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गुरुवार, 13 जुलाई 2017

kundaliya

एक कुण्डलिया
औकात
अमिताभ बच्चन-कुमार विश्वास प्रसंग
*
बच्चन जी से कर रहे, क्यों कुमार खिलवाड़?
अनाधिकार की चेष्टा, अच्छी पड़ी लताड़
अच्छी पड़ी लताड़, समझ औकात आ गयी?
क्षमायाचना कर न समझना बात भा गयी
रुपयों की भाषा न बोलते हैं सज्जन जी
बच्चे बन कर झुको, क्षमा कर दें बच्चन जी
***
-संजीव वर्मा 'सलिल'
salil.sanjiv@gmail.com
९४२५१८३२४४
#हिंदी_ब्लॉगिंग

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

chitra:

अतीत की स्मृतियाँ: दुर्लभ चित्र


दाहिने से: १. सुमित्रानंदन पंत, २. माखनलाल चतुर्वेदी, 
३. शिवमंगल सिंह सुमन, ४. हरिवंशराय बच्चन, ५.
भवानीप्रसाद मिश्र ६. अमृतलाल नागर, ७. नरेंद्र शर्मा,
८. भवानीप्रसाद तिवारी जबलपुर में. 

गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

chidiya bachchan

चित्रमय कविता : बच्चन 

Photo: FB 188 -Wednesday words ...

सोमवार, 28 नवंबर 2011

स्मरण : बच्चन --अमिताभ बच्चन द्वारा मधुशाला गायन:


स्मरण : बच्चन -- प्रो. ए. अच्युतन



स्मरण : बच्चन 

लोकधर्मी कवि हरिवंशराय बच्चन


- प्रो. ए. अच्युतन, हिन्दी विभाग, कालिकट विश्वविद्यालय, कालिकट (केरल)

प्रवासी दुनिया.कॉम से प्रसिद्ध रचनाकार बच्चन जी की जयन्ती 27 नवंबर पर साभार प्रस्तुत हैं निम्न लेख:

