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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

अप्रैल ५, रामकिंकर, खुसरो, लघुकथा, दोहा यमक, माखन लाल, ममता शर्मा, शिरीष,

सलिल सृजन अप्रैल ५
*
स्मरण युग तुलसी
युगतुलसी की गहो विरासत,
कर शिव-प्रीति, उमा पग वंदन,
वर जीवन-पथ सत्-सुंदर नित,
राम नाम हो माथे चंदन।
युगतुलसी हैं श्रद्धा अविचल,
सिया-राम-हनुमंत उपासक,
नेह नर्मदा प्रवहित अविरल,
सर-सरयू निर्मलता साधक।
युगतुलसी विश्वास अखंडित,
एक साधते, सब सध जाते,
गुरु-प्रभु को कर महिमा मंडित,
पल-पल राम नाम गुंजाते।
युगतुलसी सम करें आचरण,
सिया-राम को सुमिरें हर क्षण।।
५.४.२०२४
•••
आज की रचना
जागो माँ
*
जागो माँ! जागो माँ!!
*
सीमा पर अरिदल ने भारत को घेरा है
सत्ता पर स्वार्थों ने जमा लिया डेरा है
जनमत की अनदेखी, चिंतन पर पहरा है
भक्तों ने गाली का पढ़ लिया ककहरा है
सैनिक का खून अब न बहे मौन त्यागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
जनगण है दीन-हीन, रोटी के लाले हैं
चिड़ियों की रखवाली, बाज मिल सम्हाले हैं
नेता के वसन श्वेत, अंतर्मन काले हैं
सेठों के स्वार्थ भ्रष्ट तंत्र के हवाले हैं
रिश्वत-मँहगाई पर ब्रम्ह अस्त्र दागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
*
जन जैसे प्रतिनिधि को औसत ही वेतन हो
मेहनत का मोल मिले, खुश मजूर का मन हो
नेता-अफसर सुत के हाथों में भी गन हो
मेहनत कर सेठ पले, जन नायक सज्जन हो
राजनीति नैतिकता एक साथ पागो माँ
*
सीमा पर अरिदल ने भारत को घेरा है
सत्ता पर स्वार्थों ने जमा लिया डेरा है
जनमत की अनदेखी, चिंतन पर पहरा है
भक्तों ने गाली का पढ़ लिया ककहरा है
सैनिक का खून अब न बहे मौन त्यागो माँ
जागो माँ! जागो माँ!!
नवसंवत्सर, ५.४.२०१९
***
नवगीत
.
पूज रहे हैं
मूरत
कहते चित्र गुप्त है
.
है आराध्य हमारा जो
वह है अविनाशी
कहते फिर बतलाते कैसा
मनुज विनाशी
पैदा हुआ-मरा कैसे-कब
कहाँ? कह रहे
झगड़े-झंझट खड़े कर रहे
काबा-काशी
शिव वैरागी को अर्पित
करते हैं राशी
कहते कंकर-कंकर शंकर
छिपा-सुप्त है.
.
तुमने उसे बनाया या
वह तुम्हें बनाता?
तुम आते-जाते हो या
वह आता-जाता?
गढ़ते-मढ़ते, तोड़-फाड़ते
बिना विचारे
देख हमारी करनी वह
छिप-छिप मुस्काता
कैसा है यह बुद्धिमान
जो आप ठगाता?
मैंने दिया विवेक, कहाँ वह
हुआ लुप्त है?
५.४.२०१४
...
कार्यशाला काव्यानुवाद  
ग़ज़ल - अमीर खुसरो  
*
काफ़िरे-इश्कम मुसलमानी मरा दरकार नीस्त
हर रगे मन तार गश्ता हाजते जुन्नार नीस्त
अज़ सरे बालिने मन बर खेज ऐ नादाँ तबीब
दर्द मन्द इश्क़ रा दारो- बख़ैर दीदार नीस्त
मा व इश्क़ यार,अगर पर किब्ला ,गर दर बुतकदा
आशिकान दोस्त रा बक़ुफ़्रो- इमां कार नीस्त
ख़ल्क़ मी गोयद के खुसरो बुत परस्ती मी कुनद
आरे -आरे मी कुनम बा ख़लको-दुनिया कार नीस्त।
*
भावानुवाद 
नास्तिक हूँ मैं प्रेम पूजता, नहीं चाहिए मुझे सुमिरनी 
नस नस तार बन गई मेरी, नहीं जरूरत है जनेऊ की 
मेरे सिरहाने से उठ जा, अब तो ऐ नादां हकीम तू 
प्रेम-रोग जिसको इलाज है, उसका केवल प्रिय-दर्शन ही 
चाह प्रेम प्रेमी की केवल, काबा हो या हो देवालय 
काम प्रेमिका से है केवल,कुफ़्र और ईमान से नहीं
कहती है तो कह ले दुनिया, खसरो करता मूरत-पूजन  
हाँ हाँ मूरत पूज रहा मैं, परवा नहीं मुझे दुनिया की  
५.४.२०१४ 
***
दोहा
डैड रहें रिच या पुअर, तनिक न पड़ता फर्क।
योग्य बनो आगे बढ़ो, छोड़ी तर्क-वितर्क।।
५-४-२०२३
***
लघुकथा:
अकल के अंधे
*
२ अप्रैल २०२० एक सामान्य दिन और तारीख, बिलकुल अन्य दिनों की तरह।
पोंगा पंडित को बहुत दिनों से अपने लोगों द्वारा अनदेखा किया जा रहा था। चर्चा में न बने रहना उनका शगल तो था ही, राजनीति में बने रहने के लिए चर्चित होना भी जरूरी था। क्या करें कि नाम चर्चा में आ जाए। कुछ सूझ ही नहीं रहा था, तभी प्रधान मंत्री जी ने ५ अप्रैल को रात ९ बजे ९ मिनिट के लिए बिजली बंद कर बालकनी या दरवाजे पर दिया. मोमबत्ती, लालटेन आदि जलाने की अपील जनता जनार्दन से की।
उन्हें लगा यही मौका है, इसे तुरन्त भुनाना चाहिए पर कैसे?
संयोगवश ५ और ४ का योग ९ होने पर उनका ध्यान गया। दिमाग पर जोर दिया तारीख और माह का योग ९, समय ९ बजे, दिया जलने की अवधि ९ मिनिट, बचपन में शिक्षक द्वारा बताये गए ९ के पहाड़े की विशेषताएं याद हो आईं। पोंगा पंडित मुस्कुराये चलो. काम बन गया। तुरंत एक लेख बनाया। महान पंडितों की गणना के आधार पर घोषणा, ९ पूर्णता का प्रतीक...
रात नौ बजे ९ मिनिट ९ x ९ = ८१ = ८ + १ = ९
माह और तारीख का योग ४ + ५ + ९
तीनों को जोड़ें ९ + ९ + ९ = २७ = २ + ७ = ९
तीनों का गुणा करें ९ x ९ x ९ = ७२९ = ७ + २ + ९ = १ + ८ = ९
महापूर्ण योग , महा मंगलकारी, किस राशि पर कैसा प्रभाव? जानने के लिए संपर्क करें और अपना चलभाष क्रमांक, फीस और एटीएम नंबर दे दिया।
अपने अलग-अलग नंबरों से कई वॉट्सऐप समूहों, फेसबुक पटलों, आदि में डालने में जुट गए।
'निठल्लों की तरह क्या मोबाइल से चिपके हो, कुछ करते क्यों नहीं? चलो झाड़ू ही लगा लो, मैं तब तक बर्तन माँज लूँ। नहीं तो चाय-वाय कुछ नहीं मिलेगी' पंडिताइन ने घुड़की दी।
पंडित जी ने सोचा इसे खुश कर दूँ तो दिन भर चैन रहेगा, सो बोले 'डार्लिंग! देखो तो कितनी बढ़िया गणना की है अब चारों तरफ चर्चा तो होगी ही, कुंडली मिलवाने वालों से कमाई भी हो जाएगी। पंडितानी पंडित जी से ज्यादा पढ़ी-लिखी थीं, तुरंत बोलीं "ये क्या आधा-अधूरा गया बघारते हो? वर्ष २०२० का क्या हुआ? मुहूर्त की बात करते हो चैत्र माह का अंक १ हुआ, विक्रम संवत २०७७ = १६ = ७, तिथि है द्वादशी = ३ सबका योग ११ = २ , सबका गुणा २१ = ३। अब क्या होगा तुम्हारी ९ के फंडे का?"
