कुल पेज दृश्य

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 2 मई 2023

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'

लेख- 

साँसों की सरगम और जमीनी जुड़ाव के नवगीतकार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
- सुरेन्द्र सिंह पँवार
*  

                       सत्य के शिवत्व की लयात्मक सुंदरता ही कविता है। वह आत्मा की गीतात्मक संवेदना को लय में पिरोती है। गीत ही कविता का स्वभाव है, उसका अभिधान है, उसका परिचय है। गीत में सामवेदी संगीत उसे ऋचाओं का सा दिलाता है। यही गीत जब लोक से संस्कारित होता है तो उसकी धुनों पर थिरकने लगता है। छायावादेतर जब निराला ने “परिमल” की संपादकीय के माध्यम से ‘नव गति नव लय, ताल छंद नव’ का विन्यास देते हुए कविता की मुक्ति की घोषणा की, तब उनका आशय छंद से मुक्ति का कदापि नहीं था, बल्कि उन्होंने पथराई जमीन को तोड़कर उसकी मिट्टी पलटाने की कोशिश की थी, उसके सीलने, सौंधेपन, पपडाने, जैसे गुणों को वापिस लाने की कोशिश की थी, वे तो बंजर जमीन को उर्बरा बनाने में विश्वास रखते रहे, वे गीत में नव्यता लाने के पक्षधर रहे उनकी अपील का कुछ साहित्यकारों ने अलग ही मतलब निकाला और “नई-कविता” की संज्ञा के साथ साहित्यिक-खेमेवादी शुरू हो गई। एक समय तो ऐसा भी आया जब गीत को साहित्य के हाशिये पर डाल दिया गया। गीत की आत्मा को अमरत्व होने के कारण वह मरा नहीं, वरन योगस्थ होकर उसने नई ऊर्जा, नई जमीन, नए भाव, नए छंदों के साथ कायाकल्प किया, ‘नव’ विरुद धारण कर अपने समय से मुठभेड़ की, युग-सत्य से साक्षात्कार किया और ‘नवगीत’ के रूप में ढालकर जनता-जनार्दन की आवाज बनकर खुद को सार्थक किया। इस संघर्ष-यात्रा में जिन गीतकारों ने नवगीत की धर्म-ध्वजा को थामा या आज भी थामे हुए हैं, उनमें आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ का नाम सम्मान से लिया जाता है।

सलिल जी का व्यक्तित्व - 

                       माँ भारती के वरद-पुत्र सलिल को अथाह ज्ञान का भंडार मानो विरासत में मिला। स्वयं आचार्य अपनी बुआ महीयसी महादेवी वर्मा और माँ कवयित्री शांति देवी को प्रेरणा स्त्रोत मानते हैं जिनसे सलिल जी के साहित्य-संस्कारों के बीज अंकुरित, प्रस्फुटित और पल्लवित हुए हैं। इंजीनियर के अभिजात्य पेशे के उच्चाधिकारी पद पर रह चुके सलिल जी ने अभियंत्रण की यंत्रणा को झेलते हुए जीवन और जगत के समस्त हर्ष-विषाद, शीत-ताप, उतार-चढ़ाव एवं खट्टे-मीठे अनुभव अपने-पराए से पाए, देखे-सीखे, तब जाकर लिखे हैं। यही कारण है कि उनके भीतर के भाव में प्रसूत-प्रभावक क्षमता है। साहित्यकार सलिल; किसी वाद-विशेष के समर्थक नहीं हैं, न ही किसी मठ, शिविर, खेमे, टोली आदि की सदस्यता एवं मानसिकता कभी स्वीकार की। कबीर की भांति लुकाटी हाथ में लेकर वे गीत की अलख जगाने निकल पड़े, यायावरी यातनाओं को अनदेखा किया, लोक को गले लगाया, दरिद्र नारायण की सेवा की, गीतों में व्याप्त कलात्मकता व भावात्मकता में नवता के स्वरूप के दर्शन किये। क्योंकि उन्हें विश्वास रहा कि एक-न-एक दिन उनकी मौलिकता का मूल्यांकन होगा और उनकी सर्जना को स्वीकृति देनेवाले आगे आएंगे।

सलिल का कृतित्व- 

                       कवि संजीव 'सलिल' का व्यक्तित्व जितना सहज-सरल है, उनका कृतित्व उतना ही विरल और विराट है। “सजीवति गुणस्य कीर्तिर्यस्य सजीवति” को चरितार्थ कर रहा है। उन्हें किसी पहचान की जरूरत नहीं, अपनी पहचान वे स्वयं बन चुके हैं, बना चुके हैं। इन्स्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स, जबलपुर चेप्टर के अध्यक्ष इंजी तरुण आनंद ने सलिल जी को अपना ‘यांत्रिक-मित्र’ कहा है, मैं किञ्चित संशोधन के साथ उन्हें ‘यांत्रिक-कविमित्र’ संबोधित कर रहा हूँ। सच भी है, पथ और भवन का शिल्पी सलिल बाह्य-जगत में यांत्रिक ही रहा है, हमेशा भागता-दौड़ता, अपनी उधेड़ बुन में, जीविका कमाने के लिए, गाँव-गाँव, शहर- शहर- परंतु जब भी मुनासिब वक्त (अनुकूल समय) मिला, उसके भीतर के मनु ने अपनी वाणी को साँसे देकर, सरगम देकर गीत लिखे, नवगीत लिखे। शायद- ही, हिन्दी-साहित्य की कोई विधा होगी जो सलिल से अछूती रही हो- व्याकरण, पिंगल, भाषा, गद्य-पद्य की सभी विधाएं, समीक्षा, तकनीकी-लेखन, शोध-लेख, संस्मरण, यात्रा-वृत्त, साक्षात्कार, इत्यादि, इत्यादि। परंतु कविता (स्फुट-लेखन) उनकी पहली पसंद रही, वे भी गीत, नवगीत ही, वे भी परंपरागत या गैर-परंपरागत छंदों में।

सलिल जी का बहुविधायी रचना फलक - 

                       अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट, एल एल बी अभियंता संजीव 'सलिल' की प्रथम प्रकाशित कृति ‘कलम के देव’ भक्ति गीत संग्रह है। ‘लोकतंत्र का मकबरा’ और ‘मीत मेरे’ उनकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है, ‘भूकंप के साथ जीना सीखें’। ‘कुरुक्षेत्र गाथा’ उनकी छंद बद्ध प्रबंध कृति है। दो प्रकाशित-पुरुष्कृत नवगीत संग्रह है, ‘काल है संक्रांति का`’ तथा ‘सड़क पर’। सलिल जी की अन्य कृतियाँ  है -  ओ मेरी तुम शृंगार गीत संग्रह जिसमे सम्मिलित अभी गीत उन्होंने अपनी धरंधर्मपत्नी प्रो. डॉ. साधना  वर्मा के लिए दाम्पत्य जीवन काल में समय-समय पर लिखे हैं। आदमी जिंदा  है सलिल जी की १०१ लघुकथाओं का संकलन है। सलिल जी ने मध्य प्रदेश की लोक कथाएँ तथा मध्य प्रदेश की बुन्देली लोककथाएँ शीर्षक दो पुस्तकों का प्रणयन किया है। ‘निर्माण के नूपुर’, ‘नींव के पत्थर’, ‘यदा-कदा’, ‘द्वार खडा इतिहास के’, ‘कालजयी साहित्य-शिल्पी भागवत प्रसाद मिश्र नियाज’ के साथ-साथ अनेक पत्रिकाओं और स्मारिकाओं का सम्पादन किया। 

तकनीकी लेखन-

                       तकनीकी लेखन में, वह भी हिन्दी में, सलिल राष्ट्रीय-स्तर का ‘सेकंड बेस्ट पेपर एवार्ड’ प्राप्त कर चुके हैं। सलिल जी वास्तु शास्त्र  के भी अधिकारी विद्वान हैं। इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर के अध्यक्ष के नाते सलिल जी ने हिन्दी में तकनीकी साहित्य लेखन की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया है। विविध अभियंता संघों के माध्यम से ५ दशक तक संघर्ष का प्रतिफल मध्य प्रदेश में पहले डिप्लोमा और अब बी.टेक. तथा एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई हिन्दी में भी उपलब्ध  होने के रूप में सामने आया है। सलिल जी समाज सुधार (बाल शिक्षा, महिला शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, पौधरोपन, कचरे का पुनरप्रयोग आदि) के अनेक जमीनी कार्यों में संलग्न रहे हैं। उनके कई नवगीत इन कार्यों को करते हुए तथा अभियांत्रिकी संरचनाओं का काम करते हुए ही रचे गए हैं।  

                       सलिल जी ने हिन्दी कविता के हर रंग, हर रूप को जी-भर कर गाया है और औरों-को भी उत्प्रेरित किया है कि ‘गाओ, अपने मन से, अपनी भरपूर ऊर्जा से, बिना किसी दबाब के, बिना किसी भ्रम के’। वे एक गंभीर साहित्यिक अध्येता तो हैं ही, एक अध्यापक के तौर परबगैर नागा, अनुज-रचनाकारों को नव गीत के गुर सिखा रहे हैं, काव्य-बारीकियों से परिचय कर रहे हैं, उनके मन-मानस में उठ रहीं शंकाओं—आशंकाओं का त्वरित निदान कर रहे हैं। बिना किसी गुरु-दक्षिणा की चाह में, बिना किसी मान-सम्मान की कामना से। हमारे शहर में कई-एक प्रतिष्ठित गीतकार/ नव गीतकार / लघुकथाकार हैं जो अटकने पर सलिल का दरवाजा खटखटाते हैं, अपने उलझे पेंचों का सहज समाधान पाकर वे कृतज्ञ उनकी ढ़योडी पर माथा टेककर दबे पाँव निकल जातेहैं। हाँ, उनमें से कुछ ऐसे भी होते हैं जो सार्वजनिक रूप से सलिल का लोहा मानते हैं।

                       सलिल जी ने लगभग ८५ पुस्तकों की भूमिका लिखी हैं जिनमें से कई नवगीत-संग्रह भी हैं। कुछ नवगीत संग्रह हैं- जब से मन की नाव चली : (2016)-डॉ गोपाल कृष्ण भट्ट “आकुल”, ओझल रहे उजाले : (2018)-विजय बाग़री, फुसफुसाते हुए वृक्ष : (2018)- हरिहर झा, भीड़ का हिस्सा नहीं : (2019)-शशि पुरवार, तबाही : (2020)- सुनीता सिंह, बुधिया लेता टोह : (2020) -बसंत शर्मा आदि की सारगर्भित भूमिकाएँ लिखकर नवगीत क्षेत्र में अपने आचार्यत्व का निर्वहन किया है।

                       उन्होंने अब तक देश के विभिन्न अंचलों के लब्ध-प्रतिष्ठ नवगीतकारों के शताधिक नवगीत संग्रहों की समीक्षाएं लिखीं हैं जिनमे कुमार रवींद्र, अशोक गीते, निर्मल शुक्ल, मधुकर अष्ठाना, डॉ राम सनेही लाल शर्मा “यायावर”, राधेश्याम बंधु, आचार्य भगवत दुबे, गिरी मोहन गुरु, पूर्णिमा वर्मन, राम सेंगर, जयप्रकाश श्रीवास्तव, कल्पना रामानी, कृष्ण शलभ, योगेश वर्मा “व्योम”, योगेंद्र प्रताप सिंह मौर्य, अविनाश व्योहार, मालिनी गौतम, राम किशोर दहिया। अवनीश त्रिपाठी, आनंद तिवारी, जय चक्रवर्ती, देवकी नंदन “शांत” के नव गीत संग्रह शामिल हैं। साथ ही इनमें नव गीत: नव संदर्भ (डॉ राम सनेही लाल शर्मा यायावर), नवगीत के नए प्रतिमान ( राधे श्याम बंधु) तथा [नव गीत] समीक्षा के नए सोपान (डॉ पशुपति नाथ उपाध्याय) जैसे नव गीत संदर्भ-ग्रंथों की वृहद समीक्षाएं भी सम्मिलित हैं। नवगीत को लेकर आयोजित स्थानीय नवगीत- संगोष्ठियों (अभियान और अभियान के अलावा) में सलिल की भूमिका अहम रहती है, वहीं देश के विभिन्न शहरों में सम्पन्न नवगीत के आयोजनों विशेषकर लखनऊ, श्रीनाथद्वारा, दिल्ली, जोधपुर, कलकत्ता में सलिल की उपस्थिति ने नवगीत को श्रेष्ठता की ऊंची पायदानों पर पहुंचाया है।