आधुनिक हिन्दी कविता की हालावादी प्रवृत्ति के सूत्रधार हरिवंशराय बच्चन की काव्य यात्रा प्रेमी से श्रद्धालु तक की यात्रा है। बच्चन की काव्य प्रवृत्ति लोकमानस से शुरू होकर जनमानस और मुनिमानस तक यात्रा करती है। लोकमानस से ही लोक साहित्य एवं कला अनेक संभावनाओं के साथ उपजते हैं। लोकमानस से मुनिमानस तक की यात्रा का विकास एक तरह से मनुष्य की कलाभिव्यक्ति या संस्कृति के ही इतिहास का सार है। लोक साहित्य में मानव के सुख-दुख की सहज, स्वाभाविक और अकृत्रिम अभिव्यक्ति ही होती हैं। लोक जो कुछ कहता है, सुनता है, उसे समूह की वाणी बनकर ही कहता है, सुनता है। लोक साहित्य के इस सामूहिक पक्ष को बच्चनजी ने अपने काव्य का मूल मंत्र बनाया है। इसी आधार पर बच्चन के काव्य में लोक तत्व के विभिन्न पक्षों पर विचार करना हमारा अभीष्ट है।
वस्तुत: बच्चनजी का काव्य व्यक्तिनिष्ठ है, लेकिन उनके काव्य के प्राण में जो प्रेम तत्व है, जीवन तत्व है, भाव तत्व है, वह अकेले बच्चनजी की ही नहीं, जन-जन की संपदा है, लोक संपत्ति है। अत: बच्चन का काव्य और उनके गीत जन-जीवन में समा जाने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। बच्चन की अनुभूतियां मानवीय हैं। देश, काल के घेरे में उन्हें नहीं बांध सकते। सहजता, सरलता, नैसर्गिकता, गेयता आदि गुण लोकतत्व के अंतर्गत आ सकते हैं। लोकतत्व संबंधी अवधारणा अधिकतर बच्चन के गीत संबंधी विचारों में स्पष्ट हो जाती है क्योंकि गीत शैली लोक से ही आयी है – उनका मानना है कि – गीत की अपनी इकाई होती है – भावों विचारों की और एक हद तक अभिव्यक्ति के उपकरणों की भी… प्रत्येक गीत को सर्वस्वतंत्र अपराश्रित और अपने में ही पूर्ण मानकर प्राय: पढ़ा, गाया जाता है और उसका रस लिया जाता है। (आरती और अंगारे – भूमिका पृ. 11) गीत समाप्त हो जाने पर उसकी गूंज श्रोता के कानों में बस जाए और बहुत सी अनुगूंजों को जगाए। जगजीवन की विभिन्न हलचलों के बाद वह ध्यान से भले ही उतर हो जाय पर सहसा यदि उसकी याद आ जाए तो वह अपने पूरे आवेग से फिर गूंज उठे। (प्रणय पत्रिका – भूमिका – पृ. 11-12) गीत वह है जिस में भाव-विचार-अनुभूति-कल्पना, एक शब्द में कथ्य की एकता हो और उसका एक ही प्रभाव हो। (त्रिभंगिमा – भूमिका – पृ. 91) उपर्युक्त कथनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बच्चन की गीत संबंधी धारणा लोक मानस के आधार पर है। अत: स्वाभाविक और गीतात्मक है।
ताल-लय समन्वय लोकतत्व का आत्मस्वरूप : संगीत दिल की भाषा है। ताल-लय के बिना गीत या संगीत नहीं है। ताल-लय प्रकृत्ति की हर वस्तु में खोजा जा सकता है। इस ताल-लय समन्वय ने ही प्रकृत्ति को संतुलित बना रखा है। हमारे पूर्वजों ने अपने निरीक्षण बल पर इसी तथ्य को जान लिया था। इसीलिये ताल-लय समन्वय लोक का आत्मस्वरूप बन गया। ताल-लय सन्तुलन बिगड़ने से ही प्रकृत्ति में कई तरह के विनाश या ताण्डव जैसे बाढ़, तूफान, लावा, सुनामी आदि घटते हैं। ‘लोक’ ने जान लिया कि ऋतु संतुलन बनाये रखने के लिये ताल-लय (शिव-शक्ति – पुरूष-स्त्री) का संयोग सही अनुपात में बना रहना जरूरी है। तुलसी के समन्वय, प्रसाद के समरसता आदि सिद्धांतों का यही लोकाधार है। बच्चनजी ने अपनी रचनाओं में इसी समन्वय को बनाये रखने का प्रयास किया है चाहे वह सामाजिक पक्ष की दृष्टि से हो या वैयक्तिक दृष्टि से या काव्य की दृष्टि से। बच्चन ने यह महसूस किया कि सामाजिक विषमता,र् ईष्या, द्वेष की भावना को पैदा करने वाले ऊंचे परिवार के ही लोग, महलों में रहने वाले जो मानवता पर क्रूर, कठोर, अमानवीयता का व्यवहार करते हैं और लाखों करोड़ों गरीब असहायों का खून चूसकर स्वयं आराम से जीवन बिताते हैं – तभी मधुशाला की कवि ने अपनी आवाज समानता-समन्वय के लिये बुलन्द की।
बड़े बड़े परिवार मिटे यों
एक न हो रोनेवाला
हो जाए सुनसान महल वे
जहां थिरकती सुरबाला
राज्य उलट जाएं भूपों की
भाग्य-सुलक्ष्मी सो जाए
जमें रहेंगे पीने वाले
जगा करेगी मधुशाला।
समाज में निरंतर भेद भाव की भावना उग्र रूप धारण कर रही थी। ऊंच-नीच छुआछूत का बोलबाला था। इसलिये समाज की असंगठित शक्ति, एकता नष्ट हो रही थी। इसलिये बच्चन ने अपनी मधुशाला के लिये कहा है -
भूसुर-भंगी सभी यहां पर
साथ बैठकर पीते हैं
सौ सुधारकों का करती है
काम अकेली मधुशाला।
उन्होंने प्रणय गीत, राष्ट्रीय गीत, नवगीत, लोक आधारित गीत आदि तरह तरह के गीत लिखे हैं। बच्चन के गीतों में जो गति है, प्रवाह है वह स्वाभाविक रूप से आया है क्योंकि उसके भाव और लय लोक के करीब है – इन गीतों में स्वर संगीत की अपेक्षा शब्द संगीत विद्यमान रहता है। स्वर तथा व्यंजनों की संगति से अर्थ व्यंजक तथा नाद व्यंजक पंक्तियां बच्चन के गीतों में प्रचुर मात्रा में मिलती है -
चांदनी रात के आंगन में
कुछ छिटके-छिटके से बादल
कुछ सपनों में डूबा-डूबा,
कुछ सपनों में उमगा उमगा।
(मिलन भामिनी – गीत – 13)
बच्चन के गीतों में भावपक्ष प्रबल है। अनुभूति की सत्यता की लोकधर्मिता शब्द-शब्द से टपकती है। बच्चन का प्रेमी हृदय सदैव अपनी भावुकता और कल्पना को काव्य में प्रकट करता रहा है। मार्मिकता के कारण आपका काव्य लोकप्रिय बन गया है। कवि अपनी प्रेमानुभूति को प्राकृतिक व्यापारों में संश्लिष्ट करते हुए प्रकट करता है -
प्राण संध्या झुक गयी गिरि ग्राम तरु पर
उठ रहा है क्षितिज के ऊपर सिंदूरी चांद
मेरा प्यार पहली बार लो तुम
हम किसी के हाथ में साधन बने हैं
सृष्टि की कुछ मांग पूरी हो रही है।
गीत की प्राणमयता संक्षिप्तता में निहित है। बच्चन के गीतों की संक्षिप्तता में उनके हृदय की गंभीरता भी भरी पड़ी है -
कोई पार नदी के गाता
भंग निशा की नीरवता कर
