसको कहते हैं कि जो शरीर के अंत का संस्कार है , जिसके आगे शरीर के लिए कोई भी अन्य संस्कार नहीं हैं । इसी को नरमेध , पुरुषमेध , नरयाग , पुरुषयाग भी कहते हैं ।
* भस्मान्त ँ् शरीरम् । ( यजुर्वेद ४०.१५ )
इस शरीर का संस्कार ( भस्मान्तम् ) अर्थात् भस्म करने पर्यंत है ।
***
नवगीत
अपना अपना सच
*
सबका अपना अपना सच है
*
निज सच को
मत थोप अन्य पर,
सत्य और का
झूठ न मानो।
क्या-क्यों कहता?
यह भी जानो।
आत्म मुग्ध हो
पोथे लिखकर
बने मसीहा निज मुख खुद ही
अन्य न माने।
नहीं मुखापेक्षी अब कच है
सबका अपना अपना सच है
*
शहर-गाँव
दोनों परेशां,
तंत्र हावी है,
उपेक्षित है लोक।
अधर पर मुस्कान झूठी
छिपा मन में शोक।
दो दुहाई तुम
विधान की
मनमानी कर
गीत न जाने।
लिखी भुखमरी, तुम्हें अपच है
सबका अपना अपना सच है
***
मुक्तिका
*
सिक्के के दो पहलू हैं, भारत- पाकिस्तान
इसमें उसकी जान है, इसमें उसकी जान
नूरा कुश्ती कर रहे, गर हो सकें करीब
द्वैत तजें; अद्वैत वर, बन जाएँ बलवान
दिल-दिमाग हों दूर यदि, बिगड़े बनते काम
एक साथ मिलकर बनें, सच मानो रस-खान
बँटा जर्मनी एक हो, बना रहा इतिहास
भा पा बा ने एक हों, जनगण ले यदि ठान
गोरों ने बाँटा हमें, मिलकर लूटा खूब
जग बदलें इतिहास हम, क्यों सच से नादान
इस बिन वह निर्जीव हो, उस बिन यह निर्जीव
पति-पत्नी परिवार हो, अपना हिंदुस्तान
***
प्रगटो फिर से भारत भू पर हे माधव।
दुराचार का कंस न दंडित हे माधव।।
दल मिल दलदल मजा रहे हैं है माधव।
लोकतंत्र को मिटा रहे हैं हे माधव।।
खुद निज घर में आग लगाते हे माधव।।
रोजगार नित घटते जाते हे माधव।
जनप्रतिनिधि अय्याश चीर हरते झूमें।
न्यायालय से राहत पाते हे माधव।।
श्री राधे हर कन्या भय से काँप रही
खलनायक अधिकार जताते हे माधव।
काले कोसों का सफेद दिल करो सखे!
चंद टकों हित बिक जाते हैं हे माधव।
नहीं लोक की चिंता किंचित शेष बची।
नहीं देश से प्रेम बचा है हे माधव।।
सबको सत्ता स्वार्थ साध्य हो गया प्रभो!
बजा बाँसुरी इन्हें सुधारो हे माधव।।
वृक्ष काटते जो उनके अब शीश कटें।
मधुवन सारा हिंद बना दो हे माधव।।
निर्मल सलिल मलिन होने से रोको हरि!
जनमत को संजीव बना दो रे माधव।।
भोर उगे सूरज तम कर उजियाला दे।
कीचड़ में भी कमल खिला दो हे माधव।।
२०-१२-२०२०
***
नवगीत
भीड़ में
*
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
नाम के रिश्ते कई हैं
काम का कोई नहीं
भोर के चाहक अनेकों
शाम का कोई नहीं
पुरातन है
हर नवेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
गलत को कहते सही
पर सही है कोई नहीं
कौन सी है आँख जो
मिल-बिछुड़कर कोई नहीं
पालता फिर भी
झमेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
*
जागती है आँख जो
केवल वही सोई नहीं
उगाती फसलें सपन की
जो कभी बोईं नहीं
कौन सा संकट
न झेला आदमी
भीड़ में भी
है अकेला आदमी
२०-१२-२०१५
***
यमकीय दोहा:
नाहक हक ना त्याग तू, ना हक पीछे भाग
ना ज्यादा अनुराग रख, ना हो अधिक विराग
*
मन उन्मन मत हो पुलक, चल चिलमन के गाँव
चिलम न भर चिल रह 'सलिल', तभी मिले सुख-छाँव
*
गए दवाखाना तभी, पाया यह संदेश
भूल दवा खाना गए, खा लें था निर्देश
*
ठाकुर को सिर झुकाकर, ठाकुर करें प्रणाम
ठकुराइन मुस्का रहीं, आज पड़ा फिर काम
*
नम न हुए कर नमन तो, समझो होती भूल
न मन न तन हो समन्वित, तो चुभता है शूल
*
बख्शी को बख्शी गयी, जैसे ही जागीर
थे फकीर कहला रहे, पुरखे रहे अमीर
*
घट ना फूटे सम्हल जा, घट ना जाए मूल
घटना यदि घट जाए तो, व्यर्थ नहीं दें तूल
*
चमक कैमरे ले रहे, जहाँ-तहाँ तस्वीर
दुर्घटना में कै मरे,जानो कर तदबीर
*
तिल-तिल कर जलता रहा, तिल भर किया न त्याग
तिल-घृत की चिंताग्नि की, सहे सुयोधन आग
*
'माँग भरें' वर माँगकर, गौरी हुईं प्रसन्न
वर बन बौरा माँग भर, हुए अधीन- न खिन्न
२०-१२-२०१४
***
दोहा सलिला:
दोहा कहे मुहावरा...
*
दोहा कहे मुहावरा, सुन-गुन समझो मीत.
कम कहिये समझें अधिक, जन-जीवन की रीत.१.
*
दोहा संग मुहावरा, दे अभिनव आनंद.
'गूंगे का गुड़' जानिए, पढ़िये-गुनिये छंद.२.
*
हैं वाक्यांश मुहावरे, जिनका अमित प्रभाव.
'सिर धुनते' हैं नासमझ, समझ न पाते भाव.३.
*
'पत्थर पड़ना अकल पर', आज हुआ चरितार्थ.
प्रतिनिधि जन को छल रहे, भुला रहे फलितार्थ.४.
*
'अंधे की लाठी' सलिल, हैं मजदूर-किसान.
जिनके श्रम से हो सका भारत देश महान.५.
*
कवि-कविता ही बन सके, 'अंधियारे में ज्योत'
आपद बेला में सकें, साहस-हिम्मत न्योत.६.