"ए भागवान! बंद रखो अपनी जबान। भगवान् अक्लमंद पत्नी किसी को न दे। तुम तो मेरी खटिया ही खड़ी करा दोगी। बना बनाया काम बिगाड़ दोगी। तय मानो कमाई तो होंगई ही, नाम भी उछल जायेगा, तुम चाय बनाने का जुगाड़ करों, मैं तुम्हारे हुकुम का पालन करता हूँ। ये भारत है, यहाँ कम नहीं हैं अकल के अंधे।"
***
गले मिले दोहा यमक
*
काहे को रोना मचा, जीना किया हराम
कोरोना परदेश से, लाये ख़ास न आम
बिना सिया-सत सियासत, है हर काम सकाम
काम तमाम न काम का, बाकि काम तमाम
हेमा की तस्वीर से, रोज लड़ाते नैन
बीबी दीखते झट कहें हे माँ, मन बेचैन
बौरा-गौरा को नमन, करता बौरा आम.
खास बन सके, आम हर, हे हरि-उमा प्रणाम..
देख रहा चलभाष पर, कल की झलकी आज.
नन्हा पग सपने बड़े, कल हो कल का राज..
५.४.२०२०
***
गीत
सबसे पहले देश
*
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
रक्षा करी विदेशी से लड़
शस्त्र हाथ में लेकर
बापू के सत्याग्रह से जुड़
जूझे कमल उठाकर
पत्रकार-कवि तेजस्वी हे!
कसर न छोड़ी लेश
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
विद्यार्थी जी के पथ पर चल
जान हथेली पर ले
लक्ष्मण सिंह-सुभद्रा को पथ दिखलाया आशिष दे
हिम तरंगिणी, हिम किरीटनी
ने दी कीर्ति अशेष
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
सत्ता दल पद कभी न चाहा
करी स्वार्थ बिन सेवा
शर्म करें दल नेता चमचे
चाह रहे जो मेवा
नोटा चुने हराओ इनको
जागृत रहो विशेष
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
करी पुष्प ने अभिलाषा यह
बिछे राह पर जाकर
गुजरें माँ के सेवक पग धर
चाह नहीं प्रभु का सिर
त्यागी-बलिदानी अजरामर
कमी न छोड़ी लेश
माखन दादा ने सिखलाया
सबसे पहले देश
*
***
कृति चर्चा:
मैं हूँ एक भाग हिमालय का : मन मंदाकिनी का काव्य प्रवाह
*
चर्चाकार: आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
(कृति विवरण: मैं हूँ एक भाग हिमालय का, काव्य संग्रह, ममता शर्मा, प्रथम संस्करण २०१८, आईएसबीएन ९७८०४६३६४४९६६, आवरण पेपरबैक बहुरंगी, पृष्ठ १२०, मूल्य१८५ रु., प्रकाशक वर्जिन साहित्य पीठ दिल्ली)
*
कविता की नहीं जाती, हो जाती है। अनुभूति के शिखर से अभिव्यक्ति सलिला प्रवाहित होकर कलकल निनाद करे तो कविता हो जाती है। मानव जीवन पल-पल परिवर्तन का साक्षी बनता है। भावात्म शब्द-तन मे वास कर परिवर्तनजनित प्रतिक्रिया के प्रागट्य का साक्षी बनता है। यह निर्विवाद सत्य है कि नारी मन पुरुष मन की तुलना में अधिक भाव प्रवण और ममतामय होता है। 'मैं हूँ भाग हिमालय का' की कविताएँ व्यष्टि और समष्टि के अंतर्संबंध की प्रतीति से उद्भूत हैं।
'आज धरा के आँगन में फिर
सूरज ऊषा लेकर आया
देख अचानक संग उन्हें
रजनी-नेत्रों में जल भर आया।
फट ले अपनी काली चूनर
झटपट वो विभावरी भागी
तभी अचानक पाँखें खोले
चिड़िया भी चूँ-चूँ कर जागी।'
प्रकृति के साथ तादात्म्य-स्थापन ब्रह्म-साक्षात का प्रथम चरण है। रंग उड़ा, रंग उड़ा, हर दिशा ही रंग उड़ा' हर दिशा में रंग दिखना लगे तो कबीर सब कुछ लुटा देता है पर लोई को घर में ही ब्रह्म का पारा पाँव पसारे मिल जाता है। उसे मम्मी के भाल, पूजा के थाल, गणपति और हाथी, मोती के बैल और पकवानों का कतारों में अर्थात यत्र-तत्र-सर्वत्र रंग ही रंग दिखता है। निराकुल मीरा कहती हैं 'मैं तो साँवरी के रँग राँची' ममता की प्रतीति भिन्न होना स्वाभाविक है। 'मन को लगाएँ किससे / मैं बतियाऊँ किससे' के गिले-शिकवे भुलाकर 'चंपकवन में एक रूपसी / गर्वीली मतवाली आली' होकर स्वरूप निहारती वह जान ही नहीं पाती 'आया कौन मन के दर्पण में....बिना रोके-टोके' लेकिन आ ही गया तो जाने का द्वार नहीं है। 'यही तो जीवन है अभिराम / यही तो जीवन है सुखधाम।' रंगरसिया साथ हो तो 'पीली-पीली सरसों फैली / फैली चारों ओर' का प्रतीति होनी ही है। यह प्रतीति संकुचन नहीं विस्तार और नव सृजन के पथ पर पग धरती है- 'है बस नियमों थोड़ा सा अहसास जागा / हाँ, मैं भी हूँ हिस्सा धरा का जरा सा', कामना जागती है 'भूमि पा अब बीज जाए / हो उजाला सूर्य का / चंदा का किरणें गुनगुनाएँ'।
सृजनाकांक्षी चेतना 'मुसाफिर हूँ मैं / हर क्षण चलती ही रहती हूँ' कहते हुए भी गंतव्य के प्रति सचेत रहती है-'रहा बचपन जवानी, सब में बेसुध / कुछ खबर ले-ले'।
'काठ का हाँडी चढ़ी तो पल में बात समझ गई'। कौन सी बात? यही कि 'जो करना आज ही कर लो'। क्योंकि 'हम क्या हैं? / केवल सितारों की राख / या हैं हम / संपूर्ण ब्रह्मांड'।
अनुभूतियों का इंद्रधनुषी रंग 'मैं हूँ एक भाग हिमालय का' में सर्वत्र व्याप्त है। गीत-सागर राकेश खंडेलवाल लिखित आमुख से समृद्ध
यह कृति कवयित्री की काव्य-सृजन प्रतिभा की प्रथम पुष्प है जो पूत के पाँव पालने में दिखते हैं कहावत को चरितार्थ करती है।
'ठुमुक चलत रामचंद्र' का पैंजनियों का रुनझुन ले आनंदित होते समय पुष्प-वाटिका, पंचवटी या लंकापुरी में राम की छवि न खोजें तो विवेच्य कृति बालारुणी ऊषा की रम्य छवि-दर्शन का सा आनंद देती है। कवयित्री की प्रतिभा आगामी काव्य संग्रहों में परवान पर चढ़कर विश्ववाणी हिंदी के साहित्य कोष को समृद्ध करेगी, यह विश्वास किया जा सकता है।
५-४-२०१९
***
आनुप्रासिक दोहे