सलिल की आभासी दुनिया में सक्रियता - 

                       इंटरनेट पर नव गीतों को लेकर सलिल जी की नियमित उपस्थिति अपने आप में उपलब्धि है। 1994 से फेसबुक और अंतर्जाल पर दिव्य-नर्मदा (ब्लाग/चिठ्ठा) और अन्य वेब स्थलों पर सलिल के 4000 से ऊपर नव गीत हैं, जो कथ्य, भाव बोध, हार्दिक संवेदना और तद्रूप अभिव्यक्ति में सौंदर्यमूलक तादात्म्य स्थापित करते हैं। गैर-जरूरी है कि वे सभी गीत नवगीत हों, परंतु जो नवगीत हैं वे तो गीत हैं ही। यदि गूगल पर ‘सलिल के नवगीत’ खोजें तो एक के बाद एक अनेकों साइट खुल जातीं हैं। अंतर्जाल पर सलिल के ढेरों मित्र और प्रशंसक हैं, वहीं छंद और भाषा शिक्षण की उनकी ऑनलाइन पाठशाला/ कार्यशाला में कई उदीयमान नवगीत सर्जकों ने अपनी जमीन तलाशी है। सलिल, सोशल-मीडिया के फेस बुक पर बहुचर्चित, बहुपठित, बहुप्रशंसित नवगीतकार हैं। 'आभासी दुनिया के नवगीत' (संपादक डॉ. रंसनेही लाल शर्मा यायावर-डॉ. पार्वती गोसाई) में सलिल जी आभासी दुनिया में अवदान का उल्लेख किया गया है।  

सलिल जी की दृष्टि में नवगीत- 

                       सलिल जी कहते हैं कि नवगीत गीत का वंशज है, जो अपनी शैली आप रचकर काव्य को उद्भाषित करता है। डॉ नामवरसिंह के अनुसार “नवगीत अपने ‘नए रूप’ और नयी वस्तु’ के कारण प्रासंगिक हो सका है”। क्या है नवगीत का ‘नया रूप’ एवं ‘नयी वस्तु’? बकौल सलिल जी- 

नव्यता संप्रेषणों में जान भरती,
गेयता संवेदनों का गान करती।
कथ्य होता, तथ्य का आधार खांटा,
सधी गति-यति अन्तरों का मान करती।
अन्तरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता,
मिलन की मधु बंसरी, है चाह सजनी।
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती,
मर्म बेधकता न हो तो रार ठनती।
लाक्षणिकता भाव, रस, रूपक सलोने
बिम्ब तटकापन मिलें बारात सजती।
नाचता नवगीत के संग लोक का मन,
ताल-लय बिन, बेतुकी क्यों रहे कथनी?
छंद से अनुबंध दिखता या न दिखता
किन्तु बन आरोह या अवरोह पलता।

(“काल है संकान्ति का” नवगीत संग्रह में सलिल का कथन)


                       इतर इससे, अपने दूसरे नवगीत संग्रह “सड़क पर” में ‘अपनी बात’ रखते हुए सलिल जी लिखते हैं कि,-“’नव’ संज्ञा नहीं ‘विशेषण’ के रूप में ग्राह्य है”। वहीं ट्रू-मीडिया पत्रिका में दी लंबे साक्षात्कार में  गीत और नवगीत का अंतर बताते हुए सलिल जी कहते है –“गीत के वृक्ष की एक शाखा पर खिला पुष्प नवगीत है”। अन्यत्र सलिल जी ने गीत को व्यक्तिवादी और नवगीत को समृष्टिवादी बतलाया है। साथ ही; बहुत दृढ़ता से गाया कि ‘गीत और नवगीत, नहीं हैं भारत पाकिस्तान’,—

काव्य वृक्ष की
गीति शाख पर
खिला पुहुप नवगीत।

कुछ नवीनता
कुछ परंपरा
विहंस रचे नवरीत।

जो जैसा है
वह वैसा ही
कहे झूठ को जीत।

कथन-कहन का दे तराश जब
झूम उठे इंसान।

गीत और नवगीत मानिए
भारत हिंदुस्तान। ( अंतर्जाल पर)

सलिल के नवगीतों के विषय- 

                       नव गीतकार सलिल का प्रथम नव गीत-संग्रह ‘संक्रांति काल’ पर केंद्रित रहा, जिसमें सूर्य के विभिन्न रूप, विभिन्न स्थितियाँ और विभिन्न भूमिकाओं को स्थान मिला, वह चाहे बबुआ सूरज हो या जेठ की दुपहरी में पसीना बहाता मेहनतकश सूर्य हो या शाम को घर लौटता, थका, अलसाया या काँखता-खाँसता सूरज--- उसकी तपिश, उसका तेज, उसका औदार्य, उसका अवदान, उसकी उपयोगिता सभी वर्ण्य विषय थे। सूर्य (अग्नि) , जो पंच- तत्वों में से है, ऊर्जा और ऊष्मा का प्रतीक है, वह मेहनतकश मजदूर का प्रतिनिधित्व करता है, जो प्रतिदिन नियत समय नियत दायित्वों का निर्वहन करता है। श्रम, श्रम-स्वेद, श्रम-मूल्य, संवेदना की गहनता, सघनता, सांद्रता ऐसे अवदात् गीतों की सर्जना में सहयोगी भाव रखते हैं।

                       नि:संदेह, सलिल के प्रतिनिधि नवगीतों के केंद्र में वह आदमी है, जो श्रमजीवी है, जो खेतों से लेकर फेक्टरियों तक खून पसीना बहाता हुआ मेहनत करता है फिर भी उसकी अंतहीन जिंदगी समस्याओं से घिरी हुई है, उसे दाने-दाने के लिए जूझना पड़ता है। ‘मिली दिहाड़ी’ नव गीत में कवि ने अपनी कलम से एक ऐसा ही चित्र उकेरा है-

चाँवल-दाल किलो भर ले-ले
दस रुपये की भाजी।
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया–मिर्ची ताजी।

तेल पाव भर फल्ली का
सिंदूर एक पुड़िया दे-
दे अमरूद पाँच का, बेटी की
न सहूँ नाराजी।

खाली जेब पसीना चूता
अब मत रुक रे!

मन बेजार। (काल है संक्रांति का/81)

                       कुछ और-प्रसंग जो निर्माण (सड़क, भवन इत्यादि) से जुड़े कुशल, अर्ध कुशल और अकुशल मजदूरों के सपनों को स्वर देते हैं, उनकी व्यथा-कथा बखानते हैं, उन्हें ढाढ़स बँधाते हैं, उनके जख्मों पर मलहम लगाते हैं, उनके श्रम-स्वेद का मूल्यांकन करते हैं, उन्हें संघर्ष करने तथा विकास का आधार बनने का वास्ता देते हैं। इन नवगीतों में गाँव और कस्बों से प्रतिभा-पलायन एवं प्रतिलोम-प्रवास (मजदूरों की घर-वापसी) का मुद्दा भी प्रतिध्वनित होता है,

एक महल/ सौ कुटी-टपरिया कौन बनाए?
ऊँच-नीच यह/ कहो कौन खपाए?
मेहनत भूखी/ चमड़ी सूखी आँखें चमके/
कहाँ जाएगी/ मंजिल/ सपने हो न पराए/
बहका-बहका/
संभल गया पग/ बढा रहा पर/ ठिठका- ठिठका।(सड़क पर/42)

नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी/ पगडंडी पर संभल-संभल/
चलना रपट न जाना/ मिल-जुल/
पार करो पथ की फिसलन। लड़ी-झुकी उठ-मिल चुप बोली
नजर नजर से मिली भली। (सड़क पर/26)

                       वैशाख-जेठ की तपिश के बाद वर्षाकाल आता है। वर्षा आगमन की सूचना के साथ ही गीतकार की बाँछें खिल जातीं हैं, उसका मन मयूर नाचने लगता है और यहाँ से शुरू होता है सलिल का दूसरा नवगीत संग्रह ‘सड़क से’। इसके वर्षा गीत कभी जन वादी तेवर दिखलाते हैं तो कभी लोक-रंग का इन्द्र-धनुष तानते हैं। काले मेघों का गंभीर घोष, उनका झरझरा कर बरसना, बेडनी सा नृत्य करती बिजली, कभी संगीतकार कभी उद्यमी की भूमिका में दादुर, चाँदी से चमकते झरने, कल-कल बहती नदियां, उनका मरजाद तोड़ना, मुरझाए पत्तों को नव जीवन पा जाना और इन सबसे पृथक वर्षागमन से गरीब की जिंदगी मे आई उथल-पुथल ---सभी उनके केनवास पर उकेरे सजीव चित्र हैं।

नभ ठाकुर की ड्योढ़ी पर/
फिर मेघ बजे/
ठुमक बिजुरिया /
नचे बेड़नी बिना लजे।
टप-टप टपके तीन
चू गयी है बाखर
डूबी शाला हाय!
पढ़ाये को आखर?
डूबी गैल, बके गाली
डुकरो काँपें, ‘सलिल’
जोड़ कर राम भजे। (सड़क पर/27)

मिथकीय संदर्भ – 

                       नवगीतकर सलिल जी ने रामायण और महाभारत कालीन मिथकों यथा: कैकेयी, शंबूक, जटायु, हनुमान, कर्ण, भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, एकलव्य का प्रचुर प्रयोग किया है। एक-एक मिथक को कई-कई अर्थों में लिया है। जैसे, शिव को श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक के साथ-साथ शंकारि यानि शंकाओं का शत्रु माना है। आंचलिक मिथकों को प्रमुखता दी है; विंध्याचल, सतपुड़ा, मेकल, नर्मदा, जोहिला, शोण, अगस्त्य, बड़ादेव आदि। चित्रगुप्त का (चित्र उसका गुप्त, अक्षर ब्रह्म है वह) निराकार रूप तथा ‘पथवारी मैया’ ( दैवीय स्वरूप) नवीन सृजित मिथक है।

विध्याचल की/छाती पर हैं/ जाने कितने घाव
जंगल कटे/ परिंदे गायब/ छुप न पाती छाँव।
ऋषि अगस्त्य की करी वन्दना/ भोला छला गया/
‘आऊँ न जब तक झुके रहो’ कह/चतुरा चला गया।
समुद सुखाकर असुर संहारे/ किन्तु न लौटे आप
वचन निभाता/ विंध्य आज तक/ हारा जीवन दाँव।

शोण-जोहिला दुरभिसंधि कर/ मेकल को ठगते।
रूठी नेह नर्मदा कूदी/ पर्वत से झट से।
जन कल्याण करें युग-युग से/
जग वंदया रेवा/सुर नर देव दनुज/
तट पर आ/ बसे बसाकर गाँव। (अंतर्जाल पर)

अब नहीं है वह समय जब/मधुर फल तुममें दिखा था
फांद अम्बर पकड़ तुमको/लपक कर मुंह में रखा था
छा गया दस दिश तिमिर तब/ चक्र जीवन का रुका था
देख आता वज्र, बालक/ विहंसकर नीचे झुका था
हनु हुआ घायल मगर/ वरदान तुमने दिए सूरज !

(काल है संक्रांति का/37)

बिम्ब विधान- 

                       गीत में बिम्ब धर्मी भाषा उसे अधिक संप्रेषणीय बनाती है। बिम्ब विधान किसी परंपरा का अनुगामी नहीं होता । सलिल जी ने गीतों में ऐंद्रिय बिम्ब- गंध, रूप, रस, स्पर्श, ध्वनि के साथ संश्लिष्ट बिम्ब और गतिशील बिंबों का बड़ा सार्थक प्रयोग किया है। जो कुछ जिंदगी में है, जिंदगी का परिवेश है, हमारे आसपास है, मध्य वर्गीय शहरी घुटन, निरीहता, असहायता, बिखराव, विघटन, संत्रास, सड़क पर जी रहे निम्न वर्गीय तबके (दबे-कुचले, पीड़ित—वंचितों, मजबूर-मजदूरों) के दुःख-दर्द, बेकारी, भूख, उत्पीड़न सब इनके नवगीतों में है। एक चित्रमय बिम्ब का विधान देखिए-

गोदी चढ़ा, उँगलिया थामी। दौड़ा, गिरा, उठाया तत्क्षण।

                       नवगीतकार सलिल जी ने नवगीतों में विशेषकर मूर्त-बिम्बों को प्रयोग किया है,

जो आदमी के न केवल करीब हैं, बल्कि उनके बीच के हैं।

मेहनतकश के हाथ हमेशा/रहते हैं क्यों खाली खाली/
मोटी तोंदों के महलों में/क्यों बसंत लाता खुशहाली/
ऊंची कुर्सी वाले पाते/अपने मुंह में/सदा बताशा।(सड़क पर/39)

                       देशज संस्कार, विशेषकर जन्म, अन्नप्राशन और विवाह में ‘बताशा’ प्रचलित मिष्ठान है, इसकी विशेषता है कि वह मुंह में रखते ही घुल जाता है परंतु उसका स्वाद लंबे समय तक रहता है। सलिल के बिम्ब नितांत मौलिक, नवीन और टटके हैं,-

खों-खों करते/ बादल बब्बा
तापें सूरज सिगड़ी।
आसमान का आँगन चौड़ा
चंदा नापे दौड़ा-दौड़ा।
ऊधम करते नटखट तारे
बदरी दादी रुको पुकारें।
पछुआ अम्मा
बड़-बड़ करती
डाँट लगाती तगड़ी।(काल है संक्रांति का/103)