*
राजनीति में 'अकल का, चकराना' है आम.
दक्षिण के सुर में 'सलिल', बोल रहा है वाम.७.
*
'अलग-अलग खिचडी पका', हारे दिग्गज वीर.
बतलाता इतिहास सच, समझ सकें मतिधीर.८.
*
जो संसद में बैठकर, 'उगल रहा अंगार'
वह बीबी से कह रहा, माफ़ करो सरकार.९.
*
लोकपाल के नाम पर, 'अगर-मगर कर मौन'.
सारे नेता हो गए, आगे आए कौन?१०?
*
'अंग-अंग ढीला हुआ', तनिक न फिर भी चैन.
प्रिय-दर्शन पाये बिना आकुल-व्याकुल नैन.११.
*
'अपना उल्लू कर रहे, सीधा' नेता आज.
दें आश्वासन झूठ नित, तनिक न आती लाज.12.
*
'पानी-पानी हो गये', साहस बल मति धीर.
जब संयम के पल हुए, पानी की प्राचीर.13.
*
चीन्ह-चीन्ह कर दे रहे, नित अपनों को लाभ.
धृतराष्ट्री नेता हुए, इसीलिये निर-आभ.14.
*
पंथ वाद दल भूलकर, साध रहे निज स्वार्थ.
संसद में बगुला भगत, तज जनहित-परमार्थ.15.
*
छुरा पीठ में भौंकना, नेता जी का शौक.
लोकतंत्र का श्वान क्यों, काट न लेता भौंक?16.
*
राजनीति में संत भी, बदल रहे हैं रंग.
मैली नाले सँग हुई, जैसे पावन गंग.17.
*
दरिया दिल हैं बात के, लेकिन दिल के तंग.
पशोपेश उनको कहें, हम अनंग या नंग?18.
*
मिला हाथ से हाथ वे, चला रहे सरकार.
भुला-भुना आदर्श को, पाल रहे सहकार.19.
*
लिये हाथ में हाथ हैं, खरहा शेर सियार.
मिलते गले चुनाव में, कल झगड़ेंगे यार.20.
*
गाल बजाते फिर रहे, गली-गली सरकार.
गाल फुलाये जो उन्हें, करें नमन सौ बार.21.
*
राम नाप जपते रहे,गैरों का खा माल.
राम नाम सत राम बिन, करते राम कमाल.22.
*
'राम भरोसे' हो रहे, पूज्य निरक्षर संत.
'मुँह में राम बगल लिये, छुरियाँ' मिले महंत.२३.
*
'नाच न जानें' कह रहे, 'आंगन टेढ़ा' लोग.
'सच से आँखें मूंदकर', 'सलिल' न मिटता रोग.२४.
*
'दिन दूना'और 'रात को, चौगुन' कर व्यापार.
कंगाली दिखला रहे, स्याने साहूकार.२५.
*
'साढ़े साती लग गये', चल शिंगनापुर धाम.
'पैरों का चक्कर' मिटे, दुःख हो दूर तमाम.२६.
*
'तार-तार कर' रहे हैं, लोकतंत्र का चीर.
लोभतंत्र ने रच दिया, शोकतंत्र दे पीर.२७.
*
'बात बनाना' ही रहा, नेताओं का काम.
'बात करें बेबात' ही, संसद सत्र तमाम.२८.
*
'गोल-मोल बातें करें', 'करते टालमटोल'.
असफलता को सफलता, कहकर 'पीटें ढोल'.२९.
*
'नौ दिन' चलकर भी नहीं, 'चले अढ़ाई कोस'.
किया परिश्रम स्वल्प पर, रहे 'भाग्य को कोस'.३०.
२०-१२-२०१३

***

सोमवार, 29 मई 2023

शृंगार गीत, तुम, दोहे, मुँह, रोला छंद, सॉनेट, संस्कार

सॉनेट
संस्कार
*
मनुज सभ्यता नव आचार
हर दिन गढ़ें नया आयाम 
चेतनता का द्रुत विस्तार 
कर अनुकूल परिस्थिति वाम

निज-पर की तोड़ें दीवार
देख सभी में ईश अनाम
कर पाएं उसका दीदार
जो कारण है, जो परिणाम

संस्कार जीवन आsधार
नाम दिलाए रह बेनाम
दे चरित्र को नवल निखार
बिगड़े हुए बनाए काम

संस्कार बिन विधि हो वाम
सज्जन संस्कार के धाम
२९-५-२०२३
*

***
गीत
तुम
*
तुमको देखा, खुदको भूला
एक स्वप्न सा बरबस झूला
मैं खुद को ही खोकर हँसता
ख्वाब तुम्हारे में जा बसता
तुमने जब दर्पण में देखा
निज नयनों में मुझको लेखा
हृदय धड़कता पड़ा सुनाई
मुझ तक बंसी की ध्वनि आई
दूर दूर रह पास पास थे
कुछ हर्षित थे, कुछ उदास थे
कौन कहे कैसे कब क्या घट
देख रहा था जमुन तीर वट
वेणु नाद था कहीं निनादित
नेह नर्मदा मौन प्रवाहित
छप् छपाक् वर्तुल लहराए
मोर पंख शत शत फहराए
सुरभि आ रही वातायन से
गीत सुन पड़ा था गुंजन से
इंद्रधनुष तितली ले आई
निज छवि तुममें घुलती पाई
लगा खो गए थे क्या मैं तुम?
विस्मित सस्मित देख हुए हम
खुद ने खुद को पाया था गुम
दर्पण में मैं रहा न, धीं तुम।
२९-५-२०२१
***
कार्यशाला
आइये! कविता करें १० :
.
लता यादव
राह कितनी भी कठिन हो, दिव्य पथ पर अग्रसर हो ।
हारना हिम्मत न अपनी कितनी भी टेढ़ी डगर हो ।
कितनी आएं आँधी या तूफान रोकें मार्ग तेरा, .
तू अकेला ही चला चल पथ प्रदर्शक बन निडर हो ।
कृपया मात्रा भार से भी अवगत करायें गणना करने में कठिनाई का अनुभव करती हूँ , धन्यवाद
संजीव:
राह कितनी भी कठिन हो, दिव्य पथ पर अग्रसर हो ।
21 112 2 111 2, 21 11 11 2111 2 = 14, 14 = 28 हारना हिम्मत न अपनी, कितनी भी टेढ़ी डगर हो ।
212 211 1 112, 112 2 22 111 2 = 14. 15 = 29 कितनी आएं आँधी या, तूफान रोकें मार्ग तेरा, .
