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बुधवार, 18 अक्टूबर 2017

diwali geet

दीवाली गीत
कुसुम वीर, दिल्ली
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दीप हूँ जलता रहूँगा 
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​नव कोंपलों का ​सृजन लख, बन पाँखुरी झरता रहा
विकीर्ण कर सुरभित मलय, प्रयाण को तत्पर हुआ
सज सुगन्धित माल प्रिय हिय में सदा शोभित रहूँगा
स्नेह को उर में संजोए  ​​दीप हूँ जलता रहूँगा
सृष्टि के कण-कण में प्रतिपल ॐ स्वर है गूँजता
अक्षरित नभ शब्द बन कर नाद अनुपम उभरता
पुष्प में मकरंद, नाभि मृग में कस्तूरी बसे
बूँद बन बरसात की अंकुर धरा तल पल रहूँगा

आभ पा रश्मि रवि की जग उजाला छा गया
पलटते पन्ने समय के कोई कहानी कह गया
स्वप्न सुधियों में जगे थे, आस अलसायी उठी
इतिहास के कुछ नए कथानक मैं सदा लिखता रहूँगा

मन की तृष्णाओं की गठरी बोझ को ढोता रहा
अहम् की चादर को ओढ़े वितृष्णाओं के पथ पग धरा
कौन अब  आकर सँवारे ज़िंदगी की शाम को
बुलबुले सी देह यह, मिट-मिट के फिर बनता रहूँगा 

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बुधवार, 14 जून 2017

geet

अतिथि रचना
'कौन संकेत देता रहा'
कुसुम वीर
*
भोर में साथ उषा के जागा रवि, साँझ आभा सिन्दूरी लिए थी खड़ी 
कौन संकेत देता रहा रश्मि को, रास धरती से मिलकर रचाती रही
पलता अंकुर धरा की मृदुल कोख में, पल्लवित हो सृजन जग का करता रहा
गोधूलि के कण को समेटे शशि,चाँदनी संग नभ में विचरता रहा
सागर से लेकर उड़ा वाष्पकण, बन कर बादल बरसता-गरजता रहा
मेघ की ओट से झाँकती दामिनी, धरती मन प्रांगण को भिगोता रहा
उत्तालित लहर भाव के वेग में तट के आगोश से थी लिपटती रही
तरंगों की ताल पे नाचे सदा, सागर के संग-संग थिरकती रही
स्मित चाँदनी की बिखरती रही, आसमां' को उजाले में भरती रही
कौन संकेत देता रहा रात भर, सूनी गलियों की टोह वो लेती रही
पुष्प गुञ्जों में यौवन सरसता रहा, रंग वासन्त उनमें छिटकता रहा
कौन पाँखुर को करता सुवासित यहाँ, भ्रमर आ कर मकरन्द पीता रहा
झड़ने लगे शुष्क थे पात जो, नई कोंपल ने ताका ठूँठी डाल को
​शाख एक-दूजे से पूछने तब लगी, क्या जीवन का अंतिम प्रहर है यही
साँसों के चक्र में ज़िंदगी फिर रही, मौत के साये में उम्र भी घट रही
कब किसने सुना वक़्त की थाप को, रेत मुट्ठी से हर दम फिसलती रही
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सोमवार, 13 अगस्त 2012

कविता मत बाँटो इन्सान -- कुसुम वीर

कविता :

मत बाँटो इन्सान 


 
कुसुम वीर
आदिकाल से
युगों -युगान्तरों तक
हम सिर्फ मानव थे
आपस में सब बराबर थे

कालांतर में
सत्ता की लालसा, महत्वाकांक्षा
धन की लोलुपता
अहम् , तुष्टि और स्वार्थ
इन सबने मिलकर
बिछाई एक कूटनीतिक बिसात

व्यवस्था के नाम पर
मोहरा बना मानव
बांटा गया उसे
जातियों में,वर्णों में,
धर्मों में, पंथों में
अनेक संस्कृतियो में