                       इसे नवगीतकार की सर्जन-प्रक्रिया कहें या उसके सर्जनात्मक अवदान की सम्यक-समझ अथवा उसका व्यंजनात्मक-कौशल, जिसने जड़ में भी चेतना का संचार किया। ‘ऊंघ रहा है सतपुड़ा/लपेटे मटमैली खादी’ (सड़क पर /63) में सतपुड़ा का नींद में ऊंघना या झोंके लेना उसका मानवीकरण (मानव-चेतना) है। वहीं ‘लड़ रहे हैं फावड़े गेंतियां’ (सड़क पर/78) में श्रमजीवियों की संघर्ष-चेतना दृष्टव्य है। ‘सूर्य अंगारों की सिगड़ी’ दृश्य चेतना, ‘इमली कभी चटाई चाटी’ में स्वाद-चेतनाको बिम्बित किया है।

प्रतीक योजना- 

                       सलिल जी ने नवगीतों में अभिनव और अर्थ को चमत्कारिक भंगिमा देने के लिए प्रतीकों का प्रयोग किया है। कुछ प्रकृति से उठाए हैं, कुछ मानवीय संवेदनाएं प्रतीक बनी हैं और कुछ आधुनिक जीवन को विसंगत करनेवाले तत्व प्रतीक बनकर उभरे हैं। नदी, किनारा, भँवर, सूरज, चंद्रमा, चाँदनी, लहरें, सागर, नौका, पतझड़, पनघट, अमराई, बसंत, टपरिया, दादुर, मोर, कोयल इत्यादि प्रकृति और जीवन के तत्व, सत्ता, सियासत, दहलीज, चौपाल, कारखाना, राजमार्ग, सड़क, पगडंडी, कुर्सी दलाल इत्यादि भावनात्मक तत्व तथा सिरफिरा मौसम, राजा, बजीर, प्यादा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दिशाहीन मोड जैसी जीवन की विसंगतियाँ को प्रतीक के रूप में नवगीतों में स्थान दिया है। सलिल जी सिर्फ विसंगति को नहीं उकेरते वरन उनके मध्य जीवन का राग तलाशते हैं, शाश्वत सत्य पर उनकी दृष्टि है। विसंगति को संगति में बदलना
उनका ध्येय है।

भाषायी सामर्थ्य- 

                       सलिल जी कहते हैं,

हिन्दी आटा माढ़िए, उर्दू मोयन डाल।
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल।।

                       वैसे सलिल जी ने हिन्दी के अलावा बुन्देली, पचेली, भोजपुरी, ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, छतीसगढ़ी, मालवी, हरियाणवी और अंग्रेजी में भी कार्य किया है। सलिल जी ने बुन्देली का पुट देते नरेंद्र छंद [ईसुरी की चौकड़िया फागों पर आधारित] में नवगीत की सर्जना कर उसके माध्यम से समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं और अन्याय का व्यंग्यात्मक शैली में उजागर किया है-

मिलती काय नें ऊंचीवारी
कुर्सी हमखों गुईंयाँ !
पेलां लेऊँ कमीसन भारी
बेंच खदानें सारी।
पाछूँ घपले-घोटाले सौ
रकम बिदेस भिजा री।
अपनी दस पीढ़ी खेँ लाने
हमें जोड़ रख जानें।
बना लई सोने की लंका
ठेंगे पे राम-रमैया। - (काल है संक्रांति का/51)

                       कथ्य की स्पष्टता के लिए सहज, सरल और सरस हिन्दी का प्रयोग किया है। संस्कृत के सहज व्यवहृत तत्सम शब्दों यथा, पंचतत्व, खग्रास, कर्मफल, अभियंता, कारा, निबंधन, श्रमसीकर, वरेण्य, तुहिन, संघर्षण का प्रशस्त प्रयोग किया है। कुछ देशज शब्द जो हमारे दैनिक व्यवहार में घुल-मिल गए हैं जैसे कि- उजियारा, कलेवा, गुजरिया, गेल, गुड़ की डली, झिरिया, हरीरा, हरजाई आदि से कवि ने हिन्दी भाषा का श्रंगार किया और उसे समृद्धि प्रदान की है। अंग्रेजी तथा अरबी-फारसी के प्रचलित विदेशज शब्दों का भी अपने नव गीतों में बखूबी प्रयोग किया है जैसे- डायवर, ब्रेड-बटर-बिस्किट, राइम, मोबाइल, हाय, हेलो, हग (चूमना) और पब (शराबखाना) तथा आदम जात अय्याशी, ईमान, औकात, किस्मत, जिंदगी, गुनहगार, बगावत, सियासत और मुनाफाखोर। भाषिक-सामर्थ्य के साथ गीतकार ने मुहावरों-कहावतों-लोकोक्तियों का यथारूप या नए परिधान में पिरोकर प्रयुक्त किया है जैसे, लातों को जो भूत बात की भाषा कैसे जाने, ढाई आखर की सरगम सुन, मुंह में राम बगल में छुरी, सीतता रसोई में शक्कर संग नोन, मां की सौं, कम लिखता हूं बहुत समझना, कंकर से शंकर बन जाओ, चित्रगुप्त की कर्म तुला है(नया मुहावरे), जिनकी अर्थपूर्ण उक्तियाँ पढ़ने-सुनने वालों के कानों में रस घोलती हैं। सड़क के पर्याय वाची शब्दों के प्रयोग में सलिल जी का अभियांत्रिकीय-कौशल सुस्पष्ट दिखाई देता है।

                       नवगीतों में गीतकार ने अपने उपनाम (सलिल) का शब्दकोषीय अर्थ में उम्दा-उपयोग किया है। सलिल जी ने प्रभावी सम्प्रेषण के लिए कबीर जैसी उलट बाँसियों का प्रयोग किया है,

सागर उथला/ पर्वत गहरा
डाकू तो ईमानदार/ पर पाया चोर सिपाही
सौ अयोग्य पाये, तो/ दस ने पायी वाहवाही
नाली का पानी बहता है/ नदिया का जल ठहरा - (सड़क पर/54)

                       सलिल जी गणित एवं विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं अत: उनके नवगीतों की भाषा में प्रमेय तथा गणित के शब्दों/सूत्रों की उपस्थिति कोई आश्चर्य नहीं है। उनमें निर्माण और न्याय से जुड़ी शब्दावलियां भी यदा-कदा देखने को मिल जाती है-

प्यार बिका है
बीच बजार
परिधि केंद्र को घेरे मौन
चाप कर्ण को जोड़े कौन?
तिर्यक रेखा तन-मन को
बेध रही या बाँट रही?
हर रेखा में बिन्दु हजार
त्रिभुज-त्रिकोण न टकराते
संग-साथ रह बच जाते
एक दूसरे से सहयोग
करें, न हो, संयोग-वियोग
टिके वही
जिसका आधार   - (अंतर्जाल पर)

छंद विधान- 

                       छंद, सलिल जी की संस्कारगत उपलब्धि है। उन्हें काव्य शास्त्र की उपयोगिता का रहस्य ज्ञात है। वे गत तीन दशकों से हिन्दी के प्रचलित-अल्प प्रचलित छंदों को खोजकर एकत्रित कर रहे हैं और आधुनिक काल के अनुरूप परिनिष्ठित हिन्दी में उनके आदर्श प्रयोग प्रस्तुत कर रहे हैं। शीघ्र ही उनका छंद-शास्त्र प्रकाश में आने वाला है। स्वाभाविक है, अपने नवगीतों में उन्होंने दोहा, जनक, सरसी, भुजंगप्रयात, पीयूषवर्ष, सोरठा, सवैया, हरिगीतिका, वीर- छंद, लोहिड़ी, चौकड़िया-फाग आदि छंदों को स्थान देकर गीतों की गेयता सुनिश्चित कर ली है, जिसमें लय, गति, यति भी स्थापित हो गई है। उदाहरण के लिए यह त्रिपदिक जनक छंद,-

नीर नर्मदा तीर पर,
अवगाहन कर धीर धर
पल-पल उठ गिरती लहर

कौन उदासी- विरागी
विकल किनारे पर खड़ा?
किसका पथ चुप जोहता?(सड़क पर/79)

                       पंजाब में लोहिड़ी पर्व पर राय अब्दुल्ला खान भट्टी उर्फ दुल्ला भट्टी को याद कर गाए जाने वाले लोकगीत की तर्ज पर “सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!” का अभिनव प्रयोग नव गीत में किया गया है,-

सुन्दरिये मुन्दरिये, होय!
सब मिल कविता करिए, होय।
कौन किसी का प्यार, होय।
स्वार्थ सभी का प्यार, होय।।
जनता का रखवाला, होय।
नेता तभी दुलारा, होय।। (काल है संक्रांति का/49)

                       और, आल्हा छंद, वीर रस और बुन्देली में रचे इस नवगीत के क्या कहने?-

भारत वारे बड़े लड़ैया
बिनसें हारे
पाक सियार।

एक सिंग खों घेर भलई लें
सौ वानर-सियार हुसियार।
गधा ओढ़ ले खाल सेर की
देख सेर पोंकें हर बार।
ढेंचू- ढेंचू रेंक भाग रओ
करो सेर नें पल मा वार।
पोल खुल गयी,
हवा निकर गई
जान बखस दो
करे पुकार।(काल है संक्रांति का/67)

                       छंद-शास्त्री सलिल जी ने नवगीतों में जहां विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है, वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के लिए उनका स्पष्ट उल्लेख और छंद विधान भी रचना के अंत में दिया है।

अलंकार-

                       जहां तक भाषा में अलंकारिकता का प्रश्न है, सलिल जी ने कहीं भी अलंकारों का सायास प्रयोग नहीं किया। अभिव्यक्ति की सहज भंगिमा से जो अलंकार बने हैं, उन्हें आने दिया है। उनके गीतों में शब्दालंकारों (अनुप्रास, यमक) और अर्थालंकारों (उपमा, रुपक, उत्प्रेक्षा, विरोधाभास, अन्योक्ति) का सुंदर प्रयोग है।

अनुप्रास-

1-मेघ बजे, मेघ बजे, मेघ बजे रे
धरती की आँखों में स्वप्न सजे रे।

2- अनहद अक्षय अजर अमर है
अमित अभय अविजित अविनाशी।

यमक-

‘हलधर हल धर शहर न जाएं’

उपमा-

1-ऊंघ रहा सतपुड़ा, लपेटे मटमैली खादी।

2-प्रथा की चूनर न भाती

3-उनके पद सरोज में अर्पित / कुमुद कमल सम आखर मनका।

रुपक-

नेता अफसर दुर्योधन, जज वकील धृतराष्ट्र

श्लेष –

पूंछ दबा शासक व्यालों की/ पोंछ पसीना बहाल का।

विरोधाभास-

आंखे रहते सूर हो गए

जब हम खुद से दूर हो गए

खुद से खुद की भेंट हुई तो

जग जीवन से दूर हो गए.

अन्योक्ति-

कहा किसी ने,- नहीं लौटता/पुन: नदी में बहता पानी/

पर नाविक आता है तट पर/बार-बार ले नई कहानी/

दिल में अगर/ हौसला हो तो/फिर पहले सी बातें होंगी।

हर युग में दादी होती है/होते है पोती और पोते/

समय देखता लाड़-प्यार के/ रिश्तों में दुःख पीड़ा खोते/

नयी कहानी/ नयी रवानी/सुखमय सारी बातें होंगी।

                       इसके अलावा, पुनरोक्ति-प्रकाश अलंकार के अंतर्गत पूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- टप-टप, श्वास-श्वास, खों-खों, झूम- झूम, लहका-लहका कण-कण, टपका-टपका तथा अपूर्ण-पुनरुक्त पदावली जैसे- छली-बली, छुई-मुई, भटकते-थकते, घमंडी- शिखंडी, तन-बदन, भाषा-भूषा शब्दों के प्रयोग से भाषा में विशेष लयात्मकताआभासित हुई है। वहीं पदमैत्री अलंकार के तहत कुछ सहयोगी शब्द जैसे- ढोल-मजीरा, मादल-टिमकी, आल्हा-कजरी, छाछ-महेरी, पायल-चूड़ी, कूचा-कुलिया तथा विरोधाभास अलंकार युक्त शब्द युग्म जैसे- धूप- छांव, सत्य-असत्य, क्रय-विक्रय, जीवन-मृत्यु, शुभ-अशुभ, त्याग-वरण का नवगीतों में प्रभावी-प्रयोग है।

रस-

                       नवगीत में व्यंग्य- वर्तमान की विद्रूपताओं, विषमताओं को देखकर कवि व्यथित है, स्वाभाविक है इन परिस्थितियों में उसकी लेखनी अमिधात्मकता से हटकर व्यंजनात्मकता और लाक्षिणकता का दामन थाम लेती है, जिसमें व्यवस्था के प्रति व्यंग्य भी होता है और विद्रोह भी-