112 22 22 2, 221 22 21 22 = 14, 16 = 30 तू अकेला ही चला चल, पथ प्रदर्शक बन निडर हो । 2 122 2 12 11, 11 1211 11 111 2 = 14, 14 = 28
दूसरी पंक्ति में एक मात्रा अधिक होने के कारण 'कितनी' का 'कितनि' तथा तीसरी पंक्ति में २ मात्राएँ अधिक होने के कारण 'कितनी' का 'कितनि' तथा आँधी या का उच्चारण 'आंधियां' की तरह होता है.
इसे सुधारने का प्रयास करते हैं:
राह कितनी भी कठिन हो, दिव्य पथ पर अग्रसर हो ।
21 112 2 111 2, 21 11 11 2111 2 = 14, 14 = 28
हारना हिम्मत न अपनी, भले ही टेढ़ी डगर हो ।
212 211 1 112, 112 2 22 111 2 = 14. 14 = 28
आँधियाँ तूफान कितने, मार्ग तेरा रोकते हों
२१२ ११२ ११२, २१ २२ २१२ २ = 14, 14 = 28
तू अकेला ही चला चल, पथ प्रदर्शक बन निडर हो ।
2 122 2 12 11, 11 1211 11 111 2 = 14, 14 = 28
***
नवगीत:
शिरीष
.
क्षुब्ध टीला
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.
कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा, पाता बुरा ही
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
...
टिप्पणी: इस पुष्प का नाम शिरीष है। बोलचाल की भाषा में इसे सिरस कहते हैं। बहुत ही सुंदर गंध वाला... संस्कृत ग्रंथों में इसके बहुत सुंदर वर्णन मिलते हैं। अफसोस कि इसे भारत में काटकर जला दिया जाता है। शारजाह में इसके पेड़ हर सड़क के दोनो ओर लगे हैं। स्व. हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध 'शिरीष के फूल' है -http://www.abhivyakti-hindi.org/.../lali.../2015/shirish.htm वैशाख में इनमें नई पत्तियाँ आने लगती हैं और गर्मियों भर ये फूलते रहते हैं... ये गुलाबी, पीले और सफ़ेद होते हैं. इसका वानस्पतिक नाम kalkora mimosa (albizia kalkora) है. गाँव के लोग हल्के पीले फूल वाले शिरीष को, सिरसी कहते हैं। यह अपेक्षाकृत छोटे आकार का होता है। इसकी फलियां सूखकर कत्थई रंग की हो जाती हैं और इनमें भरे हुए बीज झुनझुने की तरह बजते हैं। अधिक सूख जाने पर फलियों के दोनों भाग मुड़ जाते हैं और बीज बिखर जाते हैं। फिर ये पेड़ से ऐसी लटकी रहती हैं, जैसे कोई बिना दाँतो वाला बुजुर्ग मुँह बाए लटका हो।इसकी पत्तियाँ इमली के पेड़ की पत्तियों की भाँति छोटी छोटी होती हैं। इसका उपयोग कई रोगों के निवारण में किया जाता है। फूल खिलने से पहले (कली रूप में) किसी गुथे हुए जूड़े की तरह लगता है और पूरी तरह खिल जाने पर इसमें से रोम (छोटे बाल) जैसे निकलते हैं, इसकी लकड़ी काफी कमजोर मानी जाती है, जलाने के अलावा अन्य किसी उपयोग में बहुत ही कम लाया जाता है।बडे शिरीष को गाँव में सिरस कहा जाता है। यह सिरसी से ज्यादा बडा पेड़ होता है, इसकी फलियां भी सिरसी से अधिक बडी होती हैं। इसकी फलियां और बीज दोनों ही काफी बडे होते हैं, गर्मियों में गाँव के बच्चे ४-५ फलियां इकठ्ठा कर उन्हें खूब बजाते हैं, यह सूखकर सफेद हो जाती हैं, और बीज वाले स्थान पर गड्ढा सा बन जाता है और वहाँ दाग भी पड जाता है ... सिरस की लकड़ी बहुत मजबूत होती है, इसका उपयोग चारपाई, तख्त और अन्य फर्नीचर में किया जाता है ... गाँव में ईंट पकाने के लिए इसका उपयोग ईधन के रूप में भी किया जाता है।गाँव में गर्मियों के दिनों में आँधी चलने पर इसकी पत्ती और फलियां उड़ कर आँगन में और द्वारे पर फैल जाती हैं, इसलिए इसे कूड़ा फैलाने वाला रूख कहकर काट दिया जाता है. 
***
शृंगार गीत
तुम
*
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
कुछ हाँ-हाँ, कुछ ना-ना
कुछ देना, कुछ पाना।
पलक झुका, चुप रहना
पलक उठा, इठलाना।
जीभ चिढ़ा, छिप जाना
मंद अगन सुलगाना
पल-पल युग सा लगना
घंटे पल हो जाना।
बासंती बह बयार
पल-पल दे नव निखार।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तुम-मैं हों दिक्-अम्बर
स्नेह-सूत्र श्वेताम्बर।
बाती मिल बाती से
हो उजास पीताम्बर।
पहन वसन रीत-नीत
तज सारे आडम्बर।
धरती को कर बिछात
आ! ओढ़ें नीलाम्बर।
प्राणों से, प्राणों को
पूजें फिर-फिर पुकार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
श्वासों की ध्रुपद-चाल
आसें नर्तित धमाल।
गालों पर इंद्रधनुष
बालों के अगिन व्याल।
मदिर मोगरा सुजान
बाँहों में बँध निढाल
कंगन-पायल मिलकर
गायें ठुमरी - ख़याल।
उमग-सँकुच बहे धार
नेह - नर्मदा अपार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तन तरु पर झूल-झूल
मन-महुआ फूल-फूल।
रूप-गंध-मद से मिल
शूलों को करे धूल।
जग की मत सुनना, दे
बातों को व्यर्थ तूल
अनहद का सुनें नाद
हो विदेह, द्वैत भूल।
गव्हर-शिखर, शिखर-गव्हर
मिल पूजें बार-बार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
प्राणों की अगरु-धूप
मनसिज का प्रगट रूप।
मदमाती रति-दासी
नदी हुए काय - कूप।
उन्मन मन, मन से मिल
कथा अकथ कह अनूप
लूट-लुटा क्या पाया?