*
दया-दफीना दे दिया, दस्तफ्शां को दान
दरा-दमामा दाद दे, दल्कपोश हैरान
(दरा = घंटा-घड़ियाल, दफीना = खज़ाना, दस्तफ्शां = विरक्त, दमामा = नक्कारा, दल्कपोश = भिखारी)
*
दर पर था दरवेश पर, दरपै था दज्जाल
दरहम-बरहम दामनी, दूर देश था दाल
(दर= द्वार, दरवेश = फकीर, दरपै = घात में, दज्जाल = मायावी भावार्थ रावण, दरहम-बरहम = अस्त-व्यस्त, दामनी = आँचल भावार्थ सीता, दाल = पथ प्रदर्शक भावार्थ राम )
*
दिलावरी दिल हारकर, जीत लिया दिलदार
दिलफरेब-दीप्तान्गिनी, दिलाराम करतार
(दिलावरी = वीरता, दिलफरेब = नायिका, दिलदार / दिलाराम = प्रेमपात्र)
५-४-२०१७
***
नवगीत:
.
क्षुब्ध पहाड़ी
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.
कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा पाता बुरा है
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
***
नवगीत:
.
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
महाकाव्य बब्बा की मूँछें, उजली पगड़ी
खण्डकाव्य नाना के नाना किस्से रोचक
दादी-नानी बन प्रबंध काव्य करती हैं बतरस
सुन अंग्रेजी-गिटपिट करते बच्चे भौंचक
ईंट कहीं की, रोड़ा आया और कहीं से
अपना
आप विधाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
लक्षाधिक है छंद सरस जो चाहें रचिए
छंदहीन नीरस शब्दों को काव्य न कहिए
कथ्य सरस लययुक्त सारगर्भित मन मोहे
फिर-फिर मुड़कर अलंकार का रूप निरखिए
बिम्ब-प्रतीक सलोने कमसिन सपनों जैसे
निश-दिन
खूब दिखाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
दृश्य-श्रव्य-चंपू काव्यों से भाई-भतीजे
द्विपदी, त्रिपदी, मुक्तक अपनेपन से भीजे
ऊषा, दुपहर, संध्या, निशा करें बरजोरी
पुरवैया-पछुवा कुण्डलि का फल सुन खीजे
बौद्धिकता से बोझिल कविता
पढ़ता
पर बिसराता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
.
गीत प्रगीत अगीत नाम कितने भी धर लो
रच अनुगीत मुक्तिका युग-पीड़ा को स्वर दो
तेवरी या नवगीत शाख सब एक वृक्ष की
जड़ को सींचों, माँ शारद से रचना-वर लो
खुद से
खुद बतियाता है यह
कुनबा
गीति विधा का है यह
५-४-२०१५
***
नवगीत:
.
रचनाओं की हर रामायण
अक्षर-अक्षर मिलकर गढ़ते
कथ्य भाव रस बिम्ब बनाते
क्षर शब्दों की सार्थक दुनिया
.
शब्द-शब्द मिल वाक्य बनाते
वाक्य अनुच्छेदों में ढलते
अनुच्छेद मिल कथा-कहानी
बन जाते तो सपने पलते
बनते सपने युग के नपने
लगे पतीले ऊपर ढकने
पुरुषार्थी कोशिश कर हारे
लगे राम की माला जपने
दे जाती है साँझ सलोने
सपने लेकिन ढलते-ढलते
नानी के अधरों पर लाती
हँसी शरारत करती मुनिया
.
किसने जीवन यहाँ बिताया
केवल सुख पा, सहा न दुखड़ा
किसने आँसू नहीं बहाये
किसका सुख से खिला न मुखड़ा
किस अंतर में नहीं अंतरा
इश्क-मुश्क का गूँजा कहिए
सम आकारिक पंक्ति-लहरियाँ
बन नवगीत बह रही गहिए
होते तब जीवंत खिलौने
शिशु-नयनों में पलते-पलते
खेले हास-रास के सँग जब
श्वास-आस की जीवित गुड़िया
.
गीतकार पाठक श्रोता का
नाता होता बहुत अनूठा
पल में खुश हो जाता बच्चा
पल भर पहले था जो रूठा
टटकापन-देशजता रुचती
अधुनातानता भी मन भाती
बन्ना-गारी के सँग डी जे
सुनते-नाचें झूम बराती
दिखे क्षितिज पर देखे चंदा
धवल चाँदनी हँसते-खिलते
घूँघट डाले हनीमून पर
जाती इठलाकर दुलहनिया
४.४.२०१५
...
*
PAN Card explained:-
PAN is a 10 digit alpha numeric number,
where the first 5 characters are letters,
the next 4 numbers and the last one a letter again.
These 10 characters can be divided in five parts as can be seen below.
The meaning of each number has been explained further.
1. First three characters are alphabetic series running from AAA to ZZZ
2. Fourth character of PAN represents the status of the PAN holder. • C — Company • P — Person • H — HUF(Hindu Undivided Family) • F — Firm • A — Association of Persons (AOP) • T — AOP (Trust) • B — Body of Individuals (BOI) • L — Local Authority • J — Artificial Juridical Person • G — Government
3. Fifth character represents first character of the PAN holder’s last name/surname.
4. Next four characters are sequential number running from 0001 to 9999.
5. Last character in the PAN is an alphabetic check digit.
Nowadays, the DOI (Date of Issue) of PAN card is mentioned at the right (vertical) hand side of the photo on the PAN card.
***
दोहा सलिला
ठिठुर रहा था तुम मिलीं, जीवन हुआ बसंत.
दूर हुईं पतझड़ हुआ, हेरूँ हर पल कन्त..
तुम मैके मैं सासरे, हों तो हो आनंद.
मैं मैके तुम सासरे, हों तो गाएँ छन्द.
तू-तू मैं-मैं तभी तक, जब तक हों मन दूर.
तू-मैं ज्यों ही हम हुए, साँस हुई संतूर..
*
दो हाथों में हाथ या, लो हाथों में हाथ.
अधरों पर मुस्कान हो, तभी सार्थक साथ..
*
नयन मिला छवि बंदकर, मून्दे नयना-द्वार.
जयी चार, दो रह गये, नयना खुद को हार..
५-४-२०१३
***
खबरदार कविता:
खबर: हमारी सरहद पर इंच-इंच कर कब्ज़ा किया जा रहा है.
दोहा गजल:
असरकार सरकार क्यों?, हुई न अब तक यार.
करता है कमजोर जो, 'सलिल' वही गद्दार..
*
अफसरशाही राह का, रोड़ा- क्यों दरकार?
क्यों सेना में सियासत, रोके है हथियार..
*
दें जवाब हम ईंट का, पत्थर से हर बार.
तभी देश बच पायेगा, चेते अब सरकार..
*
मानवता के नाम पर, रंग जाते अखबार.
आतंकी मजबूत हों, थम जाते हथियार..
*
५-४-२०१०