जब भी मुड़कर पीछे देखा/ गलत मिल कर्मों का लेखा/
एक बार नहीं सौ बार अजाने/ लांघी थी निज किस्मत रेखा/
माया ममता/ मोह क्षोभ में/फंस पछताए जन्म गवाएं।(सड़क पर/64)
बिक रहा/ बेदाम ही इंसान है/कहो जनमत का यहाँ कुछ मोल है?
कर रहा है न्याय अंधा ले तराजू/व्यवस्था में हर कहीं बस झोल है/
सत्य जिह्वा पर/ असत का गान है।
मौन हो अर्थात सहमत बात से हो
मान लेता हूँ कि आदम जात से हो।( सड़क पर /65)

हम में से हर एक तीस मार खां
कोई नहीं किसी से कम।
हम आपस में उलझ-उलझ कर
दिखा रहे हैं अपनी दम।
देख छिपकली ड़र जाते पर
कहते डरा न सकता यम
आँख के अंधे, देख-न देखें
दरक रही है दीवारें।(काल है संक्रांति का/127)

भोर हुई, हाथों ने थामा
चैया प्याली, संग अख़बार
अँखिया खोज रहीं हो बेकल
समाचार क्या है सरकार?
आतंकी है सादर सिर पर
साधु संत सज्जन हैं भार
अनुबंधों के प्रबंधों से
संबंधों का बंटाढार। (अंतर्जाल पर)

                       राजनैतिक प्रदूषण पर कलम चलते हुए “लोक तंत्र का पंछी बेबस” शीर्षक नवगीत में वे लिखते है,

नेता पहले दाना डालें
फिर लेते पर नोंच
अफसर रिश्वत की गोली मारें
करें न किञ्चित सोच। (अंतर्जाल पर)

                       वहीं एक श्रंगारिक नवगीत में नेताओं और नव-धनाढ्यों पर ली गई व्यंजनात्मक चुटकी,

इस करवट में पड़े दिखाई
कमसिन बर्तन वाली
देह साँवरी नयन कटीले
अभी न हो पाई कुड़माई
मलते-मलते बर्तन खनके चूड़ी
जाने क्या गाती है?
मुझ जैसे लक्ष्मी पुत्रों को
बना भिखारी वह जाती है। (अंतर्जाल पर)

युगबोध एवं लोकचेतना –

                       जैसा कि- राम देव लाल विभोर लिखते हैं, “वास्तव में नवगीत गीत से इतर नहीं है, किन्तु अग्रसर अवश्य है। अत: गीत की अजस्त्र धारा व्यैक्तिकता व आध्यात्म वृति के तटबंध पारकर युगबोध का दामन पकड़ने लगती है”। सलिल ने दिशा बोध और युग बोध वाली जो जुझारू रचनाएं भी रचीं वे हर संघर्षशील, दुःखी, पीड़ित आम आदमी को अपनी से लगती हैं, जिन्हें पढ़ कर वह कह दे कि “अरे वाह ! कवि ने मेरे मन की बात कह दी।“ इसमें अत्युक्ति नहीं कि सलिल के गीत/नवगीत लोकप्रियता की कसौटी पर खरे तो हैं ही, उनमें अनुभूतियों की ऐसी प्रेरणा मिलती है जो हमें अनुप्राणित करती है और बार-बार पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। आदि से अंत तक जमीनी-हकीकत, मानवीय-सोच और सरोकारों, लोकाचारों की पार्थिव वास्तविकताओं से उनकी युग प्रतिबद्धता अपेक्षित रहती है।

                       एक बात और, नवगीतों ने गीत को परंपरावादी रोमानी वातावरण से निकालकर यथार्थ और लोक चेतना का आधार प्रदान करके उसका संरक्षण किया है। सलिल जी के नवगीतों में प्रकृति अपने सम्पूर्ण वैभव और सम्पन्न स्वरूप में मौजूद है। दक्षिणायन की हाड़ कँपाती हवाएं हैं तो खग्रास का सूर्यग्रहण है। सूर्योदय पर चिड़िया का झूमकर प्रभाती-गान है तो राई-नोन से नजर उतारती कोयलिया है,

उषा-किरण रतनार सोहती
वसुधा नभ का हृदय मोहती
कलरव करती चुन मुन चिड़िया
पुरवैया की बाट जोहती
गुनो सूर्य लाता है/ सेकर अच्छे दिन।
(काल है संक्रांति का/26)

                       ऐसे नवगीतों में संक्रांति-काल जनित अराजकताओं से सजग करते हुए उनकी चेतावनी और सावधानी से भरे संदेश अंतर्निहित हैं,-

सूरज को ढोते बादल
सीमा पर सैनिक घायल
नाग सांप फिर साथ हुए
गूंज रहे वंशी मादल
लूट छिपा माल दो
जगो उठो। (अंतर्जाल पर)

प्रकृति प्रेम एवं पर्यावरण- 

                       कवि आश्चर्य करता है कि, मानव तो निश-दिन (आठों- प्रहर) मनमानी करता है, अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने की नादानी करता है, यहाँ तक कि वह प्रकृति को भी ‘रुको’ कहने का दु:साहस करता है/ समर्थ सहस्त्रबाहू की तरह, विशाल विंध्याचल की तरह--दंभ से, अभिमान से, उसे रोकने का प्रयास करता है, कभी बाँध बनाकर नदी-प्रवाह को रोकने का प्रयास करता है तो कभी जंगलों कि अंधाधुंध कटाई कर, पहाड़ों को दरका कर/ धरती को विवस्त्र करने का प्रयत्न करता है-जिसका परिणाम होता है-

घट रहा भूजल / समुद्र तल बढ़ रहा
नियति का पारा निरंतर बढ़ रहा /
सौ सुनार की मनुज चलता चाक है/

दैव एक लुहार की अब जड़ रहा /
क्यों करे क्रंदन
कि निकली जान है?(सड़क पर/66)

नवगीत और देश-

                       भारत का संविधान देश के नागरिकों के लिए अधिकार देता है, परंतु यथार्थ इसके विपरीत है-

तंत्र घुमाता लाठियां, जन खाता है मार
उजियारे की हो रही, अंधकार से हार
सरहद पर बम फट रहे, सैनिक हैं निरुपाय
रण जीते तो सियासत, हारें भूल बताय
बाँट रहे हैं रेवड़ी/ अंधे तनिक न गम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?(अंतर्जाल पर)

                       लेकिन यहाँ नवगीतकार अपील करता है, यह न सोचें कि देश ने हमें क्या दिया बल्कि यह सोचें कि हम देश के लिए क्या कर रहे हैं।–

खेत गोड़कर/ करो बुवाई
ऊसर बंजर जमीन कड़ी है
मंहगाई की जाल बड़ी है
सच मुश्किल की आई घड़ी है
नहीं पीर की कोई जड़ी है
अब कोशिश की हो पहुनाई। - (अंतर्जाल पर )

                       आलस्य को त्यागकर कर्म में विश्वास रखता नवगीत, राष्ट्र-ऋण (देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण के अलावा) से उऋण होने का संदेश भी देता है- 

जाग जुलाहे भोर हो गयी
साँसों का चरखा तक धिन-धिन
आसों का धागा बन पल दिन
ताना बाना कथनी करनी
बना नमूना खाने गिन-गिन
ज्यों की त्यों उजली चादर ले
मन पतंग तन डोर हो गयी।
जाग जुलाहे भोर हो गयी।   -(अंतर्जाल पर)

                       वस्तुत: सलिल जी का चिंतन राष्ट्र देवता और विश्ववाणी हिन्दी के प्रति न केवल विनम्र प्रणति है, बल्कि प्रकृति के गहन कांतरों में कूटस्थ हो, अवभृथ स्नान पश्चात जीवन वीणा को ब्रह्म नाद से भर उसे “रसो वै स:” से सराबोर कर अपने आपको सर्वतोभावेन सच्चिदानन्द देवता के प्रति समर्पित करते हुए विश्व कल्याण के चिरंतन भारतीय संदेश को सार्थक करता है।

नवगीतीय नवाचार -

                       आचार्य संजीव सलिल जी ने अपने समकालिकों द्वारा अनदेखा किए जाने का खतरा उठाकर भी नवगीतीय नवाचार को सबसे पहले अपनाया। विश्ववाणी हिन्दी संस्थान अभियान जबलपुर की गोष्ठियों में सलिल जी आरंभ से साहित्यिक विधाओं विशेषकर नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य लेख और कहानी में विसंगति और विडंबवा प्रधान नकारात्मक लेखन को चुनौते देकर सकारात्मक लेखन को प्रतिष्ठित-प्रोत्साहित करते रहे हैं। यही कारण रहा है कि नवगीत कोशों में उन्हें वह स्थान नहीं दिया गया जिसके वे अधिकारी हैं किन्तु ऐसा कर नवगीत कोशकारों ने अपने कोश और अपनी निष्पक्षता को ही संदेह के घेरे में ला दिया है। डॉ. रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' प्रणीत नवगीत कोश में सलिल के व्यतित्व तथा कृतित्व को स्थान देकर पूर्व नवगीतकारों की त्रुटि का निराकरण किया गया है। सलिल जी के नवगीतीय नवाचार से प्रेरित हिकार सकारात्मक नवगीत लिखनेवाले दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं। नवगीतों में लोक में व्याप्त वाचिक छंदों का जितन व्यापक और मौलक प्रयोग सलिल जी ने किया है उसके विश्लेषण के लिए अलग से अध्ययन की आवश्यकता है। 
                       

और अंत में- 

                       एक साक्षात्कार में सुप्रसिद्ध नवगीतकार देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’ ने डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ’यायावर’ से कहा था कि,- “मूल्यांकन के मापदंड व्यक्ति और कृति के अनुसार बदलते रहते हैं। क्या शंभूनाथ सिंह, ठाकुर प्रसाद सिंह, देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, कुमार रवींद्र, रामसनेही लाल ‘यायावर’, वीरेंद्र ‘आस्तिक’ के व्यक्तित्व, सृजन या लोक दर्शन में कोई एकरूपता या समरूपता परिलक्षित होती है, यदि ऐसा नहीं है तो क्या उनके गीतों का मूल्यांकन किसी एक पैमाने से संभव होगा? मूल्यांकन के मापदंड व्यक्ति और कृति के अनुसार बदलते रहते हैं”(साहित्य-संस्कार-जुलाई-2020 में प्रकाशित)। स्वर्गीय इन्द्र जी की हाँ में हाँ मिलाते हुए हमने ‘सलिल’ को सलिल के निकष पर कसा जाना उचित और
न्यायसंगत माना। ‘सलिल’ के गीतों-नवगीतों की रचनाशीलता युग-बोध और काव्य-तत्वों के प्रतिमानों की कसौटी पर प्रासंगिक है। इनमें अपने आसपास घटित हो रहे अघट को उद्घाटित तो किया ही है, उनकी अभिव्यक्ति एक सजग अभियंता-कवि के रूप में प्रतिरोध करती दिखाई देती है। एक बात और, आज के अधिकांश नव गीतकार अध्ययन करने से कतराते हैं वे सिर्फ और सिर्फ अपना लिखा-पढ़ा ही श्रेष्ठ मानते हैं, लेकिन ‘सलिल’ इसके अपवाद हैं। उनकी भाषा और साहित्य में अच्छी पकड़ है। अध्यवसायी-आचार्य होते हुए भी वे अपने आपको एक विद्यार्थी के रूप में देखते हैं, यह उनकी विनम्रता है। हमें यह कहने में भी कतई संकोच नहीं कि आचार्य संजीव वर्मा सलिल आज-के नवगीतकारों से पृथक-परिवेश और साकारात्मक-सामाजिक बदलाव के पक्षधर नवगीतकार हैं। आज अवश्यकत इस बात की है कि सलिलजी के जीवन काल में ही उनके साहित्य विशेषकर नवगीतों पर विविध दृष्टियों से शोध कार्य संपन्न हों। सलिल जी  स्वस्थ रहें, साधनारत रहें, यही शुभेच्छा है!