इस देहाती गाने का स्वर
ककड़ी के खेतों में उठकर
आज जमुना पर लहराता
आज न जाने क्यों होता मन
सुनकर यह एकाकी गायन
सदा इसे मैं सुनता रहता
सदा इसे यह गाता जाता
कोई पार नदी के गाता।
(निशानिमंत्रण – गीत 25)
लोकगीत शैली
लोकगीत अतिवार्यत: वस्तुव्यंजक होता है। लोकगीत लोककाव्य ही है। इस शैली में श्रमसाध्य कलात्मकता (नाटयधर्मिता) नहीं होती। विचारों की सरलता, नैसर्गिक भावाभिव्यक्ति आदि गीतों के गुण अतीत के मानव समाज से जोड़ देते हैं। इसमें प्रयुक्त उपमान शब्द व्यावहारिक जीवन से गृहित होते हैं। सीधे सादे सरल एवं गेय होते हैं। आज के संगर्भ में गीत का सर्वाधिक महत्व है। लोकगीत की सत्ता ढूंढते आलोचक सुरेश गौतम ने गीत को हमारे समूचे सांस्कृतिक जीवन की रीढ़ स्वीकार कर बताया कि – ‘यदि हमें मानवता को पुनर्जीवित करना है तो गीत को पहचानना होगा। लोक मानस की तरंगों को अपनाना होगा। गीत के वैराटय बोध को समयानुकूल मानव कसौटियों पर मानव की बुनियादी वृत्तियों के साथ कसना होगा। बुद्धि और हृदय के बीच सेतु संकल्पों को वृक्ष धर्म बनना होगा।’ यह कहा जा सकता है कि मानवता के अभ्युत्थान का सारा बोझ शायद आज गीत के ही कंधों पर है। गहरे में यदि सोचें तो यही सत्य अभरेगा कि गीत ही वह प्रथम भावनेता है जो मनुष्य को जगाकर उसके विकास का प्रयत्न करता है। मानवता की सभ्यता का अभिव्यक्ति रूप गीत है। मानवता को हर गीत में जगाया है, वह वेद में हो, कुरान में हो, बाईबिल में हो, गुरू ग्रंथ साहिब में हो अथवा लोकगीत में। (लोकगीत की सत्ता – सु. गौतम – शब्द सेतु पृ. 41)
बच्चन के दो काव्य संग्रहों में विशेषकर ‘त्रिभंगिमा’ और ‘चार खेमे : चौंसठ खूंटे’ में लोकगीत शैली का प्रयोग किया गया है। भाषा खड़ी बोली हिन्दी है पर शब्द विन्यास ऐसा है कि गीत की सरलता साकार हो जाती है। त्रिभंगिमा का प्रथम गीत ‘नैया जाती’ है। यह उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित है। (बच्चन का साहित्य : काव्य और शिल्प, डॉ. जयप्रकाश भाटी – पंछी प्रकाशन, जयपुर)
‘चढ़ना हो, चढ़ना हो जि चढ़ जाय, नैया जाती है।
चंदन की यह नाव बनायी कोमल कमल दलों से छायी
फूलों की झालर लटकाई, रेशम के है पाल, छटा छहराती है।
ये खोजेंगे अलख परी का’ -
यहां नौका की रचना और सजना लोकमानस के अनुरूप है। नौका चंदन से बनी है, कोमल कमलों से छाई है, फूलों की झालर से सजी है। उसका विस्तार इतना है कि मस्तूल गगन को छूता है और बांस नदी की धड़कन को नापता है। नौका अमर पुरी जाएगी और अलख-परी को खोजेगी। लोकधुनों व लोकगीत शैली पर आधारित इन गीतों के प्रति बच्चन का यह आग्रह स्पष्ट है। बच्चन के अधिकांश गीत ऐसे हैं जिन में परंपरा-मुक्त लोकगीतों की भांति कोई कहानी चलती है और मिलन व्यापार के पश्चात् किसी निष्कर्ष के साथ समाप्त हो जाती है। सोन मछरी, गंधर्व ताल, आगाही और नीलपरी ऐसी रचनाएं हैं जो लघुकथानक को लेकर आगे बढ़ती है। सोन-मछरी में एक स्त्री पुरूष से सोन मछरी लाने का आग्रह करती है लेकिन वह सोने की परी ले आता है और वह कहती है – जो मनुष्य कंचन में आसक्त है, वह प्यार नहीं दे सकता – सिर्फ पीड़ा ही दे सकता है – पूर्ण रूप से लोकानुरूप यह गीत बच्चन की गीत रचना में प्रयोग का ही परिणाम है।
वास्तव में प्रत्येक कवि किसी न किसी क्षण में लोकगीत का आश्रय लेता है, जो स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि कवि भाव का ही आविष्कार करता है और भाव लोकधर्मी है। कुछ लोकगीतों में बच्चन ने समाज के उन मूल्यों को स्पर्श किया है जिनमें जन की अपेक्षा धन को अधिक महत्व दिया जाता है -
आज महंगा है सैंया रुपैया बेटी न प्यारी
बेटा न प्यारा, प्यारा है सैंया रुपैया
(चार खेमे)
लोकगीत शैली के इन गीतों में सामाजिक यथार्थ का भी चित्रण किया गया है। ‘माटी’ तथा ‘गगन’ प्रतीकों के माध्यम से ‘कड़ी मिट्टी’ निष्क्रिय दलित वर्ग तथा शोषित वर्ग की बात इसका प्रमाण है।
मैं इस माटी तोडूंगा, ऐसे तो न इसे छोड़ूगा
इसे दूंगा, इसे दूंगा परीने की धार
(त्रिभंगिमा)
‘माटी की महक’ में समाज के संदर्भ में जीवन के औचित्य को स्वर मिला है -
जिसे माटी की महक न भाए उसे नहीं जीने का हक है
(त्रिभंगिमा)
ये पंक्तियां हमेशा के लिये प्रासंगिक इसलिये हैं कि ये पूर्ण रूप से लोक दृष्टि पर आधारित हैं। आंचलिकता ‘लोक’ की अपनी संस्कृति के साथ जुड़ी हुई चीज है। ‘हरियाने की लली’ तथा ‘बीकानेर का सावन’ में लोक संस्कृति की सही पहचान मिल सकती है -
आई है दिल्ली की नगरिया में हरियाने की लली
देशों में प्रदेश हरियाना, जिस में दूध दहि का खाना
माटी के मथने से जैसे लबनी-सी-निकली।
(चार खेते)
इस तरह लोक के जीवन रीति, आचार, विचार, आचंलिक स्वभाव तथा सोचने का ढंग आदि के अनुकूल बच्चन के गीत हिन्दी के लोकगीत परंपरा में एक नया प्रयोग कहे जा सकते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि बच्चन गीत या कविता लिखने वाले कवि नहीं, बल्कि कविता कहे जाने वाले, कविता के हाथों पूरी तरह समर्पित कवि हैं। उनके काव्य और जीवन दोनों में रास्ता मनुष्य या लोक की ओर ले जाने वाला रास्ता है। क्योंकि बच्चन जी पहले आदमी हैं फिर कवि। तभी बच्चन का कवि आदमियत को अपनाए रहता है और आदमियत में रहकर ही आदमियत की कविता करता रहता है। इसीलिये, शायद बच्चन की कविता में न शब्दों को खिलवाड़ मिलता है – न पांणित्यपूर्ण प्रदर्शन – न गहर गुरु गंभीर निनाद – न चमत्कार – न चीत्कार – न अलंकार – न व्यर्थ का वाग्विचार – न आत्म-दोहरन – न दुराग्रह (केदारनाथ अग्रवाल – बच्चन निकट से – पृ. 53)। असल में बच्चन लोक के कवि हैं, लोकधर्मी कवि हैं क्योंकि उनकी रचनाओं में लोक तत्व ही भरे पड़े हैं।