सोमवार, 25 मार्च 2024

होली, खुसरो, मीरा, नजीर, भारतेन्दु, प्रसाद, निराला, नज़रुल, बच्चन, शकील , 'रेणु,

महाकवियों की होली कविताएँ
*
अमीर खुसरो (१२५३-१३२५)
*
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।

जिसके कपरे रंग दिए सो धन-धन वाके भाग
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।

मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब-ए-इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया
वो तो दोनों बसंती रंग दे।

जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरवी रख ले
आन पारी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब रख ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे।
***

मीराबाई (१४९८-१५४७)
सील सन्तोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल बलिहार रे॥
***

नजीर अकबराबादी (१७३५-१८३०)
*
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की

हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुल-रू रंग-भरे
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग-भरे
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग-भरे कुछ ऐश के दम मुँह-चंग भरे
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों तब देख बहारें होली की

सामान जहाँ तक होता है उस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहय्या हो और बाग़ खिला हो ख़्वाबों का
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में एक ग़ोल खड़ा महबूबों का
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिले हों परियों के और मज्लिस की तय्यारी हो
कपड़ों पर रंग के छींटों से ख़ुश-रंग अजब गुल-कारी हो
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग-भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की

उस रंग-रंगीली मज्लिस में वो रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिस का चाँद का टुकड़ा हो और आँख भी मय के प्याली हो
बद-मसत बड़ी मतवाली हो हर आन बजाती ताली हो
मय-नोशी हो बेहोशी हो ''भड़वे'' की मुँह में गाली हो
भड़वे भी, भड़वा बकते हों तब देख बहारें होली की

और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवय्यों के लड़के
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट घट के कुछ बढ़ बढ़ के
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के कुछ होली गावें अड़ अड़ के
कुछ लचके शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन भड़के
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की

ये धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा-खींच घसीटी पर भड़वे रंडी का फक्कड़ हो
माजून, शराबें, नाच, मज़ा, और टिकिया सुल्फ़ा कक्कड़ हो
लड़-भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों तब देख बहारें होली की
*
जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।

जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।

गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।
***

भारतेन्दु हरिश्चंद्र (९ सितंबर १८५०-६ जनवरी १८८५)
*
गले मुझको लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में।

नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में।

गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में।

है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुमी कुछ है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ मिरे दिलदार होली में।

रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीली आंख दिखाकर करो सरशार होली में।
*
कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥

तुन्हें कछु लाज न आई।
***

जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८८९-१५ नवंबर १९३७)

बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन।

चांदनी धुली हुई है आज बिछलते है तितली के पंख
सम्हलकर, मिलकर बजते साज मधुर उठती हैं तान असंख्य।

तरल हीरक लहराता शान्त सरल आशा-सा पूरित ताल।
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त बिछा है सेज कमलिनी जाल।

पिये, गाते मनमाने गीत टोलियों मधुपों की अविराम।
चली आती, कर रहीं अभीत कुमुद पर बरजोरी विश्राम।

उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय अरे अभिलाषाओं की धूल
और ही रंग नही लग लाय मधुर मंजरियां जावें झूल।

विश्व में ऐसा शीतल खेल हृदय में जलन रहे, क्या हात
स्नेह से जलती ज्वाला झेल, बना ली हां, होली की रात॥

***

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (२१ फ़रवरी १८९९-१५अक्तूबर १९६१)
*
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरे, खेली होली!
जागी रात सेज प्रिय पति-संग रति सनेह-रंग घोली,
दीपित दीप-प्रकाश, कंज-छवि मंजु-मंजु हँस खोली—
मली मुख-चुंबन-रोली।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस, कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मंद हँस, अधर-दशन, अनबोली—
कली-सी काँटे की तोली।

मधु-ऋतु-रात, मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खो ली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल; श्रम-सुख की हद हो ली—
बनी रति की छबि भोली।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल; मुख-लट, पट, दीप बुझा, हँस बोली—
रही यह एक ठठोली।
***

काज़ी नज़रुल इस्लाम (२४ मई १८९९-२९ अगस्त १९७६)
*
यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,

आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
***

डॉ. हरिवंश राय बच्चन (२७ नवंबर १९०७-१८ जनवरी२००३)
*
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
अंबर ने ओढ़ी है तन पर
चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में
सरसों पीली-पीली,
सिंदूरी मंजरियों से है
अंबा शीश सजाए,
रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
*
यह मिट्टी की चतुराई है, रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं, ढाल अलग है ढंग अलग,
आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के शासन से मत घबराओ,
आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का, वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में सदा सफलता जीवन की,
जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाँहों में भर लो!
***

शकील बदायूँनी (३ अगस्त १९१६-२० अप्रैल १९७०)

होली आई रे कन्हाई
रंग छलके
सुना दे ज़रा बांसरी
बरसे गुलाल, रंग मोरे अंगनवा

अपने ही रंग में रंग दे मोहे सजनवा।

हो देखो नाचे मोरा मनवा
तोरे कारन घर से, आई हूं निकल के
सुना दे ज़रा बांसरी
होली आयी रे!

होली घर आई, तू भी आजा मुरारी
मन ही मन राधा रोये, बिरहा की मारी
हो नहीं मारो पिचकारी
काहे! छोड़ी रे कलाई संग चल के
सुना दे ज़रा बांसरी
होली आई रे!

***


फणीश्वर नाथ 'रेणु' (४ मार्च १९२१-११ अप्रैल१९७७)
*
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा
ले आई... ई... ई... ई
मेरे दर्द की दवा!

आँगनऽऽ बोले कागा
पिछवाड़े कूकती कोयलिया
मुझे दिल से दुआ देती आई
कारी कोयलिया-या
मेरे दर्द की दवा
ले के आई-ई-दर्द की दवा!

वन-वन गुन-गुन बोले भौंरा
मेरे अंग-अंग झनन
बोले मृदंग मन मीठी मुरलियाँ!
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा लेके आई

कारी कोयलिया!
अग-जग अँगड़ाई लेकर जागा
भागा भय-भरम का भूत
दूत नूतन युग का आया
गाता गीत नित्य नया
यह फागुनी हवा...!
***

शुक्रवार, 28 अप्रैल 2023

बुंदेली गीत, अठपदी, कोरोना, खुसरो, श्री, गीत गोविंद, जयदेव, चोका, गीत, मुक्तिका, नवगीत, दोहा,