कविता बने, साँसों की वायु ।
जियो सलिल! तुम बनो शतायु।।

---------------------------------------------------------------------------------------------

- सुरेन्द्र सिंह पँवार/ संपादक-साहित्य संस्कार/ 201, शास्त्री नगर, गढ़ा, जबलपुर (मध्य प्रदेश)

9300104296/7000388332/ email pawarss2506@gmail-com

सोमवार, 6 जुलाई 2020

चलता फिरता बृहद ज्ञान कोश आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'


चलता फिरता बृहद ज्ञान कोश आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
रमन, चेन्नई
मुझे भी लगभग डेढ वर्ष पूर्व आचार्य जी से उनके ही निवास पर मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। मैं भी उनके विषय में सहर्ष यही कहना चाहूँगा कि मैंने भी एक चलता फिरता बृहद ज्ञान कोश देखा है।

बुधवार, 31 जुलाई 2019

काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' - इंजी. संतोष कुमार माथुर




समीक्षा-
"काल है संक्रांति का" आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की अनुपम नवगीत कृति 
- इंजी. संतोष कुमार माथुर, लखनऊ 
*
एक कुशल अभियंता, मूर्धन्य साहित्यकार, निष्णात संपादक, प्रसिद्ध समीक्षक, कुशल छंदशास्त्री, समर्पित समाजसेवी पर्यावरणप्रेमी, वास्तुविद अर्थात बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी की नवीनतम पुस्तक "काल है संक्रांति का" पढ़ने का सुअवसर मिला। गीत-नवगीत का यह संग्रह अनेक दृष्टियों से अनुपम है।

'संक्रांति' का अर्थ है एक क्षेत्र, एक पद्धति अथवा एक व्यवस्था से दूसरे क्षेत्र, व्यवस्था अथवा पद्धति में पदार्पण। इंजी. सलिल की यह कृति सही अर्थों में संक्रांति की द्योतक है।
प्रथम संक्रांति- गीति
सामान्यत: किसी भी कविता संग्रह के आरम्भ में भूमिका के रूप में किसी विद्वान द्वारा कृति का मूल्यांकन एवं तदोपरांत रचनाकार का आत्म निवेदन अथवा कथन होता है। इस पुस्तक में इस प्रथा को छोड़कर नई प्रथा स्थापित करते हुए गद्य के स्थान पर पद्य रूप में कवि ने 'वंदन', 'स्मरण', 'समर्पण' और 'कथन' सम्मिलित करते हुए गीत / नवगीत के शिल्प और कथ्य के लक्षण इंगित किये हैं -
'नव्यता संप्रेषणों में जान भरती 
गेयता संवेदनों का गान करती 
कथ्य होता तथ्य का आधार खाँटा 
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती 
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
.
छंद से संबंध दिखता या न दिखता 
किंतु बन आरोह या अवरोह पलता' 
.
'स्मरण' के अंतर्गत सृष्टि आरम्भ से अब तक अपने पूर्व हुए सभी पूर्वजों को प्रणिपात कर सलिल धरती के हिंदी-धाम होने की कामना करने के साथ-साथ नवरचनाकारों को अपना स्वजन मानते हुए उनसे जुड़कर मार्गदर्शन करने का विचार व्यक्त करते हैं-

'मिटा दूरियाँ, गले लगाना 
नवरचनाकारों को ठानें 
कलश नहीं, आधार बन सकें 
भू हो हिंदी धाम'

'समर्पण' में सलिल जी ने यह संग्रह अनंत शक्ति स्वरूपा नारी के भगिनी रूप को समर्पित किया है। नारी शोषण की प्रवृत्ति को समाप्त कर नारी सशक्तिकरण के इस युग में यह प्रवृत्ति अभिनंदनीय है।
'बनीं अग्रजा या अनुजा तुम 
तुमने जीवन सरस बनाया 
अर्पित शब्द-सुमन स्वीकारे 
नेहिल नाता मन को भाया'

द्वितीय संक्रांति-विधा
बहुधा काव्य संग्रह या तो पारंपरिक छंदों में रचित 'गीत संग्रह' होता है, या नये छंदों में रचित 'नवगीत संग्रह' अथवा छंदहीन कविताओं का संग्रह होता है। इंजी. सलिल जी ने पुस्तक के शीर्षक के साथ ही गीत-नवगीत लिखकर एक नयी प्रथा में पदार्पण किया है कि गीत-नवगीत एक दूसरे से सर्वथा भिन्न नहीं, एक दूसरे के पूरक हैं और इसलिए एक घर में रहते पिता-पुत्र की तरह उन्हें एक संकलन में रखा जा सकता हैं। उनके इस कदम का भविष्य में अन्यों द्वारा अनुकरण होगा।
तृतीय संक्रांति- भाषा
एक संकलन में अपनी रचनाओं हेतु कवि बहुधा एक भाषा-रूप का चयन कर उसी में कविता रचते हैं। सलिल जी ने केवल 'खड़ी बोली' की रचनाएँ सम्मिलित न कर 'बुंदेली' तथा लोकगीतों के उपयुक्त देशज भाषा-रूप में रचित गीति रचनाएँ भी इस संकलन में सम्मिलित की हैं तथा तदनुसार ही छन्द-विधान का पालन किया है। यह एक नयी सोच और परंपरा की शुरुआत है। इस संग्रह की भाषा मुख्यत: सहज एवं समर्थ खड़ी बोली है जिसमें आवश्यकतानुसार उर्दू, अंग्रेजी एवं बुंदेली के बोलचाल में प्रचलित शब्दों का निस्संकोच समावेश किया गया है।
प्रयोग के रूप में पंजाब के दुल्ला भट्टी को याद करते हुई गाये जानेवाले लोकगीतों की तर्ज पीर 'सुंदरिये मुंदरिये होय' रचना सम्मिलित की गयी है। इसी प्रकार बुंदेली भाषा में भी तीन रचनाएँ जिसमें 'आल्हा' की तर्ज पर लिखी गयी रचना भी है, इस संग्रह में संग्रहीत हैं।
इस संग्रह में काव्यात्मक 'समर्पण' एवं 'कथन' को छोड़कर ६३ रचनाएँ हैं।यह एक सुखद संयोग ही है कि इस पुस्तक के प्रकाशन के समय कविवर सलिल जी की आयु भी ६३ वर्ष ही है।
चतुर्थ संक्रांति- विश्वात्म दृष्टि और विज्ञान
कवि ने आरम्भ में निराकार परात्पर परब्रम्ह का 'वन्दन' करते हुए महानाद के विस्फोट से व्युत्पन्न ध्वनि तरंगों के सम्मिलन-घर्षण के परिणामस्वरूप बने सूक्ष्म कणों से सृष्टि सृजन के वैज्ञानिक सत्य को इंगित कर उसे भारतीय दर्शन के अनुसार अनादि-अनंत, अक्षय-अक्षर कहते हुए सुख-दुःख के प्रति समभाव की कामना की है-
'आदि-अंत, क्षय-क्षर विहीन हे! 
असि-मसि, कलम-तूलिका हो तुम 
गैर न कोई सब अपने हैं-
काया में हैं आत्म सभी हम 
जन्म-मरण, यश-अपयश चक्रित 
छाया-माया, सुख-दुःख हो सम'

पंचम संक्रांति- छंद वैविध्य
कवि ने अपनी नवगीत रचनाओं में छन्द एवं लयबद्धता का विशेष ध्यान रखा है जिससे हर रचना में एक अविकल भाषिक प्रवाह परिलक्षित होता है। प्रचलित छन्दों यथा दोहा-सोरठा के अतिरिक्त कवि ने कतिपय कम प्रचलित छंदों में भी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। आचार्यत्व का निर्वहन करते हुए कवि ने जहाँ विशिष्ट छंदों का उपयोग किया है वहाँ जिज्ञासु पाठकों एवं छात्रों के हितार्थ उनका स्पष्ट उल्लेख भी रचना के अंत में नीचे कर दिया है। यथा महाभागवत जातीय सार छंद, हरिगीतिका छंद, आल्हा छंद, मात्रिक करुणाकर छंद, वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद आदि। कुछ रचनाओं में कवि ने एकाधिक छन्दों का प्रयोग कर अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया है। यथा एक रचना में मात्रिक करुणाकर तथा वार्णिक सुप्रतिष्ठा छंद दोनों के मानकों का पालन किया है जबकि दो अन्य रचनाओं में मुखड़े में दोहा तथा अंतरे में सोरठा छंद का समन्वय किया है।
विषयवस्तु-
विषय की दृष्टि से कवि की रचनाओं यथा 'इतिहास लिखें हम', 'मन्ज़िल आकर' एवं 'तुम बन्दूक चलाओ' में आशावादिता स्पष्ट परिलक्षित होती है।
'समाजवादी', 'अगले जनम', 'लोकतन्त्र का पंछी', 'ग्रंथि श्रेष्ठता की', 'जिम्मेदार नहीं हैं नेता' एवं 'सच की अर्थी' में व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। जीवन का कड़वा सच 'मिली दिहाड़ी' एवं 'वेश सन्त का' जैसी रचनाओं में भी उजागर हुआ है। 'राम बचाये' एवं 'हाथों में मोबाइल' रचनाएँ आधुनिक जीवनशैली पर कटाक्ष हैं। 'समर्पण' एवं 'काम तमाम' में नारी-प्रतिभा को उजागर किया गया है। कुछ रचनाओं यथा 'छोड़ो हाहाकार मियाँ', 'खों-खों करते' तथा 'लेटा हूँ' आदि में तीखे व्यंग्य बाण भी छोड़े गये हैं। सामयिक घटनाओं से प्रभावित होकर कवि ने 'ओबामा आते', पेशावर के नरपिशाच' एवं 'मैं लड़ूँगा' जैसी रचनाएँ भी लिपिबद्ध की हैं।
विषयवस्तु के संबंध में कवि की विलक्षण प्रतिभा का उदाहरण है एक ही विषय 'सूरज' पर लिखे सात तथा अन्य विषय 'नव वर्ष' पर रचित पाँच नवगीत। इस रचनाओं में यद्यपि एकरसता परिलक्षित नहीं होती तथापि लगातार एक ही विषय पर अनेक रचनाएँ पाठक को विषय की पुनरावृत्ति का अभ्यास अवश्य कराती हैं।
कुछ अन्य रचनाओं में भी शब्दों की पुरावृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उदाहरणार्थ पृष्ठ १८ पर 'उठो पाखी' के प्रथम छंद में 'शराफत' शब्द का प्रयोग खटकता है। पृष्ठ ४३ पर 'सिर्फ सच' की १० वीं व ११ वीं पंक्ति में 'फेंक दे' की पुनरावृत्ति छपाई की भूल है।
कुल मिलाकर कवि-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' का यह संग्रह अनेक प्रकार से सराहनीय है। ज्ञात हुआ है कि संग्रह की अनेक रचनाएँ अंतर्जाल पर बहुप्रशंसित और बहुचर्चित हो चुकी हैं। सलिल जी ने अंतरजाल पर हिंदी भाषा, व्याकरण और पिंगल के प्रसार-प्रचार और युवाओं में छन्द के प्रति आकर्षण जगाने की दिशा में सराहनीय प्रयास किया है। छन्द एवं विषय वैविध्य, प्रयोगधर्मिता, अभिनव प्रयोगात्मक गीतों-नवगीतों से सुसज्जित इस संग्रह 'काल है संक्रांति का' के प्रकाशन हेतु इंजी, कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' बधाई के पात्र हैं।
*****
समीक्षक सम्पर्क- अभियंता संतोष कुमार माथुर, कवि-गीतकार, सेवा निवृत्त मुख्य अभियंता, लखनऊ।

शुक्रवार, 24 मई 2019

साक्षात्कार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' से- ओमप्रकाश प्रजापति

साक्षात्कार के प्रश्न
 (१)    आप साहित्य की इस दुनिया में कैसे आए? कब से आए? क्या परिवार में कोई और सदस्य भी साहित्य सेवा से जुड़ा रहा है?
मैं बौद्धिक संपदा संपन्न कायस्थ परिवार में जन्मा हूँ। शैशव से ही माँ की लोरी के रूप में साहित्य मेरे व्यक्तित्व का अंश बना गया। पिताश्री स्व. राजबहादुर वर्मा, कारापाल (जेलर) के पद पर नियुक्त थे। बंगला ड्यूटी पर आनेवाले सिपाही, उनके परिवार जन और कैदी अलग-अलग प्रदेशों के ग्रामीण अंचल से होते थे। उनसे मुझे लोक भाषाओँ और लोक साहित्य निरंतर सुनने को मिलता था। अधिकारियों और विद्वज्जनों का आना-जाना लगा रहता था। उनसे हिंदी और अंगरेजी का शब्द ज्ञान होता गया। बचपन से तुकबंदी के रूप में काव्य सृजन आरम्भ हुआ। मेरी मातुश्री स्व. शांति देवी स्वयं भजन रचती-गाती थीं। अग्रजा आशा वर्मा हिंदी साहित्य की गंभीर अध्येता रहीं। उन्होंने प्राथमिक शालाओं में मेरे लिए व्याख्यान लिखे, कवितायेँ बोलना सिखाईं, जबकि वे स्वयं उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की श्रेष्ठ वक्ता थीं। माध्यमिक शाला में मुझे अग्रजवत सुरेश उपाध्याय जी गुरु के रूप में मिले। मुझे अपने जन्म दिन का प्रथम स्मरणीय उपहार उन्हीं से मिला वह था पराग, नंदन और चम्पक पत्रिकाओं के रूप में। तब मैं सेठ नन्हेलाल घासीराम उ. मा. विद्यालय होशंगाबाद में ७ वीं का छात्र था। मुझे अपने से वरिष्ठ छात्र राधेश्याम साकल्ले के सौजन्य से एक पुस्तक 'हिमालय के वीर' स्वाधीनता दिवस पर व्याख्यान प्रतियोगिता में प्राचार्य श्री गोपाल प्रसाद पाठक राष्ट्रपति पुरस्कृत शिक्षक पुरस्कारवत दी। यह १९६२ के भारत-चीन युद्ध के शहीदों की जीवनियाँ हैं जिन्हें श्यामलाल 'मधुप 'ने लिखा है। इस तरह साहित्यांगन में मेरा प्रवेश हुआ।  