सब खोया, हुआ भूप।
सँवर-निखर, सिहर-बिखर
ले - दे, मत रख उधार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
२९-५-२०१६
***
नवगीत:
मातृभाषा में
*
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
ढोल सुहाने दूर के
होते सबको ज्ञात
घर का जोगी जोगड़ा
आन सिद्ध विख्यात
घरवाली की बचा नजरें
अन्य से अँखियाँ लड़ाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
आम आदमी समझ ले
मत बोलो वह बात
लुका-दबा काबिज़ रहो
औरों पर कर घात
दर्द अन्य का बिन सुने
स्वयं का दुखड़ा सुनाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
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दोहा सलिला:
दोहे का रंग मुँह के संग
*
दोहे के मुँह मत लगें, पल में देगा मात
मुँह-दर्पण से जान ले, किसकी क्या है जात?
*
मुँह की खाते हैं सदा, अहंकार मद लोभ
मुँहफट को सहना पड़े, असफलता दुःख क्षोभ
*

मुँहजोरी से उपजता, दोनों ओर तनाव
श्रोता-वक्ता में नहीं, शेष रहे सद्भाव
*
मुँह-देखी कहिए नहीं, सुनना भी है दोष

जहाँ-तहाँ मुँह मारता, जो- खोता संतोष
*
मुँह पर करिए बात तो, मिट सकते मतभेद
बात पीठ पीछे करें, बढ़ बनते मनभेद
*
मुँह दिखलाना ही नहीं, होता है पर्याप्त
हाथ बटायें साथ मिल, तब मंजिल हो प्राप्त
*
मुँह-माँगा वरदान पा, तापस करता भोग
लोभ मोह माया अहं, क्रोध ग्रसे बन रोग
*
आपद-विपदा में गये, यार-दोस्त मुँह मोड़
उनको कर मजबूत मन, तत्क्षण दें हँस छोड़
*
मददगार का हम करें, किस मुँह से आभार?
मदद अन्य जन की करें, सुख पाये संसार
*
जो मुँहदेखी कह रहे, उन्हें न मानें मीत
दुर्दिन में तज जायेंगे, यह दुनिया की रीत
*
बेहतर है मुँह में रखो, अपने 'सलिल' लगाम
बड़बोलापन हानिप्रद, रहें विधाता वाम
*
छिपा रहे मुँह आप क्यों?, करें न काज अकाज
सच को यदि स्वीकार लें, रहे शांति का राज
*
बैठ गये मुँह फुलाकर, कान्हा करें न बात
राधा जी मुस्का रहीं, मार-मार कर पात
*
मुँह में पानी आ रहा, माखन-मिसरी देख
मैया कब जाएँ कहीं, करे कन्हैया लेख
*
मुँह की खाकर लौटते, दुश्मन सरहद छोड़
भारतीय सैनिक करें, जांबाजी की होड़
*
दस मुँह भी काले हुए, मति न रही यदि शुद्ध
काले मुँह उजले हुए, मानस अगर प्रबुद्ध
*
गये उठा मुँह जब कहीं, तभी हुआ उपहास
आमंत्रित हो जाइए, स्वागत हो सायास
*
सीता का मुँह लाल लख, आये रघुकुलनाथ
'धनुष-भंग कर एक हों', मना रहीं नत माथ
*
मुँह महीप से महल पर, अँखियाँ पहरेदार
बली-कली पर कटु-मृदुल, करते वार-प्रहार
२९-५-२०१५
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हाइकु सलिला:
*
कमल खिला
संसद मंदिर में
पंजे को गिला
*
हट गयी है
संसद से कैक्टस
तुलसी लगी
*
नरेंद्र नाम
गूँजा था, गूँज रहा
अमरीका में
*
मिटा कहानी
माँ और बेटे लिखें
नयी कहानी
*
नहीं हैं साथ
वर्षों से पति-पत्नी
फिर भी साथ
*
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विमर्श :
क्या चुनाव में दलीय स्पर्धा से उपजी कड़वाहट और नेताओं में दलीय हित को राष्ट्रीय हित पर वरीयता देने को देखते हुए राष्ट्रीय सरकार भविष्य में अधिक उपयुक्त होगी?
संविधान नागरिक को अपना प्रतिनिधि चुनने देता है. दलीय उम्मीदवार को दल से इतनी सहायता मिलती है की आम आदमी उम्मीदवार बनने का सोच भी नहीं सकता।
स्वतंत्रता के बाद गाँधी ने कांग्रेस भंग करने की सलाह दी थी जो कोंग्रेसियों ने नहीं मानी, अटल जी ने प्रधान मंत्री रहते हुए राष्ट्रीय सरकार की बात थी किन्तु उनके पास स्पष्ट बहुमत नहीं था और सहयोगी दलों को उनकी बात स्वीकार न हुई. क्यों न इस बिंदु के विविध पहलुओं पर चर्चा हो.
छंद सलिला:
रोला छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, चार पद, प्रति चरण दो पद - मात्रा २४ मात्रा, यति ग्यारह तेरह, पदांत गुरु (यगण, मगण, रगण, सगण), विषम पद सम तुकांत,
लक्षण छंद:
आठ चरण पद चार, ग्यारह-तेरह यति रखें
आदि जगण तज यार, विषम-अंत गुरु-लघु दिखें
गुरु-गुरु से सम अंत, जाँचकर रचिए रोला
अद्भुत रस भण्डार, मजा दे ज्यों हिंडोला
उदाहरण:
१. सब होंगे संपन्न, रात दिन हँसें-हँसायें
कहीं न रहें विपन्न, कीर्ति सुख सब जन पायें
भारत बने महान, श्रमी हों सब नर-नारी
सद्गुण की हों खान, बनायें बिगड़ी सारी
२. जब बनती है मीत, मोहती तभी सफलता
करिये जमकर प्रीत, न लेकिन भुला विफलता
पद-मद से रह दूर, जमाये निज जड़ रखिए
अगर बन गए सूर, विफलता का फल चखिए
३.कोटि-कोटि विद्वान, कहें मानव किंचित डर
तुझे बना लें दास, अगर हों हावी तुझपर
जीव श्रेष्ठ निर्जीव, हेय- सच है यह अंतर
'सलिल' मानवी भूल, न हों घातक कम्प्यूटर
टीप:
रोल के चरणान्त / पदांत में गुरु के स्थान पर दो लघु मात्राएँ ली जा सकती हैं.
सम चरणान्त या पदांत सैम तुकान्ती हों तो लालित्य बढ़ता है.
रचना क्रम विषम पद: ४+४+३ या ३+३+२+३ / सम पद ३+२+४+४ या ३+२+३+३+२
कुछ रोलाकारों ने रोला में २४ मात्री पद और अनियमित गति रखी है.