विमर्श : भोजन करिये बाँटकर
ऋग्वेद निम्नानुसार बाँटकर भोजन करने को कहता है-
१. जमीन से चार अंगुल भूमि का
२. गेहूँ के बाली के नीचे का पशुओं का
३. पहले पेड़ की पहली बाली अग्नि की
४. बाली से गेहूं अलग करने पर मूठ्ठी भर दाना पंछियो का
५. गेहूं का आटा बनाने पर मुट्ठी भर आटा चीटियो का
६. फिर आटा गूथने के बाद चुटकी भर गुथा आटा मछलियो का
७. फिर उस आटे की पहली रोटी गौमाता की
८. पहली थाली घर के बुज़ुर्ग़ो की और फिर हमारी
९. आखिरी रोटी कुत्ते की
२८-४-२०२२
***
बुंदेली गीत
मैया! लै लो अपनी कइंया
रेवा! दुनिया भाती नइंया
संग न सजनी, साथ न सइंया
निज आँचल की दे दो छइंया
*
जग में आया ले कुछ साँसें
भरमाया पालीं कुछ आसें
रिश्ते-नाते पाले, टूटे
जिसको अपना समझा लूटे
कोऊ नहीं है भला करइंयां
मैया! ले लो अपनी कइंया
*
साथ रही कब जोड़ी माया
तम में छूटी अपनी छाया
आखिर खाली हाथ रह गया
कोई अपना साथ कब गया?
हूँ शरणागत थामो बइंया
मैया! ले लो अपनी कइंया
*
जला दिया रिश्ते-नातों ने
भ्रम तोड़ा झूठी बातों ने
अस्थि-भस्म हो तुमको पाया
कुछ-कुछ डूबा, कुछ उतराया
मत ठुकरा माँ! पकड़ूँ पइंयां
मैया! ले लो अपनी कइंया
*
मुझको सिकता-कंकर कर दो
कंकर से शिव शंकर कर दो।
बिगड़ी गति ले अंक सुधारो
भव सागर के पार उतारो
तुमईं सहारा हो इक ठइंया
मैया! ले लो अपनी कइंया
२७-४-२०२१
***
दोहा अठपदी :
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजाकर, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत माँ का ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
भारत माँ को सुहाती, लालित्यमय बिंदी
जनगण जिव्हा विराजती, विश्ववाणी हिंदी
२८-४-२०२१
***
कोरोना विमर्श : ४
को विद? पूछे कोरोना
*
को अर्थात कौन और विद अर्थात विद्वान। कोविद आज यही परख रहा है कि विद्वान कौन है? विद्वान वह जिसके पास विद्या हो किन्तु केवल विद्या ही पर्याप्त नहीं होती। पंचतंत्र की एक कथा है जिसमें चार मित्र अपने गुरु से विद्या प्राप्त कर जीवन यापन हेतु संसार सागर में प्रवेश करते हैं। रास्ते में उनके मन में संशय होता है कि अपने ज्ञान को परख लें। उन्हें एक शेर का अस्थि पंजर मिलता है। पहला मित्र उसे अस्थियों को जोड़ देता है, दूसरा उस पर मांस-चर्मादि चढ़ा देता है, तीसरा उसमें प्राण डालने लगता है तो चौथा रोकता है पर वह नहीं मानता। तब वह वृक्ष पर चढ़ जाता है। प्राण पड़ते ही शेर तीनों को मार डालता है। इस बोधपरक लघुकथा का संदेश यही है कि केवल किताबी ज्ञान पर्याप्त नहीं होता, व्यावहारिक ज्ञान भी आवश्यक है।
कोविद ने यही पूछा को विद? अमेरिका, इटली, जर्मनी आदि तथाकथित देशों ने पहले तीन मित्रों की तरह आचरण किया और दुष्परिणाम भुगता। भारत ने चौथे मित्र की तरह सजगता और सतर्कता को महत्व दिया और अपने आप को अधिकतम जनसँख्या, अधिकतम सघनता और न्यूनतम चिकित्सा सुविधा और संसाधनों के बावजूद सबसे कम हानि उठाई। इसका यह आशय कतई नहीं है कि निश्चिन्त हो जाएँ कि हम सुरक्षित हो गए। चौथा मित्र गफलत में नीचे आया तो शेर उसे भी नहीं छोड़ेगा। चौथे मित्र को शेर के जाने, उजाला होने और अन्य लोगों के आने तक सजगता बरतनी ही पड़ेगी।
को विद? इस प्रश्न का उत्तर भारतवासी मुसलमानों को भी देना है। दुर्भाग्य से भारत में तब्लीगी, मजलिसी, जिहादी आदि एक तबका ऐसा है जो धर्मांध मुल्लाओं, मौलवियों आदि को मसीहा मानकर उनका अंधानुकरण करता है। यह तबका हर सुधारवादी कदम का विरोध करना ही अपना मजहब समझता है। संकीर्ण दृष्टि और स्वार्थपरकता इन तथाकथित धर्माचार्यों को बाध्य करती है वे अपने अनुयायियों को अशिक्षा और जहालत में रखकर अन्धविश्वास और अंधानुकरण को बढ़ावा देते रहें। सुशिक्षित, समझदार, प्रगतिवादी मुसलमान संख्या में कम और भीरु प्रवृत्ति का है। इसलिए वह चाहकर भी शेष समाज के साथ नहीं चल पाता। उन्हें अपने आप से सवाल करने होंगे और उनके उत्तर भी खोजने होंगे। क्या अच्छा मुसलमान अच्छा इंसान या अच्छा नागरिक नहीं हो सकता? यदि नहीं, तो उसे पूरी दुनिया में लांछित और दंडित किया जाना सही है। तब उसे नष्ट होने से कोई बचा नहीं सकता। यदि हाँ, तो उन्हें अपनी पहचान तथाकथित धर्मांध लोगों और अतवादी आतंवादियों से अलग बनाई होगी और बहुसंख्यक मध्य धारा के साथ नीर-क्षीर की तरह मिलना होगा।
को विद? इस सवाल से बहुसंख्यक सनातनधर्मी हिन्दू भी बच नहीं सकते। वसुधैव कुटुम्बकम, विश्वैक नीड़म् आदि की उदात्त परंपरा की विरासत के बावजूद जाति-पाँति, छुआछूत, वर्ण विभाजन, अन्य धर्मावलंबियों को हीन समझने की मानसिकता को छोड़ना ही होगा। आरक्षण विरोध की दुंदुभी बजानेवाले क्या आरक्षित वर्ग के डॉक्टर से इलाज नहीं कराएँगे? खुद को श्रेष्ठ समझनेवाला ब्राह्मण क्या अनुसूचित जनजाति के पुलिसवाले की मदद नहीं लेगा? बाहुबल के आधार पर गाँवों में मनमानी करनेवाला क्षत्रिय वर्ग क्या खुद अपने आपकी रक्षा कर सकता है? हम सबको समझना होगा कि हाथ की अँगुलियाँ यदि मुट्ठी बनकर नहीं रहीं तो एक-एक कर सब का विनाश हो जाएगा।
को विद? से बच तो शासन और प्रशासन भी नहीं सकता। उसे आज नहीं तो कल यह समझना ही होगा कि पुलिस का काम 'तथा कथित महत्वपूर्णों की रक्षा' नहीं जन सामान्य की सेवा और सहायता करना है। जिस दिन भारत ,में 'पुलिस' को केवल और केवल 'पुलिसिंग' करने दी जाएगी उस दिन देश में सच्चे लोकतंत्र का आरंभ हो जायेगा। लोकतंत्र में लोक ही सर्वशक्तिमान होता है जो अपनी शक्ति अपने प्रतिनिधियों में आरोपित करता है। कोविद काल में चिकित्सकों और पुलिस कर्मियों द्वारा अहर्निश सेवा हेतु उनका वंदन-अभिनन्दन होना ही चाहिए किन्तु अबाधित विद्युत् प्रदाय, जल प्रदाय, सैनिटेशन व्यवस्था, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, यातायात आदि को सुचारु रखने में प्राण-प्राण से समर्पित अभियंता वर्ग की सेवा को भी स्मरण किया जाना चाहिए। यह ठीक है कि अभियंता का कार्य भोजन में जल या भवन में नींव की तरह अदृश्य होता है पर यह भी उतना ही सत्य है कि उसके बिना शेष कार्यों पर गंभीर दुष्प्रभाव होता है। इसलिए 'देर आयद दुरुस्त आयद' अभियंता वर्ग के प्रति देश और समाज को सद्भावना व्यक्त करनी ही चाहिए।