(२)    आपको कब महसूस हुआ कि आपके भीतर कोई रचनाकार है?
सच कहूँ तो रचनाकर्म करते समय 'रचनाकार' जैसा गुरु गंभीर शब्द ही मुझे ज्ञात नहीं था। मेरे एक बाल मित्र रहे अनिल धूपर। वे सिविल सर्जन श्री हीरालाल धूपर के चिरंजीव थे। विद्यालय के निकट ही जिला चिकित्सालय था। हमारा दोपहर का भोजन एक साथ ही आता था और हम दोपहर को रोज साथ में भोजन करते थे। वह अंगरेजी में मेरी मदद करता था मैं गणित में उसकी। एक दिन कक्षा में किसी शरारत पर उसे एक चपत पड़ी। तब मेरे मुँह से अनायास निकला 
'सुन मेरे भाई / तूने ऊधम मचाई / तेरी हो गयी पिटाई / सुर्रू सर ने तुझे एक चपत लगाई' कह कर उसे एक और चपत जमाकर मैं भाग लिया। 
(३)    हर रचनाकार का कोई-न-कोई आदर्श होता है जिससे कि वह लिखने की प्रेरणा लेता है। आपका भी कोई आदर्श ज़रूर रहा होगा। आप का आदर्श कौन रहा है? और क्यों रहा है? क्या अब भी आप उसे अपना आदर्श मानते हैं या समय के बहाव के साथ आदर्श प्रतीकों में बदलाव आया है?
सुरेश उपाध्याय जी धर्मयुग में सहसंपादक होकर चले गए तो श्री सुरेंद्र कुमार मेहता ने मुझे पढ़ाया। वे भी सुकवि थे। मैं अपनी बड़ी बहिनों की हिंदी की किताबें पढ़ता रहता था। पिताजी भी साहित्य प्रेमी थे। उनके संकलन में कई सामाजिक पुस्तकें थीं, माँ के पास नाना (राय बहादुर माता प्रसाद सिन्हा 'रईस' ऑनरेरी मजिस्ट्रेट मैनपुरी उ. प्र. जो गाँधी जी के आह्वान पर त्यागपत्र देकर खिताब लौटाकर स्वतंत्रता सत्याग्रही हो गए थे) द्वारा दिया गया धार्मिक साहित्य था। हमें पाठ्यक्रम पढ़ने को कहा जाता। ये पुस्तकें हमें नहीं दी जाती थीं कि फाड़ दोगे। मैं लुक-छिपकर पढ़ लेता था। 
नौकरी लगने पर कल्याण, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, दिनमान, कादम्बिनी, नवनीत, हिंदी डाइजेस्ट और माधुरी मेरी प्रिय पत्रिकाएँ थीं। इनके कई वर्षों के अंक आज भी जिल्द कराए हुए मेरे संकलन में हैं। तुलसी, सूर. खुसरो, बिहारी, जायसी, स्वामी विवेकानंद, दयानन्द सरस्वती, देवकी नंदन खत्री, भारतेंदु, प्रसाद, राहुल सांकृत्यायन, महादेवी, सुभद्रा, निराला, माखनलाल, मैथिलीशरण, पंत, बच्चन, दिनकर, ऊँट बिलहरीवी, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ, बंकिम चंद्र, शरत चंद्र, बिमल मित्र, शंकर, प्रताप चंद्र 'चंदर', प्रेमचंद्र, शिवानी, यशपाल, अमृतलाल नागर, भगवतीचरण वर्मा, शिव वर्मा, वैशम्पायन, श्रीकृष्ण 'सरल', नवीन, देवेंद्र सत्यार्थी, रेणु, हरिशंकर परसाई, इलाचंद्र जोशी, रेणु, डॉ. रामकुमार वर्मा, जवाहरलाल नेहरू, गाँधी जी, सरदार पटेल, क. मा. मुंशी, लेनिन, गोर्की, पुश्किन, चेखव, सावरकर, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे, जे. कृष्णमूर्ति, रावी, ओशो, बलदेव प्रसाद मिश्र, वृन्दावन लाल वर्मा, नीरज, ,शौकत थानवी, फैज़, साहिर, शकील, अर्श, नियाज़, सामी, नूर, रही मासूम रज़ा, कृष्ण चंदर, नानक सिंह,  डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी, धर्मवीर भारती जी, डॉ. रामविलास शर्मा, डॉ. नगेंद्र, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, फैज़, साहिर, अर्श मलशियानी, जोश, शंकर, अनंत गोपाल शेवडेकर, शिवाजी सावंत, अम्बिका प्रसाद दिव्य, काका हाथरसी, ओमप्रकाश शर्मा, कर्नल रंजीत, स्वेड मार्टिन, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, गुरुदत्त, द्वारिका प्रसाद मिश्र, अंचल, अनंत गोपाल शेवड़े, कारंत, हरिशंकर परसाई, त्रिलोचन, नागार्जुन, कुमार विमल, काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, मन्नू भंडारी, आदि आदि को कई बरसों खूब पढ़ा। आदर्श तो तब से अब तक तुलसीदास ही हैं।  
(४)    आज के रचनाकारों की पीढ़ी में आप के आदर्श कौन हैं?
 मुझे स्व. भगवती प्रसाद देवपुरा से निरंतर कर्मरत रहने की प्रेरणा मिलती रही है। डॉ. किशोर काबरा, डॉ. चित्रा चतुर्वेदी, डॉ. रोहिताश्व अस्थाना, रामकुमार भ्रमर, चंद्रसेन विराट, नरेंद्र कोहली, डॉ. सुरेश कुमार वर्मा, डॉ. महेंद्र भटनागर, ज्ञान रंजन, नरेश सक्सेना, संतोष चौबे, अनंत, अशोक गीते, भगवत दुबे, शलभ, मधुकर अष्ठाना, निर्मल शुक्ल, यायावर, राम सेंगर, डॉ. इला घोष, डॉ. सुमन श्रीवास्तव, पूर्णिमा बर्मन, अशोक जमनानी, दयाराम पथिक, योगराज प्रभाकर, कांति शुक्ल, कांता रॉय आदि का सृजन मन भाता है। 
(५)    लेखन को आप स्वांतः-सुखाय कृत्य मानते हैं या सामाजिक परिवर्तन का माध्यम मानते हैं?
लेखन निरुद्देश्य हो तो विलासिता के अलावा कुछ नहीं है किन्तु वैचारिक प्रतिबद्धता लेखक को गुलाम बना देती है। लेखन एक सारस्वत साधना है जो मानसिक-आत्मिक विकास का कारक होती है, सामाजिक प्रभाव तो उसका उप उत्पाद है। 
(६)    जनमानस को प्रभावित करने के लिए आप साहित्य की किस विधा को ज्यादा सशक्त मानते हैं? गद्य को या पद्य को?
जनमानस विधा से नहीं कथ्य और शिल्प से प्रभावित होता है। कथा हो या कविता, या नाट्य विधा पाठक, श्रोता और दर्शक हर काल में खूब रहे हैं। प्रवचन हों या कवि सम्मेलन दोनों में भीड़ जुटती है। बोझिल विचारपरकता को जनगण नकार देता है।  
(७)    आज जो आपकी पहचान बन रही है उसमें आप एक छांदस रचनाकार के रूप में उभर रहे हैं। गीतमुक्तकग़ज़ल आप लिख रहे हैं। क्या आपने छंदमुक्त कविताएं भी लिखी हैं? अगर नहीं तो क्यों? क्या आप इस शैली को कम प्रभावी मानते हैं? या छंदमुक्त लिखने में आप अपने को असहज महसूस करते हैं?
मैं कुछ कहने के लिए लिखता हूँ। विचार ही न हो तो क्यों लिखा जाए? कथ्य अपना माध्यम खुद चुन लेता है। गद्य हो या पद्य, छांदस हो या अछांदस, लघुकथा हो या कहानी, लेख हो या निबंध यह पूर्व निर्धारित तभी होता है जब उस विधा की रचना या उस विषय की रचना भेजना हो। मैंने मुक्त छंद की कवितायेँ खूब लिखी हैं। दो कविता संकलन 'लोकतंत्र का मकबरा' व 'मीत मेरे' चर्चित भी हुए हैं। एक कविता का आनंद लें-
कौन कहता है 
कि चीता मर गया है?
हिंस्र वृत्ति 
जहाँ देखो बढ़ रही है,
धूर्तता 
किस्से नए नित गढ़ रही है। 
शक्ति के नाखून पैने 
चोट असहायों पे करते,
स्वाद लेकर रक्त पीते 
मारकर औरों को जीते। 
और तुम...?
और तुम कहते हो- 
'चीता मर गया है।'
नहीं वह तो आदमी की
खाल में कर घर गया है। 
कौन कहता है कि 
चीता मर गया है।  