नविन चतुर्वेदी के अनुसार रोला की बहरें निम्न हैं:
अपना तो है काम छंद की करना
फइलातुन फइलात फाइलातुन फइलातुन
२२२ २२१ = ११ / २१२२ २२२ = १३
भाषा का सौंदर्य, सदा सर चढ़कर बोले
फाइलुन मफऊलु / फ़ईलुन फइलुन फइलुन
२२२ २२१ = ११ / १२२ २२ २२ = १३
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
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दोहा सलिला:
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एक न सबको कर सके, खुश है सच्ची बात
चयनक जाने पात्रता, तब ही चुनता तात
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सिर्फ किताबी योग्यता, का है नहीं महत्व
समझ, लगन में भी 'सलिल', कुछ तो है ही तत्व
*
संसद से कैक्टस हटा, रोपी तुलसी आज
बने शरीफ शरीफ अब, कोशिश का हो राज
*
सुख कम संयम की अधिक, शासक में हो चाह
नियम मानकर आम सम, चलकर पाये वाह
*
जो अरविन्द वही कमल, हुए न फिर भी एक
अपनी-अपनी राह चल, कार्य करें मिल नेक
२९-५-२०१४
*

बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

मुंडन संस्कार

मुंडन संस्कार 
*
हिंदू धर्म के अनुसार १६ मुख्य संस्कारों में से एक संस्कार मुंडन भी है। शिशु जब जन्म लेता है तब उसके सिर पर गर्भ के समय से ही कुछ केष पाए जाते हैं जो अशुद्ध माने जाते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार मानव जीवन ८४ लाख योनियों के बाद मिलता है। पिछले सभी जन्मों के ऋणों को उतारने तथा पिछले जन्मों के पाप कर्मों से मुक्ति के उद्देश्य से उसके जन्मकालीन केश काटे जाते हैं।
मुंडन के वक्त कहीं-कहीं शिखा छोड़ने का भी प्रयोजन है, जिसके पीछे मान्यता यह है कि इससे दिमाग की रक्षा होती है। इससे राहु ग्रह की शांति होती है, जिसके फलस्वरूप सिर ठंडा रहता है।
मुंडन से लाभ :
बाल कटवाने से शरीर की अनावश्यक गर्मी निकल जाती है, दिमाग व सिर ठंडा रहता है व बच्चों में दाँत निकलते समय होने वाला सिर दर्द व तालु का काँपना बंद हो जाता है। शरीर पर और विशेषकर सिर पर विटामिन-डी (धूप के रूप) में पड़ने से कोशिकाएँ जाग्रत होकर खून का प्रसारण अच्छी तरह कर पाती हैं जिनसे भविष्य में आने वाले केश बेहतर होते हैं।
संस्कार कर्म :
सर्व प्रथम शिशु अथवा बालक को गोद में लेकर उसका चेहरा हवन की अग्नि के पश्चिम में किया जाता है। पहले कुछ केश पंडित के हाथ से और फिर नाई द्वारा काटे जाते हैं।
इस अवसर पर गणेश पूजन, हवन, आयुष्य होम आदि पंडित जी से करवाया जाता है। फिर बाल काटने वाले को, पंडित आदि को आरती के पश्चात्‌ भोजन व दान दक्षिणा दी जाती है।
कब-कहाँ?
उत्तर भारत में अधिकतर गंगा तट पर, दुर्गा मंदिरों के प्रांगण में तथा दक्षिण भारत में तिरुपति बालाजी मंदिर तथा गुरुजन देवता के मंदिरों में मुंडन संस्कार किया जाता है।
संस्कार के बाद केशों को दो पुड़ियों के बीच रखकर जल में प्रवाहित कर दिया जाता है। कहीं-कहीं केश वैसे ही विसर्जित कर दिए जाते हैं।
जब सूर्य मकर, कुंभ, मेष, वृष तथा मिथुन राशियों में हो, तब मुंडन शुभ माना जाता है। परंतु बड़े लड़के का मुंडन जब सूर्य वृष राशि पर हो और मां 5 माह की गर्भवती हो, तब उस वर्ष नहीं करना चाहिए।

संस्कार भास्कर के अनुसार :
गर्भाधान मतश्र्च पुंसवनकं सीमंत जातामिधे नामारण्यं सह निष्क्रमेण च तथा अन्नप्राशनं कर्म च। 
चूड़ारण्यं व्रतबन्ध कोप्यथ चतुर्वेद व्रतानां पुरः, केशांतः सविसिर्गकः परिणयः स्यात षोडशी कर्मणाम्‌''॥
जन्म के पश्चात्‌ प्रथम वर्ष के अंत या फिर तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष की समाप्ति के पूर्व शिशु का मुंडन संस्कार करना आमतौर पर प्रचलित है क्योंकि हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार एक वर्ष से कम उम्र में मुंडन करने से शिशु के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। साथ ही अमंगल होने का भय बना रहता है।
कुल परंपरा के अनुसार मुंडन संस्कार :
कुल परंपरा के अनुसार प्रथम, तृतीय, पंचम या सप्तम वर्ष में भी मुंडन संस्कार करने का विधान है। शास्त्रीय एवं पौराणिक मान्यताएं यह हैं कि शिशु के मस्तिष्क को पुष्ट करने, बुद्धि में वृद्धि करने तथा गर्भावस्था की अशुचियों को दूर कर मानवतावादी आदर्शों को प्रतिष्ठापित करने हेतु मुंडन संस्कार किया जाता है। इसका उद्देश्य बुद्धि, विद्या, बल, आयु और तेज की वृद्धि करना है।
देवस्थान और तीर्थ स्थल पर मुंडन का महत्व :
मुंडन संस्कार किसी देवस्थल या तीर्थ स्थल पर इसलिए कराया जाता है कि उस स्थल के दिव्य वातावरण का लाभ शिशु को मिले तथा उसके मन में सुविचारों की उत्पत्ति हो।
आश्वालायन गृह सूत्र के अनुसार :