इस कोविद काल में जन प्रतिनिधियों ने निकम्मेपन, अदूरदर्शिता, संवेदनहीनता और जन सामान्य से दूरी की मिसाल हर दिन पेश की है। शाहीन बाग़, तब्लीगी जमात, दिल्ली में मजदूरों का पलायन, मुम्बई में आप्रवासियों की भीड़ के इन और इन जैसे अन्य प्रसंगों में वहाँ के पार्षद, जनपद सदस्य, विधायक, सांसद अपने मतदाता के साथ थे? यदि नहीं तो क्या यह उनका संवैधानिक कर्तव्य नहीं था। कर्तव्य निर्वाण न करने के कारन क्यों न उनका निर्वाचन निरस्त हो। क्या राष्ट्रीय आपदा का सामना करना केवल सत्ताधारी दल को कारण है। क्या हर स्तर पर सर्वदलीय सेवा समितियां बनाकर जन जागरण, जन शिक्षण और जन सहायता का कार्य बेहतर और जल्दी नहीं किया जा सकता ? सत्ता दल की विशेष जिम्मेदारी है कि दलीय हित साधने में अन्य दलों से इतनी दूरी न बना ली जाए की संकट के समय भी हाथ न मिल सकें। लोकतंत्र में सत्ता पर दाल बदलते रहते हैं इसलिए देशहित को दलहित के ऊपर रखना ही चाहिए। सत्ता दल के अंधभक्त, विशेषकर बड़बोले और अनुशासनहीन हुल्लड़बाजों को नियंत्रण में रखा जाना परमावश्यक है। घंटी बजने के समय सड़कों पर भीड़ लगानेवाले, ज्योति जलने के समय बम फोड़ने, मोब लॉन्चिंग करने, असहमति होने पर गाली-गुफ़्तार करनेवाले किसी भी दल के लिए हितकर नहीं हो सकते और देशभक्त तो हो ही नहीं सकते।
को विद? इस कोविद काल में यह प्रश्न हम सबको और हममें से हर एक को खुद से पूछना ही होगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने लिखा है-
हम कौन हैं?, क्या हो गए हैं?
और क्या होंगे अभी?
आओ! विचारें आज मिलकर
ये समस्याएँ कभी।
***
विरासत : आमिर खुसरो
ग़ज़ल : फ़ारसी + हिंदुस्तानी
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल, दुराये नैना बनाये बतियां ।
किताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान, न लेहो काहे लगाये छतियां ।।
शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़ वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ।।
यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियां ।।
चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान हमेशा गिरयान, बे इश्क़ आं मेह ।
न नींद नैना, ना अंग चैना ना आप आवें, न भेजें पतियां ।।
बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर कि दाद मारा, फरेब खुसरौ ।
सपेत मन के, दराये राखूं जो जाये पांव, पिया के खटियां ।
(स्रोत : ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल -अमीर ख़ुसरो)
*
अर्थ :
मुझ गरीब की बदहाली को नज़रंदाज़ न करो - नयना चुरा के और बातें बना के अब जुदा रहने की सहन शक्ति नहीं है ( नदारम ) मेरी जान , मुझे अपने सीने से लगा क्यों नहीं लेते हो?
जुदाई की रातें लम्बी जुल्फों की तरह लम्बी हैं और मिलन का दिन उम्र की तरह छोटी सखी , प्रियतम को न देखूं तो कैसे अँधेरी रातें काटूं (मेरी जिंदगी उसी से रोशन है)
यकायक , दो जादू भरी आँखें सैकड़ों ( ब सद ) तिलिस्म ( फरेबम ) करके दिल से (अज ) सुख चैन ( तस्कीं ) ले उड़ीं ( बाबुर्द ) किसे इस बात की फ़िक्र पड़ी है कि प्यारे पिया को हमारी ये बातें ( चैन उड़ा लेने वाली ) जा के सुनाए ( ताकि उन्हें पता तो चले )
जैसे शमा जलती है जैसे हर ज़र्रा विस्मित है वैसे ही मैं भी इस चाँद (मह ) का सूरज (मेहर) आखिर बन ही गया (बगश्तम) अर्थात जैसे शमा जलती है हर जर्रा विस्मित व बेचैन है वैसी ही खुद को जला देने वाली अत्यंत तेज़ आग मुझे भी आखिर ( प्यार की ) लग ही गयी न आँखों में नींद है न अंगों को चैन , न आप आते हैं न ही आप के पत्र आते हैं
उसे ही हक है कि मिलन ( विसाल ) का दिन तय करे या फरेब करे , तब तक तक मन के भेद अन्दर ही रखूँ ( दो तरफ़ा -प्यार का या नहीं ) जब तक की दिलबर का पता नहीं मिल जाता ( खतियाँ ) .
नुसरत फ़तेह अली खान ने गाया है :
सपीत मन के, दराये राखूं, जो जाये पांव, पिया के खतियां
मन के सफ़ेद मोती , बचा के रखूं ,जब तक कि दिलबर का पता नहीं मिल जाता ( खतियाँ ) .
गुलज़ार ने चलचित्र गुलामी में लिखा है -
जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश , बेहाल-ए -हिजरा बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है
जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बरंजिश = गरीब की बदहाली पर रंजिश न करो
*
कोरोना की जयकार करो
*
कोरोना की जयकार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
*
घरवाले हो घर से बाहर
तुम रहे भटकते सदा सखे!
घरवाली का कब्ज़ा घर पर
तुम रहे अटकते सदा सखे!
जीवन में पहली बार मिला
अवसर घर में तुम रह पाओ
घरवाली की तारीफ़ करो
अवसर पाकर सत्कार करो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
जैसी है अपनी किस्मत है
गुणगान करो यह मान सदा
झगड़े झंझट बहसें छोडो
पाई जो उस पर रहो फ़िदा
हीरोइन से ज्यादा दिलकश
बोलो उसकी हर एक अदा
हँस नखरे नाज़ उठाओ तुक
चरणों कर झुककर शीश धरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
झाड़ू मारो, बर्तन धोलो
फिर चाय-नाश्ता दे बोलो