(९)    क्या आप भी यह मानते हैं कि गीत विदा हो रहा है और ग़ज़ल तेज़ी से आगे आ रही है? क्या इसका कारण ग़ज़ल का अधिक संप्रेषणीय होना है? या फिर कोई और कारण आप समझते हैं?
गीत अमर है। गीत के मरने की घोषणा प्रगतिवादियों ने की, घोषणा करने वाले मर गए, गीत फल-फूल रहा है। ग़ज़ल गीत का ही एक प्रकार है। भारतीयों की मानसिकता अभी भी  स्वतंत्र चेता नहीं हो सकी है। सिन्दूर पुता पाषाण हो, अधिकारहीन पूर्व राजा हों या कोई अल्पज्ञ पुजारी हमें पैर छूने में एक क्षण नहीं लगता, भले ही घर में माता-पिता को सम्मान न दें। उर्दू और अंग्रेजी हमारे पूर्व मालिकों की भाषाएँ रही हैं। इसलिए उनके प्रति अंध मोह हैं। ग़ज़ल के तत्वों और विधान को जाने बिना, उसमें महारत पाए बिना तथाकथित गज़लकार कागज़ काले करते रहते हैं। जानकार ऐसी ग़ज़लों को ग़ज़ल ही नहीं मानते। गीतकार गीत को समझकर लिखता है इसलिए गीत के श्रोता और पाठक न घटे हैं, न घटेंगे। सजल, हज़ल, गीतिका, अनुगीत कितने भी नाम दे दें, वह हवा के झोंके की तरह आज है, कल नहीं। 
(९)    हिंदी के रचनाकार ग़ज़ल खूब लिख रहे हैं। उर्दू के शायर ग़ज़ल खूब कह रहे हैं। क्या यह सोच और नज़रिए का फर्क़ है? क्या आप हिंदी और उर्दू ग़ज़ल को अलग-अलग देखने के हामी है? अगर हाँ तो क्यों?
संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य से मुक्तक काव्य परंपरा हिंदी ने ग्रहण की है। मुक्तक में सभी पंक्तियाँ समान पदभार की होती है। पहली, दूसरी तथा चौथी पंक्ति का तुकांत-पदांत समान रखा जाता है जबकि तीसरी पंक्ति का भिन्न। तीसरी चौथी पंक्ति की तरह पंक्तियाँ बढ़ाने से मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) की रचना हो जाती है। यह शिल्प भारत से फारस में गया और उसे ग़ज़ल नाम मिला। संस्कृत छंदों के 'गण' यत्किंचित परिवर्तन कर 'रुक्न' बन दिए गए। आदिकवि वाल्मीकि और क्रौंच वध प्रसंग में नर क्रौंच के मारे जाने पर मादा क्रौंच के आर्तनाद की करुण कथा की नकल मृग-शिशु को शिकारी के तीर से मारे जाने पर मृगी के आर्तनाद का किस्सा गढ़कर की गई। 'गज़ाला चश्म' अर्थात मृगनयना रूपसियों से प्रेम वार्ता 'गज़ल' का अर्थ है। ग़ज़ल फ़ारसी की विधा है जो उर्दू ने ग्रहण की है। तथाकथित ग़ज़ल के विधान और व्याकरण फ़ारसी से आते हैं। फारसी जाने बिना ग़ज़ल 'कहना' बिना नींव का भवन खड़ा करने की तरह है। उर्दू एक भाषा नहीं, कुछ भाषाओँ से  लिये गए शब्दों के संकलन से बना भाषिक रूप मात्र है। उर्दू शब्द कोष में कोई शब्द उर्दू का नहीं है, हर शब्द किसी दूसरी भाषा से लिया गया है।  हम जानते हैं कि भाषा और छंद का जन्म लोक में होता है। वाचिक परंपरा में गद्य और पद्य 'कहा' जाता है। मानव संस्कृति के विकास के साथ कागज़, कलम और लिपि का विकास होने पर हिंदी में साहित्य गद्य हो या पद्य 'लिखा' जाने लगा। उर्दू में मौलिक चिंतन परंपरा न होने से वह अब भी 'कहने' की स्थिति में अटकी हुई है और 'गज़ल कही जा रही है जबकि सच यही है कि हर शायर कागज़-कलम से लिखता है, दुरुस्त करता है। 'लिखना' और 'कहना' किसी सोच और नज़रिए नहीं विकास और जड़ता के परिचायक हैं। 
हिंदी अपभ्रंश और संस्कृत से विरासत ग्रहण करती है, उर्दू फारसी से। फारसी स्वयं संस्कृत से ग्रहण करती है। जिस तरह एक माटी से उपजने पर भी दो भिन्न जाति के वृक्ष भिन्न होते हैं वैसे ही, एक मूल से होने के बाद भी फ़ारसी और हिंदी भिन्न-भिन्न हैं। दोनों की वर्णमाला, उच्चार व्यवस्था और व्याकरण भिन्न है। हिंदी वर्ण वर्ग की पंचम ध्वनि फ़ारसी में नहीं है। इसलिए फारसी में 'ब्राम्हण' को 'बिरहमन' लिखना-बोलना होता है जी हिंदी व्याकरण की दृष्टि से गलत है। फारसी की 'हे और 'हम्जा'  दो ध्वनियों के लिए हिंदी में एकमात्र ध्वनि 'ह' है। हिंदी का कवि 'ह' को लेकर पदांत-तुकांत बनाये तो हिंदी व्याकरण की दृष्टि से सही है पर 'हे' और 'हम्जा' होने पर उर्दूवाला गलत कहेगा। पदभार गणना पद्धति भी हिंदी और फारसी में भिन्न-भिन्न हैं। हिंदी में वर्ण के पूर्ण उच्चार के अनुसार पदभार होता है। उर्दू ने वर्णिक छंद परंपरा से लय को प्रधान मानते हुएगुरु को लघु और लघु को गुरु पढ़ने का चलन अपना लिया जो हिंदी के मात्रिक छंदों में नहीं है। इसलिए हिंदी ग़ज़ल या मुक्तिका उर्दू ग़ज़ल से कई मायनों में भिन्न है। उर्दू ग़ज़ल इश्किया शायरी है, हिंदी ग़ज़ल सामाजिक परिवर्तन की साक्षी है। भारतीय प्रभाव को ग्रहण कर उर्दू ग़ज़ल ने भी कथ्य को बदला है पर लिपि और व्याकरण-पिंगल के मामले में वह परिवर्तन को पचा नहीं पाती। यह भी एक सच है कि उर्दू शायरों की लोकप्रियता और आय दोनों हिंदी की दम पर है। सिर्फ उर्दू लिपि में छपें तो दिन में तारे नज़र आ जाएँ। हिंदी के बल पर जिन्दा रहने के बाद भी हिंदी के व्याकरण के अनुसार लिखित ग़ज़ल को गलत कहने की हिमाकत गलत है। 
(१०) आज लोग लेखन से इसलिए जुड़ रहे हैं क्योंकि यह एक प्रभावी विजिटिंग कार्ड की तरह काम आ जाता है और यशपुरस्कार विदेश यात्राओं के तमाम अवसर उसे इसके जरिए सहज उपलब्ध होने लगते हैं।
आज ही नहीं आदि से लेखन और कला को तपस्या और मन-रंजन माननेवाले दो तरह के रचनाकार रहे हैं। साहित्यकार को सम्मान नहीं मिलता। विचारधारा विशेष के प्रति प्रतिबद्ध साहित्यकार अपनी वैचारिक गुलामी के लिए सम्मानित किये जाते हैं तो धनदाता साहित्यकार सम्मान खरीदता है। सम्मान के लिए आवेदन करना ही साहित्यकार को प्रार्थी बना देता है। मैं न तो सम्मान के लिए धन देने के पक्ष में हूँ, न आवेदन करने के। सम्मान के लिए संपर्क किये जाने पर मेरा पहला प्रश्न यही होता है कि सम्मान क्यों करना चाहते हैं? यदि मेरे लिखे को पढ़ने के बाद सम्मान करें तो ही स्वीकारता हूँ। जिसने मुझे पढ़ा ही नहीं, मेरे काम को जानता ही नहीं वह सम्मान के नाम पर अपमान ही है। 
आजकल साहित्यकार लेखन को समय बिताने का माध्यम मान रहा है। बच्चों को धंधा सौंप चुके या सेवानिवृत्त हो चुके लोग, घर के दायित्व से बचनेवाली या बहुओं के आ जाने से अप्रासंगिक हो चुकी महिलायें जिन्हें धनाभाव नहीं है, बड़ी संख्या में लेखन में प्रवेश कर सम्मान हेतु लालायित रहती हैं। वे पैसे देकर प्रकाशित व सम्मानित होती हैं। उनका रचा साहित्य प्राय: सतही होता है पर महिला होने के नाते मुखपोथी (फेसबुक) आदि पर खूब सराहा जाता है। यह भी सत्य है कि अनेक गंभीर श्रेष्ठ महिला रचनाकार भी हैं।
(११) कवि सम्मेलनों के मंच पर तो लोग धन कमाने के लिए ही आते हैं। और वही उनकी आजन्म प्राथमिकता बनी रहती है। आज के संदर्भ में कवि सम्मेलनों को आप कितना प्रासंगिक मानते हैं? और क्यों?
जब 'सादा जीवन उच्च विचार' के आदर्श को हटाकर समाज विशेषकर बच्चों, किशोरों, तरुणों हुए युवाओं के सम्मुख 'मौज. मजा और मस्ती' को आदर्श के रूप में स्थापित कर दिया जाए तो कला बिकाऊ हो ही जाएगी। कवि सम्मलेन में गलाबाजी या अदायगी का चलन पहले भी था किंतु प्रबुद्ध श्रोता देवराज दिनेश, शेरजंग गर्ग, शमशेर बहादुर सिंह आदि से गंभीर रचनाएँ भी सुनते थे। आजकल फूहड़ता हुए भौंड़ापन कवि सम्मेलनों पर हावी है। 
कवि सम्मेलन सामाजिक परिवर्तन का बहुत प्रभावी अस्त्र है। सामाजिक समरसता, सहिष्णुता, समन्वय, सामंजस्य, शासकीय योजनाओं के प्रचार-प्रसार आदि के लिए दूरदर्शनी और अखबारी विज्ञापन के स्थान पर कविसम्मेलन का सहारा लिया जाए तो सकारात्मक परिणाम मिलेंगे।  
(१२) आज कागज़ के कवि और मंच के कवि दो अलग-अलग वर्ग में बँट गए हैं। क्या आप इस वर्गीकरण को उचित मानते हैं?
ऐसा वर्गीकरण कहा भले ही जाए किन्तु किया नहीं जा सकता। कवि सम्मेलन के आयोजक दलाल हो गए हैं। उन्हें स्तर से नहीं, कमाई से मतलब है। गुटबाजी हावी है। प्राय: कवि भाषा के व्याकरण और छंद के पिंगल से अनभिज्ञ हैं। यह समाज और साहित्य दोनों का दुर्भाग्य है कि सरस्वती पर लक्ष्मी हावी है। 
(१३) राजनैतिक दृष्टि से भी वाम और दक्षिण लेखकों-रचनाकारों के दो धड़े बन गए हैं। जिनमें कभी सहमति नहीं बनती क्या साहित्य के लिए यह उचित है?
साहित्य को उन्मुक्त और स्वतंत्र होना चाहिए। वैचारिक प्रतिबद्धता राजनीतिक पराधीनता के अलावा कुछ नहीं है। वाम और दक्षिण तो पाखण्ड और मुखौटा है। क्या किसी प्रगतिवादी साहित्यकार को मैथिलीशरण पुरस्कार लेने से मना करते देखा है? क्या कोई दक्षिण पंथी रचनाकर मुक्तिबोध पुरस्कार लेने से परहेज करता है? वैराग्यहीन मनचलोलुप जान कबीर सम्मान प् रहे हैं। अपने मुँह से मांग-मांगकर सम्मान करानेवाले खुद को ब्रम्हर्षि लिखकर पुज रहे हैं।  
साहित्य को अपने विषय, विधा और कथ्य के साथ न्याय करना चाहिए। कोई रचनाकार घनश्यामदास बिड़ला और लेनिन, गाँधी और सुभाष, दीवाली और ईद परस्पर विरोधी विषयों पर महाकाव्य या उपन्यास क्यों न लिखे? मैंने भजन, हम्द और प्रेयर तीनों लिखे हैं। मेरे पुस्तकालय में सेठ गोविंददास, सावरकर, लोहिया और कामरेड शिवदास घोष एक साथ रहते हैं। ऐसे विभाजन अपने-अपने स्वार्थ साधने के लिए ही किये जाते हैं। 
(१४) लेखन के लिए पुरस्कार की क्या उपयोगिता है? आजकल अनचीन्हें लोग गुमनाम लोगों को पुरस्कार देते रहते हैं इससे किसका भला होता हैरचनाकार का या पुरस्कार देनेवाले का? क्या यह लेखक में गलतफहमियाँ नहीं पैदा कर देता?
अर्थशास्त्र का नियम है कि बाजार माँग और पूर्ति के नियमों से संचालित होता है। अँधा बाँटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह कर देय। जब तक सुधी और समझदार संस्थाएँ और लोग सही साहित्यकार और रचना का चयन कर प्रकाशित-सम्मानित नहीं करते तब तक अवसरवादी हावी रहेंगे।  
(१५) सरकारों द्वारा साहित्य के प्रकाशन और पुरस्कार दिए जाने के संबंध में आपके क्या विचार है?
सरकार जनगण के प्रतिनिधियों से बनती और जनता द्वारा कर के रूप में दिए गए धन से संचालित होती हैं। समाज में श्रेष्ठ मूल्यों का विकास और सच्चरित्र नागरिकों के लिए उपादेय साहित्य का प्रकाशन और पुरस्करण सरकार करे यह सिद्धांतत: ठीक है किन्तु  व्यवहार में सरकारें निष्पक्ष न होकर दलीय आचरण कर अपने लोगों को पुरस्कृत करती हैं। अकादमियों की भी यही दशा है।  विश्वविद्यालय तक नेताओं और अधिकारियों को पालने  का जरिया बन गए हैं। इन्हें स्वतंत्र और प्रशासनिक-राजनैतिक प्रतिबद्धता से मुक्त किया जा सके तो बेहतर परिणाम दिखेंगे। लोकतंत्र में कुछ कार्य लोक को करना चाहिए। मैं और आप भी लोक हैं। हम और आप क्यों न एक साहित्यकार को उसके कार्य की मौलिकता और गुणवत्ता के आधार पर निष्पक्षता से हर साल व्यक्तिगत संसाधनों से पुरस्कृत करें? धीरे-धीरे यह पुरस्कार अपने आपमें स्थापित, प्रतिष्ठित और मानक बन जाएगा। 
(१६ )आपकी अभी तक कितनी कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं? और किन-किन विधाओं में? आप अपने को मूलतः क्या मानते हैं-गीतकार या ग़ज़लकार
मेरी १० पुस्तकें प्रकाशित हैं- १. कलम के देव भक्ति गीत संग्रह, २. लोकतंत्र का मक़बरा लंबी कवितायेँ, ३. मीत मेरे छोटी कवितायेँ, ४. काल है संक्रांति का गीत-नवगीत संग्रह, ५. सड़क पर गीत-नवगीत संग्रह, ६.जंगल में जनतंत्र लघुकथाएँ, ७. दिव्य गृह काव्यनुवादित खंड काव्य, सहलेखन ८. सौरभ:, ९. कुरुक्षेत्र गाथा खंड काव्य तथा १०. भूकंप के साथ जीना सीखें -लोकोपयोगी तकनीक। ४ पुस्तकें यंत्रस्थ हैं। 