मुंडन संस्कार से दीर्घ आयु की प्राप्ति होती है। शिशु सुंदर तथा कल्याणकारी कार्यों की ओर प्रवृत्त होने वाला बनता है।
तेन ते आयुषे वयामि सुश्लोकाय स्वस्तये'। -आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/17/12
जिस शिशु का मुंडन संस्कार सही समय एवं शुभ मुहूर्त में नहीं किया जाता है उसमें बौद्धिक विकास एवं तेज शक्ति का अभाव पाया जाता है। इसलिए शिशु का मुंडन शास्त्रीय विधि से अवश्य किया जाना चाहिए।
मुंडन संस्कार वस्तुतः मस्तिष्क की पूजा अभिवंदना है। मस्तिष्क का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करना ही बुद्धिमत्ता है। शुभ विचारों को धारण करने वाला व्यक्ति परोपकार या पुण्य का लाभ पाता है और अशुभ विचारों को मन में भरे रहने वाला व्यक्ति पापी बनकर ईश्वर के दंड और कोप का भागी बनता है। यहां तक कि अपनी जीवन प्रक्रिया को नष्ट-भ्रष्ट कर डालता है। इस तरह मस्तिष्क का सदुपयोग ही मुंडन संस्कार का वास्तविक उद्देश्य है।
नारद संहिता के अनुसार :
तृतीये पंचमाव्देवा स्वकुलाचारतोऽपि वा।
बालानां जन्मतः कार्यं चौलमावत्सरत्रयात्‌॥
बालकों का मुंडन जन्म से तीन वर्ष से पंचम वर्ष अथवा कुलाचार के अनुसार करना चाहिए।
सौम्यायने नास्तगयोर सुरासुर मंत्रिणेः।
अपर्व रिक्ततिथिषु शुक्रेक्षेज्येन्दुवासरे॥
मुंडन संस्कार सूर्य की उत्तरायण अवस्था तथा गुरु और शुक्र की उदितावस्था में, पूर्णिमा, रिक्ता से मुक्त तिथि तथा शुक्रवार, बुधवार, गुरुवार या चंद्रवार को करना चाहिए।
दस्त्रादितीज्य चंद्रेन्द्र भानि शुभान्यतः।
चौल कर्मणि हस्तक्षोत्त्रीणि त्रीणिच विष्णुभात॥
पट्ठबंधन चौलान्न प्राशने चोपनायने।
शुभदं जन्म नक्षत्रशुभ्र त्वन्य कर्मणि॥
अर्थात चौलकर्म (मुंडन) संस्कार के लिए अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, मृगशिरा, ज्येष्ठा, रेवती, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा तथा शतभिषा नक्षत्र शुभ हैं।
धर्म सिंधु के अनुसार :
जन्म मास और अधिक मास (मलमास) तथा ज्येष्ठ पुत्र का ज्येष्ठ महीने में मुंडन करना अशुभ कहा गया है।
बालक की माता गर्भवती हो और बालक की उम्र पांच वर्ष से कम हो तो मुंडन नहीं करना चाहिए। माता गर्भवती हो और बालक की उम्र 5 वर्ष से अधिक हो तो मुंडन संस्कारा चाहिए। यदि माता को 5 महीने से कम का गर्भ हो, तो मुंडन हो सकता है।
यदि माता रजस्वला हो, तो उसकी शांति करवाकर मुंडन संस्कार करना चाहिए।
माता-पिता के देहांत के बाद विहित समय (छह महीने बाद) उत्तरायण में मुंडन करना चाहिए। मुंडन से पूर्व नांदी मुख श्राद्ध का भी वर्णन है। किसी प्रकार का सूतक होने पर मुंडन वर्जित है। मुंडन के बाद तीन महीने तक पिंड दान अथवा तर्पण वर्जित है। परंतु क्षयाह श्राद्ध वर्जित नहीं है।
मुंडन के समय बालक को वस्त्राभूषणों से विभूषित नहीं करना चाहिए। स्मरणीय है कि चूड़ाकरण (मुंडन) में तारा का प्रबल होना चंद्रमा से भी अधिक आवश्यक है।
विवाहे सविता शस्तो व्रतबंधे बृहस्पतिः।
क्षौरे तारा विशुद्धिश्र्च शेषे चंद्र बलं बलम्‌॥'' - ज्योतिर्निबंध
निर्णय सिंधु के अनुसार :
गर्भाधान के तीसरे, पांचवें तथा दूसरे वर्ष में भी मुंडन किया जाता है। परंतु जन्म से तीसरे वर्ष में श्रेष्ठ और जन्म से पांचवें या सातवें वर्ष में मध्यम माना जाता है।
पारिजात में बृहस्पति का कहना है कि सूर्य उत्तरायण हो, विशेषकर सौम्य गोलक हो; तो शुक्ल पक्ष में मुंडन कराना श्रेष्ठ और कृष्ण पक्ष की पंचम तिथि तक सामान्य माना गया है।
वशिष्ठ के अनुसार तिथि २, ३, ५, ७, १०, ११ या १३ को मुंडन कराना चाहिए।
नृसिंह पुराण के अनुसार तिथि १, ४, ६, ८, १२, १४, १५ या ३० को मुंडन कर्म निंदित है।
वशिष्ठ के अनुसार रविवार, मंगलवार और शनिवार मुंडन के लिए वर्जित हैं। हालांकि ज्योतिर्बंध में बृहस्पति का वचन है कि पाप ग्रहों के वार में ब्राह्मणों के लिए रविवार, क्षत्रियों के लिए मंगलवार तथा वैश्यों और शूद्रों के लिए शनिवार शुभ है।
जन्म नक्षत्र में मुंडन कर्म हो, तो मरण और अष्टम चंद्र के समय हो, तो नाक में विकार कहा गया है।
मुंडन संस्कार मुहूर्त :
जन्म या गर्भाधान से १, ३, ५, ७ इत्यादि विषम वर्षों में कुलाचार के अनुसार, सूर्य की उत्तरायण अवस्था में जातक का मुंडन संस्कार करना चाहिए।
शुभ महीना :
चैत्र (मीन संक्रांति वर्जित), वैशाख, ज्येष्ठ (ज्येष्ठ पुत्र हेतु नहीं), आषाढ़ (शुक्ल 11 से पूर्व), माघ तथा फाल्गुन। जन्म मास त्याज्य।
शुभ तिथि :
शुक्ल पक्ष - २, ३, ५, ७, १०, ११, १३ 
कृष्ण पक्ष - पंचमी तक
शुभ दिन :
सोमवार, बुधवार, गुरुवार, श्ुाक्रवार
शुभ नक्षत्र :
अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाति, ज्येष्ठा, अभिजित, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती (जन्मर्क्ष शुभ तथा विद्धर्क्ष वर्ज्य)।
शुभ योग :
सिद्धि योग, अमृत योग, सर्वार्थ सिद्धि योग, राज्यप्रद योग।
शुभ राशि एवं लग्न अथवा नवांश लग्न :
वृष, मिथुन, कर्क, वृश्चिक, धनु, मीन शुभ हैं। इस लग्न के गोचर में भाव १, ४, ७, १० एवं ५, ९ में शुभ ग्रह तथा भाव ३, ६, ११ में पाप ग्रह के रहने से मुंडन का मुहूर्त शुभ माना जाता है।
परंतु मुंडन का लग्न जन्म राशि जन्म लग्न को छोड़कर होना चाहिए। ध्यान रहे, चंद्र भाव ४, ६, ८, १२ में नहीं हो।
ऋषि पराशर के अनुसार मुंडन जन्म मास और जन्म नक्षत्र को छोड़ कर करना चाहिए।
समस्त शुभ कार्यों में त्याज्य :
जन्म नक्षत्र, जन्म तिथि, जन्म मास, श्राद्ध दिवस (माता-पिता का मृत्यु दिन) चित्त भंग, रोग।
क्षय तिथि, वृद्धि तिथि, क्षय मास, अधिक मास, क्षय वर्ष, दग्धा तिथि, अमावस्या तिथि।
विष्कुंभ योग की प्रथम ५ घटिकाएँ, परिघ योग का पूर्वार्द्ध, शूल योग की प्रथम ७ घटिकाएँ, गंड और अति गंड की ६ घटिकाएँ एवं व्याघात योग की प्रथम ८ घटिकाएँ, हर्षण और व्रज योग की ९ घटिकाएँ तथा व्यतिपात और वैधृति योग समस्त शुभकार्यों के लिए त्याज्य हैं। मतांतर से विष्कुंभ की ३, शूल की ५, गंड और अति गंड की ७, तथा व्याघात और वज्र की ९ घटिकाएँ शुभ कार्यों में त्याज्य हैं।
महापात के समय में भी कार्य न करें।
तिथि, नक्षत्र और लग्न इन तीनों प्रकार का गंडांत का समय
भद्रा (विष्टीकरण)
तिथि, नक्षत्र तथा दिन के परस्पर बने कई दुष्ट योगों की तालिका :
उपर्युक्त योगों का भी शुभ कार्य में त्याग करना चाहिए।
पाप ग्रह युक्त, पाप भुक्त और पाप ग्रह विद्ध नक्षत्र एवं नक्षत्रों की विष संज्ञक घटिकाएँ।
पाप ग्रह युक्त चंद्र, पाप युक्त लग्न का नवांश।
जन्म राशि, जन्म लगन से अष्टम लग्न, दुष्ट स्थान ४, ८, १२ का चंद्र और क्षीण चंद्र वर्जित है।
लग्नेश ६, ८, १२ न हो, जन्मेश और लग्नेश अस्त नहीं हों, पाप ग्रहों का कर्तरी योग भी वर्जित है।
मासांत दिन, सभी नक्षत्रों के आदि की २ घटिकाएँ, तिथि के अंत की एक घटी और लग्न के अंत की आधी घड़ी शुभ कार्यों में वर्जित है।
जिस नक्षत्र में ग्रह या पापी ग्रहों का युद्ध हुआ हो वह शुभ कार्यों में छह महीने तक नहीं लेना चाहिए। ग्रहों की एक राशि तथा अंश, कलादि सम होने पर ग्रह युद्ध कहा जाता है।
ग्रहण के पहले ३ दिन और बाद के ६ दिन वर्जित हैं। ग्रहण नक्षत्र वर्जित, ग्रहण खग्रास हो तो उस नक्षत्र में छह मास, अर्द्धग्रास हो तो ३ मास, चौथाई ग्रहण हो, तो 1 मास तथा उदयोदय और अस्तास्त हो, तो ३ दिन पहले और ३ दिन बाद तक कोई शुभ कार्य न करें।
गुरु शुक्र का अस्त, बाल्य, वृद्धत्व, गुर्वादित्य समय भी शुभ कार्यों में त्याज्य हैं। बाल्य और वृद्धत्व के ३ दिन वर्जनीय हैं।
कृष्ण पक्ष १४ के चंद्र वार्द्धिक्य, अमावस के अस्त और शुक्ल एकम्‌ के बाल्य चंद्र के समय भी शुभ कार्य न करें।
रिक्ता तिथियां (४, ९, १४), दग्धा तिथियां, भद्रा युक्त तिथियां, व्यतिपात और वैधृति एवं अर्द्धप्रहरा युक्त समय शुभ कार्यों एवं खासकर मुंडन के लिए वर्जित हैं।
अतः जीवन के आरंभ काल में जो बाल जन्म के साथ उत्पन्न होते हैं, वे पशुता के सूचक माने जाते हैं। इन्हें शुभ मुहूर्त में बाल कटाने से जहाँ वह पशुता समाप्त होती है वहीं मानवोचित गुणों की प्रखरता के साथ बुद्धि और ज्ञान की भी वृद्धि होती है।
""मुंडन संस्कार कराने से लाभ, न कराने से दोष'':
मुंडन संस्कार का धार्मिक महत्व तो है ही, विज्ञान की दृष्टि से भी यह संस्कार अति आवश्यक है, क्योंकि शरीर विज्ञान के अनुसार यह समय बालक के दाँत आदि निकलने का समय होता है। इस कारण बालक को कई प्रकार के रोग होने की संभावना रहती है। अक्सर इस समय बालक में निर्बलता, चिड़चिड़ापन आदि उत्पन्न और उसे दस्तों तथा बाल झड़ने की शिकायत लगती है। मुंडन कराने से बालक के शरीर का तापमान सामान्य हो जाने से अनेक शारीरिक तथा स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं जैसे फोड़े, फुंसी, दस्तों आदि से बालक की रक्षा होती है। यजुर्वेद के अनुसार यह संस्कार बल, आयु, आरोग्य तथा तेज की वृद्धि के लिए किए जाने वाला अति महत्वपूर्ण संस्कार है। महर्षि चरक ने लिखा है-
पौष्टिकं वृष्यमायुष्यं शुचि रूपविराजनम्‌। 
केशश्यक्तुवखदीनां कल्पनं संप्रसाधनम्‌॥'' 
मुंडन संस्कार, नाखून काटने और बाल सँवारने तथा बालों को साफ रखने से पुष्टि, वृष्यता, आयु, पवित्रता और सुंदरता की वृद्धि होती है।