'भोजन में क्या तैयार करूँ'
जो कहें बना षडरस घोलो
भोग लगाकर ग्रहण करो
परसाद' दया निश्चय होगी
झट दबा कमर पग-सेवा कर
उनके मन की हर पीर हरो
तुम नहीं तनिक भी कभी डरो
कोरोना की जयकार करो
*
विमर्श : 'श्री'
*
'श्री' पूरे ब्रह्मांड की प्राण-शक्ति है। श्री = शोभा, लक्ष्मी और कांति।
श्रीयुत का मतलब प्राणयुक्त है। 'श्री' का शब्द का सबसे पहले उपयोग ऋग्वेद में हुआ है। जो 'श्री' युक्त है उसका निरंतर विकास होगा, वह समृद्ध और सुखी होगा। ईश्वर श्री से ओतप्रोत है। परमात्मा को वेद में अनंत श्री वाला कहा गया है।
मनुष्य अनंत-धर्मा नहीं है, वह असंख्य श्री वाला तो नहीं हो सकता है, लेकिन पुरुषार्थ से ऐश्वर्य हासिल करके वह श्रीमान बन सकता है। जो पुरुषार्थ नहीं करता, वह श्रीमान कहलाने का अधिकारी नहीं है।
वर्तमान में सम्मानित या बड़े के नाम के पूर्व श्री लगाया जाता है। यह शिष्टाचार मात्र है।
स्वर्गीय यानी जो दिवंगत हो गए, जिनकी देह नहीं है, जिनका ईश्वर में लय हो गया हो उन्हें स्वर्गीय या स्मरणीय कह सकते हैं पर उनके नाम के आगे 'श्री' लगाया जाना अनुपयुक्त है। दिवंगत का न तो विकास संभव है न वह समृद्ध या सुखी हो सकता है। इसलिए दिवंगतों के नाम के पूर्व श्री या श्रीमती नहीं लगाना चाहिए।
***
गीत गोविंद : जयदेव
*
मेघैर्मेदुरमम्बरं वनभुव: श्यामास्तमालद्रुमैर्नक्तं भीरुरयं त्वमेव तदिमं राधे ग्रहं प्रापय।
इत्थं नंदनिदेशतश्चलितयो: प्रत्यध्वकुंजद्रुमं राधमाधवयोर्जयंति यमुनाकूले रह: केलय:।।
*
नील गगन पर श्यामल बादल, वन्य भूमि पर तिमिर घना है।
संध्या समय भीति भव; राधा एकाकी; घर दूर बना है।।
नंद कहें 'घर पहुँचाओ' सुन, राधा-माधव गये कुंज में-
यमुना तट पर केलि करें, जग माया-ब्रह्म सुस्नेह सना है।।
*
वाग्देवताचरितचित्रितचित्तसद्मापद्मावतीचरणचारण चक्रवर्ती।
श्रीवासुदेवरतिकेलिकथासमेतंमेतं करोति जयदेवकवि: प्रबंधम्।।
यदिहरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासु कुतूहलम्।
मधुरकोमलकांतपदावलीं श्रणु तदा जयदेवसरस्वतीम्।।
*
वाग्देव चित्रित करें चित लगा, कमलावती पद-दास चक्रधारी।
श्री वासुदेव की सुरति केलि कथा, जयदेव कवि प्रबंध रच बखानी।।
यदि मन में हरि सुमिरन की है चाह, यदि कौतूहल जानें कला विलास।
सुनें सुमधुरा कोमलकांत पदावलि, जयदेव सरस्वती संग लिये हुलास।।
*
भावानुवाद : संजीव
२८-४-२०२०
***
जापानी वार्णिक छंद चोका :
*
चोका एक अपेक्षाकृत लम्बा जापानी छंद है।
जापान में पहली से तेरहवीं सदी में महाकाव्य की कथा-कथन की शैली को चोका कहा जाता था।
जापान के सबसे पहले कविता-संकलन 'मान्योशू' में २६२ चोका कविताएँ संकलित हैं, जिनमें सबसे छोटी कविता ९ पंक्तियों की है। चोका कविताओं में ५ और ७ वर्णों की आवृत्ति मिलती है। अन्तिम पंक्तियों में प्रायः ५, ७, ५, ७, ७ वर्ण होते हैं
बुन्देलखण्ड के 'आल्हा' की तरह चोका का गायन या वाचन उच्च स्वर में किया जाता रहा है। यह वर्णन प्रधान छंद है।
जापानी महाकवियों ने चोका का बहुत प्रयोग किया है।
हाइकु की तरह चोका भी वार्णिक छंद है।
चोका में वर्ण (अक्षर) गिने जाते हैं, मात्राएँ नहीं।
आधे वर्ण को नहीं गिना जाता।
चोका में कुल पंक्तियों का योग सदा विषम संख्या में होता है ।
रस लीजिए कुछ चोका कविताओं का-
*
उर्वी का छौना
डॉ. सुधा गुप्ता
*
चाँद सलोना
रुपहला खिलौना
माखन लोना
माँ का बड़ा लाडला
सब का प्यारा
गोरा-गोरा मुखड़ा
बड़ा सजीला
किसी की न माने वो
पूरा हठीला
‘बुरी नज़र दूर’
करने हेतु
ममता से लगाया
काला ‘दिठौना’
माँ सँग खेल रहा
खेल पुराना
पेड़ों छिप जाता
निकल आता
किलकता, हँसता
माँ से करे ‘झा’
रूप देख परियाँ
हुईं दीवानी
आगे-पीछे डोलतीं
करे शैतानी
चाँदनी का दरिया
बहा के लाता
सबको डुबा जाता
गोल-मटोल
उजला, गदबदा
रूप सलोना
नभ का शहज़ादा
वह उर्वी का छौना
***
ये दु:ख की फ़सलें
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
*
खुद ही काटें
ये दु:ख की फ़सलें
सुख ही बाँटें
है व्याकुल धरती
बोझ बहुत
सबके सन्तापों का
सब पापों का
दिन -रात रौंदते
इसका सीना
कर दिया दूभर
इसका जीना
शोषण ठोंके रोज़
कील नुकीली
आहत पोर-पोर
आँखें हैं गीली
मद में ऐंठे बैठे
सत्ता के हाथी
हैं पैरों तले रौंदे
सच के साथी
राहें हैं जितनी भी
सब में बिछे काँटे ।
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पड़ोसी मोना
मनोज सोनकर
*
आँखें तो बड़ी
रंग बहुत गोरा
विदेशी घड़ी
कुत्ते बहुत पाले
पड़ोसी मोना
खुराक अच्छी डालें
आजादी प्यारी
शादी तो बंधन
कहें कुंवारी
अंग्रेज़ी फ़िल्में लाएं
हिन्दी कचरा
खूब भुनभुनाएं
ब्रिटेन भाए
बातचीत उनकी
घसीट उसे लाए
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पेड़ निपाती
सरस्वती माथुर
*
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पतझर में
उदास पुरवाई
पेड़ निपाती
उदास अकेला -सा ।
सूखे पत्ते भी
सरसराते उड़े
बिना परिन्दे
ठूँठ -सा पेड़ खड़ा
धूप छानता
किरणों से नहाता
भीगी शाम में
चाँदनी ओढ़कर
चाँद देखता
सन्नाटे से खेलता
विश्वास लिये-
हरियाली के संग
पत्ते फिर फूटेंगे ।
***
विछोह घडी
भावना कुँवर
*
बिछोह -घड़ी
सँजोती जाऊँ आँसू
मन भीतर
भरी मन -गागर।
प्रतीक्षारत
निहारती हूँ पथ
सँभालूँ कैसे
उमड़ता सागर।
मिलन -घड़ी
रोके न रुक पाए
कँपकपाती
सुबकियों की छड़ी।
छलक उठा
छल-छल करके
बिन बोले ही
सदियों से जमा वो
अँखियों का सागर।
२८-४-२०१७
-0-
मुक्तिका
चाँदनी फसल..
*
इस पूर्णिमा को आसमान में खिला कमल.
संभावना की ला रही है चाँदनी फसल..
*
वो ब्यूटी पार्लर से आयी है, मैं क्या कहूँ?
है रूप छटा रूपसी की असल या नक़ल?
*