मैंने हिंदी गद्य व् पद्य की लगभग सभी प्रमुख विधाओं में लेखन किया है। नाटक, उपन्यास तथा महाकाव्य पर काम करना शेष है। 
मैं मूलत: खुद को विद्यार्थी मानता हूँ।  नित्य प्रति पढ़ता-लिखता-सीखता हूँ। 
(१७) आप अभियंता हैं। क्या अपने व्यवसाय से जुड़ा लेखन भी अपने किया है? 
हाँ, मैं विभागीय यांत्रिकी कार्य प्राक्कलन बनाना, मापन-मूल्यांकन करना आदि १९७३ से हिंदी में करता रहा हूँ और इसके लिए तिरस्कार, उपेक्षा और दंड भी भोगा है। मैंने २५ तकनीकी लेख लिखे हैं जो प्रकाशित भी हुए हैं। 'वैश्वीकरण के निकष पर भारतीय यांत्रिकी संरचनाएं' शीर्षक लेख को इंस्टीयूशन ऑफ़ इंजीनियर्स कोलकाता द्वारा २०१८ में राष्ट्रीय स्तर पर द्वितीय श्रेष्ठ आलेख का पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति जी के करकमलों से प्राप्त हुआ। मैंने अभियांत्रिकी विषयों को हिंदी माध्यम से पढ़ाया भी है। मैंने अभियांत्रिकी पत्रिकाओं तथा स्मारिकाओं का हिंदी में संपादन भी किया है।  
(१८) आप संपादन कार्य से कब और कैसे जुड़े? संपादन के क्षेत्र में क्या-क्या कार्य किया? 
जब मैं शालेय छात्र था तभी गुरुवर सुरेश उपाध्याय जी धर्मयुग में उपसंपादक होकर गए तो यह विचार मन में पैठ गया कि संपादन एक श्रेष्ठ कार्य है। पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन हेतु १९७२ में डिप्लोमा सिविल इंजीनियरिंग करने के बाद मैं फरवरी १९७३ में मध्य प्रदेश लोक निर्माण विभाग में उप अभियंता हो गया किन्तु आगे पढ़ने और बढ़ने का मन था। नौकरी करते हुए मैंने  १९७४ में विशारद, १९७६ में बी. ए., १९७८ में एम. ए. अर्थशास्त्र, १९८८० में विधि-स्नातक, १९८१ में स्नातकोत्तर डिप्लोमा पत्रकारिता, १९८३ में एम. ए. दर्शन शास्त्र, १९८५ में बी.ई. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। १९८० से १९९५ तक सामाजिक पत्रिका चित्राशीष,  १९८२ से १९८७ तक मध्य प्रदेश डिप्लोमा इंजीनियर्स संघ की मासिक पत्रिका, १९८६ से १९९० तक तकनीकी पत्रिका यांत्रिकी समय, १९९६ से १९९८ तक इंजीनियर्स टाइम्स, १९८८ से १९९० तक अखिल भारतीय डिप्लोमा इंजीनियर्स जर्नल तथा २००२ से २००८ तक साहित्यिक पत्रिका नर्मदा का मानद संपादन मैंने किया है। इसके अतिरिक्त १९ स्मारिकाओं, १४ साहित्यिक पुस्तकों का संपादन किया है। 
(१९) आपने सिविल इंजीनियरिंग के साथ कुछ और तकनीकी कार्य भी किया है? 
हाँ, मैंने वास्तु शास्त्र का भी अध्ययन किया है। वर्ष २००२ में जबलपुर अखिल भारतीय वास्तुशास्त्र सम्मलेन की स्मारिका 'वास्तुदीप' का संपादन किया इसका विमोचन सरसंघचालक श्री कूप. श्री सुदर्शन जी, राज्यपाल मध्य प्रदेश भाई महावीर तथा महापौर जबलपुर इं. विश्वनाथ दुबे जी ने किया था। अभियंता दिवस स्मारिकाओं, इंडियन जिओटेक्नीकल सोसायटी जबलपुर चैप्टर की स्मारिकाओं तथा इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स की राष्ट्रीय तकनीकी हिंदी पत्रिका अभियंता बंधु का संपादन मैंने किया है। जटिल तकनीकी विषयों को हिंदी भाषा में सरलता पूर्वक प्रस्तुत करने के प्रति मैं सचेत रहा हूँ। 
(२०) आप अंतरजाल पर छंद लेखन की दिशा में भी सक्रिय रहे हैं। अभियंता होते हुए भी आप यह कार्य कैसे कर सके? 
वर्ष १९९४ में सड़क दुर्घटना के पश्चात् अस्थि शल्य क्रिया में शल्यज्ञ की असावधानी के कारण मुझे अपने बायें पैर के कूल्हे का जोड़ निकलवा देना पड़ा। कई महीनों तक शैयाशायी रहने के पश्चात् चल सका। अभियंता के नाते मेरा कैरियर समापन की ओर था। निराशा के उस दौर में दर्शन शास्त्र की गुरु डॉ. छाया रॉय ने मनोबल बढ़ाया और मैंने कंप्यूटर एप्लिकेशन का प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम किया। अंतरजाल तब नया-नया ही था। मैंने हिन्दयुग्म दिल्ली के पटल पर लगभग ३ वर्ष तक हिंदी छंद शिक्षण किया। तत्पश्चात साहित्य शिल्पी पर २ वर्ष तक ८० से अधिक अलंकारों की लेखमाला पूर्ण हुई। साहित्य शिल्पी पर छंद शिक्षण का कार्य किया। भारत और विदेशों में सैकड़ों साहित्य प्रेमियों ने छंद लेखन सीखा। छंद शास्त्र के अध्ययन से विदित हुआ की इस दिशा में शोध और नव लेखन का काम नहीं हुआ है। हिंदी के अधिकांश शिक्षा और प्राध्यापक अंग्रेजी प्रेमी और छंद विधान से अनभिज्ञ हैं। नई पीढ़ी को छंद ज्ञान मिला ही नहीं है। तब मैंने अंतरजाल पर दिव्यनर्मदा पत्रिका, ब्लॉग, ऑरकुट, मुखपोथी (फेसबुक), वाट्स ऐप समूह 'अभियान' आदि के माध्यम से साहित्य और पिङग्ल सीखने का क्रम आगे बढ़ाया। हिंदी में आज तक छंद कोष नहीं बना है। मैं लगभग ढाई दशक से इस कार्य में जुटा हूँ। पारम्परिक रूप से २० प्रकार के सवैये उपलब्ध हैं. मैं २५० प्रकार के सवैये बना चुका हूँ। छंद-प्रभाकर में भानु जी ने ७१५ छंद दिए हैं। मेरा प्रयास छंद कोष में १५०० छंद देने का है। प्रभु चित्रगुप्त जी और माँ सरस्वती की कृपा से यह महत्कार्य २०२० में पूर्ण करने की योजना है।  
(२१) आप पर्यावरण सुधार के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे हैं?
समन्वय तथा अभियान संस्था के माध्यम से हमने जबलपुर नगर में पौधारोपण, बाल शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा, महिला शिक्षा, कचरा निस्तारण, व्यर्थ पदार्थों के पुनरुपयोग, नर्मदा नदी शुद्धिकरण, जल संरक्षण आदि क्षेत्रों में यथासंभव योगदान किया है।  
(२२) आप अभियंता हैं। क्या आपका तकनीकी ज्ञान कभी समाज सेवा का माध्यम बना ?
शासकीय सेवा में रहते हुए लगभग ४ दशकों तक मैंने भवन, सड़क, सेतु आदि के निर्माण तथा संधारण में योगदान किया है। जबलपुर में भूकंप आने पर पद्मश्री आनंद स्वरुप आर्य में मार्गदर्शन में भूकंपरोधी भवन निर्माण तथा क्षतिग्रस्त भवन की मरम्मत के कार्य में योगदान किया। निकट के गाँवों में जा-जाकर अपने संसाधनों से मैंने कच्चे मकानों और झोपड़ियों को लोहा-सीमेंट के बिना भूकंप से सुरक्षित बनाने की तकनीकी जानकारी ग्रामवासियों को दी। 'भूकंप  जीना सींखें' पुस्तिका की १००० प्रतियाँ गाँवों में निशुल्क वितरित की। मिस्त्री, बढ़ई आदि को मरम्मत की प्रविधियाँ समझाईं। नर्मदा घाट पर स्नानोपरांत महिलाओं के वस्त्र बदलने के लिए स्नानागार बनवाने, गरीब जनों को वनों और गाँवों में प्राप्त सामग्री का प्रयोग कर सुरक्षित मकान बनाने की तकनीक दी। झोपड़ी-झुग्गी वासियों को पॉलिथीन की खाली थैलियों और पुरानी साड़ियों, चादरों आदि को काटकर उसके पट्टियों को ऊन की तरह बुनकर उससे आसन, दरी, चटाई, परदा आदि बनाने की कला सीखने, गाजर घास और बेशरम जैसे खरपतवार को नष्ट कर चर्म रोगों से बचने का तरीक सीखने, तेरहीं भोज की कुप्रथा समाप्त करने, दहेज़ रहित आदर्श सामूहिक विवाह करने, पुस्तक मेला का आयोजन करने आदि-आदि अनेक कार्य मैंने समय-समय पर करता रहा हूँ।   
(२३)लेखन संबंधी आपकी भविष्य की क्या योजनाएं हैं?
हम विविध संस्थाओं के माध्यम से तकनीकी शिक्षा का माध्यम हिंदी बनवाने के लिए सक्रिय रहे हैं। इसमें कुछ सफलता मिली है, कुछ कार्य शेष है। इंस्टीट्यूशन ऑफ़ इंजीनियर्स प्रति वर्ष एक पत्रिका तकनीकी विषयों पर हिंदी में राष्ट्रीय स्तर पर निकाल रहा है। परीक्षा का माध्यम हिंदी भी हो गया है। शासकीय पॉलीटेक्निक में इंजीनियरिंग का डिप्लोमा पाठ्यक्रम हिंदी में पढ़ाया जाने लगा है। बी.ई. तथा एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई हिंदी में कराने का प्रयास है। इसमें आप का सहयोग भी चाहिए। हिंदी को विश्ववाणी बनाने की दिशा में यह कदम आवश्यक है। मध्य प्रदेश की तरह उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, राजस्थान आदि में इंजीनियरिंग, चिकित्सा तथा चिकित्सा की पढ़ाई व् परीक्षाएँ हिंदी में हों, इसके लिए प्रयास करें। 
मैं इस वर्ष सवैया कोष, लघुकथा संग्रह, गीत-नवगीत संग्रह, दोहा संग्रह तथा अगले वर्ष दोहा, लघुकथा, हाइकू, मुक्तक, मुक्तिका तथा गीत-नवगीत के संकलन प्रकाशित करने के विचार में हूँ। 
(२४) आज हिंदी भाषा बाजारवाद की चुनौतियों को झेल रही है। उसका रूप भी बदल रहा है। आप इसे विकृति मानते हैं या समय की जरूरत?
वसुधैव कुटुम्बकम और विश्वैक नीड़म की सनातन भारतीय मान्यता अब ग्लोबलाइजेशन हो गयी है। इसके दो पहलू हैं। हमें जिस देश में व्यापार करना है उसकी भाषा सीखनी होगी और जिस देश को भारत का बाजार चाहिए उसे हिंदी सीखना होगी। विदेशों में प्रति वर्ष २-३ विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षण विभाग खुल रहे हैं। हमें अपने उन युवाओं को जो विदेश जाना चाहते हैं उनकी स्नातक शिक्षा के साथ उस देश की भाषा सिखाने की व्यवस्था करना चाहिए। इसी तरह जो विद्यार्थी विदेश से भारत में आते हैं उन्हें पहले हिंदी सिखाना चाहिए। 
(२५) समकालीन रचनाकारों में आप किन्हें महत्वपूर्ण मानते हैं?
हर रचनाकार जो समाज से जुड़कर समाज के लिए लिखता है, महत्वपूर्ण होता है। अगंभीर किस्म के जो रचनाकार हर विधा में टूटा-फूटा लिखकर, ले-देकर सम्मानित हो रहे हैं, वे ही भाषा और साहित्य की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं। हालत यह है कि लिखनेवाले कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ रहे हैं, पढ़नेवालों का अकाल हो रहा है। 
(२६) पत्रकारिता और साहित्य में कभी घनिष्ठ संबंध रहा करता था। अच्छा साहित्यकार ही संपादक होता था। आज जो संपादक होता है लोग उसका नाम तक नहीं जानते। यह स्थिति क्यों आई?
पत्रकारिता अब सेवा या साधन नहीं पेशा हो गयी है। अब गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, रघुवीर सहाय, बांकेबिहारी भटनागर, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, कमलेश्वर, धर्मवीर भारती जैसे पत्रकार कहाँ हैं? अति व्यावसायिकता, राजनीति का अत्यधिक हस्तक्षेप तथा पत्रकारों में येन-केन-प्रकारेण धनार्जन की लालसा ही पत्रकारों की दुर्दशा का कारण है। अंतर्जालीय पत्रकारिता सनसनी और टीआरपी को सर्वस्व समझ रही है, पाठक-दर्शक का उसके लिए कोई महत्व नहीं है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की यह दुर्दशा चिंतानीय है। जब तक समाज और देश की सेवा की भावना को लेकर कुछ छोटे-छोटे समूह पत्रकारिता को पवित्रता के साथ नहीं करेंगे सुधार नहीं होगा।   
(२७) लेखन के माध्यम से आप समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं?
वर्तमान परिवेश में सबसे अधिक आवश्यक कार्य ईमानदारी और श्रम की प्रतिष्ठा करना है। सरकारें और पत्रकारिता अपनी विश्वसनीयता गँवा चुकी हैं। न्यायालय पर भी छींटे पड़े हैं। धार्मिक-सामाजिक क्षेत्र में या तो अंध विश्वास है या अविश्वास। सेना ही एकमात्र प्रतिष्ठान है जो अपेक्षाकृत रूप से कम संदेह में है। लेखन का एक ही उद्देश्य है समाज में विश्वास का दीपक जलाये रखना। 'अप्प दीपो भव' और 'तत्तु समन्वयात' के बुद्ध सूत्र  हम सबके लिए आवश्यक हैं। मेरे लेखन का यही सन्देश और उद्देश्य है 'जागते रहो' 
****