स्मरण : डॉ. हरिवंश राय बच्चन

स्मरण : डॉ. हरिवंश राय बच्चन



 
आज का युवा ट्विटर और फेसबुक के मायाजाल में फंसता चला जा रहा है। किताबों से दूरी बढ़ गई है। आधुनिक समाज में इसके यंत्रो और तंत्रो से मुक्ति का प्रयास भी हास्यास्पद लगता है।  हरिवंश राय बच्चन जी का भी यही मानना था कि काल और स्थान के दिखाए अनगिनत रास्तों में से एक चुनकर बेधड़क बढ़ते चले जाओं, ‘मधुशाला’ यानी मंजिल मिल जाएगी पर जब सब एक हीं रास्ते पर बढ़ते चले जाए तो एकरसता और सामाजिक रंगों में कमी का डर सदैव बना रहता है। अगर ऐसा हुआ तो फिर कोई हरिवंशराय बच्चन इस भारत भूमि पर जन्म नहीं लेगा। बच्चन जी की १०४ वीं जयन्ती के अवसर पर ''प्रवासी दुनिया'' द्वारा प्रस्तुत सामग्री आभार सहित दिव्य नर्मदा के पाठकों के लिये  पुनर्प्रस्तुत की जा रही है ।

हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार श्री हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को  इलाहाबाद के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में २७ नवम्बर १९०७ को जन्मे श्री हरिवंश राय बच्चन ने १९२९ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधी प्राप्त की और फिर जल्द ही उनका ध्यान स्वतंत्रता के लिये चल रहे संघर्ष ने भी खींचा। कुछ समय पत्रकारिता में बिताने के बाद उन्होनें एक स्थानीय अग्रवाल विद्यालय में अध्यापक की नौकरी कर ली। अध्यापन के काम के साथ-साथ वे पढाई भी करते रहे और एम.ए. तथा बी.टी की उपाधियां प्राप्त की।

उन्होनें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोधकर्ता के रूप में कार्य आरम्भ किया और १९४१ में अंग्रेज़ी साहित्य में लैक्चरर का पद संभाल लिया। कुछ समय के बाद उन्होने विश्वविद्यालय से छुट्टी ली और ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गये। वहां उन्होने “डब्ल्यू. बी. यीट्स और आकल्टिज़म” नामक विषय पर शोध किया और १९५२ में अंग्रेज़ी साहित्य में पी. एच. डी. की उपाधी प्राप्त की। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में पी. एच. डी. की उपाधी प्राप्त करने वाले वह प्रथम भारतीय थे। भारत वापस लौट कर कुछ समय के लिये उन्होने आल इंडिया रेडियो के साथ निर्माता के तौर पर काम किया। फिर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के आग्रह पर १९५५ में श्री बच्चन विदेश मंत्रालय के हिन्दी विभाग से जुड गये। यहां उन्होनें अंग्रेज़ी में लिखे आधिकारिक दस्तावेजो का हिन्दी में अनुवाद करने का काम प्रारम्भ किया और इस काम को वे अपनी सेवानिवृत्ती तक करते रहे।

आलोचनाओ की परवाह किये बिना, बच्चन जी ने लेखन का काम जारी रखा। उनके समक्ष बहुत सी कठिनाईयां आयीं। उनके सामने वित्तीय समस्याएं थी और वे बहुत अकेलापन अनुभव करते थे -जो कि उनकी पहली पत्नी श्यामा के असमय देहांत के कारण और भी बढ गया था। लेकिन जब उन्होने तेजी सूरी के साथ विवाह किया तो उनका जीवन ही बदल गया। बच्चन जी ने यह भी स्वीकार किया की इस विवाह के बाद उनका काव्य भी बदला। उनका रचनात्मक कार्यकाल, जो १९३२ में आरम्भ हुआ और १९९५ तक चला, एक ६३ वर्ष लम्बी साहित्यिक यात्रा था।

“तेरा हार” उनकी कविताओं का पहला संकलन था। १९३५ में “मधुशाला” के प्रकाशन के बाद एक प्रमुख हिन्दी कवि के रूप में उनकी प्रतिष्ठा मज़बूती के साथ स्थापित हो गयी थी। १९३५ की एक शाम जब उन्होने मधुशाला की रूबाइयों का श्रोताओ के एक विशाल समूह के सामने पाठ किया तो वह हिन्दी काव्य के क्षितिज पर एक चमकते हुए सितारे के रूप में उभरे। मधुशाला की रूबाइयां, असंख्य दुख सहे चुके एक नौजवान के हृदय से निकली करुण पुकार थी।