मुंडन संस्कार को दोष परिमार्जन के लिए भी परम आवश्यक माना गया है। गर्भावस्था में जो बाल उत्पन्न होते हैं उन सबको दूर करके मुंडन संस्कार के द्वारा बालक को संस्कारित शिक्षा के योग्य बनाया जाता है। इसीलिए कहा गया है कि मुंडन संस्कार के द्वारा अपात्रीकरण के दोष का निवारण होता है।
मुंडन संस्कार की शास्त्रोक्त विधि'
मुंडन संस्कार के देवता प्रजापति हैं तथा अग्नि का नाम शुचि है।
सामग्री के रूप में गाय का दूध, दही, घी, कलावा, गुँथा आटा, एक साथ तीन-तीन बाँधे हुए २४ कुश, ठंडा-गर्म पानी, सेही का काँटा, काँसे की थाली, रक्त वृषभ का गोबर, लौह और ताम्र मिश्रित छुरा तथा अन्य सर्वदेव पूजा की प्रचलित सामग्री का उपयोग किया जाए।
शुभ दिन तथा शुभ मुहूर्त में माता-पिता स्वयं स्नानादि से निवृत्त होकर शुद्ध और स्वच्छ वस्त्रादि धारण करें। बालक को भी दो शुद्ध उत्तम वस्त्र पहनाएं तथा बालक को मुंडन के पश्चात पहनाने हेतु नए वस्त्र भी रखें।
मुंडन संस्कार में प्रयोग आने वाली सामग्री इस प्रकार है- शीतल एवं गुनगुना गरम पानी, मक्खन, शुद्ध घी, दूध, दही, कंघी, कुश, उस्तरा, गोचर, काँसे का पात्र, शैली, मौली, अक्षत, पुष्प, दूर्वा, दीपक, नैवेद्य, ऋतुफल, चंदन, शुद्ध केशर, रुई, फूलमाला, चार प्रकार के रंग, हवन सामग्री, समिधा, उड़द दाल, पूजा की साबुत सुपारी, श्रीफल, देशी पान के पत्ते, लौंग, इलायची, देशी कपूर, मेवा, पंचामृत, मधु, चीनी, गंगाजल, कलश, चौकी, तेल, प्रणीता पात्र, प्रोक्षणी पात्र, पूर्णपात्र, लाल या पीला कपड़ा, सुगंधित द्रव्य, पंच पल्लव, पंचरत्न, सप्तमृत्तिका, सर्वौषधि, वरण द्रव्य, धोती, कुर्ता, माला, पंचपात्र, गोमुखी, खड़ाऊं आदि कपड़ा वेदी चंदोया का, रेत या मिट्टी, सरसों, आसन, थाली, कटोरी तथा नारियल।
चूड़ाकर्म से पूर्व ब्राह्म मुहूर्त में मंडप में कांस्य पात्र में रक्त बैल का गोबर तथा दूध अथवा दही डाला जाता है। इसके पश्चात्‌ उसे स्वच्छ वस्त्र से ढका जाता है। फिर उसी स्थान पर क्षुर, २७ कुश और तीन शल्लकी कंट रखना चाहिए। फिर पीले वस्त्र से बालक के सिर में बाँधने के लिए दूर्वा, सरसों, अक्षतयुक्त पाँच पोटलिकाएँ आदि लाल मौली से बाँधकर रखे जाते हैं। फिर बालक को स्नान करवाकर माता की गोद में बैठाया जाता है व पिता से आचार्य के द्वारा पूजन प्रारंभ कराया जाता है। संकल्प करवाकर देवताओं का पूजन कर बालक के दक्षिण दिशा के बालों को शल्लकी कंट से तीन भागकर पुनः एक बनाकर पाँच विनियोग किया जाता है। इस प्रकार प्रतिष्ठित कर दक्षिण के क्रम से सिर में पोटलिका को आचार्य द्वारा बाँधा जाता है।
यह संस्कार आयु तथा पराक्रम की प्राप्ति के लिए किया जाता है। चूड़ाकर्म में बालक के कुल धर्मानुसार शिखा रखने का विधान है। यह संस्कार बालक के तीसरे या पांचवें विषम वर्ष में शुभ दिन में जब चंद्र तारा अनुकूल हों तब यजमान को आचार्य के द्वारा कराना चाहिए। यजमान द्वारा पुनः संकल्प कर देवताओं का पूजन करना चाहिए, पश्चात्‌ ब्राह्मण को ÷वृतोऽस्मि' कहें। चूड़ाकरण संस्कार में कुश कंडिका होम पूर्ववत्‌ कर सभ्य नाम से अग्नि का पूजन करें। आज्याहुति, व्याहृति होम, प्रायश्चित होम पूर्ववत्‌ करें। होम के पश्चात्‌ पूर्ण पात्र संकल्प करें। तत्पश्चात्‌ यजमान द्वारा ब्राह्मण को सामग्री दान देकर पिता गर्म जल से शिशु या बालक के केश को धोएँ।
पुनः दही और मक्खन से बाल धोकर दक्षिण क्रम से ठंडे व गरम जल से पुनः धोना चाहिए। इस प्रकार मिश्रोदक से धोकर दक्षिण भाग को जूटिका को शल्ल की कंट से तीन भाग कर प्रत्येक में एक-एक कुश लगाना चाहिए।
कुशयुक्त बालों को बाएँ हाथ में रखकर दाहिने हाथ में क्षुर ग्रहण कर विनियोग करना चाहिए। पश्चात्‌ क्षुर को ग्रहण करना चाहिए। फिर जूटिका को एकत्र कर दक्षिण में केश छेदन के लिए विनियोग कर छोड़ना चाहिए। तीन कुश सहित बाल काटकर काँसे की थाली में रक्त वृषभ के गोबर के ऊपर रखना चाहिए। पुनः पश्चिमादि जूटिकाओं को भी पूर्वोक्त मंत्रों द्वारा धोकर एकत्र करना चाहिए। फिर पश्चिम के बाल काटने का विनयोग करते हुए बाल काटकर गोबर के ऊपर रखना चाहिए। पुनः पूर्व के बालों को विनियोग कर पूर्व गोबर के ऊपर रखना चाहिए। पुनः पूर्व के बालों को विनियोग कर पूर्व के बाल काटकर उत्तर के बालों को काटने का विनियोग कर मध्य में गोपद तुल्य गोलाकर बाल शिखा के लिए छोड़कर अन्य बालों को काटकर सब बालों को गोबर में रखकर जल स्थान, गौशाला या तालाब में रखना चाहिए। पुनः स्नान कर पूर्णाहुति करना चाहिए। पश्चात्‌ क्षुर से त्र्‌यायुष निकालकर धारण हेतु विनियोग कर दाहिने हाथ की अनामिका और अंगुष्ठ से आचार्य द्वारा यजमान को सपरिवार त्र्‌यायुष लगाया जाना चाहिए पश्चात्‌ आचार्य द्वारा भोजनोपरांत यजमान को आशीर्वाद दिया जाना चाहिए।
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