दिल में न दी जगह तो कोई बात नहीं है.
मिलने दो गले, लोगी खुदी फैसला बदल..
*
तुम 'ना' कहो मैं 'हाँ' सुनूँ तो क्यों मलाल है?
जो बात की धनी थी, है बाकी कहाँ नसल?
*
नेता औ' संत कुछ कहें न तू यकीन कर.
उपदेश रोज़ देते न करते कभी अमल..
*
मन की न कोई भी करे है फ़िक्र तनिक भी.
हर शख्स की है चाह संवारे रहे शकल..
*
ली फेर उसने आँख है क्यों ताज्जुब तुझे.?
होते हैं विदा आँख फेरकर कहे अज़ल..
*
माया न किसी की सगी थी, है, नहीं होगी.
क्यों 'सलिल' चाहता है, संग हो सके अचल?
*
द्विपदी 
शूल देकर साथ क्यों बदनाम हैं?
फूल छोड़ें साथ सुर्खरू क्यों हैं?
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नवगीत:
.
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
विलग हुए भूखंड तपिश साँसों की
सही न जाती
भुज भेंटे कंपित हो भूतल
भू की फटती छाती
कहाँ भू-सुता मातृ-गोद में
जा जो पीर मिटा दे
नहीं रहे नृप जो निज पीड़ा
सहकर धीर धरा दें
योगिनियाँ बनकर
इमारतें करें
चेतना-कर्तन
धरती काँपी,
नभ थर्राया
महाकाल का नर्तन
.
पवन व्यथित नभ आर्तनाद कर
आँसू धार बहायें
देख मौत का तांडव चुप
पशु-पक्षी धैर्य धरायें
ध्वंस पीठिका निर्माणों की,
बना जयी होना है
ममता, संता, सक्षमता के
बीज अगिन बोना है
श्वास-आस-विश्वास ले बढ़े
हास, न बचे विखंडन
२८-४-२०१५
***
दोहा दुनिया
बात से बात
*
बात बात से निकलती, करती अर्थ-अनर्थ
अपनी-अपनी दृष्टि है, क्या सार्थक क्या व्यर्थ?
*
'सर! हद सरहद की कहाँ?, कैसे सकते जान?
सर! गम है किस बात का, सरगम से अनजान
*
'रमा रहा मन रमा में, बिसरे राम-रमेश.
सब चाहें गौरी मिले, हों सँग नहीं महेश.
*
राम नाम की चाह में, चाह राम की नांय.
काम राम की आड़ में, संतों को भटकाय..
*
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख.
चाह कहाँ कितनी रही?, करले इसका लेख..
*
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल.
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
*
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब.
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
*
'डूबेगा तो उगेगा, भास्कर ले नव भोर.
पंछी कलरव करेंगे, मनुज मचाए शोर..'
*
'एक-एक कर बढ़ चलें, पग लें मंजिल जीत.
बाधा माने हार जग, गाये जय के गीत.'.
*
'कौन कहाँ प्रस्तुत हुआ?, और अप्रस्तुत कौन?
जब भी पूछे प्रश्न मन, उत्तर पाया मौन.'.
*
तनखा ही तन खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम.
*
२८-४-२०१४
गीत:
यह कैसा जनतंत्र...
*
यह कैसा जनतंत्र कि सहमत होना, हुआ गुनाह ?
आह भरें वे जो न और क़ी सह सकते हैं वाह...
*
सत्ता और विपक्षी दल में नेता हुए विभाजित
एक जयी तो कहे दूसरा, मैं हो गया पराजित
नूरा कुश्ती खेल-खेलकर जनगण-मन को ठगते-
स्वार्थ और सत्ता हित पल मेँ हाथ मिलाये मिलते
मेरी भी जय, तेरी भी जय, करते देश तबाह...
*
अहंकार के गुब्बारे मेँ बैठ गगन मेँ उड़ते
जड़ न जानते, चेतन जड़ के बल जमीन से जुड़ते
खुद को सही, गलत औरों को कहना- पाला शौक
आक्रामक भाषा ज्यों दौड़े सारमेय मिल-भौंक
दूर पंक से निर्मल चादर रखिए सही सलाह...
*
दुर्योधन पर विदुर नियंत्रण कर पायेगा कैसे?
शकुनी बिन सद्भाव मिटाये जी पाएगा कैसे??
धर्मराज की अनदेखी लख, पार्थ-भीम भी मौन
कृष्ण नहीं तो पीर सखा की न्यून करेगा कौन?
टल पाए विनाश, सज्जन ही सदा करें परवाह...
*
वेश भक्त का किंतु कुदृष्टि उमा पर रखे दशानन
दबे अँगूठे के नीचे तब स्तोत्र रचे मनभावन
सच जानें महेश लेकिन वे नहीं छोड़ते लीला
राम मिटाते मार, रहे फिर भी सिय-आँचल गीला
सत को क्यों वनवास? असत वाग्मी क्यों गहे पनाह?...
*
कुसुम न काँटों से उलझे, तब देव-शीश पर चढ़ता
सलिल न पत्थर से लडता तब बनकर पूजता
ढाँक हँसे घन श्याम, किन्तु राकेश न देता ध्यान
घट-बढ़कर भी बाँट चंद्रिका, जग को दे वरदान
जो गहरे वे शांत, मिले कब किसको मन की थाह...
२८-४-२०१४
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नवगीत 
झुलस रहा गाँव
*
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
राजनीति बैर की उगा रही फसल.
मेहनती युवाओं की खो गयी नसल..
माटी मोल बिक रहा बजार में असल.
शान से सजा माल में नक़ल..
गाँव शहर से कहो
कहाँ अलग रहा?
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
*
एक दूसरे की लगे जेब काटने.
रेवड़ियाँ चीन्ह-चीन्ह लगे बाँटने.
चोर-चोर के लगा है एब ढाँकने.
हाथ नाग से मिला लिया है साँप ने..
'सलिल' भले से भला ही
क्यों विलग रहा?.....
झुलस रहा गाँव
घाम में झुलस रहा...
***
नवगीत:
मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, अभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल वसुधा नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
***
कार्यशाला
काव्य प्रश्नोत्तर
संजय:
'आप तो गुरु हो.'
मैं:
'है सराह में, वाह में, आह छिपी- यह देख
चाह कहाँ कितनी रही, करले इसका लेख..'
Sanjay:
'बढ़िया'
मैं:
'गुरु कहना तो ठीक है, कहें न गुरु घंटाल।
वरना भास्कर 'सलिल' में, डूब दिखेगा लाल..'
Sanjay:
'क्या बात है लाजवाब।'
मैं:
'लाजवाब में भी मिला, मुझको छिपा जवाब।
जैसे काँटे छिपाए, सुन्दर लगे गुलाब'.
दोहा
*
तनखा तन को खा रही, मन को बना गुलाम.
श्रम करता गम कम 'सलिल', करो काम निष्काम..
***
कुण्डलिनी:
*
हिन्दी की जय बोलिए, हो हिन्दीमय आप.
हिन्दी में पढ़-लिख 'सलिल', सकें विश्व में व्याप ..
नेह नर्मदा में नहा, निर्भय होकर डोल.
दिग-दिगंत को गुँजा दे, जी भर हिन्दी बोल..
जन-गण की आवाज़ है, भारत मान ता ताज.
हिन्दी नित बोले 'सलिल', माँ को होता नाज़..
२८-४-२०१०
***