बच्चन जी की काव्य शैली

उमर खैय्याम की रूबाइयत का असर मधुशाला के अलावा उनकी दो और लम्बी कविताओं पर दिखा। १९३६ में “मधुबाला” और १९३७ में “मधुकलश” के प्रकाशन के साथ ही तीन पुस्तको की यह श्रृंखला पूरी हुई। इन तीनो ही कविताओं में यह संदेश छुपा था कि सांसारिक इच्छाएं, लालच, धार्मिक असहिषुण्ता और नैतिकता जैसी चीज़ों का कोई अर्थ नहीं है। बच्चन जी ने इन कविताओ के ज़रिये नैतिकतावादियों को चुनौती दे कर हिन्दी काव्य में एक नई राह की शुरुआत की।

श्यामा की अकाल मृत्यु ने उनकी मानसिकता पर एक गहरा असर छोडा और उनकी सभी आशाओं और स्वपनों को चूर-चूर कर दिया। उनका यह गहरा दुख और निराशा “निशा निमन्त्रण” के माध्यम से व्यक्त हुई जो उनकी सौ कविताओं का १९३८ में प्रकाशित एक संग्रह था। इस संग्रह में बच्चन जी ने अपनी एक अलग शैली विकसित करने का प्रयत्न किया। परम्परागत छ: और आठ पन्क्तियों के पद्य के स्थान पर उन्होनें १३ पन्क्तियों के पद्य का प्रयोग किया। अकेलेपन के क्रंदन से आरम्भ हो कर इन कविताओ का समापन एक आश्वासन के साथ होता है। यह कविताएं मुख्यत: निराशा रूपी अंधकार से जुडी हैं जिनमें प्रकाश को आशा के प्रतिमान के रूप में प्रयोग किया गया है। इन रचनाओं में कवि ने अपने अंतर्मन के भावों को बाहरी संसार के प्रतिमानो के रूप में प्रकट किया है। इसीलिये बहुत से प्रतीकों का भी प्रयोग हुआ है। माथुर जी के शब्दों में “निशा निमन्त्रण हमेशा ही एक मन को छू लेने वाली दुख और व्यथा की रचना बनी रहेगी।”

“निशा निमन्त्रण” के बाद बच्चन जी ने “एकांत संगीत” को १९३८-३९ के उस समय में लिखा जब वह घोर मानसिक यातना के दौर से गुज़र रहे थे। “एकांत संगीत” की पन्क्तियां उनके संवेदनशील मन और दुखो से भरे उस समय को चित्रित करती हैं। यह संग्रह उनकी काव्य प्रतिभा के शिखर को दर्शाता है। कवि ने लिखा कि “निशा निमन्त्रण” के अंधकार ने उन्हें “एकांत संगीत” सुनने के लिये प्रेरित किया और इस संगीत ने उन्हे “आकुल अंतर” (सन १९४३) लिखने की प्रेरणा दी। “आकुल अंतर” के प्रकाशन के साथ ही उनकी काव्य यात्रा का एक चरण पूरा हो गया।

बंगाल में भुखमरी से आहत मन

“सतरंगिनी” का प्रकाशन १९४५ में हुआ। १९४३ में बंगाल में भुखमरी के हालात पैदा हो गये थे और इससे द्रवित हो बच्चन जी अपनी पहले की सोच से हट कर लिखने लगे। मानवीय समस्याओं से उनके काव्य के इस जुडाव के फ़लस्वरूप १९४६ में “बंगाल का कल” नामक संग्रह प्रकाशित हुआ। भूपेन्द्रनाथ दास ने इस संकलन का सन १९४८ में बंगाली भाषा में अनुवाद किया। जनता की समस्याओं और अपने निजी दु:ख की छांह तले उन्होनें १९४६ में ही “हलाहल” का प्रकाशन किया।

प्रसन्नता के भाव

१९५० के दशक में बच्चन जी ने अपने काव्य में लम्बे समय के बाद प्रसन्नता के भावो को व्यक्त किया। उन्होनें १९५० में “मिलन यमिनी” और १९५५ में तुलसीदास की विनय पत्रिका के नाम पर आधारित “प्रणय पत्रिका” की रचना की। १९५७ में “घर के इधर उधर” नामक संकलन में उन्होने अपने वंश के गौरव को दर्शाने का प्रयत्न किया और १९५७ में छपे संकलन “आरती और अंगारे” में उन्होनें व्यक्ति के उसकी विरासत की ओर लौटने की चर्चा की।

अपने बाद के प्रकाशनों में उन्होने अकेलेपन और अस्तित्व की उद्देश्यहीनता से होते हुए जीवन की छोटी छोटी प्रसन्नताओं तक पहुचनें का संदेश दिया। सन १९५८ में “बुद्ध और नाचघर” के प्रकाशन के बाद उनकी लेखन शैली में एक बार फिर से बदलाव आया। स्वंय बच्चन जी के अनुसार “बुद्ध और नाचघर” उनके लेखन में एक मील का पत्थर था। इसमें वह अपने चारो ओर के समाज में पनप रहे क्रोध को व्यक्त करने में सक्षम हुए थे। “त्रिभंगिमा”, “चार खेमे चौसठ खूंटे”, “रूप और आवाज़” और “बहुत दिन बीते” नामक संकलनो में उन्होने लोक-कथाओं की भाषा के साथ प्रयोग कई किये।