खड़ी कर दीं  आपस में
नफरत की दीवारें
डालीं दिलों में
फूट की दरारें
जहाँ -तहाँ तानीं अनगिन सीमाएं
हिंसा की आग में
जलीं कई चिताएं

दिलों में जलाई जो
नफरत की आग
 लपटों में झुलसे
अनेकों परिवार

शून्य में फिर ये
उछलता सवाल
कब रुकेगी ये हिंसा
बुझेगी ये आग

बनती यहाँ है
सर्वदलीय समिति
फैसलों से उसके
न मिलती तसल्ली

आरक्षण की पैबंद
लगाते हैं वो
उसीके भरोसे बंटोरेंगे वोट
मलते हैं वादों के
दिखावटी मलहम
दिलों में न चिंता,
नहीं कोई गम

ये मज़हब, ये जात-पांत
ऊँच-नीच, भेद-भाव
बनाये नहीं थे,
परब्रह्म सत्ता ने
फिर क्यूँ ये अलगाव,
फूटें हैं मन में

कब तक खरीदोगे
इन्सान को तुम
बाँटोगे कब तक
हर रूह को तुम
नफरत, ये अलगाव,
मत तुम फैलाओ
चलो, सबको मिलकर,
गले से लगाओ



 

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kusumvir@gmail.com


मंगलवार, 17 जुलाई 2012

कविता "आखिर क्यों? " --कुसुम वीर

कविता


"आखिर क्यों? "
 
कुसुम वीर 
*
कुछ वहशी दरिन्दे, निरीह बाला को
सरेबाज़ार पीट रहे थे, नोच रहे थे
और आसपास खड़े लोग
अबला की अस्मत को तार -तार होता देख
तमाशबीन बने मौन खड़े थे
आखिर क्यों ?

दर्द से, पीड़ा से छटपटाती
गुंडों से सरेआम पिटती
असहाय बाला की पुकार,चीत्कार भी
नहीं झकझोर पाई थी
निर्जीव खड़े उन लोगों की चेतना को
आखिर क्यों ?

कहीं भी, कोई भी
घटित होता पाप, अत्याचार
नहीं कचोटता आज हमारी आत्मा को
नहीं खौलता खून
नहीं फड़कती हमारी भुजाएं
 दानवों के दमन को
आखिर क्यों ?

गिर चुके हैं हम,
अपने संस्कारों से, सिद्धांतों से
उसूलों से, मर्यादाओं से
या मार डाला है हमें,हमारी कायरता ने
जिसकी बर्फ तले दुबके,
बेजान, बेअसर,निष्चेत पड़े हैं हम
आखिर क्यों ?

कहने को व्याप्त है, हरतरफ सुरसा सम
शासन - प्रशासन और न्याय
फिर भी,
इन बेगैरत, बेशर्म,बेख़ौफ़ चंद गुंडों से
हम इतने खौफ ज़दा हैं
आखिर क्यों ?

आखिर किस लाचारी और भय के चाबुक से
आदमी इस कदर असहाय हो गया है
कि, सरेआम लूटते -खसोटते, काटते -मारते
दरिंदों की दरिंदगी को देखकर भी
नपुंसकों की भांति, आज वह निष्चेत खड़ा है
आखिर क्यों ?

आज किसी द्रुपदा का चीरहरण
नहीं ललकारता हमारे पौरुष को
क्रूरता और वीभत्सता का तांडव
नहीं झकझोरता हमारे अंतर्मन को
आखिर क्यों ?

गौरवमय भारत के लौहपुरुष
कल क्या थे,आज क्या हो गए
कभी सोचा है तुमने ?
हमारा ये बेबस मौन
किस गर्त में डुबोयेगा हमें, हमारे समाज को
क्या इसपर चिंतन करोगे तुम ?
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kusumvir@gmail.com