दो चट्टानें

१९६५ में छपी “दो चट्टानें” नामक पुस्तक में ५३ कविताएं थी जिन्हें बच्चन जी ने १९६२ से १९६४ के बीच लिखा था। इस संकलन को १९६८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बहुत सी अन्य कविताओं के अलावा इस संकलन की शीर्षक कविता बहुत महत्वपूर्ण थीं। इसमें बच्चन जी ने जीवन के दो दृष्टिकोणो को सिसिफ़स (यूनानी धर्मकथाओं के एक पात्र) और हनुमान के उदाहरण ले कर व्यक्त किया था। सिसिफ़स और हनुमान, दोनो ही अमरता पाना चाहते थे (या उन्होने अमरता पाई थी) परन्तु इसे पाने के लिये दोनो के रास्ते अलग अलग थे। जहां सिसिफ़स ने २०वीं सदी के विश्वासहीन पश्चिमी मानसिकता वाले मानव को चरितार्थ किया वही हनुमान ने अमरता को भक्ति, अटूट विश्वास और मानवता के ज़रिये हासिल किया था।
सदी के सातवें दशक में बच्चन जी ने कविताओं के माध्यम से और भी बहुत से मुद्दो पर अपने विचार व्यक्त किये। इन मुद्दो में चीन का भारत पर आक्रमण, पंडित नेहरु का देहांत, युवाओं में बढते क्रोध, उनकी स्वंय की बढती आयु और तात्कालिक सहित्य इत्यादी शामिल थे।

हिन्दी लेखको के लेखन पर सत्याग्रह के और उसके बाद के दशको में महात्मा गांधी का बहुत प्रभाव पडा। बच्चन जी भी इससे अछूते नहीं रहे। सुमित्रानंदन पंत के साथ मिल कर बच्चन जी ने महात्मा गांधी के बारे में कविताओं का एक संकलन प्रकाशित किया। १९४८ में छपे “खादी के फूल” नामक इस संकलन में बच्चन जी की ९३ कविताएं और पंत जी की १५ कविताएं थी। दोनो ही कवियों ने इन कविताओं के माध्यम से महात्मा गांधी को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किये थे। इसके अलावा, बच्चन जी ने “सूत की माला” शीर्षक से एक और संकलन प्रकाशित किया जिसमें उन्होने गांधी जी की मृत्यु पर अपना शोक व्यक्त किया। ये दोनो ही पुस्तकें बहुत अधिक महत्व की हैं।

एक ऐसे परिवार से होने के कारण जो की अपनी फ़ारसी भाषा की विद्वत्ता और वैष्णव धर्म को मानने के लिये जाना जाता था -बच्चन जी की कविताओं में संस्कृत, फ़ारसी और अरबी भाषाओं का सुंदर संगम देखने को मिलता है। कबीर, कीट्स, टैगोर, शेक्सपीयर और उमर खैय्याम का प्रभाव उनके पूरे काव्य पर देखा जा सकता है। उन्होनें शेक्सपीयर के “मैकबेथ” और “आथेलो” का हिन्दी में अनुवाद भी किया। इसके अलावा उन्होने ६४ रूसी कविताओं और डब्ल्यू. बी. यीट्स की १०१ कविताओं का भी हिन्दी में अनुवाद किया। रूसी कविताओं के हिन्दी अनुवाद के लिये उन्हें १९६६ में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
बच्चन जी ने श्रीमद भगवदगीता का अवधी भाषा में “जनगीता” (१९५८) और आधुनिक हिन्दी में “नागरगीता” (१९६६) नाम से अनुवाद किया। उनकी कुछ चुनी हुई कविताओं का अनुवाद भी कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में हो चुका है। इसके अलावा उन्होनें निबंध, यात्रा-वर्णन इत्यादी का लेखन किया और अपने तथा अन्य कई कवियों के काव्य संकलनों का संपादन भी किया। हिन्दी सिनेमा में भी उन्होने यश चोपडा की फ़िल्म सिलसिला (१९८१) के लिये “रंग बरसे” और फ़िल्म आलाप (१९७७) के लिये “कोई गाता मैं सो जाता” जैसे लोकप्रिय गीत लिख कर अपना योगदान दिया।

गद्य लेखन में बच्चन जी की महान उपलब्धि उनकी चार खंडो में प्रकाशित आत्मकथा है।

पुरस्कार

बच्चन जी को अपने जीवन में बहुत से पुरस्कार और सम्मान मिले। उनमें से कुछ प्रमुख हैं:
साहित्य अकादमी पुरस्कार
सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार
पद्म भूषण (१९७६)
सरस्वती सम्मान (के.के. बिरला फ़ाउंडेशन द्वारा दिया जाने वाला यह सम्मान प्रथम बार बच्चन जी को ही दिया गया था)
एफ़्रो-एशियन राइटर्स कांफ़्रेंस लोटस पुरस्कार
सदस्यता

भारत के राष्ट्रपति द्वारा १९६६ में राज्यसभा के लिये मनोनीत
हिन्दी सलाहकार मंडल, साहित्य अकादमी, की सदस्यता (१९६३-६७)
भारतवर्ष ने हिन्दी भाषा का यह महान कवि १८ जनवरी २००३ को खो दिया। बच्चन जी का देहांत ९६ वर्ष की आयु में सांस की तकलीफ़ के कारण हुआ। मुंबई में उनकी अंतिम यात्रा में हज़ारो लोगो ने हिस्सा लिया।

रचना संसार :

तेरा हार (1932)
मधुशाला (1935)
मधुबाला (1936)
मधुकलश (1937)
निशा निमंत्रण (1938)
एकांत संगीत (1939)
आकुल अंतर (1943)
सतरंगिनी (1945)
हलाहल (1946)
बंगाल का काव्य (1946)
खादी के फूल (1948)
सूत की माला (1948)
मिलन यामिनी (1950)
प्रणय पत्रिका (1955)
धार के इधर उधर (1957)
आरती और अंगारे (1958)
बुद्ध और नाचघर (1958)
त्रिभंगिमा (1961)
चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962)
दो चट्टानें (1965)
बहुत दिन बीते (1967)
कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968)
उभरते प्रतिमानों के रूप (1969)
जाल समेटा (1973) 

विविध
बचपन के साथ क्षण भर (1934)
खय्याम की मधुशाला (1938)
सोपान (1953)
मैकबेथ (1957)
जनगीता (1958)
ओथेलो(1959)
उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959)
कवियों के सौम्य संत: पंत (1960)
आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960)
आधुनिक कवि (1961)
नेहरू: राजनैतिक जीवनचित्र (1961)
नये पुराने झरोखे (1962)
अभिनव सोपान (1964)
चौसठ रूसी कविताएँ (1964)
डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज़्म (1968)
मरकट द्वीप का स्वर (1968)
नागर गीत) (1966)
बचपन के लोकप्रिय गीत (1967)
हैमलेट (1969)
भाषा अपनी भाव पराये (1970)
पंत के सौ पत्र (1970)
प्रवास की डायरी (1971)
1972)
टूटी छूटी कड़ियाँ(1973)
मेरी कविताई की आधी सदी (1981)
सोहं हँस (1981)
आठवें दशक की प्रतिनिधी श्रेष्ठ कवितायें (1982)
मेरी श्रेष्ठ कविताएँ (1984)

आत्मकथा / रचनावली 
क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969)
नीड़ का निर्माण फिर(1970)
बसेरे से दूर (1977)
दशद्वार से सोपान तक (1965)
बच्चन रचनावली के नौ खण्ड (1983)

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शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

अपने बच्चे को बच्चा ही रहने दीजिए ! -- संजय पटेल

अपने बच्चे को बच्चा ही रहने दीजिए !

-- संजय  पटेल 

यदि आप एक पालक हैं तो आपके मन में अपने बालक के लिये कई उम्मीदें होंगी कि वह एक डॉक्टर, एक अभियंता, वैज्ञानिक या कोई यशस्वी व्यवसायी बने। मेरा मानना है कि आपकी ये उम्मीदें आपके बालक के भविष्य और आपके जीवन में उसके स्थान को ध्यान में रखते हुए ही होंगी।

चूँकि एक अच्छी शिक्षा अक्सर अच्छे भविष्य का पासपोर्ट होती है, मेरी मान्यता है कि इसी कारण यह उद्देश्य आपको आपके बालक को एक अच्छे विद्यालय में प्रवेश हेतु प्रेरित करता है, तत्पश्चात्‌ आप बालक को अच्छी पढ़ाई कर परीक्षा में अच्छी सफलता पाने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। इसी उद्देश्य को अधिक सुनिश्चित करने के लिये आप उसे किसी ट्‌यूशन क्लास में भी भेजते हैं। फलस्वरूप वह बालक बोर्ड की परीक्षाएँ और अन्य प्रवेश परीक्षाएँ देने हेतु विवश होता है ताकि उसे किसी अच्छे व्यवसायिक अभ्यासक्रम में प्रवेश मिल सके। महाविद्यालय में अच्छा यश पाने से उसे एक अच्छी नौकरी पाने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैंऔर एक अच्छी नौकरी का अर्थ बालक का भविष्य सुनिश्चित हो जाना होता है।

मैं स्वयं न एक मनोवैज्ञानिक हूँ; ना ही एक शिक्षाविद्‌, और अब मैं जो कहूँगा वह उपरोक्त विचारों के एकदम विरूद्ध लग सकता है। मेरे विचार में यही अपेक्षाएँ और तद्‌नुसार की गई क्रियाएँ आपके बालक को अच्छाई कम और नुकसान अधिक पहुँचा सकती हैं ! ऐसा क्यों ? यह समझने के लिये हमें अपनी मूलभूत मान्यताओं को पुन: देखना होगा।

सर्वप्रथम, मैंने बार-बार यह देखा है कि किसी दूरस्थ भविष्यकालीन उद्देश्य के लिये प्रयास करते जाने का अर्थ है आप वर्तमान में नहीं जी रहे हैं। उस दूरस्थ उद्देश्य का परिणाम होगा, यश पाने के लिये परीक्षा जैसे बाह्य साधनों का आधार लेना और अधिकांश बच्चों का परीक्षा-केन्द्रित होना। उनका बच्चे होना-जैसे उत्सुक, मसखरा, शोधक, गिरना, उठना, संबंध रखना, खोज करना, संशोधन करना, काम करना, खेलना आदि वे भूलते ही जाते हैं।

बाल्यकाल एक बड़ी मौल्यवान बात होती है; ऐसी मौल्यवान, जो ज़बरदस्ती लादी गई स्पर्धाओं के नकली बोझ, किताबी अध्ययन के अनगिनत घंटों और समूचे इंसान को मात्र आँकड़ों में ही सहजता से लपेटने वाली स्कूली रिपोर्टों के द्वारा नष्ट नहीं की जानी चाहिए।

दूसरी मान्यता यह है कि सामाजिक-आर्थिक उति के लिये शिक्षा मात्र एक टिकट जैसी है, अपने राष्ट्र की वर्तमान अवस्था देखने पर यह सत्य भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। किंतु शिक्षा को केवल इसी पहलू तक सीमित रखना, मेरे विचार से शिक्षा को एक बहुत सीमित उद्देश्य के दायरे में रखना होगा। किसी विद्यालय का प्राथमिक उद्देश्य बालक को स्वयं की और अपने विश्व की खोज करने हेतु मार्गदर्शन करना और बालक की क्षमताओं को पहचान कर उनको आकार देना होता है। जैसे की एक बीज में एक भविष्य का वृक्ष छिपा होता है उसी प्रकार एक बालक अनगिनत क्षमताओं के साथ ही जन्म लेता है। ऐसे एक विद्यालय की कल्पना कीजिए जो बच्चों को बोने हेतु बीजों के रूप में देखता है-यहॉं एक शिक्षक ऐसा माली होता है जो बालकों की जन्मजात क्षमताओं को उभारने में मदद करता है। यह विचार उस वर्तमान दृष्टिकोण से, जिसमें यह माना जाता है कि एक बालक मात्र एक मिट्टी का गोला होता है जिसे अपनी इच्छानुसार ढालने वाले उसके माता-पिता और शिक्षक एक मूर्तिकार होते हैं, एकदम विपरीत है। एक पुरानी (अब स्मृति शेष भी न रही) चीनी कहावत है, एक कुम्हार को एक बीज दीजिये, और आप पाएँगे एक बोनसाई (गमले में उगा बौना वृक्ष)। एक व्यापारी संस्थान में भी लाभ पाने के लिये उसका पीछा करने से काम नहीं हो पाता। हमें एक ऐसी संस्था बनानी होती है जिसमें हर कर्मचारी को अर्थपूर्ण तथा संतोषप्रद काम करने के अवसर देना होते हैं। एक ऐसे संगठन का निर्माण हो जिसमें नवीनता, नेकी, ग्राहक-केन्द्रिता हो तथा आस्था ही उसकी चालना हो। जैसे ही आप हर पल, हर दिन इन मूल्यों का पालन करेंगे आप यह पाएँगे कि लाभ अपनी चिंता स्वयं ही कर लेता है।

ठीक उसी तरह प्रिय पालकगण, मेरी आपसे भी एक विनती है, अपने बालक का भविष्य सुरक्षित करने के लिये उसके बचपन को न गॅंवाइए। अपने बालक को निश्चिंतता से उसका जीवन टटोलने और ढूँढने की स्वतंत्रता दीजिए। ऐसा करने पर आप अपने बालक को एक सृजनशील एवं संवेदनशील इंसान के रूप में फलता-फूलता देख पाएँगे और जब ऐसा होगा तब अन्य सब कुछ यानी समृद्धि, सामाजिक सफलता, सुरक्षा अपनी जगह अपने-आप पा लेंगे।

अपने बालक को बालक ही रहने दीजिए !

आभार: जोग लिखी  

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मंगलवार, 30 मार्च 2010

सम्मान: दिव्या माथुर को हरिवंश राय बच्चन लेखन सम्मान




लंदन। नेहरू केंद्र की वरिष्ठ कार्यक्रम अधिकारी दिव्या माथुर को वर्ष 2009 के हरिवंश राय बच्चन लेखन सम्मान से सम्मानित किया गया है। ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त नलिन सूरी ने माथुर को यह सम्मान प्रदान किया, जिन्होंने कई कविता संग्रहों के साथ ही कहानियाँ भी लिखी हैं। 1985 में लंदन में भारतीय उच्चायोग से जुड़ी दिव्या माथुर रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स की फ़ेलो हैं। नेत्रहीनता से संबंधित कई संस्थाओं में आपका सक्रिय योगदान रहा है तथा इनकी अनेक रचनाएँ ब्रेल लिपि में प्रकाशित हो चुकी हैं। आशा फ़ाउंडेशन और पेन संस्थाओं की संस्थापक-सदस्य, चार्नवुड आर्ट्स की सलाहकार, यू के हिंदी समिति की उपाध्यक्षा, भारत सरकार के आधीन, लंदन के उच्चायोग की हिंदी कार्यकारिणी समिति की सदस्या, कथा यू के की पूर्व अध्यक्ष और अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की सांस्कृतिक अध्यक्ष, दिव्या कई पत्र, पत्रिकाओं के संपादक मंडल में भी शामिल हैं।

दिव्या माथुर के नाटक व कहानियों के मंचन तथा रेडियो एवं दूरदर्शन पर प्रसारण के अतिरिक्त, इनकी कविताओं को कला संगम संस्था द्वारा भारतीय नृत्य शैलियों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। लंदन में कहानियों के मंचन की शुरूआत का श्रेय भी इन्हें दिया जाता है । रीना भारद्वाज, कविता सेठ और सतनाम सिंह सरीखे विशिष्ट संगीतज्ञों ने इनके गीत और ग़ज़लों को न केवल संगीतबद्ध किया, अपनी आवाज़ से भी नवाज़ा है।

युवावस्था से ही लेखन कार्य में जुटी माथुर के छह कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें रेत का लिखा, अंतःसलीला, ख्याल तेरा, 11 सितंबर: ड्रीम्स डेबरीज, चंदन पानी और झूठ, झूठ और झूठ शामिल हैं। उनके कहानी संग्रहों में आक्रोश का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है जिसके लिए उन्हें पद्मानंद साहित्य सम्मान प्रदान किया गया था।
 
                                                                                                                                          आभार: सृजनगाथा
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